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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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लौट कर नहीं आता ! अरी ! धर्मभीरु ! डर मत । यह शरीर तो सिर्फ पंचभूतों का पुतला है । इसके सिवाय आत्मा नाम की कोई चीज नहीं है । न नरक है, न स्वर्ग है, न कहीं जाना है, न आना है । फिर चिन्ता और भीति किस बात की ?
नास्तिकवादियों मत की असत्यता — सर्वप्रथम तो नास्तिकवादियों की दानादि पुण्यकर्म और अहिंसादि या त्याग प्रत्याख्यान वगैरह धर्म के अभाव की कल्पना ही निर्मूल है। क्योंकि संसार की या समाज की सुव्यवस्था, मानवसमाज के विकास, सुसंस्कारों की वृद्धि आदि के लिए तथा अपने जीवन को भौतिकता से ऊपर उठा कर आध्यात्मिकता की भूमिका पर लाने के लिए इन सब वस्तुओं को माने बिना कोई चारा नहीं । धर्म, ईश्वर को न मानने वाले वर्तमानकालिक साम्यवादी भी राष्ट्र Satara for धर्म-पुण्य के उपर्युक्त सब अंगों का जनता में होना अनिवार्य मानते हैं । जैसे शासनव्यवस्था में दण्ड की अनिवार्य आवश्यकता रहती है, उसके बिना अराजकता और आपाधापी ही फैलती है; जो सारी सृष्टि या राष्ट्र की सुव्यवस्था के लिए खतरनाक है । वैसे ही धार्मिक जगत् में भी अगर सबको चोरी, व्यभिचार आदि पापों के करने की छूट दे दी जाय और उसका कोई भी दण्ड न मिले तो मनुष्य दानव, राक्षस और पशु बन जायगा । समाज में किसी प्रकार की सुव्यवस्था नहीं रहेगी । इसलिए यहाँ भी दण्डव्यवस्था जरूरी है । वह भयंकर पापकर्म करने वालों के लिए नरक - तिर्यञ्च - योनि में गमन के रूप में है । और अच्छे कार्य करने वालों को पारितोषिक के रूप में स्वर्ग या मनुष्यलोक की प्राप्ति है । जो निःस्वार्थ भाव से आत्मशुद्धि के लिए त्याग, तप, संयम आदि का पालन करता है, वह सम्पूर्ण कर्मक्षय हो जाने पर सिद्धगति भी पाता है; यह केवल कपोलकल्पना नहीं, किन्तु एक अनिवार्य और ज्वलन्त तथ्य है । इसलिए त्याग - तप आदि तथा पुण्य-पाप, धर्माधर्म के फल, चार गतियों में गमन, मोक्ष आदि तथ्यों को झुठलाया नहीं जा सकता ।
त्याग, तपस्या का फल इस लोक में मानव की प्रतिष्ठा, प्रशंसा, पूजनीयता तथा शारीरिक व मानसिक शान्ति के रूप में प्रत्यक्ष सिद्ध है । त्यागी महात्माओं के चरणों में राजा, महाराजा और चक्रवर्ती आदि भी नतमस्तक होते हैं और अपने को धन्य मानते हैं । परलोक में जाते समय भी त्यागी आत्मा के चेहरे पर प्रसन्नता होती है, और वहाँ भी अपने त्याग-तृप का वह फल प्राप्त करता है । किन्तु जो व्यक्ति हिंसा, असत्य आदि पापाचरण में रत रहता है, उसकी आत्मा यहाँ भी सदा संक्लिष्ट रहती है, समाज में भी वह निन्दित और घृणित होता है, उसे हिकारतभरी दृष्टि से देखा जाता है । पापकर्मों और विषयों में आसक्त मनुष्य की इस लोक में कोई प्रशंसा या प्रतिष्ठा
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