Book Title: Agam 06 Ang 06 Gnatadharma Sutra Sthanakvasi
Author(s): Amolakrushi Maharaj
Publisher: Raja Bahaddurlal Sukhdevsahayji Jwalaprasadji Johari
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मुनि श्री अमोलक ऋषिनी +
तएणं मेहाइ ! समगे भगवं महावीरे मेहंकुमारं एवं क्यासी-सेणणं तुम मेहा ! पुत्ररत्ता. वरत्तकालसमयंसि समणेहि णिगंथेहिं अयणाए पुच्छणाए जाव महालियं चणं. राई णोसंचाएमि महुतमवि अक्खिणिमिल्लावेत्तए ॥ तएणं तुम मेहा! इमे एयारूवं अज्झथिए समुप्पजित्था जयाणं अहं अगारमझेासामि तयाणं मम समणा णिग्गंथा आढायंति, जप्पभिइंचणं मुंडेभबित्ता आगाराओअणगा. रियंपव्ययामि तभिवणं मम समणा णोआढायंति जाव णोपरिमाणति,
अदुतरचणं समणाणिग्गंथाराओ अप्पेगइया वायणाए जाव पायरयरेणुगडियं करेंति; त सेयं खलु भमकल्लं पाउप्पभाए समणं भगवं अपुच्छित्ता पुणरवि अगार. __ मञ्छे आवप्सित्तए, तिकटु, एवं संपेहइ २ अ हुहट्ट वसट्टमाणसे जाव रयणीखवेइ,
निर्ग्रन्थों वाचन पुच्छा के लिये यावत् जाने आने से तू मुहू मात्र भी निद्रा नहीं ले सका ? उस से तुझे *क्या ऐसा अध्यवसाय हुवा कि जब मैं गृहवास में था तब श्रमण निर्ग्रन्यों आदर सत्कार करते थे और
जब से मैंने दीक्षा ली तब से श्रमख निर्ग्रन्थों मुझ आदर सत्कार नहीं करते हैं यावत् अच्छा नहीं जानते हैं। तदुपरांत बडे रत्नाधिक माधुओं वाचनापुरनाके लिये यावत् पांव की रज से मेरा शरीर खराव कीया. इस लिये कल प्रभात में श्रमण भमत को पूराकर पुन: गहवास में रहना रेसा मुंश्रेय है, विचार कर
मायाक-राजावादर लालामुखदर सक्षयजी ज्वाला
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