________________
प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६६ विजयदेवाभिषेकवर्णनम् सौवर्णिकानां कलशानाम्, 'तं चेव असएणं भोमेज्नाणं कलसाणं'-तदेवअस्मिन् एव सूत्रेऽमूषां सामग्रीणां समुपस्थापनसमये यद् यद् यथाकथितं-तत्त. थैव यावत् अष्टशतेन भौमेयानां कलशानाम्, 'सब्बोदएहि सबमट्टियाहिं'-सर्वो-. दकैः-सर्वतीर्थजलैः सर्वमृतिकाभिः, 'सम्बतूबरेहिं सधपुप्फेहिं जाव सव्वोसहि सिद्धत्थएहि-सर्वर्तुवरैः सर्व अनुषु जातैः सर्व पुष्पैः नन्दनादि बनानीतैः सर्वमाल्यैः चर्णादिभिः यावत्-सौषधिभिः सर्वार्थसिद्धकैश्च, 'सव्वडीए जाव निग्घोस नाइयरवेणं' सर्वद्धया-सर्वद्युत्या यावत्-निर्धोपनादितरवेणे, 'महया महयां इंदाभिसेएण' अभिसिंचई'-महता महता-इन्द्राभिषेकेण तं विजयं देवमभिषिश्वन्ति इति । 'पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलिं कटु एवं क्यासी'-प्रत्येकं प्रत्येकं सामानिकादयो देवाः शिरसावत करतलपरिगृहीतभञ्जलिं कृत्वा-एवं वक्ष्यकलशों के 'तं चेव जाव अट्ठसएणं मोमेज्जाणं कलसाणं पूर्वोक्तानुसार यावत १०८ मृत्तिका के कलशों के 'सम्बोदएहिं सव्वमट्टियाहिं' समस्त उदकों से और समरत मिट्टियों से 'सव्यतवरेहि सव्वपुप्फेहि जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं एवं समस्त ऋतुओं के श्रेष्ठ समस्त पुष्पों से यांवत् सौषधियों से और पीत सर्षपों से 'सव्वड्डीए जाव निग्योसनाइयरवेणं' सर्वऋद्धि के अनुसार सर्वाति के अनुसार यावत् वाजों के गंडगडाहट के साथ२ महया महया इंदाभिसेएणं' वडे भारी उत्सव से युक्त उस इन्द्राभिषेक की सामग्री से 'तं विजयदेवं अभिसिंचति' उस विजय देव का अभिषेक किया 'पत्तय पत्तंय सिरसावत्त अंजलिकट्टु एवं वयासी' और फिर अलग अलग रूप से दोनों हाथों की अंजलि करके और उसे शिर पर घुमाकर आशीर्वाद के रूप में उससे साणं' यावत् १०८ ४सी मा सुवर्ण ना यमसार ४ाशोथी 'तं चेव जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं' कलसाणं' पास वामां माच्या प्रमाणे यावत् १०८ २४सान माह भाटीन संशोथी. 'सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिं' सघमा तीर्थान थी भने सधजी नहीमा भने सघा तीर्थानी माटीथी 'सव्वतूवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सव्वोसहि सिद्धत्थएहिं तथा सघजी अतुमान जत्तम उत्तम समस्त पुण्याथी यावत् सषिधियोथी तभ० पीपा गवाणा सष पाथी 'सव्वढीए जाव निग्योसनाइयरवेणं' सर्व प्रधानी ऋद्धि मनुसार सर्वधुति अनुसार यापत वामाना ग वाणी हिव्य चनीयानी साथै साथे 'महया महया इंदाभिसेएणं' घ। मोटा सेवा हसव पूर्व मे द्राभिषेनी समय सामग्रीथी 'तं विजय देवं अभिसिंचंति' से विनय वन अमिष ध्ये 'पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलि कटु एवं वयासी' भने ते पछी ही ही रीते मन्ने हायानी मrel
जी० ४२