Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
man
प्रकाशक-राजावर
१२४
॥ १४२ ॥ तएणं से कलभए तुम पामइत्ता तंच पुचवरं समरइ आ रत्ते रु? कुदिए चंडकिए मिसिमिसेमागे जेणब तुम तणव उवागच्छइ २ ता, तुम तिक्वेहिं दंतमुसलेहिं तिक्वन्तो पिटू उच्छु भइ २ त्ता पुत्वरं णिज्जाएइ २ त्ता ट त पाणियं पियइ २ ता जामेय दिसि पउभए तामेदिसिं पाडगए ॥ ११३ ॥ तरणं तव मेहा ! सरीरगति वेयण पाउन्भवित्था उज्जलाति उजला विउला कक्खडा जाव दुरहियासा पित्तज्जर परिगयसरीरा दाहवक्कतीएयावि विहारत्था ॥ १४४ ॥ तएणं
तुम मेहा ! तं उज्जलं जाव दुरहियासं सत्तराइदिय वेयणं वेएसि सीमं वाससयं हुवा भगता हुवा उम ही अला पानीवाले सरोबर में पानी पीने को आया ॥ १४२ ॥ अब उस युवान हाथीन तुझ देखकर अपना पर्व बर याद आया और आमरक्त. रुष्ट, कपित, प्रचंड होरर दांत पीसता हवा तेरी पास आया. तरीठ में ताक्षण दंतूशल, मे नीन वक्त मारकर पूर्व वैर का बदला लेकर हृष्टतुष्ट हुवा और पानी पीकर जहां मे आया था वहां पीछा गया ॥ १४३ ॥ अब अहो मेघ ! उस समय रे शरीर में उज्जल, विपुल कर्कश यावन नहीं सहन हो सके वैसी वेदना हुई, शरीर में पित्तर व दाह।
उत्पन्न हवा ॥ १४४ ॥ अब अहो मंघ ! उज्वल यावत् सहन न होमक वैसी वेदना मात गांव|दिन पर्यंत वेदकर एक मो पीस वर्ष का उत्कृष्ट आयुष्य पालकर आर्तध्यान से दुःखित होताना
१ अनवादक-बाल ब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक रुषिजी
लालाखदेवसहायजी ज्वालाप्रमा*
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org