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श्री प्रश्नव्याकरण सूत्र
कठोर और रेंहट के समान जन्म, जरा, मृत्यु और व्याधि के परिवर्तन के चक्कर वाली तथा जलचर, स्थलचर, और खेचर जीवों की पारस्प रिक हिंसा के प्रपंच वाली तिर्यञ्च योनि में पहुँचते हैं । और वहाँ वे बेचारे दीन-हीन प्राणी इस प्रत्यक्ष दृश्यमान व जगत्प्रसिद्ध दुःख को बहुत लम्बे समय तक पाते हैं ।
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वे दुःख कौन-कौन से हैं ? इसके उत्तर में शास्त्रकार कहते हैं, 'दुःख इस प्रकार हैं- सर्दी, गर्मी, भूख और प्यास की वेदना, प्रतीकाररहितता, घोर जंगल में जन्म ग्रहण, मृगादि पशु अवस्था में सदा घबराते रहना, जागना, मारा जाना, बाँधा जाना, पीटा जाना, तपी हुई लोहे की सलाई आदि से दागा जाना, खड्डे आदि में फेंका जाना, हड्डी का तोड़ा जाना, नाक तथा कान का छेदा जाना, प्रहार किया जाना, संताप दिया जाना, शरीर के अंगोपांगों का काटा जाना, जबर्दस्ती काम में लगाना, चाबुक से पीटा जाना, अंकुश और आरा - डण्ड े के अग्रभाग में लगी हुई नुकीली कील भोकना, सजा आदि के लिए दमन करना, भार लादा जाना, माता-पिता से वियोग करा देना, या वियोग हो जाना, नाक-मुंह आदि के छिद्रों में मजबूती से रस्सी या नकेल डाल कर पीड़ा देना तथा शस्त्र, अग्नि या विष के द्वारा खत्म कर देना, गले और सींग को मोड़ देना और मारना, अथवा गलकंबल को मोड़ कर प्रहार करना, वंसी (मछली पकड़ने का कांटा) और जाल से मछली आदि को पकड़ कर पानी से बाहर निकालना तथा आग पर भूनना और काटना, जीवन भर बाँधे रखना, पींजरे में डाल कर बन्द कर देना, अपने टोले से अलग निकाल देना, भैंस आदि को फूँका लगाना, दूहना, गले में दुःखदायी डण्डा बांध देना, बाड़े में रोके रखना, कीचड़ से सने गन्दे जल में डुबोना, पानी में प्रवेश कराना, खड्डों में गिर जाने से अंग-भंग हो जाना तथा पर्वत आदि ऊबड़-खाबड़ जगहों से गिर पड़ना, दावाग्नि की लपटों से झुलस जाना, इत्यादि दुःख तिर्यञ्चगति के हैं । इस प्रकार प्राणियों का वध करने वाले वे पापकर्मकारी नरकगति में सैंकड़ों दुःखों से जले हुए नरकगति से भोगने से बचे हुए शेष कर्मों को भोगने के लिए इस तिर्यञ्च गति में आकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में प्रमाद, राग और द्वेष के कारण बहुत-से संचित किए हुए अत्यन्त कठोर दुःख देने वाले कर्मजनित दुःखों को पाते हैं ।
यहां वे चार इन्द्रियों वाले जीवों की भौंरे, मच्छर और मक्खी आदि योनियों में, नौ लाख जन्म लेने के कुलों में जन्म-मरण का अनुभव करते हुए नारकियों के समान तीव्र दुःखों से युक्त स्पर्शन, रसन, घ्राण और चक्षु — इन चार इन्द्रियों सहित चतुरिन्द्रिय जीव संख्यातकाल तक