Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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अनुवादक-धालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी +
विम्हाए चोक्खं परिवाइयं एवं वयासी-तुमे गं देवाणुप्पिया! बहुणी गामागर जाव अहिंडइ, बहुणं राईसर गिहाइ अणुपवि संति तं अत्थियाई ते कस्सविरणोवा ज व एरिसिए उरोहे दिट्ठपुब्धे जारिसएणं इम ममउरोहे ? || तएणं सा चोक्खा परिधाइया जियसत्तुरायं एवं वयासी-इसिं अवहसिय करेइ २ चा सरिसएणं तुमणं देवाणुप्पिया ? तस्स अगड दडुरस्स, केसणं देवाणुप्पिएसे अगड दहरे ? जियसत्तु ! सेजहा णामए अगड दरे सियासेणं तत्थ जाए तत्थेवबड्डे अण्णंअगडंबा तडागंवा दहंवा सरंवा
सागरंव अपासमाणे मण्णइ अयंचेव अगडंवा जाव सगरंवा ॥ तएणं तं कुवं अण्णे देखकर विस्मित हुया ऐमा बोला कि अहो देवानु प्रिय ! तुम को बहुन ग्राम नगर यावत् फीरते बहुत राजाओं के घरों में प्रवेश करते हुए जैसा मेरा अंत:पुर है वैना अंत:पुर अन्य किमी स्थान देखा. क्या? चोक्खा परिवाजिका किंचित् स्मित करके बोली अहो देवानु प्रिय ! तुप को के मेंडक जैसे हो. जिनशत्रु भी
राजा पूछने लगे कि अहो देतानु प्रिय! रह कूत्र के मेंडक का वृतान्त किप्त तरह है ! परिवाजिकाने कहा हो में जितशत्रु ! जैम एक कूो का मेंडक वहां ही जन्म पाया हुवा वहां ही वृद्धि पाया हुवा था. उसने अन्य
तलब, कूबा, द्रह समुद्र सागर वगैरह कुच्छ भी नहीं देखा था. इस से वह अपने मन में ऐपा ही मानता
प्रकाशक-राजाबहादुर लाला मुखदवसहायजी ज्वालाप्रसादजी .
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