Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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47 अनुवादक-बालब्रह्म चारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी,
पन्नत्ता॥तत्थणं धण्णरस देवस्स चत्तारि पसिओवमाति ठिती पण्णत्ता॥सणं धण्णदेवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं ठिइक्खएणं भवक्खएणं अणंतरंचयं चइत्ता महाविदेहेवासे सिञ्झिहिति जाव सव्वदुक्खार्ण मंतं करेहिति ॥५५॥ जहाणं जंबु!धण्णणं सत्थवाहेशं नो धम्मोतिवा जाव विजयस्सतक्करस्स ततो विपुलाओ असणं पाणं खाइमं साइमं संविभागकए नन्नत्थ सरीरस्स रक्खणट्ठयाए ॥ एवामेव जंबु ! जेणं अम्हं णिग्गंथोवा णिग्गंधीवा जाव पवतिते समाणे ववगय हाणुमद्दण पुप्फगंध मल्लालंकारे विभूसे, इमस्स ओरालियरस सरीरस्स नो वन्नहेउवा, रूबहेउवा, विसयहउंवा, देवों की चार पल्योपम की स्थिति के ही वैसे ही पन्नदेव की चार पल्योपय की स्थिति है. वह धनदेव वहां से आयुष्य भव में स्थिति का क्षय होने से महाविदेह क्षेत्र में मीझेंगे, बूझेंग यावत् सब दुःखों का अंग करेंगे. ॥ ५५ ॥ अहो जम्बू ! धन्नासार्थवाहने उस विजय चो को अशनादि धर्मादि कार्य के लिये नहीं दिया था. वैभे ही हमारे साधु साधी यावत् दीक्षित बन कर स्रान मर्दन, पुष्प, गंध, माला, अलंकार विभूष' वगैरह का त्याग करके इस उदारिक शरीर को वर्ण (पुष्टि) के लिये, रुप के लिये, व विषय के लिये आहारआदि नहीं देते हैं परंतु ज्ञान दर्शन चारित्र का वहन करने के लिये ही देते हैं उन साधु साध्वी श्रावक
• प्रकाशक राजाबहादुर लाला मुखदेव सहायजी ज्वालाप्रसादजी .
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