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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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' अधन्ना ते वि य दीसंति पायसो विकयविगलरूवा....' सावसेसकम्मा उवट्टा समाणा।' मूलार्थ में हम इसे स्पष्ट कर आए हैं। इसका निष्कर्ष यह है कि मनुष्य जन्म पाकर भी वे प्रायः रोग, शोक, दुःख, दारिद्रय, विकलांगता, दुर्बलता, मूर्खता आदि-आदि अनेक दुःखों से घिरे रहते हैं। मनुष्य जन्म पाकर भी ऐसे जीव प्रायः सद्बोध नहीं प्राप्त कर सकते । वे एक के बाद एक दुःख का अन्त करने में ही सतत लगे रहते हैं और इसी उधेड़ बुन में अपनी सारी जिंदगी पूरी कर देते हैं। इसीलिए मनुष्यजन्म पाने से भी उन्हें कोई लाभ नहीं होता। पूर्वकृत अशुभ कर्मों में से शेष बचे हुए कर्मों का फल भोगने में ही सारी जिंदगी व्यतीत हो जाती है । वह मनुष्यजन्म में नये अशुभ कर्मों को रोक नहीं पाता; क्योंकि अज्ञान और मोह का इतना घना अंधेरा उसके मन और बुद्धि पर छाया रहता है कि वह नवीन अशुभ कर्मों को आने से रोकने के बजाय और अधिक कर्मदल इकट्ठे कर लेता है। उसे शरीर भी इतना सबल और मनोबलशाली नहीं मिलता कि वह तपश्चर्या करके तथा ज्ञान, दर्शन और चारित्र की उत्साहपूर्वक निर्मल आराधना करके अपने जीवन में पूर्व उपार्जित कर्मों को सर्वथा क्षय कर सके और नवीन कर्मों के प्रवाह को रोक सके। यही. कारण है कि फिर वह अपने लिए जन्म-मरण के चक्र में परिभ्रमण करने की सामग्री जुटा लेता है और बरबस फिर से उसकी अनन्त जन्म-मरण की यात्रा शुरू हो जाती है । इसीलिए शास्त्रकार आगे स्पष्ट कहते हैं-"एवं णरगं तिरिक्खजोणिं कुमाणुसत्तं च हिंडमाणा पावंति अणंताई दुक्खाइं पावकारी।" अर्थात् वे हिंसादि पापकर्म करने वाले इस (पूर्वोक्त) प्रकार से नरकों में, तिर्यञ्चयोनियों में और कुमनुष्यपर्याय में चक्कर लगाते हुए अनन्त दुःखों को पाते रहते हैं।
'प्रायशः' शब्द का स्पष्टीकरण मनुष्यपर्याय को पाने वाले जीवों में से कछ ऐसे भी होते है; जो नरक से निकल कर सीधे मनुष्यपर्याय में तीर्थङ्कर, केवलज्ञानी, मुनिव्रतधारी, श्रावकव्रती, या सम्यक्त्वी होते हैं; वे मनुष्यपर्याय में दुर्भाग्य के शिकार नहीं होते और जिस प्रकार की कुमनुष्यत्वप्राप्ति का शास्त्रकार ने चित्रण किया है, उस प्रकार की स्थिति से कहीं अधिक अच्छी स्थिति वे प्राप्त करते हैं। इसीलिए शास्त्रकार ने मूलपाठ में स्पष्ट कर दिया है-'ते वि य दीसंति पायसो विकयविगलरूवा ...... ।' इस 'पायसो' शब्द से यह स्पष्ट हो गया कि नरक से आकर मनुष्य पर्याय प्राप्त करने वालों में तीर्थंकरादि कुछ आत्मा इसके अपवाद हैं, जो अंधे, लंगडे, अपाहिज, रोगी, दुर्बल, निर्धन आदि भाग्यहीनता से ग्रस्त नहीं होते।
___ कर्मफल भोगे बिना छुटकारा नहीं-कोई भी कर्म हो, वह अपना फल अवश्य देता है । हिंसा आदि दुष्कर्मों से रौद्र आदि परिणाम होते हैं और रौद्र आदि परिणामों से निकाचित रूप से कर्मबन्ध होता है,जिसे भोगे बिना कोई छुटकारा नहीं । वे तीर्थंकर