Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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सूत्र
अर्थ
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अनुवादक बालब्रह्म चारा मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
निक्खेवं करेति २ चा संखसमएणं अप्पानं भावमाणे विहरति ॥ ३७ ॥ ततेनं सोगंधिए णयरीए सिंघाडग जात्र बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं वयासी एवं खलु सुए परिव्वा, इह मागते जाव विहरति ॥ परिसा णिग्गया सुंदसजोत्रि णिग्गए ततेणं से सुर परिव्वायए तीसे परिसाए सुदंसणस्म अन्नेसिं बहूणं संखाणं परिकहेति, एवं खलु सुदंसणा अम्ह सोयमूलए धम्मे पन्नत्ते सेविय सोय दुविहे पण्णत्तं, तंजहा- दव्वेसोयए भावसोएय, दव्वसोएय उदएणं मट्टियाएय, भावसोए दम्भेहिय मंतेहिय, जण्णं अम्हं {लेकर एक हजार परिव्राजक की साथ सौगंधि नगरीमें परिव्राजक का जहां स्थान था वहां आया. वहां पर अपनी सब वस्तुओं रखकर सांख्य मत का चितवन करता हुवा रहने लगा. उस समय सौगंधिक नगरी में) शृं । यावत् बहुत मनुष्यों में परस्पर ऐसा वार्तालाप होने बगा कि शुक परिव्राजक यहां आया है. यावत् परिव्राजक वसति में रहकर विचर रहा है. बहुत लोक उस की पास जाने को निकले वैसे ही सुदर्शन भी निकला. शुक्र परिवाजकने उस परिषदा में सुदर्शन शेठ व अन्य बहुत मनुष्यों को सांख्य मत का उपदेश दिया. और कहा अहो देवानुप्रिम ! हमारे मत में धर्म का मूल शूचि है, शुचि दो ( प्रकार की कही है—१ द्रव्यशुशिव २ भावशुचि. उस में से द्रव्य शुचि यांनी व मिट्ट से होती है और भाव शूचि दर्भ व मंत्र से होती है. अहो देवानुप्रिय ! हम को किसी प्रकार से अशूवि होवे तो पाहले
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० प्रकाशक - राजाबहादुर लाला सुखदेवसहायजी ज्यालाममादजी •
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