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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र बलात् उसे नरक या तिर्यञ्च योनि में धकेल देते हैं या खींच ले जाते हैं। दुष्कर्म किसी के लिए भी रियायत नहीं करते । चाहे वह राजा हो, सेठ हो, ब्राह्मण हो, अनपढ़ हो, या पढ़ा लिखा हो, मंत्री हो या अध्यक्ष हो, अगर वह हिंसा जैसा दुष्कर्म करता है तो उसका दुष्परिणाम उसे अवश्य ही भोगना पड़ता है।
यही कारण है कि विश्वहितैषी ज्ञानी आप्तजनों ने जगत् के जीवों को दुःखों की परम्परा में लिपटे देख कर, उन पर दया लाकर उन दुःखों के कारणों और दु:ख के बीज बोने से बचने के हेतु नरकतिर्यञ्चगमनरूप विविध दुष्परिणामों को स्पष्ट रूप में बता दिया है।
प्रस्तुत मूलपाठ में नारकियों को होने वाली तीव्र वेदना और यमकायिकों द्वारा दी हुई विविध यातनाओं का स्पष्ट निरूपण है। साथ ही नारकियों के मनवचन-काया द्वारा उस पीड़ा के कारण होने वाली तीन प्रतिक्रिया का भी वर्णन किया गया है। अन्त में, नरक के हिंस्र पशुपक्षियों द्वारा भी यातना पर यातना दिये जाने का स्पष्ट उल्लेख है।
कटुफल का कारण-इतने भयंकर दुष्परिणाम का आखिर कोई न कोई कारण जरूर है । कारण के बिना कोई कार्य नहीं होता। इसीलिए शास्त्रकार कहते हैं—'पुन्वकम्मकयसंचयोवतत्ता'—वे नारकी जीव पूर्व जन्मों में उपाजित दुष्कर्मों के संचय के कारण यहां सदा संतप्त रहते हैं। इस शब्द से कर्म करने और उसका फल भोगने में जीवों की स्वतंत्रता और उनके पुनर्जन्म का अस्तित्व द्योतित होता है। जो लोग यह कहते हैं कि ईश्वर ही जीवों को कर्म कराता है, और वही उनका फल भुगवाता है, यह बात असंगत लगती है। क्योंकि ईश्वर अगर जीवों से कर्म करवाता है या कर्म करने की स्वतंत्रता देता है तो फिर वह पक्षपाती ठहरेगा, क्योंकि एक को शुभकर्म करने और एक को अशुभ कर्म करने की प्रेरणा क्यों देता है ? सबको ईश्वर शुभकर्म करने या कर्म क्षय करने की प्रेरणा क्यों नहीं देता ? क्यों एक को चोर बनाता है, एक को साहूकार ? यह ईश्वर को कर्ता-धर्ता मानने से बहुत बड़ा आक्षेप आता है । और फल भुगवाते समय भी वह सबको स्वर्ग या मोक्ष में क्यों नहीं भेज देता ? वह तो दयालु है। इसीलिए वैदिक धर्म के प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ भगवद्गीता में स्पष्ट कहा है
'न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः।
न कर्मफलसंयोगं स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ ___ अर्थात्-'ईश्वर लोक (जगत् के जीवों) का कर्तृत्व नहीं करता, न कर्मों की प्रेरणा ही करता है, और न ही कर्मों के फल का संयोग कराता है। यह संसार तो जीवों की अपनी-अपनी (कर्म) प्रकृति के अनुसार प्रवृत्त होता है।'