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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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शास्त्रवचनों का उलटफेर कर देते हैं । उदाहरण के तौर पर मनुस्मृति में एक श्लोक आता है
'न मांसभक्षण दोषो न च मद्य न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ||
इसका अर्थ अनाचारी लोग ऐसा करते हैं— 'मांस भक्षण में, मद्यपान में और जीवों की प्रवृत्ति है । इससे निवृत्ति करना -
मैथुन सेवन में कोई दोष नहीं है । यह तो त्याग करना, महाफलदायी है ।'
भला, यह सोचिए कि जिसके सेवन करने में कोई पाप नहीं, उसके त्याग करने में कौन - सा महाफल होगा ? जब इनको पापकार्य ही नहीं माना है, तो इनका त्याग करने से कौन-से पुण्यफल की प्राप्ति होगी ? यह तो हुआ वचन का विपर्यास ! अब देखिए इस श्लोक का उसी सम्प्रदाय के धर्मात्मा पापभीरु लोगों द्वारा किया गया सिद्धान्तानुकूल वास्तविक अर्थ
वे 'न मांसभक्षण दोष:' ऐसा वास्तविक पाठ मान कर अर्थ करते हैं कि "मांसभक्षण करने में दोष नहीं है, ऐसी बात नहीं, अवश्य ही दोष है । इसी प्रकार मद्यपान और मैथुन में भी जरूर दोष है। मगर क्षुद्रजीवों की ऐसी प्रवृत्ति है । इनसे निवृत्त होना ही महाफलदायक है ।" निष्कर्ष यह है कि वचनविपर्यास करने से वह असत्य एक ही व्यक्ति तक सीमित नहीं रहता; उसकी परम्परा समाज, राष्ट्र और उस सम्प्रदाय में हजारों वर्षों तक चलती रहती है ।
इसी प्रकार भगवद् गीता में एक वाक्य आता है— 'मद्याजी मां नमस्कुरु ।' उसका वास्तविक अर्थ तो होता है - 'मेरा पुजारी बनकर मुझे नमस्कार कर । परन्तु शराबी, कबाबी लोग अपने मतलब के लिए उसमें उलटफेर करके - 'मद्य + आजी मद्याजी' - इस प्रकार विपरीत पदच्छेद करके अर्थ करने लगे – 'मद्य पीकर बकरे की बलि देकर मुझे नमस्कार करो ।'
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इस प्रकार करना आत्मवंचना तो है ही, सारी समाज को उसी असत्य की राह पर ले जाने वाला भयंकर कुकृत्य भी है ।
अवास्तविक बातों का प्रतिपादन करना भी अवस्तु नामक असत्य है । कई लोगों को यह आदत होती है कि वे बातों के ऐसे पुछल्ले बांधेंगे या हवाई किले बनाएँगे, जिनका कोई अतापता नहीं होता। ऐसी बेसिरपैर की बेबुनियाद बातें असत्य की ही कोटि में आती हैं ।
निरत्थयमवत्थयं — निरर्थक और अर्थहीन शब्दों का उच्चारण करना भी असत्य है । निष्प्रयोजन बड़बड़ाने या बातों के गुब्बारे छोड़ने से कोई मतलब हल नहीं होता । कई बार ऐसी बेमतलब की बातों से आपस में झगड़े और सिरफुटौव्वल