Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
४१४
-
- अनुवादक- लिब्रह्मचारी मुनि श्री अपाला ऋषिजी
अभिरूवा पद्धिता ॥ तस्याणं ब्रहृणि किण्हाणिय जाय सुकिलाशिय कट्टकम्माणियपत्थकम्माणिय चित्तलेप, गरिम, कोढ़ा, पूरम, संघातिम, उबदसिज्जमाणा चिट्रति ॥ तत्थणं वह णे असणाणय स्यणाणिय अत्थुयपत्थयाय चिटुंति ॥ तत्थणं वहवे नडाय जाव दिनभइ भत्तवेयणातालयरकम्म करेमाण! विहरति ॥ राथमिहवि जिगतो एत्थ. बहुजणो तेतु पुव्वणत्थेसु आसण सयणेसु सनिसनीय संतोय सयमाणोय पच्छमाणोय सोहमाणोय सुहंसहेण विहरति ॥.१६ ॥ ततेण णदे दाहिल्लेि वणसंडे एग महं महागससालं कारावेइ, अणेग
जाव पडिरूवं ॥ तत्थण बहवे पुरिसा दिनभइभत्तवेयणा विउलं असणं पाणं की माला के गेंद जैसे गुस्था कर. तिल सुवर्ण वगैरह की प्रतिमा जैसे संधातिम ये चारों प्रगर के त्रिों दर्शाये थे. उसमें प्रा. शयन. पाट पाटल रखे थे, उसमें वेतन देकर नत्य कला करने वाले नौकरों रखे ५, में स्व यहात्तव कान हुए विचरने थे. राजगह नगरी में मे निकलते हुवे लागों का रख हुने आस शयन पर बैठन थे, सोते थे. कथा सुनने थे, अनेक नाट्यःदिक देखो हो सुख पूर्वक विचरत य ॥१६॥ उ. नंद मणिपार श्रष्टिने दक्षिण के वनखण्ड में एक बड़ी भोजनशाला बनाइ. वह अनेक स्तंभवाली यावत् प्रतिरूप थी. उम में वेतन देकर है।
प्रकाशक सजावहादुर लाला मुखदव महायजा ज्मालामादजी
अर्थ
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org