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प्रथम अध्ययन : हिंसा-आश्रव
जीओ, सुख से जीओ, कर्ज करके घी पीओ, शरीर के राख हो जाने पर न कोई कहीं आता है न जाता है। यह शरीर या आत्मा जो कुछ भी इसे कहो, यहीं का यहीं धरा रह जाता है।" ऐसी मिथ्या मान्यता के कारण भोले-भाले मनुष्य ऐसे लोगों के चक्कर में आकर हिंसा करने में बेखटके प्रवृत्त हो जाते हैं।
____ अगर स्वर्ग, नरक आदि न होते तो फिर किसी को स्वपर कल्याण की साधना या अहिंसा, सत्य आदि का पालन करने की जरूरत ही क्या रहती ? फिर तो कोई भी मनुष्य अच्छे कर्म में, परोपकार में प्रवृत्त हो क्यों होगा ? और क्यों वह कुत्ते, बिल्ली आदि की तिर्यञ्च योनि को पाना चाहेगा ? परन्तु यह एक निर्विवाद बात है कि आत्मा की यह यात्रा तब तक समाप्त नहीं होती, जब तक जन्ममरण का चक्र समाप्त न हो, यानी मुक्ति प्राप्त न हो। इसलिए आत्मा को अपने अच्छे कर्मों के कारण स्वर्ग और बुरे कर्मों के कारण नरक या तिर्यंचगति का मिलना अवश्यम्भावी है। जीवन की यह यात्रा जन्मजन्मान्तरों तक चलती रहती है।
नरक में इतनी भयंकर सजा वास्तविकता है, गप्प नहीं ! - नरक के दुःखों को गप्प मानने वालों से यह पूछा जाय कि यहां कोई किसी की हत्या करता है तो उसमें एक-दो मिनट ही लगते हैं, परन्तु उस एक-दो मिनट के दुष्कृत्य के बदले में उसे आजीवन कारावास या मौत की सजा मिलती है । इतनी लम्बी अवधि की सजा थोड़ी देर में हत्या करने वाले को मिलती है तो जिन्दगी भर पशुपक्षियों की गर्दनों पर जो छुरियां फिराता रहे, जो अनेक क्रूरकर्म करे,उसे कितनी लम्बी अवधि की और कितनी कठोर सजा मिलनी चाहिये ? यही कारण है कि नरक की लम्बी से लम्बी अवधि ३३ सागरोपम काल की है और पहली से लेकर सातवीं नरक तक उत्तरोत्तर दारुण दुःखों के रूप में वहां भयंकर सजाएं मिलती हैं। इसी का समाजविज्ञानसिद्ध विश्लेषण व चित्रण शास्त्रकार ने मूल पाठ में किया है।
नरक गति में हिंसा के कुफल पिछले सूत्रपाठ में हिंसकों के नाम तथा हिंसा के दुष्परिणामस्वरूप नरकागारप्राप्ति का विशद निरूपण किया गया, अब इस अगले सूत्रपाठ में उसी का-हिंसा के दुष्परिणामों का ही विस्तृत वर्णन किया जा रहा है :
- मूलपाठ पुवकम्मकयसंचओवतत्ता निरयग्गिमहग्गिसंपलित्ता गाढदुक्खं महब्भयं कक्कसं असायं सारीरं माणसं च तिव्यं दुविहं वेदेति वेयणं,