Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
सूत्र
अर्थ
बिंदुमि पविखतमि अगाई पिपलिगा रहस्सासि ववरादिज्जति तं जति अहं एवं मालातिय थंडिल से सव्वं णिसिरामि ताणं बहुगं पाणाणं ४ वहकरणं भविस्मति तं मेयं खल ममेयं सालीयं जाव गाढं सयमेव आहारितए ममंत्र एएणं सरिएणं बिजाओ तिकट्टु, एंव संपेहति २ ता मुहत्तिय पडिलेहेति २ ससिमोवारथं कार्य पमज्जेत २ तं सालतियं तित्त कडुयं बहुनेहगढ विलमिल पणगभूएणं अपाणं सव्यं सरीर कोदुगंसि पक्खिवति । १७ ॥ ततण धम्मरुइस्स तं सालति जाव णेहावगाढं आहारियस्स समाणस्स मुहुत्तंतरणं परिणममाणांस सररिगसि वेणा पाउन्भूया उज्जला जाव दुरुहियासा ॥ १८ ॥ ततेणं से धम्मरुइ अणगारे शाक का आहार करना चाहिये. यह मेरा शरीर ही निर्बंध है. ऐसा विचार कर मुखात्रिका की प्रतिले खना की और मस्तक सहित सब उपर की काया की प्रमार्जना की. फेर उस वटुक स्नेह वंत सब शाक को जैसे सर्व अपने बिल में प्रवेश करता है वैसे ही बिना पानी मे अपने शरीर रूप कोठे में डाल दिया. ॥ १७ ॥ उस स्नेहवंत कटुक तुम्बी का आहार किये पीछे एक मुहूर्त में उस की परिणत हुई. इस तरह उस शाक का परिणाम होने से शरीर में उज्जल यावतु नहीं सहन होमके वैसी उजाल वेदना प्रगह हुई || १८ || जब धर्मरूचि अनगार स्थान, वल, वीर्य पुरुषाकार व पराक्रप रहित हुए,
44 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अपलक ऋषेत्री
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
*काशक राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्वाला मसादर्ज
५६८
www.jainelibrary.org