Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमापाजी
रुक्खसंहस्साई तत्थ सुबहुणि णिल्लायंते विणिट्टरटेव वणयरविंदे वायाभेटुव्बपोए मंडलावायव्वपरिभभमंते अभिक्खणं २ लेंडणियरं पमुंचमाणे बहुहिं हत्थीहिय जाव सद्धिं दिसोदिसिं विप्पलाइत्ता तत्थणं तुममेहा ! जुण्णे जरा जज्जरिय देहे आउरेज्झझिए पिवासिए दुबले किलंते णट्ठसुइए मूढदिसाए सयाओ जूहाओ विप्पहुणे दवणवजाला
परद्धे उण्हणय तण्हाएय छुहाएय परब्भाहएसमाणे भीए तत्थे तसिए उव्विगे संजायभए रूप छिद्र विकसित किया, उम में से जिव्हा बाहिर निकाली, महा भय से व्याकूल बनकर तुम्बाकार, दोनों कान खडे किये, उन की मूंढ अत्यंत जाडी हुई, पूंछ ऊंचा किया. विरस निरस रहित अरडाट , शब्द से आकाश तल फोडता हुवा,पांवों के प्रवाह से मेदनी तल तोडता हुवा, चित्कार पाडता हुवा, सब दिशि विदिशियों की बेलियों का छेदन करता हुवा वृक्षों के समुह तोडता हुवा, महा वायु से भ्रष्ट होकर समुद्र में लीरते हुए जहाजों तथा मंडलिक वायु जैसे भ्रमण करता हुवा, वारंवार लीडे डालता हुवा था
हाथी बहायणियों के साथ दो दिशि में पलायन करता हवा अहो मेघ! तू जीर्ण व जर्जरित देहवाला हुवा. आकुल व्याकुल बनकर क्षुधा व तृषा से पीडित दुर्बल बनकर भगने लगा. बहिरा जैसा के होकर दिग्मूढ बना हुवा अपने यूथ में से निकल कर वन की दावाग्नि की ज्यालासे पराभव पाया. ऊष्ण ,
ज्वालासे तृषातुर क्षुधातूर बनकर पहुन दुःखित हुवा, डरा, त्रासत हवा, उद्वेग पाया और चारों तरफ
.जाबहादुर लाला मुखदव सहायजी ज्वालाप्रसादजी.
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