________________
श्री प्रश्नव्याकरणं सूत्र
अथवा सुख-दुःख के जरा भी साधन नहीं है। (नेरइय-तिरिय-मणुयाणजोणी) नारकों, तिर्य चों और मनुष्यों की योनियां-उत्पत्तिस्थान, (न) नहीं हैं (व) अथवा (न देवलोको अत्थि) न देवलोक ही कोई है (य) और (न) न ही (सिद्धिगमणं) मुक्तिगति (अत्थि) है । (अम्मापियरो) माता-पिता (नत्थि) नहीं होते, (पुरिसकारो वि) पुरुषार्थ भी, (न अत्थि) कोई चीज नहीं है, (पच्चक्खाणमवि) प्रत्याख्यान-त्याग भी, (नत्थि) नहीं है, (य) और (कालमच्चू) काल (भूतभविष्यादि) तथा मृत्यु भी (न अत्थि) नहीं है। (अरिहंता) अर्हन्त देवाधिदेव तीर्थकर (चक्कापट्टी) चक्रवर्ती, (बलदेवा) बलदेव तथा (वासुदेवा) वासुदेव नारायण (नत्थि) नहीं हैं, (केई) कोई (रिसओ) ऋषि-मनि, (नेवत्थि) नहीं हैं। (च) तथा (बहुयं) बहुत (वा) अथवा (थोवगं) थोड़ा (किंचि) कुछ भी (धम्माधम्मफलमपि) धर्म और अधर्म का फल भी, (नत्थि) नहीं है । (तम्हा) इसलिए (एवं) उक्त प्रकार से वस्तुस्वरूप को, (विजाणिऊण) जान कर (जहा) जिस तरह (इंदियानुकूलेसु) अपनी इन्द्रियों के अनुकूल, (सव्वविसएसु) सभी विषयों में (सुबहु) अच्छी तरह यथेष्ट (वट्टह) प्रवृत्ति करो। (काइ किरिया) कोई (शुभ) क्रियाएँ (वा) अथवा (अकिरिया) निन्द्य क्रियाएँ (नस्थि) नहीं हैं । (एवं) इस प्रकार (वामलोकवादी) लोक के स्वरूप को विपरीत बताने वाले (नत्थिकवादिणो) नास्तिकवादी (भणंति) कहते हैं। (असब्भाववाइणो) असत् वस्तु का निरूपण करने वाले, (मूढा) मूढ लोग (इम) इस आगे कहे जाने वाले (बितियं) दूसरे (कुदंसणं) कुदर्शन, मिथ्यामत का (पण्णवैति) प्ररूपण करते हैं कि, (लोगो) यह संसार (अंडगाओ) अंडे से, (संभूतो) पैदा हुआ है, (च) और (सयंभुणा) ब्रह्मा ने इसे (सयं) स्वयं (निम्मिओ) बनाया है। (एवं) इसी प्रकार (एयं) यह आगे कहा जाने वाला (अलियं) असत्य वचन है- (पज्जावइणा इस्सरेण) प्रजापति ईश्वर ने (कयं ति) संसार रचा है, ऐसा (केइ) कई लोग कहते हैं। (एवं) इसी प्रकार (कसिणमेव जगं) सारा जगत् (विण्हुकयं विण्हुमयं) विष्णु द्वारा रचित है अथवा विष्णुमय है, ऐसा (केई) कई लोग कहते हैं। (एवं) इसी प्रकार (एगे) कई लोग (मोसं वदंति) झूठ बोलते हैं कि (एगो आया) आत्मा एक ही है, वही सारे संसार में व्याप्त है । (सांख्यमत वालों का कहना है-) आत्मा (सुकयस्स) पुण्य का (य) और (दुक्कयस्स) पाप का, (अकारको) कर्ता नहीं है, किन्तु (उनके फल का) (वेदको) भोक्ता है, (अथवा पुण्यपाप के फल का भी अवेदक-भोगने वाला नहीं है।) (य) और (करणाणि) इन्द्रियां (कारणाणि) उनके कारण (सव्वहा) सर्वथा (सहि) सब देश और सब काल में अलग नहीं हैं (य) तथा (णिच्चो) आत्मा नित्य है, (निक्कियो) निष्क्रिय (क्रियारहित) (निग्गुणो) निर्गुण-त्रिगुणातीत (य) और (अणुवलेवोत्तिवि य) कर्मों से निर्लेप भी है, (एवं) इस प्रकार (असब्भावं) असत्य बात को (आहंसु) कहते हैं, (जंपि) जो भी किंचि) कुछ (इहं) इस (जीवलोए) मर्त्यलोक में (सुकयं, पुण्य