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इसी बीच उतेजित नेताओं ने कलक्टर महोदय से मिलकर उनके नगर विचरण पर प्रतिबन्ध लगवा दिया। महाराजश्री श्री मन्दिर जी की तरफ जा ही रहे थे कि उसी समय कलक्टर की गाड़ी वहाँ आकर रुकी और उन्होंने मुनिश्री से कहा कि आप कपड़े पहनकर ही यहाँ से जा सकते हैं। आचार्यश्री ने घोर उपसर्ग आया जानकर महामन्त्र का आश्रय लिया और कलक्टर की मोटर के आगे ही ध्यानारूढ़ होकर भगवान् ऋषभदेव के अनन्तानन्त गुणों का मन ही मन स्तवन करने लगे। उस समय ज्येष्ठ मास था और सड़क को पिघला देने वाली कड़ी धूप पड़ रही थी। आचार्यश्री को राजाज्ञा एवं कड़ी धूप प्रभावित नहीं कर पायी। वे एक आदर्श तपस्वी के रूप में उसी स्थान पर २४ घण्टे तपोरत रहे । नगर की जनता वहाँ एकत्र हो गई। गुलवर्गा में स्थित जैन परिवारों के सभी सदस्यों नेचार साल के बालक-बालिका से लेकर रुग्ण पुरुष और स्त्रियों तक ने भी–महाराजश्री के ऊपर आया उपसर्ग जानकर आहार और जल का त्याग कर दिया। नगर-निवासियों के आक्रोश को देखकर कलक्टर महोदय अगले दिन पुनः घटनास्थल पर आए। उन्होंने आचार्यश्री की ओर देखकर प्रश्न किया कि आप कौन हैं ? आचार्यश्री तपोरत थे। अतः उन्होंने कोई उतर नहीं दिया। इतने में भीड़ को चीरकर एक विद्वान् महिला कलक्टर के सम्मुख आई और उसने शालीनता से आचार्यश्री और दिगम्बर परम्परा के सम्बन्ध में अंग्रेजी भाषा में कलक्टर महोदय को आवश्यक जानकारी दी। वास्तविकता को जानकर कलक्टर को गहरा दुःख हुआ। उन्होंने आचार्य श्री से क्षमायाचना करते हुए कहा कि अज्ञानतावश दी गई आज्ञा को मैं वापिस लेता हूं और आप दिगम्बर वेश में नगर में जहाँ चाहें वहाँ विचरण कर सकते हैं। कलक्टर महोदय अपने शासकीय परिवेश को भूल कर आचार्यश्री की जयजयकार करते हुए उन्हें जुलूस के साथ मन्दिर जी में छोड़कर ही वापिस आए।
आलन्दा (हैदराबाद) में विरोध
आचार्यश्री ने धर्मप्रचार के निमित्त आलन्दा जाने का निर्णय लिया। उनका आलन्दा आगमन जैन समाज के लिए प्रतिष्ठा का विषय था। आलन्दा स्थित जैन धर्मानुयायियों की यह बलवती इच्छा थी कि हमारे शहर में भी कोई धर्मगुरु आकर हमको धर्मदेशना से लाभान्वित करें। किन्तु कुछ संकीर्ण मनोवृत्ति वाले व्यक्ति इस महान् देश की 'सर्वधर्म सद्भाव' की गौरवशाली परम्परा को क्षुद्र एवं साम्प्रदायिक कारणों से भंग करने में विशेष रुचि लेते हैं । धार्मिक संकीर्णताओं से ग्रस्त कुछ व्यक्तियों ने उनके नग्न रूप के सम्बन्ध में अनर्गल प्रचार करके एक मोचा-सा बना लिया। उन्होंने उनके नगर-प्रवेश पर प्रतिबन्ध भो लगवा दिया। आचार्यश्री को नगर प्रवेश से रोकने के लिए पुलिस की विशेष व्यवस्था भी करवाई गई।
दिगम्बरत्व की प्रतिष्ठा के लिए चुनौतियों को स्वीकार करना आचार्यश्री का स्वभाव है। उन्होंने अपने संघस्थ शिष्यों एव भक्तों को उपसर्ग के समय अपने से पृथक् रहने का परामर्श दिया और इस उपसर्ग को अकेले अपने ऊपर झेल लेने का संकल्प कर लिया । आप अकेले ही आलन्दा की ओर बढ़े । वहां कोई भी द्वार ऐसा नहीं था जहाँ बड़ी संख्या में पुलिस-व्यवस्था न हो। आचार्यश्री ने अपने बुद्धि-चातुर्य से एक ऐसी पगडंडी को पकड़ा जिससे वे सुगमता से शहर में पहुंच सकें। उस पगडंडी पर भी पुलिस का पहरा था। किन्तु महाराजश्री की निर्भीक चाल एवं तमोमंडित आकृति को देखकर पुलिस वालों की हिम्मत नहीं हुई कि वे उनके मार्ग में रुकावट डाल सकें।
पगडंडी के मार्ग से मुनिश्री शहर में पहुंच गए। पुलिस ने उन्हें नगर भ्रमण की अनुमति नहीं दी और वापिस जाने को कहा । आचार्यश्री ने धर्म पर आए संकट के निवारणार्थ महामन्त्र णमोकार का आश्रय लिया और पद्मासन लगाकर सड़क पर ही एक आदर्श सत्याग्रही के रूप में बैठ गए। आलन्दा के अल्पसंख्यक जैन समाज ने भी धर्म पर आए हुए संकट का निवारण करने के लिए जल आहार का त्याग कर दिया और अधिकारियों को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। समस्या का समाधान न निकलते देखकर उन्होंने भारतवर्ष की जैन समाज को विशेषतः बम्बई, कलकत्ता, इन्दौर की जैन समाज को, इस अप्रिय कांड की सूचना दे दी। इस दुःखद समाचार से भारतवर्ष के जैन समाज में रोष उत्पन्न हो गया और उन्होंने युगीन परिस्थितियों के अनुरूप अनशन-व्रत इत्यादि किए। भारतवर्ष की विभिन्न जैन समाजों ने निजाम हैदराबाद को तार भेजकर जैन धर्मगुरुओं के स्वतन्त्र विचरण पर प्रतिबन्ध लगाने का विरोध किया। निजाम साहब ने स्थिति का पता लगने पर तत्काल हस्तक्षेप किया और मुनिश्री पर लगाए प्रतिबन्ध को हटाने का आदेश दिया ।
आचार्यश्री के पावन सान्निध्य से आलन्दा में धर्म की मन्दाकिनी प्रवाहित हो उठी। उनकी प्रेरक एवं धर्ममय वाणी का रसपान करने के लिए आलन्दा के तत्कालीन कलक्टर महोदय भी उनकी धर्मसभाओं में आते थे। तत्पश्चात् न जाने किन लोगों के परामर्श
कालजयी व्यक्तित्व
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