Book Title: Jivajivabhigamsutra Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti

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Page 1539
________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.१० सू.१५२ जीवानां नवविधत्वनिरूपणम् १५१५ उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्र संख्येयवाभ्यधिकं अन्तरं भवति 'वेइ दियस्स णं अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं-उक्कोसेणे वणस्सइकालो' द्वीन्द्रियस्य खलु भदन्त ! कालतः कियच्चिरमन्तरम् ? गौतम् । जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षेण वनस्पतिकालः। 'एवं तेइंदियस्स वि-चउरिदियस्स वि णेरइयस्स वि-पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि-मणुसस्स वि-देवस्स विसंवेसि अंतरं भाणियन्वं' एवं द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय-चतुरिन्द्रिय-नैरयिक पञ्चन्द्रियतिग्योनिक-मनुप्य देवानां सर्वेषामेव यथायथमालापकमुद्भाव्य पृथक्पृथगन्तरं धिक दो हजार सागरोपम का पडता है इतने काल की समाप्ति के बाद वह पुनः अपने पहले की एकेन्द्रिय अवस्था को प्राप्त कर लेता है। 'वेइंदियस्ल णं भते ! अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' हे भदन्त ! दोइन्द्रिय जीव को अन्तर कितने काल का होता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! जहण्णेणं अंतोसुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' हे गौतम ! बीन्द्रिय जीव का अन्तर कम से कम एक अन्तर्मुहूर्त का और अधिक से अधिक वनस्पतिकाल प्रमाण अनन्त काल का होता है 'एवं तेइंदियस्सवि, चउरिंदियस्स वि पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि,मणुसस्स वि, देवस्ल वि, सव्वेसि मेवं अंतरं माणियव्वं' इसी तरह का अन्तर तेइन्द्रिय जीव का चौइन्द्रिय जीव का पञ्चन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव का, मनुष्य का एवं देव का इन सब जीवों का होता है ऐसा समझना चाहिये अतः इस विषय में पूर्वोक्तानुसार आलापकों का स्वयं उद्भावन करके उस अन्तर का कथन कर लेना चाहिये एकेन्द्रिय का હજાર સાગરોપમનું વ્યવધાન રહે છે. એટલે કાળ સમાપ્ત થયા પછી તે शथी पातानी मेन्द्रिय पानी शान प्रात ४२री छ. 'वेइंदिया णं भते । अंतरं कालओ केवच्चिरं होइ' ससपन्! मेद्रियाण नु मत२ हैटा नुहोय छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ है- 'गोयमा ! जहण्णे णं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो' हे गौतम! मेद्रिय पाण જીનું અંતર ઓછામાં ઓછું એક અંતર્મુહૂર્તનું હોય છે. અને વધારેમાં बंधारे वनस्पति से प्रभानु मेट अनत गर्नु डोय छे. 'एवं तेइंदियस्स वि, चउरिदिस्स वि पंचिंदियतिरिक्खजोणियस्स वि, मणुसस्स वि, देवस्स वि, सव्वेसिमेवं अंतरं भाणियव्वं' मा प्रमाणेनु मत२ ३ ४द्रियाणा જીવનું, ચાર ઈદ્રિયવાળા જીવનું, પંચેન્દ્રિયતિનિક જીવનું મનુષ્યનું અને દેવાનું. એમ આ બધાજ જીવેનું હાય છે તેમ સમજવું. તેથી આ સંબંધમાં પહેલા કહેવામાં આવ્યા પ્રમાણે આલાપ સ્વયં બનાવીને એમના અંતરનું

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