Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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पिच्छ!ए ॥ ६ ॥ सोएत्थ जहित्थ.ए, पावइ आहार मालिंगत्ति ॥ विसाउ जाणाइ पुजो, परलोयाम दुहंचर ॥ ७ ॥ जहवा राक्खया बहुया, क्खिय सालीकणा जहत्थक्खा ॥ परिजण मण जाया, मोगं सुहाइंच संपत्ता ॥ ८ ॥ तहा जो जीवो सम्म, पडिवजित्ता महव्वये पंच, ॥ लेइ णिग्इयारे, पमायलेसं पिवतो ॥ ९ ॥ सो अपहिएकरई इहलोयमि विविऊहिं पणयपओ ॥ एगंत सुहीजायइ, पमि मुखपि पावेइ ॥ १० ॥ जहा रोहिणीओ
सुण्हा, रोविय साली जहत्थमभिहाणा ॥ बडित सालकणे, पत्ता सव्वस्स सामित्तं
त्य ग करनेवाला होता है ॥ ६॥ एमा साधु वेष से इस लोक म जैसा चा वैमा आहार प्राप्त कर अर्थ सकता है और यहां पर पूज्यनीयभी होता है परंतु परलोक में दःखी होता है॥ ७॥ श ली के कण रक्षने से
यथार्थनापवाली रक्षिता सा को मानने योग्य बनी व ओग सुख को भी प्राप्त किया ॥८॥ वैरही जाई
सधयों सम्यक् प्रकार से महात्र। अंगीकार कर निराधार मे पाला हैं और प्रमाद भालइ को भी छो. करते हैं वे माधु इस लोक में अला का हित में अधिक य ताप सुख प्राप्त करने हैं. उन के पांव में
पाइन विद्वानों भी पड़ हैं और परलोक में मक्ष सुख प्राप्त करते हैं ॥ १० ॥ खेत में पांच शाली रोप1 नपाली यथ र्थ न मवाली रोहिणी शादी के दाने की वृद्धि करने से मात्र का स्वामित्व, पाप्राप्त किया, वैसी
मुनि श्री अमोलक पिना
• पकत्सक गजाली मुखदवमहायजी म.ल.पगटन.
। अनुवादक-बाल ब्रह्मचा
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