Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
सूत्र
अर्थ
*पष्टांद्र ज्ञाताधर्यकथा का प्रथम श्रुतस्कंध 48
उवसग्गेहिय आहे नो संचाएति चालित एत्रा लोभिचएका विपरिणामित्तएवा, ताहे संता संता परितंता निविष्णा समाणी जामेवदिसि पाउष्भया, तामेवदिसिं पडिगया ॥ ४३ ॥ ततणं से सेलए जबखे जिणपालिएण सर्जि लवण समुहं मज्झं झणं वीतित्रयति २ जेणेव 'चंपाए नगरीए तेणेव उनागच्छ २ ता पाए नयरीए गुजा जिणपालि पिट्ठातो उयारेति २ ता एवं वयासी-एसणं देवाणुप्पिया ! पानयरी दीसति तिकट्टु, जिणपालिय आपु छति २ जामेव दिलि पाउम्भूमा तामेवादारों पडिगया ॥ ४४ ॥ ततेणं से जिणपालिए चंप अणुपविसति २ता जेणव सर गिहूं जेणे अम्मापियरो तगेव उवागच्छ २० अमापिऊणं रोयमाणे जाव विलश्माण जिणरक्खियं
पास आइ. उन को बहुत अनुकुल व प्रतिकुल, कठोर व मृदु, शृंगार युक्त व करुणाजनक उपषगों से चलित करने को समर्थ हुई नहीं सब दुःखित व वंदित बनकर अपने स्थान गइ ||४३|| अब वह लक यक्ष ( जिनपाल की साथ लाण समुद्र की बीच में होकर चंपा नगरी की पास आया और वहां अंग उद्यान में जिनपाल को अपनी पीढपर उतारकर ऐसा बोला अहो देवानुप्रिय यह चंपा नगरी दीखती हैं. पीठ जिनपाल को पुछ कर वह यक्ष अपने स्थान पीछा गया. ॥ ४४ ॥ वह जिनपाल चंपा नगरी में प्रवेश कर अपने गृह आया और विलाप करता हुवा जिनरक्षित का सब वृत्तांत अपने मातापिता की
पास कहा.
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
44 मिनरल जिनपाल का नववा अध्ययन 48
४५१
www.jainelibrary.org