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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
है तो वह भी अत्यन्त खुरदरा और ऊबड़खाबड़ है । किसी भी वस्तु के स्पर्श से यहाँ सुखानुभव नहीं होता ।
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और यहाँ के गंध का तो कहना ही क्या ? यहाँ इतनी दुर्गन्ध, सड़ान और बदबूदार रास्ते हैं कि मारे बदबू के नाक फट जाय । सातवीं नरकभूमि की मिट्टी का एक कण भी यदि इस मध्य लोक में आ जाय तो उसकी दुर्गन्ध से (बदबूदार तेज गैस से) २४ कोस (४६ मील) तक के जीव मर जायेंगे । पहले नरक के प्रथम पटल की मिट्टी की गन्ध में आधाकोस ( १ मील) दूर तक की मारक शक्ति है; दूसरे पटल (पाथड़े ) की मिट्टी में १ कोस ( २ मील) - इस प्रकार आगे के एक-एक पटल की गंध में उत्तरोत्तर एक-एक मील (यानी आध-आध कोस) अधिक दूरी तक मारने की शक्ति है । सातवीं नरकभूमि का पटल ४६ वाँ होने से उसकी मिट्टी की गंध में ४६ मील ( २४ || कोस ) दूर तक मनुष्यतिर्यंचों को मारने की शक्ति है । सुगन्ध का तो वहाँ नामोनिशान ही नहीं है, तब वहाँ की गन्ध से सुखानुभव कैसे हो सकता है ।
इन चारों की कसौटी पर नरकभूमियों को कस लेने के बाद नरकभूमियों के बारे में निर्विवाद कहा जा सकता है, कि वहाँ नारकों को क्षेत्रकृत दुःख भी अपार हैं । तीनों प्रकार के दुःखों की नारकों पर प्रतिक्रिया — पूर्वोक्त स्वजातिकृत, नरकपालकृत और क्षेत्रगत - इन तीनों प्रकार के दुःखों की बहुत ही तीव्र प्रतिक्रिया नारों पर होती है । वे पीड़ा के मारे कराहते हैं, चीखते हैं, चिल्लाते हैं, शोर मचाते हैं, रोते हैं, बहुत प्रकार से आरजू मिन्नतें करते हैं, करुणापूर्ण स्वर में पुकार करते हैं, दया की भीख मांगते हैं । इतने पर भी जब कोई नहीं सुनता और उन्हें आश्वासन नहीं देता तो वे भय के मारे घबरा कर इधर उधर भागने और नरकपालों के चंगुल से छूटने का प्रयत्न करते हैं, मगर वे नरकपाल तो उन्हें जबरन पकड़ कर उनके मुंह में गर्मागर्म सीसा उड़ेल देते हैं; उनके द्वारा विभिन्न प्रकार से सताये जाने पर या मारे पीटे जाने या अंग भंग किये जाने पर वे फिर दीन-हीन होकर कातरभाव चारों दिशाओं में झांकते हैं, मानो कोई उन्हें बचा ले, उनके चंगुल से छुड़ा दे । पर वे अशरण, अबांधव, अनाथ नारक अधिकाधिक त्रस्त और पीड़ित किये जाते हैं ; विवश पराधीन होकर वे नरकपालों के कहे अनुसार विविध यातनाएँ मन मसोस कर चुपचाप सहते जाते हैं, कभी-कभी करुण आर्तनाद व विलाप करते हैं । इस प्रकार सारी लम्बी जिन्दगी वे निरन्तर दुःख के मारे रोते-धोते और आर्त्तध्यान करते हुए बिताते हैं । इस सतत आर्त्तध्यान के कारण वे पुराने अशुभ कर्मों को तो क्षय नहीं कर पाते ; नये कर्म और बांध लेते हैं, परस्पर वैर की परम्परा बढ़ा कर वे रौद्रध्यानी भी सदा बने रहते हैं । रातदिन मार काट, दुःख और यातना के बीच रहते-रहते उनका जीवन भी परमाधामियों की तरह क्रूर, कठोर, निर्दय, परस्पर लड़ाकू, वैरग्रस्त और अज्ञानमय बन जाता है । नारक जीव इन विविध यातनाओं और दुःखों के मारे