Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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प्रथम श्रुतरा 4
वणवे अढाइजाई राईदियाई तं वगं झामइ णिदिए, उच्चरए उनसते णिज्जाएयावि होत्था ॥ १६४।। तएवं ते वहवे सीहा जाय विणाय तवग विट्रय जाव
झापासति २त्तः अनिय दिगमका ॥ १६५ ।। तर सं वय हत्थी जाय छहार पारवन हया समाणा तओ मंडल ओ पाहाति २ दिसं विपरित ॥ १६६ ॥ स तम नेहा जो जानकि मिटिललिया (जगते दुल किलंते जनिए पवालिए अत्यामे अबल पर अचंकमाजो थाणुष तने वेगणविपसारस्लामि तिक, पाएपसारेमाणे विज्जुहए विरयय
अर्थ
ष्टाङ्गशालाधमकथा
व अढाइ दिन पर्यंत हा पीछे स्वयमेव शांत हुवा व ज्वालाओं बंध होगइ ॥ १६४॥ पूर्वोक्त बहुत सिंह याच चिउल अग्नि को बंध यावत् शांत दखकर अग्नि भय से रहिन बने. ॥ १६५ ॥ उस समय र सनी या क्षणा से वन बने हुये उस मंडल से नीकल कर दशों दिशी में फोर ॥१६६॥
मेध! तू जीर्ण व जरा से मेरित देह वाला बना हुमा था. शिथिल त्वचा मे तेरे गात्रों बंधाये थे. नू दूल, क्लांन, क्षुधा व तृपा से पीडित, शागरिक बल रहित, आधार रहित, निर्बल, पराक्रम हित व चलने में अशक्त व एक स्थान खडा रहने से स्थंभित गात्र बाला हुला. जमे शिशुत् गिरने से रजत रिका पहिले नमा हुरा भाग पृथ्वी पर गिरजाता है वैसे ही पांच सारने की इच्छा से पांव पसारता
उक्षिप्त (मेघकुमार) का प्रथम अध्ययन BF
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