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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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वासुदेव व ऋषि आदि सिद्ध हैं। अतः नास्तिकवादियों का यह सारा कथन असत्यपूर्ण है।
स्वभाववादियों को असत्यवादिता-स्वभाववादियों का यह कथन भी असत्य है कि दुनिया की सभी विविधताएं या विचित्रताएं स्वाभाविक हैं । कर्मों के निमित्त से उत्पन्न नहीं हैं । यहाँ प्रश्न उठता है कि वह स्वभाव जीव आदि पदार्थों से भिन्न है या अभिन्न ? यदि वह जीवादि से भिन्न है, तब तो विविध शुभाशुभ क्रियाओं से उत्पन्न कर्म ही सिद्ध होता है। यदि उसे जीवादि पदार्थों से अभिन्न मानते हैं तब तो वह जीवादि-स्वरूप ही हुआ। अतः जीव आदि पदार्थों से भिन्न कोई स्वभाव सिद्ध नहीं होता । स्वभाववादियों के मत से मोर के शरीर पर रंगबिरंगी विचित्रता आदि अकारण ही सिद्ध नहीं होती। क्योंकि कोई भी कार्य बिना कारण के नहीं हो सकता। विचित्रतारूप कार्य भी मोर के पूर्वकृत कर्मों के कारण हुआ है। अगर बिना कारण के कार्य का होना माना जाय तब तो वन्ध्या के पुत्र और आकाश के फूल भी हो जाने चाहिए । अतः स्वभाववाद अनेक दोषों से युक्त होने से असत्य है।
नियतिवादियों की असत्यता–नियतिवादियों का यह कथन भी मिथ्या है कि सभी कार्य नियति-होनहार के बल से होते हैं, पुरुषार्थ करना निष्फल है। यदि मनुष्य होनहार के भरोसे हाथ पर हाथ धर कर बैठा रहे तो वह भूखों मर जायगा। पुरुषार्थ से ही सब काम सिद्ध होते हैं । किसान समय पर भूमि को जोते नहीं एवं बीज नहीं बोए तो क्या उसे नियति अनाज दे देगी ? कदापि नहीं देगी। उद्योगी विद्यार्थी अध्ययन करके प्रखर विद्वान् बन जाते हैं, जबकि होनहार के भरोसे आलसी बन कर बैठे रहने वाले मूर्ख ही रहते हैं। इसलिए पुरुषार्थ का परिणाम तो सर्वत्र प्रत्यक्ष देखा जा सकता है, दिखाई दे रहा है, अतः इसे निष्फल बताना मिथ्या है।
__काल और मृत्यु का निषेध भी असत्यकथन है—काल और मृत्यु दोनों कुछ नहीं हैं, इस प्रकार का नास्तिकवादियों का कथन भी असत्यप्रलाप है। क्योंकि काल और मृत्यु दोनों प्रमाण से सिद्ध होते हैं। संसार में जितने भी कार्य होते हैं, उनके उपादानकारण के सिवाय प्रधान और अप्रधान दो निमित्तकारण भी होते हैं । जैसे घड़े का प्रधान निमित्तकारण कुम्हार और अप्रधान निमित्तिकारण मिट्टी ढोने वाला गधा आदि है, वैसे ही संतानोत्पत्ति में प्रधान निमित्तकारण स्त्री-पुरुष-संयोग होने पर भी अप्रधान निर्मित्तकारण काल की अपेक्षा रहती है। कई वनस्पतियों को जल आदि का निमित्त मिलने पर भी ऊगने और फलने-फूलने के लिए काल की अपेक्षा रहती है । अतः सिद्ध हुआ कि काल एक स्वतंत्र द्रव्य है। बालक, युवक, वृद्ध आदि अवस्थाएं भी कालकृत ही हैं । नूतन और पुरातन पर्यायों की सिद्धि भी काल को माने बिना नहीं हो सकती । ऋतुओं का अपने-अपने समय पर ही कार्य करना काल