Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
4
षष्टांग नाताधर्म कथा का प्रथम श्रुनस्कन्ध +8+
ऊस्सरणो जाव उवणेइ ॥ तएणं कणगकेऊराया ते आसमद्दए पुरिसे सक्कारेइ सम्माणइ २ सा पडिविसजेइ ॥ २४ ॥ तएणं ते आसा बहुहिं मुहबंधे. हिय जाव छिवप्पहारेहिय बहुणि सारीरमाणसाणि दुक्खाणि पावति ॥ एवामेव . समणाउसो ! जो अम्ह णिग्गंथावा णिग्गंधीवा पवइएसमाणे इ8मुसद्द फरिस रतरूवगंधेसुय सजति रजति मिज्झति मुज्झति अझोववजति, सेणं इहलोए थेव बहुणं समणाणं बहुणं समणीणं बहुणं सावयाणं बहुणं सावियाणं हीलणिजे आव
अणुपरियटिस्सति ॥ २५ ॥ गाथा ॥ कलरिभिय मुहुर तंति तलनाल बंस ककुदाभिप्रहार मे, व छालों के प्रहार से मार मार कर विनयादि गुणों शिखलाये. फोर कनककेतु राजा की पास उन अश्वों को लाये. कनक तु राजा उन अश्वपालों का सत्कार सन्मान करके उन को विसर्जित किये ॥ २४ ॥ बहुत मुख बंधन यावत् छाल के प्रहार से उन अश्वों के शारीरिक व मानसिक बहुत दुःख हुना. अहो आयुष्मन्त श्रमणों ! जो हमारे साधु साध्वी दीक्षित बनकर इष्ट शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गंध में मन होंगे, रंजित होंगे. गृद्ध, मोहित व तन्मय होंगे वे इस लोक में बहुत साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका से हीलनीय, निंदनीय होंगे यावत् अनंत संसार में परिभ्रमण करेंगे ॥ २५ ॥ अव आगे पांचों :
कीर्ण जाति के घोडे का सतरहवां अध्ययन
4
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org