Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
-
4.3 अनुवादक-बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
अट्रसुवण्णकोडीओ, गाहाणुसारेण भाणियन्वं, जाच पण हारियाओ अणंच, विपुल धण-कणग-रयण-मणि-मेत्तिय-सिलप्पवाल-रत्तरयण संत-स.रसावतेज अलाहि जाव आसत्तमाओ कलवंसाओपकामदाउं पकामभोत्तं पकाम परिभाएउ ॥८३॥ एणं से मेहेकमारे एगमेगाए भारियाए एगमगं हिरणकोडिं दलयइ, एगमगं सुवण्णकोडिं दलयइ जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयइ अण्णंच, विउलं धणकणग जाव परिभाएउं दलयइ ॥ ८४ ॥ तएणं से मेहेकुमारे उप्पिपासायवरगए फुटमाणेहिंमुइंग मत्थएहिं वरतरुणीसंपउत्तेहिं वत्तीसइबद्धएहिनाडएहिं उवगिजमाणे २ उवलालिज्जमाणे २ सद्दफारिसरसरूवगंध विऊलेमाणुस्सएकामभीए पच्चणुब्भवमाणे प्रवाल,रत्न,रजत व प्रधान धान्यादी प्रीतिदान(दायचा)दीया यावत् मातवा कल पर्यंत देते हुवे खुटे नहीं, इतना भोगतेहवेव उपभोगमें लाने को दीया॥८॥अब मेघकुमारने एकरभार्याको एकर हिरण्य क्रोड,एकरसुवर्ण क्रोड, 3 यावत् एक पेसण काम करनेवाली दासी दी. और भी अन्य विपुल धन, कनक यावत् विभाग करने को दीया ॥ ८४ ॥ फोर अपने प्रासाद पर रहे हुवा मेधकुमार मृदंग की ध्वनि व श्रेष्ठ तरुणियों के संयोग से बत्तीस प्रकार के नाटक देकना हुवा, पांचों इन्द्रियों को योग्य गीत गान मे क्रीडा करता हुवाच
ब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, रूप, विपुल मनुष्य के कामभोग भोगता हुवा विचरता था ॥ ८५ ॥
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी.
Jain Education Intematonal
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org