Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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परिगहसिंहरो; वासारत्त ऊऊ पंचओमो साहीणो ॥२॥ तत्थणं तुम्मं देवाणुपिया ! बहुसु वावीसुध जावे सरसरपत यानुय बहुसु आलीयधरएसुर जाव कुसुमधरए मुय सुहंसुहेणं अभिरममाणा विहरेज्जा ॥ २१ ॥ जइणं तुम्भे तत्थवि उबिग्गावा उसथा उप्पया भवज्जाह, ताणं तुम्भे उत्चरिखं वणसई गध्छ जाह, तत्थणं दो ऊऊ
साहीगा संजहा-सरदोष हेमंतोय (गाथा ) सत्यमोसणसवण्ण, कहो निलुगल पवृक्ष की मुगंध हा मुगंधि देने वाला गजवर समान मावृष्टवस्तु स्वाधीन हैं.॥१॥ अब वर्षाऋतका वर्णन करते हैं. इन्द्रगोप नामक कीड रूप पणियों से चित्रित पमा हवा, मेंड क शब्द रूप
रण के शब्दवाला, व मयूर के समूह से व्याप्त शिखरमाला पर्वत रूप वर्षऋनु स्व.धीन है ॥ २ ॥
ओ देवान प्रेय ! कहां तप हु चारही के यावत सगंबर की पंक्तियों में बहुत कुमुरगृह में सुख पूर्वक क्रिडा करते हुये विच॥२५॥ कदाचित तुम को वहां भी उद्वेग, उत्सुकता अथा भय । IF दिशा के बनखण्ड में जाना. वहां दो ऋतु के सुख सदैव रहते हैं जिन के नाम शारद ऋ ( मृगभर
व पोवास वाली) और हेत ऋत (माघ फलान मास वाली)इन का वर्णन भी गथ से को बहाल व म पुण रूप धवाल, गिलात्पल, पल कमल नलिनी कम रूपशा बाला,
यही भावना को गज की उपमा दी है, वर्षाऋतु को पर्वत की इषमा दी है.
ज़िनरक्ष जिनपाल का नया अध्ययन
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