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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
१८५ नहीं है । वास्तव में सारा जगत् पञ्चमहाभूतमय है। क्योंकि इसमें पृथ्वी कठोरताकठिनता-गुणवाली है, पानी बहने के स्वभाव वाला तरल है, अग्नि (तेज) उष्णस्वभाव वाली है । वायु निरन्तर चलने के स्वभाव वाली है और पोल-स्वरूप आकाश है, जो सबको अवकाश देता है। शरीर भी पञ्चमहाभूतमय है, इससे भिन्न और कोई वस्तु इसमें नहीं है । 'वातजोगजुत्तं भासंति' इस पद के द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि शरीर से भिन्न कोई चैतन्य नहीं है। यह पंचमहाभूतात्मक शरीर ही प्राणवायु के संयोग से चलता फिरता है और अनेक प्रकार की क्रियाएँ करता है। प्रत्यक्षप्रमाण से यह पंचमहाभूतरूप शरीर ही सिद्ध होता है। इसके सिवाय दूसरे किसी पदार्थ की प्रत्यक्ष प्रतीति न होने से उसका अभाव है । पंचमहाभूतों में जो चैतन्य दिखाई देता है, वह शरीर का आकार धारण किये हुए महाभूतों से उत्पन्न हुआ है । जैसे महुआ आदि मद्य पैदा करने वाले पदार्थों (अंगों) के मिलने पर मद्य में मदशक्ति पैदा हो जाती है, वैसे ही शरीर में पंचमहाभूतों के मिलने पर चैतन्यशक्ति पैदा हो जाती है। जिस प्रकार जल से बुलबुला पैदा होकर उसी के साथ नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार शरीर से चैतन्य पैदा होकर उसी के साथ नष्ट हो जाता है। अतः महाभूतों से भिन्न चैतन्य नहीं है। क्योंकि वह उसका कार्य है। कार्य कारण से भिन्न नहीं रह सकता । जैसे घड़ा मिट्टी का कार्य है,अतः वह मिट्टीरूप कारण से अलग नहीं रह सकता; वैसे ही चैतन्य भी पंचमहाभूतात्मक शरीर का कार्य है, वह इससे भिन्न नहीं रह सकता । इस अनुमान से चैतन्य पंचमहाभूतात्मक शरीर से अभिन्न सिद्ध होता है।' , नास्तिकवादियों के मत को असत्यता नास्तिकवादियों का उपर्युक्त कथन असत्य है, क्योंकि जिस शरीर को वे पंचमहाभूतों से बना हुआ और उसी को ही आत्मा कहते हैं, तथा चैतन्यशक्ति का भी उसी से पैदा होना मानते हैं, तो जब शरीर निश्चेष्ट (मृत) हो जाता है, तब भी उनके मतानुसार पंचमहाभूत और तज्जन्य चैतन्य रहते हैं, फिर भी वह चलता-फिरता क्यों नहीं ? देखना, सुना, सूघना, स्पर्श करना, चखना आदि क्रियाएं बंद क्यों हो जाती हैं ? पंचमहाभूतों की मौजूदगी में तो वह बंद नहीं होनी चाहिए ? इससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि आत्मा नामक चेतनाशक्ति का जनक सजीव पदार्थ वहाँ नहीं रहा ; इसलिए शरीर में कोई क्रिया नहीं होती। इस अनुमान से आत्मा का शरीर से पृथक् अस्तित्व सिद्ध होता है।
दूसरे प्रमाण—मैं सुखी हूं, मैं ज्ञानवान हूं, मैं मूर्ख हूं, इत्यादि अनुभव द्वारा आत्मा स्वयं सिद्ध है। यह अनुभव शरीर को नहीं होता। अगर शरीर को यह अनुभव होता हो तो मृत शरीर में पांच महाभूतों के रहते हुए भी क्यों नहीं होता ? अतः मृत शरीर में सुख, दुःख, ज्ञान आदि आत्मीय गुणों का अभाव ही दिखाई देता है ।