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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
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दीरणाभिश्च
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कार्य प्रयोजनैश्च प्रेष्यपशुनिमित्तौषधाहारादि के उत्खनन उत्क्वथन- पचन- कुट्टन पेषण-पिट्टन भर्जन - गालनामोटन - शटन-स्फुटनभञ्जन - छेदन- तक्षण विलुञ्चन-पत्रझोडनाग्निदहनादिकानि । एवं ते भवपरम्परा- दुःखसमनुबद्धा अटन्ति संसारे भयंकरे जोवाः प्राणातिपातनिरता अनन्तकालं । येऽपि चेह मनुष्यत्वमागताः कथमपि नरकाद्वृत्ता अधन्यास्तेऽपि च दृश्यन्ते प्रायशो विकृतविकलरूपाः कुब्जा वटभाश्च वामनाश्च बधिराः काणाः कण्टा: पंगुला विकलाश्च मूकाश्च मन्मनाश्चान्धका एकचक्षु विनिहताः संचिल्लकाः (सपिशाचा) व्याधि- रोगपीडिताऽल्पायुष्कशस्त्रवध्यबालाः कुलक्षणोत्कीर्णदेहा दुर्बल कुसंहनन - कुप्रमाण-कुसंस्थिताः कुरूपाः कृपणारच होना होनसला नित्यं सौख्यपरिवजिता अशुभदुःखभागिनः नरकाद्वृत्ता इह सावशेष ऊर्माणः । (उद्ध ताः सन्तः) ।
एवं नरकतिर्यग्योनि कुमनुष्यत्वं चाधिगच्छन्तः प्राप्नुवन्त्यनंतानि पापकारिणः । एवं स प्राणवधस्य फलविपाकः इहलौकिकः पारलौकिकोऽल्पसुखो बहुदुःखो महाभयो बहुरजः प्रगाढो दारुणः कर्कशोऽसातो वर्षसहस्त्र - मुच्यते, न चावेदयित्वा अस्ति खलु मोक्ष इत्येवमाख्यातवान् ज्ञातकुलनन्दनो महात्मा जिनस्तु वीरवरनामधेयः कथितवांश्च प्राणवधस्य फलविपाकम् । एष स प्राणवधश्चण्डो रुद्रः क्षुद्रोऽनार्थी निर्घृणो नृशंसो महाभयो भयंकरस्त्रासन को न्याय्यः (अथवा अनर्जुकः) उद्वेजनको निरवकांक्षी निर्द्ध में fafoquia fresent fनराकासगमननिधनो मोहमहामयप्रवर्द्ध को मरणवैमनस्यः ।
प्रथममधर्मद्वारं समाप्तमिति ब्रवीमि ||१||
पदार्थाran (goaकम्मोदयोवगता) पूर्वकर्म के उदय से युक्त (पच्छाणुसएण ) पश्चाताप से, ( उज्झमाणा, जलते हुए ( पुरेकडाई ) पूर्वजन्म में किये हुए, ( पावगाई ) पापकर्मों की, जिता) निन्दा करते हुए (तहि तहि) उन-उन रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों में (तारिसाणि) अमुक-अमुक प्रकार के, ( ओसन्नचिक्कणाई ) अत्यन्त चिकने, नहीं छूट सकने योग्य, निकाचित) ( दुक्खाई) दुःखों का ( अणुभविता) अनुभव करके (य) और (आउक्खण) आयुष्य का क्षय होने पर ( तत्तो ) नरक से ( उव्वट्टिया समाणा) निकले हुए (बहवे ) बहुत से जीव ( दुक्खुतारं ) दुःख से पार की जाने वाली ( सुदारुणं) अत्यन्त कठोर, जम्मणमरणजरावाहिपरियट्टणारहट्ट ) जिसमें रहट के समान जन्म, मृत्यु बुढ़ापे और व्याधि का परिवर्तनचक्र चल रहा है, (जल-थल - खहचर - परोप्पर - विहिंसणपवंचं) जिसमें जलचर, स्थलचर, और खेचर जीवों की परस्पर विविध हिंसाओं का प्रसार है, ऐसी ( तिरियवसह ) तिर्यञ्च योनि में ( गच्छंत) पहुँचते हैं । (च) और वहाँ ( वरागा ) वेचारे दीन हीन वे प्राणी, ( इमं ) इस प्रत्यक्ष दृश्यमान, ( जगपागडं ) जगत् प्रसिद्ध ( दुक्खं) दुःख को