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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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प्रयोजनों व प्रकारों का बारीकी से विशद निरूपण कर दिया है । साथ ही इस सूत्रपाठ में यह भी ध्वनित कर दिया कि कोई व्यक्ति चाहे बाह्यरूप से सत्य ही बोल रहा हो, किन्तु उस सत्यवचन के पीछे किसी के मन, वचन, काया या प्राणों को ठेस पहुंचाने, हानि पहुंचाने, पीड़ा देने, वध करने या नाश करने की वृत्ति हो अथवा उसके उक्त वचन से जगत् गुमराह होता हो, अधर्म और हिंसा आदि कुकर्मों के रास्ते चल पड़ता हो ; जगत् के प्राणिवर्ग का अहित होता हो तो वह वचन असत्य ही है । इस प्रकार विभिन्न कोटि के लोगों द्वारा असत्य का सेवन किस-किस रूप में किया जाता है ? इस बात को प्रस्तुत सूत्रपाठ में शास्त्रकार ने स्पष्ट कर
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दिया है ।
' के ' - शास्त्रकार संसार के सभी व्यक्तियों को असत्यवादी की कोटि में नहीं मानते ; क्योंकि वे स्वयं पूर्ण सत्य महाव्रती हैं, इसलिए दूसरों के प्रति वे ऐसा अन्याय कैसे कर सकते हैं ? या सरासर असत्य कैसे कह सकते हैं ? यही कारण है कि प्रस्तुत मूलपाठ में उन्होंने 'केइ' पद से इसका पृथक्करण किया है कि संसार के सभी प्राणी या सभी मानव असत्य नहीं बोलते । जो पंचमहाव्रतधारी साधु, ऋषि, मुनि या श्रमण हैं, वे मृषाभाषण के सर्वथा त्यागी होते हैं; वे वचन से तो क्या, मन से भी असत्यभाषण का या असत्य वस्तु का चिन्तन नहीं करते । इस कोटि के जो भी मानव हैं, वे असत्यभाषी नहीं होते । इसके पश्चात् गृहस्थ श्रमणोपासक या श्रावक भी स्थूल असत्य के त्यागी होते हैं वे भी ऐसा वचन नहीं बोलते, ऐसे उद्गार नहीं निकालते ; जिससे सरकार द्वारा दण्डित हों, समाज में निन्दित हों, अनर्थ की की सम्भावना हो, व्यवहार बिगड़ जाय, प्राणियों के घात की सम्भावना हो, उनके मन में संताप पैदा हो या आपस में सिरफुटौव्वल हो । गृहस्थधर्मी श्रावक भी वचन को तौल कर, दीर्घदृष्टि से विचार कर किसी का अहित न हो, इस प्रकार से बोलते हैं; ऐसे धर्मिष्ठ श्रावक के सभी कार्य सत्यता से युक्त होते हैं । इसलिए शास्त्रकार ने 'केइ' पद द्वारा उन्हीं लोगों की ओर इशारा किया है; जो अमुक-अमुक प्रकार से असत्य बोलते हैं !
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व्यवहार में असत्य बोलने वाले - इस सूत्रपाठ में सर्वप्रथम व्यवहार में असत्य बोलने वालों के नाम गिनाए हैं। चूंकि व्यवहार प्रत्यक्ष और स्पष्ट होता है; इसलिए व्यवहार में असत्य बोलने वाले व्यक्ति को प्रत्येक धर्म और दर्शन वाले असत्यभाषी ही मानते हैं । इसमें किसी को भी शंका उठाने की आवश्यकता नहीं होती। वैसे तो मूलार्थ में इन सबका अर्थ किया जा चुका है, फिर भी संक्षेप में इन पर थोड़ाथोड़ा प्रकाश डाला जाना उचित समझते हैं—
पावा- जो रातदिन हिंसा आदि पापकर्मों में रत रहते हैं, उनका सत्य बोलना बहुत ही कठिन है । यदि वे वस्तुस्थिति को ज्यों की त्यों कह दें, तो भी वे