Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 768
________________ अर्थ 4 अनुवादक -बालब्रह्मचारीमुनि श्री अमोलक ऋषिजी -+-- आरक्ख देवताहरुपीहिं, अन्नेहिय बहुहिं काल डिसय भरणवासीहिं असुरकुमारेहिं देवहिं देवीहिय सद्धिं संपरिवुडा महयामहय जाव विहरइ ॥ ६ ॥ इमंचणं केवल क जंबूदी दीघे भारवा से विउलेणं ओहिणा आभोएमाणी पासइ २त्ता तत्थ समणं भगवं महावीरं जंबूदीचे दीवे भारहेवासे रायगिहेनगरे गुणासिलए चेइए अहा पंडिरूवं उग्गहं उगिव्हिचा सजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणं पासति पासित्ता, हड्ड चित्तमानंदिया पीतिमाणी जाव हय हियया सिंहामणाओ अब्भुट्ठेतिर चा पायपी ढातो पचे सहनि २ ता पाउयातो सुरति २ ता तित्थयराभिमुही सत्तट्ठपयाई अणुतीन परिषदा, सात अनीका, सात श्रनीकाधिपति, सोलह हजार अस्मरक्षक देव और अन्य बहुत कालाव { तंसक भवन में रहनेवाले देव व देवियों की साथ परवरी हुई यावत् विचरती थी || ६ | उस समय काली देवी विपुल अवधिज्ञान से संपूर्ण जम्बूप को देख रही थी. उतने में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में यथामतिरूप अवग्रह याचकर संयम व तप से आत्मा को भावते हुये श्री श्रमण भगवंत महावीर स्वामी को देखकर हृष्ट तुष्ट हुई, चित्त को आनंद करनेवाली प्रीति उत्पन्न करती {हुई यावत् उल्लुमित हृदयवाली बनकर अपने सिंहासन से उपस्थित हुई, पादपीठ से नीचे उतर कर ( पादुका दूर रखी. तीर्थकर की सन्मुख सात आठ पांव गई, बांया जानु ऊंचा रख डावा जानु पृथ्वी पर Jain Education International For Personal & Private Use Only -राजाहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी ७६० www.jainelibrary.org

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