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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
१२६ न्यूनता भी प्रदर्शित कर दी है। जो आप्तपुरुष होते हैं, वे माता-पिता की तरह जगत् के जीवों के हितैषी होते हैं और उनमें किसी प्रकार का राग, द्वेष या पक्षपात नहीं होता कि किसी भी प्राणी के लिए वे गलत, झूठी,अहितकर या दु:खकर बात कहें । वे जो कुछ कहते हैं, जगत् के जीवों के प्रति वात्सल्य और करुणा से प्रेरित होकर एकान्त हित की बात ही कहते हैं । इसीलिए यहाँ भगवान् महावीर के लिए वास्तविक विशेषणों का प्रयोग किया गया है-'नायकुलनंदणो महप्पा जिणो उ वीरवर नामधेज्जो।' अर्थात् ज्ञातकुलनन्दन, महात्मा, जिन (वीतराग), वीरों में श्रेष्ठ महावीर नाम के तीर्थकर ने ऐसा कहा है।'
'त्तिबेमि' शब्द-श्रीसुधर्मास्वामी अपने शिष्य श्री जम्बूस्वामी से कह रहे हैं कि वत्स ! जैसा मैंने श्रमण भगवान् महावीर से इस अध्ययन का वस्तुतत्त्व सुना था, वैसा ही सूत्ररूप में संकलन करके तुम्हारे सामने कहता हूं। मैं ये वचन तीर्थंकर के उपदेश के आधार पर कहता हूं, अपनी बुद्धि की कल्पना से नहीं । इस कथन से गुरुभक्ति, शास्त्र की प्रामाणिकता, और सर्वज्ञोक्त वचन की जगत् के लिए उपकारकता सिद्ध की गई है । अपना अभिमान छोड़कर नम्रतापूर्वक गुरु की अधीनता स्वीकार करने की बात भी इस पद से ध्वनित की गई है।
- इस प्रकार प्रश्न व्याकरण सूत्र का यह प्रथम अधर्म द्वार समाप्त हुआ। प्रश्न व्याकरण सूत्र में प्रथम आश्रव द्वार की 'सुबोधिनी' नामक हिन्दी व्याख्या भी सम्पूर्ण . हुई।