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द्वितीय अध्ययन : मृषावाद - आश्रव
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या कुमनुष्यपर्याय में आत्मा अनादिकाल से मिथ्यात्व, अविरति आदि प्रवाहों में बहता रहा; इसलिए वहाँ सत्य का अनुगामी या साथी बनना तो कठिन ही था । अतः मिथ्यात्व आदि के सतत प्रवाहों में असत्य ही जीव का अनुगामी रहा, साथी बना और अब भी है । इससे एकबार दोस्ती कर लेने पर पिंड छुड़ाना बड़ा ही कठिन और दुर्वार होता है।
अथवा असत्य का अन्त
होता है । इस लोक
दुरन्तं -असत्य का अन्त करना बड़ा ही दुष्कर है । यानी परिणाम कई सागरोपमों पर्यन्त दुःखद और बुरा ही में भी असत्य के परिणामस्वरूप शासकों द्वारा जिह्वाछेद, देश निकाला या गधे पर बिठा कर नगर में घुमाना आदि कठोर दण्ड दिया जाता है, समाज में भी उसकी निन्दा और बदनामी होती है । परलोक में भी उसे नीच गति और नीच कुल आदि अधम स्थान मिलते हैं, जहाँ संख्यातीत समय तक उसे नाना प्रकार के दुःखों और यातनाओं को विवश होकर भोगना पड़ता है । इसीलिए असत्य को दुरन्त अर्थात् दुःखान्त या दुष्परिणामी कहना यथार्थ है ।
इस प्रकार द्वितीय अधर्मद्वार यानी पाप के उपाय-असत्य के स्वरूप का का निरूपण किया गया है ।
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मृषावाद के पर्यायवाची नाम
मृषावाद के स्वरूप का वर्णन करने के बाद अब शास्त्रकार क्रमप्राप्त मृषावाद के पर्यायवाची नामों का उल्लेख करते हैं—
मूलपाठ
तस्स य णामाणि गोण्णाणि होंति तीसं, तंजहा - १ अलियं, २ सढं, ३ अणज्जं, ४ मायामोसो, ५ असंतकं, ६ कूडकवडमवत्थुगं च, ७ निरत्थयमवत्थयं च ८ विदेसग रहणिज्जं,
९ अणुज्जुकं, १० कक्कणा य, ११ वंचणा य, १२ मिच्छापच्छाकडं च, १३ साती उ १४ उच्छन्नं (उच्छुत्तं), १५ उक्कूलं च, १६ अट्ट १७ अब्भक्खाणं च १८ किव्विसं १६ वलयं, २० गहणं च २१ मम्मणं च २२ नूमं, २३ निययी, २३ अपच्चओ, २५ असमओ, २६ असच्चसंधत्तणं, २७ विवक्खो, २८ अ ( उ ) वहीयं ( आणाइयं) २६ उवहिअसुद्धं, ३० अवलोवोत्ति । अवि य तस्स ( बिइयस्स ) ( इमारिण) एयाणि एवमादीणि
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