Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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अनुवादक-पालनमवारी मुनि श्री अमोलक ऋपिणी -
वसे पुंडरीय अणगारे ॥ २८ ॥ एवं खलु समजेणं भगवया महावीरेणं आदिगरेणं तित्थगरेणं सयंसंबुद्धेणं जाव सिद्धिगए णामधेनं ठाणसंपत्तेणं एगणवीस इमस्स . नायज्झयणस अयम? पण्णत्ते तिबेमि ॥ १९ ॥ गाथा ॥ वास सहरसंपि जई काऊगं,संजमंसुविउलपि ॥ अंत किलिट्रभाव, णविसुजइ कंडरीउब्ध॥१॥ तथा तत, अप्पेणवि कालणं केइ जहा गहिय सीलसाहति ॥ णिययकजं पुंडरिय महारिसिव जहा ॥ २ ॥ एगूणवीसमं जायज्झयणं सम्मत्तं ॥ १९ ॥ एवं खलु
जंबु ! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव सिद्धिगइ णामधेजं ठाणंसंपत्तेणं छटुस्स कुच्छ भी दुःख नहीं पाते हैं यावत चतुर्गतिक संसार का उल्लंघन करते ॥२८॥ अहो जम्बू ! श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी यावत् सिद्धि को प्राप्त हुने उनोंने ज्ञाता मूत्र के उनीमवे अध्ययन का यह अर्थ कहा ॥१९॥उपसंहार-महस्र वर्ष पर्यंत संयम पालकर भी अंतमें क्लिष्ट भाव धारण करता है वह कुंडीक जैसे विशुद्ध नहीं होता है अर्थत् दुःख पाता॥१॥ और जो कोई अल्प कालसे भी यह तथ्य चारित्रग्रहण कर शुद्ध पासता हैवा पुंडरीक महाऋषि जेसे अपना कार्य साधता है॥२॥या उबीसवा अध्ययन संपूर्ण हुवा ॥१९॥ अहो नंब! श्रीश्रमण भगवंत महावीर स्वामीने ज्ञातामत्र नामक छठा अंगका प्रथम श्रतस्कंधया अधिकार प्ररूपा शाइस
aamanaruna
पकाकराजाबहादुर काला मुखदेवसहायनी ज्वालामस्वदशी.
अर्थ
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