Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari

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Page 725
________________ पष्टांगताधर्मकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 42 चोर सेणावती परिवसति, अहंम्मिए जाव अधम्म केऊ समुट्ठिए बहुणगरणिग्गय जसे सूरे दढप्पहारी, साइस्सिए सद्दवेही, सेणं तत्थ सीहगुहाए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं, आहेवच्चं जाव विहरति ॥१२॥ ततेणं से विजए तक्कर चोर सेणाक्ती, बहुणं चोराणय. पारदारयाणय गंठिछेयाणय, संधिछेयगाणय, खत्तखणगाणय, राया-" बराहाणय,अणधारगाणय,बालघायगाणय बीसंभघायगाणय,जयकाराणय खंडरक्खाणय अनसिंच बहुणं छिन्नभिन्न बाहिराहयाणं कुडंगेयावि होत्था ॥१३॥ तएणं से विजए चोरों का अधिपति रहता था. वह अधर्म में रक्त यावत् अधर्म की वजा धारण करनेवाला था. बहुत नगर व निगमों में चोरी के कार्य में मुविख्यात था, वह शूरवीर, दृढ प्रहारी, साहसिक, व शब्दबधी या. चह वहां चोरपल्ली में पांचसो चोरों का अधिपतिपना करता हुंचा विचरता था ॥ १२॥ वह विजय नामक चोर की सेनापति बहुत चोरों को, परदारा गमन करनेवाले को, ग्रन्थी भेद करनेवाले को, सांधे छेदन करनेवाले को, खास देनेवाले को, राजा के अपराध करनेवाले को, ऋण धारण करनेवाले को, चालकों की बात करनेवाले को, विश्वासघाती को, धतखेलने वाले को, दंडपाशवाल को व दण्डादि हाथ, पांव नाक इत्यादि के छेदन करनेवाले अन्य बहुत अन्यायी लोगों को बांशनाली समान आधार हाभूत था-॥१३॥ वह विजय चोर सेनापति राजगृह नगर की अग्निकूत के देशों में बहुत ग्राम को धान 48+ सुषुपा दारिका का अठारहवा अध्ययन 498 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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