Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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अनुवादक-कालब्रह्मचारी मान श्री अमोलक ऋषिजी
उवटुवेति, उवटवेइत्ता एवं वयासी-इच्छामिणं सामी ! तुम पेहि अब्भणुगाए समाणे. रायगिहस्त णयरस्स बहिया जात्र खणावित्तए ॥ अहासुहं देवाणुप्पिया ॥१२॥ तएणं से णंदे मणियारसट्ठी सेणिएणं रम्ना अब्भणुणाए समाणे हट्टतुट्टे; जाव रायगिह मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २त्ता वत्थुपाढयारोतियसि भूमि भागसि गदपोक्खरिणिं खणावेउं पयत्ते • पावि होत्था ॥१३॥ तएणं सा गंदा पोक्खरणिं अणुपुश्वेणं खणमाणा २ पोक्खरिणी
जाएयावि होत्था, चाउकोणा समतीरा अणुपुत्वं सुजाय वप्पसीयल जलासंछन्न पत्तभि
समुणाला बहु उप्पल पउम कुमुद णलिणि सुभग सोगंधिय पुंडरीय महापुंडरीय सयपत्त चाहता हूं. राजा ने कहा अहो देवानुप्रिय ! तुम को जैसा मुख होचे वैसा करो ॥१२॥ श्रेणिक राजा की आज्ञा होते नंदमणिधार इष्ट तुष्ट हुवा और राजग्रह नगर की बीच में होता हुवा शिल्पकारों को अनुकूल स्थान में - पुष्करण खुदबने को प्रवृत्त हुवा. ॥ १३ ॥ अब नंद मणियारने अनुक्रम से पुष्करणी खोदवाते हुवे एक अच्छी पुष्करणी तैयार की. यह चार कुना बाली, समान तीर घाली हुइ. उस को कोट बनाया, उस का पानी, शीतल रहने लगा, पर व मृणाल से उस का वानी ढका हुवा था, बहुत उत्पल, पद्म, कुमुद, नलिन, मुगंधित पुंडरीक, महापुंडरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फल व केसरा युक्त वह बावडी थी, उस की सुगंध के
• मानक गजाबहादर लाला सुखदेनमहायजी ज्वालाप्रम्खजी.
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