Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
View full book text
________________
488
षष्टाङ्ग ज्ञाताधर्मकथा का प्रथम श्रतरसन्ध
उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइ २ त्ता भोयणं पिंडियं उर्वति २ उलंछइ २ त्ता भायण इं गिण्हइ रत्ता भायणातिं धोवइ २त्ता हत्थसोयं दलयति २त्ताधणं सत्थवाहं तेणं विपुलेणं असणं पाणं खाइमं साइमं परिवेसइ ॥ ३२ ॥ ततेणं से विजए तकरे धण्णं सत्थवाहं एवं वयासी-तुमेणं देवाणुप्पिया ! मम एतातो विपुलातो असणं पाण खाइमं साइमं संविभागं करेहि ॥ ततेणं से धण्णे सत्थवाहे विजयं तकरं एवं वयासी-अवियाइ अहं विजया! एवं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं कायाणवा सूणगाणवा दलएज्जा उकूरडियाए वाणं छडेजा णो चेवणं तब पुत्तघायगस्स पुत्तमारगस्स
अरिस्त, वेरियस्स पडिणीयस्त पच्चामित्तस्स एत्तो विपुलाओ असणं पाणं खाइमं और वहा भोग्न पिण्ड रखा. उसने उस को खोलकर उस में से भोजन [ थाली कटोरे ] लिया, उभे पनामे धाकर स्वच्छ किये, फेर हथ धोए, और धनसार्थवाहको विपुल अशन पान,स्वादिम, व स्वादि परुम ||३२|| उस समय विजय चोर धन्नासार्थवाह को बोला कि अहो देवानुप्रिय ! इस विपुल अशनादि से तुम मुझे कुच्छ विभाग दो. तब धन सार्थवाह उस तस्कर से ऐमा बोले कि अरे विजथ ! इम अशनादि को मैं कौरे या कुत्तों को डालदू अथवा उकरडपर डाल दू परंतु तूं कि जो मेरे पुत्र की धास करने वाला,
धन्ना सार्थवाह का दूसरा अध्याय
436
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org