Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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सूत्र
अर्थ
48 अनुवादक - बालब्रह्मचारी मुनि श्री अमोलक ऋषिजी
- मल्लालंकारं गहाय मित्तनाति नियग संयण संबंधि परिय महिलाद्दिय सद्धि संपरिबुडा रायगिहं नगरं मज्झमज्झणं णिग्गच्छति २ त्ता, जेणेव पोक्खरणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता पुक्खरणिं उग्गाहिति २ व्हायाओ कयबलिकम्माओ सव्वालंकार विभूसिआओ तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणीओ जाव परिभुजमाणीओ दोहलं विणेति ॥ एवं संपेहेति २ कलं जाव जलते जेणेव धणे सत्यवाहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइत्ता, घण्णं सत्थवाहं एवं वयासी एवं खलु देवापिया ! मम तस्स गन्भरस जाव विणेति, तं इच्छामिणं देवाणुप्पिया ! तुम्भहिं अब्भणुष्णाया समाणी आव त्रिहरितए ? अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंध
वे
{ नगरी की मध्य बीच में से नीकलती है और पुष्करणी वावडी पास जाकर उस में स्नान कर सर्वालंकार से विभूषित बनी हुई उस विपुल अशनादि को भोगवती हुइ अपना दोहद पूर्ण करती है उन माता को धन्य है यावत् शुभलक्षणवाली है. इस तरह विचार कर प्रमात होते धन्नामार्थवाद की पास आई और धमासार्थवाह को कहने लगी कि मेरे इस गर्भ को ऐसा दोहद उत्पन्न हुवा है कि जो माता यावत् उक्तप्रकार दोहद पूर्ण करती है उन को धन्य है. इस से अहो देवानुप्रिया आप की अनुज्ञा होवे तो मैं उक्त | प्रकार से दोहद पूर्ण करने के लिये विचरूं. अहो देवानुप्रिये ! तुम को जैसे सुख होवे वैसे करो. विलम्ब
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० प्रकाशक- राजाबहादुर बाला सुखदेवसहायजी ज्वालाप्रसादजी
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