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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद-आश्रव
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कर्ज लेने वाले तथा 'हमें द्रव्य दो', इस प्रकार बोलने वाले, (पुव्वकालियवयणदच्छा ) किसी के कहने से पहले ही उसके अभिप्राय को जानने में कुशल, ( साहसिका) बिना विचारे एकदम कह देने वाले, ( लहुस्सगा) तुच्छ आत्माएँ, (असच्चा) सज्जनों के लिए अहितकारक, (अट्ठावणाहिचित्ता) असत्य अर्थों की स्थापना में दत्तचित्त, ( उच्च छंदा) अपने को बड़ा मानने वाले, (अणिग्गहा ) स्वच्छन्दाचारी, किसी के अनुशासन में न चलने वाले, (अणियता) नियमनिष्ठा से रहित - अव्यवस्थित, (छंदेण मुक्कवाया ) हम ही सिद्धवादी हैं, इस तरह की मनमानी बातें कहने वाले, अथवा मनमाना वचन-प्रयोग करने वाले, ये सब (अलियाहि अविरया) असत्यवचन से अविरतजन (तं) उस पूर्वोक्त (अलियं ) असत्य को ( वदंति ) बोलते हैं । ( अवरे ) दूसरे ( नत्थि - कवाइणो ) नास्तिकवादी ( वामलोकवादी) लोक के स्वरूप का विपरीत कथन करने वाले ( भांति ) कहते हैं कि जगत् शून्य है ; ( नत्थि जीवो) जीव- आत्मा नहीं है, ( न जाइ इह परेवा लोए) इस (मनुष्य) लोक में अथवा पर (देवादि) लोक में (जीव ) नहीं जाता, (य) और वह (न) न ( किंचि वि) जरा भी, ( पुन्नपावं) पुण्य और पाप को ( फुसइ) छूता - बांधता है, (नत्थि फलं सुकयदुक्कयाणं) सुकृत (पुण्य) और दुष्कृत (पाप) का सुख-दुःख-रूप फल भी नहीं है, ( सरीरं पंचमहाभूतियं भासंति ह वातजोगजुत्तं) प्राणवायु के योग से सब क्रिया में प्रवृत्ति करने वाले इस शरीर को पंचमहाभूतों से बना हुआ कहते हैं । (य) तथा ) ( केइ ) कई ( बौद्धमतावलम्बी ) आत्मा को (पंच) पांच (खंधे) स्कन्ध-रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार रूप) ( भांति ) कहते हैं, (य) और (मणजीविका ) मन को ही जीव - आत्मा - मानने वाले, (मणं) पाच स्कन्धों के अलावा एक मन को (वदंति ) बताते हैं ; (वाउजीवोत्ति) कोई श्वासोच्छ्वास ही जीव (आत्मा) है, ( एवमाहंसु ) ऐसा कहते हैं । (य) तथा ( सरीर ) शरीर ( सादियं ) आदिमान् और ( सनिधणं) विनाशयुक्त है ; ( इह ) यहाँ प्रत्यक्ष (भवे) जन्म ही ( एगो भवो) एक ही भव है ( तस्स) इस का ( विप्पणासंमि) विविध प्रकार से नाश होने पर, ( सव्वनासोत्ति) आत्मा का सर्वनाश हो जाता है, ( एवं) ऐसा ( मुसावादी) असत्यवादी ( जंपंति) कहते हैं। क्योंकि शरीर सादि सान्त है, ( तम्हा ) इसलिए (दाणवयपोसहाणं) दान, व्रतपालन, और पौवध का तथा (तवसंजम बंभचेर कल्लाणमाइयाणं) तप, संयम, ब्रह्मचर्य आदि कल्याणकारी कर्मों का ( फलं) फल ( नत्थि ) नहीं है (य) और (पाणवहे) प्राणवध, (अलियवयणं ) असत्य वचन ( अवि ) भी (न) कोई माने नहीं रखते, अथवा अशुभदायक नहीं हैं, ( चोरिक्करणं ) चोरी करना (य) अथवा ( परदारसेवणं) परस्त्री गमन करना ( न एव) कोई चीज ही नहीं हैं या अशुभफलदायक ही नहीं हैं ; ( सपरिग्गहपावकम्मकरणंपि) परिग्रह के सहित और भी जो पापकर्म हैं, वे भी, (नत्थि किंचि) कुछ भी नहीं हैं,