Book Title: Vimalprabha Tika Part 01
Author(s): Jagannath Upadhyay
Publisher: Kendriya Uccha Tibbati Shiksha Samsthan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोट-भारतीय-ग्रन्थमाला-११ श्रीमञ्जुश्रीयशोविरचितस्य परमादिबुद्धोद्धृतस्य श्रीलघुकालचनतन्त्रराजस्य कल्किना श्रीपुण्डरीकेण विरचिता टीका विमलप्रभा [प्रथमो भागः]. भोट विद्या संस्थानम् सम्पादकः टिप्पणीकारश्च प्रो० जगन्नाथ उपाध्यायः भू० पू० जवाहरलालनेहरू रिसर्च फेलो पालिविभागाध्यक्षचरश्च सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये वाराणस्याम् केन्द्रीय उच्च तिब्बती-शिक्षा-संस्थान सारनाथ, वाराणसी बुद्धाब्दे 2530 तमे श्रेस्ताब्दे 1986 तमे Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ BIBLIOTHECA INDO-TIBETICA SERIES NO. XI VIMALAPRABHATIKA OF KALKI SRI PUNDARIKA ON SRI LAGHUKALACAKRATANTRARAJA by SRI MANJUSRIYASA [ Vol. 1. ] भोट विद्या संस्थान Critically Edited & Annotated with Notes Ву JAGANNATHA UPADHYAYA Former Professor & Head, Department of Pali Sampurnananda Sanskrit University & Former Nehru Research Fellow CENTRAL INSTITUTE OF HIGHER TIBETAN STUDIES SARNATH, VARANASI 2530 B. E. ; 1986 A.D. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Bibliotheca Indo-Tibetica Series-XI Chief Editor : VEN. SAMDHONG RINPOCHE Principal Central Institute of Higher Tibetan Studies Sarnath, Varanasi First Edition : 550 Copies Price : (1) Hardbound Rs. 70.00 (2) Paperback Rs. 60.00 All Rights Reserved 1986 Published by : Central Institute of Higher Tibetan Studies Sarnath Varanasi-221007 (India) Printed by Ratna Printing Works, Kamachha, Varanasi Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोट-भारतीय-ग्रन्थमाला -11 श्रीमञ्जुश्रीयशोविरचितस्य परमादिबुद्धोद्धृतस्य श्रीलघुकालचकतन्त्रराजस्य कल्किना श्रीपुण्डरीकेण विरचिता टीका विमलप्रभा [प्रथमो भागः] INTAIN EN गोपिया संस्थान सम्पादकः टिप्पणीकारएच प्रो० जगन्नाथ उपाध्यायः .. भू०पू० जवाहरलालनेहरूरिसर्च फेलो पालिविभागाध्यक्षचरश्न सम्पूर्णानन्दसंस्कृतविश्वविद्यालये वाराणस्याम् केन्द्रीय उच्च तिब्बती-शिक्षा-संस्थान सारनाथ, वाराणसी नो बुढाब्दे 2530 तमे . .. खस्ताब्दे 1986 तमे Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोटभारतीयग्रन्थमाला 11 प्रधानसम्पादकः-भिक्षु समदोङ रिन्पोछे प्राचार्यः केन्द्रीय उच्च तिब्बतो-शिक्षा-संस्थानस्य सारनाथ, वाराणसी प्रथमं संस्करणम् : 550 प्रतिरूपाणि मूल्य : (1) सजिल्द : रु० 70.00 (2) अजिल्द : रु० 60.00 सर्वाधिकारः सुरक्षितः 1986 प्रकाशकः केन्द्रीय उच्च तिब्बती-शिक्षा-संस्थान सारनाथ वाराणसी-221007 (भारत) मुद्रक: रत्ना प्रिन्टिग वर्क्स, कमच्छा, वाराणसी Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ @ ( casa Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लामो परम-पावन-चतुर्दश-दलाई-लामा शासनधरसागरः Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयाशीर्ष बजासनसमोपे श्रीकालचक्राभिषेक-महामण्डले परमपावन-शासनधरसागराय दलाईलामामहाभागाय विमलप्रभा-समर्पणम् यत् सद्धर्मप्रवर्तनाय विहितं चक्रं पुरा तायिना पोताला-शिखरात् तदुद्गतमहो लामादलाईश्रितम् / हिंसामोहपरे परार्थविमुखे कोटिद्वयाधिष्ठिते .लोके साधयितुं हितं विजयते श्रीकालचक्रं हि तत् / / कालचक्राभिषेकेण प्राच्यपाश्चात्त्यदेशयोः / अपास्य विषमां चर्या पाविता लक्षशो जनाः // . ' तस्मै चक्रधराय शासनविदे संस्कृत्य या चाप्यते टीका सा विमलप्रभा विगलिता यत्नेन संयोजिता / प्रज्ञा या करुणान्विताऽतिसहजा तन्मुद्रयाऽलिङ्गिता लोकाः सन्तु परस्य दुःखहतये मञ्जुश्रिया दर्शिताः // कल्किना पुण्डरीकेण लोकनाथेन निर्मिता। बहोः कालाद् विलुप्सा सा जगन्नाथेन दीपिता // उपाध्यायो जगत्रायः बुद्धान्दे 2529 मिते मार्गशीर्ष पूर्णिमायाम Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ར༄༅། །གང་ཞིག་སྔོན་དུས་སྐྱོབས་པས་དམ་ པའི་ཆོས་ཀྱི་ཕྱིར་དུ་འཁོར་ལོ་བསྐོར་བ་དེ། / ཨེ་མ་གྲུ་འཛིན་རྩེ་ནས་རྒྱ་མཚོའི་བླ་མ་ལ་བརྟེན་གོང་ དུ་འཕེལ་བར་གྱུར།། རྨོངས་དང་འཚེ་བ་ལ་ཞེན་གཞན་དོན་རྒྱབ་ཕྱོགས་ - - མཐའ་གཉིས་ལ་ནི་ལྷག་གནས་པའི།། འཇིག་རྟེན་ལ་ནི་ཕན་པ་སྒྲུབ་ཕྱིར་དཔལ་ལྡན་དུས་ཀྱི་འཁོར་ ལོ་དེ་ནི་རྣམ་པར་གནས།། དུས་ཀྱི་འཁོར་ལོའི་དབང་ཆེན་གྱིས། །ཤར་དང་ནུབ་ཀྱི་ཡུལ་ གཉིས་ཀྱི། / སྤྱོད་པ་མ་མཉམ་རྣམ་བསལ་ནས། །སྐྱེ་བོ་འབུམ་ཕྲག དག་པར་མཛད། / ་བསལ་་ ( ii) Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ རྣམ་པར་ཉམས་པའི་འགྲེལ་པ་དྲི་མ་མེད་པའི་འོད་དེ་འབད་ པས་ཡང་དག་སྦྱར། / བསྟན་པ་རྟོགས་ཤིང་འཁོར་ལོ་འཛིན་པ་དེ་ལ་ལེགས་པར་ སྦྱར་ཏེ་དབུལ་བར་བྱ། / ཤེས་རབ་སྙིང་རྗེའི་རྗེས་ཞུགས་ཤིན་ཏུ་ལྷན་སྐྱེས་ཕྱག་རྒྱ་ མ་དེས་ཡོངས་སུ་འཁྱུད།། འཇམ་དཔལ་གྱིས་བསྟན་འཇིག་རྟེན་འདི་ནི་གཞན་གྱི་སྡུག་ བསྔལ་འཇོམས་ཕྱིར་ཉིད་གྱུར་ཅིག / རིགས་ལྡན་པདྨ་དཀར་པོ་སྟེ། །འཇིག་རྟེན་མགོན་གྱིས་ བསྐྲུན་པ་དེ། / རིང་མོ་ཞིག་ནས་རྣམ་པར་ཉམས། །འཇིག་རྟེན་མགོན་ པོས་གསལ་བར་བྱས།། ( iii,) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ག་ཡཱམགོ་རི་རྡོ་རྗེ་གདན་གྱི་ཉེ་འགྲམ་དུ་དཔལ་དུས་ཀྱི་ འཁོར་ལོའི་དབང་གི་དཀྱིལ་འཁོར་ཆེན་པོའི་དབུས་སུ་་ 7 མཆོག་ཏུ་དྲི་བྲལ་༧ རྒྱལ་དབང་ཏཱ་ལཱའི་བླ་མ་བསྟན་ འཛིན་རྒྱ་མཚོའི་ཞབས་ཀྱི་པདྨོའི་དྲུང་དུ་དྲི་མ་མེད་པའི་ འོད་འདི་ཡོངས་སུ་འབུལ་ལོ།། ( ir) Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय प्रायः आधुनिक इतिहासज्ञ विद्वानों की मान्यता है कि पालि-त्रिपिटक ही प्राचीन एवं प्रामाणिक बुद्धवचन हैं और महायान तथा तन्त्रपिटक बाद के विकास हैं, किन्तु परम्परागत बौद्ध विद्वान्, विशेषतः तिब्बती-परम्परा, इसे मानने के पक्ष में नहीं है। इनके मतानुसार महायान-पिटक और मन्त्र-पिटक (सूत्र और तन्त्र ) सर्वथा प्रामाणिक बुद्धवचन हैं। इधर आधुनिक गवेषणाओं के फलस्वरूप अनेक दुर्लभ ग्रन्थ एवं प्राचीन ग्रन्थों के सन्दर्भ उपलब्ध हुए हैं / इनके तटस्थ अध्ययन से तिब्बती-परम्परा की उक्त मान्यता की पुष्टि हुई है। तन्त्र-विद्या उत्कृष्ट अध्यात्मविद्या है। तन्त्र-शास्त्रों का यदि विधिवत गुरुपरम्परा से सम्यग् अध्ययन एवं मनन किया जाए तो प्रतीत होगा कि उनमें मान्यं बौद्ध धर्म और दर्शन के सिद्धान्तों से विपरीत कुछ भी नहीं है। तन्त्रों के बारे में प्रायः सामान्य लोगों में अत्यधिक विप्रतिपत्तियाँ दृष्टिगोचर होती हैं। कुछ लोग इन्हें जादूटोना मात्र समझते हैं, किन्तु वास्तविकता सर्वथा इससे भिन्न है। तन्त्र-विद्या केवल बाह्य भौतिक या ऐहिक उपलब्धियों का साधनमात्र नहीं है, अपि तु इसमें उत्कृष्ट बुद्धत्व एवं लोकोत्तर निर्वाण की प्राप्ति के क्षिप्र फलदायी उपाय प्रदर्शित हैं। यह सही है कि उन उपायों का सामान्य जनों में खुले-आम प्रकाशन नहीं किया जाता, क्योंकि इससे लाभ की अपेक्षा हानि की ही अधिक सम्भावना रहती है। अतः पात्रता का विचार कर गुरु योग्य शिष्यों को इस विद्या को प्रदान करता है। इसलिए तन्त्र-विद्या गुह्य-विद्या कही जाती है। ___ तन्त्र-सम्बन्धी भ्रान्तियों के निरास के लिए तथा उनका दुरुपयोग रोकने के लिए यह आवश्यक है कि पूरी सावधानी बरती जाए और तन्त्र-ग्रन्थों पर उत्कृष्ट कोटि का शोध, वैज्ञानिक सम्पादन एवं प्रकाशन कार्य हो / श्रीकालचक्रतन्त्र न केवल अनुत्तरतन्त्र का एक महत्त्वपूर्ण अङ्ग है, अपितु समस्त अन्य तन्त्रों से पृथक् यह एक विशेष प्रकार के सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है। ऐसा होने पर भी यह अन्य तन्त्र और सूत्र प्रस्थानों से गहरे रूप से अन्तःसम्बद्ध है। इसके अध्ययन से न केवल तन्त्र-विद्या की विशिष्टताओं पर ही प्रकाश पड़ता है, अपि तु तत्सम्बद्ध अनेक स्वतन्त्र विद्या-शाखाओं का भी सुस्पष्ट परिज्ञान होता है, जैसे-खगोलविद्या, भूगोल, ज्योतिष, आयुर्वेद, शिल्प-विद्या आदि / Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धा और विश्वास की दृष्टि से भी यह तन्त्र इस कलिकाल के लिए सर्वथा उपयुक्त माना गया है। प्रस्तुत श्रीलघुकालचक्रतन्त्रराज और उसकी विस्तृत विमलप्रभा टीका इस वाङ्मय का हृदय एवं सार है। इसके वैज्ञानिक संस्करण का प्रकाशन निःसन्देह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण और उपयोगी है। इस कार्य की विगत अनेक वर्षों से अपेक्षा की जा रही थी, किन्तु ग्रन्थ की विशालता, दुरुहता एवं गम्भीरता के कारण कोई विद्वान् इस कार्य को सम्पन्न करने का साहस नहीं जुटा पा रहा था। प्रो० जगन्नाथ उपाध्याय बौद्ध धर्म और दर्शन के विश्रुत विद्वान् ही नहीं हैं, अपि तु भारत में बौद्ध विद्याओं के प्रचार-प्रसार में इनका महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक योगदान रहा है। इधर इन्होंने बौद्ध तन्त्र-विद्या के अध्ययन की ओर ध्यान दिया है / हम प्रो० उपाध्याय के आभारी हैं, जिन्होंने इस कार्य को सम्पन्न करने का संकल्प लिया और वर्षों के अथक परिश्रम के फल-स्वरूप इस कार्य को सम्पन्न कर हमें भोट-भारतीयग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्रकाशित करने का अवसर प्रदान किया है। इस महत्त्वपूर्ण और अब तक अप्रकाशित विमलप्रभा ग्रन्थ का पहली बार प्रकाशन करके संस्था अपने को गौरवान्वित समझती है। यह भी अत्यन्त सौभाग्य की बात है कि बोधगया में श्रीकालचक्रतन्त्र के अभिषेक के पुनीत अवसर पर विश्वगुरु परम-पावन दलाई लामा जी के कर-कमलों में समर्पित कर इसका प्रकाशनोद्घाटन हो रहा है। आशा है इससे जिज्ञासु विनेय जनों . को तन्त्र-विद्या के अधिगम, शोध एवं अध्ययन में सहायता प्राप्त होगी। दिसम्बर 26, 1986 भिक्षु समदोङ, रिन्पोछे प्राचार्य केन्द्रीय उच्च तिब्बती-शिक्षा-संस्थान सारनाथ, वाराणसी ( vi ) Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ དཔར་སྐྲུན་པའི་ཆེད་བརྗོད། / / དེང་རབས་ཀྱི་མཁས་དབང་ལོ་རྒྱུས་རིག་པར་གཙགས་སུ་མཛད་པ་རྣམས་ཀྱིས་ པལིའི་སྡེ་སྣོད་གསུམ་འབའ་ཞིག་སྔོན་བྱུང་དང་སངས་རྒྱས་ཀྱི་བཀའ་ཚད་ལྡན་ཡིན་གྱི། ཐེག་པ་ཆེན་པའི་སྡེ་སྣོད་དང་རྒྱུད་སྡེ་རྣམས་ཕྱི་རབས་སུ་ཡར་རྒྱས་ཕྱིན་པའི་གསར་རྩོམ་་་ ཡིན་པར་བཞད་མོད། བརྒྱུད་ལྡན་གྱི་ནང་པའི་མཁས་པ་སྤྱི་དང་ཁྱད་པར་བོད་ཀྱི་བརྒྱུད་ འཛིན་རྣམས་གོང་གསལ་གྱི་བཞེད་པ་དག་ཁས་མི་ལེན་པར་མ་ཟད། ཐེག་པ་ཆེན་པའི་ སྡེ་སྣོད་དང་རྒྱུད་སྡེ་མཐའ་དག་སངས་རྒྱས་ཀྱི་བཀའ་ཚད་ལྡན་དུ་འདོད་པ་ཡིན། ད་ བར་སྐབས་དེང་རབས་ཀྱི་ཉམས་ཞིབ་པ་མང་པོས་འབད་བརྩོན་གྱིས་འཚོལ་ཞིབ་ བྱས་པའི་འབྲས་བུར་དུས་རབས་ཆེས་སྔ་བའི་རྙེ ད་དཀའི་དཔེ་རྙ ང་མང་པོ་རྙེད་པ་དང་་་་ དེ་དག་གཟུ་བོའི་བླ ས་ཉམས་ཞིབ་བརྟག་དཔྱད་བྱས་པའི་གྲུབ་དོན་རྣམས་རང་རེའི་སྔོན་་་་་ སྲ ལ་གྱི་བཞེད་རྒྱུན་ལ་རྒྱབ་རྟེན་བྱུང་ཡོད། གསང་སྔགས་ཀྱི་རིག་པ་འདི་ནི་ནང་དོན་རིག་པ་ཁྱད་འཕགས་ཤིག་ཡིན་པར་ མ་ཟད་བརྒྱུད་ལྡན་བླ་མ་ལས་ཉན་ཏེ་ཐོས་བསམ་ཚད་ལྡན་ཞིག་བྱེད་པ་ཡིན་ན་སྔགས་ཀྱི་་ རིག་གཞུང་དུ་ནང་པའི་ཆོས་ལུགས་གྲུབ་མཐའ་དང་འགལ་བའ ་ི་དོན་གནད་ཅི་ཡང་མེད་་་་ པའི་ངེས་པ་རྙེ ད་ཐུབ། གསང་སྔགས་ཀྱི་སྐོར་ལ་སྐྱེ་བོ་རང་འགའ་བ་མང་པོར་སྒྲ་ བསྐུར་གྱི་ལོག་རྟོགས་སྣ་ཚོགས་ཤིག་ཡོད་པར་མངོན་ཞིང་། ལ་ལས་སྔགས་ཞེས་པ་ མིག་འཕྲུལ་དང་སྒྱུ་མའི་གཞུང་ཙམ་དུ་འཁྲུལ་པའང་ཡོད་མོད། དངོས་དོན་དུ་དེ་ལས་ ( vii) Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ལྡོག་སྟེ་གསང་སྔགས་ནི་ཕྱིའི་དངོས་པོ་ཙམ་མམ་ཚེ་འདི་ཁོ་ནའི་བདེ་དོན་སྒྲུབ་བྱེད་ཙམ་་ མ་ཡིན་པར་བླ་མེད་རྫོགས་བྱང་གོ་འཕང་དུས་ཆེས་ཐུང་ངུའི་ནང་ཐོབ་པར་བྱེད་པའི་ཐབས་་ ཚང་ལ་མ་ནོར་བ་སྟོན་པར་བྱེད་པ་ཡིན། ཆེས་ཟབ་པའི་ཐབས་ཚུལ་དེ་དག་རྒྱུད་མ་སྨན་ པའི་སྐྱེས་བུར་ཁྲོམ་བསྒྲགས་སུ་སྟོན་ན་དགེ་ཆུང་ཉེན་ཆེའི་སྐྱོན་དུ་མ་འབྱུང་སྲ ད་པས་རྒྱུད་་་་ སྡེ་རྣམས་ལ་གསང་སྔགས་ཀྱི་ཐ་སྙད་བྱེད་པ་ཡིན། དེས་ན་གསང་སྔགས་ཀྱི་ཆོས་ལ་ ལོག་རྡོག་དང་ཉེས་སྤྱོད་འབྱུང་ཉེ་བ་དག་དྭ གས་ཟོན་ཆེན་པོས་འགོག་ཐབས་བྱ་གལ་ཆེ་་་་་ ཞིང་། དེའི་སླད་དུ་ཁུངས་ལྡན་གྱི་རྒྱུད་སྡེའི་གསུང་རབ་རྣམས་ལ་ཉམས་ཞིབ་ཚད་ལྡན་ བྱས་ཏེ་ཚན་རིག་དང་མཐུན་པའི་ཞུ་སྒྲ ག་དང་དཔར་སྐྲུན་བྱ་གལ་ཤིན་ཏུ་ཆེ་བར་མཐོང་། / དཔལ་དུས་ཀྱི་འཁོར་ལོའི་རྒྱུད་འདི་ནི་སྔགས་བླ་མེད་ཀྱི་ནང་ནས་ཤིན་ཏུ་གལ་ ཆེ་བ་ཞིག་ཡིན་པར་མ་ཟད་རྒྱུད་སྡེ་གཞན་དང་བཤད་སྲ ལ་མི་མཐུན་པའི་གྲུབ་མཐའི་རྣམ་་་ བཞག་དུ་མ་ཞིག་སྟོན་པ་དང་ཆབས་ཅིག་རྒྱུད་སྡེ་གཞན་ཀུན་དང་འབྲེལ་བ་གཏིང་ཟབ་ཡོད་ པ་ཞིག་ཡིན་པར་བརྟེན་གཞུང་འདི་ལ་ཐོས་བསམ་བྱེད་ན་གསང་སྔགས་ཀྱི་ཁྱད་ཆོས་དུ་མ་་ རྟོགས་ནུས་པ་དང་། ལྷག་པར་གཞུང་འདིར་མཁའ་དབྱིངས་གོ་ལའི་རིག་པ་དང་། ས་གཤིས་རིག་པ། སྐར་རྩིས། ཚེའི་རིག་བྱེད། བཟོ་རིག་པ་སོགས་ཐུན་མོང་དང་ ཐུན་མེན་གྱི་རིག་གནས་རང་དབང་བ་མང་པོ་ཞིག་ཀྱང་རྡོགས་ནུས་པ་ཡིན། དད་པ་དང་ ལྡན་པའི་བརྒྱུད་འཛན་རྣམས་ཀྱིས་རྒྱུད་སྡེ་འདི་ཉིད་སྙིགས་མའི་དུས་འདིར་བྱིན་རླབས་་་་ འཕྲི ན་ལས་ཀྱི་མྱུར་ཁྱད་ཁྱད་པར་དུ་འཕགས་ཤིང་ཤིན་ཏུ་དགོས་མཁོ་ཆེ་བ་ཞིག་ཡིན་་་་་ པར་ཡིད་ཆེས་བྱེད་ཀྱི་ཡོད། དཔལ་དུས་ཀྱི་འཁོར་ལོའི་བསྡུས་རྒྱུད་ཀྱི་རྒྱལ་པོ་དང་དེའི་འགྲེལ་བཤད་རྒྱས་ པ་དྲི་མ་མེད་པའི་འོད་འདི་ནི་རྒྱུད་སྡེ་འདིའི་གཞུང་ལུགས་ཐམས་ཅད་ཀྱི་སྙིང་པོའམ་་་་་ ( viii ) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ རྩ་བ་ལྟ་བུ་ཡིན་སྟབས་འདི་ཉིད་དེང་དུས་དང་མཐུན་པའི་དག་ཞུས་དང་དཔར་སྐྲུན་བྱེད་རྒྱུ་ ཧ་ཅང་གལ་གནད་དང་ཕན་ཐོག་ཆེ་ང་གདོན་མི་ཟ་བས་དེ་འདྲའི་ལས་དོན་ཞིག་འགྲུབ་ན་་ སྙམ་པའི་རེ་འདུན་འདུས་པའི་ལོ་མང་པོ་ཞིག་ནས་བྱེད་བཞིན་ཡོད་ཀྱང་གཞུང་འད་ཤིན་་་ ཏུ་ཟབ་ཅིང་རྒྱས་ལ་རྡོགས་པར་དཀའ་བས་མཁས་པ་སུས་ཀྱང་ཚུལ་འདིར་འཇུག་པའི་་་ སྤོབས་པ་བྱེད་མ་ནུས། སློབ་དཔོན་ཆེན་པོ་འཇིག་རྟེན་མགོན་པོ་མཆོག་ན་ནང་པའི་ཆོས་དང་མཚན་ཉིད་ ལ་མཁས་པའི་གྲགས་པ་ཐོབ་པ་ཙམ་མ་ཡིན་པར་འཕགས་ཡུལ་དུ་ནང་པའི་རིག་གནས་་ བསྐྱར་གསོ་ཁྱབ་སྤེ ལ་གྱི་ལས་དོན་ཐོག་ཐུགས་འཁུར་ཆེན་པོ་གནང་མཁན་གྱི་ལོ་རྒྱུས་་་་ དང་ལྡན་པའི་སྐྱེས་བུ་ཞིག་ཡིན་པ་ཁོང་གས་ཉེ་ཆར་ལོ་འགའ་ཤས་ནས་གསང་སྔགས་ཀྱི་ སྐོར་གསན་བསམ་གཏིང་ཟབ་གནང་བ་དང་མཉམ་དུ་གཞུང་ཆེན་འདི་ཉིད་དག་ཞུས་དཔར་ སྐྲུན་གནང་རྒྱུའི་ཐུགས་འདུན་དམ་བཅའ་གནང་སྟེ་ལོ་གྲངས་དུ་མའི་རིང་གུས་རྟག་ག་་་་་་ བརྩོན་པ་ལྷོད་མེད་གནང་བའི་འབྲས་བུར་ལས་དོན་འདི་ཡོངས་སུ་གྲུབ་སྡེ་འདི་ག་མཐོ་་་་ སློབ་ཀྱི་འཕགས་བོད་པོད་ཕྲ ང་གྲངས་བཅུ་གཅིག་པའི་ཁོངས་སུ་དཔར་སྐྲུན་ཞུ་རྒྱུའི་གོ་ སྐབས་བསྩལ་བ་འདིར་ཁོ་བོས་ཁོང་ལ་ལེགས་སོ་ཞུ་རྒྱུ་དང་། གལ་གནད་ཆེ་ཞིང་སྔོན་ ཆད་དཔར་དུ་མ་བསྐྲུན་པའི་གསུང་རབ་འདི་བོད་ཀྱི་མཐོ་སློབ་ནས་ཐོག་མར་དཔར་སྐྲུན་ཞུ་ རྒྱུའི་གོ་སྐབས་བྱུང་བ་འདིར་ཡི་རང་དང་དགའ་སྤོབས་ཆེན་པོ་ཡོད། ཕྱི་ལོ་ 1ec* ལོར་གནས་མཆོག་རྡོ་རྗེ་གདན་དུ་དུས་ཀྱི་འཁོར་ལོའི་དབང་ཆེན་ གྱི་སྐབས་དེར་ལྷར་བཅས་སྲ ད་ཞིའི་གཙུག་རྒྱན་༧གོང་ས་༧སྐྱབས་མགོན་ཆེན་པ་མཆོག་ གི་ཕྱག་གི་པད་མོར་ཡོངས་སུ་ཕུལ་ཏེ་དཔར་སྐྲུན་དབུ་འབྱེད་གནང་བ་ནི་ཤིན་ཏུ་སྐལ་བ་་་ ( ix) Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ བཟང་པ་ཞིག་ཡིན་པ་དང་ ཚུལ་འདས་དོན་གཉེར་ཅན་གྱི་གདུལ་བྱ་རྣམས་ལ་ཟབ་མ་ སྔགས་ཀྱི་རྒྱུད་དོན་རྟོགས་པ་དང་། ཉམས་ཞིབ་དང་། ཐོས་བསམ་བྱེད་པར་ཕན་ གྲོགས་ཡོང་བའི་རེ་འདུན་དང་བཅས་ལྔ རཎས འི་དབུས་བོད་ཀྱི་ཆེས་མཐོའི་སློབ་ཁང་གི་་་ སློབ་སྤྱི་ཟམ་གདོང་པ་དགེ་སློང་བློ་བཟང་བསྟན་འཛིན་གྱིས་ཕྱི་ལོ་ 104s: ཟླ་བ་ 12 ཆས་ 20 བཟང་པོར་བྲིས། / / / Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरोवाक् सुविदितमेवैतद् यद् बौद्धतन्त्राणां सामान्यतश्चतुर्धा विभागः क्रियते, तद्यथाक्रिया, चर्या, योगः, अनुत्तरयोगश्च / तत्रानुत्तरयोगस्तावत् सर्वेभ्यः श्रेष्ठयमावहति / अनुत्तरयोगं विहाय त्रयोऽप्यन्ये विभागा यद्यप्यल्पमहत्त्वा इव प्रतीयन्ते, तथापि ते अनुत्तरयोगभूम्यधिगतये सोपानभूता इवातो न कथञ्चिन्यूनमहत्त्वाः / अथ चानुत्तरायां स्थितौ त्रयोऽप्येते साहाय्यमाचरन्तोऽनुत्तरयोगाविनाभूता एवोपकारका भवन्तीति / - एतदपि सुविदितमेव यद् बौद्धतन्त्रसम्बद्धाः संस्कृत-ग्रन्था अनेकशताब्दीतः पूर्वमेव भारतवर्षतो विलोपमागताः / अतस्ते बहोः शतकान्नात्र समुपलभ्यन्ते / सौभाग्याद् भारतोपकण्ठे नेपालराष्ट्रे कतिपये बौद्धतन्त्रग्रन्थाः संस्कृतभाषायां समुपलभ्यन्ते / एतेषामन्वेषणं नाम सुमहत् कष्टसाध्यं कार्यम् / प्रायशः पञ्चाशद्वर्षतः पूर्वमेव वङ्गप्रदेशीयाः प्रातःस्मरणीया राजा-राजेन्द्रलालमित्र-महामहोपाध्यायहरप्रसादशास्त्रि-प्रबोधचन्द्रबागचीप्रमुखाः, अथ च महापण्डितराहुलसांकृत्यायनप्रभृतयोऽन्ये च विद्वांसोऽसकृन्नेपालं भोटदेशं च गत्वा ततोऽनेकान् दुर्लभान् महत्त्वपूर्णाश्च ग्रन्थान् समानीतवन्तः। विगतेषु दशाधिकवर्षेषु मयाऽपि वारचतुष्टयं नेपालयात्रां कृत्वाऽमुष्मिन् अन्वेषणकर्मणि कश्चन लघीयान् प्रयासोऽनुष्ठितः। तद्वशादद्य यावदनेकेऽनुपलब्धा अपरिचिताश्च ग्रन्थाः समुपलब्धाः / तेषु कालचक्रं नाम तन्त्रं प्राचीनं सुविशदं सर्वतन्त्राणामाकारभूमिरिवास्ते / एतस्य तन्त्रराजस्य टीकाऽपि बृहदाकारा विमलप्रभा नाम पूर्वमनुपलब्धवासीत् / पञ्चपटलात्मकमिदं मूलतन्त्रं तस्य टीकाऽपि विमलप्रभा पश्चपटलात्मिकैव / किन्तु न हस्तलिखितभाण्डागारेषु व्यक्तिगतसङ्ग्रहेषु वा काचिदेकाऽपि प्रतिः परिपूर्णा समुप लभ्यते / तत्र पञ्चमपटलस्य टोका तु नाद्य यावन्निःशेषा समुपलब्धा / मयाऽप्येतस्याः .. कतिपय एवांशाः समधिगताः। . श्रीलघुकालचक्रतन्त्रस्य विमलप्रभाटीकायाः कस्तावत् प्रवर्तनकाल इति मीमांसाप्रसङ्गे मूले टोकायां च यत्र तत्र प्रस्तूयमानं किञ्चिद् वृत्तं दृश्यते / टोकानुरोधेन परमादिबुद्धादेव प्रवचनमुपलभ्य दशबलेन खलु कालचक्रं नामेदं लघुतन्त्रं व्याकृतम् / तच्च तन्त्रं कलापदेशे पुनः मञ्जश्रिया निगदितम् / तत्र टोका च पूर्व राज्ञा सुचन्द्रेण लिखिता, या कलेवरेण षष्टिसाहस्रिकाऽऽसीत् / तामाधारीकृत्य पुण्डरीकेण कल्किना एषा द्वादशसाहस्रिका विरचिता / एषा च टीका सर्वेषां बौद्धतन्त्राणां सारसूचिकेव, अथ च सर्वतन्त्राणां यत् प्रतिपाद्यं वज्रपदं वज्रयानं वा तस्य भेदयित्री समस्ति / परम्परानुरोधेन एतट्टीकानुरोधेन वा वज्रयानं तावत् शास्त्रा बुद्धेनैव व्याकृतम् / वज्रसत्त्वा बोधिसत्त्वाश्चास्य वज्रयानस्य सङ्गीतिकारका अभवन् / एतस्मिन् विषयेऽस्ति येषां वैमत्यम्, तेषां कुबुद्धिनिवारणायापि टीकैषा पुण्डरीकेण विनिर्मिता / एतस्या वैशिष्टयं प्रकाशीकुर्वता कथितं Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेन यन्निर्वाणपारार्थिनां जनानां कृते सुखपूर्वकं विघ्नौघस्य द्रुतलङ्घनाय शीघ्रगामिनी नौकेव प्रज्ञा, यस्या वाहकमिदं कालचक्रयानं नाम तन्त्रम् / अत एव बौद्धनयेषु परात्प- . रत्वं निर्धारयता कालचक्रतन्त्रप्रतिपाद्यं परमसुखपदं सर्वतः समत्कृष्टमिति तत्र प्रवेशो नितान्तं कष्टकर इत्युक्तं द्वितीयपटलमूले टीकायां च / परात्परत्वेऽयं क्रमः-बुद्धेऽनुरागः, ततः श्रावकप्रत्येकबुद्धयानयोः, ततो वज्रयाने हेतुफलात्मके, ततः क्वचिद् आलम्बनशून्यतायां निरालम्बकरुणात्मिकायां कालचक्रतन्त्रप्रतिपाद्यभूतायां महामुद्राख्यायां प्रवेशः / विमलप्रभानुरोधेन सीतानद्या उत्तरे भागे भगवता बुद्धेनेदं तन्त्रं समुपदिष्टम् / अस्य तन्त्रस्य यथा सम्यक् प्रामाण्यं संरक्षितं स्यात् तथा वज्रपाणिना नामसङ्गीति प्रमाणीकृत्य एतत्तन्त्रं संगृहीतम् / यतो हि नामसङ्गीतेः सर्वमन्त्रनये नोतार्थत्वं ख्यातम्, अतस्तदानुकूल्येन कालचक्रतन्त्रस्यापि प्रामाण्यं सुस्थिरम् | कालचक्रतन्त्रस्य वैशिष्टयं ख्यापयतोक्तं विमलप्रभायाम्-"ये परमादिबुद्धं न जानन्ति ते नामसङ्गोति न जानन्ति, ये नामसङ्गीति न जानन्ति ते वज्रधरज्ञानकायं न जानन्ति, ये वज्रधरज्ञानकायं न जानन्ति ते मन्त्रयानं न जानन्ति, ये मन्त्रयानं न जानन्ति ते संसारिणः सर्वे वज्रधरभगवतो मार्गरहिताः" (पृ० 52) / एवं परमादिबुद्धो मोक्षार्थिभिः सच्छिष्यैः श्रोतव्यः सद्गुरुणा चोपदेष्टव्यः / एतदनुरोधेन परमादिबुद्धः कालचक्रो भगवान् वज्रसत्त्वः।। ___ इदं कालचक्रतन्त्रं कुत्र प्रादुरभूदिति जिज्ञासायां श्रोधान्य कटकमेवेदम्प्रथमतया समुपस्थितं भवति, तद्धि मन्त्रयानस्योत्सभूमिः, तस्य मन्त्रयानस्योपजीव्यभूतमिदं कालचक्रतन्त्रं नाम / अतो हि यद्यपि सामान्येन श्रीधान्यकटकमेव कालचक्रस्यापि देशनाभूमिरिति सम्भावयितुं शक्यते, तथापि मन्त्रयाने कालचक्रस्य वैशिष्ट्यं तस्य देशमागाम्भीर्य ख्यापयति / एतद् रहस्यं विवरोतुमेव विशेषेणाधाराधेयसम्बन्धविधया ‘एवं' इत्यस्य प्राधान्येन व्याख्यानं कालचक्रे तन्त्रे समुपलभ्यते / तत्र 'ए'-कारो जडो गगनालोकः, तत्र 'व'-कारः काव्यव्यहो वज्रधृग् बुद्धः / तस्मिन् एकारसिंहासने स्थितो बुद्धी वंकारः कालचक्रस्य देशनां करोति। एतस्यातिगम्भीरतत्त्वस्य देशनास्थानस्य भौतिकदृष्ट्या निर्धारणं न तथा महत्त्वाधायकं यथा विनेयजनानां समुत्कृष्टाशयानामान्तर आधाराधेयभावनिर्देशः। एतादशानामेव विनेयानां मध्ये आन्तरं तावत् कालचक्रप्रवर्तनं नाम किश्चित् / तद्धि अनपेक्ष्य बाह्यस्थानवैशिष्ट्यं यत्र कुत्रापि व्याकृतमेतद् भवेत् / अत एव स्वीकृत्यापि श्रीधान्यकटकस्य भौतिकं महत्त्वं कालचक्रतन्त्रे विमलप्रभायां च परमादिबुद्धवज्रधातुमहामण्डले वज्रसिंहासने 'एकारे' स्थितो यो 'वंकारः', तेनैव कालचक्रतन्त्रप्रवर्तनं संकेतितम् / अत एव च बाह्याध्यात्मभेदेन स्थानस्यापि व्याख्यानं विमलप्रभायामुपलभ्यते / अत एवास्मिन् तन्त्रे संकेतितः शम्भलदेशः कलापग्रामः अडकवतीत्यभिधानेन पृथिव्यां भौतिकं स्थानं भवेन्न वेति नानिवार्यम् / इत्थमेवास्य कालचक्रस्य देशनाया यो हि याचकोऽध्येषकः सङ्गीतिकारकश्च, स कलापग्रामस्य स्वामिनः सूर्यप्रभस्य विजयादेवीगर्भसम्भूतः पुत्रः सुचन्द्रनामा राजा। एवंविधः कुत्रचिन्न दृश्यते कालचक्रतन्त्रं विहायान्यतन्त्रेषु, यो गर्भोत्पन्नः कश्चन स्यात् / एतदाक्षेपमपाक विमलप्रभायां शाक्यमुनेः शुद्धोदननरेन्द्रसुतस्य महामायादेवीगर्भसम्भूतस्यापि देशकत्वं सुचन्द्रेण समानमेवेति प्रतिबन्धुत्तरं प्रदाय राद्धान्ते यो हि देशको बुद्धः, ( xii ) Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तस्य को हि बुद्धभाव इत्यस्योत्तरं व्याहरता बुद्धो विगतमलं चित्तमिति मारश्च समलं चित्तमित्यभिहितम् / यश्च बाह्ये बुद्धस्य मारभङ्ग उच्यते, स सत्त्वानां स्वचित्तप्रतिभास एवेति समुदाजहें। इत्थं यथा शाक्यकुले मातृकुक्षिसम्भूतः सिद्धार्थः, तथैव शम्भलविषयेऽपि गर्भसम्भूतो वज्रपाणिः सुचन्द्रः / एतत्सकलदृष्टान्तदान्तिकव्याजेन कालचक्रतन्त्रं हि नितान्तं सुगम्भीरम्, तस्य महत्त्वं च न स्थानदृष्ट्या न वा गर्भजाताजातदृष्ट्य समाकलयितुं युज्यत इति गम्भीरं रहस्यं प्रकटीकृतम् / . इत्थं शास्त्रानुरोधेन सम्प्रदायपरम्परानुरोधेन च कालचक्रतन्त्रस्योद्गमः प्रस्तावितः / इतिहासदिशा चाप्येतस्योद्गमकालनिर्धारणं नैवातिदुष्करम् / यतो हि कालचक्रतन्त्रमले टोकायां चानेकानि साक्षिभतानि वत्तानि लिखितान्यपलभ्यन्ते, यद्वशात् कालनिर्धारणं सुशकम् / उपवणितं मूले टीकायां च इस्लामधर्मस्य प्रवर्तनम्, मुस्लिमयवनानां चार्यदेशे साक्षाद् दृष्टमिवाक्रमणम्, अविलम्बविगतमिव वा / तथा हि आद्याब्दात् षट्शताब्दैः प्रकटयशनृपः शम्भलाख्येऽभविष्यत्, तस्मान्नागैः शताब्दैः खलु मखविषये म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिः / तस्मिन् काले धरण्यां स्फुटलघुकरणं मानवैर्वेदितव्यम्, सिद्धान्तानां विनाशः सकलभुवितले कालयोगेऽभविष्यत् // (पृ० 77) कालचक्रतन्त्रस्य एतच्छ्लोकानुरोधेन तट्टीकानुरोधेन च आद्यान्दो भगवतोबुद्धस्य धर्मदेशनाकालः, तस्मात् षट्शताब्दयनन्तरं सीतानद्युत्तरे शम्भलाख्ये देशे महायशा मञ्जुश्रीः प्रकटो भविष्यति / तस्माद् अष्टशताब्दयनन्तरे 'मख' इति नाम्ना वर्तमाने काले 'मक्का' इति ख्याते प्रदेशे म्लेच्छधर्मस्य इस्लामधर्मस्य प्रवर्तनं स्यात् / तस्मिन् काले ज्यौतिषसिद्धान्तानां ब्रह्म-सौर-यवनक-रोमकाणां चतुर्णामपि विनाशो भविष्यति / तस्मिंश्च काले बौद्धेतरतीथिकानां सिद्धान्ता निःशेषतां गमिष्यन्ति / किन्तु कालचक्रतन्त्रवशाद् बौद्धसिद्धान्तस्य विनाशो न स्यात् / तस्मिन् काले स्फुटलघुकरणं मानवैर्वेदितव्यम् इति तत्रोल्लिखितम् / स्फुटलघुकरणं स्फुटं कुर्वताऽने ज्योतिषे प्रतिषष्टिसंवत्सरं नवं नवं ध्रुवकं विधीयमानं भवति, तद्वशाच्च कालगणनां विधाय को हि म्लेच्छकाल इति निश्चेतुं पार्यते / उक्तं च तत्रैव , वह्नौ खेऽब्धौ विमिश्रं प्रभवमुखगतं म्लेच्छवर्ष प्रसिद्धम् ऊनं म्लेच्छेन्द्रवर्ष करफणिशशिना शेषमहितं च / इत्यादिना . इत्थं बुद्धस्य प्रवर्तनकालात् षट्शतवर्षपश्चाद् मञ्जुश्रीकालः। तदानी करणे ध्रुवः, तस्मादष्टशतवर्षपश्चाद् म्लेच्छकालः, तस्माद् द्वयशोत्यधिकशतेन (182) हीनोऽजकल्की कालः / अनेन च अजेन लघुकरणं विशोधितम् / इत्थं करफणिशशिना (182) शेषम् अर्का (१२)-हतं स्यात्, अथ च चैत्रादिमासैः अधरयुग(४)-हतम् / खाग्निचन्द्र (130). विभक्तं सद् लब्धं भूमिप्रविष्टं मासपिण्डं त्रिंशत्तिथिगणितार्थं भवति / म्लेच्छवर्षस्फुटीकरणार्थम् अन्यदप्येकं हस्तलिखितपुस्तकं लभ्यते कालचक्रानुसारिगणितमिति नाम्ना / एकमात्रं समुपलब्धायां तस्यां प्रतौ को हि म्लेच्छकाल इति लिखितम् / तस्य प्रथमपत्रम् ( xiii ) Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकाश्छिन्नं वर्तते, तथापि महत्वाचायकः कश्चित् संकेलो लभ्यते / उदृङ्कितं च तत्र 'शकाब्दः 1091 म्लेच्छवर्ष..."शुद्धवर्ष 364 अशुद्धमासगणं 4368 शुद्धमासगण 4502 इत्यादि / उपरि समुद्धृतं 'वह्नौ खेऽब्धाविति श्लोकं स्पष्टीकुर्वति कालचक्रानुसारिगणितग्रन्थे योगभागादिप्रकारः प्रदर्शितः, तदनुरोधेन म्लेच्छवर्ष-विक्रमीय-संवत्सरयोरन्तर 680 वर्ष पर्यवस्यति / ज्ञायते च विक्रमीय 679 श्रावणे हिजरीसंवत्सरः प्रारभ्यते / इत्थमनायासेनावबोद्धं शक्यते यद् वर्षद्वयस्यान्तरेण हिजरीसंवत्सरप्रारम्भकाल एव कालचक्रविमलप्रभोक्तो म्लेच्छकालः / विमलप्रभानुसारम् अस्मिन्नेव म्लेच्छवर्षे 'म्लेच्छो मधुमती (मुहम्मदः) रह्मणावतारो (रहमानावतारो) म्लेच्छधर्मदेशको म्लेच्छानां तायि(जि)नां (ताजिकानां) गुरुः स्वामी' (वि० प्र० 1.27, पृ० 78) / एतदनुसारं निर्धारित एव काल: किञ्चिदन्तरं कृत्वा मुहम्मदगजनीबादशाहस्य आक्रमणकालः / एतस्मिन् काले कथमिव अत्रत्यधर्माणां विनाशो भविष्यतीति सुविशदं समुल्लिखितं विमलप्रभायाम् / म्लेच्छाक्रमणेभ्यो धर्म परिरक्षितुं कथं कालचक्रतन्त्रस्य प्रचारः स्यादित्यपि कानिचिद् इतिहासदृशा महत्त्वपूर्णानि वृत्तानि टीकायां लिखितानि सन्ति / एतद्वृत्तानुरोधेन तन्त्रमिदं प्रायशो हिजरीवर्षस्य प्रारम्भकालस्य सम्यग् वर्णनं करोति / अस्मिन ग्रन्थे टोकायां च न केवलं 'मक्का'-प्रदेशस्य संकेतः, अपितु बगदादनगर्यां यथा युद्धमभूत्, तस्यापि संकेतो लभ्यते / उक्तं च विमलप्रभायाम्'तस्मिन् काले देवानां दानवानां म्लेच्छानां क्षितितलनिलयं वागदायां नगर्यां रौद्रं युद्धं भविष्यतीति / अथ च म्लेच्छाक्रमणैः बौद्धास्तदन्ये च संरक्षितास्तदैव स्युर्यदा कालचक्रानुरोधेन तेषां मतं जीवनं च स्यादिति। उक्तं यशोराज्ञा-'इह मयाऽस्मिन् कालचक्रभगवतो मण्डलगृहे प्रवेशः कर्तव्यो लौकिक-लोकोत्तराभिषेको दातव्यः' इति / (वि०प्र० उपोद्घातः, पृ० 27) / ___कालचक्रतन्त्रदेशनाया इतिहासदृष्ट्या यथा संगतिः अर्हत्वं च विवृतं भवति, तथैव तन्त्रस्यास्य के प्रवक्तार इत्यपि मूले टीकायां च निर्दिष्टं विद्यते / प्रवक्तृषु प्रथमतया आदिबुद्धः, ततो दशबलः, अनन्तरं मञ्जुश्रीः / परमादिबुद्धदेशितस्य दशबलेन अल्पतन्त्रतया व्याकरणम्, तदेव कलापग्रामे मञ्जश्रिया निगदितम्, तदेवेदं कालचक्रलघुतन्त्रं ख्यातम् / एतत्तन्त्रमधिकृत्य सुचन्द्रेण सर्वयानसाधारणी षष्टिसहस्रपरिमाणा विमलप्रभा विरचिता। अस्याष्टीकायाः पर्वतो वैशिष्ट्यं तस्य मूलतन्त्रानुसारिवज्रपदभेदकत्वमिति। उक्तं च लोकनाथेन पुण्डरीकेण स्वविमलप्रभायां यत् तेन सुगतव्याकृतस्यैव मञ्जुश्रीबोधितस्यैव तत्त्वजातस्य व्याख्यानं कृतम्। विमलप्रभाया वैशिष्टयं व्याकुर्वता तेनोक्तम् अस्मिन तन्त्र मया टीका सगतव्याकतेन वै। मञ्जुश्रीचोदितेनैव लोकनाथेन लिख्यते / / (वि० प्र०, पृ० 11) अस्य कालचक्रतन्त्रस्यावतारणे बुद्धबोधिसत्त्वयोमध्ये देशकाध्येषकसम्बन्धोऽविरोधेन सम्पन्नो भवति निर्माणसम्भोगकायैः / अत्र च निर्मितकायो वज्रपाणिः सुचन्द्रः ( xiv ) Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वसत्त्वानुपकतुं तथागतमध्येषितवान् / तथागतेनापि सोतानद्युत्तरे शम्भलादिषु षण्णवत्यादिग्रामनिवासिनां चित्तविशुद्धिं दृष्ट्वा वज्रपदप्रकाशकं द्वादशसाहस्रिक तन्त्रं देशितम् / इत्थमेव द्वादशसाहस्रिकात् तन्त्राद् लघुतन्त्रकरणाय वज्रकुलाभिषेकं प्रदाय तथागतेन मञ्जुश्रीाकृतः। वज्रकुलाभिषेकवशात् सर्ववर्णानाम् एककल्ककरणेन सूचन्द्रो यशः कल्कोति नाम्ना ख्यातः। यत्प्रक्रियानुरोधेन यशः कल्की जातः, तथैव पुण्डरीकोऽपि द्वितीयः कल्को / वज्रकुलजातत्वाद् यथा यशो वज्रकुलो तथा पुण्डरीकोऽपि / अनन्तरमस्मिन्ननेके कल्किनो वज्रकुलिनश्च जाताः, ये बुद्धमार्गप्रदर्शका अभूवन् / तत्र चन्द्र-सुरेश्वर-तेजी-सोमदत्त-सुरेश्वर-विश्वमूर्ति-सुरेशान-यशः-पुण्डरीक-सूर्यप्रभ-सुचन्द्र-क्षितिगर्भ-यमान्तक-जम्भक-मानक-खगर्भ-लोकनाथ-यमादि-दशक्रोधप्रभृतयः सर्वे निर्मिताः सन्तो बुद्धमार्गप्रदर्शका भवन्ति / इत्थमेव त्रयोदशसंख्याकाः कल्किगोत्रे जाताः, तत्र यशः कल्की, कल्की पुण्डरीकः, भद्रकल्की, रक्तपाणिः, विष्णुगुप्तः, अर्ककीर्तिः प्रमुखाः। मन्ये, एतावन्ति नामानि न केवलं रहस्यभूतानि, अपि तु इतिहासदृशा गवेषणीयानि सन्ति / . भाषासम्बन्धिनो विचारा:-तन्त्राणां भाषाविषयेऽपि विमलप्रभाकाराणामस्ति मतविशेषः। यद्यपि तन्त्रशास्त्राणां ग्रथने सर्वत्रैवार्थदृष्ट्या यथा गाम्भीर्य तथा व्याकरणदृष्ट्या भाषाशैथिल्यं दृश्यते / विशेषतो बौद्धा आदित एव अर्थशरणा आसन्, न शब्दशरणाः, तथापि विमलप्रभाकारैः सप्रसभं शब्दशरणत्वं खण्डितम् / भगवद्वचनान्युद्धृत्योट्टङ्कितं तेन येन येन प्रकारेण सत्त्वानां परिपाचनम् / तेन तेन प्रकारेण कुर्याद् धर्मस्य देशनम् / / योगी शब्दापशब्देन धर्म गृह्णाति यत्नतः / देशशब्देन लब्धेऽर्थे शास्त्रशब्देन तत्र किम् / / ... एतादृशानि समर्थनावाक्यान्युदाहृत्य बुद्धदेशनाभाषावैविध्यं चोल्लिख्यान्ते स्वाभिमतं प्रकटोकृतम्-"क्वचिद् वृत्तेपशब्दः, क्वचिद् वृत्ते यतिभङ्गः, क्वचिद् वर्णस्वरलोपः, क्वचिद् वृत्ते दीर्घो ह्रस्वः, ह्रस्वोऽपि दोघः, क्वचित् पञ्चम्यर्थे सप्तमी, चतुर्थ्यर्थे षष्ठी, क्वचित् परस्मैपदिनि धातावात्मनेपदम्, आत्मनेपदिनि परस्मैपदम्, क्वचिदेकवचने बहुवचनम्, बहुवचने चैकवचनम्, पुंल्लिङ्गे नपुंसकम्, नपुंसके पुंल्लिङ्गम्, क्वचित् तालव्यशकारे दन्त्यमूर्धन्यौ, क्वचिन्मूर्धन्ये दन्त्यतालव्यौ, क्वचिद् दन्त्ये तालव्यमुर्धन्यौ चे"त्यादि-सन्दर्भवाक्यैः। किमत्र बहु वक्तव्यम्-एतत् सम्पादितं सविमलप्रभकालचक्रतन्त्रपुस्तकमेव प्रमाणं सुधोभिरवधेयम् / व्याकरणवासनावासितचित्तानां सम्पादकानां समक्षमपि संस्करणकृत्यमेतद् भाषादृष्ट्याऽपि किश्चिद् दुःसहं भवति / तत्त्वसम्बन्धिनो विचारा:-अस्य कालचक्रतन्त्रस्य परमाभिधेयमाविष्कुर्वता 'मुद्रायोग' एव तावत् प्रधान इति विमलप्रभायामुक्तम् / एतच्च महामुद्रापदं चतुर्थं परमाक्षरम्, तदेव प्रज्ञाज्ञानं चोच्यते / एतच्चतुर्थमक्षरतत्त्वं येन न लब्धं तेन सक्षरमेव (xv ) Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौख्यं लभ्यते, यच्च दुःखस्यैव निदानम् / मोक्षप्राप्तिकामनया साम्राज्यसुखं प्राप्तोऽपि विद्वान् तत्त्यजति, अविद्वांश्च संसारसुखमप्राप्तोऽपि निरन्तरं तदर्थ चेष्टते। अस्ति चास्य तन्त्रस्य लक्ष्यमनक्षरसुखावाप्ति म / एतदवाप्तुमेव प्रज्ञाज्ञानेन संवलितं नितान्तं च परिशुद्धं सच्चित्तमपेक्षितं भवति / अत एव कालचक्रतन्त्रानुरोधेन ज्ञानाग्निना चित्तस्य मलमात्रं सर्वं दग्धं भवति, न च दग्धं भवति तस्य प्रभास्वरत्वम् / अत एवानुत्तरायां भूमौ तथाविधं चित्तमुत्पादयितव्यं यद् वज्रपदेनाकलितं मन्यते / अस्मिन् कर्मणि चास्ति मानवानां देहस्यापि माहात्म्यम् / यतो हि तत्र सामान्यतया विशिष्टं चित्तं नावाप्तुं शक्यते, किन्तु भावनोपायैरनेकविधस्तदवाप्तुं शक्यते / यथा काष्ठस्थोऽपि वह्निः नैव सुतरां दृश्यते, स एवारणिपाणिमन्थनाद् दृश्यो भवति, तद्वदेव देहस्थललनारसनानाड्योरेकयोगेन प्रबलश्चित्ताभासो लब्धं शक्यते / देहस्य माहात्म्यं ख्यापयता देह एव कालचक्रमिति व्याख्यातम्, यतो हि कालो महासुखलक्षणः, तेनोत्पादितं भवति निरावरणं स्कन्धधात्वायतनादिकम्, तदेव योगिनः शरीरं चक्रमिति / अतो हि पृथिव्यादिकं समस्तं स्व-स्ववर्णैरस्मिन् शरोरे ज्ञातव्यं भवति / सुविदितमेव तन्त्रेषु उत्पत्तिक्रम उत्पन्नक्रमश्चेति तन्त्रसाधनार्थम् / उत्पत्तिक्रमे च सन्ति क्रिया-चर्या-योगानां विशेषेण प्रयोगाः, तत्र देहस्य माहात्म्यं सुविदितम् / तत्रोत्पन्नक्रमस्तु नितान्तं प्रज्ञास्वभावो महामुद्रायोग एव सः। कालचक्रतन्त्रसाधनया स एवोत्पन्नक्रमयोगः सम्पन्नो भवति / विमलप्रभाकारेणायं कालचक्रयोगः सुविशुद्धक्रमयोगनाम्नाऽभिहितः, अन्यक्रमेभ्यश्वास्य वैशिष्ट्यमपि ख्यापितम् / तन्मतेनायं वीरक्रम-स्वाधिष्ठानक्रमाभ्यां भिन्नः सुविशुद्धिक्रम एव / इदं कालचक्रतन्त्रस्य स्वकीयं प्रस्थानम् / वीरक्रमे प्राणक्षयमात्र न बाह्यदेहादिकमवलम्ब्य योगः। स्वाधिष्ठानं च केवलं शून्ये धातुकदर्शनम् / अतो हि बुद्धर्मोक्षायान्यतमो मार्गः सुविशुद्धक्रम एव सन्दर्शितः। सुविशुद्धक्रम एव प्रज्ञोपायात्मकं तन्त्रम् / तदप्यद्वयमानं न तत्र द्वैतलेशोऽपि / अत एव चेदं तन्त्रं निरन्वयम् / द्वैते प्रज्ञापक्ष उपायपक्षश्च सान्वयः, किन्त्वस्मिन्नसौ निरस्तः / अत एव प्रज्ञोपायात्मकं योगतन्त्रं नामाद्वयतन्त्रम् / अस्मिन्नद्वययोगतन्त्रे योगशब्दो नोपायार्थवाचकः, नापि प्रज्ञार्थवाचकः, अपि तु प्रज्ञोपायार्थवाचकः / स चाद्वयसमापत्तावेव सम्भवति / एतदर्थजातं प्रमाणीकतु विमलप्रभायां तथागताभिप्रायोऽप्युदाहृतः योगो नोपायकायेन नैकया प्रज्ञया भवेत् / प्रज्ञोपायसमापत्तिर्योग उक्तस्तथागतैः // (वि० प्र० उपोद्घाते, पृ० 18) एतदेवोपसंहरतोक्तं विमलप्रभाकारेण "अतो यस्मिन् तन्त्रे प्रज्ञोपायात्मकोऽभिधेयो भवति, न तत्तन्त्र प्रज्ञातन्त्रं नोपायतन्त्रं परमार्थतः / लोकसंवृत्या दशज्ञानादिभेदेन धातुस्कन्धविशुद्धितः प्रज्ञोपायपक्ष उक्तो मृदुसत्त्वाशयवशात् तथागतेनेति / तस्मात् प्रज्ञोपायात्मकं तन्त्रं योगतन्त्र निरन्वयं कालचक्रं परमार्थसत्यत इति / " (वि० प्र०, पृ० 18) / ( xvi ) Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालचक्रतन्त्रस्य वैशिष्ट्यं वज्रपदसंनिवेशेनापि प्रकटितं भवति / लोकसंवृत्या परमार्थतश्च द्विधा वज्रपदमभिधीयते। तत्र प्रथमं लौकिकसिद्धिदायकम्, अपरं महामुद्राफलसिद्धिदायकं भवति / विदित एव योगियोगिन्यादितन्त्रभेदैः उद्देश-निर्देश-प्रतिनिर्देश-महानिर्देशादिप्रकारेस्तन्त्राणां व्याख्यानभेदः। एतैः सर्वविधैरेव प्रकारभेदैर्वज्रपदमेव प्रकटितं भवति / उक्तं च विमलप्रभायाम् ___'अस्मिन्नादिबुद्धे वज्रपदं प्रकटमुद्देश-निर्देश-प्रतिनिर्देशैर्भगवता प्रकाशितम्, अस्यैव साधनाय महामुद्राभावना धूमादिनिमित्तमार्गः प्रकाशितः" इति / (वि० प्र० उपोद्घाते, पृ० 19) / ___ अयं च वज्रयोगो महामुद्रायोगेन सम्यग् आकलितो भवति / महामुद्रया च सहजं तत्त्वं नितरां निबद्धमास्ते। अत एव सहजमुद्रेति महामुद्राया अपरं नाम / मुदं हर्ष लाति राति वेत्यभिधया सामान्येन कर्ममुद्रा ज्ञानमुद्रा च गृह्यते। महामुद्राया इदं महत्त्वं यत् तत्र फर्ममुद्रा परित्यक्ता ज्ञानमुद्रया च सा रहिता भवति / एतादृशम् आलम्बनम् अधिगत्यैव केवलं प्रज्ञाकरुणयोर्योगाद् अनालम्बनं सहज तत्त्वम् अधिगतं भवति / एतत् सकलं सौख्यपरिपूर्ण सद् अवतिष्ठते / प्रयोगक्रमेण महामुद्रा साधकैरधिगता क्रियते। प्रयोगबुद्धया सा यद्यपि साधकैरुत्पाद्यते, तथापि न उपादानकारणत्वेन किञ्चिद् आध्रियते वा अपनीयते वा। परमाण्वादिकारणसामग्रीभिरतोऽप्यन्विता च न भवति / अत एव सा सर्वाकारा सर्वलक्षणव्यञ्जनानुव्यञ्जनैः समन्विता च सती प्रतिबिम्बनिभा प्रतिसेनोपमा मात्र जायते / प्रतिसेनोपमात्वेनैव इयं स्थितिः बुद्धत्वमधिकरोति / अस्य प्रयोगस्याधिष्ठानं चित्तमेव / तदेव बोध्यावाहकत्वाद् बोधिचित्तमित्युच्यते / अत्रेव प्रज्ञोपायात्मको योगः अनेकैः संवरः रक्षितः काय-वाक-चित्त-ज्ञानैः ऐक्यं भजते / अथ च महामुद्रात्मकं गन्धर्वनगराकारं "एवं"-कारस्वरूपं ज्ञानज्ञेयाभिन्नं अद्वयम अक्षरसुखमनुभूयते / प्रयोगावस्थायां एतस्य एक स्थानं वज्रमणौ अर्करूपे रजसि, द्वितीयं च शशिभूते उष्णोषशुक्रे अधिगन्तुं युज्यते / एतत्सर्वमपि अद्वयं सखजातं अस्मिन्नेव देहे प्रकटं भवति / तदानीम् अयमेव वज्रधरस्य बुद्धस्य देहो भवति / यथा बहिः सूर्यप्रचारेण दण्डपलादिविभागः क्रियते, तथैवाध्यात्मनि प्राणसंचारेण विभागः क्रियते / स च चक्राश्रित एव / अत एव एतत् सकलं कालचक्रशब्देन ख्यापितं भवति / अस्मिश्च देहे कायत्रयं चक्ररूपेण संस्थितम् / एतेषां परिज्ञानमेव महासखचक्रम् / इत्थं यथा बाह्ये सूर्यो द्वादशराशिषु वर्षसंक्रान्तिभेदेन भ्रमति, तथाध्यात्मनि प्राणशक्तिः प्रतिदिनं द्वादशराशिषु द्वादशसंक्रान्तिभेदेन भ्रमति / एवंक्रमेण प्रज्ञोपायात्मकस्य आदि बुद्धस्य स्वदेहे ज्ञानं भवति / अत एव इहैव जन्मनि बुद्धत्वं लभ्यम् / कालचक्रतन्त्र'. योगस्य माहात्म्यं ख्यापयता विमलप्रभायामुक्तम्-"इह त्रैलोक्ये सुरभुजगनृणां मध्ये योगी नास्ति यः समर्थः पूरयितुं चन्द्रादित्यौ स्वदेहे' इति कालचक्रैकवीर एव तथाविधः। कालचक्रस्य गभीरं तत्त्वं महामुद्रासाधनमिति पूर्वमुक्तम् / तदीयं किं हार्दमिति सप्रमाणं प्रकाशयितुं ग्रन्थटोकानुरोधो नितरामपेक्षितः / सम्पूर्णकालचक्रतन्त्रं साक्षात् परम्परया वा अद्वयवादमेव प्रथयति / तद्धि शून्यताकरुणास्वरूपम्, अथ च तस्मिन्नेकस्मिन् ( xvii ) . Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञानं ज्ञेयश्चैकमूर्तिः, तद्धि प्रज्ञा, सा च निराकारा साकारेति उभयथा परिचीयते / इत्थंभूतया निराकारया साकारया च प्रज्ञया अक्षरसुखरूपं परमादिबुद्धतत्त्वं समालिङ्गितमास्ते / इदं चाक्षरसुखं लौकिकालौकिकभूमौ अनन्तसौख्यादिप्रकारैः मण्डितम्, अथ च उत्पत्तिविनाशरहितम् / एषा सा प्रकृष्टा भूमिः या बुद्धानां बोधिसत्त्वानां जन्मभूमिः कर्मभूमिश्च / एतत् सकलमपि तत्त्वदृशा अद्वयमेव / एतद्धि तत्त्वं निर्माणसम्भोगधर्मकायैः विदितम्, अथ च अतोतानागतप्रत्युत्पन्नकालैश्च संविदितं भवति / एतत् सकलं लक्षणजातं संहृत्य अस्मिन् कालचक्रयाने आदिबुद्धत्वेन वा परमादिबुद्धत्वेन वा उपस्क्रियते। सुविदितमेव तन्त्रविदां विदुषां यत् पूर्वोक्तलक्षणानुलक्षणमण्डितं तत्त्वं न कश्चिद् देवो वा देवातिदेवो वा, तद्धि तत्त्वं विशिष्टं योगभूमिमात्रम्, तदेव परिचाययितुं अस्मिन् तन्त्रे षोडशाकारभेदभिन्नो वज्रयोगः। अतः कालचक्रमित्युक्तः। अस्यैव श्रीकालचक्रस्य वज्रयोगस्य संवृति-परमार्थसत्याभ्याम् अभिधानं सकलेऽस्मिन् तन्त्रे विधीयते / केनचित् पाण्डित्याभिमानिना विदुषा आचार्येण वा एतत्तत्त्वं व्याकर्तुं न शक्यत इति मत्वा विमलप्रभाकार आत्मानं लोकनाथमिति मत्वा मञ्जुश्रिया चोदितं सुगतव्याकृतं च वज्रयोग महामुद्रापरपर्यायं व्याख्याति / उक्तं टीकायाम् "अस्य श्रीकालचक्रस्य वज्रयोगस्य सर्वतः / सत्यद्वये स्थितस्यास्याभिधानं वाचकं भवेत् // अस्मिन् तन्त्रे मया टीका सुगतव्याकृतेन वै / मञ्जुश्रीचोदितेनैव लोकनाथेन लिख्यते" ॥इति। अयं च वज्रयोगः सत्त्वव्याख्यानदृष्ट्या वज्रसत्त्वः। स च ज्ञानज्ञेययोरद्वयः, किन्तु चतुर्भिर्योगैः समन्वितः सन् चतुर्धा स्फुटो भवति / तत्र चत्वारो योगाः शुद्धज्ञानकयोगः, चित्तधर्मं योगः, वाक्सम्भोगैकयोगः, कायनिर्माणयोगश्च / एनामेव अशुचिदेहप्रतिमामाधाय एतैरेव योगचतुष्टयैः जिनरत्नप्रतिमा विदधति, तद्वशाच्च अयं सम्पूर्णो मानवदेह एव वज्रसत्त्वायमानः सहजां सत्त्वार्थक्रियां करोति / अत एवायं देहो महासुखावासोऽपि कथ्यते। इदमेव च वज्रसिंहासनम्, अच्छेद्याभेद्यमण्डलविधानात् / अत्रैव च “एवं"-कारोऽपि, यतो हि एकारे आकाशधातौ काय-वाक्-चित्त-ज्ञानात्मकस्य "व"-कारस्य योगो भवति / वज्रसत्त्वस्येदमधिष्ठानं बुद्धरत्नकरण्डकत्वेनापि व्यवह्रियते परमाक्षरसुखरूपत्वात् , इदं बुद्धरत्नं वज्रमणि-पद्माभ्यां समवेतत्वान्मञ्जषाभतं करण्डकमिव / तदेव उद्घाटितं भवति एतेन तन्त्रराजेन श्रोकालचक्रेण / एतद्धि करण्डकं स्वस्मिन् लौकिकलोकोत्तरसत्यद्वयम् आश्रयति / सत्त्वानां लौकिकसिद्धिसाधनाय मण्डलचक्रविकल्पभावनाः क्रियन्ते / अयमेवोत्पत्तिक्रमः / अयमेव च केवलं लौकिकदृष्ट्या सत्यम् / धूमादिनिमित्तमाश्रित्य प्रवर्तितेन निर्विकल्पचित्तेन उत्पत्तिविरहितेन मुखभुजवर्णसंस्थानादिकल्पनारहितेन महामुद्रासिद्धिः क्रियते / अयमेवोत्पन्नक्रमः सहजो निर्विकल्पो वज्रयोगो यः कालचक्रतन्त्रस्य प्रमुखं प्रतिपाद्यम् / इत्थं कालचक्रतन्त्रं नाम प्रज्ञोपायात्मको योगो यो मया पूर्व संक्षिप्य लिखितः / तत्र कालः करुणाशून्यताभ्यां निर्मिता मूर्तिः, या सत्यदृष्ट्या संवृतिरेव / शून्यता च चक्रम् / अथ च कालो महासुखलक्षणः परमाक्षरः, तेनोत्पादितं स्कन्धधात्वादिकम्, किन्तु ( will ) Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न सावरणम्, अपि तु सर्वथा निरावरणं तदेव च चक्रमिवेदं शरीरम्, तदेव कालचक्रम् / अथ च अक्षरसुखज्ञानं प्रज्ञा वा कालः, स च करुणात्मकः, चक्रं च समस्तं ज्ञेयाकारं जगत्, श्रीश्च शून्यात्मिका प्रज्ञा / इत्थंभूतः कालचक्रो भगवान् उच्यते, मारक्लेशभञ्जनार्थम् ऐश्वर्यादिगुणसम्भारार्जितत्वाद्धेतोः / ___एतस्य कालचक्रवज्रयोगस्य नितान्तं दुष्करत्वाद् विघ्नबहुलत्वाच्च अनायासेन लौकिकविघ्ननिवारणार्थ योगिनीध्यानमनिवार्यमिव भवति / श्रीयोमिनीनां स्थानमप्यस्मिन्नेव कलेवरस्थितकुलिशमणिगृहे वर्तते, तत्र प्रवेशाय द्वात्रिंशल्लक्षणाङ्गो गुरुरपि अपेक्षितो भवति / - अस्य च कालचक्रतन्त्रप्रवर्तनस्येदमपि महत्त्वाधायकमुद्देश्यं यद् ये द्वीन्द्रियसुखाभिलाषिणः सत्त्वाः कामोपभोगरहितानि शीलानि नानुवर्तन्ते, तेषां स्वचित्ताभिप्रायेण इहैव जन्मनि बुद्धत्वलाभाय इदं तन्त्रं फलप्रदं भवति / एतदर्थं च पुण्यज्ञानसम्भारो नितरामपेक्षितो भवति / न हि कुकर्मणि रता अत्र प्रवेशमधिकुर्वन्ति / किन्तु ये प्राग् हिंसासुरापानादिपञ्चानन्तर्यरौद्रकर्माण्यपि कृतवन्तः सन्ति, तेऽप्यस्मिन् मन्त्रयाने मन्त्रचर्यापरायणाः सन्तो बुद्धत्वं लभेयुरिति लक्ष्यमनुगन्तारोऽधिकारिणः / उक्तं च __ "चाण्डालवेणुकाराद्याः पञ्चानन्तर्यकारिणः / / जन्मनीहैव बुद्धाः स्युर्मन्त्रचर्यानुसारिणः // इति / . * एतादृशाधिकारलाभे निमित्तं बोधिसत्त्वानां परार्थपरायणत्वमेव / यतो हि मन्त्रनये प्रवेशलाभाय समयसंवरग्रहणं नाम शोलसमाधिसम्पन्नत्वमनिवार्यं भवति / अस्य कालचक्रतन्त्रस्य उपरि प्रदर्शितं सकलमपि विषयजातं स्ववैशिष्ट्यं ख्यापयति / उपक्रमोपसंहाराभ्यां यथा समञ्जसं तथाऽत्र प्रयासो दृश्यते / सुविदितमेव नेयार्थनीतार्थत्वाभ्यां शास्त्रप्रतिपाद्यनिर्धारण नाम / कालचक्रे तु नेयार्थनीतार्थनिर्धारणे गुरूपदेश एव प्रमाणमिति स्वीकृतम् / इत्थमेव सामान्येन परमार्थसंवृतिसत्याभ्यां द्विधा देशना तन्त्रवादिभिरपि स्वीक्रियते, तथापि अनयोरक्यमधिगत्य प्रज्ञोपायात्मको वज्रयोगः परमाक्षर आदिबुद्धो निरन्वयः कालचक्रो भगवान् वज्रसत्त्वः, स च स्वाभाविककायसम इति तन्त्रम् / स्वाभाविककाय एव फललक्षणे मन्त्रनये सहजानन्दः सहजकायो नीतार्थत्वेन निश्चितो भवतीति कालचक्रतन्त्रस्य विशेषः। इत्थमेवात्र एकक्षणाभिसम्बोधिर्नाम परमाक्षरसुखलक्षणाभिसम्बोधिरिति कालचक्रविद्भिः स्वीकृतम् / प्रसङ्गतः तर्कबाहुल्येन एकक्षणो नैव भवतीति प्रतिष्ठापितम् / तेषां चानुकूलमप्रतिष्ठितनिर्वाणमिति कथनं न तथा सम्यक् तत्त्वावबोधकं यथा भवनिर्वाणाप्रतिष्ठिसमिति कथनम् / तन्त्रेषु चतुर्थ प्रज्ञाज्ञानं महामुद्राभावना धूमादिमार्गः स्वीकृतः, किन्तु स वज्राचार्यपारम्पर्येण लब्ध इति नाङ्गोक्रियते / अत एव कालचक्रतन्त्रे वीरक्रमं स्वाधिष्ठानक्रमं नैव स्वीकृत्य विशुद्धक्रमोऽङ्गोकृतः, येन महामुद्रासिद्धिदायकं परमादिबुद्धतन्त्रं प्रकटं स्यात् / कालचक्रतन्त्रस्यैतद् रहस्यपूर्ण वैशिष्ट्यं न व्यासेनेह विवृतम्, एतत् सर्वम् अर्थजातं विमलप्रभाया अवसानखण्डे सविस्तरं विवेचयिष्यते। इह चाग्रे विमलप्रभायाः संस्करणे सम्पादने च कासां हस्तलिखितानां प्रतीनामुपयोगः कृतः, एतत् सर्वम् आङ्गलभाषायां प्रस्तुते उपोद्घातेऽग्रे सूचितम्, तत्तु तत्रैवावलोकनीयम् / ( xix ) Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PREFACE The Buddhist Tantra is specifically known to be in four orders as, Kriya, Carya, Yoga and Anuttarayoga. Foremost of these is the Anuttarayoga. As of auxillary nature the three other orders must not be considered to be less significant, rather they are the successive steps which are leading upward are conducive to the highest ground of Anuttarayoga. In an implied order, all of these together call for unprecedented bliss. . It is a fact that Tantrika texts of Buddhist import in Sanskrit became non-existent in India before several centuries, so that not a trace of these has been found for a very long time. Fortunately, there has been a basic shift in this field since many Tantrika works of Buddhism were discovered in Nepal in the vicinity which posed enormous difficulty in scientific investi. gation in the beginning. But about fifty years ago, a great many scholars of Bengal procured precious manuscripts from Nepal and Tibet. Some of these illustrious men were Rajendra Lala Mitra, Mm. Hara Prasad Shastri and Prabodha Chandra Bagchi. There have also been scholars from out of Bengal as Mahapandita Rahula Sanksityayana and others who brought such inexhaustible treasure, During recent ten years, I have made four attempts to bring rare texts from Nepal and, thus, contribute to the field of exploration. Presently, there are many rare mss. in my possession among which the Kalacakra Tantra is most conspicuous in point of antiquity, size and as a treasure of all the tantras. Its perceptive commentary Vimalaprabha, literally of immaculate light, was not available till the present time. The work and commentary both are in five books (Patala) each. It may appear strange that despite an unusual response neither the work nor its commentary have been found completely in any collection. The fifth patala of the commentary remained, entirely obscure till it has been recovered by me partially. While determining the age of the composition of the VimalabrabhaTika of the abridged Kalacakra Tantra, we glimpse through relative episodes implicit in its chronology. The tika dwells on the transmission of Buddha's expositions upto Dasabala who prophesied the small Kalacakra Tantra based on the original expositions of the Adi Buddha. This Tantra was further delineated by Manjusri in the Kalapa Desa (unidentified). In former days the commentary of this Tantra had been done by King Sucandra Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ in 60,000 slokas, Pundarika wrote another commentary in 12,000 slokas * which was based on the former. This commentary gives the essence of the Buddhist Tantras. It defines the terms Vajra, Vajrapada and Vajrayana in all components. The Vajra tradition avers, that it had been enunciated by Sasta Buddha. The Vajrasatva Bodhisatvas had organised the Vajrayana Samgiti. Pundarika made his work for the obliteration of the confusion of such who hold a different view. In true essence, bliss or nirvana which dispels obscuration and obtains the angelic grace is the effulgent prajna (transcendent wisdom) which is inculcated by the Kalacakra devices. Among all the Buddhist ways it is surely the fastest way to derive supreme pleasure, but entrance into the path is vigorously fortutious. This is ardently laid in the second patala of the commentary which focuses on an interdependent objectivity, what relates to this dimension, the interdependence, is a systematic experience--faith in Buddha, Sravakas and the Pratyekabuddhas, the cause (hetu) and effect (phala), logic of the Vajrayana and ultimately foreseeing the non-entity of substratum assimilate the objectless compassion (Karuna which makes entrance into mahamudra, the integration or realisation of sunyata very real. The Vimalaprabha narrates that the specific tantra had been discoursed by the Tathagata Buddha in the north of the sita River. The Credentials of the tantra were put to trial by Vajrapani who convened a council to authenticate the text for transmission. It was called Namasamgeti. As being literally disposed (nitartha), the total mantra-naya was very well established in the namasangiti. The same authenticity was conveyed by the Kalacakra. The Vimalaprabha is full of praise of its saving phenomena, "ye paramadi Buddham na jananti, te namasasgitim na jananti, ye namasamgitim na jananti, te Vajradhara jnapakayam na jananti, ye vajradharajnana kayam na jananti te mantrayanan na jananti, ye mantrayanam na jananti te samsarinah sarve Vajradhara bhagavato margarahi tah (p. 52)." Those who are desirous of salvation must be exhorted by the illustrious guru. The work plainly asserts that the Adi Buddha is the same as Kalacakra and the Vajrasatva. While we think of the region where the Kalacakra arose, we first of all think of Sri Dhanyakataka. That, indeed, is the place where mantrayana originated and the Kalacakra is an offshoot of the mantrayana; according to this logic the tantra might have been cast here. The commentary suggests a spiritual as well as a profane origin. There are indications in it to have been preached at Kalapa-grama or, Adakavati in the Sambhala country. Spiritually, the toponomy is irrelevant. Its spirituality is mani ( xxi) р Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ fest in the term "Evam" in which "E" is the Vajrasimhasana on which is the "Vankara" seated. From this it may be inferred that the Kalacakra Tantra was discoursed by the Adi Buddha Sucandra, the son of the Lord of . Kalapa-grama, Suryaprabha and his consort Vijayadevi convened the council for the deliverance of Kalacakra. Thus, this tantra traces, a human pedigree also of the sakya Sage as having been born of King Suddhodana and Mahamaya Devi who preached the esoteric method. In the allegorical sense, Buddha represents the "Psych" in all its luminosity as against the tempter (Mara) who is grounded in impurities. What, therefore, calls for effacement of Mara is the emanation of the Buddha Mind. From this simple analogy of Buddha and Sucandra Vajrapani the commentator replies the objection of some tantrika scholars that the esoteric methods are only divinely instilled. Efficacy of birth and place do not cou for the transmission of the Kalacakra. The historicity of the tantra has also been clearly established on acute chronology. The mula Vimalaprabha Tika describes the early Islamic history as found in any competent work. The events are so graphically cast that they appear to have been taking shape before the very eyes of the commentator, "Adyabdat satasatabdaih prakatayasahnspa Sambhalakhye bhavisyatis, Tasmannagaih Satabdaih Khalu makhavisaye mlecchadharmapravsittih|| Tasminkale dharanyam sphutalaghukaranam manavairveditavyam, Siddhanam Vinasah Sakalabhuvi tale Kalayoge Bhavisyati." (p. 27). . The word "Adya" stands for the appearance of Tathagata Buddha. After six hundred years of his appearance the illustrious Manjusri would be born in the north of the Sita River in Sambhala and eight hundred years thenceforth would grow in the land of Makha (Mecca in Arabia) a community of the Mlecchas). At that time the principles of jyotisa like the Brahma, Saura, Yamanaka and Romaka would vanish and those hostile to the Buddha will perish. But Buddhists would be saved on the term of practising the Kalacakra Tantra. Such a time called for the wisdom of "Sphutalaghu Karanam", a jyotisa specification about which it has been said, "Vahnau khe' bdhau vimisram prabhavamukhagatam mlecchavarsam prasiddham/ Unam mlecchendra varsam karaphanasasina Sesamarkahatam ca/ ( xxii) Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Thus, after a period of 600 years from the birth, of the Buddha, the period of Manjusri-Yasa occurred when the karana had been Dhruva; from that after 800 years there began the Mleccha era, thereafter subtracting 182 years occurred kalki era, calculated astronomically. The period is further calculated into 130 years. In order to explain the mlecchavaria I have obtained another small manuscript based on the calculations of the Kalacakra named "Kalacakranusariganitam" which on its first folio states that the era points to saka-varsa 1091. In Vikrama Samvat 679 the Hijri era began. The commentary speaks of this period to be mlecchakala, whence in V. S. 679 the Hijri era began. In this chronological structure there had been a military march of King Mahamud of Ghazni (C. 1025 A. D.). During the march there will be great holocast resulting in moral crisis. Alongwith the notable events the method of escape from the orgies has also been stipulated. According to Vimalaprabha, the era was so called Mleccha Madhumat. Among the details of the Hijri era, we, subsequently find Mecca being referred and a great war taking place in Baghdad. The commentary states that there will be (or took place) a terrible war among the Devas, Danavas and Mlecchas in the city of Baghdad. At that time only the spiritual message of the Kalacakra would save them, So sayeth the Lord (Yasa), "I must enter the mandala hallowed by the Lord Kalacakra and perform consecration (abhiseka) for the joy of the mundane and the transcendent worlds." . The semblance of Kalacakra from the historical angle in giving de tails of real situations is further comprehended in telling the names of the preceptors who preached the Tantra. The order is : Adi Buddha, Dasabala and Manjusri Yasa, Dasabala had abridged the tantra and thereupon Manjusri preached at Kalapa a minor tantra (laghu tantra). Taking this work as a "base Sucandra wrote a comprehensive commentary in 60,000 slokas which was abridged by Pundarika in 12,000 slokas called the Vimalabrabha. The special trait of this commentary is that it fully delineates the Vajrapada, "Asmin tantre maya tika Sugata Vyakstena vai, Manjusricoditenaiva lokanathena likhyate (V. P., P. 1) In the transmission of the Kalacakra, Buddha and Bodhisatva stand .. for the guru and sisya as in the nirmana and sambhoga kayas. Here, the physical bodied Vajrapani Sucandra propitiates the Buddha for the prosperrity of the beings. The Tathagata heeds the prayer and preaches the illuminating tantra to the people of Sambhala, dwellers of the village like xxiii) Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ sanvati to the north of the Sita knowing them to be pure in thought. For simplification of the tantra Tathagata enjoined up on Manjusri to put the tantra in 12,000 Slokas in the form of laghutantra. For the initiation in Vajra Kula and the object of synthesising (Ekakalka) the people of diverse castes Sucandra yasa became known as kalki. By the same process by which Kalki came up on earth, Pundarika became the second Kalki. There had been, thus, a whole lineage of Kalki of the Vajrakula who preached the good law. We may recall some of them to be as Candra, Suresvara, Teji, Somadatta, Suresvara, Visyamurti. Suresan, Yasah, Pundarika, Suryaprabha, Sucandra, Ksitigarbha, Yamantaka, Jambhaka Manaka, Khagarbha, Lokanatha, Yamadi, Dasakrodha who had physical emanations and who showed the Buddha's path. There had been, thus, 13 Kalkis, foremost of whom were Yasa, Pundarika, Bhadrakalki, Rakatapani, Visnugupta and Arkakirti. These names while evoking mystery are to be historically investigated. Language Analysis : The Vimalaprabha has tacit views on language. It is a commonplace experience that the usual tantrika texts are deep in meaning but imperfect in syntax and grammar. More especially, the Buddhists have from the beginning been philosophers and seldom etymologists. The Vimalaprabha exegesists have totally rejected the efficacy of rhetorical techniques. "Yena yena prakarena satvanam Paripacanam, . Tena Tena prakarena kuryad dharmasya desanam Yogisabdopasabdena dharmam glhnati yatnatah, Desasabdena labdhe' rthe sastrasabdena tatra kim || So, in prose also : "Some terms have corrupt words that are vague, some are definitely mistakes of some kind, some have consonantal or vowel lapses, some have wrong morphology, some have long for short and some short for long, in declension, some terms use the locative (saptami) for ablative (pancami), sasthi (genetive) for dative (caturthi), some verbs are in the atmanepada which should have been used as in the parasmaipada, some singulars are in plurals, some plurals in singulars, there are examples of neuter used for masculine and the masculine in place of neuter genders, sibilants are seen interchangeably used defying their character". Such instances are so common that they even after the textual restoration obtrude on the grammarian. Madra-Yoga While conceding the various esoteric stages we come to the invincible principles of unification (mudra-yoga). As ultimate realisation it is comprehended as intuitive wisdom, Prajna-jnana, Mahamudra, Caturtha Para ( xxiv) Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ maksara). Those who do not have the access to it, only have perishable prosperity alternating with misery. The desirous of freedom even cast away the joy of kingdom, if he is capable to understand. The unwary notwithstanding the attainment of worldly pleasures still hanker for them. The aim of this tantra is achievement of incessant bliss. For its attainment a most capable mind must be developed. The Supreme thrust of the Kalacakra is ultimate wisdom (prajna) which is immaculate and perfect. The owner of such pure mind has all the inherent defilements burnt within, what remains still ablaze is the luminosity (prabhasvartvam). Therefore, such a pure mind is to be cultivated by constant constraint up on our activities. That is the method of the Vajrapada. Physical body does have a unique part in developing the mind. There are special minds grown perfect by the esoteric method-meditation as the best of these which develops the insight. Just as we do not see fire exist in wood but that which is produced by rubbing the aranis with the hands, in a similar way the essential (pure) mind can open up by unifying the psychic nerves Lalana (Prajna) and Rasana (Upaya) culminating into the effulgent Vajrapada, Since Kala is great bliss, the Skandhas, dhatus and ayatanas mark "cakra" (wheel) in the body of their inception into it. The yogi perceives all these in his own body. We find special practices of utpanna and sampanna krama, In the former Kriya, Carya and yoga are envisaged and the iatter jesticulates state of prajna alongwith mahamudra. The mahamudra yoga is verily, the objective of the Kalacakra Siddhanta. The commentator of Vimalaprabha calls it the order of Kalacakra, a superior and much subtler order. This varies from the Virakrama and Svadhisthana Krama. Buddha discoursed on a unified method of prajnopayatmaka yoga, where the term yoga does not mean simply method or wisdom but both together, a : . basic concept known as the Buddha Vacana. "Yogo nopayakayena naikaya Prajnayaya bhavet/ Prajnopayasamapattiryoga uktastathagataih|/ (V. P., P. 18) In Conclusion "Ato yasmin tantre prajnopayatmako-abhidheyo bhavati, na tattantram prajnatantram nopaya tantram paramarthatah. Lokasamvrtya dasa inanadibhedena dhatuskandhavisuddhitah, prajiopayapaksa ukto mtdusatvasaya-vasat tathagateneti .... tasmat prajnopayatmakam tantram yogatantram niranvayam kalacakram paramartha satyatah". (VP. P. 18). The wisdom of Kalacakra Tantra may be further known from the inclusion in it of Vajrapada which is of the nature of two truths, empiricism ( xxv ) Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ and transcendence: First of these bestows worldly prosperity and the other is conducive of sunyata-jnana, the great symbol for spiritual unification or Mahamudra. The real meaning of Vajrapada defys schismatic expositions and points to Vimalaprabha for advice, q.v: "Asminnadibuddhe Vajrapadam prakatamuddesanirdesapratinirdesairbhagavata prakasitam, asyaiva sadhanaya mahamudra bhavana dhumadinimittamargah prakasitah," (V. P. P. 19) Mahamudra consummates the Vajrayoga. With the Mahamudra Sahaja (as in nature) is closely enjoined. Thus, mahamudra is also called Sahaja Mudra. The word "mudan", pleasure connotes pleasure of the divine and is connected with mudra-Generally, mudra means karma-mudra or jnana-mudra and the leaving off the two is believed to be purposive of accomplishing true nature by unifying the female principle (prajna). Such a vision of Mahamudra does not conjure amorousness. The yogi carries over with the signs and forms through seeming shadows (pratibimba pratisenopamasca) so that he does not experience the tramels of composition and dissolution, endowed by many "Samvaras", vows. By the unity of body (Kaya), speeeh (Vak), mind (citta) and jnana (wisdom-he attains the unity of Supreme Wisdom which evolves the Buddha Mind. The yogi realises the bliss of the mahamudra even in the present body which is of the nature of "without duality" (advayam), without construction of any kind and as having been transcended to a world of other reality, the city as of the Gandharvas. The yogi experimenting within the body obtains in one place "Vajra-mani" that is in the form of sun appearing in rajas (menstruous excretion) and at other as "Usnisa-sukra" (Sperm) which appears to be moon. All this means unity of great pleasure realised physically. The body at such extraordinary moment is only the material form of the Vajradhara, Buddha. As time is divisible in danda and pala, clockwise, depending on the sun, so the vital breath (Prana) takes to an innate spiritual segmentariness through the breaths. Since these rest on cakras, the whole system is based on the Kalacakra. Symptomatically, the three kayas are inset in the form of Cakras in the body, to know which is to know "Mahasukha-cakra", what we see in the external world as the sun moving and making round the year and seasons up on twelve stars (rasis), the vital energy of spirit also does move round them. In this way is the Adi-Buddha to be visualised inside the body as integrating the great wisdom and skill. So it is impossible to achieve enlightenment (Buddhatva) in this life. The supremacy of the kalacakra as an esoteric system finds great praise in the Vimalaprabha: ( xxvi ) Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "Iha trailokye surabhujagananam' madhye yogi nasti yah samarthah purayitum candradityau syadehe". In the three worlds where live the gods, vipers and men we do not see a single yogi who can unite the sun and the moon in the physical body. This may accomplish the kalacakra warrior, (Kalacakraikavira) alone. Basically the Kalacakra recommends mahamudra to be the focal point in practice. The treatise is both in tradition and actuality a monist (advayavadin). The prajna can be prognosicated both in "form" and "formless" states; Mahamudra provides ground for total bliss, where evolution and destruction do not exist, where the three kinds of emanations are conceived in the Trikaya assemblage of nirmana-sambhoga Dharma, Tatvas, where the past, the incipient and the present are understood to be one and where the numerous Buddhas and Bodhisattvas are born and play their parts in the Kalacakra of the Yogabhumi. A synthesis has been drawn on these for which it justifies its name. It contains the specific metaphysically postulated emperics-transcendental dimensions alongwith the Vajrayoga esoteric system. The commentary says: "Asya Sri-Kalacakrasya Vajrayogasya Sarvatah Satyadyave Sthitasyabhidhanam Vacakam Bhavet/ Asmin tantre maya tika sugatavyaksitena vai, Majusricoditenaiva lokanathena likhyate/ From an ontological assumption the Vajrayoga symbolises vajrasatva in the linear concept of the six satvas as Vajrasatva-mahasatva-Bodhisatva-Samayasatva-Vajrayogasatva Kalacakra meant for the good of the sentient beings. Having drawn up on these analogies the commentary points to the function of the four categories of yoga with which the Vajrasatva may have to be closetted. These categories are : 1. Suddhajnanaika Yoga, 2. Cittadharmaika Yoga, 3. Vaksambhogaika Yoga, and 4. Kayanirmana Yoga. Thence, two technical methods are to be pursued, one called the "Mandalacakra-Vikalpabhavana and the other contextually known as the "Mahamudra Siddhi". These are the very senews of the Sahaja VajraYoga where the body becomes the repository of great bliss (Maha Sukha) illuminated in mandala and Vajra-Simhasana. As the E, which signifies the akasa becomes a component of Kaya, Vaka, Citta and Jnana, expressed by "Vamkara." "The whole becomes an agglomeration (Karanda). This is the mystery which Kalacakra has bared. The text offers a conceptual image of kala as being of the nature of a synthesis of phenomenal Karma and Sunyata which truely symbolises ( xxvii) Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Cakra, what is great bliss, Kala, the scatheless (Paramaksara) weaves out the skandhas and dhatus, but is not of form but "formless", The body is like the wheel and thus the kalacakra should be known, Wisdom of the indestructible to be as prajna, also kala but that what is compassionate and wheel as the symbol of all the knowable world. Bliss is sunyatmika prajna, and the world is symbolised by Cakra. The abst ruse nature of the Kalacakra-vajrayoga needs the grace of yogini to encounter the obstacles for which meditative practices are to be performed. This should be done with the help of a virtuous guru. The turning of the Kalacakra and transmission of its message is of the vital significance. Those whose desires remain unsatiated and who are unable to be chaste in the practice of morals can be greatly benifitted by the idea of being enlightened in this life. For this acquisition of virtues (Punya-Sambhara) and of perceptivity (Jzana-Sambhara) are to be aimed at. But those who are moral wrecks cannot be permitted into the path. If, howwever, someone who habituated to heinous criminal acts swears earnestly to shun from the immoral acts completely he can with that vow practise the carya of the mantra-naya. This is stated as, "Candalavenukaradyah pancanantaryakarinah| Janmanihaiva Buddhah Syurmantracaryanusarinah || (V.P., P. 15) For being authorised to practise Samaya-Samvara to be able to perform good to others and live a moral and meditative life the Bodhisatvas have to strive. The kalacakra, thus understood, is "Bhagvan. He is bhagvan for obliterating the evil and as he possesses all the qualities like "aisvarya' the great prosperity). Thematic peculiarities have been summarily given above to illustrate the responsiveness of the integrative Kalacakra. What the scriptures know as the literal (Nita) and the adaptive (Neya) meanings, in the Kalacakra literal and symbolic truths (paramarthasamvsiti Satyobhayam) have been drawn on the themes of the Kalacakra. Thus, the "Prajna Opayatmaka Vajra-Yoga" is manifested in it that belongs to Lord Vajrasatva. The Vajrasatva possesses the natural body and has access to the moment of ultimate bliss. Contextually, "bhava-nirvana" in place of "apratisthita nirvana has been transcribed. The Kalacakra does not accept the Virakrama and Svadhisthana Krama, but only the visuddha Karma for the inculcation of mahamudra, that which illumines the Paramadibuddha Tantra. More exhaustive analysis of the esoteric theme is yet, to be brought. A brief descriptive note on six mss. of the Vimalaprabha Tika brought from Nepal which have been utilised in the present work is given below. ( xxyiii) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The Crttical Apparatus : The six manuscripts utilised in the editing of Vimalaprabha Tika with the original Sri-Laghukalacakra-tantra-raja are designated as Ka, Kha, Ga, Gha, Na and Ca and the variants have been provided from them. Besides the Tibetan translation of the Vimalaprabha Tika has also been used and its important readings with Sanskrit equivalents provided and this has been designated as Bho. The Tibetan text used is of the sDe dGe edition publshed recently by Dharma Publications. In the margin of the pages T stands for this Tibetan text and the page number provided by its side indicates that it starts from the word existing in that line. A brief descriptive note concerning the above mentioned six Sanskrit manuscripts of Vimalaprabha Tika is given herewith : Ka (*) MS.-The manuscript is preserved with Pandit Divya Vajra Vajracharya of Kathamandu, Nepal. The entire Tika (up to the fourth Patala) has been reconstructed from this manuscript. The manuscript has been scribed on Nepalese paper and consists of 332 pages. It is in the Devanagari Script. Here the commentary is available up to the fourth chapter only and the fifth chapter contains only the original verses. The first chapter contains commentary upto the 94th verse only. A special feature of this MS is that the original verses are followed by the commentary from the very beginning. In other manuscripts we do not find the verses, and only the commentary is given. While editing the text a coherence has been sought to make the verse compatible with the commentary. Kha (a) MS-The manuscript is preserved with Pandit Asha Kaji Vajracharya of Patna, Nepal. A microfilm copy of the manuscript was prepared at the instance of the Nepal German Manuscript Preservation Project on 13th August, 1978. The microfilm Reel (No. E 618/5, Running No. E. 13746) is preserved in National Archives, Nepal. There are 325 folios in total scribed on Nepalese paper in the format of 23.8 x 12.7 cm. with 9 lines on each page. The manuscript is in Newari-compounded Devanagari Script. The commentary available in this manuscript is up to the fourth chapter only. The commentary of the fifth chapter and its original verses are inextant. This manuscript, too, contains the commentary up to 94th verse of the first chapter only. Ga (6) MS.--Palm Leaf manuscript, in the National Archives. Kathmandu, Nepal; C. No. 5-240 Script-Newari V. No. 9 Size-48 x 5.5 cm. Subject-Buddhist Tantra Lines-6 ( xxix ) Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ The manuscript has been microfilmed by the Nepal German Manuscript Preservation Project, as Reel No. A 48/1. This version is incomplete. It commences from page 58 and runs up to page 364, but many leaves in between are missing. There are 262 leaves extant. In this MS. the commentary is available from 36th verse of the first chapter up to the 80th verse of the fifth chapter. The manuscript has the distinction of having much more text of the commentary than what is available in the Ka, Kha mss. Gha ) MS.-Palm Leaf MS. in the National Archives, Kathmandu, Nepal. C. No. 5-238 Script-Newari V. No. 68 Size-32 x 4.5 cm. Folios-157 Lines_9 Incomplete The manuscript has been inicrofilmed by the Nepal German Mannscript Preservation Project, on 19th Oct., 1970, as Reel No. B. 31/16. The total No. of leaves given is 157, though there are 137 leaves extant. The commentary available here is from the beginning of the first chapter upto its 135th verse. Na (5) MS.--The manuscript is preserved in the National Archives, Kathmandu, Nepal. It is in the Devanagari Script and is incomplete. It contains commentary from the beginning of the first chapter, wherein it goes up to the verse No. 36th whence the Ga Manuscript commences. C. No. 5-241 Script-Devanagari V. No.-15 Folios-153 Ca () MS.-This is a Palm Leaf Manuscript preserved in the Library of the Asiatic Society, Calcutta and bears the No. 10766. Its script has been mentioned as Archaic Bengali and due to its archaic character it is obscure in reading. This Ca MS. has been described as a complete text of the Vimalaprabha Tika and its special feature is that it contains the text of the commentary of the fifth chapter (Patala) too, whereas the other mss have not got the commentary of the fifth chapter. Bho (.)-This refers to the famous sDe dGe edition Vol. No. 40, Text No. 1347, consisting Tibetan translation of Vimalaprabha, published Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ by Dharma Publications, U, S. A., in 1981. The text begins from the main page No. 238 and in the margin of our text, its main page numbers have been given so that the scholars interested in further researches might consult the Tibetan translation conveniently. After the verse No. 149, the author has not commented upon the remaining verses of the first chapter and so the origianl verses have been given here. For them the marginal page references are from Vol. No. 28 of the sDe dGe edition. Jagannath Upadhyaya (xxxi) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ संख्या ii-iv v-vi vii-x xi-xix xx-xxxi .1-156 1-11 12-22 22-30 30-42 1. समर्पण (संस्कृत) 2. , (तिब्बती) 3. प्रकाशकीय (हिन्दी) 4. , (तिब्बती) 5. पुरोवाक् 6. PREFACE 7. लोकधातुनाम प्रथमः पटलः (1) सन्मार्गनियमोद्देशः (2) तन्त्रदेशनोद्देशः (3) देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः (4) देशकाध्येषकसाधनोद्देशः (5) देशकादिसंग्रहोद्देशः (6) मण्डलाभिषेकादिसंग्रहोद्देशः (7) लोकधातुसंग्रहोद्देशः (क) प्रतिवचनसंग्रहोद्देशः (ख) लोकधातसंग्रहोद्देशः (ग) वज्रकायसंग्रहोद्देशः (घ) राहाद्युत्पादसंग्रहोद्देशः (ङ) चन्द्रकलादिविश्वमन्त्रसंग्रहोद्देशः (च) स्वराणां जन्मस्थाननिर्देशः (8) लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः (9) ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः (10) स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः (11) म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनादि 8. अध्यात्मनाम द्वितीयः पटल: (1) कायवाञ्चित्तोत्पत्ति-चतुरार्यसत्यनिर्णय-महोद्देशः (2) समुदयसत्यादिमहोद्देशः 47-52 52-65 52-53 57-58 59-64 77-123 123-152 152-156 157-272 157-170 170-183 ( xxxii ) Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3) चक्रवतिम्लेच्छयुद्ध कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः (4) अरिष्टभरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः (5) क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः (6) रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः (7) स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 183-190 190-214 214-227 228-255 255-271 ( xxxiii ) Page #41 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीमञ्जुश्रीयशोविरचितः परमादिबुद्धोद्धृतः श्रीलघुकालचक्रतन्त्रराजः तस्य वज्रकुलाभिषेकेण सर्ववर्णेककल्ककरणसमर्थन कल्किना श्रीपुण्डरीकेण कृता विमलप्रभाटीका Page #43 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T238 विमलप्रभा [श्रीलघुकालचक्रतन्त्रराजटीका 1. लोकधातुनाम प्रथमपटलः __(1) सन्मार्गनियमोद्देशः - [la] ओं' नमो मञ्जुनाथाय / श्रीकालचक्राय शून्यताकरुणात्मने / त्रिभवोत्पत्तिक्षयाभावज्ञानज्ञेयैकमूर्तये // साकारा च (पि) निराकृतिर्भगवती प्रज्ञा तयालिङ्गित उत्पादव्ययजितोऽक्षरसुखो हास्यादिसौख्योज्झितः / बुद्धानां जनकस्त्रिकायसहितस्त्रकाल्यसंवेदकः सर्वज्ञः परमादिबुद्धभगवान् वन्दे तमेवाद्वयम् / / बुद्ध सिंहासनस्थं त्रिभुवनमहितं वज्रयोगं विशुद्धम् तत्त्वं कायप्रभेदैरभवभवगतं षोडशाकारमेकम् / ज्ञानज्ञेयकभूतं जिनवरसमयं द्वादशाकारमङ्गैः सत्त्वार्थ बोधिचित्तं जिनकुलिशपदं कालचक्रं प्रणम्य // सर्वज्ञो ज्ञानकायो जिनपतिसहजो धर्मकायस्तथा सम्भोगो निर्माणकायोऽपि दिनकरवपुः पद्मपत्रायताक्षः / योगः शुद्धो' विमोक्षर्गतभवविभवैः कायवाञ्चित्तरागैः प्रज्ञोपायाद्वयो यो नृसुरदनुनुतस्तं प्रणम्यादिबुद्धम् // शून्यताज्ञानसंशुद्धं विशुद्धज्ञानमक्षरम् / अनिमित्तज्ञानसंशुद्धं धर्मात्मा(त्म)चित्तमद्वयम् // वागप्रणिहितज्ञानशुद्धो मन्त्रोऽक्षयो ध्वनिः। एवमनभिसंस्कारज्ञानशुद्धो ह्यनाविलः // 1-2. घ. ॐ मञ्जनाथाय नमः / 3. भो. Kyan (अपि)। 4. ख. ०सहितं; भो. mChod (महितं); घ. महितं / 5. ख. भगवतं; ङ. भगवन् / 6. ख. ध. सत्यार्थ; भो. bDen Don (सत्यार्थ)। 7-8. क. योगशुद्धो। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुप्रज्ञोपायात्मको योगः संस्थानकायऋद्धिगः / वज्रसत्त्वो महासत्त्वो बोधिसत्त्वस्तथागतैः(तः) / उक्तः समयसत्त्वो यो भावाभावक्षयो' विभुः / अनादिनिधनः शान्तो बोधिचित्तं प्रणम्य तम् / / निर्माणकायवाचित ज्ञानैकं योगसंवरम् / सम्भोगकायवाञ्चित्तज्ञानैकं योगसंवरम् // श्रीधर्मकायवाकचित्तज्ञानक योगसंवरम् / सहजकायवाञ्चित्तज्ञानैकं योगसंवरम् // जाग्रत्स्वप्नसुसु(षु)प्तं न तुर्य द्वीन्द्रियजं सुखम् / न ज्ञानचित्तवाक्कायः चतु*(:) स्थानेषु संस्थितम् / / कर्ममुद्रापरित्यक्तं ज्ञानमुद्राविवर्जितम् / महामुद्रासमुत्पन्नं सहजं नान्यया सह / / विकल्पभावनातीतं महामुद्राक्षरं सुखम् / ग्राह्यग्राहकसंस्थानकल्पजल्पविजितम् // गन्धर्वनगराकारं प्रतिसेनास्वरूपकम् / . प्रज्ञोपायात्मकं योगं [1b] एवंकारं प्रणम्य तम् // परमाणुधर्मतातीतां प्रतिसेनास्वरूपिणीम् / सर्वाकारवरोपेतां महामुद्रां प्रणम्य ताम् // जननी सर्वबुद्धानां उत्पादक्षयवर्जिताम् / चर्यां समन्तभद्रस्य विश्वमातां प्रणम्य ताम् // आलिकालिसमापत्तिहूँफटकारादिवर्जितम् / अक्षरोद्भवकायञ्च कालचक्रं प्रणम्य तम् // सर्व ज्ञानकायाख्यं मार्तण्डवा पद्मपत्रायताक्षं तं तत्त्वं षोडशभेदतः // चतुःकायात्मकं deg बुद्धं वज्रसिंहासने स्थितम् / स्तुतं सुरासुरैर्नत्वा सुचन्द्राध्येषितं पुरा॥ 1. क. भावाक्षयो; भो. dNos dan dNos Med Zad Pahi (भावक्षय-)। 2. 'चित्तं' इति अत्र श्लोके 'चित्त' इति / 3. 'संवरम्' इति अत्र श्लोकेषु 'सम्वरम्' इति / 4. ख. तुयं / 5. ख. चतो; ङ. चण्ड / 6. घ. धर्मा / 7. घ. विवजितं / 8. ख. सर्वज्ञ। 9. घ. षोडशानन्द०। 10. घ. चित्तकाया; ङ. चण्डकाया० / Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले 1 सन्मार्गनियमोद्देशः शुद्धज्ञानकयोगो जिनवरसमयश्चित्तधर्मैकयोगः वाक्सम्भोगैकयोगस्त्रिभुवनमहितः कायनिर्माणयोगः / ज्ञानज्ञेयाद्वयोऽसौ गतभवविभवो वज्रसत्त्वश्चतुर्धा प्रज्ञोपायात्मकं तं नृसुरदनुसु(नु)तं' वज्रयोगं प्रणम्य // एक पदं वज्रमणौ रजोऽर्के उष्णीषशक्रे शशिनि द्वितीयम् / न्यस्तं सदाच्छेद्यमभेद्यमिष्टं भर्तुस्त्रिलोकमहितं शिरसा प्रणम्य / / वाय्वग्निवार्यवनिमण्डलमेरुपद्मचन्द्रार्कतेज उपरीश्वरमारमूनि / न्यस्तं पदं भुवनमातृपदेन साद्धं भर्तुः सुरेन्द्रनमितं शिरसा प्रणम्य // एवं यो वज्रयोगोऽपरिमितसुगतैः सेवितो देशितश्च सङ्गीतो बोधिसत्त्वैर्वरकुलिशधरैर्मन्त्रविद्भिः समस्तैः / 10 तं. योगं वक्तुकामोऽक्षरपरमसुखं कालचक्रे जडोऽहम् आकाशे शीघ्रगामी व्रजति खगपतिः किं न यात्यन्यपक्षी // यस्मिन् समस्तभुवनं प्रकटं च देहे गीतं समन्त्रमलिबिन्दुधरैजिनेन्द्रः / * तस्मिन् महाजलनिधौ प्लवितुं प्रविष्टः पारं प्रयामि यदि तत्र जिनानुभावः // यद् व्याकृतं दशबलेन पुराल्पतन्त्रं गुह्याधिपस्य गदितात् परमादिबुद्धात् / 15 तत् कालचक्रलघुतन्त्रमिदं कलापे मञ्जुश्रिया निगदितं सकलं मुनीनाम् / टीका सुचन्द्रलिखिता सर्वयानार्थसूचिका। षष्टिसाहस्रिका याऽऽसीत् पुण्डरीकेण सा मया // लिख्यते लघुतन्त्रस्य मूलतन्त्रानुसारिणी। ग्रन्थद्वादशसाहस्री सवज्रपदभेदिनी // श्रुत्वा तन्त्रमिदं जिनोक्तविधिना [2a] सेकं गृहीत्वोत्तरम्। योगी वा लघुतन्त्रराजमखिलं संज्ञानमार्गे स्थितः / त्यक्त्वा मानमनेकभोगविभवं चित्तं गुरोरपितो (गुरावर्पितम्) बुद्धत्वाय परोपकारचरितः टीकां शृणोति प्रभोः // योऽभिज्ञारहितः करोति महतीं श्रीवज्रयाने स्थितः 25 शास्त्रानेकविकल्पधर्महृदयः पाण्डित्यवर्या(दर्पा)न्वितः / टीकां सोऽन्धगजप्रमत्त इव तत् तन्त्रं स्वकं ध्वंसयेत् शत्रोस्तन्त्रजयाय यत स्थितमिदं मारस्य बन्धः सदा // 1. ख. घ. ऊ. ०दनुनुतं / 2. ख. उपरिश्चर; भो. Ten dudBan Phyug (उपरीश्वर०)। 3. ङ. स्व / 4. भो. समन्त्रआलि०; क. समन्त्रमालि०; ङ. मालि० / 5. ङ. गृहीत्वान्तरं / 6. ख. भो। 7. घ. स करोति / 8. क. महती। 9. ख. दर्पा०; भो. Dregs lDan (दन्वितः) / Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु पाण्डित्येनाभिमानी जिनपतिवचनाज्ञानशीलः सदान्धः टीकां कृत्वाग्रयाने प्रविशति नरकं पातयित्वा परान्धान् / कोकृत्यप्राणिघाताद्यकुशलपथिनि स्त्रीसुखाकृष्टचित्तः' श्रीप्रज्ञासौख्यनष्टः कुलिशपदहतो बाहयभोगाभिभूतः // शास्त्रास्वं (शास्त्रैव) व्याकृता ये जिनपतिसुखदे वज्रयाने समस्ताः टीकासङ्गीतिकारा वरकुलिशधरा मादृशा बोधिसत्त्वाः / ते ऽस्मिन् बुद्धानुभावं सुरभुजगनृणां पाचनार्थ ब्रुवन्ति पञ्चाभिज्ञा न येषामनृतमिति जिनेन्द्रा वयं ते ब्रुवन्ति / / नानाबुद्धिरनागतेऽध्वनि सदा तर्कादिशास्त्रार्पिता बौद्धानां तर्कसङ्गमवशान्मिथ्या भविष्यत्यपि / तर्कादर्पितपा(या) तयेष्टविषये ये मार्गसन्देशकाः तेषामेव कुबुद्धिदोषमथनी टीका मया लिख्यते // रागानन्तजले विवेकरहितद्वेषादि(हि)५ नक्राकुले मोहोमिप्रधु(चु)रे गतागतधनश्रीलोभवेलातटे / कौकृत्यादिवधादिकर्मवडवास्पा(स्या)वर्तरौद्रध्वनौ टीका कर्णधरा भवद्रवनिधौ श्रीवज्रयाने सदा // सत्सौख्यैर्नृतलङ्घनाय महतां मार्गेण सा नायिका प्रज्ञा वातपटेन शीघ्रगमिनी निर्वाणपारार्थिनाम् / मारक्लेशसमूहनाशनपटो (:) संज्ञानचिन्तामणेस्त्रैलोक्याधिपतिन्वदान्त(त्वदातृ)रिमिका" (?) सर्वत्र सन्दर्शिका / मुद्रा वज्रधरस्य सैक (सैव) महती सर्वज्ञसौख्यप्रदा स्कन्धाद्यावरणप्रहीणविषया याप्त(ट) प्रसेनोपमा। त्यक्ता(क्त्वा) तां धनलुब्धवक्रहृदयां यः कल्पितां सेवयेत्'' बुद्धत्वाय तया विकल्पितधिया वा नीयते स च्युतिम् // [2 b] पापं रागविनाशतः प्रियतमा(द) द्वेषा(द्वषो) यतो जायते. द्वेषान्मोह इतः स्ववज्रपतनाच्चित्तस्य मूर्छा सदा / T239 1. घ. श्रीसुखा० / 2. क. वाक्यभोगा; भो० Phyi yi (बाह्य०)। ३.क. ग. शास्त्रात्व / 4. ख. त। 5. ख. हि भो. sGrul (अहि)। 6. भो. rab Man (प्रचरे)। 7. ख. न्वदान्तु, घ. वदान्निमिके०; ङ. ०अधिपतिस्त्वदान्तरिमिका / 8. भो. de Nid gCig pu / 9. भो. brGyad (अष्ट)। १०.घ. शोधयेत् / 11. घ. च्युतिः। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] सन्मार्गनियमोद्देशः अन्यस्मिन् विषये प्रवृत्तिरखिलाऽसत्खानपानादिके चित्तं तेन विडम्बितं हतसुखं षड्जन्मसु भ्राम्यते // शब्दाशब्दविचारणा न महती सर्वज्ञमार्गार्थिनाम् नानादेशकुभाषयाऽपि महतां मार्गे प्रवृत्तिः सदा / सत्त्वानामधिमुक्तिचित्तवशतः सर्वज्ञभाषा परा अन्या व्याकरणे सुराहिरचिता शब्दादिवादार्थिनाम् / / अपशब्दादर्थमपि योगी गृह्णाति देशभाषातः / तोये . पयो निविष्टं पिबन्ति हंसास्तदुद्धृत्य // परमार्थतत्त्वविषये न व्यञ्जनस(श)रणता सदा महताम् / * देशसंज्ञाभिरर्थे ज्ञाते किं शास्त्रशब्देन / ज्ञानं तदेव भवति उदिते (उक्ता) यस्यापशब्दशब्दाः* स्युः / सर्वज्ञस्य न भाषा या सा प्रादेशिकी जगति // परमाक्षरं चतुर्थ प्रज्ञाज्ञानं तदेव बुद्धानाम् / यत्तत्पुनस्तथ्यं स्वमहामुद्रा जिनेनोक्ता / / क्षरति प्रज्ञासङ्गे यस्य सितं तस्य केन सुखवृद्धिः / मुकुलं वसन्तसङ्गे पतति फलं केन चूतस्य / येनाक्षरं न लब्धं स क्षरं सौख्यं समीहते दुःखी / सर्वो मृगप(य)ति' तोयं तृषितोऽपि न वा(चा)तको भूस्थम् / / संसारसुखमनित्यमप्राप्तमपीहते महामूर्खः३ / साम्राज्यसुखं प्राप्तं (प्तो) विद्वान् संत्यजति मोक्षाय / / वर्षावधेः कदाचित् सुरततिं मृगप(य)ति मृगाहारी / पाषाणकणाहारी नित्यं पारावतः कुरुते / / उभयोस्तु न परमसुख (-) सकृत् सदा शुक्रपाततो यद्वत् / तद्वत्तपश्चि(स्व) कामुकयोः स्वप्नजाग्रतोः क्षरणात् // 1. ख. मृगपति / 2. ख. वातको / 3. क. महासुखः / 4-5. क. सुकृत् अनन्तरं सदा। अपशब्दश्च शब्दश्च इति अपशब्दशब्दाः इति व्युत्पत्तिः भोटानुरोधेन कर्तव्या; एतेन अपशब्द-शब्दाभ्यामुभाभ्यामपि समानमेव ज्ञानं न भवति इति अर्थः स्फुटो भवति / शब्दः कञ्चिदपि न विषयं करोति इति भावः; यद्यपि 'क'. पुस्तके 'शब्दः शब्दाः' इति पाठः। 20 Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुसुप्तोऽपि सर्पदष्टो न जीवति शुक्त(क्र)'संग्रहाभावात् / यद्वत्तद्वद्दष्टस्तपस्पतेनावलायोन्या (यद्वत्तद्वद्भ्रष्टस्तपस्पतिखलायोन्याः)* दग्धं शिखिनैव शिलावल्कलसूत्रांशुकं भवति शुद्धम् // यद्वत्तद्वत्पुंसां प्रज्ञाज्ञानेन सच्चित्तम्। अग्निस्पर्शात् सूतः प्रपलाप(य)ति नाचलो भवति यद्वत् // तद्वयोनिस्पर्शाच्छुक्रं ह्यनयापि नो (ह्यनुपायिनो) नित्यम् / औषध्यादिबलेन चलोऽपि संबध्यतेऽग्निसम्पर्कैः / / यद्वत्तद्वत् प्रज्ञासम्पर्कैः शुक्रमतियोगैः / काष्ठस्थोऽपि सदाग्नि[3 a]र्न दृश्यते छेदभेदनोपायैः / / सरकाणु(अरणि) 5 मथनात्तत्स्थो स दृश्यते यद्वत् / तद्वच्चित्ताभासो न दृश्यते कल्पभावनोपायैः / / तत्रैव दश्यतेऽसी ललनारसनैकयोगेन। . मार्गरहितो न तत्त्वं प्राप्नोति तथागतेन यत् प्रोक्तम् / / षोडशचतुःप्रभेदं विविधविकल्पादिमार्गेण / उत्पत्तिक्रममुक्तं हूँफटकारादिकल्पनारहितम् / / उत्पन्नक्रमयोगस्तत्त्वं तत्त्वस्य साधनं नान्यत् / धूमादिनिमित्तेन प्राणायामेन' मध्यवाहेन / विद्याव्रतेन वज्रपातेनैवोर्ध्वशुक्रण / मार्गेणानेन सुखं योगी प्राप्नोति सर्वबुद्धानाम् // परमाक्षराभिधानं सहजं वा सर्वदूतीनाम् / रूपादिसंकल्पनैर्मण्डलचक्रादिभावनाभ्यासैः / सिध्यति लौकिकसिद्धिः किं पुनरिष्टा महासिद्धिः // मार्गः सद्गुरुप्रसादतो भवति शुद्ध(ः) शिष्याणाम् / येषां सत्त्वेषु कृपा परकार्यशुभोद्यमो नित्यम् // . 1. ख. शुक्ल / २.ख. सचित्तम् / 3. भो. Thabs dan Bral bahi Khuba (ह्यनुपायिनो)। 4. क. वलोऽपि; भो. hGro ba de yan (चलोऽपि)। 5. ख. ङ. सरकाण्ड; भो. gTsub singTsub stan (अरणि)। 6. ख. ङ. स्थोऽपि / 7. घ. प्रभेदतो। 8. ङ. प्राणायात्मेन / * विभिन्नप्रतीषु भ्रष्टपाठ एवातो यथासम्भवं पाठो दीयते / Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] सन्मार्गनियमोद्देशः अन्यस्मै दत्तमिदं सुमार्गरत्नं प्रमत्तसत्त्वाय / ह्रियते कुविषयचौरैः स्वगृहारण्यं प्रविष्टस्य // विचिकित्साकोकृत्यनिद्रालस्यौद्धत्यचौरैश्च आह्रियते सुमार्गरत्नं कुदु(टु) 'म्बगहनं प्रविष्टस्य // प्राणातिपात-मिथ्या-अदत्त-परदाररूक्षपैशुन्यम् / सम्भिन्नवचोऽभिध्या-व्यापाद-कुदृष्टिचौरैश्च // सत्पापकोपपातक हत्याद्रोहेन्द्रियाभिसंसक्तिः / पञ्चकपञ्चभिरेभिचौरै(भिश्चौरै) रत्नं सदा ह्रियते // अत्यन्तखानपानैर्नानाभोगैरनेकचौरैस्तैः / 'वीर्यवतोऽपि ह्रियते प्रमादमूर्छा गतस्यैव / / स्वयमेव नहि परीक्षक इतरस्य विटस्य प्रदर्शयेत् ज्ञातुम् / भवति महाघ (W) न भवति तद्वाक्यान् मुञ्चते रत्नम् / / 'येभ्यः कारयति महारत्नपरीक्षा सुरत्नवेत्तृभ्यः / तेषां विशुद्धवाक्यैः स्वकीयरत्नं हि विज्ञेयम् // मारः करोति विघ्नं रूपैः सम्बुद्धबोधिसत्त्वानाम् / पितृमातृदुहितृभगिनिपुत्रभ्रात्रिष्टभार्याणाम् // तस्मात् सद्गुरुदत्तं सुमार्गरत्नं हि यत्नतः शिष्यैः / कर्तव्यमतिसुगुप्तं चौरकुटुम्ब (चौरं कुटुम्ब) परित्यज्य // वीरक्रमो न मार्गः स्वाधिष्ठानक्रमश्च मोक्षाय / सुविशुद्धक्रम [3b] एको मोक्षाय सन्दर्शितो बुद्धेः / / सौख्ये न संगृहीताः पञ्चानन्तर्यकारिणो येन / सेकार्थेन जिनेन्द्रः प्रज्ञोपायात्मके तन्त्रे // वीरक्रमो न बाह्ये देहे प्राणक्षयो ह्यसावुक्तः / स्वाधिष्ठानं शून्ये त्रैधातुकदर्शनं नाम // संसारे निःसारे बुद्धत्वं फलं तत्क्षयात् ततः पुंसाम् / कदलीफलमिव पक्वं कदलीनाशेन सम्भवति / / 1. ख. टु; इ. डु; भो. टु। 2. ख. ङ. 0 उपपापक / 3. ख. वहि ; क. वद्भि। 4. क. ज्ञात्रम् / 5. ङ. महार्थ / 6. ग. ङ. वाक्यम् / 7. घ. चौरै ऋक्षकुटुम्बं / 8. ख. ०न / Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T240 विमलप्रभायां [ लोकधातुवृश्चिककुलीरसत्त्वा यस्याः स्युस्ते विनाशिनस्तस्याः। एवं भवति विनाशि तद्योगचित्तं मायायाः॥ अद्वयमव(च)लमनन्ध(न्व)यमिष्टं परमाक्षरं महारागे'। भावाभावाभ(7)वं ज्ञानं सत्त्वं समन्तभद्रञ्च // अरणो महारणश्च सहजः श्रीबोधिचित्तबिन्दुधरः / श्रीकालचक्रवज्रः प्रज्ञोपायात्मको योगः // करुणाशून्यतामूर्तिः कालः संवृतिरूपिणी / शून्यताचक्रमित्युक्तं कालचक्रोऽद्वयो मतः // अस्य श्रीप्राप्तये शीघ्रं योगिनीचरणं सदा। यो योगी ध्यायते नित्यं तस्य विघ्नक्षयो भवेत् / / शत्रुः* सिंहो गजेन्द्रो हविरुरगपतिस्तस्कराः पाशवश्वः (बद्धाः) / क्षुब्धाम्भोधिः पिशाचा मरणभयकरा व्याधिरिन्द्रोपसर्गः / दारिद्रयं स्त्रीवियोगः क्षुभितनृपभयं वज्रपातोऽर्थनाशः / नाशं तस्य प्रयान्ति स्फुटमपि चरणं यः स्मरेद् योगिनीनाम् // मातङ्गस्प(स्य) न्दनाश्च५ प्रचु(व)रनरवरैः सर्वसन्नद्धकार्यः संग्रामे सेर्ण (शल्य) चक्रासिधनुरिष्करैः शत्रुभिर्हन्यमानः ! सर्वारीस्तान् स्वशस्त्रदिशि विदिशि गतान् मृत्यदान् रौद्ररूपान् जित्वा पादौ समन्ताल्लभति जययशो यः स्मरेद् योगिनीनाम् / / आकुर्वन् सिंहनादं सुविकृतवदनस्तीक्ष्णदंष्ट्राकरालो ना (ला)ङ्गलं स्फालमानः कुटिलदृढनखो खोत (खात)मत्तेभकुम्भः / क्रुश्वो (क्रुद्धो) बालारुणाक्षो ललदसिरसनः केशरी(-) हन्तुकामः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ तस्य दूरं प्रयाति // नीलाभः पिङ्गनेत्रः प्रचुरमदजलापूरितो गण्डयुग्मा उत्पाट्य'' मोटयन् वै" विविधृतरुवरान् मेघवद् गर्जमानः / बन्धं कृत्वा प्रवरगजपतिर्भेदयन् दन्तकोट्योः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ मु[4a]ञ्चते तस्य कायम् // 1. घ. ङ. ०रागं / 2. ख. भविरुरग०। 3. ख. ङ. पाशबन्धाः / 4. ख. स्य। 5. भो. rta (अश्व)। ६.ख. ङ. सेल्ल / 7. ख. त्मा / 8. ख. खात; भो. rab tu hGems (सात)। 9. रा. कन्धो ; भो. rab Khros (कद्धो)। 10-11. ला दुत्पाटन मोटयन्ध; भो. rTsad nas hByun Sin rab tu Grugs Byed (उत्पाटयन् मोटयन् वै); घ. मोटयन्ती / *.अ. शक्रः। 23 Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .पटले ] 5 10 सन्मार्गनियमोद्देशः स्फर्यज्ज्वाल:' समन्ताद् दिशि विदिशि महासर्वधूमान्धकारो ग्रामाररोपेक (रण्यैक) दाहा उडुपतनमिवामुञ्चमानः स्फुलिङ्गात्(न्) / सत्त्वानां सर्वकालं मरणभयकरः सर्वदिग्प्राप्त(व्याप्त)वह्निः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ तस्य शीतत्वमेति // क्रुद्धो नीलाञ्जनाभः कुटिलगतितनु(:) रौद्रस्फु(फू)त्कारयुक्तः / दंष्ट्रावक्रो द्विजिह्वो मरणभयकरो वायुवेगः प्रचण्डः / सम्प्राप्तः क्रूरदृष्टिः प्रकटकृतफणो दंशमानः फणीन्द्रः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ तस्य नाशं प्रयाति / / आरण्ये दृष्टचित्ताः करतलधनुषाः परिताः कर्णबाणा५ रुद्ध्वा सन्मार्गभूमिं दिशि विदिशि गताः सेल्लचक्रासिहस्ताः। सम्प्राप्ता रौद्रनेत्राः पथिकजनवरं तस्करा लुण्ठमानाः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ तस्य दूरीभवन्ति / बह्वा (H) पार्शनिबद्धोऽङ्ग्रिकमलयुगले पूरितः शृङ्खलाभिः जिहाकण्ठोष्ठशष्कः शभजलविरहाच्छष्ककायः क्षधार्तः / आरक्षे (1) रक्षमाणो दिननिशिसमये स्वामिकोपाज्ञया वै यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ सोऽप्यतो मुक्तिमेति // आरूढोऽम्भोधियाने क्षुभितजलनिधौ. चण्डवातैरनन्तैः आवर्त नीयमाने मकरझषकुलै रब्धिचौरॅनिरुद्ध / दुष्टैर्मुक्ताग्नितैलैरनवरतमहावह्निवृष्टौ समन्तात् यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ सोऽप्यतः पारमेति // फेत्कारै र्भीमनादैर्बलदनलमुखैः कत्तिकाशुक्तिहस्तैः वेताडा(ला) भीषयन्तो दशदिशि वलये संस्थिताः क्रूरचित्ताः / मांसाहाराः क्षुधार्ता नररुधिररताः शुष्ककाया विवस्त्राः यः पादौ योगिनीनां स्मरति भयहरौ तस्य कुर्वन्ति रक्षाम् // नष्टाङ्गुल्यग्रवृत्तः प्रतिदिनहरतो नष्टनासौष्ठकर्णः पूयक्लिन्नव्रणेभ्यः प्रवहति बहुशो वक्र(क्त्र)"कपठाज्रिहस्ते / संत्यक्तो बन्धुवर्गंzतकतनुरिव क्लिन्नगन्धप्रभावात् रोगैर्मुक्तः भवति सुचरणौ यः स्मरेद् योगिनीनाम् // 15 1. सा. स्फुर्य० / 2. स. ग्रामारण्यैक / 3. ख. दु। 4. ख. °न् / 5. क. कल्लबाणा। 6. भो. rGyu ba (चर)। 7. ख. 0 / 8. ख. ममकरस० / 9. भो. Phat (फट)?। 10. क. ङ. प्रतिदिनकुचितो। 11. स. वक्त्र / Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विमलप्रभायां [ लोकधातुसज्वालस्तीक्ष्णदं [4 b]ष्ट्र: फणिहरिस(श)*रभव्याघ्रमातङ्गवक्त्रः चक्रासीषु त्रिशूलांकुशकुलिशकरैः सर्वदिक्ष्विन्द्रदूताः / बोधौ ध्यानैकनिष्ठं परमसुखगतं साधकं तर्जयन्ति ये नाशं तेऽस्य यान्ति स्वमनसि चरणं यस्य योगेश्वरीणाम् // वार्षे भारं वहत्यानगरमपि वनात् कर्दमापूर्णमार्गे हेमन्ते वस्त्रहीनो व्रजति हिमपथं याति देशान्तरं च / ग्रीष्मे सूर्यांशुतप्तं सभयमरुपथं निर्जलं यो दरिद्रः तैर्दुःखैर्मुक्तकामी भवति सुचरणौ ध्यायतां योगिनीनाम् // कक्षाक्षिश्रोत्रनासामुखतनुर(स्र)वतस्तीवमायाति गन्धो दौर्भाग्यं सर्वकालं सुरतविरहितं सर्वनारीवियोगात् / द्वेषः स्त्रीणां सदा स्यादशुभफलवशात् येषु तेषां समस्तं सौभाग्यं वर्णरूपं सुखवरदपदं ध्यायतां योगिनीनाम् // द्रोहात् क्षुब्धो नरेन्द्रः प्रलययम इवात्यन्तमारेकनिष्ठः सैन्यं संप्रेषयन् यो मरणभयकरं येषु भूत्येषु शीघ्रम् / तेषां सोऽपि प्रशान्तो भवति हि वरदः सर्वसम्मान 'दानः सर्वत्रैलोक्यनाथं सु(स्व) मनसि चरणं ध्यायतां योगिनीनाम् / / येषां वज्रप्रपातः क्वचिदपि नभसः स्त्रीप्रसङ्गाच्च नित्यम् मृत्यु मूछौँ विरागं पुनरपि कुरुते जन्मजन्मान्तरेभ्यः / तेषां सोऽपि प्रशान्तो भवति निधनतां याति भूयो न जन्मी , श्रीकर्मज्ञात(न)दिव्याग (म्बुज)कुलिशपदं ध्यायतां योगिनीनाम् // येषां सर्वार्थनाशो भवति दिननिशं स्त्रीप्रसङ्गे विरागात्। भूयो जात्यन्तरैः स प्रभवति बहुशो वासनाश्लिष्टचित्तात् / सर्वार्थः सोऽविनाशी भवति जिनवरैः पूजितं संस्तुतं यत् / प्रज्ञानां विश्वरूपं ह्यसमसमपदं ध्यायतां योगिनीनाम् // योगिन्योऽर्के न्दुराहुत्रिविधपथगताः पिङ्गलेडावधूत्यो भावाभावप्रणष्टौ समगतिचरणौ तौ तयोर्ज्ञानकायः / एकोऽसावक्षरं तत् सहजसुखपदं तौ तदेव स्मरेद् यः अत्रोक्तं तस्य शीघ्र सकलभयहरं स्यात् फलं जन्मनीह // . स्थानं श्रीयोगिनीनां कुलिशमणिगृहं तत्प्रवेशाय [5a] मार्गो निःक्लेशी(शो) नष्टमारो गदित इह मया स्तोत्रपूर्वो जिनोक्तः। 1. क. सर्वसह ; भो. Pho Na (०दूत)। 2. भो. Ran Yid la (स्व) / 3. भो. Chu sKyes (अम्बुज) 4. स. ०क्के / *. घ. सु। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] T241 सन्मार्गनियमोद्देशः येषां मार्गो विनष्टोऽनृततमसि सदा मारसङ्गैर्गतानां तेऽनेनायान्त्वदूरं कुलिशमणिगृहं लब्धमार्गेण पुंसाम् / द्वात्रिंशल्लक्षणाङ्गो गुरुरिह जगतः संस्थितो धर्मचक्रे देवानां मौलिचडामणिकरनिकरैश्चुम्बितः पादपद्मः / सन्मार्ग दर्शय॑)मानो दिवसकर इव ध्वस्तसन्धिकारो ध्यात्वा धूमादिमार्गः सहजसुखपदं कालचक्रो भवेत् सः॥ यो देवाहिनरासुरेन्द्रमुकुटैः संघृष्टपादाम्बुजः सम्यग्ज्ञानदिवाकरस्त्रिजगतः श्रीधर्मचक्रे स्थितः / मारक्लेशमृगप्रचण्डवधकः श्रीशाक्यसिंहः सदा टीका तत्कृपया लिखामि जगतस्तत्प्रज्ञया चोदितः // ककारात् कारणे शान्ते लकाराच्च लयोऽत्र वै। चकाराच्चलचित्तस्य क्रकारात् क्रमबन्धनात् // कालोऽक्षरसुखज्ञानमुपायः करुणात्मकः / ज्ञेयाकारं जगच्चक्रं श्री(:) प्रज्ञा शून्यतात्मिका // अस्य श्रीकालचक्रस्य वज्रयोगस्य सर्वतः। सत्यद्वये स्थितस्यास्याभिधानं वाचकं भवेत् / / अस्मिन् तन्त्रे मया टीका सुगतव्यांकृतेन वै। दितेनैव लोकनाथेन लिख्यते // बालपण्डितमूर्खाणां तन्त्रे गुह्यप्रकाशिका / हिता मातेव पुत्राणां सुखार्थं सर्वदेहिनाम् // सन्मार्ग बज्रसत्त्वस्य यया' विन्दन्ति योगिनः / तस्मात् सा लिख्यते क्षिप्रं टीकेयं विमलप्रभा / इति मूल तन्त्रानुसारिण्यां द्वादशसाहस्रिकायां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां विमलप्रभायां सकलमारविघ्नविनाशतः परमेष्टदेवतासम्मार्गनियमोहेशः३ प्रथमः // 1 // 2. वा. शूल। 3. भो. mDor bsDus pa Chen po 1. क. मया / (महोद्देशः)। Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु (2) तन्त्रदेशनोदेशः इह प्रथमं तावन्मूलतन्त्रा'नुसारेणाभिधेयाभिधानसम्बन्धादिकं लघुतन्त्रादिव्याकरणमुच्यते, पश्चाल्लघुतन्त्रे प्रयोजन-प्रयोजनादिकञ्चेति / इह प्रथमं तावदभिधेयाभिधान-सम्बन्ध-प्रयोजन-प्रयोजनप्रयोजनान्यभिसंवीक्ष्य वैनेयजनानां नियमरहितानां [5b] स्वचित्ताभिप्रायेणेह जन्मनि बुद्धत्वफलप्रदम् / महासुखावासे परमादिबुद्धवज्रधातुमहा5 मण्डले वज्रसिंहासनस्थेन बुद्धबोधिसत्त्वक्रोधराजदेवनागदेवतादेवतीगणपरिवृतेन त्रैधातु कवन्दितचरणारविन्देन त्रैधातुकैकचक्रवर्तिना परमादिबुद्धेन निरन्ध(न्व)येन' श्रीकालचक्रभगवता सुचन्द्राध्येषितेना द्वादशसाहस्रं परमादिबुद्धं निरन्वयं कालचक्रं तन्त्रराजं* वज्रधरज्ञानकायसाक्षिभूतया नामसङ्गीत्यालिङ्गितं सर्वतन्त्रेषु वज्रपदसाक्षिभूतम्, उद्घाटितबुद्धरत्नकरण्डकम्, लौकिकलोकोत्तरसत्याधितं चतसृभिः सम्बोधिभिश्चतुर्वज्रः 10 परिशद्धं चतुःकाय-षट्कूल-द्वादशसत्य-षोडशतत्त्व-षोडशशून्यता-षोडशकरुणात्मकाभिधेय वाचकम्, लौकिकदशलोकोत्तरेकादशाभिषेकप्रकाशकम्, कर्ममुद्रा-ज्ञानमुद्रा-महामुद्रालौकिकलोकोत्तरसिद्धिप्रकाशकम्, लोकधात्वध्यात्माभिषेकसाधनज्ञानपञ्चपटलात्मकम, पञ्चकल्पात्मकं वा, नरादिसकलसत्वानां सम्यकसम्बुद्धत्वलाभाय* सन्देशितम् / अतो लघुतन्त्रसङ्गीतिकरणाय मञ्जश्रियस्तथागतव्याकरणम्, अनागतेऽध्वनि ब्रह्म-ऋषीणां 15 वैनेयार्थं मम टीकाकरणाय च, अन्येषां यमान्तकादीनां तन्त्रदेशनार्थम्, सम्भलविषयादिषवति-(षण्णवति) कोटिग्रामनिवासिनां सर्वसत्त्वानां च मार्गलाभायेति / / इह परमाणुसन्दोहपूर्वङ्गमो लोकधातुः, लोकधातुपूर्वङ्गमाः सत्त्वाः, सत्त्वपूर्वङ्गमोऽभिषेको लौकिकलोकोत्तरश्च, अभिषेकपूर्वङ्गमं पुण्यसम्भारं मण्डलचक्रभावनाभ्या समकनिष्ठभुवनपर्यन्तं लौकिकसिद्धिसाधनम्, लौकिकसिद्धिपूर्वङ्गमं पुण्यज्ञानसम्भाराभ्यां 20 पूर्वजन्मशून्यताकरुणासंवृतिनिरालम्बवासनाबलेन परमाणुसन्दोहातीतं मण्डलादिविकल्प [6a] भावनारहितं महाज्ञानमुद्रासिद्धिसाधनमिति / अतः प्रथमो लोकधातुकल्पः, ततोऽध्यात्मकल्पः, ततोऽभिषेककल्पः, ततो लौकिकसिद्धिसाधनाकल्पः, ततः परमाक्षरज्ञानसाधनाकल्पः। एवं यथानुक्रमेण पञ्चकल्पात्मकं तन्त्रराज पञ्चपटलात्मकं वा / अनु (अत्र) प्रज्ञोपायात्मको वज्रयोग आदिबुद्धो निरन्वयः 25 कालचक्रो भगवानभिधेयः। स चानया पञ्चपटलस्वभावतयाऽवस्थितः। लोकधातुपटलः। प्रथमं तावल्लोकधातुपटल: सर्वज्ञेत्यादिदेशकस्वभावतयाऽवस्थितः, स्थाननिर्दशस्वभावतयाऽवस्थितः, महापर्षत्सम्पत्स्वभावतयाऽवस्थितः, अध्येषकस्वभावतयाऽवस्थितः, वज्रयोगाभिधेयाभिधानप्रयोजनप्रयोजनादिपृच्छास्वभावतयाऽव 1. क. घ. ऊ. मन्त्रा० / 2. ख. च. ०संवीक्ष्य; क. संबोध्य / 3. क. निरन्धयेन / 4. क. निरन्धयं / 5. ख. संबुद्धलाभाय / 6. ख. दिषण्णवति / 1-* भो. (सुचन्द्राध्येषितेन परमादिबुद्धं द्वादशसाहस्रनिरन्वयं कालचक्रतन्त्रराज)। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] तन्त्रदेशनोद्देशः 13 स्थितः, पञ्चाक्षरमहाशून्यादिविश्वो(बिम्बो)त्पादमण्डलाभिषेकाध्येषणस्वभावतयाऽवस्थितः, देशकप्रतिवचनस्वभावतयाऽवस्थितः, लोकधातुमन्त्रग्रहनक्षत्रसत्त्वप्राणाधुत्पादसंग्रहस्वभावतयाऽवस्थितः, वाय्वादिमण्डलसमुद्रद्वीपशैलसंख्यास्वभावतयाऽवस्थितः, मञ्जुश्रीव्याकरणस्वभावतयाऽवस्थितः', एकत्रिंशद्भवस्वभावतयाऽवस्थितः, महाचक्रवर्ग्युत्पादस्वभावतयाऽवस्थितः, सूक्ष्मतरादिश्वासदिनमानादि स्वभावतयाऽवस्थितः३, सिद्धान्तकरण- 5 ज्योतिर्गणितस्वभावतयाऽवस्थितः, मध्यनाडीश्वासेभ्यो ग्रहचरणजन्मनक्षत्रचरणस्वभावतयाऽवस्थितः, द्वादशाकारराशिपृथ्वीगोलकस्वभावतयाऽवस्थितः, स्वरोदयादिस्वभावतयाऽवस्थितः, राहादिभूमिबलस्वभावतयाऽवस्थितः, दुर्गभेदरक्षणयन्त्रस्वभावतयाऽवस्थितः, चक्रवत्तिद्वादशभूमिखण्डभ्रमणस्वभावतयाऽवस्थितः म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनस्वभावतयाऽवस्थितः, सकलसत्त्वानां लौकिकलोकोत्तरसिद्धिमार्गदानस्वभावतयाऽवस्थितः, 10 मञ्जुश्रीलोकेश्वरपृष्ठाग्रतो देशकस्वभावतयाऽवस्थितः, महाचक्रवर्त्यादिकल्किपर्यन्तं नराणां परमायुःस्वभावतयाऽवस्थितः / / इति लोकधातुपटले // ततोऽध्यात्मपटले प्रथमं गर्भाधानसं(6b)ग्रहस्वभावतयाऽवस्थितः, रजः. शुक्ला (क्रा)लयविज्ञानज्ञान संयोगस्वभावतयाऽवस्थितः, प्रत्येकैकमासेन गर्भोत्पादस्वभावतयाऽवस्थितः, मत्स्यादिदशावस्थास्वभावतयाऽवस्थितः, चतुःकाय भावतयाऽवस्थितः, चतसृभिः सम्बोधिभिः गर्भोत्पत्तिस्वभावतयाऽवस्थितः, षट्शताधिकैकविंशतिसहस्रश्वास - (द्वा)सप्तति नाडीसहस्र-षष्ठो (ष्ठ्यु) 'त्तरत्रिशत सन्धिप्रदेशषड्धातु-षड्रस-पडिन्द्रिय-षड्विषय - षट्कर्मेन्द्रियविषय-षड्विज्ञान-षट्संस्कार-षड्वेदनाषट्संज्ञा-षड्प - षड्ज्ञान - षट्चक्र-षण्मण्डलाध (ऊ) (+) "स्वभावतयाऽवस्थितः, नाभ्यब्जा' दिदलेष नासारन्ध्रयोः पञ्चस्कन्ध-पञ्चधात-वामसव्यमण्डलप्रवाहस्वभावतयाऽवस्थितः, मध्यमायां सकलतन्त्रनिर्गमस्वभावतयाऽवस्थितः, प्राणादिवायुस्वभावतयाऽवस्थितः, धातुभ्यो देवताचिह्नोत्पादस्वभावतयाऽवस्थितः, चन्द्राग्न्यिरिष्टस्वभावतयाऽवस्थितः, कर्मविपाकषड्गतिषूत्पादस्वभावतयाऽवस्थितः, नाडिकादिग्रहणचरणच्छेदस्वभावतयाऽवस्थितः। एवं मध्यमाप्रवेशानन्दादिभिररिष्टमरणवञ्चनस्वभावतयाऽवस्थितः, बाह्यलौकिककार्यसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, सर्वदर्शनानुमानपरीक्षास्वभावतयाऽवस्थितः, नानासत्त्वानुमतधर्मप्रतिष्ठानस्वभावतयाऽवस्थितः / इत्यध्यात्मपटले। ततोऽभिषेकपटले प्रथम गुरुपरीक्षास्वभावतयाऽवस्थितः, उत्तमाधममध्यमशिष्यपरीक्षासंग्रहस्वभावतयाऽवस्थितः, कर्मप्रसरसाधनाय ग्रामादिदिशि'(वि)भागभूम्यादिलक्षणस्वभावतयाऽवस्थितः, कुण्डहोमद्रव्याक्ष सूत्रासनकीलककलसरजःसूत्रयन्त्रन्यास गयचतत T242 1. च. पुस्तके अयमंशो नास्ति / 2. च. दिनमान। 3. ख. अत्र 'मञ्जश्रीव्याकरणस्वभावतयाऽवस्थितः' इत्यंशस्य पाठः पुनरागतः, तद्धि भोटे नास्ति / 4. क. रजं / 5. भो. अयं नोपलभ्यते / 6. ख. घ. च. द्वा / 7. भो. अयं नोपलभ्यते / 8. ख. ०ष्ठयु० / 9. ख. च. त्रिशत० / 10-11. ख. ऊर्ध्व / 12. ख. ०ङ्गा। 13. ख, दिग्वि०। 14. ख, 00 / Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 14 विमलप्रभायां [लोकधातुलक्षणस्वभावतयाऽवस्थितः, भूमिपरिग्रहमण्डलालेख्य(खन)दशतत्त्वपरिज्ञानस्वभावतयाऽवस्थितः, लौकिकलोकोत्तरा[7a]भिषेकदानस्वभावतयाऽवस्थितः, सर्वप्रतिष्ठासमाधिस्वभावतयाऽवस्थितः, समयचक्रे' मेलापकसमयपूजास्वभावतयाऽवस्थितः, षट्त्रिंशत्कुलदेवीमुद्रा दृष्टिचिह्नसमयसंकेतजात्यादिस्वभावतयाऽवस्थितः, मण्डलचक्रविसर्जनस्वभावतयाऽव5 स्थितः, महानद्यादौ स्वस्वगृहे रजोगणचक्रविसर्जनपूजास्वभावतयाऽवस्थितः, श्रीगुरुसर्वदानैः सन्तोषणस्वभावतयाऽवस्थितः / इत्यभिषेकपटले / / ततः साधनापटले प्रथमं रक्षाचक्रादिमुखविशुद्धिस्व हृच्चन्द्रबीजरश्मिभिस्तथा- . गतस्फरणस्वभावतयाऽवस्थितः, अनुत्तरपूजा-पापदेशना-पुण्यानुमोदना-त्रिशरणगमनात्मनिर्यातन-बोधिचित्तोत्पादन-मार्गाश्रयण-शून्यतालम्बनादिस्वभावतयाऽवस्थितः, उत्पत्तिक्रमण 10 *मण्डलराजाग्री (ग्र)कर्मराजाग्री (प्र)। बिन्दुयोगसूक्ष्मयोगादिसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, बाह्यलौकिकसिद्धिसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, यज्ञादिवेदान्तगुह्यतत्त्वज्ञानषडङ्गयोगादिसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, दानादिपुण्यसम्भारस्वभावतयाऽवस्थितः, प्रत्यक्षपरोक्षचित्त- . भावनास्वभावतयाऽवस्थितः / / इति साधनापटले // ततो ज्ञानपटले प्रथमं शरीरास्थ्यादि धातुविशुद्धिमण्डलस्वभावतयाऽवस्थितः, 15 कायवाञ्चित्तषटकुलदेवतास्वभावतयाऽवस्थितः, आदि-कादि-षण्मन्त्रकुलस्वभावतयाऽव स्थितः, षट्त्रिंशत्प्रज्ञोपायतन्त्रस्वभावतयाऽवस्थितः, प्रज्ञोपायक्रियायोगानुविद्धमहासंवरषट्चक्रवत्तिस्फुरण स्वभावतयाऽवस्थितः, चतुर्थाभिषेकपरमाक्षरमहामुद्राज्ञानसिद्धिसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, ज्ञानमण्डलस्फरणस्वभावतयाऽवस्थितः, बोधिचित्तसेवासाधनस्व भावतयाऽवस्थितः, सर्वाकारज्ञानज्ञेयात्मिकामहामुद्रासिद्धिस्वभावतयाऽवस्थितः, सर्व20 कायवाञ्चित्तकृत्यपरीक्षास्वभावतयाऽव[7b]स्थितः, चतुरशीतिसहस्रधर्मस्कन्धदेशना स्वभावतयाऽवस्थितः, बुद्धक्षेत्रसंहारस्वभावतयाऽवस्थितः, आकाशधातौ सुमेरुपरमाणुरजःसमैर्बोधिसत्त्वैर्महासत्त्वैः सार्द्ध विहरणस्वभावतयाऽवस्थितः , बुद्धक्षेत्रोत्पादस्वभावतयाऽवस्थितः, बुद्धक्षेत्रे वज्राधिष्ठानस्वभावतयाऽवस्थितः, नानाधिमुक्तिसत्त्वाशयवशेन धर्मदेशनास्वभावतयाऽवस्थितः, रसरसायनादिशरीरसिद्धिसाधनस्वभावतयाऽवस्थितः, 25 परमाक्षरसुखेन सर्वसत्त्वार्थकरणस्वभावतयाऽवस्थितः, धर्मसंग्रहगणितसंज्ञासंग्रहस्वभाव तयाऽवस्थितः, पञ्चाक्षर-षडक्षर-महाशून्य-बिन्दुशून्य-स्तुतिस्वभावतयाऽवस्थितः // इति ज्ञानपटले॥ 1. ख.० चक्र० / 2. घ. पुस्तके अत्र एवं पठितम्-"अनुत्तरपूजा-पापदेशना पुण्यानुमोदन-त्रिशरणगमनात्मनिर्यातन-बोधिचित्तोत्पादन-मार्गाश्रयेण शुन्यताश्रीगुरुसर्वदानः" / तद्धि भो पुस्तके च अन्येषु पुस्तकेषु च साधनपटले एव विद्यते, तस्यानुसारं अत्र पाठो दत्तः / 3. घ. 'स्व' नास्ति / 4. भो. mChog (अग्र)। 5. ख. स्थादि० / 6. ख. स्फरण। 7-8. भो. पुस्तके चतुर्थांशः तृतीयांशतः पूर्व पठितः / 1-* ङ. मण्डलराजाश्रीकर्मराजाभी / Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] तन्त्रदेशनोद्देशः ___अत उक्तादनेन क्रमेण पञ्चपटलस्वभावतयाऽवस्थितः कालचक्रो भगवानत्राभिधेयः' / अस्य प्रतिपादकं (:) पटलसमूहं (:) तन्त्रराजमभिधानम् / अनयोरभिधेयाभिधानयोः परस्परं वाच्यवाचकलक्षणः सम्बन्धः / वाच्यो भगवान् कालचक्रः पञ्चपटलस्वभावतयाऽवस्थितः, वाचकं कालचक्रमभिधानं पञ्चपटलात्मकम् / अथ आदिबुद्धो भगवान् वाच्यः / वाचकमादिबुद्धमभिधानमिति वाच्यवाचकलक्षणः / अभिधेयाभिधान- 5 सम्बन्धः। अतो मण्डलप्रवेशाल्लौकिकाभिषेकदानेन पुण्यसम्भारार्थकरणं प्रयोजनम्, महाप्रज्ञाचतुर्थलोकोत्तराभिषेकदाननिरन्वयमहामुद्रासिद्धिलाभाय पुण्यज्ञानसम्भारार्थकरणं प्रयोजनप्रयोजनमिति / एतान्येवाभिधेयलक्षणान्यभिसंवीक्ष्य वैनेयजनानां नियमरहितानां स्वचित्ताभिप्रायेणेति। नियमः श्रावककोटिसंवरः पञ्चकामोपभोगरहितः शीलसंवर इति, तेन 10 रहिता नियमरहिताः, तेषां स्वचित्ताभिप्रायः पञ्चकामोपभोगाभिलाषः, तथा द्वीन्द्रियेण महासुखाभिलाष इति स्वचित्ताभिप्रायो नियमरहितानामिति / अनेन [8a] स्वचित्ताभिप्रायेणेह जन्मनि बुद्धत्वफलप्रदमिति / इह जन्मनि मनुष्यजन्मनि बुद्धत्वफलप्रदं तन्त्रराजम्, न पुनर्देवादिपञ्चगतिषु जन्मनि, तत्कस्य हेतोः ? अकर्मभूमिजातित्वादिति / इह देवादीनामपि मनुष्यजन्मलाभाद्२ बुद्धत्वफलप्रदं भविष्यतीति नियमो भगवतः / 15 पुण्यज्ञानसम्भाराभ्यां षड्धात्वात्मकेन महापुरुषपुङ्गवेने ति / न चान्यथा कुकर्मणि मनुष्यजन्मनीह बुद्धत्वफलप्रदं भविष्यतीति नियमस्तथागतस्य / अथास्मिन् मन्त्रयाने बुद्धभगवतोक्तम्, तद्यथा "चण्डालवेणुकाराद्याः पञ्चानन्तर्यकारिणः / . जन्मनीहैव बुद्धाः स्युमन्त्रचर्यानुचारिणः" / / इति भगवतो वाक्यं सत्यम् / इह जन्मनि यत् प्राकृतं पञ्चानन्तर्यादिकं रौद्रं कर्म तदस्मिन् मन्त्रयाने महामुद्राक्षरसुखसमाधिना ध्वंसयित्वाऽपरागन्तुकाकुशलाप्रवेशाय वज्रधर्मोदयगृहे चतुर्मारविघ्नादिप्रवेशद्वारेषु मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षादिबोधिपाक्षिक'. धर्मकपाटं दत्वा तत्र वज्रसत्त्वं साधयित्वा महामुद्रया सार्द्ध पञ्चानन्तर्यकारिणोऽपीह जन्मनि बुद्धत्वफललाभिनो भवन्तीति तथागतनियमः, न पुनमन्त्रयाने प्रविष्टाः सन्तः 25 पञ्चानन्तर्यादिकं रौद्रं कर्म कुर्वन्तोऽपीह जन्मनि बद्धत्वफललाभिनो भवन्तीति तथागतसम्मतम् / इह यानत्रयेऽपि भगवतो वाक्यम्-"आदौ कल्याणं मध्ये कल्याणं पर्यवसाने कल्याणम्' इति भगवतो वचनात् / न मन्त्रयाने प्रविष्टाः सन्तः पापं कर्म कुर्वन्तोऽपि बुद्धत्वफललाभिनो भवन्तीति तथागतनियमः। 1. ख. भिधेयः / 2. ख. पुस्तके नास्ति / 3. क. पुङ्गलेन; भो. Gan Zag (पुङ्गव)। 4. ख. सिद्धम् / 5. क. पुस्तके 'दिबोधिपाक्षिक' इति नास्ति / 6. घ. पुस्तके 'न' इति नास्ति / भोटानुसारमपि 'न' पाठः समीचीनः / Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुअथेह मन्त्रयाने भगवतोक्तं योगिनां मांसभक्षणम्, तदेव प्राणातिपातेन सदा भवति / कदाचित् प्राणातिपातेन विनाशं (d) भवति / यदि भक्षको नास्ति वधकोऽपि न विद्यते / अतो भक्षकवधकयोः प्राणातिपातः स्यात् / इह प्रत्यहं समचतुष्टयं मन्त्रिणा कर्तव्यमिति तथागतनियमः। तत्सत्यम्, त(य)स्मात्' कारणानिमित्तसावद्येन प्राणाति5 पा[8b]तो भवति, तस्मात् कारणात् योगिनामनिमित्तं निरवद्यं गोकुलादिकं भक्ष्यं भगवतोक्तम् / इह यस्मिन् देशे यदभक्ष्यं यदविक्रयं लोकानां गोकुलादिकं स्वकर्मणा मृतं संग्रामे कुकर्मणि मारितं स्वदोषेण वा तस्करादिकं तत्सर्वं योगिनां भक्ष्यम् / तथागतेनोक्तम्-"न द्रव्यैः क्रीतं न पित्रादि-यज्ञादिकार्ये मारितं सनिमित्तं मांस भक्ष्यम्" इति / तथागतेनोक्तम्-“अथ प्रत्यहं समयचतुष्टयं यत् कर्त्तव्यम्, तन्निरवद्यैर्गोकुलादिभिः 10 पञ्चभिर्वैरोचनादिभिः पञ्चभिः सर्षपप्राणगुलिकाः प्रत्यहं समयसेवार्थ कर्तव्याः" / मद्यं स्त्री सदा निरवद्या भावनाय अमूर्छाधर्मेणोक्ता। मूलतन्त्रेऽपि भगवानाह, तद्यथा "देवस्वभयपित (त्रि)ष्टसिद्ध्यर्थं विक्रयाय च / नापराधी हतः सत्त्वो' दुर्दान्नैः पापकारिभिः / / सावद्यं तस्य तन्मांसं क्रीतं भुक्तं समीहितम् / अयाज्ञा(ञ्चा)पतितं पात्रे निरवद्यं तदेव हि // एकस्य प्राणिनो मांसं बहुभिर्भक्षितं वरम् / नानेकप्राणिनां मांसं मनुजेनकेन भक्षितम् // भोक्तव्यं योगयक्तेन करुणामुत्पाद्य तत्त्वतः।.. 20 . निर्विकल्पेन चित्तेन निरवद्यं नान्यदेव हि // कुलग्रहविनाशायान्नपानं च सर्वदा / अकशलाभिगमनं प्रोक्तं वज्रिणा तत्त्वदर्शिना // " इति / एवमुक्तक्रमेण नियमरहितानां बुद्धत्वफलप्रदं तन्त्रराजम् / बुद्धत्वं सर्वज्ञता-सर्वाकारज्ञता-मार्गज्ञता-मार्गाकारज्ञता-दशबल-वैशारद्यादिगुणविभूतयः, तां(ताः) ददातीति बुद्ध25 त्वफलप्रदम् / महासुखावास इति / महासुखावासो धर्मधातुराकाशलक्षणोऽसंकीर्णो धर्मो दयो लोकोपमामतिक्रान्तः समन्तभद्रो महासुखावासः। परमादिबुद्धवज्रधातुमहामण्डले निरन्वये ज्ञानज्ञेयैकलोलीभूते अच्छेद्येऽभेद्ये सर्वाकारधातुलक्षणे, आदर्शप्रतिसेनातुल्ये / तस्मिन् वज्रधातुमहामण्डले वसिंहासनस्थेन / वज्रसिंहासन (-)चन्द्रसूर्याग्निमण्डलमच्छेद्यमभेद्यम् / एकारो वा आकाशधातुर्वसिंहास[9a]नम्, तस्मिन् स्थितो वज्रसिंहा 1. ख. यस्मात् / 2. क. गोक्वादिकं; ख. गोक्ष्वादिकं; भो. Go Kul La Sogs Pa (गोकुलादिक) अयं तु सर्वत्र। 3. ख. दि०। 4-5. क. हतत्सत्त्वो; ख. हतः सत्त्वो। 6. ख. धातुमहामहामण्डले / 7. क. सन; ख. सनं / Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] तन्त्रनियमोद्देशः 17 सनस्थः ; कायवाकचित्तज्ञानात्मको बँकारः, तेन वज्रसिंहासनस्थेन / बुद्धबोधिसत्त्वक्रोधराजदेवनागदेवतादेवीगणपरिवृतेनेति / बुद्धा अक्षोभ्यादयः, बोधिसत्त्वाः समन्तभद्रादयः, क्रोधराजा उल्ली(ष्णी)'षादयः, देवा ईश्वरादयः, नागा अनन्तादयः, देव्यो वज्रधात्वीश्वर्याद्याः, धर्मधात्वादयः, अतिनीलादयः, चचिका दयः, गौर्यादयः, श्वानास्पा(या)दयः; एषां समूहो गणः; तेन परिवृतो देवतादेवीगणपरिवृतः, तेन देवतादेवीगण- 5 परिवृतेनेति / त्रैधातुकवन्दितचरणारविन्देनेति / त्रैधातुकं कामरूपारूपम्, तेन वन्दितं चरणारविन्दं यस्यासौ त्रैधातुकवन्दितचरणारविन्दः, तेन त्रैधातुकवन्दितचरणारविन्देनेति / धातकचक्रवत्तिनेति / त्रैधातके धर्मचक्रं यगपद यस्य प्रवर्तते, असौ त्रैधातूकचक्रवर्ती, तेन त्रैधातुकचक्रवत्तिनेति / परमादिबुद्धेनेति / परमादिबुद्धः एकक्षणपञ्चाकारविंशत्याकारमायाजालाभिसम्बोधिलक्षणोऽक्षरसुखः परमः, तेनादिबुद्धः परमादिबुद्धः, 10 तेन परमादिबुद्धेनेति / निरन्वयेनेति / अन्वयः प्रज्ञोपायात्मको ग्राह्यग्राहकलक्षणो धर्मः, सोऽन्वयो निरस्तो येनाऽसौ निरन्वयः, तेन निरन्वयेनेति / कालचक्रभगवतेति / काल: परमाक्षरो महासुख(ल) क्षणः, तेनोत्पादितं निरावरणं स्कन्धधात्वादिकं चक्रं यस्य शरीरम्, असौ कालचक्रः। अन्यच्च, प्रत्येकैकैकाक्षरेण काकारो कारणे शान्ते लकाराच्च लयोऽत्र वै / चकाराच्चलचित्तस्य क्रकारात् क्रमबन्धनात् / / T 244 क्रमः कायादीनां बिन्दूनां च्यवनम्, तस्य बन्धः सहजसुखेनेति कालचक्रः / भगवतेति / मारक्लेशभञ्जनाद् भगः, सर्वज्ञैश्वर्यादिगुणसमूहः, स भगोऽस्यास्तीति भगवान्, तेन कालचक्रभगवतेति / सुचन्द्राध्येषितेनेति / शोभनश्चासौ चन्द्रश्चेति सुचन्द्रः, सर्वतथागतश्रोतृभूतः, वजेन्दु विमलप्रभः, सर्वसत्त्वभाषान्तरेण तथागतोक्तधर्माणां 20 संग्राहक [9b]त्वात् सर्वतथागतकर्णभूतः। गुह्याधिपतिः / गुह्यं श्रावकप्रत्येकयानयोरुत्तरं वज्रयानम् / तस्मिन् सङ्गीतिकारकत्वेनाधिपतिर्गुह्याधिपतिः, तथा बाह्ये लोकसंवृत्यो(त्या) गुह्यशब्देन ' यक्षास्तेषामधिपतिः गुह्यकाधिपतिः, अडकवतीनिवासी। बाह्ये अडकशब्देन नष्टप्राणो मृतकसमूहः, सोऽस्यामस्तीति अडकवती श्मशानभूमिः, तस्यां महायक्षाः सत्त्वानां विहेठका अनेकविध्नकर्तारः, तेषां वधकः / अडकवतीनिवासी- 25 ति। अटव्यां मृगाधिपतिरिव अडकवतीनिवासी महायक्षाधिपतिरिति / अध्यात्मनि अडक इति षट्शताधिककविशतिसहस्रश्वासप्रश्वासाना षत्रिशच्छतोनाना निरोधः सोऽस्यामस्तीति धर्ममेघाभूमिः, तस्या निवासी अडकवतीनिवासी / मारक्लेशज्ञेयसमापत्यावरणयक्षाणां वधको यक्षाधिपतिः। तथागतदेशितधर्मसिंहनादेन सर्वसत्त्वानां प्रत्येकरुतैर्धर्मप्रवर्तकः, तेन निर्मितकायेन वज्रपाणिना। सुचन्द्रराजाव्येषितेनेति ** | 30 1. क. उल्ली०; ख. उष्णी० / 2. ख. चचिका। 4. ख. वज्रन्द / 5. घ. गुह्यशब्देन उच्यते / 7. ख. ०राज्ञा०, घ. सुचन्द्राध्येषितेनेति / 3. ख. खलः / 6. ख. यक्ष्याणां / Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 विमलप्रभायां [लोकधातुद्वादशसाहस्रिकमिति / चतुरशीतिसहस्राधिकत्रिलक्षाक्षरसमूहं द्वात्रिंशदक्षरानुङ्गपा' (द्वात्रिंशदक्षरानुष्टुभः) द्वादशसाहस्रिकमिति। परमादिबुद्धमिति*। परमादिबुद्धाभिधेयवाचकत्वात्, अस्याभिधेयस्याभिधानस्वभावतयाऽवस्थितत्वादिति। परमादिबुद्धं कालचक्रम्, कालचक्राभिधेयवाचकत्वात् कालचक्राभिधानमिति / निरन्वयमिति। 0 निरन्वयाभिधेयवाचकत्वात् / इहान्वयः प्रज्ञापक्ष उपायपक्षश्च / सोऽन्वयो भिन्नपक्षो निरस्तो यस्मात् तत् तन्त्रं निरन्वयम् / प्रज्ञोपायात्मकं योगतन्त्रमित्यद्वयमुच्यते जिनेनेति / 10 इह प्रयोगा(प्रज्ञो)पायात्मकाभिधेये तन्त्रराजे प्रज्ञोपायपक्षभेदात् प्रज्ञोपायात्मकाभिधेयाभावो भवति', प्रज्ञोपायात्मकाभिधेयाभावात् अद्वयज्ञानाभावः, अद्वयज्ञानाभावाद् बुद्धत्वस्याप्यभावः', बुद्धत्वाभावात् संसार इति / इहाभिधानाभिधेयसम्बन्धेन विना प्रज्ञोपायात्मकोऽद्वययोगो वाच्यवाच[10a]कलक्षणो न भवति योगतन्त्र उपायनाम्नि / न च योगशब्द उपायार्थवाचकः प्रज्ञार्थवाचको वा / योगशब्दः प्रज्ञोपायार्थवाचक इति / / / तथा चाह "योगो नोपायकायेन नैकयाप्रज्ञया भवेत् / . प्रज्ञोपायसमापत्तिर्योग उक्तस्तथागतैः" // अतो यस्मिन् तन्त्रे प्रज्ञोपायात्मकोऽभिधेयो भवति, तत् तन्त्रं न प्रज्ञातन्त्रं नोपायतन्त्रं परमार्थतः। लोकसंवृत्या दशज्ञानादिभेदेन धातुस्कन्धविशुद्धितः, प्रज्ञोपायपक्ष उक्तो मृदुसत्त्वाशयवशात् तथागतेनेति। एवं योगिनीनाम्न्यपि / इह योगे शीलमस्या स्तीति योगी, एवं योगिनी च / अतो योगतन्त्रं योगिनीतन्त्रं च भवति, परापेक्षिकत्वा20 दिति / तस्मात् प्रज्ञोपायात्मकं तन्त्रं योगतन्त्रं निरन्वयं कालचक्रं परमार्थसत्यत इति / वज्रधरज्ञानकायसाक्षिभूतया नामसङ गीत्यालिङि गतमिति / आदिबुद्धाभिधानत्वात् / इह यथा नामसङ्गीतिरतीतानागतप्रत्युत्पन्नैस्तथागतैर्भाषिता भाषिष्यते भाष्यते तथादिबुद्धमपि / आदिशब्दोऽनादिनिधनार्थः। अनादिकाले अनादिबुद्धदेशितं देशयिष्यते देश्यत इति / नैकेन शाक्यमुनिना दीपङ्करतथागतेनापीति / अत्र वज्रपाणिराह "यातीतैर्भाषिता बुद्धर्भाषिष्यन्ते ह्यनांगताः। प्रत्युत्पन्नाश्च सम्बुद्धाः यां भाषन्ते पुनः पुनः // मायाजाले महातन्त्रे या चास्मिन् संप्रगीयते / महावज्रधरैइष्टरमेयमन्त्रधारिभिः " // इति / (ना० स० अ० 50 12,13) 25 1. क. ख. ग. घ. ङ. द्वात्रिंशदक्षरानुङ्गपा / 2-3. घ. पुस्तके इदं वाक्यं नास्ति / 4. क. ब्रह्मत्वस्या०। 5. घ. एकया। 6. घ. पुस्तके 'नोपायतन्त्र' इति नास्ति / **-*. भो. सुचन्द्रराजाध्येषितेन / परमादिबुद्धमिति / t. भो. द्वादशसहस्रमिति चतुरशीतिसहस्राधिकत्रिलक्षाक्षरसमूह द्वात्रिंशदक्षरानुष्टपाद् द्वादशसाहस्रिकमिति / निरन्वयमिति / Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले तन्त्रदेशनोद्देशः अतो नामसङ्गोतिकाध्येषणवचनात् सर्वतथागतैर्मन्त्रयानं देशितमिति / इह यत्समाजे दीपङ्करशाक्यमुनिमध्ये न केनचित् तथागतेन मन्त्रयानं देशितम्' (इति),२ तत् तेन कालेन तेन समयेनेति / आर्यविषयधर्मदेशनाकालेन, आर्यविषयपर्षदो न देशितम्, चतुर्वर्णाभिमानाभव्यसत्त्वाशयवशादिति। न पुनरन्यकालेनान्यविषये लोकधातुपर्षदि न देशितमिति / अतस्तथागतप्रवचनात् / सर्वतथागता यानत्रयदेशकाः, अन्यथा 5 सर्वज्ञताभावो वज्रयानादेशकत्वादिति / अतः सर्वे तथागता यानत्रयदेशकाश्चतुरशीति(10b) सहस्रधर्मस्कन्धदेशकाः सत्त्वाशयवशादिति, अतो बज्रधरज्ञानकायसाक्षिभूतया नामसङ्गीत्यालिङ्गितमिति / सर्वतन्त्रराजेषु वज्रपदसाक्षिभूतमिति / इह वज्रयाने सत्त्वाशयवशेन सर्वतन्त्र- राजेषु वज्रपदं गुप्तम्, चतुर्थं तत्पुनस्तथेति तथागतवचनात् / चतुर्थं तृतीयं न भवति, 10 चतुर्थमिति वचनात्, तत्पुनस्तथेति वचनात् / प्रज्ञाज्ञानं तदेव चतुर्थमतो भगवतो वचनात् / वज्रपदं गुप्तमिति सर्वतन्त्रराजेषु वज्रपदं प्रकटं न भवति, गुरुपारम्पर्यक्रमेणावगन्तव्यम्; तन्त्रं तन्त्रान्तरेण बोधव्यमिति तथागतवचनात् / इह मन्त्रनये द्विधा वज्रपदम्-एक लौकिकसंवृत्या द्वितीयं परमार्थतः। तयोर्लोकसंवृत्या वज्रपदं मास्णादौ समयसिद्धिदायकम्, परमार्थसत्येन वज्रपदं चतुर्थं तत्पुनस्तथा महामुद्रासिद्धि- 15 फलदायकमिति / अत एवास्मिन्नादिबुद्धे वज्रपदं प्रकटमुद्देशनिर्देशप्रतिनिर्देशैर्भगवता प्रकाशितम् / अस्यैव साधनाय महामुद्राभावना धूमादिनिमित्तमार्गः प्रकाशितः / 245 शून्ये एकाग्रमनः कृत्वा दिनमेकं परीक्षयेदिति / अतो भगवतो वचनात् परमादिबुद्धे वज्रपदं महामुद्राभावनामार्गो धूमादिकः प्रकटः, न गुरुपारम्पर्यक्रमेणागतः, नाधिष्ठानि(ष्ठित)* गुर्वाज्ञयेति / अस्य च मार्गस्य प्रत्ययोऽस्ति, अनि शं दिनमेकं 20 परीक्षयेदिति भगवतो वचनात् / इह न चान्यन्मन्त्रादिसाधनं धूमादिनिमित्तं विहाय दिनैकेन योगिना परीक्षणीयम् / निमित्तमपि त्रिधा-आदिनिमित्तम्, मध्यनिमित्तम्, अन्तनिमित्तञ्चेति / आदिनिमित्तं धूमादिमार्गः, षडङ्गयोगेन विश्व(म्ब)निष्पत्तिरक्षण(रक्षरक्षण) लाभः। मध्यनिमित्तं परमाक्षरक्षणैरष्टादशशतैरादिभूमिलाभः, पञ्चाभिज्ञाऽदृष्ट्वा(ष्टा) र्थसन्दर्शनं लौकिकसिद्धिप्राप्तिरिति / अनिमित्तं (अन्तनिमित्तं) बुद्धत्वं 25 वज्रधरत्वमेकविंशतिसहस्रैः षट्शताधिकैः परमाक्षरक्षणैादशदशभूमिलाभात् महामुद्रासिद्धिरिति एतद् वज्रपदादिकं [11a] निमित्तपूर्वकं प्रकटं तन्त्रराजे परमादिबुद्धे भगवता देशितम् / अतः सर्वतन्त्रराजेषु वज्रपदसाक्षिभूतं तन्त्रं तन्त्रातरान्वेषकानामिति / 1. ङ. न देशितम् / 2. भो. Ses (इति)। 3. क. पुस्तके 'सहस्र' शब्दो नास्ति / 4. क. तन्त्रानुसारेण; भो. Gyud gsan Dag Gis (तन्त्रान्तरेण)। 5. भो. Byin Gyis brLbs Pa (अधिष्ठितं)। 6. ख. नि०। 7. ख. ०क्षरक्षण; भो. hGur Ba Mod Pahi sKad Cig(अक्षरक्षण)। 8. भो. अदृष्टार्थ / 9. भो. अन्तनिमित्तं / Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु___ उद्घाटितबुद्धरत्नकरण्डकमिति बुद्धरत्नं परमाक्षरसुखं करण्डकं वज्रमणि-' . पद्ममिति बुद्धरत्नकरण्डकम्, तमेवोद्घाटितं येन तन्त्रराजेन तदुद्घाटितबुद्धरत्नकरण्डकमिति / लौकिकलोकोत्तरसत्याश्रितमिति / लौकिकसत्यं मण्डलचक्रविकल्पभावना लौकिकसिद्धिसाधनमुत्पत्तिक्रमेणेति / लोकोत्तरसत्यं धूमादिनिमित्तेन निर्विकल्पचित्तेन 5 उत्पन्नक्रमेण महामुद्रासिद्धिसाधनमिति; उत्पन्नक्रमः सहजो निर्विकल्पः सर्वाकारो मुखभुजवर्णसंस्थानकल्पनारहित इति; अनयोः सत्ययोराश्रितं लौकिकलोकोत्तरसत्याश्रितमिति मार्गद्वयदर्शनादिति / चतसृभिरभिसम्बोधिभिश्चतुर्वज्रः विशुद्धमिति। एकक्षणाभिसम्बोधिः, पञ्चाकाराभिसम्बोधिः, विंशत्याकाराभिसम्बोधिः, मायाजालाभिसम्बोधिः, ए(आ)भिः 10 परिशुद्धं गर्भजोत्पत्तिक्रमेण धूमादिबिम्बोत्पन्नक्रमेण, एवं चतसृभिरभिसम्बोधिभिः परिशुद्धमिति / . चतुःकाय-षट्कुल-द्वादशसत्य-षोडशतत्त्व-षोडशशून्यता-षोडशकरुणा -लौकिकलोकोत्तराभिषेककर्मज्ञानमहामुद्रासिद्धिमार्गप्रकाशकमिति / चतुःकायाः। शुद्ध-धर्म-सम्भोग-निर्माणा इति गर्भजस्य तुर्यसुसु(पु)प्तिस्वप्नजाग्रदव15 स्थालक्षणाः / ते च बुद्धानां निरावरणा इति / षट् कुलानोति / अक्षरसुखं ज्ञानधातुः, विज्ञानमाकाशधातुः, संस्कारो वायुधातुः, वेदना तेजोधातुः, संज्ञा तोयधातुः, रूपं पृथ्वीधातुरिति गर्भजानां सावरणानि; " बुद्धानाम् निरावरणानीति / द्वादश सत्यानीति / अविद्या-संस्कार-विज्ञान-नामरूप-षडायतन-स्पर्श-वेदना-तृष्णा20 उपादान-भव-जाति-जरामरणानीति द्वादशसत्यानि गर्भजानां सावरणानि, बुद्धानां निरावरणानीति। द्वादशसंक्रान्तिभेदेन प्राणवायुप्रवाहात् सावरणानि गर्भजानाम्, बु[iibjद्धानां निरावरणानि, द्वादशाङ्गनिरोधादिति / षोडश तत्त्वानोति / निर्माणकायो निर्माणवाक् निर्माणचित्तं निर्माणज्ञानम्, सम्भोगकायः सम्भोगवाक् सम्भोगचित्तं सम्भोगज्ञानम्, धर्मकायो धर्मवाक् धर्मचित्तं 25 धर्मज्ञानम्, सहजकायः सहजवाक् सहजचित्तं सहजज्ञानमिति आनन्द-परम-विरम 1. भो. पुस्तके 'मणि' इति नास्ति / 2. क. बुद्धरत्नकम् / 3. घ. परिशुद्धमिति / 4-5. क. पुस्तके तु पूर्व करुणातः"प्रकाशकमिति यावत् पाठ एतादृशः'करुणात्मकाभिधेयवाचकम् / लौकिकदशलोकोत्तरेकादशाभिषेकप्रकाशकम् / कर्ममद्राज्ञानमुद्रामहामुद्रालौकिकलोकोत्तरसिद्धिप्रकाशकम्' इति / द्वावाप्यतुलनीयौ। 6. घ. सावरणानि षट् कुलानि / 7. घ. द्वादशसंक्रान्त्युत्तरं प्राणभेदेन / Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 21 T246 पटले ] तन्त्रदेशनोद्देशः सहजभेदेन षोडश तत्त्वानि' / गर्भजानां सावरणानि षोडशार्द्धार्द्धबिन्दुमोचनत्वादिति, बुद्धानां निरावरणानि षोडशर्वार्द्धबिन्दुधरत्वादिति / षोडश शून्यतेति | कृष्णपक्षः सूर्यः प्रज्ञा / षोडश करुणेति / शुक्लपक्षश्चन्द्रमा उपायः / शुन्यतायास्त्रयो भेदाः-शून्यता महाशून्यता परमार्थशून्यता चेति / तत्र शून्यता 5 पञ्चस्कन्धशून्यता, कृष्णप्रतिपदाद्याः पञ्च तिथयः। महाशून्यता पञ्चधातुशून्यता, षष्ठयाद्याः पञ्च तिथयः / परमार्थशून्यता पञ्चेन्द्रियशून्यता, एकादश्याद्याः पञ्च तिथयः / तेन पञ्चदश तिथयः पञ्चदशशून्यता, अमापर्यन्तम् / अमान्तशुक्लप्रतिपत्प्रवेशाद्यौ(प्रवेशयो)मध्ये षोडशी शून्यता सर्वाकारा / एवं करुणा त्रिधा-सत्त्वावलम्बिनी धर्मावलम्बिनी अनवलम्बिनी चेति / तत्र 10 सत्त्वावलम्बिनी शुक्लप्रतिपदाद्याः पञ्च तिथयः / धर्मावलम्बिनी षष्ठ्याद्याः पञ्च तिथयः / अनावलम्बिनी एकादश्याद्याः पञ्च तिथयः, पूर्णिमापर्यन्तम् / पूर्णिमान्तकृष्णप्रतिपत्- प्रवेशाद्यौ(प्रवेशयो)मध्ये षोडशी करुणा। अनयोरकेत्वं षोडशशून्यताषोडशकरुणात्मकाभिधेयं तस्य वाचकमिति / लौकिकलोकोत्तराभिषेका इति / लौकिकास्तावत् उदकं मुकुटः पट्टं वज्रघण्टा 15 महाव्रतं नाम अनुज्ञा कलशो गुह्यं प्रज्ञा ज्ञानमिति / गर्भजानां लोकसंवृत्या दशाभिषेकाः -कायवाञ्चित्तज्ञानधातुस्कन्धायतनकर्मेन्द्रियादिपरिशुद्धयेति / लोकोत्तर एकादशतम. श्चतुर्थ(ः) तत् पुनस्तथेति नियमात्, महामुद्रा-परमाक्षरज्ञानलक्षणो गुरुवक्त्रं कायवागादिनिरावरणत्वेन शोधक इति / कर्मज्ञानमहा[12a]मुद्रासिद्धिरिति / कर्ममुद्रा स्तनकेशवती। ज्ञानमुद्रा 20 स्वचित्तपरिकल्पिता / महामुद्रा विकल्परहिता प्रतिसेनास्वरूपिणोति / आसां त्रिविधा सिद्धिः-कामावचरा कममुद्रासिद्धिः, रूपावचरा" रूपभवभावलक्षणा ज्ञानमुद्रासिद्धिः', भावाभावरहिता सर्वाकारवरोपेता महामुद्रासिद्धिरिति / एषां चतुःकायादीनां लौकिकलोकोत्तरमार्गप्रकाशक(:) परमादिबुद्ध(:)मि(इ)ति / एवमुक्तक्रमेण लोकधात्वध्यात्माभिषेकसाधनज्ञानपञ्चपटलात्मकम्, पञ्चकल्पा- 25 त्मकं वा नरादिसकलसतानां सम्यक्सम्बुद्धत्वलाभाय सन्देशितम् / समिति सम्यक्प्रकारेण, (न) वज्रपदगुप्तप्रकारेणेति / अतः परमादिबुद्धाल्लघुतन्त्रसङ गोतिकरणाय मञ्जश्रियस्तथागतव्याकरणं ममैव च टीकाकरणाय, यमान्तकादीनां तन्त्रदेशनाय च / 1. घ. षोडशकरुणेति / 2-3. घ. पुस्तके 'गर्भजानां' इत्यारभ्य 'षोडशकरुणेति' पर्यन्तं पाठः नास्ति, किन्तु भो. क. आदिषु अस्ति / 4. ख. ०शम | 5-6. घ. पुस्तके इदं वाक्यं नास्ति / 7. ख. पुस्तके 'न' इति अधिकः / Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुअनागतेऽध्वनि ब्रह्म-ऋषीणां वैनेयार्थ सम्भल विषयादि षस्म(षण्ण)वतिग्रामकोटि- . निवासिनां सर्वसत्त्वानां महायानमार्गलाभायेति / अतो द्वादशसाहस्रिकात् परमादिबुद्धात् लघुतन्त्रसङ्गीतिकरणाय मञ्जुश्रीस्तथागतेन व्याकृतः, अनागतेऽध्वनि सार्द्धत्रिकोटोनां ब्रह्म-ऋषीणां कलापग्रामनिवासिनां वैनेयार्थम् / अहमपि लोकेश्वरो लघुतन्त्रे टोकाकरणाय व्याकृतोऽन्यपि (न्येऽपि) त्रयोविंशति क्रोधराजबोधिसत्त्वाः षण्णवतिग्रामकोटिनिवासिनां सर्वसत्त्वानां निर्माणकायेन लघुतन्त्रदेशकाः व्याकृता महायानमार्गलाभायेति / महायानमार्ग इति मञ्जुश्रियो वज्रकुलेन कलशगुह्यप्रज्ञाज्ञानाभिषेकः, तस्य लाभाय महावज्रयान'मागलाभायेति / अतः कलशगुह्यप्रज्ञाज्ञानाभिषेकतः सर्व वर्णानामेककल्को भवति। स कल्कोऽस्यास्तीति कल्की, तस्य गोत्रं कल्किगोत्रम् / 10 वज्रकुलाभिषेकतः सकलमन्त्रिणामिति नीतार्थः / एवं मञ्जुश्रीर्य(य)शः कल्की व्याकृ तोऽस्य यशसो गोत्रेऽहं लोकेश्वरो द्वितीयः कल्की व्याकृत इति / एवं यथानुक्र[12b] मेण यमान्तकादयो दशक्रोधराजाः क्षितिगर्भादयस्त्रयोदशबोधिसत्त्वाः, तेषां त्रयोदशबोधिसत्त्वानां यमान्तकादिक्रोधराजानामन्तरान्तरेण व्याकृताः; निर्माणकायेन षण्णवति कोटिग्रामनिवासिनां राजानः सकलसत्त्वानां तथागतधर्मप्रवर्तकाः, म्लेच्छादिकुधर्मवि15 ध्वंसका द्वात्रिंशन्महापुरुषलक्षणाः पञ्चाभिज्ञाद्यैश्वर्यगुणपरिपूर्णा इति। अतः परमादि बुद्धाल्लघुतन्त्रसङ्गीतिकरणाय मञ्जुश्रीव्याकरण मम टोकाकरणाय च यमान्तकादीनां धर्मदेशनायेति / इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां द्वादशसाहस्रिकायां लघुकालचक्रतन्त्रराजटोकायां विमलप्रभायाम् अभिधेयाभिधानसम्बन्धप्रयोजनप्रयोजनसंवीक्ष्य भगवतस्तन्त्रदेशनोद्देशो द्वितीयः // 2 // (3) देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः **इदानीं पुनर्देशका ध्येषकसम्बन्धोऽत्रोच्यते / कदाचित् पूर्वापरतन्त्रटीकाऽश्रुतस्य वचनं भविष्यति / इह ननु वज्रयाने अडकवतीनिवासी महायक्षाधिपतिर्महाबो धिसत्त्वो वज्रपाणिस्तथागतस्याध्येषकः सङ्गीतिकारश्च, कथं सम्भलविषयकलापग्रामा 25 धिपतेः सूर्यप्रभस्य विजयादेवीगर्भसम्भूतः सुचन्द्रो राजाध्येषकः; कचित् तन्त्रान्तरे न श्रूयते, न व्याकृत इति* ; परस्परं देशकाध्येषकसम्बन्धो विरुद्धः ? तस्मादुच्यते / इह हि यत् केनचिद्वक्तव्यं मन्त्रनये गर्भोत्पन्नस्तथागतस्याध्येषको न भवति, तन्न; 1. क. ख. महायान / 2. घ. पुस्तके नास्ति / 3. घ. कृतो। 4. क.. मन्तरारेण / 5. घ. पुस्तके अत्र 'अभिधेयादिति वचनात्' अन्तः कृतः; भो. पाठेऽपि सम्पूर्ण वाक्यमस्ति / 6. ख. ०शको / **-*. घ. पुस्तके नास्ति; अथ च भो. आदिषु अस्ति। . Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] 23 247 देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः कस्माद् ? भगवतोऽपि गर्भोत्पन्नत्वात् / इह मन्त्रनये यदि गर्भोत्पन्नस्तथागतस्याध्येषको न भवति सङ्गीतिकारश्च, तदा शाक्यकुले शुद्धोदननरेन्द्रस्य महामायादेवीकुक्षिसम्भूतः शाक्यमुनिः सर्वज्ञो देशको न स्यात्, गर्भोत्पन्नत्वादिति / अथ कस्यचिद्वचनं प्राक् तेन मारभङ्गः कृतः; बोधिरुत्पादिता तत्सर्वज्ञो धर्मदेशकोऽभूत, पश्चात् परिनिर्वृतस्य पुनर्गर्भावक्रमणाभाव इति वचनात् परमविरोधः, स्वयमसिद्धस्य परसाधकत्वात् / इहादी 5 बुद्धत्वाभावेन' कोऽपि मारभङ्ग [13a] करोति देवासुरमनुष्याणां मध्ये / आद्यभिसम्बुद्धोऽपि न करोति, सर्वावरणाभावात् / युगपच्च न करोति, यस्मिन् क्षणे मारस्तस्मिन् क्षणे बुद्धत्वं न स्यात्, सावरणचित्तात् / यस्मिन् क्षणे बुद्धत्वं तस्मिन् क्षणे मारो नास्ति, निरावरणचित्तादिति / किञ्चान्यत्, इह कर्मभूम्यां भगवतो विना नान्यस्य नारीगर्भजातस्य द्वात्रिंशन्महापुरुषलक्षणान्यशीत्यनुव्यञ्जनानि द्वात्रिंशदूर्णापरिमण्डलं षडभिज्ञो 10 भवति, तस्मात् मारो नाम सत्त्वानां संसारचित्तं वासनामलः, बुद्धत्वं नाम संसारवासनारहितं चित्तम् / तथा च भगवानाह प्रज्ञापारमितायाम्-"अस्ति तच्चित्तं यच्चित्तम- चित्तम्" इति (अष्ट०, पृ० 3) / प्रकृतिप्रभास्वरं तदेव संसारवासनारहितम्, अतो मारः समलं चित्तम्, बुद्धो विगतमलं चित्तम् / इह बुद्धस्य बाह्ये यो मारभङ्गः स सत्त्वानां स्वप्नवत् स्वचित्तप्रतिभास इति / परमार्थतस्तथागतहृदयं पञ्चमे पटले 15 विस्तरेण वक्तव्यमिति / ___इह संसारे सत्त्वाथार्य बुद्धबोधिसत्त्वानां प्रवेशः संसारिणामवाच्यः / उक्त यम- दूतैर्यमराज्ञा च सत्त्वार्थ नरकप्रवेशकाले मम लोकेश्वरस्य स्तोत्रम् "ये मुक्ता भवबन्धनैरपि भवं गृह्णन्ति सत्त्वार्थिनः ___ कालात् कर्मफलं त्यजन्ति न हि तत् शून्यार्थसन्देशकाः / 20 संज्ञा नानलदग्धचित्तकलुषाः सम्यक् कृपााः सदा तान् सत्त्वार्थरतानतर्कचरितान् बुद्धान् नमामा(मो) वयम् // " इति / अतः सत्त्वार्थं प्रति बुद्धबोधिसत्त्वानां गर्भप्रवेशो नरकगमनं वा बालजनवितर्कयितं न शक्यते / एकोऽपि बोधिसत्त्वो दशपारमितानिर्यातो दशभमीश्वरो दशवशिताप्राप्तः साहस्रमहासाहस्र लोकधातावनेकनिर्माणकायैर्बोधिसत्त्ववैनेयानां सत्त्वानां बोधिसत्त्व- 25 धर्म देशयति, न स महाबोधिसत्त्वोऽनेकः / एवं बुद्धो भगवान् पूर्वप्रणिधानबलेन पुण्यज्ञानसम्भारपरिपूर्णः सर्ववैशारद्याद्यैश्वर्यगुणसम्पन्नो बुद्धक्षेत्रे त्रैसाहस्रमहासाहस्रषु लोकधातुष्वनन्तानन्तमायानिर्माणकार्यनिरावरणैरनन्ता[ 13b]नन्तसत्त्वानामनन्तानन्तरुतैर्नानाध्येषकैरध्येषितः सन् सर्वज्ञभाषया सर्वसत्त्वरुतप्रवतिन्या लौकिकलोकोत्तरं धर्म देशयति / न (स) सर्वज्ञोऽनेकः / यथा कश्चिन्मायापुरुषोऽनेकमायारूपाणि निर्मापयति, 30 तेन तानि निर्मितरूपाणि वृक्षान्युन्मूलयन्ति, पर्वतशिखराण्यपि.चालयन्ति, महादेव रूपा 1. ख. ङ. बुद्धत्वभावेन, नास्ति | 3-4. ख. न स / क. बुद्धलाभेन। 2. घ. पुस्तके 'महासाहो' इति 5. क. सहदेव; भो. Lha Chen Po (महादेव) / Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुणीव विष्णुमि(रि)व देवदत्तादिकं बन्धयन्ति, न स मायापुरुषोऽनेकः; एवं बुद्धबोधिसत्त्वानां मायानिर्माणकार्यस्त्रिभवे सत्त्वार्थ इति / तेन सर्वसत्त्वानां लौकिकलोकोत्तरधर्मदेशनाय बुद्धो भगवान् प्राक् द्वादशभूमीश्वरो महामायाधरो विद्वान् महामायेन्द्रजालिकः, आर्यविषयलुम्बिन्यां शाक्यकुले शुद्धोदननरेन्द्रस्य महामायादेवीकुक्षिसम्भूतः, सिद्धार्थकुमार इति / सम्भलविषयेऽपि कलापग्रामे सूर्यप्रभस्य विजयादेवीगर्भसम्भूतो दशभूमीश्वरो वज्रपाणिः सुचन्द्र इति / बुद्धो भगवान् बुद्धक्षेत्रे लौकिकलोकोत्तरधर्मदेशनार्थं शाक्यमुनिर्जातो द्वादशभूभी (मिः) साक्षात्कृतेति। शीताना त्तरे सुचन्द्रवैनेयानां षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिनां परमादिबुद्धतन्त्रराजेन सम्यक्सम्बुद्धमार्गलाभाय सुचन्द्रो राजाऽभूत् बोधिसत्त्वो वज्रपाणिरिति / अनयोबुद्धबोधिसत्त्वयोदशकाध्येषकसम्बन्धो 10 निर्माणकायैः सम्भोगकायैर्वा पूर्वापराविरोधतः / तेन निर्मितकायेन वज्रपाणिना सुचन्द्र राज्ञा सर्वसत्त्वानां लौकिकलोकोत्तरसिद्धिसाधनाथ तथागतोऽध्येषितः। तथागतेनापि शीतानद्युत्तरे सम्भलादिविषयेषु षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिनामासन्नभव्यता. . चित्तविशुद्धि दृष्ट्वा वज्रपदमुद्घाटनरहितं' वज्रपदप्रकाशकं द्वादशसाहस्रिकं परमादिबुद्धं सन्देशितम् / अस्मात् द्वादशसाहसिकतन्त्रराजात् लघुतन्त्रकरणाय, मूलतन्त्रराजदेश15 नाय च अनागतेऽध्वनि सार्द्धत्रिकोटीनां ब्रह्म-ऋषीणां परिपाकं दृष्ट्वा. षण्णवतिकोटि ग्रामनिवासिनां च तथागतेन मञ्जुश्रीाकृतो वज्र[14a]कूलाभिषेकेण सर्ववर्णानामेककल्ककरणाय यशः कल्कीति / अहमपि टीकाकारः पुण्डरीको द्वितीयः कल्की व्याकृतः / अतो मम (त्तः) पश्चात् यमान्तकादयो व्याकृता इति / अत्र भगवानाह "आद्याब्दात् षट्शतैर्वः सम्भलाख्यो भविष्यति / ऋषोणां पाचनार्थाय मञ्जुघोषो यशो नृपः // , .. अस्य तारा महादेवी पुत्रो लोकेश्वरोऽब्जधृक् / सुचन्द्र तव' वंशे मे शाक्यवंशसमुद्भवे / / वाग्मी वज्रकुले येन तेन वज्रकुलो यशः / चतुर्वर्णैककल्केन कल्की ब्रह्मकुलेन न // ' एवं मया श्रुताऽनेन ऋषिणां धर्मदेशना / परश्रुतान्न सर्वज्ञ इति वादो भविष्यति / / येन येन प्रकारेण सत्त्वानां परिपाचनम् / तेन तेन प्रकारेण कुर्याद्धर्मस्य देशना(म्)५ // योगी शब्दापशब्देन धर्म गृह्णाति यत्नतः / देशशब्देन लब्धेऽध्वे (\) ' शास्त्रशब्देन तत्र किम् / / 1. क. वज्रपदानुद्घाटनरहितं / 2. भो. Lo hDi nas (अद्याब्दात्) / 3. घ. तद् / 4. क. च. भो. Min (न)। 5. ख. नाम् / 6. भो. Don (अर्थ)-यद्यपि विभिन्नपुस्तकेषु 'अवे' इति पाठो दृश्यते तथापि सार्थकत्वात् भोटे च उपलब्धत्वात् 'अर्थे' इत्येव समीचीनम् / Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः यथा रत्नस्य मेदिन्यां नामभेदः पृथक् पृथक् / देशदेशवशात् प्रोक्तो रत्नभेदो न च कचित् // एवं मे शुद्धधर्मस्य नानासङ्गीतिकारकैः / सत्त्वाशयवशात् प्रोक्ता नाना संज्ञा पृथक् पृथक् / / तेनेदं लघुसारार्थं सर्वज्ञेत्यादि मे मतम् / श्रीतन्त्रं स्रग्धरावृत्तस्त्रिशच्चाधिकदिग्शतैः // पटलैः पञ्चभिः पूर्णं वादिराट् देशयिष्यति / सङ्गीतिकारकश्चायं टीकाकारः सिताब्ज'धृक् / / तन्त्रेऽस्मिन् ऋषिकुलादीनां बुद्धमार्गप्रकाशकः / चन्द्रः सुरेश्वरस्तेजी सोमदत्तः सुरेश्वरः // विश्वमूतिः सुरेशानः यशः पुण्डरीकः क्रमात् / सूर्यप्रभो गतो राजा विघ्नशक्रः (त्रुः) स निर्मितः // वज्रपाणिः सुचन्द्रस्त्वं क्षितिगर्भो यमान्तकः / सर्वनिवरणविष्कम्भी जम्भको मानकः क्रमात् / / खगर्भो मञ्जुघोषश्च लोकनाथो यथाक्रमात् / यमार्यादिदशक्रोधा बोधिसत्त्वास्तदन्तरे / / कल्किगोत्रे भविष्यन्ति त्रयोदशान्ये क्रमेण ते / यशः कल्की च गोत्रं च कल्की पुण्डरीकस्ततः / / भद्रकल्की तृतीयश्च चतुर्थो विजयस्तथा / सुमिन्द्रो (त्रो)* रक्तपाणिश्च विष्णुगुप्तश्च सप्तमः / / अर्ककीतिः सुभद्रश्च [14b] समुद्रविजयोऽजः५ / कल्की द्वादशमः सूर्यो विश्वरूपः शशिप्रभः / / अनन्तश्च महीपाल: श्रीपालो हरिविक्रमः / महाबलो'ऽनिरुद्धश्च नरसिंहो महेश्वरः / / T248 1. ख. सिताङ्ग। 2-3. अस्य भोटपाठः किञ्चित् अन्यविधः-hDas Pahi Gyal Po Ni Mahi Hod De Ni bGegs dGrahi sPrul Pa ste (सूर्यप्रभो गतो राजा स विघ्नशत्रोः निर्मितः) / * भो. gses gNen bZan Po (सुमित्रो)। 4. क. सप्रभः; भो. bDun Pa (सप्तमः)। 5. क. ध्वजः; भो. rGyal dKah (अजः)-प्रथमपटलस्य 27 श्लोकस्य विमलप्रभायां अजकल्की इति दृश्यते, तस्य भोटानुवादः-Rig iDan rGyal dKah | 6. ख. मलो / Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुअनन्तविजयः कल्की यशः कल्की ततः पनः / तस्य पुत्रो महाचक्री रौद्रकल्की भविष्यति / म्लेच्छधर्मान्तकृद्वाग्मी परमा(मः] स्व' समाधिना / / येन सूर्यरथादीनां वाग्मी शास्ता भविष्यति / सुचन्द्र मूलतन्त्रे त्वं तेन सङ्गोतिकारकः / / टीकाका रस्त्वमेवात्र सत्त्वानां परिपाचकः / लघुतन्त्रे मञ्जुघोषः' टीकाकारोऽब्जधृक् स्वयम्" / / इति / मूलतन्त्रे यथोक्तक्रमेण बोधिसत्त्वाः क्रोधराजा व्याकृताः, षण्णवतिग्रामकोटोनां चक्रवत्तिनो मन्त्रनये देशकास्तथागतेन व्याकृता इति / अतस्तथागतनियमात् द्वादश10 साहसिकं मूलतन्त्रराजम्, सम्भलादिविषयभाषान्तरः पुस्तके लिखित्वा षष्टिसाहस्रिकां टीकाञ्च' सुचन्द्रराज्ञा षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिभ्यः प्रकाशितम् / एतदेव तदधिमुक्तः / सत्त्वैः श्रतं वाचितं धारितं स्वचित्ते, परेभ्यश्च विस्तरेण संप्रकाशितम्। अतस्तन्त्रदेशनाकालात द्वितीयवर्ष मण्डलचक्र-ऋद्धि दर्शयित्वा निर्माणकायेन यस्मादागतः, तत्रव सम्भोगकायेन गतः, सत्त्वानां सिद्धिहेतवे। ततः सुरेश्वरेण वर्षशतं यावत् तन्त्रदेशना 15 कृता; एवं तेजिना सोमदत्तेन सुरेश्वरेण विश्वमूतिना सुरेशानेन च / अस्य सुरेशानस्य खगर्भस्य निर्मितकायस्य विश्व'मातादेवीगभं मञ्जुश्रीर्यशो राजाऽभूत्, तस्मिन् बोधिसत्त्वसिंहासने धर्मदेशको वर्षशतं यावत् / ततो वर्षशते पूर्णे सति तथागतव्याकरणाधिष्ठानबलेन ऋषीणां परिपाचनाकालं दृष्ट्वा पञ्चाभिज्ञाबलेन सन्मार्गलाभं ज्ञात्वा यशोराज्ञा नियमं दातुकामेन सर्वषामामन्त्रणं कृतम् / 20 कलापग्रामदक्षिणेन मलयोद्यानं द्वादशयोजनायाम कलापग्रामतुल्यम् / तस्य पूर्वेण उपमानसं' सरं' द्वादशयोजनायामम्, पश्चिमेन पुण्डरोकसरं तद्वत्प्रमाणम् [15a] / तयोर्द्वयोर्मध्ये मलयोद्यानम् ' ' / मलयाद्यानमध्ये 2 सुचन्द्र राज्ञा कृतं. कालचक्रभगवतो मण्डलचक्रं पञ्चरत्नमयपरिघटितदेवतादेवत्यात्मकं चतुरस्रं चतुःशतहस्तायामम् / बाह्ये कायमण्डलं चतुरस्रं चतुरि चतुस्तोरणश्मशानाष्टविभूषितं पञ्चप्राकारवेष्टितम् / 25 बाह्ये पृथिव्यादिचतुर्वलयवज्रावलोभूषितम्, वजावलिपर्यन्तं अष्टशतहस्तायामम् / कायमण्डलार्द्धमानमध्ये चतुरस्रं वाङमण्डलम्, चतुरस्र४ चतुरं चतुस्तोरणभूषितम्, पञ्चप्राकारवेष्टितम् / वाङ्मण्डलार्द्धमानं '5 चित्तमण्डलं चतुरस्रं चतुभरं चतुस्तोरण 1. ख. ०श्च / 2. क. सूरथा०; ख. सूर्यादी०; भो. Ni Mahi (सूर्य)। 3. क. ख. ग. शास्त्रा। 4. घ. पुस्तके नास्ति / 5. घ. मजुवज्रश्च ; खा. च / 6. घ. नवतिक्रम० / 7. सा. सिकं। 8. घ. पुस्तके 'टीका' इति नास्ति / 9. घ. पुस्तके 'विश्व' इति नास्ति। 10-11. भो. Ne Bahi Yid Kyi mTsho(उपमानसंसरं)। 11-13. घ. पुस्तके 'मलोद्यानम् मलयोद्यानमध्ये' इति नास्ति / 14. क. ख. ग. ङ. पुस्तकेषु नास्ति / 15. घ. पस्तके 'मानं' इति नास्ति / Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः भूषितं त्रिःप्राकारवेष्टितम् / तदर्द्धन ज्ञानचक्रम्, षोडशस्तम्भोपशोभितम् / एतदर्द्धनाष्टदलकमलम्, कमलत्रिभागा कणिका। एवं कायवाञ्चित्तमण्डलानि सर्वलक्षणपूर्णानि हारार्द्धहारसंयुक्तानि / रत्नपट्टिकावेदिका वकुलिकासहितानि दर्पणार्द्धचन्द्रघण्टा - विराजितानि / अस्मिन् त्रिमण्डलात्मके मण्डलगृहे फाल्गुनपूर्णिमायां सूर्यरथप्रमुखानां साद्ध त्रि- 5 कोटीनां ब्रह्म-ऋषीणां यशोराज्ञा नियमो दत्तः- "हे सूर्यरथादयो ब्रह्म-ऋषयः शृणुत, मम वचनं सर्वज्ञसम्पत्करम् / इह चैत्रपूणिमायां मया युष्माकं वेदस्मृतिनियमपालकानां शासनं दातव्यम् / तेन ये नानादेशान्तरे कूलीना ब्राह्मणास्ते पृथक कृत्वा भवद्भिर्माम् दर्शनीयाः"। तेन वाक्येन नानादेशप्रचारेण विचार्यमाणाः परस्परविरोधेन सर्वेऽपि ते पतिताः कापालिकभक्तगोमांसमहिषमांसभक्षणेन मद्यपानेन मात्रादिग्रहणेन देशव्यवहा- 10 रेण / एवं तेषां विरोधं दृष्ट्वा यशो राज्ञोक्तम् - "इह मयास्मिन् कालचक्रभगवतो मण्डलगृहे प्रवेशः कर्तव्यो युष्मभ्यो लौकिकलोकात्तराभिषेको दातव्य इति / अन्यच्च ममाज्ञया भवद्भिवज्रकुलेन सार्द्ध खानपानं कर्तव्यं विवाहसम्बन्धश्चेति / अथ ममाज्ञां यूयं न कुरुत तदास्मदीयान् षण्णवतिकोटिग्रामान्* त्यक्त्वा यत्र कुत्र[15b]चिद्भवतां प्रतिभावि (ति) तत्र भवन्तो गच्छन्तु / अन्यथाष्टशते वर्षगते सति युष्मत्पुत्रपौत्रादयो 15 म्लेच्छधर्मे प्रवृत्ति कृत्वा सम्भलादिषण्णवतिमहाविषयेषु म्लेच्छधर्मदेशनां करिष्यन्ति / म्लेच्छदेवताविषविल्वा (विस्मिल्लाह)मन्त्रेण कत्तिकया ग्रीवायां पशुं हत्वा ततस्तेषां स्वदेवतामन्त्रेणाहतानां पशूनां मांसं भक्षयिष्यन्ति, स्वकर्मणा मृतानां मांसमभक्षं करिष्यन्ति, सोऽपि धर्मो युष्माकं प्रमाणम्, “यागाधेयशवः' (यागार्थाः पशवः) सृष्टाः" इति स्मृतिवचनात् (मनु०, 5 / 39) म्लेच्छधर्मवेदधर्मयोविशेषो नास्ति प्राणातिपाततः / 20 तस्मात् युस्मत्-कुले पुत्रपौत्रादयः तेषां म्लेच्छानां प्रतापं दृष्ट्वा संग्रामे मारदेवतावतारं वाऽनागतेध्वनि अष्टवर्षशते गते सति म्लेच्छा भविष्यन्ति / तेषु म्लेच्छेषु जातेषु सत्सु षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिनोऽपि चतुर्वर्णादयः सर्वे म्लेच्छा भविष्यन्ति, “महाजनो येन गतः स पन्थाः" इति (म०भा०, व०प०अ० 313, श्लो० 117) ब्रह्म-ऋषिवचनात् / इह म्लेच्छधर्मे वेदधर्मेऽपि देवतापित्र(त्र्य)) प्राणातिपातः कर्तव्यः, क्षत्रधर्मेऽपि च, “तर्पयित्वा 25 पितॄन देवान् खादन् मांसं न दोषभाग्” इति (याज्ञ०, आचा०, 179) ब्राह्मणवचनात्; तथा "दोषं तत्र न पश्यामि यो दुष्टे दुष्टमाचरेत्" इति / 1. क. चन्द्रचन्द्रघण्टा / 2. वा. सम्पतकर; क. सम्यकतरं भो. Phun Sum Tshogs Pa Byed Pa (सम्पत्करं)। 3. ङ. बाह्यन / 4. ख. भाति / 5. ख. प्रकृति / 6. ख. विषविल्वा, भो. Bi Si Milla (विषिमिल्ला)। 7. ख. तत्र / 8. ख. यागाधेयशवः ; घ. यागार्थे पशवः / 9-11. घ. संग्राममारदेवतावतारं / 7. घ. ङ. च / *. घ. पुस्तके पायशः 'षण्णवति' स्थाने 'नवति' इति पाठः / Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T249 विमलप्रभायां [लोकधातुएवं वेदधर्म प्रमाणीकृत्य म्लेच्छधर्मपरिग्रहं करिष्यन्ति / तेन कारणेनानागतेऽध्वनि' म्लेच्छधर्माप्रवेशाय युष्मद्भ्यो मया नियमो दत्तः, तस्माद् भवद्भिर्ममाज्ञा कर्तव्या" इति / एवमुक्तेनानेन यशो राज्ञो वचनेन सदण्डाज्ञासहितेन शिरसि विद्युत्पतितैरिव 5 ब्रह्म-ऋषिभिः सूर्यरथ उक्त:-हे सूर्यरथ, त्वं यशो नरेन्द्र विज्ञापय-नास्माकं वज्र कुलाभिषेकधर्मप्रवृत्तिर्वेदोक्तजातिधर्म विहायेति / तस्माद् वयं तवाज्ञया वरमार्यविषयं गमिष्यामः, शीताहिमवतोदक्षिणं लङ्कादीपान्तरम्" इति / तेषां ब्रह्म-ऋषीणां वचनेन सूर्यरथो यशो नरेन्द्र विज्ञापयति-“हे महाराजाधिराज, परमेश्वर, द्वात्रिंशन्महापुरुष लक्षणाशीत्यनुव्यञ्जनाङ्गपरिपूर्ण, श्रीशाक्यकुलतिलक, परमका[16a]रुणिक, करुणां 10 कुरुष्व कुशलधर्मे प्रवृत्तानाम् / अथास्माभिरवश्यं तवाज्ञा कर्तव्या / तदा वयं वज्रकु लाभिषेकप्रवृत्ति न करिष्यामः। तवाज्ञया वरं शोतानदीदक्षिणे हिमवतो लङ्कादोपस्य मध्ये आर्यविषयं गमिष्यामः" इति / अथ सूर्यरथवचनात् यशोराजा आह-"शीघ्र सम्भलविषयान्निर्गच्छन्तु भवन्तो येन शीतानद्यत्तरे षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिनः सर्वे सत्त्वाः प्राणातिपाताद्यकुश15 लकर्मपथान् परित्यज्य कालचक्रभगवतोऽधिष्ठानेन सम्यकज्ञानमार्गलाभिनो भविष्यन्ति" इति / तेन यशोराजाज्ञया सर्वे अमी ब्रह्म-ऋषयः कलापग्रामानिर्गताः ; दशमे दिने वनान्तरं प्रविष्टाः। तेषां वनमध्ये प्रविष्टानां पञ्चाभिज्ञाबलेन यशोराज्ञा ज्ञातम्, यथैषां ब्रह्म-ऋषीणां आर्यविषये गमनेन षण्णवतिकोटिग्रामनिवासिनां सर्वसत्त्वानां वैषम्यचित्तं On भविष्यति. इह येन कारणेन वज्रयानोक्तः सम्यगज्ञानमार्गो न भवति, तेन कारणेन अमी ऋषयः श्रीयशोराज्ञो भयेन स्वस्थानं परित्यज्य स्वकुटुम्बादि गृहीत्वा आर्यविषयं गताः। सर्वे मोक्षार्थिन इति क्षत्रियादयो जनाश्चिन्तयन्तो दुर्भगा भविष्यन्ति, गम्भीरोदारधर्माभाजने अभव्यचित्तात् / एवं' 'सर्वजनानां स्वचित्ताभिप्रायं ज्ञात्वा घशोनरेन्द्रः सर्वविष्णुब्रह्मरुद्रकुलमोहनं नाम समाधि समापन्नः। तेन समाधिना देवताधिष्ठानबलेन सर्वे ते ऋषयस्तस्मिन्नेव वने मोहिताः सन्तस्तस्मिन् वननिवासिभि स(श)बरादिभिः सर्वे ऋषयो बन्धयित्वा पुनरेव महामण्डलगृहमानीताः, यशोनरेन्द्रस्य पादमूले प्रक्षिप्ताः सन्तः प्रबुद्धा यशोनरेन्द्रं पश्यन्ति / तदेव मण्डलगृहं मलयोद्याने तं दृष्ट्वा विस्मयमापन्ना इदं वचनमाहुः-"अहो महांश्चर्यमिदम्, वयं महावनादप्रबुद्धाः सन्तः केनानीता महामण्डल गृहे" ? इत्येवमेतद्वचनं श्रुत्वा ब्रह्म-ऋषीणां यशोराज्ञो मन्त्रिगा निर्मितकायेन सागरम30 तिनोक्तम्-“हे सू[16b] यरथादयो ब्रह्म-ऋषयो मा विस्मयं कुरुत / अयं यशोराजा 1. घ. पुस्तके 'अध्वनि' इति नास्ति। 2. घ. धर्मप्रवेशाय / 3. क. ख. ग. ङ. द्वीपोत्तरमिति / 4. ख. स्वधर्म; भो. Ran Ran Gi Rigs Kyi Chos La (स्वस्वकुलधर्म)। 5. घ. ततः। 6-7. घ. परित्यागेन कुम्भानि / ८.ध, अभाजनानां / 9-10. घ. पुस्तके नास्ति / Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] देशकाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः प्रादेशिको न भवति / कोऽपि महाबोधिसत्त्वो युष्माकमनुग्रहार्थी बुद्धाधिष्ठानेनाभूत्, तस्मादस्य पादयोः शरणं गत्वा आद्धिबुद्धतन्त्रराजे लौकिकलोकोत्तरसिद्धिसाधनमार्गाभिषेकाध्येषणं कुरुत" इति ।अथ तेन सागरमतिवचनेन बुद्धाधिष्ठानेन सूर्यरथादयो ब्रह्मऋषयः प्रबुद्धा इदं वचनमाहुः-"साधु साधु सागरमते, येन ते वचनेनास्माकं चित्तप्रबोधोऽभूत्, तस्मादिदानी रत्नत्रयशरणं गत्वा कालचक्रतन्त्रराजे लौकिकलोकोत्तरसिद्धि- 5 साधनमार्गाभिषेकाध्येषणां कुर्य्याः', सकलसत्त्वानां सम्यक्सम्बुद्धत्वलाभायेहैव जन्मनि" इति / एवमुक्त्वा तैः ऋषिभिः ब्रह्मकुले सूर्यरथो राजाऽमन्त्रितः- "हे सूर्यरथ, त्वं वेदादिशास्त्रकपुस्तकसर्वलौकिकलोकोत्तरशास्त्रप्रमेयग्राहकहृदयः, तेनास्माकमध्येषणावचनेन यशोराज्ञोऽध्येषणां कुरु। वयमपि मण्डलपूर्वङ्गमं शरणं गत्वा सर्वेऽध्येषणां करिष्यामः"। * अथ तेन ब्रह्म-ऋषिवचनेन सूर्यरथो रत्नसुवर्णमयैः पुष्पैमण्डलं कृत्वा यशोनरेन्द्रस्य पादमूले रत्नपुष्पाञ्जलिं प्रक्षिप्य जानुयुग्मेन भूगतेन हस्तयुग्मेन शिरसि गतेन ब्रह्मऋषिभिः सार्द्ध यशः पादौ प्रणम्य दक्षिणं जानुमण्डलं पृथिव्यां संस्थाप्य ललाटे करपुटं दत्वा यशोनरेन्द्रमध्येषयति-"देशयतु भगवांस्तन्त्रराजमादिबुद्धम्, यस्मिन् बुद्धत्वाय पञ्चानन्तर्यकारिणोऽपि व्याकृता इहैव जन्मनि वज्रधरभगवता परमाक्षरसुखेन संगृहीता 15 महामुद्रालाभिनो व्याकृताः। इयं षड्द्वादशसाहस्रिकां आदिबुद्धं सुचन्द्रराज्ञस्तथागतेन देशितम् / तदेवाल्पग्रन्थेनादिबुद्धमल्पतन्त्रराजं सङ्गीतिं कृत्वा देशयतु ब्रह्म-ऋषीणां शास्ये(स्ते)२" इति / अथ सूर्यरथाध्येषणं श्रुत्वा ब्रह्म-ऋषीणामधिमुक्तिचित्तवशात् तथागताधिष्ठानबलेन लघुसङ्गीतिकार[17a]कत्वेन स्रग्धरावृत्तः सर्वज्ञदेशकादिसंग्राहकैस्तन्त्रराजं देशयति / 10 . तेषां च सुशब्दवादिनां सुशब्दग्रहविनाशाय अर्थशरणतामाश्रित्य कचिदवृत्तेपशब्दः; कचिद् वृत्ते यतिभङ्गः; कचिदविभक्तिकं पदम् : कचिद्वर्णस्वरलोपः; क्वचिद् वृत्ते दीर्घा ह्रस्वः, ह्रस्वोऽपि दीर्घः; कचित् पञ्चम्यर्थे सप्तमी, चतुर्थ्यर्थे षष्ठी; कुत्रचित् परस्मैपदिनि धातावात्मनेपदम्, आत्मनेपदिनि परस्मैपदम्; कचिदेकवचने बहुवचनम्, बहुवचने एकवचनम्, पुल्लिङ्गे नपुंसकम्, नपुंसके पुल्लिङ्गम्; कचित् तालव्यशकारे दन्त्यमूर्धन्यौ; 25 कचित् मूर्धन्ये दन्त्यतालव्यौ; कचिद् दन्त्ये तालव्यमूर्धन्यौ / एवमन्येऽप्यनुसर्तव्यास्तन्त्रदेशकोपदेशकेनेति / तथा मूलतन्त्रे भगवानाह "सुचन्द्र सर्वबुद्धानां देयं नित्येष्टवस्तुकम् / शिष्येभ्यश्च गुरूणाञ्च भार्यादुहितृपुत्रकम् / / गन्धो भवति मेदिन्यां तोये रूपं रसोऽनले / वायौ स्पर्शोऽक्षरे शब्दधर्मधातूमहानये* / / 30 1250 3. क. भिश्च / 4. घ. पूर्वकं / 1. घ. कुर्मः। 2. ख. शास्ते / *. ख. नवे; घ. नभो। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुगन्धधूपादिदीपेभिः खानपानादिवाससैः / पूजयित्वा महामुद्रां* गुरौ' ददति सत्सुतः" / इत्येवमादयोऽन्येऽपि पशब्द्या(ब्दा)योगिनावगन्तव्या आगमपाठादिति / एवं टोकायामपि सूशब्दाभिमानना शा(य)लिखितव्यं मयाऽर्थशरणतामाश्रित्येति / अथ येन येन प्रकारेण कुलविद्यासुशब्दाभिमानक्षयो भवति, तेन तेन प्रकारेणार्थशरणतामाश्रित्य बुद्धानां बोधिसत्त्वानां धर्मदेशना देशभाषान्तरेण शब्दशास्त्रभाषान्तरेण मोक्षार्थम / इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहस्रिकायां विमलप्रभायां देशकालाध्येषकमूलतन्त्रलघुतन्त्रसम्बन्धोद्देशः / तृतीयः // 3 // (4) देशकाध्येषकसाधनोद्देशः इदानी मञ्जुश्रीनिर्मितयशोनरेन्द्रसूर्यरथदेशकाध्येषकादिसम्बन्धादिना लघुतन्त्रराजं वितनोमीति / इह महाश्रीमति कालचक्रमण्डलगृहे पूर्वद्वा[17b] रावसाने महामणि रत्नमण्डपे महारत्नसिंहासनस्थो देवासुरनागनिर्मितकायैः षण्णवतिमहाराजकुलप्रसूतै15 महारत्नमुकुटबद्धैः कोटिकोटिग्रामाधिपतिभिर्नमस्कृतचरणारविन्दः सर्वतथागतप्रज्ञामूत्तिः सूर्यरथाध्येषितो यशोनरेन्द्रः सूर्यरथमिदमवोचत्-‘साधु साधु सूर्यरथ, येन त्वं ब्रह्मऋषिकुलादीनां सर्वसत्त्वानां सम्यक्सम्बुद्धत्वमार्गलाभाय परमादिबुद्धतन्त्रराजसद्भावं श्रोतुं मत्तः समुद्यतः / तेन साधु ते इदं यत् परमादिबुद्धतन्त्रराजसद्भावं लौकिकलोकोत्तर सिद्धिसाधकं कालचक्रवज्रयोगं त्वया पृष्टं तत्सर्वमहं देशयामि; सङ्गीतिकारकत्वेन 20 त्वमप्येकाग्रमनाः शृणु प्राग्व्याकृततथागताधिष्ठानबलेन लघुतन्त्रराजसद्भावं प्रज्ञोपा यात्मकं योगं' श्र(स्र)ग्धरावृत्तसङ्गीत्या महातन्त्रराजादुद्धार्यमाणम् / सम्यक्सम्बुद्धसुचन्द्रदेशकाध्येषकसम्बन्धेन मया यशो राज्ञे" इति / अथ मञ्जुश्रीभगवानिमितकायो यशोनरेन्द्रो देशकादिसंग्रहवृत्तं प्रथमं परमादिबुद्धात् तथागतेन व्याकृतमाह सर्वज्ञं ज्ञानकायं दिनकरवपुषं पद्मपत्रायताक्षं बुद्धं सिंहासनस्यं सुरवरनमितं मस्तकेन प्रणम्य / पृच्छेद्राजा सुचन्द्रः करकमलपुटं स्थापयित्वोत्तमाङ्गे योगं श्रीकालचक्रे कलियुगसमये मुक्तिहेतोर्नराणाम् // 1 // 1-2. घ. गुरोर्ददति / 3. ख. ०प्य० / 4. ख. वाण / 5. 'मयार्थशरणतामाश्रित्य' इत्यतः घ. पुस्तकं खण्डितम् / 6. स. पुस्तके नास्ति / 7. क. सा. महा। *, ख. सदा मुद्रां / Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] देशकाध्येषकसाधनोद्देशः इह तन्त्रराजे देशकादीनां संग्रहार्थमिदमादिवत्तं भगवता सङ्गीतमिति / अत्र देशकादयः देशकः,स्थानम्, महापर्षत्, अध्येषकः, धर्मदेशना, प्रयोजनप्रयोजनप्रयोजनमिति'। एषु देशकसंग्रहस्तावत् सर्वज्ञं ज्ञानकायं दिनकरवपुषं पद्मपत्रायताक्षं बुद्धमित्येभिस्त्रयोविंशत्यक्षरैर्देशकसंग्रहः कृतो भगवता। सिंहासनस्थमित्येभिः पञ्चाक्षरैः स्थानसंग्रहः कृतः। सुरवरनमितमित्येभिः सप्ताक्षरैर्महापर्षत्संग्रहः कृतः। मस्तकेन प्रणम्य 5 पृच्छेवाजा सुचन्द्रः करकमलपुटं स्थापयित्वोत्तमाङ्गे इत्येभिरष्टाविंशत्यक्षरैरध्येषकसंग्रहः कृतः / योगं श्रीकालचक्रे कलियुगसमये इत्येभिश्चतुर्दशाक्षरैः(स)द्धर्मदेशनासंग्रहः कृतः / मक्तितो राणामित्येभिः सप्ताक्षरः प्रयोजनप्रयोजनप्रयोजनसंग्रहः कतः। इत्येभिर्यथानक्रमेण चतुरशीत्यक्षरैर्देशकस्थानमहापर्षद्-अध्येषकधर्मदेशनाप्रयोजनप्रयोजनप्रयोजनसंग्रहः मूलतन्त्रराजादुद्धृत्य मञ्जुश्रीभगवता तथागतव्याकृतेनेति / ननु सर्वतन्त्रराजेषु "एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना वज्रधरभगवतो 'विजहार'स्थाननिर्देशस्तथागतेनोक्तः, कथमिदं तन्त्रराजं सर्वज्ञ इत्यादिना "एवं मया"-आदि रहितं बुद्धभगवता सन्देशितं भवति ? "एवं मया"-आदि-विजहार-स्थाननिर्देशाभावादिदं तन्त्रराजं बुद्धभगवता देशितं न भवतीह कस्यचित् संज्ञाव्यञ्जनशरणाश्रितस्य वचनं भविष्यति / - तस्मादुच्यते / इह यद्वक्तव्यमनागते[19b] २ऽध्वनि बालजनैव्य॑ञ्जनसंज्ञा- 15 शरणाश्रितैः सर्वतन्त्रराजेषु “एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना वज्रधरभगवतो विजहारस्थाननिर्देशस्तथागतेनोक्तः। तन्न, कस्मात् ? धर्मदेशकस्यार्थशरणतामाश्रितत्वात्, सङ्गीतिकाराणामपि नानादेशभाषान्तरेण सङ्गीतिकरणादिति / इह यदि "एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना संस्कृतवचनेन कण्ठताल्वादिप्रयत्नतो जनितेन प्रादेशिकेन तथागतस्य धर्मदेशना, तदा चतुरशीतिसहस्रधर्मस्कन्धाननेककालैरपि तथागतो देशयितुं न शक्नोति; 20 सङ्गीतिकारकश्च लिखितुं प्रादेशिकैकसंस्कृतवचनादिति / इहानन्तनिर्माणकायाभावादनन्तानन्तलोकधातुषु अनन्तानन्तसत्त्वरुतैर्युगपच्च धर्मदेशको न स्यात्, चतुरशीतिसहस्रधर्मस्कन्धदेशनाभावात् सर्वज्ञो न भवति ? न चैवम्, इहाप्रमाणो बुद्धः, अप्रमाणो धर्मः, अप्रमाणः सङ्घः; अतस्तथागतवचनात् नैकः सर्वज्ञो देशकः / नैका सर्वज्ञभाषा या सर्वसत्त्वरुतैरर्थप्रतिपादिका; नैको विजहारस्थाननिर्देशः / नैकः श्रावकसङ्घोऽध्येषकः तथागत- 25T 251 स्येति / इह सत्त्वानां नानाधिमुक्तिवशादनेकः सर्वज्ञः, अनेका सर्वज्ञभाषा, अनेकं विजहारस्थानम्, अनेका अध्येषकाः, अनेका धर्मदेशनेति / अतः सर्वतन्त्रदेशना न “एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना एकदेवभाषया कण्ठताल्वादिप्रत्य(य)लतो जनितया तथागतस्येति / इह प्रथमं तावत् श्रावकनये मगधभाषया धर्मदेशना पिटकत्रयादौ; तद्यथा-"इत्यपि(इति पि) सो भगवा सम्मासम्बुद्धो विज्जाचरणसम्पन्नः(नो) सुगतो लोकविद् अन्न(नु)त्तरो" 30 इत्यादिना धर्मदेशना। तथा शीतानद्युत्तरे चम्पकविषये कोटिग्रामभाषया धर्मदेशना / तद्यथा-"अकर्पु, षक, गगल्कु, जिरामक, विजिरिटका, दुदुरूपक" इत्यादिना 1. स. प्रजनन / 2. क. पुस्तके '19a' इति रिक्तपत्रम् / 3. सा. प्रय० / 4. ल. विद्; क. विद / 5. भो. अकर्ण। 6. स. ष्णक; ङ. त्वखष्टक; भो. खुष्णुक / 7. भो. पल्कु / 8. सा. भो. जिगमक / 9. भो. ट्कू / Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातु(धर्मदेशना)' / तथा रुक्मस्योत्तरे' सुरम्यविषये कोटिग्रामभाषया ध[20a]र्मदेशना; तद्यथा-अकमयसत् (द), बलवत्त विरट, मनिक, अकुट, वरदत्त, जिगित(ति) वरदत्त" इत्यादिना धर्मदेशना। एवमनेकदेशविषया यानत्रयदेशना तथागतस्य, नैकया "एवं मया श्रुतम्” इत्यादिना संस्कृतभाषयेति / अथ संस्कृतभाषयापि सङ्गीतिकारकैलिखितेषु तन्त्रराजेषु कुत्रचित् “एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना विजहारस्थाननिर्देशः, कुत्रचिन्न / प्रथमं तावत् “एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना विजहारस्थाननिर्देशः पञ्चविंशतिसाहस्रिके श्रीसमाजे षोडशसाहसिके मायाजाले इत्याद्यनेकतन्त्रराजेषु, कुत्रचिन्नास्ति / प्रथमं तावत् द्वादशसाहसिके परमादिबुद्धे षट्त्रिंशत्साहिस्रके योगानुविद्ध महालक्षाभिधाने। एवमनेकतन्त्रराजेष्वपि / तथा 10 मूलतन्त्रराजेषु तथा तदुद्धृतेष्वपि लघुतन्त्रेषु कुत्रचिद् “एवं मया" आदिना देशना, कुत्रचिन्न स्यादिति / इह श्रीसमाजे* भगवानाह-"एवं मया श्रुतमेकस्मिन् समये भगवान् सर्वतथागतकायवाञ्चित्तवज्रयोषिद्भगेषु विजहार" इति / (भा०च०, पृ० 90 ए, .. पंक्ति 2) / विजहारस्थाननिर्देश; एवं मायाजालेऽपि ''एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना विजहारस्थाननिर्देशः / एवमन्येष्वपि मूलतन्त्रलघुतन्त्रराजेषु विजहारस्थाननिर्देश इति / इह परमादिबुद्ध भगवानाह "सर्वज्ञो ज्ञानकायो यो मार्तण्डवपुरव्ययः / पद्मपत्रायताक्षः श्रीबुद्धः सिंहासने स्थितः // कायवाकचित्तरागात्मा वज्रसत्त्वोऽधिदेवता / कायवाञ्चित्तरागेण कायवाञ्चित्तमण्डले // , अभेद्यो वज्रयोगोऽसौ कालचक्रोऽक्षरः सुखः / अनादिनिधनो बुद्ध आदिबुद्धो निरन्वयः / / सर्वतो वज्रसौभाग्यः सर्वतो विश्वसंवरः। द्वादशाकारसत्यार्थः षोडशाकारतत्त्वधृक्" // ' (श्रीकालचक्रगर्भ नाम तन्त्र, भा० क; पंक्ति बी 1, 3) इत्यादि विजहारस्थाननिर्देशः परमादिबुद्धे / तथा षट्त्रिंशत्साहस्रिके योगानुविधे 25 भगवानाह "डाकिनीवज्रपद्मस्थ एकोऽसावधिदेवता / सहजानन्दरूपेण संस्थितास्त्रिभवात्मनि" // 15 इत्या [20b]दिना विजहारस्थान निर्देशो योगानुविद्धे / तथा लक्षाभिधाने भगवानाह 1. सा. धर्मदेशना इति अधिकः। २.स. रुह्नस्यो०; भो. रुकमस्यो। 3. खा. अकमपसत्; भो. अकमयसत् / 4. सा. बलद्दत्त / 5. भो. जिगिति / * सर्वतथागतकाय-वाक्-चित्तरहस्यो गुह्यसमाज नाम महाकल्पराजः। . Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले देशकाध्येषकसाधनोद्देशः "रहस्ये सर्वदूतीनां सर्वसत्त्वात्मनि स्थितः / सर्वदूतीमयः सत्त्वो वज्रसत्त्वो महासुखः" / इत्यादिना विजहारस्थाननिर्देशः / स च गुरूपदेशादवगन्तव्य इति / तथाध्येषकः श्रीसमाजे–“अथ स वज्रपाणिर्वज्रधरभगवताधिष्ठितः सन्नेवमाह' 'देशयतु' भगवान् महातन्त्रराजं सर्वतन्त्रनिरुत्तरम् / सर्वबुद्धानां श्रीसमाजं सर्वबुद्धाभिधानकम्' // इति / एवमादिना वज्रपाणेरध्यषणा; एवं मायाजालेऽपि वज्रपाणिरध्येषकः प्रसिद्धो नामसङ्गीत्यामिति / इह परमाविबुद्धो अध्येषकः सत्त्वानां क्लेशनाशाय भगवता चोदितः सन् "कायवाञ्चित्तयोगेन शास्तुः पादाम्बुजद्वयम् / रत्नपुष्पैः समभ्यर्च्य सपुष्पाञ्जलिना पुनः // शिरसा जानुयुग्मेन भूगतेन प्रणम्य च / ततो भूभ्यां समस्थाप्य दक्षिणं जानुमण्डलम् // ललाटे करपुटां दत्वाऽध्येषणा कुरुते नृपः / देशयित्वाखिलं शास्ता सर्वतन्त्रनिरुत्तरम् // आदिबुद्धं सदा सर्वं सिद्धिसन्दोहलक्षणम् / योगं श्रीकालचक्रेऽस्मिन्नालिके(का)लिसमन्विते // एकक्षणाभिसम्बुद्धं चतुःक्षणविभेदितम् / चतुबिन्दुधरं तत्त्वं भिन्नं षोडशभेदतः // शून्यं ज्ञानं च बिन्दं च वरं वज्रधरं महत् / पञ्चाक्षरं महाशून्यं बिन्दुशून्यं षडक्षरम् // बुद्धदेवासुरानेव बाह्ये देहे परेषु च / पुरुषं प्रकृतिष्वेवं पञ्चविंशति(त)मं परम् // देहे विश्वस्य मानं यत् त्रैलोक्योत्पतिकारणम् / भुक्तिं देवासुरादीनां सर्वमेतत् यथा स्फुटम्" / 1. क. देशयन्तु / Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T 252 विमलप्रभायां [ लोकधातुइत्वेवमाद्यध्येषणा सुचन्द्रराज्ञः परमादिबुद्धे / तथा योगानुविद्धे (तन्त्रे) विश्वरूपिणी आह "श्रीविश्वरूपिणी नत्वा पृच्छते वज्रभैरवम् / तन्त्रं योगानुविद्धं किं वज्रसत्त्वः परं सुखम्" / / 5 इत्याद्यध्येषणा योगानुविद्धे / तथा लक्षाभिधाने वज्रवाराही आह "प्रणम्य वज्रवाराही हेरुकं त्रिभवात्मकम् / तन्त्रं लक्षाभिधानं किं[21a]वज्रसत्त्वः परं सुखम्" / इत्याद्यध्येषणा लक्षाभिधाने। एवमन्येष्वपि तन्त्रराजेषु योगिनाऽध्येषणा ज्ञातव्येति / 10 अतो भगवतोऽनन्तधर्मदेशकत्वात् बोद्धर्न वक्तव्यम्-"एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना / सर्वतन्त्रराजेषु विजहारस्थाननिर्देश इति / अनेन प्रादेशिकसंस्कृतवचनेन बुद्धोऽपि प्रादेशिको भवति, सर्वसत्त्वरुतस्वभाविन्या सर्वज्ञभाषया विना। इहार्यविषये शब्दवादिनां तोथिकानां पण्डितानामभिमानं दृष्ट्वा बालमतीनां बौद्धानामभिप्रायः, यथा ब्रह्महरिहरादयः संस्कृतवतारो ब्राह्मणवैष्णवशैवादीनामिष्टदेवता, तथाऽस्मदीया इष्टदेवता बुद्धबोधिसत्त्वाः संस्कृतवतारो भवन्तीति। इह न च ते अनेन प्रादेशिकसंस्कृतवचनेन सर्वसत्त्वरुतैर्धर्मदेशकाः सङ्गीतिकारका भवन्ति, बद्धबोधिसत्त्वाः सर्वज्ञभाषया विना। अतो देवजातिप्रतिबद्धा प्रादेशिका बुद्धबोधिसत्त्वानां न स्यादिति, नानासत्त्वरुतधर्मदेशकत्वात् / इह मन्त्रनये एकसंज्ञा न भावः, एकस्यापि भावस्यानेकाः संज्ञाः, संज्ञाबहुत्वात् / 20 न चैका संज्ञा प्रधाना स्थात्, सर्वसंज्ञानात्मका भावप्रतिपादकत्वात / यथा स्त्री-नारी युवतीत्यादीनां नैका स्त्रीसंज्ञा प्रधाना स्यात्, सर्वासां स्तनकेशवतीभावप्रतिपादकत्वात्; तथा एकार-रहस्य-पद्म-धर्मोदय-खधातु-महासुखावाससिंघा (हा)सन-भग-गुह्य-संज्ञानां मध्ये नैका एकारसंज्ञा प्रधाना, सर्वासां सर्वाकारशून्यताप्रतिपादकत्वात् / तथा वंकार महासुरत(सुख)-महाराग-सहज-परमाक्षर-बिन्दु-तत्त्व-ज्ञान-विशुद्धचित्त-संज्ञानां मध्ये न 25 एका वंकारसंज्ञा प्रधाना, सर्वासां महामुद्रा-सहजानन्दाक्षरसुखप्रतिपादकत्वादिति / एवमेकार-वंकारयोः सर्वाकारवरोपेता शून्यता, सर्वधर्मनिरालम्बकरुणाऽभिन्नबोधिचित्तभावप्रतिपादकत्वात् / एवंकारो वज्रसत्त्वो बोधिचित्तं कालचक्रः [21b] आदिबुद्धः प्रज्ञोपायात्मको योगः ज्ञेयज्ञानात्मकः अद्वयः अनादिनिधनः शान्तः समाजः संवर एवमाद्यनेकसंज्ञाभिः प्रज्ञोपायात्मकोऽद्धयो योगो निरन्वयो योगिनाऽवगन्तव्य इति / इह यत् समाजादौ तन्त्रराजे एकारो वंकारस्तन्त्रादौ भगवता निरुक्तिरूपेण निर्दिष्टः, तद् देवानां देवरुतेन पाचनाय सङ्गीतिकारेणापि तन्त्रादौ लिखितम्; अतोऽस्याक्षरद्वयस्य समाजादी 1. ख. संज्ञानाल्पका० / Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले1 देशकाध्येषकसाधनोद्देशः तन्त्रराजे लुप्तिर्नेष्यते। न चेदक्षरद्वयं भगवता ताल्वादिना देशितम्, न चाश्रुत्वा सङ्गीतिकारेण लिखितमिति / अतोऽस्याक्षरद्वयस्य नीतार्थ उच्यते . पूर्वोऽकारः खधातुर्गुह्यकमलम्, ततो विसर्गः सूर्यो रजः, ततोऽकारो राहुविज्ञानं सुखाधिष्ठितम्, ततोऽनुस्वारः चन्द्रः शुक्रम् / अनयोरकारयोः खधातु-राहुविज्ञानयोर्मध्ये विसर्गः सूर्यः रजः इत्वमा पद्यते। ततो विसर्गे सूर्यरजसि उत्वमापन्ने सति परमार्थसत्ये 5 गुणाभावः, गुणाभावाद् यणादेशः स्यादिति / पर-अकारेण राहुविज्ञानेन सहवत्वम्, अनुस्वारः चन्द्रशुक्रेण संयोगः, अतो वंकारः। तथा पूर्वोऽकारः खधातुर्गुह्यकमलं सप्तम्यन्तो अकारः पर-इकारेण सह गुणी भवति, अत एकारः। अस्मिन्नेकारे खधातौ आधारे वंकार आधेय विसर्गाकारानुस्वारसूर्यराहुचन्द्ररज आलयविज्ञानशुक्रात्मको मध्ये बाह्ये देहे परे चावगन्तव्य इति / इह मूलतन्त्रे भगवानाह "एकारे मध्यवंकारः सर्वबुद्धसुखालयः / खधातौ वज्रसत्त्वोऽयं कायवाञ्चित्तयोगतः / / कायो बिन्द्विन्दु शुक्रं च वाग्विसर्गो रजो रविः। चित्ताकारस्त्वमी प्रोक्ता एखधातौ व्यवस्थितः / / कायवाञ्चित्तयोगेन कायवाञ्चित्तमण्डले / कायवाञ्चित्तरागेण संस्थितस्त्रिभवात्मनि" // इत्यनेन हेतुना देवानां परिपाचनाय सम्यक्सम्बुद्धत्वलाभाय च समाजादिके तन्त्रराजे "एवं मया [22a] श्रुतम्" *इत्यादिना विजहारस्थाननिर्देशः तथागतेनोक्त इति / "एवम्" इत्यनया संज्ञया यो भावः श्रीसमाजादावुक्तः, स एव भावो लक्षाभिधानादौ तन्त्रराजे "रहस्य" इत्यादिना तथागतेनोक्तः, स च गुरूपदेशात् तन्त्रतन्त्रान्तरे 20 सन्ध्याभाषान्तरेणावगन्तव्य इति / अत्र मूलतन्त्रे भगवान ाह "सन्ध्याभाषं तथा नैव रुतं चैव तथा न च / नेयार्थं न च नीतार्थं तन्त्रं षट्कोटिलक्षणम्" // अतो भगवतो वचनान्नैका संज्ञा प्रधाना स्यादिति / इह मन्त्रनये' त्रिविधः प्रत्ययो भगवतोक्तः-प्रथमं तावत् तन्त्रप्रत्ययः, ततो 25 गुरुप्रत्ययः, तत आत्मप्रत्ययः / एभिस्त्रिभिः प्रत्ययैः परिशुद्धः सम्यक्सम्बुद्धमार्गो भवति; अन्यथा त्रिभिः प्रत्ययैविना यो मार्गो गुरुणा कथ्यते, शिष्यस्य सम्यक्सम्बुद्धत्वफलदायको न भवति, शिष्यस्य श्रद्धाजडत्वात् / लौकिकं फलं भवति संवृतिसत्येनेति / इह तन्त्रान्तरे भगवता प्रतिज्ञा कृता-विकल्परहितं चित्तं कृत्वा दिनमेकं परोक्षयेत् निमित्तम्, यदि 1. अत्र ख. पुस्तके एकोऽधिकः 'मा' शब्दः। 2. क. ख. शुक्रामेको; भो, शुक्रात्मको / 3. भो. rTen Pa (आधारः) / 4. ख. नेयार्थ / 5. ॐ. मन्त्रयाने / * इति यावत् ङ पुस्तके त्रुटितम् / Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुतन्त्रोक्तविधिना गुरूपदेशेन शिष्यस्य प्रत्ययो न भवति, तदा भगवतो मृषा वचः। अथ गुरुस्तन्त्रोक्तविधिना शिष्यस्य मार्गदायको न भवति, तदा न भगवतः प्रतिज्ञा मृषा भवति, गुरोर्मार्गापरिज्ञानात्, विपरीताविशुद्धमार्गभावनाप्रतिपादकत्वादिति / इह न चान्यन्मण्डलचक्रसाधनानिमित्तं दिनमेकं परीक्षयेत्, धूमादिनिमित्तं विहाय भगवतो 5 वचनमिति / अत्र त्रिकुलात्मके तन्त्रराजे कायवाञ्चित्तकुलात्मकोऽभिधेयः त्रिमुखः, चतुःकुलाT 253 त्मके कायवाञ्चित्तज्ञानात्मकोऽभिधेयश्चतुर्मुखः; ज्ञानकेन' कुलेन सह चतुःकुलात्मक तन्त्रं भवति, अभिधेयश्च / तथा पञ्चकुलात्मकं स्वभावैकेन सार्द्ध षटकुलात्मकं भवति / अत्र चतुःकुलात्मके तन्त्रे चतुःकुलात्मकोऽभिधेयः सूर्य-चन्द्र-राहु-अग्नि [22b] रजः10 शुक्र-चित्त-ज्ञानैकयोग इति / इह नामसङ्गीत्यां प्रकटः सङ्गीतो वज्रयोगस्तथागतेनेति प्रत्यवेक्षणाज्ञानस्तवे त्रयस्त्रिंशत्तमादिश्लोकत्रयेण; तद्यथा "वज्रसूर्यमहालोको वज्रन्दु विमलप्रभः। विरागादिमहारागो विश्ववर्णोज्जवलप्रभः / / *सम्बुद्धवज्रपर्यङ्को बुद्धसङ्गीतिधर्मधृक् / बुद्धपद्मोभवः श्रीमान् सर्वज्ञज्ञानकोशधृक् / विश्वमायाधरो राजा बुद्धविद्याधरो महान् / वज्रतीक्ष्णो महाखड्गो विशुद्धः परमाक्षरः" / / इति / .. (ना० स० 8 / 33, 34, 35) अतो भगवतो वचनात् चतुःकुलात्मकोऽभिधेयो वज्रसत्वो विशुद्धधर्ममन्त्रसंस्थापनात्मकः कालचक्रो भगवानिति / एवं पञ्चकुलात्मकः स्कन्धधातुभेदेन / तथा 20 मायाजाले भगवानाह "पञ्चाननः पञ्चशिखः पञ्चचीरकशेखरः। महाव्रतधरो मौञ्जी ब्रह्मचारी व्रतोत्तमः" // (ना० स० 8 / 17, 18) एवं स्कन्धधातुभेदेन षटकुलात्मकोऽभिधेयः; शतकुलात्मकोऽपि वक्त्रभेदेन भगवतोक्त इति विशुद्धधर्मधात्वन्तिमश्लोकपादेन सार्द्ध आदर्शज्ञानस्तवे प्रथमश्लोकेन; 25 तद्यथा 3. स. पुस्तके 'ना' इति 1. ख. घ. स्वभावैकेन / 2. ख. वज्रन्दु; क. वजेन्द्र / नास्ति / 4. ङ. चक्र० / * घ. पुस्तके अत्र 39-40 पत्रयो क्रमव्यत्ययो जातः। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] देशकाध्येषकसाधनोद्देशः "वज्रभैरवभीकरः। क्रोधराट् षणमुखो भीमः षण्णेत्रः षड्भुजो बली / दंष्ट्राकरालककालो हलाहलशताननः" / / इति / (ना० स० 6 / 25; 71) अतो भगवतो वचनात् तन्त्रतन्त्रान्तरेष्वभिधेयस्त्रिमुखश्चतुर्मुखः पञ्चमुखः षण्मुखः शतमुखोऽवगन्तव्य इति / इह समाजादिके एकारेण यत् स्थानं भगवतोक्तं तदेव स्थानं रहस्येत्यादिशब्देन लक्षाभिधानादिके भगवतोक्तम् / यो वंकारेणाभिधेय उक्तः स एव महासुखशब्देन वज्रसत्त्व उक्त इति / एवमुक्तक्रमेण चतुःकुलात्मके परमादिबुद्धे षट्कुलात्मके चतुःकुलात्मकोऽभिधेयः षटकुलात्मकश्चेति / सर्वज्ञेत्यादिभिः त्रयोविंशत्यक्षरैर्भगवतोद्दिष्टः शून्यताकरुणाभिन्नो' बोधिचित्तवज्रो महासुख इति / इह सिंहासनशब्देनाकाशधातुः सर्वा- 10 कारः [23a], तस्मिन् सिंहासने स्थितः सिंहासनस्थः। बुद्ध इति वज्रसत्त्वः / योग इति महार्थः परमाक्षर इति / असौ योगो नामसङ्गीत्यां वज्रधातुमण्डलस्तवे चतुर्दशश्लोकैः सङ्गीतः "तद्यथा भगवान् बुद्धः सम्बुद्धोऽकारसम्भवः / अकारः सर्ववर्णाग्रयो महार्थः परमाक्षरः / / महाप्राणो ह्यनुत्पादो वागुदाहारवर्जितः। सर्वाभिलापहेत्वग्रयः सर्ववाक्सुप्रभास्वरः" / (ना० स० 5 / 1, 2) इत्यादिना "महाविद्योत्तमो नाथो महामन्त्रोत्तमो गुरुः / महायाननया रूढो महायाननयोत्तमः' / (ना० स० 5 / 14) इति पर्यन्तं सर्वतन्त्रान्तरेषु' असावभिधेयो सङ्गीतः, मध्योत्तमसत्त्वाशयवशेनेति / तथा शून्यं ज्ञानं चेत्यादिभिश्चतुर्दशाक्षरैः षट्कुलात्मकोऽभिधेयः। स एव सङ्गीतो नामसङ्गीत्यामपि कृत्यानुष्ठानज्ञानस्तवे द्वितीयश्लोकेनोक्तः; तद्यथा "सर्वमन्त्रार्थजनको महाबिन्दुरनक्षरः / पञ्चाक्षरो महाशून्यो बिन्दुशून्यः षडक्षरः" // इति / 25 (ना० स० 10 / 2) 1. घ. करुणात्मको। 2. क. रथा / 3. घ. तन्त्रराजेषु / Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुअतोऽनन्तसंज्ञाभिः धर्मदेशकत्वाद् “एवं मया श्रुतम्" इत्यादिना देशितं तन्त्रराज तथागतदेशितं भवति, रहस्येत्यादिना' सर्वज्ञादिना च देशितं तथागतदेशितं न भवतीति बौद्धर्न वक्तव्यम्, स्वसिद्धान्ते परसिद्धान्ते दोषग्रहणात् षष्ठी मूलापत्तिर्भवति / तस्मात् तन्त्रान्तरे पूर्वापरसम्बन्धं ज्ञात्वा गुणदोषावगन्तव्याः (व्यौ)। अन्यथाऽदृष्टदोषग्रहणादवीचिगमनं भवति दुष्टानार्याणां तथागतहृदयबाह्यभूतानां विषयेन्द्रियोपभोगासक्तानां मिथ्याप्रलापिनामिति / एवमुक्तक्रमेण परमागमयुक्त्या पूर्वापराविरुद्ध सर्वज्ञेत्यादिना / परमादिबुद्धं तन्त्रराजं भगवता सन्देशितमिति / __ ननु यः सर्वज्ञः स एव बुद्धो भगवान्, द्वाभ्यां संज्ञाभ्यां एकभावप्रतिपादकत्वादिति भावः'; इदं किमर्थं पुनरुक्तवचनं भगवतो बुद्धमितीह कस्यचिदभिप्रायो भवि10 ष्यति / तस्मादुच्यते-इह सत्य[23b]मेतद् वचनं यः सर्वज्ञः स बुद्धो भगवान् इति / कि तर्हि, अन्येऽपि हरिहरादयः सर्वज्ञत्वेन ब'लजनैः परिकल्पिताः। तेषां सर्वज्ञतानिराकरणाय सर्वज्ञो बुद्धो भगवान् इति वचनम् / इह नान्यः सर्वज्ञस्त्रैधातुके . . हरिहराणां मध्ये यः सर्वधर्माणां सर्वसत्त्वरुतकैर्देशक इति / इह कस्मात् तेषां मध्ये सर्वज्ञः सर्वसत्त्वरुतकैः सर्वधर्मदेशको न भवतीत्युच्यते / इह षड्गतिसंसारे देवजातो 15 हरिहरादीनां सम्भूतत्वात्; बुद्धभगवतः संसारपारकोटिव्यवस्थित्वादिति / इह नामसङ्गीत्यां तथागतेनोक्तं सुविशुद्धधर्मधातुस्तवे त्रयोदशमेन श्लोकेन ; तद्यथा "संसारपारकोटिस्थः कृतकृत्यः स्थले स्थितः / कैवल्यज्ञाननिष्ठूतः प्रज्ञाशस्त्रविदारणः" // इति / . (ना० स० 6 / 13) अतः सर्वज्ञो बुद्धो भगवान् बुद्धमिति पुनर्वचनं न भवतीति / ननु यः सर्वज्ञः स एव ज्ञानकायः, किमर्थं ज्ञानकाय इति पुनर्वचनं भगवतः ? तदेवोच्यते। इह यः सर्वज्ञः स एव ज्ञानकाय इति तत् सत्यम् / किं तर्हि, अन्येऽपि T254 बुद्धाः श्रावकप्रत्येकाः सन्ति; तेषां सम्यकसम्बुद्धत्वनिराकरणाय सर्वज्ञो ज्ञानकायः सम्यक्सम्बुद्धो भगवान् ज्ञानकाय इति पुनरुक्तवचनं भगवतः। इह श्रावक प्रत्येकबु द्धानां मध्ये न कश्चिद् ज्ञानकायः सम्यक्सम्बुद्धोऽभूदिति / इह. कस्मान्न श्रावकप्रत्येक25 बुद्धानां मध्ये कश्चित् सम्यक्सम्बुद्धोऽभूदित्युच्यते / इह श्रावकबुद्धानां सोपधिनि वोणं स्थितत्वादिति, सम्यक्सम्बुद्धस्य सर्वोपधिविनिर्मुक्तत्वात् / तथा च नामसङ्गीत्यां भगवतोक्तं प्रत्यवेक्षणाज्ञानस्तवे एकादशमश्लोकेन; तद्यथा "सर्वोपाधिविनिर्मुक्तो व्योमवर्त्मनि सुस्थितः / महाचिन्तामणिधरः' सर्वरत्नोत्तमो विभुः" / / इति / (ना० स० 8 / 11) 1. घ. रहस्यादिना। 2. घ. पुस्तके 'न' इति नास्ति / 3. भो. Chags Pa (आसक्तानां); क. ०अशक्तानां / 4. घ. पुस्तके नास्ति / 5. ख. हरिहरादीनां / 5. ख. पुस्तके अत्र 'श्रेष्ठः' इत्यधिकः / / 20 Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] देशकाध्येषकसाधनोद्देशः अतः सर्वज्ञो ज्ञानकायः सम्यक्सम्बुद्धो भगवान् ज्ञानकाय इति पुनरुक्तवचनं भगवत इति / ननु यो ज्ञानकायः [24a] स एव दिनकरवपूरज्ञानान्धकारध्वंसकत्वात. किमर्थ पुनरुक्तवचनं दिनकरवपुरिति भगवत इति कस्यचिद् वचनं भविष्यति; तस्मादुच्यतेइह सत्यमिदं वचनं यो ज्ञानकायः स एव दिनकरवपुः, अज्ञानान्धकारध्वंसकत्वादिति / 5 किं तहि, अन्येऽपि विज्ञानवादिनो बौद्धाः सन्ति, तेषां विज्ञानधर्मतानिराकरणाय ज्ञानकायो दिनकरवपुः विज्ञानधर्मतातीतः सम्यक्सम्बुद्ध इति पुनरुक्तवचनं दिनकरवपुरिति / इह विज्ञानवादिनां मध्ये कश्चिन्न ज्ञानकायो दिनकरवपुः सम्यक्सम्बुद्धोऽभूत् / इह कस्माद् विज्ञानवादिनां मध्ये कश्चिन्न च ज्ञान कायो दिनकरवपुः सम्यक्सम्बुद्धोऽभूदित्युच्यते ? इह विज्ञानवादिनां विज्ञानधर्मे स्थितत्वात्' सम्यक्सम्बुद्धस्य विज्ञान- 10 धर्मतातीतत्वादिति / तथा च नामसङ्गीत्यां तथागतेनोक्तं प्रत्यवेक्षणाज्ञानस्तवे त्रयोविंतितमेन श्लोकेन; तद्यथा "विज्ञानधर्मतातीतो ज्ञानमद्वयरूपधृक् / निर्विकल्पो निराभोगस्यध्वसम्बुद्धकायधृक्" // इति / (ना०स० 8 / 23) 15 - अतो ज्ञानकायो दिनकरवपुः सम्यक्सम्बुद्ध इति पुनरुक्तवचनं भगवतः। ननु यः तन्त्रेऽभिधेयः स ज्ञानकायो अरूपी, यश्च पद्मपत्रायताक्षः स रूपी; किमर्थं पद्मपत्रायताक्षमिति भगवतो वचनमिह कस्यचिदभिप्रायो भविष्यति; तस्मादुच्यते-इह हि यद् वक्तव्यं बालजनैः पद्मपत्रायताक्षः तन्त्रेऽभिधेयो रूपी, तन्न, इह पद्मशब्देन नीतार्थेनाकाशधातुरुच्यते, तस्मिन् पझे खधातौ पद्मपत्राणीव शतकुलदीर्घस्वभावत्वेनाव- 20 स्थिताः सत्त्वा इति पद्मपत्राणि, तेषामन्तं यावत्; शताक्षीणि यस्य भगवत आयतानि स. पद्मपत्रीयताक्ष इति / इह नामसङ्गीत्यामुक्तं भगवता आदर्शज्ञानस्तवे षष्ठश्लोकेन; तद्यथा "वज्रज्वालाकरालाक्षो वज्रज्वालाशिरोरुहः। वज्रावेशो महावेशः शताक्षो वज्रलोचनः" // इति / 25 (ना० स० 77) अतो भगवतो वचनात् पद्मपत्रा[24b]यताक्षः सम्यक्सम्बुद्धो भगवान् रूपरहित इति / तं बुद्धं सिंहासनस्थम्, सिंहासनं खधातुः; अपरं चन्द्रसूर्याग्निमण्डलं सिंहासनम्, तस्मिन् स्थितः सिंहासनस्थ इति / इह मूलतन्त्रे भगवानाह- . "ए-रहस्ये खधातौ वा भगे धर्मोदयेऽम्बुजे / सिंहासने स्थितो वज्री उक्तस्तन्त्रातरे मया // 1. ख. व्यवस्थितत्वात् / Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुवं-वज्री वज्रसत्त्वश्च वज्रभैरव ईश्वरः। हेरुकः कालचक्रश्च आदिबुद्धादिनामभिः॥ नानाविषयसंज्ञाभिः स्थानमाधारलक्षणम् / आधेयश्च' मया प्रोक्तो नानासत्त्वाशयेन च // सर्वज्ञो वज्रधृक शास्ता बुद्धः सिंहासने स्थितः / देशकः कालचक्रस्य सुचन्द्राध्येषितस्त्वया" // अतः सर्वज्ञो बुद्धो भगवान् लौकिक लोकोत्तरधर्मदेशको देवासुरमनुष्याणां शास्ता परमकारुणिकोऽकारणवत्सलः सर्वावरणनिर्मुक्त इति / 5 . अतो हरिहरादीनामपि बुद्धो भगवान् शास्ता सर्वज्ञः / नान्यः कश्चित् त्रिसाह10 स्रमहासाहस्र लोकधातुषु अनन्तानन्तसत्त्वानामनन्तानन्त रुतकैर्युगपच्च लौकिकलोकोत्तर- / ' धर्मदेशकः / कस्मात् ? प्रादेशिकैकदेवजातौ सम्भूतत्वादिति, प्रादेशिकैकसंस्कृतवचनात / न तेषां सा सर्वज्ञभाषा नानाधिमुक्तिकानां सत्त्वानां स्वस्वभाषान्तरेण लौकिकलोकोत्तरधर्म प्रतिपादयन्ती(ती)ति / इह मर्त्यलोके प्रत्यक्षं दृश्यते संस्कृतभाषया तैर्देशिता गीतासिद्धान्तपुराणधर्माः 15 सर्वे प्रादेशिकाः चतुर्वेदाश्च / कुतः ब्रह्मक्षत्रियवेदाध्ययनतः। इह ब्राह्मणक्षत्रियाभ्यां वेदाध्ययनं कर्तव्यम्, न हि विटशूद्रादिभिरिति / तथा गीतासिद्धान्तपुराणधर्मा ब्राह्मणक्षत्रियविटशद्रेश्चतुर्वणः श्रोतव्या ब्राह्मणमखतः, प्रवज्याग्रहणञ्च न कैवर्तादिभिरिति / अतो धर्मप्रतिषेधवचनान्तैर्देशिता धर्माः प्रादेशिकाः सर्वसत्त्वोपकारिणो न भवन्तीति / इह मत्र्ये येन कारणेनप्रादेशिकसंस्कृतभाषया नानाधिमुक्तिकानां सत्त्वानां नानारुतैौकि20 कलो[25a]कोत्तरधर्मदेशनां कर्तुमशक्ताः , तेन विटशूद्रादीनां प्रतिषेधं कुर्वन्ति / इह म] विट्शूद्रादिभिर्निकृष्टयोनिजातैर्वेदाध्ययनं न कर्तव्यम्, प्रव्रज्यादण्डग्रहणञ्चेति / "एकः शब्दः सुप्रयुक्तः स्वर्गे कामधुक्” (महा० भा० 6 / 1 / 84) इति मिथ्याहङ्काराभिभूतानामभिप्रायः, सर्वज्ञभाषाऽभावात् / इह म] 5 लोके यदि सर्वे मनुष्या वेदगोतासिद्धान्ततर्कशास्त्रविदो भवन्ति शूद्रादयः, तदा ब्राह्मणानां को गौरवं करिष्यति; 25 विद्याधर्मज्ञानसाधारणपरिज्ञानात, सर्वेषां गृहवासिनां संसारभोगासक्तानां विशेषगुणाभा वात् / इति ज्ञात्वा दुष्ट-ऋषिभिर्द्रव्यलुब्धैः संस्कृतभाषया गीतासिद्धान्तपुराणादयो धर्माः पुस्तके लिखिताः; वेदाश्च मुखपाठेनाध्ययनीया इति नियमः कृतो बालजनानां महामोहजनक इति असर्वज्ञदेशनाभिप्रायः / इह पूर्वकाले वेदगीतासिद्धान्तपुराणधर्मा न पुस्तके लिखिताः सन्ति; यतीनां मुखे तिष्ठन्ति; ततः पञ्चकषायकालवशात् T255 1. क. आदेयश्च, भो. Rten Pa? (आधेयः) / 2. ख. बुद्ध / 3. ख. नन्ते / 4. क. धर्मे / 5-6. ख. मर्त्यलोके / 7. ख. क / 8. ख. असर्वज्ञदेशना०; क. असर्वज्ञादेशना। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 41 पटले] देशकाध्येषकसाधनोद्देशः पुस्तके लिखिताः।, प्रज्ञाहीनत्वाद् यतिभिरिति / इह प्रादेशिकी हरिहरादीनां धर्मदेशना बौद्धर्नानुमोदनीया सर्वसत्त्वकृपया रहिता, संसारदुःखदायिकी (नी) मिथ्याहङ्कारकारिणी जातिवादाभिमानिनीति। इह त्रैधातुके ये सर्वज्ञेन सर्वज्ञभाषया देशिता धर्मा नानासत्त्वभाषान्तरेण सङ्गीतिकारकैः पुस्तके लिखिताः, वेदादिलौकिकार्थ'प्रतिपादकाः, यानत्रयार्थप्रतिपादकाः, 5 लोकसंवतिसत्येन परमार्थसत्येन देशिताः, सर्वसत्त्वानां श्रवणायाध्ययनाय च, तदधिमक्तिकाः सत्त्वास्तान् सर्वज्ञदेशितान् चतुरशीतिसहस्रधर्मस्कन्धान् लौकिकलोकोत्तरार्थप्रतिपादकान् शृण्वन्ति पठन्ति वाचयन्ति धारयन्ति परेभ्यश्च विस्तरेण संप्रकाशयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति, पूजयन्ति नानापुष्प नागन्धैर्नानाधूपैर्नानाचूर्ण नावस्त्रै नाघण्टाभिर्नानापताकाभिर्नानाचामरैर्नानाछत्रै नावितानै नामुक्ताहारैर्नानारत्नैर्नानाप्रदीपैर्नानारत्ना - 10 भ[25b]रणैः पूजयित्वा तेभ्यः पञ्चाङ्गप्रणामं कुर्वन्ति / एवं ते सर्वज्ञदेशिता धर्माः परोपकारिणः अधिमुक्तिवशात् परोपकाराय न कस्यचिज्जात्यजातिवशात् ते विहिताः प्रतिषेधितास्तथागतेनेत्यद्यापि नान्तर्धानं गताः। __ तिष्ठतु तावदन्यविषयान्तरम् / इह तथागताभिसम्बुद्धे आर्यविषये भगवति परिनिर्वृते सति सङ्गीतिकारकैर्यानत्रयं पुस्तके लिखितं तथागतनियमेन (नयेन) 15 पिटकत्रयं मगधभाषया, सिन्धुभाषया सूत्रान्तम् ; संस्कृतभाषया पारमितानयं मन्त्रनयम; तन्त्रतन्त्रान्तरं संस्कृतभाषया प्राकृतभाषया अपभ्रंशभाषया असंस्कृतशव(ब)रादिम्लेच्छभाषया इत्येवमादिः सर्वज्ञदेशितो धर्मः सङ्गीतिकारकैलिखितः। तथा वो(भो)टविषये यानत्रयं वो(भो)टभाषया लिखितम्, चीने चीनभाषया, महाचीने महाचीनभाषया, पारसिकदेशे पारसिकभाषया; शीतानद्युत्तरे चम्पकविषयभाषया, वानर- 20 विषयभाषया, सुवर्णाख्यविषयभाषया; तथा नोलनद्युत्तरे रुहय (रुह्म)विषयभाषया सुरस्मा विषयभाषया; एवं कोटिकोटिग्रामात्मकेषु षण्णवतिविषयेषु षण्णवतिविषयभाषया लिखितम् / एवं द्वादशखण्डेषु स्वर्गमर्त्यपातालेषु नानासत्त्वरुतैः सङ्गीतिकारकैर्यानत्रयं लिखितमिति / श्रावकैः श्रावकयानम्, प्रत्येकैः प्रत्येकयानम्, बोधिसत्त्वैः पारमितामहायानम्, मन्त्रमहायानम्, हेतुफलात्मकं नानासङ्गीतिकारकैः सत्त्वानां 25 वैनेयार्थमिति। अनया नानासङ्गीतिकारकैर्नानाविषयभाषया लिखितागमयुक्त्या विचार्यमाणो बुद्धो भगवान् सर्वज्ञः सर्वज्ञभाषया धर्मदेशकः, नान्यो हरिहरादीति / अथ हरिहरादीनां मध्ये एभिर्गुणैः परिपूर्णः कश्चिदस्ति, सोऽप्यस्माकं वन्दनीयः पूजनीयो माननीय इति सर्वथा 1. स. लौकिकार्थे / 2. खा. सर्वसत्त्वार्थं / 3. स. पुस्तके अत्र 'नानादशैंः' इति अधिकः पाठः; भो. पुस्तकेऽपि Me Lon sNa Tshogs (नानादर्शः)। 4. क. ख. तिष्ठन्तु / 5. भो. Nes Pas (नियमेन) / 6. ङ. रुक्म ; भो. Rugma (रुग्म)। 7. ङ. सुरम्मा; भो. Suramma (सुरम्म)। 8. क. हरिहरादीनमिति / *-t. 'पुस्तकानि लिखितानि' इत्यभिप्रत्य 'पुस्तके लिखिताः' इति प्रयोगः / Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लोकधातु विमलप्रभायां "भक्तिर्गुणेषु साधूनां न बुद्धे नेश्वरादिषु / अगुणेष्वपि या भक्तिः सा जडाऽशुभ[26a]कर्मजा // सत्त्वोपकारिणो धर्मा' देशिताः प्राकृतैरपि / प्रिया मेऽप्रिया विद्वद्भिर्देशिता सत्त्वहिंसकाः॥ मातापि राक्षसी लोके स्वपुत्रे भक्षणाशया। यस्या नास्ति दयाऽपत्ये कुतः तस्याः परे जने / / पितृमातृवधो यत्र धर्मो यागादिहेतुकः / उक्तः स्वार्थपरैविप्रैः परेषां तत्र का कथा" / / इति / अतः सर्वज्ञो बुद्धो भगवान् सर्वसत्त्वकारुणिकः५ सर्वज्ञः सर्वरुतैर्धर्मदेशकः, तथा 10 सुचन्द्रो वज्रपाणिर्दशभूमीश्वरोऽध्येषकः सङ्गीतिकारक (श्च) परमादिबुद्धे प्रसिद्धः / इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराज टीकायां विमलप्रभायां सर्वज्ञेत्यादिना तन्त्रराजदेशक-अध्येषकसाधनोद्देशः चतुर्थः // 4 // (5) देशकादिसंग्रहोद्देशः इदानीं वज्रयोगसंग्रह उच्यते-योगं श्रीकालचक्र इत्यादि। इह मन्त्रनये लौकिकलोकोत्तरसत्यमाश्रित्य बुद्धभगवता द्विधा तन्त्रतन्त्रान्तरेष्वर्थो निर्दिष्टः-एको लोकसंवृत्या, द्वितीयः परमार्थत इति / तत्र यो लोकसंवृत्या निर्दिष्टः स नेयार्थः, यः परमार्थतः स नीतार्थः। एतौ द्वावर्थो गुरूपदेशतोऽवगन्तव्यौ शिष्यैः / एवं सर्वतन्त्रान्तरेष्वभिधेयो द्विधा-एको लोकसंवृत्या, द्वितीयः परमार्थतः / यो T 256 20 लोकसंवृत्या स वर्णभुजचिह्नसंस्थानलक्षणः, यः परमार्थसत्यतः स वर्णभुजचिह्नसंस्थान रहितः। अनयोर्यो लोकसंवत्या देशितः, स बाह्यऽध्यात्मनि लौकिकसिद्धिसाधनाय स्वचित्तपरिकल्पनाधर्मो लौकिकसिद्धिफलदायक इति / यः परमार्थसत्येन देशितः, स लोकोत्तर-सर्वाकारवरोपेत-महामुद्रासिद्धिसाधनाय स्वचित्तपरिकल्पनाधर्मरहितः प्रत्यक्षः स्वचित्तप्रतिभासो योगिनां गगने प्रतिभाष(स)ते कुमारिकाया आदर्शादौ प्रतिसेनाव25 दिति / इष्टार्थफलदः फलमक्षरसुखं ज्ञानचित्तम् / अनयोश्चित्तयोरेकत्वं प्रज्ञोपायात्मको 1. क. ख. धर्मो / 2-3. च. पुस्तके 'प्रिया मेऽप्रिया में' इति पाठः / 4. क. ख. ङ. च. व्हेतुके / 5. क. कारणेकः / 6. च. पुस्तके 'सङ्गीतिकारक' इति जास्ति / Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] देशकादिसंग्रहोद्देशः वज्रयोगो महार्थः परमाक्षर आदिबु [26b]द्धो निरन्वयः कालचक्रो भगवान् वज्रसत्त्वः सर्वतन्त्रान्तरे प्रसिद्ध इति; स एव भगवान् पारमितानये हेतुलक्षणे प्रज्ञापारमितायाः स्वाभाविककाय' इत्युक्तः / तथा अभिसमयालङ्कारकारिकायां चतुःकारित्रनिर्णये मैत्रेय आह "स्वाभाविकः सुसम्भोगो नैर्माणिकोऽपरस्तथा / धर्मकायः सकारित्रः चतुर्धा समुदीरितः" / / इति / / (अ० स० 1218) स एव भगवान् मन्त्रनये फललक्षणे सहजानन्दः सहजकाय इत्युक्तो ग्राहयग्राहकजितो विज्ञानधर्मतातीतो भवनिर्वाणाप्रतिष्ठितो बद्धानां समाजो देवीनां संवरश्च / अनेन ज्ञानकायेन सहजसमरसत्वमिति नीतार्थः। इहास्य वज्रयोगस्य निरन्वयस्य 10 शाश्वतोच्छेदर्जितस्य लोकोपमामतिक्रान्तस्य अस्ति-नास्ति-बुद्धिपरित्यक्तस्य कुमारिकाया आदर्शप्रतिसेनावत् स्वचित्ताकल्पितस्य प्रत्यक्षदृष्टस्य प्रत्ययार्थस्य सर्वाकारस्य गगनोद्भवस्य समन्तभद्रस्य सर्वेन्द्रियस्य सर्वसत्त्वात्मनि स्थितस्य सहजानन्दस्य हेतुदृष्टान्तविजितस्य भावाभावैकत्ववैधाद् दृष्टान्तो भवति सर्वय(प)क्षग्रहविनाशाय योगिनामिति / यथा लौकिकदृष्टान्तः-घटवैधात् खपुष्पं नास्ति सर्वाभावतः। एवं खपुष्प- 15 वैधात् घटोऽस्ति सर्वभावतः / इत्यनयोः परस्परवैधाद् दृष्टान्तो भवति / एवमुच्छेदवैधाद् भवोऽस्ति सर्वभावतः, भववैधादुच्छेदो नास्ति सर्वाभावतः / उच्छेदशब्देन निर्वाणमभावलक्षणमिति / तथा लोकोत्तर)दृष्टानोऽनयोर्घटखपुष्पयोरेकत्व वैधाद् भवति; अनयोर्घटखपुष्पयोर्लोकसंवृत्या एकत्वं नास्ति, परस्परविरोधात् / येन यत् सत् तदसन्न भवति, यदसत् तत् सन्न भवति, भावाभावस्वरूपतः / येन 20 सल्लक्षणं चित्तं भवति, तेनासल्लक्षणं चित्तं न भवति; येनासल्लक्षणं चित्तं भवति, [*तेनासल्लक्षणं न भवति; येनासल्लक्षणं चित्तं भवति।], तेन सल्लक्षणं न भवति, विरोधादिति / ___ इह पुनः शून्यताकरुणात्मकस्य बिम्बस्य' 'विशु[27a]द्धचित्तस्य कुमारिकाप्रतिसेनोपमस्य न रूपलक्षणम्, परमाणोरभावात् ; नारूपलक्षणम्, शून्ये विद्यमानत्वात् / 25 अतः संवृतिः शून्यतारूपिणी, शून्यता संवृतिरूपिणी; लोकोपमामतिक्रान्तत्वादस्ति तच्चित्तं यच्चित्तमचित्तं शाश्वतोच्छेदधर्मलक्षणापगतं शून्यताकरुणाभिन्नमिति / परमार्थसत्यत उभयचित्तयोर्वैधाद् “अस्ति-नास्ति-व्यतिक्रान्तो भावाभावक्षयो वज्रयोगोऽद्वयः" इति ( ) तथागतवचनं निरन्वयत्वात् / अत्र मूलतन्त्रे भगवानाह.. 1. च. स्वभावकायः / 2. च. सर्वात्मनि / 3. च. सर्वभावतः / 4. क. 0 खपुष्प योरेकरसत्व / 5. ङ. स्वभावतः / 6. च. पुस्तके अत्र 'चित्तं' इति नास्ति / 7. क. ख. विश्वस्य / 8. 'बिम्बस्य विशुद्धचित्त'योरन्तरे सर्वासु पुस्तकेषु अक्षर द्वयात्मकः कश्चित् शब्दो दृश्यते, यो हि अस्पष्टः / *-1 कोष्ठाङ्कितोंशः च. भो. पुस्तकयोः नास्ति / Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु "अस्ति-नास्ति-व्यतिक्रान्तो भावाभावक्षयोऽद्धयः / शून्यताकरुणाभिन्नो वज्रयोगो महासुखः / / परमाणुधर्मतातीतः शन्यधर्मविवर्जितः। शाश्वतोच्छेदनिर्मुक्तो वज्रयोगो निरन्वयः" // इति / एवं तन्त्रान्तरेषु वज्रयोगस्तथागतेनोक्तो महामुद्रासिद्धिदायक इति / असौ विशुद्धो वज्रयोग एकक्षणाभिसम्बुद्धः सन् महार्थः परमाक्षरः सहजानन्दः, न कामभवे स्थितः, न रूपभवे स्थितः, नारूपभवे स्थितः; न कामनिर्वाणे स्थितः, न रूपनिर्वाणे स्थितः, नारूपनिर्वाणे स्थितः, भवनिर्वाणाप्रतिष्ठितत्वात्; नोभये स्थितः, परस्परविरोधात् / भवनिर्वाणयोनेक्ष्यं( क्य) छायातपयोर्यथा। यथाग्निर्नरिण्या' (नारण्यां) स्थितः, 10 न सरकाण्डे स्थितः, न पुरुषहस्तव्यायामे स्थितः; एवं सर्वत्र वज्रयोगो बाह्य ऽध्यात्मनि परे योगिनाऽवगन्तव्य इति / इहैकक्षणाभिसम्बोधिर्नाम परमाक्षर(महा) सुखक्षण इति / असौ एकक्षणसम्बुद्धः सर्वक्षणविभावको भवति श्वाससंख्यान्तं यावत् / ततः पूर्णस्तस्मिन् क्षणेऽभि सम्बुद्धः सम्यक्सम्बुद्ध इति / इह यस्मिन् पूर्णक्षणे सर्वतथागता अभिसम्बुद्धास्तस्मात् 19 क्षणात् सर्वधर्माणां नोत्पादो न स्थितिर्न भङ्गः, निरन्वयत्वात् / यस्मिन् क्षणे धर्माणा मुत्पादो भवति, न तस्मिन् क्षणे स्थितिर्भङ्गः। इह यस्मिन् क्षणे स्थितिर्भवति तस्मिन् क्षणे न भङ्गो नोत्पादः / इह यस्मिन् क्षणे भङ्गः सर्वधर्माणां भवति तस्मिन् क्षणे नोत्पादो न स्थितिर्भवति / एवं यथानुक्रमेण सर्वधर्माणां क्षणोत्पादः क्षणस्थितिः क्षणभङ्गो न स्यादिति [27b] युगपच्च न सम्भवति, सर्वधर्माणां सत्येककाले 20 उत्पादस्थितिभङ्गक्षणानां नैक्यम् / अथ यथानुक्रमेणोत्पादक्षणात् स्थितिक्षणः, स्थिति क्षणात् भगक्षणः, भङ्गक्षणादुत्पादक्षणो भवति / एतदेव परमार्थयुक्त्या न घटते / इह प्राक्क्षणादनिरुद्धादपरक्षणो न भवति, तथा निरुद्धान्न भवति / यथा न नष्टबीजादकरो नानष्टबीजादकरो भवति, एवं परमार्थसत्ताभावादेकक्षणो नास्ति, एकानेकविरोधादिति / इह यद् “एकक्षणाभिसम्बुद्धः सर्वक्षणविभावक" इति ( ) तत् प्रथम 25 परमाक्षरसुखक्षणाभिसम्बुद्धः सन् एकविंशतिसहस्रषट्शतपरमाक्षरसुखक्षणभावकः / तदुपरि सर्वक्षणाभाव एकानेकरहितः, परमाद्वययोगो बुद्धानां परमाथः, सत्ता सत्तारहितत्वात् / यावल्लौकिकसत्ता तावदेकानेकविचारः, धर्मागां क्षणिकचित्तप्रतिभासात् यदा क्षणधर्मरहितं चित्तं निःस्वभावमित्युच्यते। अतो निःस्वभावपक्षोऽपक्षो भगवतोक्तः। पक्षो नाम भावोऽभावः, सदसत्, अस्ति-नास्ति, एकोऽनेकः, शाश्वत-उच्छेदः, भवो निर्वाणम्, रूपमरूपम्, शब्दोऽशब्दः, क्षणोऽक्षणः, रागोऽरागः, द्वेषोऽद्वेषः, T257 1. ङ. नैऋत्यां / 2. भो. bDe Ba Chen Po (महासुख)। 3-4. क. पुस्तके 'पूर्णक्षणे' इत्यारभ्य 'यस्मिन्' पर्यन्तं नास्ति पाठः। 5. क. सत्त्वा। . Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 पटले] देशकादिसंग्रहोद्देशः मोहोऽमोह इत्येवमादि पक्षः, परस्परापेक्षिकत्वादिति / अनेन पक्षण रहितमप्रतिष्ठितनिर्वाणं बुद्धानां निःस्वभावमिति / एकानेकक्षणरहितं ज्ञानं तत्त्वमित्युच्यते जिनैः / तदेव सत्त्वानां स्वचित्ताशयवशाच्चतुर्विधं प्रतिभासते, षोडशाकारं च / आनन्द-परम-विरम-सहजभेदैश्चतुर्विधम् / ततः कायानन्दो वागानन्दश्चित्तानन्दो ज्ञानानन्दः / एवं कायपरमानन्दो वाक्परमा- 5 नन्दश्चित्तपरमानन्दो ज्ञानपरमानन्दः। एवं कायविरमानन्दो वाग्विरमानन्दश्चित्तविरमानन्दो ज्ञानविरमानन्दः / एवं कायसहजानन्दो वाक्सहजानन्दश्चित्तसहजानन्दो [28a] ज्ञानसहजानन्दः। एवं षोडशाकारतत्त्वं यदा योगी वेत्ति तदा षोडशाकारतत्त्वविदित्युक्तो भगवता। तदेव तत्त्वं सहजकाय इत्युच्यते। ततो धर्मकायः, ततः सम्भोगकायः, ततो निर्माणकायः / एवं सहजवाक् , सहजचित्तम्, सहजज्ञानम् ; धर्मवाक्, 10 धर्मचित्तम्, धर्मज्ञानम्; सम्भोगवाक्, सम्भोगचित्तम्, सम्भोगज्ञानम्; निर्माणवाक् , निर्माणचित्तम्, निर्माणज्ञानमिति चित्ताधिमुक्तिवशात् सत्त्वानां प्रतिभासते। षोडशाकारं तत्त्वमिति, स एव सहजकायः, शून्यताविमोक्षविशुद्धो ज्ञानवज्रः सर्वज्ञः, प्रज्ञोपायात्मको विशुद्धयोग इति। स एव धर्मकायोऽनिमित्तविमोक्षविशुद्धं चित्तवज्रं ज्ञानकायः प्रज्ञोपायात्मको धर्मयोग' इत्युक्तः। स एव सम्भोगकायः, 1 अप्रणिहितविमोक्षविशुद्धं वाग्वजं दिनकरवपुः प्रज्ञोपायात्मको मन्त्रयोग इत्युक्तः / स एव निर्माणकायोऽनभिसंस्कारविमोक्षविशुद्धं कायवज्रं पद्मपत्रायताक्षः प्रज्ञोपायात्मकः संस्थानयोग इत्युक्तः / एवमेतं वज्रयोगं चतुर्विधं बुद्धं पृच्छेद् वज्रपाणिरिति / शून्यताविमोक्षविशुद्धो ज्ञानवज्रः प्रज्ञोपायात्मकः सहजकायः सर्वज्ञताप्राप्तः सर्वज्ञः सर्वदर्शितत्वात् / अनिमित्तविमोक्षविशुद्धः चित्तवज्रः प्रज्ञोपायात्मको धर्मकायः, 20 मार्गाकारज्ञताप्राप्तो ज्ञानकायः, परमाक्षरसुखेनावस्थितत्वात् / अप्रणिहितविमोक्षविशुद्धो वाग्यज्रः प्रज्ञोपायात्मकः सम्भोगकायो मार्गज्ञताप्राप्तः, दिनकरवपुरनन्तानन्तसत्त्वरुतैर्युगपल्लौकिकलोकोत्तरधर्मदेशकत्वादिति / अनभिसंस्कारविमोक्षविशुद्धः कायवज्रः प्रज्ञोपायात्मको निर्माणकायः सर्वाकारज्ञताप्राप्तः पद्मपत्रायताक्षः, अनन्तानन्तनिर्माणकार्ययुगपत्सर्वाकारकायव्यूहऋद्धिस्फरणादिति / एवमेकक्षणाभिसम्बुद्धो ज्ञानवज्रः 25 सर्वार्थदर्शी। पञ्चाकाराभिसम्बुद्धः चि[28b]त्तवनः परमाक्षरसुखः; विंशत्याकारसम्बुद्धो वागवज्रो द्वादशाकारसत्यार्थः सर्वसत्त्वरुतैर्धर्मदेशकः; मायाजालाभिसम्बुद्धः कायवज्रः षोडशाकारतत्त्वविदनन्तमायाजालैः स्फारितकाय इति / इह चतुर्विधं चित्तवज्रं विशुद्धं चतुःकायलक्षणं भवति। दुर्वाररागमलावलिप्तोभयेन्द्रियात्मकतुर्यचित्ताभावचित्तं 30 1. ख. धर्मात्मयोगः; भो. Chos Kyi bDag Nid Kyi sByor Ba (धर्मात्मकयोगः)। 2. भो. Bhaga Dan dBan Po (भगेन्द्रियं) / 3. भो. bsi Pahi Sems Kyi dNos Po Med Pahi Sems (तुर्यचित्तस्याभावचित्तं)। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T258 विमलप्रभायां [लोकधातुस्वाभाविककायः सर्वज्ञ इति / तमोऽभिभूतसुसु(षु)प्तचित्ताभावचित्तं धर्मकायो ज्ञानकाय इति। प्राणोत्पादितसदसत् स्वप्नचित्ताभावचित्तं सम्भोगकायो दिनकरवपुरिति / अनेकविकल्पभावसंज्ञाजाग्रच्चित्ताभावचित्तं निर्माणकायः पद्मपत्रायताक्ष इति / एष वज्रयोगो ज्ञानपटले विस्तरेण वक्तव्यः, अस्मिन् लोकधातुपटले उद्देशमात्रेणोद्दिष्ट इति / एवं ज्ञानचित्तवाक्कायात्मकं योगं पृच्छेत् श्रीकालचक्रे तन्त्रराजे / किं भते ? कलियुगसमये। कलियुगसमय इति कोऽलि: कलिः, ककारादिव्यञ्जनपंक्तिरिति / ककारो मुखं सर्वव्यञ्जनानाम्, आदौ निर्दिष्टत्वात्; रजःस्वभावाद् वा वेदितव्य इति / तथा अस्य समयोऽसमयः, स्वरमेलापक इत्युच्यते। अत्र कोऽलि:-क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ट् ठ् ड् ढ् ण् प् फ् ब् भ् म् त् थ् द्ध् न स्' ष् स् क इति कोऽलि10 wञ्जनपंक्तिः। अत्रासमयः-अ आ इ ई ऋ ऋउ ऊ ल ल अं अः; अ आ ए ऐ अर् आर् ओ औ अल् आल् अं अः; ह हा य या र रा व वा ल ला ह हः' इति असमयः स्वरमेलापकः। अस्मिन्नसमये कलि यनक्तीति कलियगसमयः, तस्मिन कलियुगसमये कालचक्राभिधाने आदिकादिप्रज्ञोपायात्मके योगतन्त्रे आदिबुद्धे निरन्वये कालचक्रमभिधेयं वज्रयोगं तन्त्रस्वभाव(त)यावस्थितं आदिबुद्धं पृच्छेत् सुचन्द्र इति 15 धर्मदेशनासंग्रहः। इदानी प्रयोजनप्रयोजनप्रयोजनसंग्रह उच्यते-मोक्षहेतोनराणामिति / मोक्षहेतोर्नराणां प्रथमं तावत् मण्डलप्रवेशादिना सत्त्वार्थकरणं प्रयोजनं पुण्यसम्भारेण मण्डलचक्ररूपभावनाबलेन लौकिकसिदिधसाधनमधिष्ठानभावनाबलेन च प्रयोजनं वीरक्रमाधिष्ठानक्रमेणेति / तत° उत्तरोत्तरं'' प्रयोजनस्यापि प्रयोजनमिति प्रयोजन20 प्रयोजनम् / इह आकाशधातौ निर्विकल्पचित्तेन धूमादिनिमित्तेन महामुद्रासर्वाकारविश्व बिम्बरूपेण भावितेन परमाक्षरसुखसाधनेन बुद्धत्वं वज्रसत्त्वं चेति पुण्यज्ञानसम्भाराभ्यां नराणामिह जन्मनीति प्रयोजनप्रयोजनप्रयोजनसंग्रहः। एतत् परमादिबुद्धयोगमतीतबुधैर्देशितं वर्तमानैर्देश्यतेऽनागतैर्देशयिष्यते / अतीतवर्तमानानागतकालैरतीतवर्तमानाना गतसमयैः पर्षद्भिरित्यनन्तानन्तबुद्धक्षेत्रेष्वनन्तानन्तसत्त्वानामनन्तानन्ततथागतेर्बुद्धत्वाय 25 सन्देशितो देश्यते देशयिष्यतीति / इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां विमलप्रभायां देशकादिसंग्रहोद्देशः पञ्चमः // 5 // 1. ख. भो. पुस्तके चन्द्रबिन्दुरहितः; भो. पुस्तके 'सं' पश्चात् 'क्' इति अधिकः पाठः / 2. ख. भो. श् / 3-4. भो. पुस्तके नास्ति / 5-6. भो. पुस्तके नास्ति / 7-8. भो. पुस्तके नास्ति / 9-10. ङ. तदुत्तरोत्तरं। 10. ङ. पुस्तके अत्र 'द्वादशसाहसिकायां' इत्यधिकः पाठः / Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Yio 10 पटले] मण्डलाभिषेकादिसंग्रहोद्देशः (6) मण्डलाभिषेकादिसांग्रहोद्देशः इदानी सूर्यरथाध्येषितः सन् मञ्जुश्रीभगवान् निर्मितकायो यशो नरेन्द्रः परमादिबुद्धात् तथागतव्याकृतं सुचन्द्राध्येषणं द्वितीयवृत्तेनाह शून्यं ज्ञानं च बिन्दुं वरकुलिशधरं बुद्धदेवासुरांश्च बाह्य देहे परे च प्रकृतिषु पुरुषं पञ्चविंशात्मकं च / देहे विश्वस्य मानं त्रिभुवनरचनां भुक्तिदे(A)वासुराणाम् एतद् व्याख्याहि सम्यक् त्रिदशनरगुरोर्मण्डलं चाभिषेकम् // 2 // इहाध्येषणार्थत्वं' पञ्चाक्षरमहाशून्यं बिन्दुशून्यं षडक्षर-षट्कुलादीनां संग्रहार्थ भगवतोक्तमिति, तदिदं विवृणोमि शून्यमित्यादिना। इह प्रथममध्येषणावृत्तेन तन्त्रगुप्तार्थः प्रकाशितः सन् वक्ष्यमाणे सुगमो भवति बालमतीनाम्; तेनादी टोकायां संक्षेपतो वक्तव्य इति / इह शून्यमित्याद्या(दि)भिः [29b] संज्ञाभिरदृष्टदृष्टभावाः प्रकाशिताः प्रत्येकेन्द्रियाणामगोचराः प्रत्येकेन्द्रियाणां गोचरा इति / सर्वत्रासति सति भावेऽपि संज्ञापूर्वको व्यवहारः खपुष्पादौ घटादौ यथा / इह खपुष्पसंज्ञयोद्दिष्टोऽभावो न भावो भवति, एवं घटसंज्ञयोद्दिष्टो भावो नाभावो भवति; स्वसंज्ञया उक्त इति / एवं तन्त्रतन्त्रान्तरेषु शास्त्रसंज्ञाभिर्देशसंज्ञाभिर्मन्त्राक्षरसंज्ञाभिरेकैकाक्षरसंज्ञाभिर्ये तथागतेन भावा निर्दिष्टाः 15 सङ्गीतिकारकैश्च लिखितास्ते सर्वे योगिभिर्नेयार्थेन नोतार्थेनावगन्तव्याः। इहैकस्याप्यभावस्य भावस्य च नानासंज्ञाः। तस्मान्नानासंज्ञाभिनिर्देशितस्यैकस्यापि भावस्य योगिभिः संज्ञाविकल्पो न कर्तव्यः, सद्गुरूपदिष्टस्य सुवर्णवत् सुपरीक्षितस्यार्थशरणताश्रितत्वादिति / इह शून्यादिसंज्ञाभिः षड्धातुरयं महापुरुषपुद्गलः संगृहीतः, शून्यं ज्ञानं च बिन्दुं 20 वरकुलिशधरमित्येभिश्चतुर्दशाक्षरैः; तद्यथा-ज्ञानस्कन्धविज्ञानस्कन्धज्ञानधात्वाकाशधातुमनःश्रोत्रशब्दधर्मधातुदिव्येन्द्रियभगमूत्रस्रावशुक्रच्युतिश्च / एषां निरावरणता समरसत्वमेकलोलीभूतत्वं शून्यमित्युच्यते, न सर्वाभाव इति योगित्व(स्व)संवेद्यत्वात् / तदेवानाहतमुक्तं जिनैः / अस्यानाहतस्य संज्ञाचिह्न सव्यवामपूर्वापरमध्ये कत्तिकाकारं रेखामात्रमनुच्चार्यं प्रथमाक्षरमहाशून्यमिति / ___ ततो ज्ञानञ्चेति अत्र चकारः समुच्चयार्थ उद्दिष्टः, समुच्चयार्थप्रतिपादकत्वात् / ज्ञानमित्यनया संज्ञया तृतीयं शून्यमित्यवगन्तव्यम्; तद्यथा-वेदनास्कन्धतेजोधातुचक्षुरसपाणिगतिश्च / एषां निरावरणता समरसत्वमेकलोलीभूतत्वं ज्ञानं तृतीयाक्षरं महाशून्यमिति / अस्य संज्ञाचिह्न मध्यानाहतचिह्नाद् दक्षिणे बिन्दुद्वयमनुच्चार्यमिति / 1. कु. ०ध्येषणावृत्तं / 2. . पूर्वपुष्पादौ / 3. क. पुस्तके 'रेकैकाक्षरसंज्ञाभिर्ये' इति नास्ति / 25 Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 विमलप्रभायां [लोकधातु बिन्दुमित्यनया संज्ञया चतुर्थ शून्यमवगन्तव्यं पूर्वचकारात्; तद्य [30a]थासंज्ञास्कन्ध-तोयधातु-जिह्वा-रूपपादादानञ्च / एषां निरावरणता समरसत्वमेकलोलीभूतत्वं बिन्दुमिति चतुर्थाक्षरमहाशून्यमिति / अस्य संज्ञाचिह्न मध्यचिह्नाद् वामेन बिन्दुमेकमनुच्चार्यमिति। वरकुलिशधरमिति / वरश्च वरश्च कुलिशधरश्च वरकुलिशधरम्, एकद्वन्द्वात् / पूर्वचकाराद् अमी त्रयः शून्यसंज्ञाः स्युः। प्रथमवरसंज्ञा(ज्ञ)या द्वितीयशून्यमुक्तः; तद्यथा-संस्कारस्कन्धवायुधातुघ्राणसंस्पर्शवागिन्द्रियविस्रावाः / एषां निरावरणता T259 समरसत्वमेकलोलीभूतत्वं वरमिति द्वितीयाक्षरशून्यम् / अस्य संज्ञाचिह्न मध्यानाहत चिह्नात् पूर्वेण दण्डाकारं रेखामात्रमनुच्चार्यमिति' / द्वितीयवरसंज्ञया पञ्चमं शून्य10 मित्युक्तम्; तद्यथा-रूपस्कन्ध-पृथिवीधातु-कायेन्द्रिय-गन्धापाय्वालापाः। एषां निरा वरणता समरसत्वमेकलोलीभूतत्वं वरमिति पञ्चाक्षरशून्यम् / अस्य संज्ञाचिह्न मध्यानाहतचिह्नात् पश्चिमेन हलाकृतिमनुच्चार्यमिति / एवमुक्तक्रमेण पञ्चभिरेकलोलीभूतैः पञ्चाक्षरो महाशून्यो वैकारो वज्रसत्त्वो महासुखकुलिशमुच्यते / अत्र पञ्चाक्ष राणि स्वरसंज्ञा(ज्ञीनि) अनुच्चार्याणि; तद्यथा-मध्ये अकारशून्यं कत्तिकाकारम् / 15 दक्षिणे ऋकारशून्यं बिन्दुद्वयम् / वामे उकारशून्यं बिन्दुमेकम् / पूर्वे इकारशून्यं दण्डाकारम् / पश्चिमे लकारशून्यं हलाकृतिः / एवं दीर्घगुणवृद्धियणादेशविकारा ज्ञातव्या इति / एवं बँकारः पञ्चाक्षरो महाशून्यो निरालम्बकरुणात्मकः, परमाणुधर्मतातीतः प्रतिसेनारूपसदृशो योगिगम्य इति / अत्र ज्ञानविज्ञानस्कन्धादीनां स्वराः; तद्यथा-ज्ञानस्कन्धो अं। विज्ञानस्कन्धो 20 अ। ज्ञानधातु अः। आकाशधातुः आ। मन इन्द्रियं अं। श्रोत्रं अ। शब्द अः। धर्मधातु आ। भगो ह। मूत्रस्रावो हः। दिव्येन्द्रियं हं। शुक्रच्युतिः हा। एते मध्यानाहता निरावरणाः कत्ति काकारसंज्ञा[30b]चिह्ननावगन्तव्या इति / संस्कारस्कन्ध इ / वायुधातु ई / घ्राणेन्द्रियं ए। स्पर्श३ ऐ। वागिन्द्रियं य / विस्रावो या / एते पूर्वे निरावरणा दण्डाकारचिह्ननावगन्तव्या इति / वेदनास्कन्धे ऋ। तेजोधातु 25 ऋ। चक्षुरिन्द्रियम् अर्। रस आर्। पाणीन्द्रियं र। गती रा। एते दक्षिणे निरावरणबिन्दुद्वयचिह्ननावगन्तव्या इति / संज्ञास्कन्ध उ / तोयधातु ऊ। जिह्वेन्द्रियं ओ। रूपविषयं औ / पादेन्द्रियं व / आदानं वा। एते निरावरणा मध्यचिह्नादुत्तरेण बिन्दुचिह्ननावगन्तव्या इति। रूपस्कन्ध लु। पृथिवीधातु ल / कायेन्द्रियं अल् / गन्धविषय आल् / पारिवन्द्रियं ल। आलापो ला / एते पश्चिमे निरावरणा हलाकृति30 चिह्ननावगन्तव्या इति / एते षट्त्रिंशभेदभिन्नाः स्वरगुणवृद्धियणादेशविकाराः, यत्र स्कन्धाः पृथक् षट्त्रिंशभेदभिन्ना भवन्ति, तत्र स्कन्धस्थाने षड् रसा गृह्यन्ते–अम्लकषायतिक्तकटुमधुर 1. ख. °मात्रसनु / 2. क. कर्तृ / 3. भो. Reg bya (स्पयं)। 4. क. मध्यचिह्ना उत्तरेण / .. Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] 2 मण्डलाभिषेकादिसंग्रहोद्देशः लवणाश्चेति / अं अ इ ऋ उ लु इति षड् रसाः। शेषमुक्तविधिना। एतदेव पञ्चाक्षरमहाशून्यं षट्त्रिंशदात्मकं कुलिशमुच्यते जिनैः। तं धरतीति कुलिशधरः। बिन्दुशून्यः षडक्षर एकारो' धर्मोदयः सर्वाकारशून्यतारूप इति; तद्यथा-विज्ञानस्कन्धः / आकाशधातुः श्रोत्रम् / धर्मधातु भगशुक्रच्युतिः। एषां निरावरणशून्यता सर्वाकारा मध्यानाहतस्यो / अस्य संज्ञाचिह्नं कवर्गात्मकं ककारव्यञ्जनमनुच्चार्य प्रथमं बिन्दु- 5 शून्यमिति / संस्कारस्कन्ध / वायुधातु / घ्राणस्पर्श / वाग्विट्स्राव / एषां निरावरणशून्यता सर्वाकारपूर्वचिह्नस्य पूर्वे / अस्य संज्ञाचिह्न चवर्गात्मकं चकारव्यञ्जनमनुच्चार्य द्वितीयं बिन्दुशून्यमिति / वेदनास्कन्ध / तेजोधातु / चक्षुरस / पाणिगति / एषां निरावरणशून्यता सर्वाकारा दक्षिणचिह्नस्य दक्षिणे। अस्य संज्ञाचिह्न टवर्गात्मकं टकारव्यञ्जनमनुच्चार्य तृतीयं बिन्दुशून्यमिति / संज्ञास्कन्ध / तोयधातु / जिह्वारूप / 10 पादेन्द्रियादानम् / एषां निरावरणशून्यता सर्वाकारा उत्त[31a] रचिह्नस्योत्तरे / अस्य संज्ञाचिह्न पवर्गात्मकं पकारव्यञ्जनमनुच्चार्य चतुर्थं बिन्दुशून्यमिति / रूपस्कन्ध / पृथिवीधातु / कायेन्द्रियगन्ध / पायवालापः / एषां निरावरणशून्यता सर्वाकारा पश्चिमचिह्नस्य पश्चिमे / अस्य संज्ञाचिह्न तवर्गात्मकं तकारव्यञ्जनमनुच्चार्य पञ्चमं बिन्दुशून्यमिति / ज्ञानस्कन्ध / ज्ञानधातु / मनः शब्द दिव्येन्द्रियमूत्रस्राव / एषां निरावरण- 15 शून्यता सर्वाकारा मध्यानाहतचिह्नस्याधः / अस्य संज्ञाचिह्न सवर्गात्मकं सकारव्यजनमनुच्चार्य षष्ठं बिन्दुशून्यमिति / एवं बिन्दुशून्यषडक्षरो धर्मोदय कुलिशधर एकार इति शून्यता सालम्बा प्रतिसेनास्वरूपिणीति / अत्र व्यञ्जनानि स्कन्धधात्वादीनाम्-क् ख् ग् घ् ङ् च् छ् ज् झ् ञ् ट् ठ् ड् ढ् ण् प् फ् ब् भ् म् त् थ् द् ध् न स्' ष् श् क ह य व ल क्ष् इति / एषां पुनः स्वरव्यञ्ज- 20 नानां हस्वदीर्घभेदेन स्कन्धधात्वादिभेदो ज्ञातव्य इति / कायभेदेन स्कन्धेन्द्रिया ह्रस्वस्वरव्यञ्जनधर्माः धातुविषया दोघस्वरव्यञ्जनधर्माः षड् रसा धातुविकारभेदेन षड्त्रिंशद् धातवो भवन्ति; षट् स्कन्धाः षडिन्द्रियादिभेदेन षट्त्रिंशत् स्कन्धा भवन्ति; तद्यथा-षड् रसाः षड् धातवः षडिन्द्रियाणि; षड् विषयाः, षड्(ट्) कर्मेन्द्रियाणि, षड् (ट्) कर्मेन्द्रियविषया इति / षड् रसधातुविकाराः। श्रोत्र- 25 विज्ञानादि षड् विज्ञानानि / एवं षट् संस्काराः, षट् वेदनाः, षट् संज्ञाः, षड् रूपस्कन्धाः, षट् ज्ञानस्कन्धाः इति / स्कन्धविकारा वक्ष्यमाणे विस्तरेण वक्तव्याः; अत्रोद्देशमात्रेणोद्दिष्टा इति / इह पञ्चाक्षरो महाशून्यः स्वरसमूहः शुक्रश्चन्द्र इत्युच्यते; बिन्दुशून्यः षडरोक्ष व्यञ्जनसमूहो रजः सूर्य इत्युच्यते / अत्र शुक्रं चन्द्रो वकारो वज्रम्; रजः सूर्य एकारः 30 पद्मम् / अनयोर्वज्रपद्मयोरेकत्वं वज्रसत्त्व इति / वज्रं परमसुखं ज्ञानं शुक्रम् / सत्त्वः 1-2. ङ. एकारोदयः। 3. क. श्राव / 4. क. पुस्तके नास्ति। 5. भो. पुस्तके 'स' इत्यस्य पश्चात् 'ब' इति प्रतीयते / 6. ख. पुस्तके 'ज्ञान' इति नास्ति। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुसर्वाकारप्रज्ञाबिम्बं ज्ञेयं रविः (इति) / ज्ञानविज्ञानाधिष्ठितनिरावरणमेकलोलीभूतं [31b]तत्त्वं जगदर्थकारि भवति / एतदेव कायवाचित्तज्ञानैकयोगं चतुर्वक्त्रकारणं भवति / ज्ञानं पश्चिमवक्त्रं पीतम्, विज्ञानं पूर्ववक्त्रं कृष्णम्, चन्द्रः कायवक्त्रं सित मुत्तरम्, सूर्यो वाग्वक्त्रं दक्षिणे रक्तमिति / अनयोश्चन्द्रार्कयोः षट् षट् धातवो गौणT 260 , मुख्यभेदेनावगन्तव्याः / ते च पृथ्वी-अप-तेजो-वायु-रस-महारसावयवा' इति / एषु शुक्रे त्रयः उद्भूताः, त्रयोऽनुद्भूताः / तोयधातुवायुधातुरसधातुः-एते धातवः शुक्रे उद्भूताः। रसधातोराकाशधातुसंज्ञेति / रजसि त्रय उद्भूताः, त्रयोऽनुद्भूताः / पृथ्वीधातुः, तेजोधातुः, महारसधातुः-एते धातवो रजसि उद्भूताः। अत्र महारसस्य ज्ञान धातुसंज्ञेति / अवशेषाः शुक्रे रजसि चानुभूताः। एवं चन्द्रार्कयोरुद्भूतास्त्रयो धातवः 10 कायवाञ्चित्तानि यथाक्रमेण भवन्ति गर्भजानामिति / चन्द्रस्य धातव उपायस्य कायवाञ्चित्तानि / सूर्यस्य धातवः प्रज्ञायाः कायवाञ्चित्तानि, शुक्ररज-उद्भूतकारणादिति / एते धातवः षडिन्द्रियादीनां षट् कुलानोति / एवं कायवाञ्चित्तकुलानि स्वभावकुलेन सार्द्ध चतुः कुलानि भवन्ति / कायत्रयं कायचतुष्कं भवति, अवस्थात्रय15 मवस्थाचतुष्कं भवति; एवं पञ्च धातुकुलानि ज्ञानधातुना सह षट् कुलानि भवन्ति, तथा पञ्च स्कन्धकुलानि ज्ञानस्कन्धेन सार्द्ध षट् कुलानि भवन्ति गर्भजानामिति / कन्यायाः द्वादशाब्दैः, पुंसः षोडशाब्दैः; कन्यायाः रजः कालं यावत् त्रिकुलं पञ्चकुलं वेदितव्यम् / पुरुषस्य शुक्रच्युतिकालं यावत् त्रिकुलं पञ्चकुलं वेदितव्यम् / * ज्ञानधातूद्भूतकाले उभयोश्चतुःकुलं षट्कुलमामरणादिति / तथा मूलतन्त्रे भगवानाह "त्रिकुलं पञ्चकुलं चैव स्वभावैकं शतं कुलम्" / इति / ' इदानी कुलकुलीना उच्यन्ते बुद्ध इत्यादि / इह बुद्धा ज्ञानविज्ञानादयः षट् स्कन्धा इति / देवासुरांश्चेति / चकारात् बोधिसत्त्वा मन इन्द्रि[32a]यादयः षट्, एवं षड् धातवः षड़ विषयाः। तथा षड़ क्रोधाः षट् कर्मेन्द्रियाणि / षट् क्रोधदेव्यः षट् कर्मेन्द्रियक्रियाः / देवा द्वादशहस्तपादसन्धौ वक्ष्यमाणा इति / एवं योगिन्यश्चचिका(द्या) 25 अष्टौ; असुरा नागराजानः; श्वाना स्यादयो देव्य इति / इदानीं तीथिकावतारणाय प्रकृतिपुरुष उच्यते; तथाह भगवान् तन्त्रान्तरे "महामाया महारौद्रा भूतसंहारकारिणी / स्वयं कर्ता स्वयं हर्ता स्वयं राजा स्वयं प्रभुः" / इति मृषा, परमार्थतः कर्ता हर्ता नास्ति / अन्योऽपि तीथिकैः परिकल्पितो धर्मः प्रकृति10 पुरुषादिक इति / तीथिकानां प्रकृतिश्चचतुर्विशत्यात्मिका, पुरुषः पञ्चविंशति[त]म इति / तत्र मूलप्रकृतिरविकृरिति (सां० का० 3) / तुर्यावस्था सत्त्वानां जनिका 1. भो. o Cha Ses (अंश)।। 2. ख. स्वाना। 3. ख. संहारकारकारिणी। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले मण्डलाभिषेकादिसंग्रहोद्देशः आकाशधातुरिति / महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त (सां० का० 3) इति' / पृथ्व्यपतेजोवायुमनोबुद्धयहङ्कारश्चेति / षोडशकास्तु विकारा (सां० का० 3) इति / पञ्चेन्द्रियाणि पञ्च विषयाः पञ्च कर्मेन्द्रियाणि दिव्येन्द्रियं चेति। चतुर्विंशतिः प्रकृतिः,पुरुषो न प्रकृतिर्न विकृतयश्चेति / इह पुरुषो व्यापकत्वान्न प्रकृतिर्न विकृतिः, स्वभावरहित इसि / बाह्ये देहे परे च पञ्चविंशत्यात्मक इति सिद्धः / बाह्ये तु पञ्च धातवः, 5 राहुसूर्यचन्द्रा इत्यष्टौ प्रकृतिः, मङ्गलादयः पञ्च ग्रहाः पञ्चेन्द्रियाणि / पञ्च विषयाः पृथिव्यादीनां षड् रसा इति षोडश विकाराः। अथैके इन्द्रियादयः षट जीवकाया इति / एवं देहे विश्वस्य मानं अध्यात्मपटले वक्तव्यम् / त्रिभुवनरचनामिति / इह बाह्ये त्रिभुवनमिति लोकधातुः। अध्यात्मनि शरीर(रे) तस्य रचना वक्ष्यमाणक्रमेण व्याख्याहीति क्रियानियमः। भुक्तिदेवासुराणामिति / इह देवानां दिवाभुक्तिरसुराणां 10 रात्रिभुक्तिः / तथा उत्तरायणं दक्षिणायनम् / एतद् व्याख्याहि सम्यक् त्रिदशनरगुरोर्मण्डलं चाभिषेकमिति / इह लौकिकसत्येन रजोमण्डलमाख्याहि रजः सूत्रपातेनेति[32b]। परमार्थसत्येन पुनः सूत्रपातरहितं रजःपातरहितं वर्णभुजसंस्थानरूपदेवताविकल्पभावनाचित्तरहितं सर्वाकारमाकाशधातावादर्शप्रतिसेनोपममिति / तथा लौकिकाभिषेकाः-उदक-मुकुट-पट्ट-वज्रघण्टा-महाव्रत-नाम-अनुज्ञा इति 15 सप्त; तथोत्तराः-कलशः गुह्यः प्रज्ञाज्ञानमिति, लाकोत्तराभिषेक एकादशमश्चतुर्थ इति सर्व सम्यग् व्याख्याहि / तत् कस्य हेतोः ? इहार्यविषयेऽनागतेऽध्वनि वज्राचार्या द्रव्यलुण्ठका भविष्यन्ति; द्रव्यार्थं द्रव्याभिमानिनामीश्वराणां गृहं गत्वा धर्मविक्रय करिष्यन्ति; अभव्यानां द्रव्यलोभेन लोकोत्तराभिषेकं दास्यन्ति; राजादीनां प्राक् किङ्कराः पश्चाद् गुरवो भविष्यन्ति; अन्येषां द्रव्यहीनानां भव्यचित्तानामपि दशाकुशलकर्मपथपरित्य- 20 कानां लोकोत्तराभिषेकं न दास्यन्ति; तेषां क्लेशमुत्पादयिष्यन्ति; द्रव्यवशाद् वज्रपदं दुष्टसत्त्वेभ्यः प्रकाशयिष्यन्ति / अन्येऽपि वज्रपदमज्ञायमानाः परस्परं विवादं करिष्यन्ति; पण्डिताभिमानेन तन्त्रार्थमजानन्तोऽपि तन्त्रटीकां करिष्यन्ति; मारकायिकाः सत्त्वानां गुरवो भूत्वा वज्रपदं विपरीतं देशयिष्यन्ति; बुद्धज्ञानं द्वीन्द्रियजं सुखं बालमतीनां प्रकाशविष्यन्ति; तृतीयं प्रज्ञाज्ञानं चतुर्थं तदेव तत्पुनस्तथाशब्देन तृतीयं ज्ञानं बुद्धज्ञानं 25 वदिष्यन्ति-हेतुफलयोरभेदेन भगवतोक्तमिति / एवमनागतेऽध्वनि दुष्टाचार्यप्रवर्तनं दृष्ट्वा बुद्धभगवता चतुर्थं प्रज्ञाज्ञानाभिषेकं सर्वतन्त्रान्तरेषु नोत्तानीकृतम्, यद् आर्यविषये पण्डिताभिमानेन पुस्तकं दृष्ट्वा विनाभिषेकेन वज्रयानदेशका भविष्यन्ति / ततः सर्वलघुतन्त्रे मूलतन्त्रेषु चतुर्थं प्रज्ञाज्ञानं महामुद्राभावना धूमादिमार्गः सुगुप्तः, कचिन्मूलतन्त्रेषु 181 प्रकट इति / अत्र पुनः परमादिबुद्धे मूलतन्त्रे लघुतन्त्रेऽपि चतुर्थं प्रज्ञाज्ञानं प्रकटम् / 30 महामुद्राभावना धूमादिमार्गश्च प्रकट [33a] इति वज्राचार्यपारम्पर्यक्रमेण नागतः, यथा मन्त्रदेवताबाह्यसिद्धिसाधनं वीरक्रमस्वाधिष्ठानकमं च गुरुपारम्पर्यक्रमेणागतमिति / 1. सांख्यकारिकायां 'महदाद्यः प्रकृतिविकृतयः सप्त' इति पाठः / 2. सांख्यकारिकायां 'षोडशकस्तु विकारो' इति पाठः। 3. सांख्यकारिकायां 'न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः' इति पाठः। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुइदं विशुद्धक्रम महामुद्रासिद्धिदायकं परमादिबुद्धे प्रकटं पुस्तके लिखितम्, शोतानद्युत्तरे भव्यसत्त्वानां चित्ताधिमुक्ति ज्ञात्वा भगवता देशितम्, वज्रपाणिना पुस्तके लिखितं नामसङ्गोति प्रमाणीकृत्य / सत्त्वा येन निःसन्देहा भविष्यन्ति, तेन सर्वमन्त्रनये' नोतार्थो मन्त्रयानस्य नामसङ्गीत्यां भगवता सन्देशितो वज्रपाणेरिति / अतो ये परमादिबुद्धं न जानन्ति ते नामसङ्गीति न जानन्ति, ये नामसङ्गीतिं न जानन्ति ते वज्रधरज्ञानकायं न जानन्ति, ये वज्रधरज्ञानकायं न जानन्ति ते मन्त्रयानं न जानन्ति, ये मन्त्रयानं न जानन्ति ते संसारिणः सर्वे वज्ररभगवतो मार्गरहिताः। एवं परमादिबद्धं मोक्षार्थिभिः सच्छिष्यैः श्रोतव्यं सदगरुणा देशयितव्यमिति / . इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहस्रिकायां विमलप्रभायां मण्डलाभिषेकादिसंग्रहोद्देशः षष्ठः // 6 // 15 (7) लोकधातुसंग्रहोद्देशः (क) प्रतिवचनसंग्रहोद्देशः इदानी भगवतः प्रतिवचनं परमादिबुद्धात् मञ्जुश्रिया सङ्गीतिकारेण तृतीयवृत्तेन सङ्गीतम्, तदेव वितनोमि तुष्टोऽहमित्यादिना तुष्टोऽहं ते सुचन्द्र प्रवरसुरनरै राक्षसैर्दैत्यनागैनं ज्ञातं वीतरागैः परममुनिकुलैयंत् त्वया पृष्टमेतत् / निर्वाणाद्यं धरान्तं पदगतिसहितं देहमध्ये समस्तं योगं व्याख्यायमानं ऋणु सुनरपते मण्डलं चाभिषेकम् // 3 // तुष्टोऽहं ते सुचन्द्र इत्यामन्त्रणम्। हे सुचन्द्र तुष्टोऽहं ते। कुतः ? यतो यत् त्वया पृष्टमेतत् कालचक्रयोगं तत् प्रवरसुरनरादिभिर्न ज्ञातम्, अतस्तुष्टोऽ[33b]हमिति / अत्र प्रवरसुराश्चातुर्महाराजकायिकादिनैवसंज्ञानासंज्ञायतनोपगान्ताः; नराश्चक्रवर्त्यादयः; राक्षसा नैऋत्यादयः; दैत्या अपराजितादयः; नागा अनन्तादयः; वीतरागा आर्यानन्दादयः; परमऋषयो नारदादयः / एषां कुलैरेभिः प्रवरसुरनरादिभिर्न ज्ञातं कालचक्रयोगं निर्वाणाद्यं धरान्तम् / निर्वाणं ज्ञानधातुर्यस्यादिः, अन्ते धरा पृथिवी मध्येऽनुक्तत्वादाकाशवायुतेजःतोयधातवः / एते धातव आकाशाद्या व्याप्यव्यापको ज्ञानधातुः / एवं व्याप्यव्यापकसम्बन्धो योग इति–तथा भगवानाह "पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाशधातुकम् / विज्ञानं षडधात्वाख्यो महापुरुषपुद्गलः" || इति / 20 1. ख. सर्वतन्त्रनये। 2. क. नीत्यार्थो। 3. ख. तन्त्रयानस्य / 4. क. वितनोमीति / Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 53 पटले ] लोकधातुसंग्रहोद्देशः पदगतिसहितमिति / पदं द्विधा-आलिकाल्यात्मकम् / तयोर्गतिः पदगति':, कण्ठतालुमूर्धीष्ठदन्तस्थानेषूच्चारः स्वरव्यञ्जनानामिति; तया गत्या सहितं प्रव्याहारमन्त्रसंकेतेनेति / अत्र संकेतकं द्विधा-एकं मन्त्रसंकेतकम्, द्वितीयं तथतासंकेतकम् / तत्र मन्त्रसंकेतकं प्रव्याहारो लौकिकम्, तथता पारमार्थिकं वागुदाहारवर्जितम् / यत्र प्रव्याहारसंकेतकं तत्र ओं आः हूँ इत्यादिमन्त्रसंज्ञा; यत्र तथतासंकेतकं तत्र अकारो मुखं 5 सर्वधर्माणामाद्यनुत्पन्नत्वादिति / तथा षोडशसाहस्रिके मायाजाले भगवानाह . "तद्यथा भगवान् बुद्धः सम्बुद्धोऽकारसंभवः / अकारः सर्ववर्णाग्रयो महार्थः परमाक्षरः॥ महाप्राणो ह्यनुत्पादो वागुदाहारवर्जितः / सर्वाभिलापहेत्वग्रयः सर्ववासुप्रभास्वरः" // इति / (ना० स० 5 / 1, 1) पुनस्तत्रैव समाधिजालपटले 2 "अनक्षरो मन्त्रयोनिमहामन्त्रकुलत्रयः। पञ्चाक्षरो महाशून्यो बिन्दुशून्यः षडक्षरः" || (ना० स० 101, 2) इति तथता पारमार्थिक संकेतं मन्त्रयाने भगवतोक्तम् / एवं निर्वाणं ज्ञानधातुरनाहतम् / - नोच्चारितं नोच्चारितस्वरव्यञ्जनलक्षणम् / इति आकाशधात्वाद्यं मन्त्रसंकेतकं 15 प्रव्याहारलक्षणं कण्ठाधुच्चारितधर्मो भगवतोक्तम् / अत्र अ[34a]कुहविसर्जनीयाः कण्ठ्याः; इचुयशास्तालव्याः; ऋटुरषा मूर्त्याः; उपूपध्मानीया ओष्ठ्याः; लुतुलसा दन्त्याः; एवमुभयस्थानीयाः, त्रिस्थानीयाः, चतुःस्थानीयाः; पञ्चस्थानीयाः; मन्त्राः कूटमन्त्राश्च वेदितव्याः; प्रव्याहारमन्त्रसंकेतेनेति / ते च सर्वे संज्ञारूपिणः संज्ञिनां भावानां प्रतिपादका लौकिकसिद्धिसाधनाय; तथतासंकेतकं वागुदाहारवर्जितं पारमार्थिक महामुद्रा- 20 सिद्धिसाधनाय कर्ममुद्राज्ञानमुद्रासिद्धिरहितं भगवता सर्वतन्त्रराजेषु निर्दिष्टमिति / देहमध्ये समस्तमेतद् योगं व्याख्यायमानं मया शृणु त्वं सुनरपते मण्डलं चाभिषेक वक्ष्यमाणक्रमेण सर्वसत्त्वानां निरावरणपदप्राप्तय इति भगवतः प्रतिवचनसंग्रहोद्देशः / (ख) लोकधातुसंग्रहोद्देशः इदानीं भगवतो लोकधातुसंग्रहं म श्रिया सङ्गीतिकारेण परमादिबुद्धाच्चतुर्थवृत्तेन देशितं विवृणोमि कालाच्छून्येष्वित्यादिना कालाच्छून्येषु वायुज्वलनजलधरा द्वीपशैलाः समुद्राः ऋक्षाणीन्द्वकताराग्रहणऋषयो देवभूताश्च नागाः / 1. ख. पुस्तके 'पदगतिः' इति नास्ति / 2. क. समाधिराज० / 3. क. ज्वं / 25 Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुतिर्यग्योनिश्चतुर्धा विविधमहितले मानुषा नारकाश्च सम्भूताः शून्यमध्ये लवणमिव जले त्वण्डजाश्चाण्डमध्ये / / 4 / / अत्र मन्त्रनये यानत्रितयनिर्जात एकयानफले स्थितो मन्त्री भगवतोक्तः। यः पुनर्यानत्रितयाभिसन्धि न वेत्ति स कालात् सर्वज्ञमार्गनष्टो भवति / मन्त्रयाने संध्याभाषान्त5 रमज्ञायमानः प्राणातिपातादिकं मठविहारद्रव्योपभोगं कृत्वा शाश्वतोच्छेदपक्षग्रहणेन बाह्यविषयोपभोगासक्तः सन् नरकं याति, आचार्यव्यपदेशेन रत्नत्रयं विडम्बयित्वा / T 262 अत्र चत्वारो वृद्धाः परलोकेहलोकार्थमाराधनीयाः सत्त्वैः। एषु ज्ञानवृद्धोऽभिज्ञालाभी मुदिताभू[34b]मिप्राप्तो वज्राचार्यो भिक्षुः गृहस्थो वा पूज्यो दशभिक्षुसमो' भगव तोक्त इति / तस्याभावे तपोवृद्धः२ काषायधारी' काषायधारिणां वर्षाग्रेण मन्त्रिणाम10 भिषेकेण गृहस्थाचार्याणां सर्वदा वन्द्यः, तपोवृद्धत्वात्, गृहस्थानामभिज्ञाभावात् / श्रृंतवृद्धः पण्डितः पूज्यः शाश(स)नोद्योतकः परवादिनां मारकायिकानां दमकः / एते परलोकार्थमाराधनीयाः सत्त्वैरिति / धनवृद्धो राजा इहलोकभोगार्थिभिराराधनीयः / एवं चत्वारो वृद्धा आराधनीयाः सत्त्वैरिति / अतो यानत्रयज्ञाता तपोवृद्धः, गृहस्थस्य श्रावकयाने प्रातिमोक्षश्रुताधिकारो नास्ति यावत् तपस्वी न भवति / अतो गृहस्थो वृद्धो न भवति / 15 अभिज्ञया विना न च गृहस्थानां प्रव्रज्यारहितानां मठविहारोपभोगः कुत्रचिद् याने भगव तोक्त इति / अतो यानत्रयपरिज्ञानाय प्रथमं वैभाषिकमतमाश्रित(त्य) परमाणुसन्दोहात्मकलोकधातुरस्ति / "तथाछि(पि)*पुर्गलोऽस्ति पुद्गलो भारवाहो (हारो) न नित्यो नानित्यो भणाम" इति ( ) भगवतो वचनात् लोकधातूत्पादनिरोधा वेदितव्याः / संवों विवर्तकालश्चेति / अतः संवर्तादुत्पाद कालवशात् शून्येष्विति / शून्यानीति 20 लोकव्यवहारेण चक्षुरादीनामिन्द्रियाणमगोचराणि, परमाणुरूपेणावस्थितानि, पृथिव्यप्ते जोवायुरसद्रव्याणि", पञ्चचतुस्त्रिद्वयेकगुणस्वभावानि / षष्ठो गुणो धर्मधातुः सर्वत्र व्यापक इति शून्यानि / तेषु शून्येषु परमाणुषूत्पादकालवशात् वायुरिति / तेषु परमाणुषु मध्ये प्रथमं तावत् वायुपरमाणवोऽन्योन्याश्लिष्टा भवन्ति / तस्मात् संयोगाल्लघुचञ्चलता गमनाद् वायुरित्युच्यते / एवमग्निपरमाणव आश्लिष्टाः सन्तो वायुसंयुक्तविद्युदग्निरित्युच्यते / एवं तोयपरमाणव आश्लिष्टाः सन्तो वाय्वग्निसंयुक्तवृष्टिजलमित्युच्यते / एवं पृथिवीपरमाणव आश्लिष्टा इन्द्रचाषं(पं) गगने दर्शयन्ति धरा इत्युच्यते / रसपरमाणवः सर्वत्र व्यापकाः / एवं पञ्चशून्येषु वायुज्वलनजलधरा[35a] भवन्ति, सन्धारणमन्थानसंस्थानवातप्रभावतः / द्वीपशैलाः समुद्राः। द्वीपानि सप्त, शैलाः सप्त, समुद्राः सप्त / 1. क. दशदिक्षु; भो०. dGe sLoi bCu dai mNampar (दशभिक्षुसमो)। 2. क. बृद्धः। 3. ख. कायधारी / 4. भो. brTen nas (आश्रित्य)। 5. Khur Khur Ba Po (भारवाहो)। 6. भो. Chags Pa Ni (संवत्तॊ हि)। 7. ऊ. वाय्वाकाशद्रव्याणि / *. ङ. तथा हि। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुसंग्रहोद्देशः 55 ऋक्षागीन्द्वकताराग्रहगणऋषय इति / ऋणाणि सप्तविंशतिः; तत्सम्बन्धा(द्धा)न्यनन्तानि'। इन्द्वौं मण्डलाकारौ; ताराग्रहणस्तथैव तारकाकारो; मङ्गलादिरिति / ऋषयः सप्त तारकाः। देवभूताश्च नागाः। देवाश्चातुर्महाराजकायिकादयः, भूता अपराजितप्रेतादयः, नागा अनन्तादयः / तिर्यग्योनिश्चतुर्धा / अण्डजा गरुडादयो वायुयोनिः, जरायुजा गजेन्द्रादयोऽग्नियोनिः, संस्वेदजा कीटपतङ्गकृम्यादयो जलयोनिः, उपपादुका वृक्षादयो भूमियोनिरिति / तथा महोपपादुका रसयोनिः / विविधमहितले / महीत्यागमपाठः। विविधा च सा मही चेति विविधमही; सप्तद्वीपस्वभावा द्वादशखण्डस्वभावास्तस्यास्तलं विविधमहितलं नागभुवनं सप्तनरकभुवनम् ; तस्मिन् विविधमह्यां मनुष्याः, तले नरके नारकाः। चकारः समुच्चयार्थ इति / सम्भूताः शून्यमध्ये लवणमिव जले त्वण्डजाश्चाण्डमध्ये इति / अत्र दृष्टान्तः-स्थावराणामुत्पत्तये लवणम्, जङ्ग- 10 मानामुत्पत्तये अण्डम्, चकारः समुच्चयो यथा आतपसंयोगात् लवणा उदकपरमाणवो लवणकठिनत्वं यान्ति तथा मेर्वादयः स्थावरा इति / यथा शुक्रद्रवपरमाणवोऽण्डमध्ये मुखकायाद्यवयवत्वं गतास्तथा जङ्गमसत्त्वा वेदितव्याः / ___ अस्य लोकधातोविस्तरेणोत्पादः पञ्चमपटले वक्तव्यः। इति लोकधातुसंग्रहोद्देशः / (ग) वनकायसंग्रहोद्देशः इदानी मञ्जश्रिया पूर्वक्रमेण देशितं वज्रकायसंग्रहवृत्तं पञ्चमं वितनोमीति . कायेत्यादिना काये ज्ञानेऽम्बरे वै पवनहविजले भूस्थिते(रे) स(ज)ङ्गमे च दिव्यादृष्टौ च सृष्टौ दशविधभुवने वणिते वज्रकाये / सम्भूतिर्मन्त्रयोनेर्भवति नरपते मुक्तिरत्रैव . भूयः एवं यो वेत्ति सम्यक् न स भवति पशुश्चित्तसंकल्पमुक्तः // 5 // [35b] काय इति चन्द्रो निरावरणम् : ज्ञानमिति सूर्यो निरावरणम् / अम्बरमित्याकाशधातुनिरावरणः / एवं वायुधातुस्तेजोधातुरुदकधातुः पृथिवीधातुः स्थिर इति पञ्चात्मकः / स्थावरधातुनिरावरणः / जङ्गम इति षड्धात्वात्मकः पुङ्ग(द्ग)लधातुनिरावरणः। दिव्यावष्टौ च सष्टाविति / दिव्या च साऽदष्टिश्च सष्टिः, तस्या(.) दिव्यादष्टौ च 25 सृष्टोऽरूपभवे विज्ञानाहङ्कारमात्रे आकाशानन्त्यायतनादिके चतुःप्रकारे / एवं कायादिके बशविधभुवने वज्रज्ञानाधारे वणिते तथागतैर्वज्रकाये सम्भूतिर्मन्त्रयोने बिन्द्वादिके भवति नरपते अत्र मन्त्रयोनिः / चन्द्राद् बिन्दुः, सूर्याद्विसर्गः, आकाशधातोः अ, वायुधातोः 1. क. ख. पुस्तकयोः अत्र 'तत्सम्बन्धान्यतन्त्राणि' इति पाठः; किन्तु भोटानुसारं 'तत्सम्बद्धान्यनन्तानि' इति पाठः सम्यक् प्रतिभाति / 2. ख. मन्त्रयाने / 20 Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुइ, तेजधातोः ऋ, उदकधातोः उ, पृथिवीधातोः ल, स्थावरधातोर्मव्यञ्जनम्, जङ्गमधातोः क्षव्यञ्जनम्, अरूपधातोः हकारव्यञ्जनम्; एतानि मन्त्रपदानि वामावर्तेन स्थापयेत / ततः पूर्वव्यञ्जनस्य परव्यञ्जनोर्ध्वगमनं लकारादीनां 'इको यणची'ति (अ०६।११७७) यणादेशः / अन्ते अकारेण संयोगो विसर्गो अर्द्धचन्द्राकारो बिन्दुर्वृत्तो ज्ञानं शिखाकार5 मिति / मन्त्रयोनिर्गुणवृद्धयादीनां मन्त्राणाम्; तद्यथा-ह क्ष म् ल उ ऋ इ अः (घा इति' लोकधातुकायो वज्रकायः / आकाशधातौ यकारो वायुमण्डलम् / तदुपरि रकारो अग्निमण्डलम् / तदुपरि वकारो जलमण्डलम् / तदुपरि लकारो भूमिमण्डलम् / तदुपरि मकारो मेरुः पञ्चाकारः / तदुपरि क्षकारः पद्मव्यपदेशेन जङ्गमकायः / तदुपरि अरूपकायो हकारात् / विसर्गः सूर्यः / चन्द्रो बिन्दुः / नादो वज्रचिह्नमेकशूकम् / 10 एवं वज्रकायोऽलोकधातर्मण्डलाकारो वक्ष्यमाणेन वक्तव्यः। एवं सम्भतिसंन्त्रयोनेर्म क्तिरत्रेव भूय इति / पुनः संहारकाले मुक्तिर्लयो अत्रैव भवतीति / एवं यो वेत्ति सम्यगिति / एवमनेनोक्तक्रमेण यः कश्चिद् वेत्ति निरावरणेन वज्रकायम् / न स भवति पशुरिति[36a] / पशुरज्ञानी / चित्तसंकल्पमुक्त इति / संकल्पो मण्डलकल्पनाधर्मः, तेन मुक्तश्चित्तसंकल्पमुक्तः / अस्य दशाकारस्योद्देशः सुविशुद्धर्मधातुस्तवे तथागतेनोक्तः; T263 15 तद्यथा "दशाकारो दशार्थार्थो मुनीन्द्रो दशबलो विभुः / अशेषविश्वार्थकरो दशाकारवशी महान् // अनादिनिष्प्रपञ्चात्मा शुद्धात्मा तथतात्मकः / भूतवादी यथावादी तथाकारी अनन्यवाक् // अद्वयोऽद्धयवादी च भूतकोटिव्यवस्थितः / नैरात्म्यसिंहनिर्नादः कुतीर्थ(N) मृगभीकरः" / / (ना० स० 6 / 4, 5, 6) इति वज्रकायसंग्रहोद्देशः। 1. अत्र देवनागरीक्रमेण मन्त्रप्रस्तारः-हं 444444. 2-3. क. सम्भवति / 3. ख. भूतात्मा / Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले लोकधातुसंग्रहोद्देशः (घ) राह्वायत्पादसंग्रहोद्देशः इदानीं राह्वाद्युत्पादसंग्रहवृत्तं षष्ठं वितनोमीति वामाङग इत्यादिवामाङ्गे श्वेतदीप्तिर्जगदमृतकला दक्षिणे रक्तवर्णा राहुः कालाग्निचन्द्रौ रविशशितनयौ भौमशुक्रो गुरुश्च / केतुर्मन्दश्च वृष्टिः पविजलशिखिगः (नः) सप्तयुग्मानि लोके दीप्तानां विद्यमानानि तु विगततमो युग्ममेकं तमोऽन्ते // 6 // 5 वामाने श्वेतदीप्तिरिति / वामाङ्गे प्रागुक्तस्यानाहतस्य मध्ये स्थितस्य अर्ध'वज्र'चिह्नसंज्ञितस्य बिन्दुरेकः, स च श्वेतदीप्तिः श्वेतज्ञानरश्मिरिति / जगदमृतकला स एव दक्षिणे रक्तवर्णा इति / तस्यानाहतस्य दक्षिणे विसर्गचिह्नसंज्ञिता रक्तदीप्तिः रक्तज्ञानरश्मिरिति / तयोर्बाह्ये वामे च दक्षिणे च यथासंख्यं राहुः कालाग्निश्च भवति / ततश्चन्द्रसूर्यश्च भवति / एवं बुधो मङ्गलः शुक्रो बृहस्पतिः केतुः शनिः / वृष्टिविद्युत् 10 (पति) जलमग्नि(शिखिन)रिति सप्तयग्मानि लोके लोकधातौ विद्यमानानि / तं"। नियमार्थम् / एषु मन्त्रपदानि यथासंख्यं वामे च दक्षिणे च / अं अः, उ ऋ, ऊ ऋ, ओ अर्, औ आर्, व र, वा रा इति सप्तयु[36b]ग्मानि सप्तवाराणामधिदेवता इति / विगततमो युग्ममेकं तमोऽन्ते / तमोरहितं श्वेतरक्तज्ञानरश्मिरूपं अनाहतस्य वामे सव्ये अनाहताङ्गं नान्यदिति / पृष्ठे पीता च तारा सुरधनुरवनिः सा चतुर्धा द्विभेदा प्राणो नामैकवायुर्भवति दशविधो मूर्ध्नि मले च पूर्वे / मध्ये वज्रो बीजं गुणगणसहिता संस्थिताधः स्वशक्ति...र्ज्ञानं सर्वत्र शून्यं शिवपदसहितं सर्वभावैविमुक्तम् // 7 // पृष्ठे पीता चेति चकारात् पीतज्ञानरश्मिरित्यर्थः / पृष्ठे अनाहतस्य' हलाकृतिः 20 चिह्नसंज्ञिता तस्या बाह्ये साकारा पश्चिमे पीतदीप्तिः। ततः सूक्ष्मतारा, बृहत्तारा, एवं सुरधनुः / अवनिद्विधा मृत्-पाषाणरूपा / एवं सा पीता दीप्तिश्चतुर्धा द्विधा (द्विभेदा) भवति / प्राणो नामैकवायुर्भवति दशविधो मूनि मूले च पूर्वे इति / तस्यानाहतस्योर्चे श्यामरश्मिः; बाह्ये शून्यबीजसम्भवः प्राणवायुः, अधो नीलरश्मिः, बाह्ये ज्ञानबीजसम्भूतोऽपानवायुः। पूर्व कृष्णरश्मिः, बाह्ये समानो नामवायुः। ततः उदानः, एवं 25 व्यानो नागः कूर्मः कृकरः देवदत्तो धनञ्जयश्चेति दशवायवः / एषामध ऊर्ध्वमेकयुग्म पूर्वापरं वायुभूम्योः। सप्तयुग्मानि धनञ्जयो नपुंसको मृतकायापरित्यागादिति / एषु 1-2. क. उर्ध्ववज्र; भो. hKhyog Po Ched (अर्धवक्र)। 3-4. भो. Cha Ses De Niddo (कला स एव)। 5. क. तु। 6-7. क. अनाहतसाहत्वाकृति / Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुमन्त्रपदानि ऊर्ध्वाधः / ह हा / ततः' पूर्वापरं यथासंख्यम् / अ आ; इ लू; ई लू; ए अल; ऐ आल; यल याला; क्ष इति सप्तयुग्मानि / पूर्वापरम्'। ऊर्ध्वाध एक युग्मम् / तमोऽन्ते / सप्तयुग्मानि सप्तवाराणामधिदेवताः, चतुःसन्ध्याभेदेन आदित्यवारे अर्द्धरात्रे पूर्वोदये अ। दक्षिणोदये अः / पश्चिमोदये आ। उत्तरोदये अं। सोमे इ ऋ ल उ / मङ्गले ई ऋल ऊ। बुधे ए अर् अल् ओ। बृ[37a]हस्पतौ ऐ आर् आल् औ। शुक्रे य र ल व / शनैश्चरे या रा ला वा / इति सप्तवाराणां सन्ध्याबीजानि यथाक्रममिति / मध्ये वज्रो+बोजमिति / ऊर्ध्वाधः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरबीजानां मध्ये अनाहतं वज्रं कर्तृकाकारं तस्योर्ध्वबीजमनुस्वारं वामाङ्गे यत् स्थितं तद् उपरि भवति / गुणगणसहिता संस्थिताधः स्वशक्तिः। तस्यानुस्वारस्य शक्तिविसर्गः। तस्य गुणा 10 रक्तरश्मयः / तैः सहिता शक्तिः, गुणगणसहिता अधोऽनुस्वारस्यार्द्धचन्द्राकृतिः। स्थिता स्वशक्तिरिति / पूर्वापरचिह्न पादे शिरसि अनाहतस्य अनुक्तत्वादिति / एवं पञ्चाक्षरो वकारो वज्रसत्त्वविषये, हँकारो वज्रानङ्गसाधने इति / तस्य बाह्ये षडक्षरो बिन्दुशून्य .. आधार इत्युच्यते, कारपक्षे हँकारपक्षे क्षकारो योनिरिति वज्रं पद्मञ्चेति / . ज्ञानं सर्वत्र शून्यमिति / ज्ञानशब्देन विसर्गः, अनाहतोज़मर्द्धचन्द्राकृतिः सर्वत्र 15 सर्वस्मिन् बाह्यवर्णे भवति / शून्यं सर्वत्र बिन्दुरिति / शिवपदसहितं सर्वभावैविमुक्त मिति / शिवमनाहतम्, तस्य पदं पूर्वापरचिह्नम्, तेन सहितं शिवं सर्वभावैविमुक्तम्, तदेव सर्वत्र सर्वस्मिन् बाह्ये वर्णधर्मे पादे शिरसि वायुपथिव्यौ यथासंख्यम् / शिर उपरि कला, कलोपरि बिन्दुः, बिन्दूपरि नादोऽनाहताख्य इति / अस्य मन्त्रपदानि एँ वै क्ष हैं अँ अँ आँ५ अ इ ई ऋ ऋ उँ ॐ एँ ऐं अर' आर अलँ आलं ओं 2. औं हैं हाँ य याँ र राँ वाँ सँ लाँ' क्ष। एवं सर्वमन्त्रपदेषु व्याप्यस्य (व्याप्येषु) पञ्चाक्षरो महाशून्यो व्यापको वेदितव्य इति / अस्योद्देशतन्त्रराजे मायाजाले भगवतोक्त: "विश्वमायाधरो राजा बुद्धविद्याधरो महान् / . वज्रतीक्ष्णो महाखड्गो विशुद्धः . परमाक्षरः॥" 25 तथा (ना० स० 8 / 35) "निष्कलः सर्वगो व्यापी सूक्ष्मो बीजमनानवः / अरजो विरजो विमलो वान्तदोषो निरामयः // " (ना० स० 8 / 21, 2, 22, 2) इति राहाद्युत्पादसंग्रहोद्देशः / 1. क. तथा / 2. क. पूर्वावरम् / 3. क. पुस्तके 'गुणगणा' इति पाठः; भो. पुस्तके तु 'गुणा' एव विद्यते। 4. क. पृथिम्यो। 5-6. भो. पुस्तके 'अ आँ' इति क्रमः / 7-8. ख. पुस्तके 'अर आर' इत्यस्य स्थाने ' आँ' इति अस्ति / ९-१०.भो. पुस्तके अत्र 'ल लो व वाँ' इति-क्रमः / Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुसंग्रहोद्देशः () चनाकलादिविश्वमन्त्रसंग्रहोद्देशः इदानी चन्द्रकलावृद्धिहानि'सूर्यायणरात्रिदिनवृद्धिहान्यादिसंग्रहवृत्तमष्टमं वितनोमीति [37b] आद्यास्त्रिशदित्यादि आद्यास्त्रिंशत् स्वरा ये हयरवलयुतास्ते कलेन्दोदिनैश्च काद्यान् वर्गान् समात्रांश्चरति दिनकरः शून्यषड्वह्निमानैः / हाद्या मात्राश्च नाड्यः सुरनरफणिनो भूतयोनिश्च मन्त्रा 5 इत्यादौ कादियुक्ते भवति खलु नृपोत्पत्तिरेवं विधातोः // 8 // आद्यास्त्रिशत् स्वरा ये हयरवलयुतास्ते कलेन्दोरिति / अकार आदिर्येषामिकारादीनां ते चाया हयरवलयुता ह्रस्वदीर्घगुणवृद्धिहादियणादेशह्रस्वदीर्घभेदेन त्रिंशद्भवन्ति / ते चन्द्राः कलावद्धिक्षयहेतुभताः / प्रतिपदादयः पञ्चभेदास्त्रिधा भवन्ति, नन्दादिभेदेन त्रिधा नन्दा, त्रिधा भद्रा, त्रिधा जया, त्रिधा रिक्ता, त्रिधा पूर्णा / तमोरजःसत्त्वभेदेन 10 मृदुमध्याधिमात्रभेदेन चेति / पञ्चदशवृद्धिकलाः शुक्लपक्षे / आकाशादिधातुस्वभावेनावस्थितास्त्रिधा / अत्र प्रतिपद् अ, द्वितीया इ, तृतीया ऋ, चतुर्थी उ, पञ्चमी लू, नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा आकाशवायुतेजउदकपृथिवीधातवो यथासंख्यं तमस उद्घाटन(ने) प्रथममृदुमात्रेति / ततो द्वितीयप्रक्रमो गुणभेदः। षष्ठी अ, सप्तमी ए, अष्टमी अर्, नवमो ओ, दशमी अल् / नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा आकाशवायुतेजउदकपृथिवी- 15 धातवः। तम उद्घाटन(ने) प्रथम मृदुमात्रा पूर्वकाण्डस्य या मध्यमात्रा सा भूता। T264 रज उद्घाटनमात्रा मृदुरिति / ततः तृतीये काण्डे हादयो यणादेशाः / एकादशी ह, द्वादशी य, त्रयोदशी र, चतुर्दशी व, पूर्णमासी ल। नन्दा भद्रा जया रिक्ता पूर्णा आकाशवायुतेजउदकपृथिवीधातवः सत्व(त्त्व) उद्घाटनमृदुमात्रा। द्वितीयकाण्डे रजोमात्रा मध्यमा, प्रथमकाण्डे अधिमात्रा। - अस्याः पञ्चधा भेदः। एकादश्यां सत्त्वगुणभेदेन प्रथमप्रतिपत्कलाधिमात्रा बाला, द्वादश्यां कुमारी, त्रयोदश्यां युवती, चतुर्दश्यां वृद्धा, पञ्चदश्यां परिपाकं गता। एवं प्रतिपत्कला पञ्चदश्यां परिपक्वा पूर्णेत्यभिधीयते / एवं शक्लपक्षे [38a] चन्द्रकलावृद्धिः पञ्चदशभेदभिन्ना। तदन्ते कृष्णप्रतिपदादौ तमः प्रवेशकालः षोडशी कलेत्युच्यते, तस्यान्ते शुक्लप्रतिपत्कलायाः, कृष्णप्रतिपदि तमसि प्रवेशो भवति / द्वितीया 25 शुक्लकला परिपक्वा भवति, ततो द्वितीयायां द्वितीयापि तमसि प्रविशति; तृतीया परिपक्वा भवति / एवं कृष्णतृतीयायां सापि तमसि प्रविशति / एवं चतुर्थ्यादयः पञ्चदशीकलापर्यन्तं परिपक्वास्तमसि प्रविशन्ति / ततोऽमावास्यान्ते प्रथमकलोदयाभिसन्धौ षोडशांशोदयादिभागे राहुप्रवेशो भवति / एवं द्विधा ग्रहणं चन्द्रमसः, पूर्णिमायां 1. क. पुस्तके 'हानि' इति नास्ति; भो. पुस्तके तु अस्ति / 2. क. चेन्द्राः / 3. क. उद्घाटन / 4. क. ०दयादिग्भागे, भो. Cha bCu Drug pahi Dan pobi Cha La (षोडशांशादिभागे)। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु पूर्णकलान्तं ग्रसति, अमावास्यां (स्यायां) प्रथमकलोदयादि राहुरिति / अत्र कृष्णपक्षे संहारक्रमेण तमसः प्रवेशः पृथिव्यादिना / ततः सृष्टिक्रमोदितानां क्षयः / कृष्णप्रतिपदि पृथिवीतमसि शुक्लप्रतिपदाकाशधातुकलाप्रविष्टा तमसाच्छादिता भवति; द्वितीया वायुकला उदकतमसाच्छादिता भवति; तृतीया वह्निकला वह्नितमसाच्छादिता भवति; चतुर्थी उदककला वायुतमसाच्छादिता भवति; पञ्चमी पृथिवीकला आकाशधातुतमसाच्छादिता भवति / एवं प्रथमकाण्डे तमःप्रवेशमात्रा मृदुर्भवति / ततो द्वितीयकाण्डेऽप्युक्तक्रमेण तम आच्छादनक्रिया / तस्मिन् द्वितीयकाण्डे तमो मृदुमात्रा; पूर्वकाण्डे मध्यमात्रा / एवं तृतीयकाण्डेऽपि तम आच्छादन क्रिया। तस्मिन् काण्डे मदुमात्रा; द्वितीयकाण्डे मध्यमात्रा; तृतीयाधिमात्रा। तत्राधि10 मात्रायाः पञ्चधा भेदः। एकादश्यां बालः, तमोऽधिमात्राभेदेन; द्वादश्यां कुमारः; त्रयोदश्यां युवा; चतुर्दश्यां वृद्धः; अमावस्यां (वस्यायां) परिपक्वो भवति / एवं द्वितीयकाण्डे मध्यमात्रायाः;' तृतीयकाण्डे तमो मृदुमात्रायाः / ततः शुक्लप्रतिपदागमे पक्वतमसः पृथिवीधातुलक्षणस्यापश(स)रणं भवति / द्वितीयायामुदकतमसः, तृतीयायां वह्नितमसः, चतुर्थ्यां वायुतमसः, पञ्चम्यामाकाशधातुतमसः / एवं प्रथमकला मृदु[38b]15 मात्रा, पृथिवी पूर्णा पक्वा भवति; द्वितीया वृद्धा; तृतीया युवती; चतुर्थी कुमारी; पञ्चमी बाला; षष्ठयादयोऽस्तङ्गताः तिष्ठन्ति / एवं मद्रकाण्ड कलायां मदपाके न च तमःप्रवेशः स्यात, कृष्णपक्षे यावत् तृतीयाधिमात्रा पाक नागच्छतीति | आसां प्रत्येक पञ्चदशकलानां षोडशमे दिने अस्तङ्गतानामुदयः, उदितानां षोडशमे दिने अस्तङ्गमनम् / एवं चन्द्रकला आद्यास्त्रिंशत् स्वराः संज्ञाः कलाः शुक्लाः तमः20 प्रविष्टाः। कृष्णा उपचारेण संज्ञिन्यः। आसां स्वरा मन्त्रपदानि शुक्लकृष्णानां प्रतिपदा दीनाम् / अँ इँ ऋउँ लँ अँएँ अरओं अल् है य र व लँ। 15 / लाः वाः राः याः हाः आल्ः औः आर्ः ऐः आः लूः ऊः ऋः ईः आः / 15 / इति शुक्ले पक्षे चन्द्रो बिन्दुविभूषितः / पञ्चदशकलात्मा सूर्यः कृष्णपक्षे विसर्गभूषितः पञ्चदशकलाच्छादकः / ह्रस्वश्चन्द्रो दीर्घः सूर्यः / एवं गुणश्चन्द्रो वृद्धिः सूर्यः / पूर्ववत् हादय इति / काद्यान् वर्गान् समात्रांश्चरति दिनकरः शून्यषड्वह्निमानैरिति / इह ककारो येषां वर्गाणामादिस्ते ककारादयो वर्गाः। वर्गा इति पञ्चाक्षरसमूहः / पञ्चाकाशादिपृथिव्यादिभेदेन पठ्यते, स्वरसमूहः सर्वदाकाशादिभेदेन पठ्यते / अत्र प्रत्याहारो ज्ञापक सर्वत्र व्यञ्जनपाठे / अत्र शुद्धव्यञ्जनानि त्रिंशत्, यकारादीनि स्वरविकाराणि / अन्यत्र ककारादिना व्यञ्जनपाठन संगृहीतानि / आदिस्वरकाण्डे पठितानीति; तद्यथा30 अ इ ऋ उ ल क् / अ ए अर् ओ अल् च / ह य र व लडिति / ततो ङ अ ण म नन् / घ झ ढ भ धध् / ग ज ड ब दद् / ख छ ठ फ थथ् / क च ट प तत् / क श ष य 1-2. ङ. पुस्तके अत्र 'तमो मृदुमात्रायाः' इति पाठः; अतो परं 'तृतीयकाण्डे तमो मृदुमात्रायाः' इति पाठो नास्ति; किन्तु भो. पुस्तके अस्ति। 3. भो. Sel ba (अपाकरण)। 4. कलाद्या। 5. भो. पुस्तके '15' इति संख्या नास्ति / 6. भो. पुस्तके 15' इति संख्या नास्ति / Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुसंग्रहोद्देशः ससिति प्रथमान्तपाठात् / यकारादीनि ककारादिवर्गमध्ये न भवन्ति, संप्रसारणेन स्वरमित्वात्। तस्मात् त्रिशद व्यञ्जनात्मकाः कादयः षड़ वर्गाः क-च-ट-प-त-साः आकाशवायुतेजउदकपृथिवीज्ञानधातुस्वभावाः, कण्ठतालुमूर्धीष्ठदन्तोच्चारणवशादिति / षष्ठः प्रत्येकोच्चारणेन पञ्चधात्वात्मकः / [39a] तान् वर्गान् काद्यान् समात्रान् / मात्रा अकारादयः पञ्च ह्रस्वाः पञ्च दीर्घा दश मिलिता भवन्ति / ह्रस्वान्ते अनुस्वारमात्रा 5 षष्ठी, दोर्घान्ते विसर्गमात्रा षष्ठी, ते च व्यञ्जनस्वरसंयोगेनोच्चारणीये। ताभिर्मात्राभिर्युक्तान् समात्रानिति / चरति दिनकरः शून्यषड्वह्निमानैः, षष्ठ्युत्तरत्रिशतमानैरिति / तैः शून्यषड्वह्निमानैदशमासैरयनद्वयञ्च भवति / प्रत्येकेऽयने दक्षिणोत्तरे अशीत्युत्तरदिनशतं भवति / कर्कटादौ दक्षिणायने आकाशादिसृष्टिक्रमेण / षह्रस्वमात्रासहितान् षड्वर्गान् 10 षड्मासैः सूर्यश्चरति संक्रातिमासभेदेन / ततः पृथिव्यादिभेदेन उत्तरायणे दीर्घमात्रासहितान् षड्वर्गान् षड्मासैश्चरति / यत्र ह्रस्वमात्रासहितांश्चरति तत्र रात्रैर्वृद्धिर्भवति; यत्र दोघमात्रासहितांश्चरति तत्र दिनवृद्धिर्भवति / अत्र दक्षिणायनं चन्द्रः, उत्तरायणं सूर्यः। एकव्यञ्जनं चन्द्रः / संयुक्तव्यञ्जनद्वयं सूर्यः / व्यञ्जनत्रयसंयुक्त राहुरिति / एवं ह्रस्वस्वरश्चन्द्रः, दीर्घः सूर्य, प्लुतो राहुरिति सर्वत्र भवति / एवं राहोः प्लुतत्वात् 15 त्रिधा तमो मृदुमध्याधिमात्रात्मकमिति / अत्र कर्कटसंक्रान्तिदिने सृष्टिभेदेन कवर्गस्य ङकारं अकारसहितं चरति सूर्यः, द्वितीये ङि, तृतीये , चतुर्थे कु, पञ्चमे ङ्ग, षष्ठे हुँ / एवं सप्तमदिनादिं कृत्वा द्वादशदिनान्तं धकारं चरति, यथा डकारं विचचार / एवमष्टादशदिनपर्यन्तं गकारं समात्र चरति; चतुर्विंशतिदिनं यावत् खकारं चरति / एवं त्रिंशद्दिनानि यावत् ककारं समानं चरति / शून्यदिने क्वचिदनाहतम् / एवं सिंह- 20 संक्रान्तिमासदिनैस्त्रिशद्भित्रकारादीन् समात्रांश्चरति / कन्यासंक्रान्तिदिनैः णकारादीन् समात्रांश्चरति / तुलासंक्रान्तिदिनैर्मकारादीन् समात्रांश्चरति / वृश्चिकसंक्रान्तिदिनैनकारादीन् समात्रांश्चरति / धनुसंक्रान्तिदिनैः कादीन् समात्रान् व्यञ्जनानि चरति / एवं दक्षिणायने षड्मासदिनैः षड्वर्गान् समात्रानशीत्युत्तरशतसंख्या[39b]श्चरति, चन्द्रस्वभावेन रात्रिवृद्धिभेदेनेति / ततः उत्तरायणभेदो विलोमेन सकारादिना 25 उच्यते / मकरादिसंक्रान्तिमासदिनभेदेन सूर्यः षड्वर्गान् समात्रांश्चरति, संहारक्रमेण दीर्घमात्रासहितान् वर्गानिति / अत्र मकरसंक्रान्तिदिने स्साः समानं चरति, द्वितीये स्सल मात्रांस्तृतीये स्सू, चतुर्थे स्स, पञ्चमे स्सी, षष्ठे स्सा। एवमपरषड् दिनः / आः न्या. यू. य श्री या एवं ष तथा श | एवं 1. उ. पुस्तके 'षड्' इति नास्ति / Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु इति मकरसंक्रान्तिदिनैस्त्रिशद्भिः सवर्गः समात्रं चरति / एवं कुम्भमीनमेषवृषभमिथुनसंक्रान्तिदिनस्तवर्ग, पवर्ग, टवर्ग, चवर्ग, कवर्ग चरति समात्रम् अशोत्युत्तरशतदिनैरिति कर्कटसंक्रान्ति यावद्दिवावृद्धिः। दिवावृद्धेः सूर्यः संहाररूपेण वेदितव्य इति / अत्र रात्रिदिवावृद्धिस्वभावाक्षराणि; तद्यथा-रात्रिवृद्धिः ङ ङि 1 ङ ङ्ल ऊँ, घ घि घृ घु घ्ल घं, ग गि गृ गु ग्ल गं, ख खि खु खु ख्ल खं, क कि कृ कु क्लू के इति ककटे वृद्धिः / नि त्रु ल , झ झि झु झु इलू झं, ज जि जृ जु ज्ल जं, छ छि छु छु छल छं, च चि चु चु च्ल चं इति सिंहवृद्धिः। ण णि ण णु फ्लू णं, ढ ढि ढ ढ ढल ढं, ड डि डु डु डल डं, ठठितृ ठु ठल ठं, ट टि टू टु ल टं इति कन्यावृद्धिः। म मि मृ मुम्ल में, भ भि भृ भु भ्लू भं, ब बि बृ बुब्लू बं, फ फि फु फू फ्लू 10 फं, प पि पृ पु प्ल पं इति तुलावृद्धिः। न नि नृ नु न्ट नं, धघि धृ धु ध्लू धं, द दि दृ दु द्ल दं, थ थि थू थु थ्ल थं, त ति तृ तु त्ल तं इति वृश्चिकवृद्धिः / 8888 88 क कि कृ कुक्ल क, शशि शृ शु श्ल शं, ष षि षषु ष्ल षं, य य य युप्लु , .. स सि स सुस्लृ सं इति धनुसंक्रान्ती गर्वृद्धि, दिनक्षयः षट्मासदिनैरिति / ततो मकरादिना दिवावृद्धिः / स्साः स्स्ल स्सू स्स स्सी स्सा, * आः न्या. या अ यो या षाः ष्ष्ल ष्षू पृ ष्षी ष्षा, श्शाः श्श्ल श्शू श्श श्शी श्शा, इति मकरे वृद्धिः। ताः लू तू तृ ती ता, थ्थाः थ्थ्ल थ्थू थ्य थ्थी थ्था, द्दाः द्दल 6 6 द्दी दा, धाः ल [40a] धू धू ध्धी ध्धा, 20 नाः न्ल न्नू न्न न्नी न्ना [इति] कुम्भे वृद्धिः / प्पाः प्प्ल प्पू प्प प्पी प्पा, फ्फाः फ्फ्ल फ्फू पफ फ्फो फ्फा, ,ब्बाः ब्ब्ल ब्बू ब्ब ब्बी ब्बा, भ्भाः भ्भल भ्भू भू भ्भी भ्भा, म्माः म्म्ल म्मू म्म म्मी म्मा इति मीने वृद्धिः / ट्टाः दल दृट्टा, ठाः ठूल ठ ठ ठी ठा, ड्डाः ड्डुल ड. ड. ड्डी ड्डा, द्वाः ठूल टू इट्ठी ढा, ण्णाः ल ण्णू ण्ण ण्णी ण्णा इति मेषे वृद्धिः। च्चाः च्च्ल च्चू च्च च्ची 25 च्चा, छ्छाः छ्छल छ्छू छ्छ् छ्छी छ्छा, ज्जाः ज्ज्ल ज्जू ज्ज ज्जी ज्जा, इझाः इइल झ्झू इस इझी इझा, ञाः ल यू ञी ञा इति वृषे वृद्धिः / क्काः क्क्ल क्कू क्कृ क्की क्का, रूखाः क्ष ख्खू ख्ख खी ख्खा, ग्गाः ग्ल ग्गू ग्गग्गी ग्गा, घाः घ्ल Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] लोकधातुसंग्रहोद्देशः घ्घू घृ घ्धी घा, डाः ङ्ङ्ल फू ङ् ङ्ङी ङ्ङा इति मिथुने दिवावृद्धिः; षड्मासं यावदन्ते हानिरिति / एवं दक्षिणायने ह्रस्वस्वरसंयुक्त व्यञ्जनमुभयं चन्द्रलक्षणम्, उत्तरायणे संयुक्त व्यञ्जनद्वयं दीर्घस्वरसंयक्तम उभयसर्यलक्षणं भवति / एकव्यञ्जनं दीर्घस्वरसंयक्तं चन्द्रसूर्यात्मकं भवति / एवं संयुक्तम् व्यञ्जनद्वयं ह्रस्वस्वरसंयुक्तं सूर्यचन्द्रात्मकं भवति / 5 एवं स्वरव्यञ्जनभेदेन चन्द्रो द्विधा, सूर्यो द्विधा / तथा गुणवृद्धिसंयुक्तं व्यञ्जनं वेदितव्यम् / इत्ययनभेदेन सूर्यस्य चरणमात्राभेदतः / अपरो मात्राभेदः / आकाशादिपश्चमण्डलप्रवाहेन षष्टयुत्तर(त्रिशत)भेदभिन्नो वक्ष्यमाणे वक्तव्य इति, अस्योद्देशस्तन्त्रराजे मायाजाले भगवतोक्तः प्रत्यवेक्षणास्तवे "सर्वबुद्धमहाचित्तः सर्वबुद्धमनोगतिः / सर्वबुद्धमहाकायः सर्वबुद्धसरस्वतिः (ती) / वज्रसूर्यो महालोको वजेन्दुविमलप्रभः / विरागादिमहारागो विश्ववर्णोज्ज्वलप्रभः" / / इति / (ना० स० 8 / 32, 33) अनुरागः पञ्चमी दशमी पूर्णिमा शुक्लपक्षे; विरागः पञ्चमी दशमी अमावास्या कृष्णपक्षे। अनयोयोर्मध्ये त्रिपूर्णावसाने विरमान्ते महाशून्यं पञ्चाक्षरमेकलोलीभूतं 15 योगं तथागतानां हृदयम् / अतः सर्वबुद्धमहाचित्तश्चन्द्रः षोडशकलान्ते महाशून्यम् / सर्वबुद्धमनोगतिरमावस्यान्ते प्रथमकलोदयाभिसन्धौ सूर्य[40b]स्तमः, षोडशान्ते बिन्दुशन्यः षडक्षर इति / एवं सर्वबुद्धमहाकायो महाशून्यः सर्वबुद्धसरस्वति(तो) बिन्दुशून्य इति / वज्रसूर्यो महालोको बिन्दुशून्यः षडक्षरः; वजेन्दुविमलप्रभः; पञ्चाक्षरो महाशून्य इति प्रज्ञोपायधर्मो वक्ष्यमाणे विस्तरेण वक्तव्यः। अनक्षरो 20 मन्त्रयोनिमहामन्त्रकुलत्रयो विस्तरेणेति / - इदानीं प्रतिदिनरात्रिदिवानाड्य उच्यन्ते। हाद्यामात्राश्च नाड्य इति / हाद्याश्च ते मात्राश्च हाद्यामात्राः। चकाराद् व्यञ्जनानि; एते द्वादशमात्रासहिताः षष्टिमात्रा भवन्ति, तत्र ह्रस्वमात्रायुक्ता मध्याह्नादर्द्धरात्रं यावत् / रात्रिवृद्धौ त्रिंशन्मात्रात्मका भवन्ति / अर्द्धरात्रान्मध्याह्न' यावदीर्घमात्रायुक्ताः त्रिशद्दिवावृद्धौ भवन्ति / एवं 25 प्रतिदिने रात्रिदिवावृद्धिर्वेदितव्या। अत्र मन्त्रपदानि सृष्टिक्रमेण रात्रिवृद्धौ, संहारक्रमेण दिवावृद्धौ; तद्यथा-ह हि ह हु हल हं, य यि य यु यल यं / र रि ऋरु रल 22, व वि वृ वु वलु वं, ल लि लु लु लल लं इति रात्रिः प्रज्ञाभावभेदेनेति, कायभेदेनोपायः / ल्लाः ल्ल्ल ल्लू ल्ल ल्ली ल्ला, व्वाः व्वल ब्बू व्य व्वी व्वा, राः रूल रू र् री रा', य्याः य्य्ल य्यू य्य य्यी य्या, ह हाः ह ह ल ह ह हह ह ही ह हा इति दिवा, उपायो 30 भावभेदेन, कायभेदेन (च) प्रज्ञा / प्रज्ञाभावोत्पन्नत्वात् शुक्र चन्द्रः प्रज्ञा, उपायकायसम्भू 1. क. ऑ। 2. क. लं। 3-4 क. पुस्तके अत्र 'त्राः लः त्रू त्र त्री त्रा'; ख. पुस्तके अत्र 'च्चाः च्च च्चू चल च्ची च्चा ! Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 64 T 266 विमलप्रभायां [ लोकधातुतत्वात् उपाय इति / एवमुपायभावसम्भूतत्वाद् रजः सूर्य उपायः / प्रज्ञाकायसम्भूतत्वात् प्रज्ञा / एवं सर्वत्रानुगन्तव्य इति / इदानीं स्थावरजङ्गमत्रधातुकस्य मन्त्रा उच्यन्ते-सुरनरफणिनो भूतयोनिश्च मन्त्रा इति / सुराः कामरूपारूपाः / असुराश्च तदन्तर्वतिनः। नराः फणिनश्च प्रसिद्धा अनन्तादयः। भूतयोनिश्चतुर्विधा पूर्वोक्ता। स्थावरयोनिर्मेरुवृक्षादयः। सर्वे ते मन्त्रा भवन्ति; मन्त्रसंज्ञया संज्ञिता इति / अत्र त्रैधातुके यस्य यन्नाम तस्य तन्मन्त्रं साधनाय संकेतकं भवति / आद्यक्षरं ज्ञानबीजं भवति, समस्तं नाम' जापमन्त्रो भवति / विश्वार्थसाधनाय अनन्तमन्त्रा अनन्तसत्त्वनामभेदेनावगन्तव्याः। यथा नाम्न आद्यक्षरेण राशिः [41a] शुभाशुभफलार्थं सर्वनामाक्षरैरपि हीनमात्राधिको योऽधः / तथा प्रथमाक्षरेण सर्वनाम्ना च भावनाजापकार्यसिद्धिरिति; प्रतीत्यसमुत्पादे भ्रान्तिर्नास्ति / अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः स्वचित्तपरिणामाद्भवतीति / इत्यादौ कादियुक्ते आदौ अकारादौ स्वरसमूहे कादियुक्त ककारादिव्यञ्जनयुक्त भवति खलु नृपामन्त्रणम्, उत्पत्तिः, एवमनेनोक्तक्रमेण विधातोः कामरूपारूपधातोः / इति चन्द्र कलादिविश्वमन्त्रसंग्रहोद्देशः / (च) स्वराणां जन्मस्थाननिर्देशः इदानी स्वराणां जन्मस्थानादिसंग्रहवृत्तं नवमं विवृणोमि जन्मस्थानमित्यादिनाजन्मस्थानं स्वराणां कचटतपयुतां कादिसंयोजितानां कण्ठे तालज़भागे खपवनहविजे चौष्ठदन्तेऽम्बुभूम्योः / आदेरुष्णीषचक्र हृदि गलशिरसो नाभिचक्र च गुह्ये विश्वे कृष्णे च रक्ते शशिकनकनिभे स्कन्धधात्वादिदेवे // 9 // जन्मस्थानं स्वराणां कचटतपयुतां का विसंयोजितानामिति / इह स्वराः पूर्वोक्ता अकारादयः अ इ ऋ उ लु पञ्च / एषां जन्मस्थानं पञ्चधा यथासंख्यम् / किंभूतानाम् ? कचटतपयुतानां कादिसंयोजितानामिति / यथासंख्यं ककारादिवर्ग"संयोजिता 1. भो. Mii mThah dag / 2. ख. ०धिका०; भो. gYul hGyed (युद्धं, युद्धकरणं वा) 3. भो. पुस्तके 'तप' इत्यस्य स्थाने 'पत' इति पाठः / 4. ङ. पुस्तके अस्मिन् प्रसङ्गे यत्र यत्र 'कादि' लिखितम्, अथ वा 'क' बीजाक्षरं लिखितं तत्र रिक्तस्थानं दृश्यते; भो. पाठे 'क' इति दृश्यते / 5. क. वर्ण / Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः नामिति / कादि प्रत्येकाक्षरयोजितानां क श ष य स संयोजितानामिति / आदिग्रहणात् हयवरलसहितानामिति / तथा चाह-अकुहविसर्जनीयाः कण्ठयाः, इचुयशास्तालव्याः, ऋटुरषा मूर्त्याः, उपूपोपध्मानीया ओष्ठ्याः, लुतुलसा दन्त्या इति, जन्मस्थानं कण्ठे तालूप्रभागे' ख-पवन-हविजे स्थाने / ओष्ठे दन्ते अम्बुभूम्योर्जन्मस्थाने, जन्माकारादीनां यथासंख्यं जन्मेति तत्स्थानेषुच्चारितानां शब्दार्थ प्रतिपत्तिरिति, अत्र' [41b] 5 शब्दार्थप्रतिपत्तिरिति / अत्र मन्त्रजापविधिनिमित्तं जन्मस्थानं वेदितव्यम् / __ अपरं भावनास्थानार्थं काये चक्रभेदेनोच्यते-आरुष्णीषचक्रे हृदि गलशिरसो नाभिचक्रे क्रमेण / आदेरिति अकारादेः स्वरस्य यथासंख्यमाकाशादिजातिभेदेन, यथासंख्यमुष्णीषादिचक्रभावनार्थं जन्मस्थानं वेदितव्यम् / अत्रोष्णीषचक्रे अकुहविसर्जनीया भाव्याः / इचुयशा हृच्चक्रे'; ऋटुरषाः कण्ठचक्रे; उपूपध्मानीया ललाटचक्रे; 10 लुतुलसा नाभिचक्रे भावनीया इति / विश्वे विश्ववर्णे हरिते उष्णीषचक्रे, कृष्णे हृचक्रे, रक्त कण्ठचक्रे, शशिवर्णे ललाटचक्रे कनकनिभे नाभिचक्रे। स्कन्धधात्वादिदैवे यथासंख्यं विज्ञानस्कन्धाकाशधात्वादिदेब्रे उष्णीषचक्रे, संस्कारवायुधात्वादिदेवे हृच्चक्रे / एवं वेदनातेजोधात्वादिदेवे कण्ठचक्रे, संज्ञा उदकधात्वादिदैवे ललाटच, रूपपृथिवीधात्वादिदैवे नाभिचक्रे इति 15 स्कन्धधात्वादिदेवे वक्ष्यमाणे अङ्गन्यासादिकं वेदितव्यम् / इति स्वराणां जन्मस्थाननिर्देशः। इति श्रीपरमादिबुद्धोद्धृतश्रीकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहस्रिकायां विमलप्रभायां लोकधातुसंग्रहोद्देशः सप्तमः // 7 // 20 (8) लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः इदानीं सत्त्वाशयवशेन लोकधातुमानं भगवतोक्तम्, परमादिबुद्धात् मञ्जश्रिया सङ्गीतिकारकेण दशमादिवृत्तैः सङ्गीतम् , तदेव वितनोमीति वाय्व[42a]न्तान् मेरुसीम्न इति वाय्वन्तान् मेरुसीम्नो नरकफणिपुरं योजनानां द्विलक्षं मेरोर्लक्षं प्रमाणं ग्रहगणनिलयात् पञ्चविंशत्सहस्रम् / ग्रीवा पञ्चाशदास्यं ध्रुवपदमचलं पञ्चविंशत् तथैव तद् बाह्य शून्यमेकं त्रिभुवनरहितं निर्गुणं तत्त्वहीनम् // 10 // 1. ख., ङ. पुस्तकयोः अत्र 'किंभूते' इति अधिकः; भो. पुस्तके Ji Tar Gyur Pa Se Na (किं भूयते इति चेत् ) / 2. ख.०थे / 3-4. ख. ऊ. पुस्तकयोः अयमंशो नास्नि / 5. क. हृच्चन्द्रे / Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 6 विमलप्रभायां [ लोकधातुवाय्वन्तान् मेरुसीम्नो नरकफणिपुरं योजनानां द्विलक्षमिति / इह लोकसंवत्या नानाधिमुक्तिसत्त्वाशयवसेन मानं सत्त्वादीनां' देशितं प्रतिभासते लोकधातोः / परमार्थतो मानोन्मानं लोकधातोर्न सम्भवति, सत्त्वानां पुण्यपापवशादिति / इह यस्यां गुहायां पञ्चहस्तप्रमाणायां वीतरागो बोधिसत्त्वो वावसति, तस्यां गुहायां तस्य पुण्यज्ञानभाजनस्य 5 प्रभावेन ऋद्धिबलेन ससैन्यचक्रवर्ती आगतः प्रविशति, न च सा केनचिद् विस्तारिता, न च तस्यां गुहायां प्रविष्टस्य चक्रवत्तिससैन्यस्य संकीर्णता भवति; एवं लोकधातुमानमपि परमार्थतो वेदितव्यम् / अत्र यल्लोकधातुमानं, तद्यथा “बाह्ये तथा देहे" [का० त० 1 / 2] इति वचनात्, "लोकधातुमानं लोकधातुमण्डलार्थ कायधातुमानं कायमण्डलार्थं काय मण्डलमित्युक्तम्" इति वचनात् / यथा बाह्य मेरुलौकिकमानेन लक्षयोजनोच्छ्रयः, तथा 10 शरीरकङ्कालं हस्तमेकमुच्छ्रयं तेन हस्तमानेन कायश्चतुर्हस्तः। मेरोर्लक्षयोजनमानेन लोकधातुश्चतुर्लक्षं भवति, अन्यथा “यथा बाह्ये तथा देहे" न भवति, वैषम्यात् / एवं लोकधातुमानं संवृत्या यथा तथा भवतु, अत्र प्रतिज्ञा न स्याद् भगवतः “तापाच्छेदाद्" (द्र०, तत्त्व०, 3587) इत्याद्या / किं च प्रतिज्ञा पुण्यज्ञानसम्भारविषये / यतो लोकधातुमानविषये कोशमतं नानाविधं वेदसिद्धान्ताभिप्रायेण,एकं ब्रह्माण्डकोटियोजनाया(म)मिति' मषावचनात् / सूर्यरथादीनां परिपाचनाय तद्ब्रह्माण्डमानविध्वंसनार्थं ग्रहगणितराशिगोलायुक्त्या लोकधातुमानं प्रतिष्ठापितम् / अतोऽत्र माने बौद्धकोशं (अ०को०,को०३) दृष्ट्वा भ्रान्तिरियं न कर्तव्या। यथा भगवता लोकधातोर्मानं षट्त्रिंशल्लक्षमधिकमुक्तम्, कथं लोकधातोश्चतुर्लक्षयोजनमानम् ? अत्र किं भगवान् मृषावादीति कस्यचिन्मतं भवति, तद्वचनं पण्डितैर्न मन्तव्यम्, सत्त्वाशयवशेनेति / तथा चाहT267 , "नानाधिमुक्तिकाः सत्त्वा नानासिद्धान्तवेदकाः। , 20 नानामार्गसमारूढा ज्ञाना[42b]हङ्कारमानिनः॥ तेषां स्वपरसिद्धान्तं यावद्युक्त्या न दर्श्यते / तावत् तेन वशं यान्ति सर्वज्ञस्यापि मानिनः // सत्त्वोपकारतोऽसत्यं पुण्यसम्भारहेतुकम् / परापकारतः सत्यमवीच्यादिप्रदायकम् // गृहावासमदातारः प्रेताः पश्यन्ति पर्वतम् / सूच्यग्रं पर्वताकारं भवनं पापकारिणः // सच्छिद्रां सुदृढां भूमिं सिद्धाः पश्यन्ति सर्वतः / पातालसिद्धिमापन्ना अप्सरः(सः) पुरगामिनः" / 30 अतो लोकधातुमानं सत्त्वानां स्वचित्तवासनावशेन तथागतेनोक्तं प्रतिभाष(स)ते / न च कश्चित् तथागतोऽभिनिवेशेन लोकधातुं दृष्ट्वा ग्राह्यग्राहकरूपेण वस्तुमानं कथयति / एवं सर्व परिज्ञाय ऋषीणां परिपाचनार्थं लोकधातुमानं कायमण्डलार्थ भगवतोक्तमिति / 1. ख. ङ. सत्त्वानां / 2. ख. ङ. न्याममिति / Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 67 पटले ] लोकघातुमानसंग्रहोद्देशः इह वाय्वन्तान्मेरुसीम्नः पृथ्वीतोयतेजोमण्डलानाम् / अधो वायुमण्डलमाकाशधाताववस्थितम् / तस्माद् वाय्वन्तान्मेरु यावत् सप्त नरकाणि, अष्टमं फणिपुरमिति / नरकफणिपुरं योजनानां द्विलक्षं भवति / अत्र वायुमण्डलं पञ्चाशत्सहस्रं भवति / तस्मिन् महाखरवाते महान्धकारे नरकद्वयं पञ्चविंशत् पञ्चविंशत् सहस्रयोजनविभागमध ऊर्ध्वं तिर्यग्मानेन पृथिवीवलयप्रमाणम् / एवमग्निवलये नरकद्वयम् ; अग्निनरकमेकम्, तदुपरि 5 तीव्रधूम्रनरकम् / तथोदकवलये नरकद्वयम ; पङ्काम्भः पङ्कोदकसंयुक्तं वालुकाभ्भो' वालुकोदकसंयुक्तं महाशीतम् / पृथ्वीवलये शर्कराम्भो नरकः पञ्चविंशत्सहस्रयोजनम् / तदुपरि फणिपुरं पञ्चविंशतिसहस्रयोजनमध ऊर्ध(ध्व)म् / तदेव मानं द्विधा-अर्द्ध असुरभुवनम्, अर्द्ध नागभुवनमिति / एवं शरीरे पादतलात् कटिं यावत् हस्तद्वयम् / तदेव हस्तद्वयं अष्टविभागं कृत्वा एकैकभागे यथाक्रमेण नरकफणिपुराणि वेदितव्यानीति। 10 मेरोर्लक्षं प्रमाणम् / तस्माद् भूमण्डलात् मेरोरध ऊर्ध्वमानं लक्षयोजनमिति / शरीरं हस्तमेकं कट्याः कण्ठाधो यावत् , तत्रैव ग्रहगणं(णो) भ्रमति / तस्माद् ग्रहगणनिलयात् पञ्च[43a[विंशत्सहस्रम / ग्रीवा मेरोः / शरीरे षडङ्गुलम् / ततः पञ्चाशदास्य मुख मेरोः ग्रोवाया ललाटान्तं यावत् शरीरे द्वादशाङ्गुलमिति / तस्माद् ध्रुवपदमचलमुष्णीषं पञ्चविंशत्सहस्रमिति / शरीरेषडङ्गलमानं ललाटाच्छिखा- 15 स्थानं यावदिति / तद् बाह्य शून्यमेकं त्रिभु वनरहितं निर्गुणं तत्त्वहीनं तदिति / अधो वातमण्डलोोष्णीषयोर्बाह्य शून्यमेकं प्रत्येकपरमाणुरूपं धातुरूपारूपादिकं शून्यमिति / नाकाशं सर्वव्यापकमित्येकशून्येनावगन्तव्यम् / एवं चतुर्लक्षलोकधातोर्मानम् / शरीरे चतुर्हस्तम् / हस्तोऽपि चतुर्विशत्यङ्गुलात्मक इति / इदानी तिर्यग्मानमिहोच्यतेवाय्वन्वाद्वायुसीम्नः स्थिरधरणितले द्वीपशैलाः समुद्राश्चत्वार्यद्धं द्विलक्षं शिखिचलवलयं योजनानां द्विलक्षम / मध्ये मेरोर्यदूज़ भ्रमति दिननिशं राशिचक्र सतारं षड्भागे द्विद्विलक्षं त्रिमुवनसकलं कालयोगात् प्रजातम् // 11 // वाय्वन्ताद् वायुसीम्न : चत्वारि लक्षाणि वायोर्वाय्वन्तं पूर्वादपरवायुवलयान्तं 25 यावत् / एवं दक्षिणादुत्तरान्तं यावदिति / स्थिरधरणितले द्वीपशैलाः समुद्रा इति / ततो वायुमण्डलाभ्यन्तरे वह्निमण्डलं वलयाकारम्; एवं अग्निवलयमध्ये तोयवलयम्, तोयवलयमध्ये पृथ्वीवलयम्, तदेव स्थिरं धरणितलम्, तस्मिन् षड् द्वीपाः षट् शैलाः, षट् समुद्राः। सप्तमेनोदकवलयेन सहिताः सप्त समुद्राः, सप्तमेन जम्बूद्वीपेन सहिताः सप्त द्वीपाः, वज्रपर्वतेन सार्द्ध सप्त पर्वताः / वज्रपर्वतो वाडवाग्निः / क्षारसमुद्रः तोयवलयान्ते 30 अधस्त तिर्यविभागेन स्थितः पृथ्वी महाजम्बूद्वीपान्ते सर्वदिक्षु अधसि(श्च)[43b] क्षारसमुद्रोऽवस्थितः / लवणसमुद्रान्ताल्लवणसमुद्रम् / 1. ख. वायु०। 2. क. ख. अधसि / 3. ख. समुद्रान्तं / Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु 15 ___ अखं चतुर्लक्षाणाम् / चत्वार्य द्विलक्षमिति। मेरोर्मध्यात् सव्याव(प)सव्ये क्षारसमुद्रवलयान्तम् / द्विलक्षं सव्येनैकलक्षं अव(प)सव्येनैकलक्षम् / एवं पूर्वापरं वायव्याग्नेयम्; त्रैऋत्येशानम् / शिखिचलवलयं योजनानां द्विलक्षमिति / तस्मात् क्षारोदकवलयात् सव्याव(प)सव्ये शिखिवायुवलयं द्विलक्षं भवति, सव्येनैकलक्षम्, अव(प)सव्येनैकलक्षम्, उत्तरेण लक्षमेकमेवं सर्वदिक्षु / मध्ये मेरुयंदूर्ध्व भ्रमति दिननिशं राशिचक्रं सतारमिति / मध्ये मेरुः, किंभूतः / स यस्योर्ध्वं राशिचक्रं द्वादशारं अनन्तताराशशिसहितं सतारं दिवानिशं भ्रमतीति; अत्र केयं वाचो युक्तिः, किमपरोऽपि मेरुरस्ति, येनेदं वाक्यमित्युच्यते? अत्र मन्दारो'ऽपि मेरुसंज्ञया गृहीतः, तेन मन्दारपृथक्करणाय इयं वाचो युक्तिरिति / षड्भागे द्विद्विलक्षमिति / इहोतक्रमेण अधसि(अध) ऊर्ध्वं पूर्वपश्चिमे दक्षिणोत्तरे षड्भागे पृथिवीवलयमध्यात् द्विद्विलक्षं त्रिभुवनसकलं स्वर्गमयंपातालभुवनं त्रिभुवनं सकलं कालयोगात् प्रजातम्, संवतॊत्पत्तिकालवशात्; सन्धारणमन्थानसंस्थान- .. वायुकालसंयोगाज्जातं सत्त्वानां शुभाशुभकर्मफलोपभोगार्थमिति / इदानीं वृत्तमानमिहोच्यते--- तिर्यगमानस्य वृत्तं त्रिगुणमपि भवेल्लोकधातोः समन्ताद भूमेर्वृत्तं त्रिलक्षं / जलशिखिमरुतां षड्नवार्कक्रमेण / यद बाह्य लक्षमेकं त्रिभुवननिलये योजनानां नरेन्द्र तद्देहे हस्तमेकं क्षितितलनिलये स्वस्वमानेन सम्यक् // 12 // तिर्यगमानस्य वृत्तं त्रिगुणमपि भवेल्लोकधातोः समन्तादिति / इह लोकधातोः 20 सर्वत्र तिर्यग्मानस्य वृत्तमानं त्रिगुणं भवति स[44a]र्वेषां मेर्वादिवायुवलयान्तानां द्वीप शैलसमुद्रादीनामिति / भूमेवृत्तं त्रिलक्षं भूमेभूमिवलयस्य तिर्यग्मानमेकलक्षं वृत्तमानं त्रिलक्षं भवति / एवं जलशिखिमरुतामिति / जलशिखिमरुतवलयानां स्वस्ववलयान्तात् स्वस्ववलयान्तं यावत् द्विलक्षं त्रिलक्षं तिर्यग्मानम् / वृत्तमानं षड्नवार्कक्रमेणेति / षड्लक्षमुदकवलयस्य नवलक्षं अग्निवलयस्य अर्कद्वादशलक्षं वायुवलयस्य क्रमेण वेदितव्य25 मिति / यद् बाह्ये लक्षमेकं त्रिभुवननिलये योजनानां नरेन्द्र / तद्देहे हस्तमेकं क्षिति तलनिलये स्वस्वमानेन सम्यगिति / यद् बाह्य लोकधातौ लक्षमेकं योजनानां तत् स्वशरीरे स्वहस्तेन चैकहस्तमानं भवतीति पूर्वोक्तक्रमेणेति / इदानीं परमाण्वादिना योजनमुच्यते सूक्ष्मैरित्यादिनासूक्ष्मैरष्टाभिरेको ह्यणुरिदमणुभिः सूक्ष्मबालाग्रमेभी राजी-यूका-यवैश्चाङ्गुल-मुरग-यवैरङ्गुलेरर्कयुग्मैः / हस्तो हस्तैश्चतुभिर्द्धनुरिह धनुषा स्यात् सहस्रद्वयेन क्रोशः क्रोशैश्चतुर्भिदिवि भुवि गगने योजनं तेन मानम् // 13 // १.क. ख. मन्दिरो; भो०. Mandras 1268 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः सूक्ष्मैरष्टाभिरेको हणुरिति / इह सूक्ष्मैरष्टभिः परमाणुभिः पंक्त्या स्थितैरेकोऽणुरिति अणुमानं भवति / एभिर्बालानं मनुष्याणामणुभिरष्टभिर्भवति / एभिर्बालाग्रेरष्टभिः पंक्त्या स्थितं राजीमानम्' / ताभि'कामानम्, ताभिर्यवमानम्; तैरुरगयवैरटभिरङगुलं भवति / अङगुलरर्कयरमैरिति / अर्को द्वादश, यग्मं द्विधा. चविंशतिरिति. चतुर्विंशत्यङ्गुलैः पंक्त्या स्थितैर्हस्तमानं भवति; तैश्चतुभिधनुर्भवति / इह धनुषा स्यात् 5 सहस्रद्वयेन क्रोशो भवति; तैश्चतुभिर्योजनं भवति / तेन योजनेन दिविमानं देवाभुविमानं मनुष्यादीनाम्, गगने मानं चन्द्रार्कादीनां भ्रमणार्थमिति [44b] / इदानीमरूपभवाह्य (ो)कत्रिंशद् भवा उच्यन्तेआदौ सौधर्मकल्पं युगयुगयुगलं ब्रह्मलोकोत्तरं च श्रीकल्पं श्वेतकल्पं * सुवसितभुवनात् काममेकादशं च / चत्वारश्चाद्यरूपा हमिथुनरहिता षोडशा यादिरूपा हाद्या लान्ताश्च कामाः प्रकटदशविधा व्यञ्जनान्येककः सः (षः)॥१४॥ आदौ सौधर्मकल्पमिति / आदौ प्रथमं सौधर्मशब्देन अरूपभवमुच्यते; कल्पमिति यस्मिन् कल्पायुर्देवा वसन्ति, तत् स्थानं सौधर्मकल्पमिति स्वर्गभूमिः / युगयुगयुगलमिति। युगं द्वौ, तयोयुगलं चत्वारः; युगयुगयुगलमरूपभवस्थानं चतुर्विधमित्यर्थः; एकं 15 महाकल्पं द्वौ त्रयश्चत्वारः कल्पमायुरित्यभिप्रायः / मेरोरुष्णीषाधः केशस्थानं शून्यकृत्स्नं चतुर्विधं भावितानामिति / एवं युगयुगयुगलं ललाटस्थानं ब्रह्मकल्पं वायुकृत्स्नं चतुर्विधं भावितानामिति / एवं ब्रह्मलोकोत्तरं युगयुगयुगलं नासिकास्थानं चतुर्विधमग्निकृत्स्नं भावितानामिति। . .. एवं श्रीकल्पं युगयुगयुगलं नासिकाधः चिबुकान्तमुदककृत्स्नं चतुर्विधं भाविता- 20 नाम् / एवं श्वेतकल्पं कण्ठस्थानं युगयुगयुगलं पृथिवीकृत्स्नं चतुर्विधं भावितानामिति / एवं षोडशरूपिणां षोडशकल्पाः, षोडशकल्पमारभ्य एककल्पं यावदायुरिति / ततः अवशिष्टद्वयङ्गुलात् कण्ठादध आरभ्य यावदधो वायुवलयान्तमेकादश कामभवाः; सुवसितभुवनात् काममेकादशमित्युच्यते / काममेकादशभेदभिन्नमित्यर्थश्चत्वारश्चाद्यरूपा हमिथुनरहिता इति / इहा- 25 रूपादीनां बीजाक्षराणि अकारादयः स्वराश्चत्वारः: तेच हकारद्रयरहिताः। षटशन्यासं(शं)कया वचनमिति, षोडशा यादिरूपा इति / इह इकार आदिर्येषां षोडशस्वराणां ते यादय इत्युच्यन्ते, षोडशा यादिरूपा इति / हाद्या लान्ताश्च कामाःप्रकटदशविधाः हकार-आदि लकारान्तो[45a] एषां दशस्वरविकाराणां ते हाद्या लान्ताः कामा दशविधा भवन्ति, प्रकट(टा) विद्यमाना 30 1. ङ. राज०। 2. क. कल्प०; भो०. mGrin Pa (कण्ठ)। 3-4. भो०. पुस्तके नास्ति; ख. पुस्तके तु 'ततः' इति नास्ति / Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुआगमे उक्ताः। व्यञ्जनान्येककः ष' इति / व्यञ्जनानि ककारादीनि समस्तानि प्रत्याहारेण संगृहीतानि / एकवर्णः कः षो भवति, कषोः संयोगः क्षकार इति / स च एकादशमः कामभव इति / एकत्रिंशद्भवैश्च त्रिभव इह भवेद धातुभेदास्त्रिधातु- . . रेतद् वज्रत्रयं स्यात् त्रिभुवनसकलं चादि-कादिप्रभेदात् / रत्नाभाच्छर्कराम्भो निगदितनरको वालुकाम्भो द्वितीयः पङ्काम्भस्तीव्रधूमो हविरपि च तमो रौरवः सप्तमश्च / / 15 / / एकत्रिंशदभवैश्च त्रिभव इह भवेदिति / एभिरकारादिभिरेकत्रिंशद्भवैस्त्रिभवः, कामभवो रूपभवोऽरूपभवो[भव] 'मि(इ)ति / अत्रेकत्रिंशद् भवा इति अरूपादयः 10 नैवसंज्ञानासंज्ञायतनोपगाः, आकिञ्चन्यायतनोपगाः, विज्ञानानन्त्यायतनोपगाः, आका शानन्त्यायतनोपगाः इत्यरूपाश्चत्वारः। अकनिष्ठादयः षोडश रूपाः-अकनिष्ठाः, सुदर्शनाः, अतपाः, अबृहाः, बृहत्फलाः, पुण्यप्रसवाः, अनभ्राः,शुभकृत्स्नाः , अप्रमाणशुभाः, परीत्तशुभाः, आभास्वराः, अप्रमाणाभाः, परीत्ताभाः, महाब्रह्माणः, ब्रह्मपुरोहिताः, ब्रह्म कायिका इति षोडश रूपाः / परनिर्मितवशवादयः एकादश कामा इति / अत्र पर15 निर्मितवशवर्तिनः-निर्माणरतयः, तुषिताः, यामाः, त्रायस्त्रिशाः, चातुर्महाराजकायिका इतिषट् कामावचरा देवाः अधमकल्पाः षट्पञ्चचतुस्तिद्वयेककल्पायुष्मन्त इति / अत्रासुरास्तदन्तत्तिनः मनुष्याः तिर्यञ्चः प्रेता नारका इति पञ्च कामभवाः। एवमेकत्रिंशद् भवाः / ए[45b]षामकारादयः स्वराः संज्ञामन्त्राः यथासंख्यमरूपादीनामुक्रक्रमेणेति; 50 तद्यथा-अ आ अं अः इत्यरूपाकाशकृत्स्नाः , इ ई ए ऐ इति वायुकृत्स्नाः , ऋ ऋ अर् आर् (इत्य)ग्निकृत्स्नाः , उ ऊ ओ औ इत्युदककृत्स्नाः , ल ल अल् आल् इति पृथिवीकृत्स्नाः , इति शीलबलेन षोडश रूपाः। वाय्वादिकृत्स्नं समाधिबलेन अकनिष्ठादिका बभूवुः / ह हा य या र रा इति षट् कामावचराः दानबलेन मन्त्रजापबलेन बभूवुः / व वा असुरा मनुष्या दानबलेन, मनुष्या शुभाशुभकर्मबलेन बभूवुः; ल ला तिर्यञ्चप्रेताः तिर्यञ्चाधमपापेन ,प्रेता मध्यमपापेन, क्षकारेण नारका उत्तमपापेन बभूवुः। प्रथमनागलोके पुण्यबलेन, प्रथमनरके पापबलेन अधमकल्पायुषः, द्वितीयतृतीयनरके मध्यमकल्पायुषः, चतुर्थपञ्चमनरके उत्कृष्टकल्पायुषः, षष्ठसप्तनरकेषु महाकल्पायुष इति; अष्टमे नरके लोकधातूपसंहारायुषः। इत्येवमेकत्रिंशद्भवैस्त्रिभव इत्यर्थः / धातुभेदा स्त्रिधातुरिति / एतद् वज्रत्रयं स्यात् कायवाञ्चित्तमिति / त्रिभुवनसकलं स्वर्गमर्त्यपातालम्, आदि-कादिप्रभेदादिति ज्ञातव्यम् / 1. क. ख. ङ. भो. पुस्तकेषु अत्र अग्रे च दन्त्यसकार एव लिखितः; किन्तु यतो हि मूर्धन्यषकारसंयोगेनेव क्षकारो भवति, अतः दन्त्यस्थाने मूर्धन्यो गृहीतः / 2. ख. पुस्तके नास्ति / 3. क. ख. पुस्तकयोरागतः / 4. क. ०वशेन / 5. ख. ०धम-अपायेन / 6. क. भवा / Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले]. . लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः अधमकल्पमानं योजनमेकमायामव्यायामेन गन्तुम् ; तच्च बालाप्रैः सूक्ष्मैः परिपूर्ण वर्षशतेन एकैकबालाग्रमुद्धार्यमाणं यदा रिक्तं भवति, तदा अधमकल्पैकदिनम्, तेन त्रिंशद्दिनेन मासः, द्वादशमासैर्वर्षम्, वर्षशतेन कल्प इत्युच्यते / एवं तस्य वर्गोऽधमकल्पश - गुणनं मध्यमकल्पः, मध्यमकल्पवर्गेण उत्कृष्टकल्प इति / एवं नरकादिदुःखं सत्त्वानां कल्पा(न)नेकसंख्यं पापवशाद् भवति; पुण्यवशात् स्वर्गादिकं सौख्यं कल्पा(न)नेकं भवति 5 देवानामिति / इदानीं नागभवनादीनां संज्ञोच्यते / तत्र नास्ति नाम्नि विवाद(:) तीथिकादिभि(ः) इति / रत्नाभात् शर्करा'म्भो निगदितनरक इति / इह रत्नैर्यस्मिन्नावासे आभाः, स आवासो रत्नाभः; तस्मादसुरनाग[46a]लोकात् पञ्चविंशत्सहस्रादधो T269 योजनमानम्; तस्मात् रत्नाभात् शर्कराम्भो निगदितो नरकः कथित इत्यर्थः / बालुकाम्भो 10 नाम द्वितीयः पङ्काम्भस्तृतीय इति शीतनरकद्वयम्; ततस्तोवधूम्रनरकश्चतुर्थो हविरपि पञ्चम इति उष्णनरकद्वयम्; ततोऽधस्तमः षष्ठः रौरवो महातमः सप्तमः खर-वातनरकद्वयं वज्रार्चिःसहितम् / चकारादष्टमो वज्रसूच्यग्रभूमागः सदा प्रज्वलित इति अष्टौ महानरकाः पाताले। क्षारो मद्याम्बुदुग्धा दधिघृतमधुराः सागराः सप्त शैला(जलाश्च) 15 नीलाभो मन्दराद्रिनिषध मणिकरो द्रोणसीताद्रिवज्राः / द्वीपं चन्द्रं सिताभं वरपरमकुशं किन्नरं भोगभूमी क्रौञ्चं रौद्रं च जम्बूनिवसति मनुजः सप्तमं कर्मभूमौ // 16 // क्षारो मद्याम्बुद्धा दधिघतमधुराः सागरा सप्त इति / क्षारो भूमिवलयबाह्ये, मद्यादयो भूम्यपरि, शैलाः सप्त-नीलाभो मन्दराद्रिनिषधमणिकरो द्रोण- 20 शीताद्रिवज्राः। वज्रः क्षारोदधिबाह्ये हिमवदादयो मद्यादेः प्रत्येकसमुद्रस्य प्रत्येक कुलपर्वता बाह्य उदकालिबन्धवत् / द्वीपं चन्द्रं सिताभं वरपरमकुशं किन्नरं भोगभूमौ / क्रौञ्चं रौद्रं च जम्बूनिवसति मनुजः सप्तमं कर्मभूमौ / सप्तमं महाजम्बूद्वीपं वलयाकारं लक्षयोजनायामं त्रिलक्षं वत्तेन यस्मिन्निवसति मनुजस्तत कर्मभमौ वेदितव्यम, षट्भोग भूम्यामिति / जम्बूद्वीपं क्षारोदधितटात्, शेषाणि मद्यादितटेभ्य इति / [46b] इदानीं महाजम्बूद्वीपे चतुर्तीपाण्युच्यन्तेपूर्व वाय्वर्द्धवृत्तं भवति नरपते दक्षिणेऽग्निस्त्रिकोणं पूर्णेन्दुश्चोत्तरेऽम्ब्वोर्वरकनकमहेः पश्चिमे चाकि(ब्धि)कोणम् / शून्याकारः सुमेरुर्वरकुलिशमयो मध्यतो . मण्डलानां शैला नागा ग्रहा दिग् भवति भुवितलं योजनानां सहस्रम् // 17 // 30 1. क. ख. सर्करा० / 2. क. ख. ग. ट. भो. पुस्तकेषु अत्र 'निषच' इति पाठः; किन्तु कोशानुसारं 'निषध' इति पाठः समीचीनः / 3. ङ. °भाग / 25 Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुपूर्व वायवर्धवृत्तम् / पूर्वे वायुमण्डलस्वभावेन वृत्तमर्द्धचन्द्राकारम्, दक्षिणे अग्निमण्डलस्वभावेन त्रिकोणम्, उत्तरे अम्बुमण्डलस्वभावेन वृत्तम्, अर्द्धचन्द्राकारम्, पश्चिमे पृथिवीमण्डलस्वभावेन चतुरस्रं त्रि(अब्धि)कोणमिति / मध्ये मेरुः सूर्य (शून्य) मण्डलस्वभावेन बिन्द्वाकारो वरकुलिशमयो मध्यतो मण्डलानामिति / पूर्व' दक्षिण5 पश्चिमोत्तराणां मध्ये मेरुरिति / शैला नागा ग्रहा दिग् भवति भुवितलं योजनानां सहस्रमिति / एषां चतुर्णा मण्डलानां योजनमानं यथासंख्यं भुवितलं शैला इति सप्तसहस्रम्, नागा इत्यष्टसहस्रम्, ग्रहा इति नवसहस्रम्, दिगिति दशसहस्रयोजनमानं चतुर्तीपाणां यथाक्रमेणेति / इ[ह] यदत्र(र्द्ध)पूर्ववृत्तं पश्चिमं चतुरस्रम्, तत् स्व शरीरस्वभावेन पूर्वापरं वायुपृथिवीस्वभावं 10 वामदक्षिणं शरीरे तोयाग्निस्वभावमिति / अतश्चतुर्मण्डलाकारेण चतुर्दीपाणां लक्षणमिति / इदानीं मेर्वादीनां विस्तारमानमुच्यतेमेरोविस्तारमूर्ख क्षितितलनिलये योजनानां सहस्रं / पञ्चाशत् षोडशेकं प्रवरभुवितले चक्रवाडस्य सम्यक् / 15 ऊर्ने शृङ्गानि पञ्च क्षितितलनिलये सनदिक्चक्रवार्ड . तद्बाह्य द्वीपशैलास्व(स्त्व)पि जलनिधयः सर्गदिग्वह्नि वायू(युः) // 18 // मेरोविस्तारमूवं पूर्वापरमुत्तरदक्षिणभागं यावत् पञ्चाशत्सहस्र क्षितितलनिलये विस्तारः, षोडशसहस्रमेक सहस्र४ चक्रवाडस्य सम्यगायामः / ऊर्वे शृडानि 20 पञ्च क्षितितलनिलये निमग्नानि, सर्वदिक्चक्रवाडञ्च / तद्बाह्ये द्वीपशैला इति / तस्य चक्रवाडस्य बाह्ये चतुःशृङ्गाभ्यन्तरे रन्ध्रस्थाने षट् द्वि(द्वी)पानि, षट् समुद्राः, षट् पर्वताः; तेषु हिमाद्रिः सशृङ्ग इति सप्तमं जम्बूद्वीपम्, तस्य बाह्ये क्षारोदधिवलयम्, सर्वतो वह्निवलयं वायुवलयमिति / सर्वैकैकं सहस्रं षडपि जलधयश्चन्द्रचन्द्रेकहीना 25 द्वीपान्येवं सहस्रं वल(र)कुलगिरयः पञ्चविंशत् (ति)सहस्रम् / जम्बूद्वीपं विशालं लवणजलनिधेरद्धलक्षं प्रमाणं तद्वद् वह्नश्च वायोस्त्रिभुवनधरणस्यान्तिमस्य प्रमाणम् / / 19 / / [47a] सर्वैकैकं सहस्र षडपि जलधयः चन्द्रचन्द्रकहीनाः। एकाधिकशतेनोनं सहस्रं प्रत्येकसमुद्रो भवतीत्यर्थः। द्वीपान्येवं षट् वरकुलगिरयः / षडेवम् / एषामष्टादशानां 30 तुल्यमानं द्वीपसमुद्रशैलानाम् / तदेव सूक्ष्मत्वेन षोडशसहस्रेभ्योऽष्टादशभागलब्धं स्फुटं 1. क. पूर्वे / 2. क. पुस्तके नास्ति / 6-4. ख, पुस्तके 'एकसहस्र' इति नास्ति / Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः भवति। चन्द्रचन्द्रेकहीनमिति स्थूलमानं संक्षेपत उक्तम्। अत्र मेरोर्मध्ये ब्रह्मस्थानादधोभागे सर्वदिक्ष योजनाष्टसहस्रं चक्रवाडस्यैकं भवति, नवसहस्रयोजनानां बाह्ये षोडशसहस्रयोजनानां यावत् षट्वीपादयः स्थिताः। अतोऽष्टादशभागलब्धं षोडशसहस्रेभ्यो मानं स्फुटं भवतीति / तद्बाह्य पञ्चविंशत् (ति)सहस्र जम्बूद्वीपं विशालं वलयाकारं मेरोरष्टदिक्षु; तद्बाह्ये लवणजलनिधेरद्धलक्षं प्रमाणं भवति सर्वदिक्षु / तद्वदग्निवलयस्य वायुवलयस्य त्रिभुवनधरणस्यान्तिमस्य प्रमाणमिति / एवं मेरोर्ब्रह्मस्थानात् सर्वदिक्षु द्वि-द्विलक्षं योजनमानं भवति; शरीरे उरोरद्धं पृथ्वीवलयम्; बाहुरुदकवलयमुपबाहुरग्निवलयं मणिबन्धात् करान्तं वायुवलयम् / एवं लोकधातुमानमिति / इदानीं कालचक्रदेवनागपीठोपपीठादीनां' स्थानमुच्यते ब्रह्माण्डे कालचक्रमित्यादिना 10 ब्रह्माण्डे कालचक्र जिनवरसहितं संस्तुतं देववृन्दैमेरौ गीर्वाणचक्र त्ववनितलगतं पञ्चवर्णं ह्यहीनाम् / श्रीमेरोः सर्वदिक्षु क्षितिवलयगतं सर्वपीठोपपीठं क्षेत्र छन्दोहमेलापकचितिभुवनं वह्निवाय्वन्तसीम्नः // 20 // ब्रह्माण्डे बाह्ये शरीरे, उष्णीषमणौ कालचक्रः तमेव संस्तुतं जिनवरसहितं 15 सर्वबुद्धः सहितं समाजमेकलोलीभूतं देववृन्दैर्बोधिसत्त्वैब्रह्मादिभिः संस्तुतमिति / मेरौ गीर्वाणचक्रं ब्रह्मादीनामिति / अवनितलगतं पञ्चवर्ण [47b] ह्यहीनां चक्रमिति / श्रीमेरोः सर्वविक्षु क्षितिवलयगतं सर्वपोठोपपोठमिति / पोठं चतुर्दिक्षु वाय्वग्न्युदकपृथ्वीस्वभावेनावस्थितं पूर्वविदेहम्, लघुजम्बूद्वीपम्, उत्तरकुरुः, अपरगोदानीयमिति / उपपीठं तत्स्वभावेन चतुर्दिक्षु, आग्नेयनैऋत्यईशानवायव्यदिक्षु / एवं क्षेत्रोपक्षेत्रं समु- 20 द्राद्धि(ढे)। छन्दोहोपछन्दोहं समुद्रस्यापरा? / मेलापकोपमेलापकमग्निवलया? / वेश्मोपवेश्ममग्नेरपरार्द्ध / श्मशानोपश्मशानं वायुवलया। अष्टौ महाश्मशानानि वायुवलयान्ते / एवं पीठादयो द्वादशभूमयो वेदितव्या इति / शरीरे च द्वादशभूमयो हस्तपादयोदिशसन्धय इति / इदानीं दिक्पालस्थानमुच्यतेपूर्व शक्रोऽग्निरग्नौ यमदनुवरुणा याम्यदैत्यापरेषु वायुर्यक्षो हरश्चानिलधनदहरेषूर्व भागे त्वधश्च / ब्रह्मा विष्णुः समस्ताः परिजनसहिताः स्वस्वदिग्रक्षपाला स्तन्मध्ये कालचक्रो जिनवरजनकोऽनाहतो वज्रकायः // 21 // . पूर्वे शक्र इति पूर्वे शको मेरो नि, पूर्वे दिशि शक्रः / अग्नावग्निः / यमो 30 याम्ये, दनुर्दैत्ये, वरुणोऽपरे, वायुरनिले, यक्षो धनदे, हरो हरे, ऊर्श्वभागे ब्रह्मा, अधो 1. क.०पीठानां / 2. क. ख. ङ. चतुर्विदिक्षु / 25 Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 लोकधातु 70 विमलप्रभायां विष्णुः / एते शक्रादयः समस्ताः परिजनसहिताः स्वस्वदिग्रक्षपाला इति / तेषां मध्ये कालचक्रो जिनानां जनकोऽनाहतो वनकायो दिक्पालानां प्रभुरित्यर्थः / [48a] इदानीं महाचक्रवत्तिभ्रमणं द्वादशभूमिखण्डेषूच्यते मेरोः' पृष्ठेष्वित्यादि मेरोः पृष्ठेषु दिक्षु भ्रमति भुवितले दुर्जयो दानवानां यस्मिन् धर्मो विनष्टो वहति कलियुगं तत्र तत्र प्रयाति / हत्वा म्लेच्छांश्च युद्धे विचरति पुरतः स्थापयित्वा स्वधर्मे कृत्त्रेताद्वापरं वै कलियुगमपरं वर्तते कालयोगात् // 22 // मेरोः पृष्ठेषु विक्षु भ्रमति भुवितले दुर्जयो दानवानां म्लेच्छानां यस्मिन् 10 भूखण्डे तथागतधर्मो विनष्टस्तेषां विपर्यासधर्मो वर्तते, तस्मिन् भूमितले भ्रमतिं चक्री कलियुगे स एवाधर्मप्रवृत्तिः, कलियुगं वहतीत्यर्थः / तदेवाधर्मात्मकं कलियुगम् / यत्र यत्र म्लेच्छधर्म वहति खण्डे, तत्र तत्रैव खण्डं प्रकर्षेण याति प्रयातीति / हत्वा' म्लेच्छांश्चकाराद् दानवादींश्च युद्ध विचरति पुरतः स्थापयित्वा स्वधर्मे; तान् म्लेच्छादीन् कृत्त्रेताद्वापरं वै कलियुगमपरं वर्तते कालयोगात् / अत्र युगं कृदयुगादिकमपरं महाकृयुगादिकं न भवतीत्यर्थः / एतद् युगं कालयोगाद् वर्तते / कालो द्वादशराशिचक्रम् , तस्य योगात् कालयोगाद् वर्तते चतुःसन्ध्याभेदेनेति / यस्मिन् खण्डे स चक्री प्रविशति बलवान् कृयुगं तत्र याति त्रेता पृष्ठे च राज्ञः कलिरपि पुरतो द्वापरञ्च द्विमध्ये / विंशत्येकं सहस्रं रसशतसहितं वर्षमानं युगानाम् एकैकस्य प्रमाणं युगशरगुणितं मानवाब्दे शतं यत् // 23 // यस्मिन् खण्डे स चक्री प्रविशति बलवान् कृदयुगं तत्र याति; कृयुगं नाम सम्यक्सम्बुद्धधर्म यातीत्यर्थः / त्रेता पृष्ठे च राज्ञस्त्रेता पृष्ठे राज्ञो भवति, धर्मस्यैकपादाभावः कृदन्ते त्रेतान्ते द्विपादाभावः; कलिरपि पुरतो राज्ञो धर्मस्य चतुःपादाभावः कल्पान्ते / द्वापरं च द्विमध्ये इति / कलित्रेतयोर्मध्ये द्वापरं धर्मस्य त्रिपादाभाव इति / विशत्येकं सहस्र रसशतसहितम् / रस इति षट्पट्शताधिकैकविंशत्सहस्रं वर्षमान युगानां चतुर्णां मानं तद् भवति / एकैकस्य प्रमाणं [48b] युगशरगुणितमिति / युग इति चत्वारः, शर इति पञ्च, तैः चतुःपञ्चाशद्भिर्गुणितं युगशरगुणितमिति / मानवाब्दे शतं यदिति / वर्षशतं गुणितं चतुःशताधिकं सहस्रपञ्चकं भवति, प्रत्येकयुगमानं तुल्यमिति / 1-2. ख. पुस्तके नास्ति / 3. क. पस्तके 'तत्र' इति अधिकः / 4. ख. हविनीत / Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] लोकधातुमानसंग्रहोद्देशः इदानीं मनुष्यतनुजादीनां स्वस्वश्वासमानमुच्यते सूक्ष्मोच्छ्वासघ्रनाडीदिनयुगसहस्रकैकविंशच्छतैश्च षभिर्मानं क्रमेण त्वणुतनुजनृणां भूतदेवासुराणाम् / शक्तेभ दिनैकं वहति भुवितले शक्तिमानं युगानां खण्डे खण्डे च चक्री व्रजति शिवपदं द्वादशार्का दिनके // 24 // 5 सूक्ष्मोच्छ्वासेत्यादि / सूक्ष्म इति मनुष्यश्वासनिःश्वासस्य एकस्य षट्शताधिकएकविंशतसहस्रभतस्य एकांशः सूक्ष्मश्वासः, तेन श्वासषट्केन तनुजादीना काम दीनामेकं पाणी(णि)पलम्, षष्टिभिः पाणिपलैः घटीघटीभिः षष्टिभिदिनमिति / दिनं नाम तनुजादीनां षट्शताधिक-एकविंशत्सहस्रश्वासनिःश्वाससंख्या, तैरुच्छ्वासैर्गतैर्नराणां स्वदिनं भूतप्रेतानां ध्रुभिः स्वदिनं ध्रुरिति / मनुष्यश्वासस्य त्रिंशद्गुणः श्वासः कृष्ण- 10 पक्षो दिवा, शुक्लपक्षो रात्रिः; प्रेतानां पितॄणां स्वदिनमिति / नाडीभिर्मनुष्याणां षष्टयुत्तरत्रिशतश्वासो देवानामेकश्वासः / दिर्नामति मनुष्याणां षट्शताधिक-एकविंशत्सहस्रश्वासाः, असुराणामेकश्वासः। ध्रुरिति मनुष्याणां वर्षः। शक्तेरेकश्वासः शक्तिरित्यकनिष्ठजातिः। युग इति मनुष्याणां षट्शताधिक-एकविंशत्सहस्रवर्षपिण्डितं भर्तुरेकश्वासः। भर्तुरिति नैवसंज्ञायतनोपगजातेरिति / सूक्ष्मोच्छ्वासध्रुनाडोदिन[5]युगसहस्रक-[49a] विशच्छतेश्च षड्भिर्मानं क्रमेण त्वणुतनुजनृणां भूतदेवासुराणां शक्तेर्भर्तुदिकम् / एवं पूर्वोक्तक्रमेण एषां तनुजादीनां स्वकीयस्वकीयश्वासैः षट्शताधिक-एकविंशत्सहस्रदिनं भवति / ___एषु मानेषु शक्तिमानमकनिष्ठदेवमानं वहति भुवितले चक्रिणो युगानां शक्तिमानमिति / खण्डे खण्डे च चक्री व्रजति शिवपदम् / प्रत्येकखण्डे बुद्धधर्मं प्रवत्तयित्वा 20 व्रजति महासुखपदं महासुखस्थानमिति / द्वादशार्का दिनैके / एवं प्रत्येकैकखण्डे प्रत्येकैकचक्रवर्ती धर्मप्रवर्तकः / एकदिने द्वादश चक्रवत्तिनो भवन्ति ; अष्टादशाष्टादशशतैः शक्तिश्वासैः मनुष्याणां वर्षेरेकैको व्रजति / एवं द्वादशार्का धर्मदिवाकराः पुण्यज्ञानमार्गप्रवर्तका इति / बाह्ये वर्षेण द्वादशराशिभेदेन द्वादशार्का व्रजन्तीति / इदानी सूक्ष्मादोनां श्वासभेदेन प्रत्येकदिने कालभेद उच्यतेपक्षा मासाः समस्ता ऋतुयुगसमया अग्निकालोऽयने द्वे वर्ष राजन् समस्तं त्वनुदिनघटिकालग्नपाणीपलानि / एतान्येवं व्रजन्ति त्वनुतनुजनृणां भूमिदेवासुराणां शक्तेभर्तुदिनैके त्रिभुवननिलये देहमध्ये तथैव // 25 / / पक्षा इत्यादि / इह प्रत्येकदिने तनुजादीनां चतुर्विंशतिः पक्षाः। मासाः समस्ता 30 इति द्वादश मासाः / ऋतवः षट् / युगसमयाश्चत्वारः। अग्निकाल इति त्रयः कालाः। अयनौ (ने) द्वौ (द्वे) वर्ष राजन समस्तमिति एतत सर्व वर्षभेदेन ज्ञातव्यम् / तथा अनुदिनं षष्टयुत्तरत्रिशतदिनं घटिकालग्नपाणी(णि)पलानि; विंशत्युत्तरत्रिशता Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायों [ लोकधातुधिकचत्वारिसहस्राणि लग्नानि, घटिका षट्शताधिकैकविंशत्सहस्रसं[49b]ख्याः, पाणी(णि)पलानि षण्णवतिसहस्राधिकद्वादशलक्षाणीति / एतान्येवं व्रजन्ति प्रत्येकदिने तनुजादीनामेतानि वर्षाङ्गानि श्वासभेदेन व्रजन्ति / तत्रैकपक्षो नवशतैः श्वासैवजन्ति(ति)। चतुर्विंशतिपक्षैदिनं वर्षं व्रजति / अष्टादशशत5 श्वासैर्मासो द्वादशमासैदिनं वर्ष व्रजति / षट्त्रिंशद्भिः श्वासशतैः ऋतुः, षट्ऋतुभिर्दिनं वर्ष व्रजति / चतुःपञ्चाशत्श्वासशतैर्युगं व्रजति / चतुर्युगैदिनं वर्ष व्रजति / द्वासप्ततिश्वासशतैरेककालो व्रजति / त्रिकालैदिनं वर्षं व्रजति / अष्टशताधिकदशसहस्रः श्वासै. रयनं व्रजति / अयनाभ्यां दिनं वर्षं व्रजति / एवं षोडशशताधिकविंशतिसहस्रश्वासैः स्वस्वमानैः प्रत्येकदिनं वर्ष व्रजति तनुजादीनामिति / एवं षष्टिश्वासैरहोरात्रं व्रजति / 10 षष्टयुत्तरत्रिशताहोरात्रैदिनं वर्ष व्रजति / पञ्चश्वासैर्लग्नं व्रजति / विंशत्यधिकत्रिचत्वा रिंशत्लग्नशतैदिनं वर्ष व्रजति / एकश्वासो घटिकां व्रजति / एकश्वासस्य षष्टि संख्या पाणी(णि)पलं व्रजति / श्वासस्य षष्टयुत्तरत्रिशतांशः श्वासो व्रजति / २[श्वासस्य षोडशशताधिकैकविंशत्सहस्रांशः श्वासो व्रजति]। एकविंशत्सहस्रषट्शताधिक घटिकाभिर्दिनं वर्ष भवति / षण्णवतिसहस्राधिकद्वादशलक्षपाणी(णि)पलैदिनं वर्ष 15 व्रजति / षट्सप्ततिसहस्राधिकसप्तसप्ततिलक्षश्वासैदिनं वर्ष व्रजति / एवं षट्सप्ततिलक्षाधिकसप्तसप्ततिकोटिश्वासैदिनशतं (वर्षशतं ) व्रजति / ___ असौ कर्मवशात् परमायुरूनमधिको ( - ) भवति / स्वस्वमानैर्योगिनां योगबलेन तपस्विनां समाधिबलेनाधिको भवति / एकश्वासो घटिकां व्रजति / पापसत्त्वानां पापबलेन हीनो भवति / अस्य परमागमयुक्त्या नियमो नास्ति; किन्तु वेदेषूक्तम्20 "शतायुर्वैपुरुषः शतेन्द्रियः" (ऐ० ब्रा० 2 / 17 / 4 / 19) इति / अत्र प्रपञ्चवचनमिदम् मनुष्याणां वर्षशतं परमायुरिति, कृद्युगे नराणामायुर्वृद्धिवशादिति / अत्र नीतार्थेन प्रतिदिनं प्रतिवर्ष पुरुषशब्देनोच्यते; दिनशतेन वर्षशतेनाध्यात्मनि बाह्य / पुनरेवान्यश्वासचक्रवर्त्तनतः "शतायुर्वै पुरुषः शतेन्द्रियः" इति / एवं द्विशतदिनैश्चतुर्युगा[50a)नि व्रजन्त्याध्यात्मनि; विंशत्सहस्राधिकत्रिचत्वारिंशल्लक्षैः श्वासैर्बाह्ये वर्षेरिति / एवमुभयचक्रपरिवर्तनेनोभयपुरुषयोरायुर्मासद्वयमेक ऋतुरिति वामदक्षिणे दशमण्डलानि / प्राणप्रवाहो मण्डलमेकं द्वात्रिंशत्सहस्राधिकचतुर्वर्षलक्षः। एवं पञ्चमण्डलैः सर्वग्रहाः स्वस्वजन्मस्थाने शून्ये विशति(न्ति) / ततः पुनरेवान्यचरणप्रवृत्त्या अपरपुरुषो मध्यमाया विनिर्गत इति वक्ष्यमाणे वक्तव्यमिति / श्रीपरमादिबुद्धोद्धृतश्रीकालचक्रतन्त्रराजे द्वादशसाहस्रिके विमलप्रभाटीकायां लोकधातुमानसंग्रहोद्देशोऽष्टमः // 8 // T271 1. क. षट् / 2-3. ख. ङ पुस्तकयोः कोष्ठकेऽयमधिकः अंशो लिखितः। अयमंशो भो. पुस्तकेऽपि नास्ति / 4. अत्र भो. पुस्तके 'Lo brGyar (वर्षशतं)' इति अधिकः पाठः / 5-6. ऐतरेयब्राह्मणे एवमागतम्-"शतायुर्वे पुरुषः शतवीर्यः ...." / . Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] ज्योतिनिविधिमहोद्देशः 77 (9) ज्योतिनिविधिमहोद्देशः इदानीं सम्भलविषये मञ्जुश्रिय उत्पादनं म्लेच्छधर्मोत्पादात् ज्योतिषसिद्धान्तविनाशः लघुकरणप्रवृत्तिः तथागतव्याकरणमाद्यान्दादित्यादिना वितनोमीति आद्याब्दात् षट्शताब्दैः प्रकट (टे) यशनृपः सम्भलाख्ये भविष्यत् तस्मान्नागैः शताब्दैः खलु मखविषये म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिः / तस्मिन् काले धरण्यां स्फुटलघुकरणं मानवर्वेदितव्यं सिद्धान्तानां विनाशः सकलभुवितले कालयोगेऽभविष्यत् // 26 // आद्याब्दात् षट्शताब्दैः प्रकट(टे) यशनपः सम्भलाख्ये भविष्यदिति / आद्येति धर्मदेशनावर्ष तथागतस्य; तस्माद् वर्षात् ' षट्शताब्दैः शीतानद्युत्तरे सम्भलनाम्नि विषये; यश इत्यागमपाठः; महायशा मञ्जुश्रीः प्रकटो भविष्यति, निर्माणकायग्रहणं करिष्यतीत्यर्थः। 10 तस्मानागैः शताब्दैरिति / तस्मात् यशसो निर्वृतात् | नागैरित्यष्टवर्षशतैः / खल्विति निश्चितम्, मखविषये म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिर्भविष्यति / शोतादक्षिणे मखविषये कोटिग्रामविभूषिते म्लेच्छानां तायि(जिका)नामसुरधर्मप्रवृत्तिर्भविष्यति / तस्मिन् म्लेच्छाले धरण्यां स्फुट(ट) लघुकरणं मानवैर्वेदितव्यम् / सिद्धान्तानां विनाश इति / सिद्धान्त(न्तो) ब्रह्म सौरं यम(व)नकं रोमकमिति, एषां चतुर्णां विनाशं 15 सिद्धान्तानां विनाशः / सकलभुवितल इति / सकल इति यत्र तीथिकसिद्धान्ता वर्तन्ते'; तत्र सकलं भुवितलं शीतादक्षिणम्, तस्मिन् भुवितले; न सम्भलादिविषयेषु बौद्धसिद्धान्तस्य विनाश इति / कालयोगे भविष्यदिति। काल: म्लेच्छधर्मः, तेन सिद्धान्तानां योगः कालयोगः, तस्मात् कालयोगाद् भविष्यति'; कालयोग इति पञ्चम्यर्थे सप्तमी। अतः सिद्धान्तविनाशाल्लघुकरणं स्फूटमिति मातमोदकवचनम्, तीथिकानां परमार्थतो 20 न स्फुटं लघुकरणादिकम् / कुतः ? सिद्धान्तानां विनाश इति कटाक्षवचनात् / यदि करणादिकं स्फुटम्, तदा सिद्धान्तानां विनाशाभावः करणेऽपि ग्रहसिद्धितः / न च" करणान्तरे सूर्यशुद्धिर्दृश्यते उत्तरायणदिने छायया परीक्षमाणया। उत्तरायणे छायाशुद्ध्या विना सूर्यभोगोऽशुद्धः, सूर्यभोगादशुद्धाच्चन्द्रभोगोऽशुद्धः। एवं मङ्गलादयोऽपि सूर्ये शोधिताः सन्तः सूर्यभोगाशुद्धत्वात् तेषामपि भोगोऽशुद्ध एव / ग्रहभोगाशुद्धत्वाज्जातका- 2 दीनां ग्रहफलं निरर्थकं तीथिकानामिति / इह सिद्धान्ते ग्रहाणां शुद्धक्षेपकाः स्त्रीबालसाध्यास्तैर्ग्रहाः क्षिप्रं प्रज्ञायन्ते बालजनादिभिः, तेन ईर्ष्या कलौ जाता दुष्टतीथिकानाम्; यदि सर्वे स्त्रीबालादयो ग्रहसंचारं ज्ञास्यन्ति, तदाऽस्माकं को गौरवं करिष्यति ? तस्मात् 1. क. वर्षात्र / 2-3. अत्र भोटानुवादे चत्वारः सिद्धान्ताः 'ब्रह्मदेववादिनः, सूर्यदेववादिनः, अचेलकाः (शैवाः), राहुदेववादिनः' इति लिखितम्-gCer Bu Pa Dan sGra Can | 4. क. निवर्तन्ते, भो. वर्तते (Sugs Pa) / 5. क. भविष्यतः भो, hByun Bar hGur Ro (भविष्यति)। 6-7. क. नव / 8. क. एवं / Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 विमलप्रभायां [लोकधातुसिद्धान्तमपहृत्य तन्त्रकरणादिकं कुर्मः', इत्यालोच्य सिद्धान्तानि(न्ताः) गुप्तकृतानि(कृताः), तन्त्रकरणादिकं प्रकटितम् / तन्त्रेऽनेकाहर्गणराशिः, करणेऽपि मन्दशीघ्रं कर्मचतुष्टयं(इति) प्रपञ्च (:) कृतम् (कृतः), येन बालजनाविषमं दृष्ट्वा दूरं पलायन्ति, ज्योतिष(ष) नाम न कर्वन्ति / एवं कालवशात करणे ध्रवकंन स्फटम, अस्फटत्वात सर्यभोगोऽशद्धः, सर्य5 भोगाशुद्धि[51a]तः सर्वग्रहभोगोऽशुद्धोऽभूदिति / इह परेषामज्ञानहेतोर्यत् करणादिकं रचितं दुष्टतोथिकैस्तदेव कालवशात् तेषामपरिज्ञानं जातं परापकारत इति / अतः परापकारः सर्वत्र विरुद्ध इति / इह ग्रहाणां प्रतिदिनभोगक्षेपका वक्ष्यमाणे वक्तव्या इति / इदानीं लघुकरणं तावदुच्यते वह्नौ खेऽब्धौ विमिश्रं प्रभवमुखगतं म्लेच्छवर्ष प्रसिद्धम् 10 ऊनं म्लेच्छेन्द्रवर्ष करफणिशशिना शेषमहितं च / मिश्रं चैत्रादिमासेरधरयुगहतं खाग्निचन्द्रविभक्तं लब्धं मूनि प्रविष्ट भवति नरपते मासपिण्ड विशुद्धम् // 27 // वह नौ खेऽब्धौ विमिश्रमिति / इह ध्रुवकोऽनित्यस्तन्त्रराजे षष्टिसंवत्सरान्ते पुनधुंवकरणादिति / इह तथागतकालात् षड्वर्षशतैमञ्जुश्रीकालः करणे ध्रुवः। तस्मा15 दष्टशतवर्षेः म्लेच्छकालः; तस्मात् म्लेच्छकालात् द्वयशोत्यधिकशतेन होनो अजकल्को कालो येनाजेन लघुकरणं विशोधितम् / स एव कालः करणे ध्रुवकं भवति म्लेच्छवर्षादिति / प्रभवमुखगतमिति / प्रभवो मुखमादिर्येषां षष्टिसंवत्सराणां ते प्रभवमुखाः, तेषु प्रत्येकवर्तमानवर्षस्य पूर्ववर्ष प्रभवमुखगतमिति / तन्मित्रं श्यधिकचतुःशतवर्ष राशी म्लेच्छवर्ष प्रसिद्धं भवति / एकवर्षमादिं कृत्वा यावत् षष्टिवर्ष तावद् विमिश्रं प्रभवमुखगतं 20 भवति इति / तदेव वर्ष सर्वकरणान्तरे प्रसिद्धं भवतीत्यादित्यादिवारवत् / तेन विमिश्रितं यधिकचतुःशतवर्षराशाविति / म्लेच्छवर्ष प्रसिद्धं म्लेच्छो मधुमती रह्मणा(रहमाना)वतारो म्लेच्छधर्मदेशको म्लेच्छानां तायि(जि)नां (ताजिकानां) गुरुः स्वामी / ऊनं म्लेच्छेन्द्रवर्ष करफ[51b]णिशशिना द्वय शीत्यधिकशतेनोनम्, करफणिशशिनोनमिति, सम्भलविषये अजकल्कीकालवर्षम्, तदेव लघुकरणे वर्षपिण्डमिति / 25 शेषमहितं च / तदेव वर्षपिण्ड द्वयशीत्यधिकशतेनोनावशेषं मासपिण्डनिमित्तमर्काहतं द्वादशगुणितं मासपिण्डं भवति / मिथं चैत्रादिमासैरिति / तदेव मासपिण्डं चैत्रादिवर्तमानमासैमिश्रं भवति वर्त्तमानमासार्थमिति / अधरयुगहतमिति / तदेव मासपिण्डमध उपरि राशौ अधो सशौ मासपिण्डं कृत्वा अधिकमासग्रहणार्थं युगहतं चतुर्गुणितं भवति। खाग्निचन्द्रविभक्तमिति। 30 अत्र सर्यस्य द्वात्रिंशतसाद्धमासैरधिकमासोऽमावस्यां(स्यायां) संक्रमणाभावात् / तेन भोगो न स्यात्, तस्मात् राशि[३]चतुर्गुणिता भागराशिर्भवति / भागराशेश्चतुर्गुणिते सति T272 'निमित्ताभावे नैमित्तकस्याभाव' इति न्यायात् विभज्य राशिश्चतुर्गुणी भवति / तस्माद् 1. क. कुर्म्यः / 2. क. ध्रुवचरगादिति / 3. ङ. येनाजिन / 4. इ. रक्षणावतारो / Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः विभज्य राशेर्भागराशिना लब्धं फलं भवति / लब्धं मूनि प्रविष्टम् / तदेव लब्धमधिकमासपिण्डं मूनि मासपिण्डराशौ प्रविष्टं भवति नरपते मासपिण्डं विशुद्धं वर्तमानमासे त्रिंशतिथिगणितार्थमिति / इदानीं मासध्रुवकमुच्यतेमासास्त्रिस्थानभूता(:) करशिखिगुणिता मध्यराशौ स्थिता ये मूले षड्भागलब्धं भवति च तदृणं मध्यमे शोधनीयम् / ऊोऽधो नेत्रत्रिंशत् प्रकटयति धनं मिश्रितं षष्टि भागेलब्धं मूनि प्रविष्टं भवति मुनिवरैश्छेदितः शेषवारः // 28 // मासास्त्रिस्थानभूताः करशिखिगुणिता मध्यराशौ स्थिता य इति / अत्र शुद्धमासास्त्रिस्थाने कृत्वा मध्यराशौ ये मासाः स्थिताः ते प्रतिमासवा ते प्रतिमासवारघटिकाथ करशिखि- 10 गुणिता द्वात्रिंशद्गुणिता भवन्ति / मूले षड्भागलब्धमिति / मूलराशौ षड्भागेन लब्धं मध्यमे राशौ ऋणं भवति मध्यरा[52a]शौ, अतः शोधनीयम्, ऋणत्वात् / ऊोऽधो' नेत्रत्रिंशत् प्रकटयति धनं मिश्रितम् / इदं ध्रुवकं मङ्गलादिकम् अस्तमनकरणमागतम्, अत आदित्याद्युदयकरणार्थं मूनि राशी वारद्वयं धनं भवति; अधो राशौ त्रिंशत्घटिका धनं भवति / अतो मिश्रमूधिो यथासंख्यं नेत्रञ्च त्रिंशच्च नेत्रत्रिशदिति, षष्टिभाग- 15 लब्धम्, मूलघटिकाराशौ षष्टिभागेन लब्धं वारपिण्डं भवति / अवशेषं घटिकापिण्ड वारभोगे भवति, मूनि प्रविष्टम् / तदेव षष्ट्या भागेन लब्धं वारपिण्डं मूनि प्रविष्टं वारराशौ भवति / मुनिवरैः सप्तभिः छेदितो विभक्तः सन्, शेषो वार एव स इति मासध्रुवके वारो मूर्ध्नि स्थातव्यः, वाराधो घटिकापिण्डमिति / द्विस्थानेऽन्दुमिश्रं हृतमृतुरविणा भूतमिश्रं समस्तं देयं तन्मनि राशौ प्रथमकरहते पिण्डमष्टद्विभक्तम् / त्रिस्थामध्ये हतेशास्त्वधरनवगुणैर्भागलब्धं द्विमिश्रम् ऊनं मध्ये घटोभिर्हतमपि तु धनं मूनि राशौ द्विहत्वा // 29 // इदानीं वारपदान्युच्यन्ते द्विस्थानेऽन्दुमिश्रमिति / तदेव मासपिण्डमर्केन्दुमिश्रं द्वादशोत्तरशतमिश्रम् / 25 अर्केन्दुरिति करणापेक्षा(क्षया) न सिद्धान्तापेक्षयेति द्विस्थाने भवति / हृतमृतुरविणा। अधोमासपिण्डं हृतं षड्विंशत्यधिकशतेन लब्धं मूनि राशी धनं भवति / प्रतिमासं पिण्डद्वयार्थ मूनि राशौ देयं भवति / प्रथमकरहते पश्चाद् देयं भवति / भूतमिदं समस्तमिति / करणापेक्षा(क्षया) ऋतुरविणा भागलब्धं(7) सिद्धान्तम्(ः) / यतः षड्विंशत्यधिकमासशतेन एकपिण्डं पिण्डस्थानेऽधिकं भवति, चन्द्रचरणवशादिति / पिण्डमष्टद्विभ- 30 1. भो. sTera Hog (ऊोऽधो); क. ऊर्दोरधो / 2. ङ. वारभागे / Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुक्तमिति / अष्टविंशतिभिर्भक्तं पिण्डं भवति; सप्तवारपदत्वादष्टविंशतिभिर्भागः स्या[52b]त्, तेन भागेन लब्धं प्रतिमासं वारपदं भवति / वारघटिकाधः ऋतुरविणा भागलब्धावशेष(:) पिण्डावयवं(ः) भवति, पिण्डाधः स्थापनीयमि (इ)ति / / इदानीं सूर्यनक्षत्र वकमुच्यते त्रिस्थामध्ये हतेशा इति / ते शुद्धमासा(:) त्रिस्था(-ने) मूनि-मध्ये अधसि (अधो') भवन्ति / मध्ये ये मासास्ते ईशैर्हता एकादशहता इति करणापेक्षा(क्षया) न सिद्धान्तापेक्षे(क्षये)ति / अधरनवगुणैर्भागलब्धं द्विमिश्रमिति / अधो राशो नवगुणै रेकोनचत्वारिंशद्भिर्भागलब्धं द्विमिश्रमिति करणापेक्षया क्षेपकः। ऊनं मध्ये मध्यराशी हीनं ऋणमित्यर्थः / घटीभिर्हतमपि तु घनमिति। मध्यराशेर्घटीभिः षष्टिभिर्हतं लब्धं नक्षत्रपिण्डं मूनि राशौ धनं भवति / षष्टिभागावशेषा नक्षत्रघटिका भवन्ति / तदेव धनं मूनि राशि(शौ) द्विहत्वा, युक्तं चक्षं प्रभक्तो भवति नृप रवेः शेष ऋक्षादिभोगः वारे वारं प्रदेयं द्विगुणनृपघटी पिण्डके द्वे त्वधश्च / द्वे चर्खे रुद्रनाड्यः प्रकटयति धनं सूर्यभोगे प्रदेयम् एतन्मासं ध्रुवं स्यात् कथितमपि पुनर्मासि मासि प्रदेयम् // 30 // युक्तं चर्फ प्रभक्तं सप्ता(प्त)विंशतिभिः प्रभक्तो भवति / नृपामन्त्रणम् / रवेः शेष ऋक्षादिभोगः / अत्र मूनि नक्षत्रपिण्डमधो नक्षत्रघटिकापिण्डमिति / पुनश्शुद्धादप्यशुद्धमासधू वकं बालानां प्रतिबोधनार्थ रचितम् / वारे वारं प्रदेयम्, वारस्थाने वारमेकं देयम् / द्विगुणनृपघटी। नृप इति षोडश; द्विगुणनृपघटी द्वात्रिंशद् घटी घटिकास्थाने देहा(या); पिण्डके द्वे त्वधश्चेति घटिकाधः पिण्डस्थाने द्वे देये भवतः / द्वे चर्खे नक्षत्रस्थाने / रुद्रनाड्यो नक्षत्रघटिकास्थाने। रुद्र इति एकादश नाड्यः देया इति / धनं प्रकटयति सूर्यभोगे प्रदेयं नक्षत्रादिकम् / तस्मात् मासध्र वकं स्यात्; कथितमपि पुनर्मासि मासि प्रदेयम् / प्रत्येकमासि प्रदेयमिति मास वकं क[53a]रणापेक्षावशेन भगवता अनागतमेव व्याकृतमिति। इदानीं मासळू व तिथ्यादिगणितमुच्यतेदेया हेयाश्च देयाः पुनरपि तिथयो वारनाडीपदेषु पिण्डे भागेऽब्धिचन्द्रः समविषमगते देयहेयौ पदार्थों / शून्ये शून्यं विशुद्धं त्रिदशशशिपदे पञ्च नेत्रायोदिक् तिथ्याख्यैकादशेऽग्नौ दशजलधिपदे विंशतिश्चैकहीना // 31 // देया हेयाश्च देयाः पुनरपि तिथयो वारनाडीपदेष्विति / इह प्रतिमासधूवके शुक्लप्रतिपदाद्यकतिथिमारभ्य यावत् त्रिंशत्तमामावासी तावत् तिथयो देया हेयाः 1. ऊ. अधो। 2. ख. नवगुणैनवगुणे / 3. ङ. ध्रुवात् / . 30 Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पटले ] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः पुनर्देया इति वारस्थाने देयाः प्रतिदिनवारार्थम्; घटिकास्थाने हेयाश्चन्द्रकलाया एकघटीहानितः, पुनर्देयाः पिण्डस्थाने चन्द्रपदानां धनऋणभोगपरिशुद्धित इति / पिण्डे भागेऽब्धिचन्द्रः समविषमगते देयहेयौ पदार्थाविति / पिण्डस्थाने पिण्डादब्धिचन्द्रेण' चतुर्दशभागेन समगतेन पदार्थो धनं भवति; विषमगतेन ऋणं पदार्थो भवति / अत्र समभागे द्वाभ्यां गतश्चभिर्वागत इति न गतोऽपि सम इति / विषमभागे एकेन गतः त्रिभि-5 गित इति / तदुपरि नास्ति भागः / सप्तपञ्चाशदूर्ध्वं त्रिंशत्तिथिसहिताः सप्ता(प्त)विंशतिपिण्डका न भवन्ति / अतश्चतुर्दशभागेश्चत्वारो विभक्ता भवन्तीति तेन समविषमभागेन पदार्था देया हेया वा वेदितव्याः। पदार्थो नाम चन्द्रचा(वा)रपदानि चतुर्दशस्थानेध ऊर्चे सप्तसप्तपदव्यावृत्त्या अनुलोमविलोमाभ्यां पृथिव्यादिगुणभेदभिन्नानि / ते च पदार्था देया हेया भवन्ति / शून्ये शून्यं विशुद्धमिति / चतुर्दशभागावशेषं यदि शून्यं तदा पदार्थोऽपि शून्यः, न देयो न हेय इति न्यायः करणा(णे)। त्रिदशशशिपदे पञ्चेति / त्रयोदशमे(शे) पदे अवशेषे दुष्टे एकपदे वा पञ्चघटिका धनं वा ऋणं वा भवति / एवं नेत्रार्कयोदि(53b)गिति द्विपदे अधिकेऽवशेषे द्वादशे वा दशघटिका देया भवन्ति, चन्द्रकलावृद्धिहानिवशादिति / तिथ्याख्य इति पञ्चदश; एकादशे अग्नाविति तृतीये भवन्ति / दशपवजलधीति 15 चतुर्थे पदे भागावशेषे दृष्ट विंशतिश्चैकहोना भवन्ति / द्वाविंशत(ति)पञ्चरन्ध्र ऋतुवसुनि जिनाः सप्तमे पञ्चविंशत् (तिः) तस्मिन्नर्कप्रभेदैः प्रकटितरविका देयहेया भवन्ति / भूताभूतेषु वेदाः शिखिकरशशिनः पूर्वभागेऽपरे च पिण्डे भागेऽब्धिचन्द्रः समविषमगते देयहेयाश्च वाराः // 32 // 20 1273 . द्वाविंशत्(ति)पञ्चमे रन्ध्र इति नवमे भवन्ति / ऋतुरिति षट्(ड्)वसुनीत्यष्टमे पदे जिनांश्चतुर्विंशतिर्भवन्ति / सप्तमे पदे भागावशेषे दृष्टे पञ्चविंशत् घटिका समे देया विषमे हेया भवन्ति / तस्मिन्नर्कप्रभेदैः पकटितरविका देयहेया भवन्ति / तस्मिन् तिथिभोगेऽर्कप्रभेदेन सूर्यपदानि भवन्ति; सूर्यस्य ऋणं तस्मिन् ऋणम्, सूर्यस्य धनं तस्मिन्नेव धनमिति सूर्यप्रमेदः। 25 अत्र चन्द्रपदानि भूताभूतेषु वेदाः शिखिकरशशिनः पूर्वभागेऽपरे चेति / भूता इति पञ्च, पुनभूतेति ततः अधः पञ्च, इषुरिति ततोऽधः पञ्च, वेदा इति ततोऽधश्चत्वारि, शिखीति ततोऽधः त्रयः; कर इति ततोऽधो द्वे, शशिन इति ततोऽध एकपदम् / एवं सप्तस्थानेषु पदानि / ततोऽपरसप्तस्थानेषु विलोमेन एकादिना चतुर्दशस्थाने पञ्च पदानि यावत् / एवं चन्द्रपदानां न्यासो भवति चतुर्दशस्थानेष्विति / 1. ऊ. पिण्डादर्धवक्वेन्द्रेण / 2. ङ. पुस्तके नास्ति / 3. भो. Cig La Sogs Pa (एकादिना); क. एकोदिना; ङ. एकदिनात् / 30 Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 विमलप्रभायां [लोकधातुपिण्डे भागेऽब्धिचन्द्रः समविषमगते देयहेयाश्च वारा इति / अत्रापि चतुर्दशभागावशेषे दृष्टे समगते वाराः पञ्चादयो देयाः, विषमगते हेया [54a] इति / चतुर्दशभागावशेषे एके दष्टे पञ्च घटिका ग्राह्या; द्वितीये द्वितीयस्थानस्थैः सह दश; तृतीये तृतीयस्थानस्थैः सह पञ्चा(च) दश ; चतुर्थे चतुर्थस्थानस्थैश्चतुभिः सह एकोऽनविंशतिः; पञ्चमे पञ्चमस्थानस्थैस्त्रिभिः सह द्वाविंशत्; षष्ठे षष्ठस्थानस्थाभ्यां द्वाभ्यां सह चतुर्विंशतिः; सप्तमे सप्तमस्थानस्थेनैकेन सह पञ्चविंशतिः। ततश्चन्द्रचरणवृद्धिनिवर्तते / अष्टमे दृष्टे सति अष्टपदानि पूर्वसप्तपदैः सहितानि / त्यक्त्वा पराणि षट्पदान्यभुक्तान्येकपिण्डं कृत्वा चतुर्विंशतिघटिका देया हेया वा भवन्ति / नवमे पञ्चपदानां द्वाविंशद् घटिका; दशमे चतुष्पदानामेकोनविंशतिः; एकादशे त्रिपदानां पञ्च'; द्वादशे द्विपदानां 10 दश; त्रयोदशे एकपदस्य पञ्च; चतुर्दशमे (शे) शून्यमिति सिद्धान्तनिश्चयः। . सच्चारेणावशेषं हतमृतुरविणा भागलब्धं च तद्वत् तत्रैवार्कप्रभेदै रविपदघटिका देयहेया भवन्ति / वेदैस्तिथ्याहतं यत् स्फुटमपि तु धनं तत् त्रिभागेन मिश्रम् ऋत्वृक्षं सत्रिपादं त्वृणमपि तु रवेः शोधयेद् भुक्तिमध्ये // 33 // ___ सच्चारेणावशेषं हतमृतुरविणा भागलब्धं च तद्वदिति / अत्र सञ्चार इति पिण्डाध(:)स्थितानां पिण्डावयवानाम् , ऋतुरविणा भागलब्धावशेषाणामिति / सच्चारपिण्डे चतुर्भागावशेषं चारपदं यत् तदुपरि सच्चारपदं पिण्डावयवानां शतपदं भवति / तत्र ग्रहः प्रविष्टः / तस्मात् तद् ग्राह्यं देयहेयार्थम् / तेन पदेनावशेष(1) पिण्डावयवं() हतं (1), ततः षट्विंशत्यधिकशतेन भागलब्धं च तद्वद् देयम् / सर्वं यथा पूर्वचरण20 घटिकापिण्डं तद्वदिति / तत्रैव चाकंप्रभेदैः पूर्ववद् रविका देया हेया वा भवन्तीति सिद्धान्तः। इदानीं प्रतिदिनसूर्यभोग उच्यते वेदैस्तिथ्याहतं यत् स्फुटमपि तु धनं तत् त्रि[54b] भागेन मिश्रमिति / वेदैश्चतुर्भिस्तिथि(भि)श्चाहतं गुणितं वेदस्थ्यिाहतं स्फुटं धनं भवति / सूर्यस्य घटिकास्थाने 25 तस्या गुणितं तिथ्यास्त्रिभागेन मिश्रं धनं घटिकास्थाने देयमिति / ऋत्वृक्षं सत्रिपादं त्वृणमपि तु रवेः शोधयेद् भुक्तिमध्ये इति / इह रविकापदविशुद्धयर्थं सूर्यस्य जन्मराशिः शोघनीयः, येन सूर्यस्य प्रत्यहं वारघटीपाणी(णि)पलादिभोगो ज्ञायते, अन्यथा करणे शद्धिर्नास्ति प्रत्यहं सर्यस्येति / अतोऽश्विन्यादिनक्षत्रभोगात षटनक्षत्रं सत्रिपादमिति पञ्चचत्वारिंशद् घटिका इति मेषादिराशिवयं शोधितं भवति / कर्कटे जन्मराशिर्भवति, 30 सूर्यस्य चरणशुद्धित इति / अत ऋत्वृक्षं सत्रिपादं त्वृणमपि तु रवेः शोधयेद् 1. ख. पञ्चदश। 2. क. चतुर्दश; भो. Cha Sas i (चतुर्भाग)। 3. ङ. गुरुः / Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः 83 भक्तिमध्ये / भुक्तिनक्षत्रादिभोगः, तस्मिन् भुक्तिमध्ये नक्षत्रस्थाने नक्षत्रं शोधयेद्, घटिकास्थाने घटिकां शोधयेदिति / शिष्टं कार्य यथारे रसयुगशशिनो मन्दकार्ये पदानि हत्वा भोगेन नाडीः शरगुणशशिभिर्भागलब्धं सभोगम् / देयं हेयं च सूर्ये त्वयनगतिवशान्नान्यथा शुद्धिरस्ति 5 सूर्ये कालो रसोऽहिश्च दश हरहरा रुद्रदिग्नागषट् च // 34 // सूर्यभोगं पृथक्कृत्वा शिष्टं कार्य यथारे' इति / अत्र परिशेष कार्य यथा मङ्गलस्य तथा सूर्यस्यापि ज्ञातव्यम्, किन्तु मङ्गलस्य चारपदानि भिन्नानि / सूर्यस्य रसयुगशशिनो मन्दकार्ये पदानि / रसं इति षट् , युग इति चत्वारि, ततोऽधः शशिन इति, ततोऽध एक इति / राशित्रये पूर्वार्द्ध अपरा? विलोमेन चतुर्थराशावेकः, पञ्चमराशौ 10 चत्वारि, षष्ठराशौ षडेतद् राशिकर्म मन्दकार्यमिति / अस्मिन् मन्दकार्ये एतानि षट्पदानि षट्सु कर्कटादिषु राशिषु भवन्ति / अपर मङ्गलं[55a] वक्तव्यमिति / हत्वा भोगेन नाडीः शरगुणशशिभिर्भागलब्धं सभोगम्, देयं हेयं च सूर्ये त्वयनगतिवशात् नान्यथा शुद्धिरस्तीति इदं वचनं नियमार्थम, यथा मङले चारभोगेन इत्वा नाडीस्ततः शरगणशशिभिरिति 15 एकराशिघटिकापिण्डं पञ्चत्रिंशदधिकशतं तेन भागेन लब्धम् ; घटिकापिण्डं घटिका स्थाने धनं भवति, अयनगतिवशाद ऋणं च भवति / ' मकरादौ धनं कर्कटादौ ऋणं . भवतीति अयनगतिवशात् प्रत्यहं शुद्धिर्नान्यथा करणोक्तविधिनेति / _ अत्र करणोक्तविधिरुच्यते . सूर्ये कालो रस इति कर्कटे ऋणं प्रथमपक्षे काल इति तिस्रो घटिकाः / रस 20 इति षट् द्वितीये कर्कटपक्षे। एवं सिंहे अहिश्चेत्यष्ट दश (च) इति / तथा कन्यायां हर एकादश, पुनर्हर एकादश, ततस्तुलायां रुद्र एकादश, दिगिति दश, इत्येवं वृश्चिके नाग इत्यष्ट षट् च // 34 // वह्निः खञ्चायनान्ते भवति धननृणां(मृणं) चोत्तरे दक्षिणे च षण्मासं पक्षभेदैश्चरति दिनकरो माससंक्रान्तिभेदात् / दत्वा सूर्ये तिथींश्चाप्यधररसहता वारभोगेन मिश्रा ऊनीभूताः शशाङ्को भवति नरपते मिश्रसूर्येन्दुयोगः / / 35 // - 25 1. क. ख. कारां; ङ. कारं। 2. ऊ. यथा अपरे। 3. मङ्गले। 4. ऊ. भोगेन / 5. ङ. वा। 6. मूलस्य भोटपाठानुरोधेन ‘धनमृणम्' इत्येव पाठ:-Nor Dan Bu Lon | 7. क. षण्मासैः। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 4 विमलप्रभायां लोकधातुततो धनुषि वह्निरिति तिस्रः, खमिति शून्यमयनान्ते / एवं मकरादौ धनमिति करणे, न सिद्धान्ते अभिप्रायः सर्वत्र / एवं षड्()मासं पक्षभेदैश्चरति दिनकरो माससंक्रान्तिभेदादिति / इदानीं चन्द्रभोग उच्यते5 दत्वा सूर्ये इति सूर्यभागे तिथोदंत्वा अधररसहतास्तिथी'रधसि(धः) षड्भिर्हताः। वारभोगेन मिश्रा वारभोगवटिकादिभिर्मिश्रा ऊनीभूता; घटिकास्थाने शशाङ्कभोगो भवति / मिश्रसूर्येन्दुयोग इति सूर्येन्दुभोगो मिश्रो योगो भवति / [55b] अक्ष्णा तिथ्या हतं यद् गतशशिकरणं सप्तभागावशेषं शुद्धाब्दा नागमिश्राः खखजलधिहताः शोधिता नागमित्रैः / 10 शैलेन्द्वग्निप्रभक्ता गगनरसहता नाडिकादयादिभक्ता द्वित्रिंशद् वारनाड्यो ध्रुवकमिह युतं चाब्दसंक्रान्तिमासे // 36 // .. अक्षणा तिथ्या हतं यद् गतशशिकरणमिति / अक्ष्णा द्वाभ्यां तिथिषु हतमेकरहितं सप्तभागावशेषं करणं भवति; वारभोगेन भोगो भवति / अत्र पञ्चाङ्गानि वारः, तिथि:*, नक्षत्रम्, योगः, करणमिति / अत्र वारा:-आदित्य-सोम-मङ्गल बुध-बृहस्पति15 शुक्र-शनयः सप्त; तिथयः-प्रतिपताद्याः पञ्चदश इति; नक्षत्राणि-अश्विनी भरणी कृत्तिका रोहिणी मृगशिरा आर्द्रा पुनर्वसु पुष्य अश्लेषा मघा पूर्वफाल्गनी उत्तरफाल्गुनी हस्ता चित्रा स्वाति(ती) विशाखा अनुराधा ज्येष्ठा मला(लं) पूर्वाषाढा उत्तराषाढा श्रवणा(ण) धनिष्ठा शतभूषा(भिषा )पूर्वभाद्रपदा' उत्तरभाद्रपदा रेवतीति सप्तविंशतिः / तथा योगः-विष्कम्भः प्रीतिः आयुष्मान् सौभाग्यः शोभनः अतिगण्डः सुकर्मा 20 धृतिः शूलः गण्डः वृद्धिः ध्रुवः शकुः व्याघातः हर्षणः वज्रः सिद्धिः व्यतिपातः वरीयान् परिघः शिवः साध्यः शुभः शुक्लः ब्रह्मा ऐन्द्रः वैधृतिरिति सप्तविंशति योगा इति।। शुक्लप्रतिपदपरार्द्ध करणं प्रथमं ववम्', द्वितीयायां पूर्वापरार्द्ध वालवं कौलवम्, तृतीयायां पूर्वापरा तैतिलं गरजम्, चतुर्थ्यां पूर्वापराः वणिज' " वृष्टिरिति / एवं पञ्च म्यां ववं वालवम्, षष्ठ्यां कौलवं" तैतिलम् 5, सप्तम्यां गरज' वणिजम्' 4, अष्टम्यां 25 पूर्वार्द्ध विष्टिरिति / अष्टम्यामपरार्द्ध ववम्, नवम्यां पूर्वापराद्धे वालवं कौलवम्, दशम्यां पूर्वापराद्धं " तैतिल गरजम्", एकादश्यां पूर्वापरार्द्ध" वणिजं विष्टिरिति / पुन T274 1. ख. हतास्तास्तिथी। 2. ख. शनिनः; ग. घ. शनिश्चर / 3. ख. श्रवणाम् / 4. ग. शतवषा / 5. ग. भद्र०। 6. ग. भद्र०। 7. घ. पुस्तके नक्षत्रेषु समासान्तप्रयोगः कृतः / 8. ग. घ. पुस्तकयोः नास्ति / 9. घ. पस्तके 'वव करणं' इति क्रमः। 10. ग. वणिकं / 11-12. ग. पुस्तके 'तैतिलकौलवम' इति क्रमः। 13-14. ग. गरवणिक / 15. ग. घ. पुस्तकयोः नास्ति / 16-17. ग. कौलवगरं / 18. ग. घ. पुस्तकयोः नास्ति / * अतः परं ङ. पुस्तकं न लब्धम् / Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 85 पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः दिश्यां पूर्वापरा? ववं वालवम्, त्रयोदश्यां कौलवं' तैतिलम्२, चतुर्दश्यां गरज वणिजम्”, पौर्णमास्यां पूर्वार्द्ध विष्टिरिति अपरार्द्ध ववम् / कृष्णप्र[56a]तिपदि पूर्वापरार्द्ध वालवं कौलवम्', द्वितीयायां पूर्वापरार्द्ध तैलिज(तिलं) गरजम् , तृतीयायां पूर्वापरार्द्ध वणिजं वृष्टिरिति / एवं चतुर्थ्यां (पूर्वापरा?') ववं वालवम्, पञ्चम्यां (पूर्वापरार्द्ध) कौलवं तैतिलम्, षष्ठ्यां गरजं वणिजम्, सप्तम्यां पूर्वार्द्ध विष्टिरिति अपरार्द्ध ववम्, 5 अष्टम्यां (पूर्वापरार्द्ध) वालवं कौलवम्, नवम्यां तैतिलं गरजम्, दशम्यां पूर्वापरा?" वणिजं विष्टिरिति / एवम् एकादश्यां (पूर्वापरा?'३) ववं वालवम्, द्वादश्यां कौलवं तैतिलम्, त्रयोदश्यां गरज* वणिजम्**, चतुर्दश्यां पूर्वार्द्ध विष्टिरिति / ___सप्त करणपरिभोगः(गाः)। ततः कृष्णचतुर्दश्यां परार्द्ध शकुनिः; अमावस्यायां पूर्वार्द्ध चतुष्पदम्, अपरार्द्ध नागम् / शुक्लप्रतिपदि पूर्वार्द्ध किन्तु(किंस्तु)घ्नम्, अपराः 10 पुनर्ववमिति / एवमेकादश करणानोति पञ्चाङ्गक्रमः / अश्विनी भरणी कृतिकापादं 2 मेषः१३ / एवं नवनवपादैः द्वादश मेषादयो राशयो केदितव्याः / अङ्गारक-शुक-बुध-शशि-रवि-बुध-शुक्र-भौम-गुरु-शनि-सौरि-सुरगुरख एते यथासंख्यं मेषादिषु क्षेत्रिण इति / इदानीं तीथिकानां राशिग्रहणार्थ नामाक्षरकल्पनोच्यते इह जातकस्य मण्डलस्वरव्यञ्जनापरिज्ञानाद् ऋषिभिर्नामाक्षरकल्पना रचिता'५; तद्यथा-अ इ उ ए कृत्तिका, ओ वा वि (वी) वु (वू) रोहिणी, वे वो का की मृगशिरा, कु (कू) घ ङ छ आर्द्रा, के को हा ही पुनर्वसु, ह (हू) हे हो डा पुष्य, डि (डी) डु (डू) डे डो अश्लेषा, म(7) मि (मी) मु (मू) मे मघा, मो टा टि (टी) टु (टू) पूर्वफाल्गुनी; टे टो 20 पा पि (पी) उत्तरफाल्गुनी, पु (पू) ष ण ठ हस्ता (हस्त), पे पो र() रि (री) चित्रा, रू रे रो त() स्वाति(ती), ति (ती) तु (तू) ते तो विशाखा, ना नि (नी) नु (नू) ने अनुराधा, नो या यि (यो) यु (यू) ज्येष्ठा, ये यो भा भि (भी) मूला (ल), भू ध फ (फा) 15 1-2. घ. पुस्तके 'तैतिलकौलवम्' इति क्रमः / 3-4. घ. गरवनिजं / 5-6. घ. पूर्वोर्धे वालवं अपरार्धे तैतिलं कौलवं / 7. क. पुस्तके अत्र 'गरजम्, तृतीयायां पूर्वापरार्द्ध तैतिलं गरजम्' इति अंशोऽधिकः / 8. घ. पूर्वार्धे; ग. पुस्तके 'पूर्वापरार्द्ध' इति नास्ति / 9. ग. पुस्तके अत्र 'पूर्वापरा?' इति योजितः / 10. ग. पुस्तके अत्र 'पूर्वापराद्धे' इति योजितः। 11-12. ग. घ. पूर्वाधं वणिजम् अपरार्धे विष्टिरिति / 11. ग. पुस्तके अत्र 'पूर्वापराद्ध' इति योजितः। 12-13. घ. अश्विन्यं च भरिण्यं च कृत्तिकापादमेव च मेषराषिः; भोटे तु rKan PagCig (पादमेकम्) / 14. घ. गुरुशनिश्चरशनिश्चरेवजीव० / 15. घ. सतपदचकं / *-** घ. पुस्तके बहशः 'गरज वणिज' इति स्थाने 'गरं वनिक' इति / +घ, तिथिपञ्चाङ्गक्रमः। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुढ पूर्वाषाढा, भे भो जा जि (जी) उत्तराषाढा, जु' जे जो खा श्रवणा, खि खु खे खो . अभिजित् 2*, ग (गा) गि (गी) गु (गू) गे धनिष्ठा, गो सा सि (सी) सु (सू) शतभृ(भि)षा, से सो दा दी पूर्वभाद्रपदा, दु (दू) थ झ ञ उत्तरभाद्रपदा", दे दो चा ची रेवती, चु (चू) चे चो ला अश्विनी, लि (ली) लू ले लो भरणी इति द्वादश राशिनामभेदाक्षराणि / एभिरक्षरैः सत्त्वानां राशिख़तव्या, तेन शुभाशुभफलं ज्ञातव्यमिति तीथिकानामभिप्रायो युक्तिशून्य इति / परमार्थतः शु[56b]भाशुभं स्वकर्मवशाद् भवति; तथा चाह "वारस्तिथिश्च नक्षत्रं योगः करणमेव च। लग्नं क्रूरग्रहैश्चैतत् कल्याणं पुण्यकारिणाम् / / एकक्षणप्रसूतानां जातकानां पृथक् पृथक् / फलं नैकफलं तेषां स्वस्वकर्मोपभोगतः // संग्रामे वनदाहे च कैवर्ताज्जालबन्धने / मरणं योगपद्येन बहवो यान्ति देहिनः // पुण्येनायुर्बलं वीर्य ऋद्धि(:) सौभाग्यरूपता। पापेनायुःक्षयो वीर्य-ऋद्धिहानिश्च देहिनाम् / / " 15 इति पञ्चाङ्गकरणोद्देशः। इदानी करणे वर्षसंक्रान्तिध्र वकमुच्यते शुद्धाब्दा नागमिश्रा इति / शुद्धाब्दाः करणवर्षाः; नागमिश्रा अष्टभिमिश्राः। खखजलधिहता इति चतुभिः शतैर्गुणिता भवन्ति / शोधिता नागमिधैरिति अष्टमिश्रितैः करणवर्षेः शोधिता ऊनीकृताः। शैलेन्द्वग्निप्रभक्ता इति सप्तदशाधिकशतत्रयेण भक्ता 20 वारा भवन्ति / गगनरसहता इति पुनर्भागावशिष्टा घटिका) षष्ठ्या हता (नाडिका) अद्रयादिना' भक्ता भवन्ति / द्वित्रिंशद् वारनाड्यो ध्रवकमिह युतम् / इदं मङ्गलादिध्रुवकमाद्रित्यादिकरणार्थ वारस्थाने द्वौ देयौ घटिकास्थाने त्रिंशदिति, षष्ठिभागेन लब्धो वारो भवति; अवशेषा वारघटिका; सप्तभागोऽवशेषो वारस्थाने वारोऽब्दस्य संक्रान्ति(:) मासे भवतीति न्यायः / 1-2. साम्प्रतिकप्रचलितज्योतिषानुसारं 'जू जे जो खा अभिजित्, खी खू खे खो श्रवण' इति / अत्र अभिजित्-सम्बन्धे विचारः-उत्तरषाढानक्षत्रस्य अन्तिमाः पञ्चदश घटिकाः तथा श्रवणनक्षत्रस्य प्रारम्भिकचतुर्घटिकाः, एवं एकोनविंशतिर्घटिका अभिजित्नक्षत्रप्रमाणमिति / अस्य अभिजित्-नक्षत्रस्य नकुलयोनिः, मनुष्यगणः, अन्ययुञ्जा, अन्त्यनाडी इति / इदं तु धन-मकर-राश्योरन्तर्गतमिति / 3. घ. भद्रपदा / 4. घ. स / 5. घ. पुस्तके बहुशः 'भाद्रपदा' स्थाने भद्रमात्रम् / 6. घ. वारतिथिश्च / 7. अत्रतः घ. पुस्तकं खण्डितम् / 8. क. ख. अड्यादिना / 9 ग. भागाः / भोटानुसारं 'भक्ता घटिका' इति पाठः समीचीनः; अत्र कोष्ठाङ्कितं नाडिकापदं घटिका इत्येव सुवचम् / 10. ग. मङ्गलादिध्रुवकादि० / 11. ग. पुस्तके नास्ति / *. ग, घ. अभिचि। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः इदानी मेषादिसंक्रान्तौ क्षेपणे क्षेपका(द) द्वादशवर्षध्रुवक' उच्यतेमेषादौ वारनाड्यां क्रमपरिरचिताः क्षेपणे द्वादशैते चन्द्राद्रीभूतवेदो गुणशरशशिनः शैलचन्द्रं तृतीये / वेदाग्नीभूतचन्द्रौ नयनकरयुगे वेदनेत्राणि षष्ठे षड वारे चन्द्रबाणे गिरियुगशिखि षट् चन्द्रवेदाद्रिलोकाः // 37 // / मेषादौ वारनाड्यामिति / वारस्थाने घटिकास्थाने' वारनाड्याम् / क्रमपरिरचिताः क्षेपणे द्वादशैते चन्द्राद्रीभूत इति / चन्द्र इति वारस्थाने एकः. अद्रि(द्री)भूत इति सप्तपञ्चाशत् घटिकास्थाने / अत्र वारस्थाने वर्षध्रुवकेण सार्धं यो वारो भवति, तेन वारेण मेष संक्रान्तिर्भवति; घटिकास्थाने या घटिकास्ताभिर्घटिकाभिरिति करणन्यायः / वेदाविति द्विवचनं छा(छ)न्दोवशादिति / वेदं (दाः) चत्वारि / वारस्थाने गुणशर इति 10 त्रिपञ्चाशद् घटिकास्थाने वृषसंक्रान्तौ शशिन इति वारस्थाने एकः / शैलश(च)न्द्रमिति सप्तदशघटिकास्थाने / तृतीय इति मिथुनसंक्रान्तौ; वेद इति वारस्थाने चत्वारः / अग्निभूत इति त्रिपञ्चाशद् घटिकास्थाने कर्कटसंक्रान्तौ / चन्द्र इति वारे एकः / नयनकर इनि द्वाविंशद् घटिकास्थाने सिंहे' (सिंहसंक्रान्तौ)। युग इति वारस्थाने चत्वारि | वेदनेत्राणोति चतुर्विंशतिः घटिकास्थाने / षष्ठे इति कन्यासंक्रान्तौ / षड्- 15 वारे चन्द्रबाण इति एकपञ्चाशद् घटिकास्थाने तुलासंक्रान्तौ / चन्द्र इति वार एकः। गिरियुग इति सप्तचत्वारिंशद् घटिकास्थाने वृश्चिकसंक्रान्तौ। शिखीति वारस्थाने त्रयः / षट् चन्द्र इति षोडश घटिकास्थाने धनुःसंक्रान्तौ / वेद इति वारस्थाने चत्वारः / अद्रिलोका इति सप्तत्रिंशत् घटिकास्थाने मकरसंक्रान्तौ / षड वेदौ शून्यशून्यं नयनशरपदं मीनराशौ रवेश्च षण्मासं हानिवृद्धिर्भवति दिननिशायाश्च सूर्यप्रचारैः / . .अब्धिप्राणाग्निलिप्ताः प्रतिदिनसमये वृद्धिनाशेऽयनाङ्गैः सव्ये रात्रेश्च वृद्धिर्भवति दिननिशावुत्तरे वासरस्य // 38 // षट् वारस्थाने / वेदशून्यमिति चतस्रो घटिकास्थाने कुम्भसंक्रान्तौ / शून्यमिति वारस्थाने न किञ्चिद् देयम् / नयनशर इति द्वापञ्चाशत् घटिकास्थाने"। पदं 2 25 [57b]* मोनराशौ रवेश्च देयं भवतीति संक्रान्तिभोगः करणे ज्ञातव्यः / सिद्धान्तेऽसौ संक्रान्तिभोगो न भवति; ___'वेदैस्तिथ्याहतं यत स्फुटमपि तु धनं तत् त्रिभागेन मिश्रम्' (का० त० 1.33) इत्यनेन मासमध्ये घटिकाभावः / प्रपञ्चेनापि 'त्रिस्थामध्ये हतेशा' (का० त० 1.29) 1. ख. ध्रुवके / 2. ग. पुस्तके नास्ति / 3. क. पुस्तके नास्ति / 4. ग. विशति / 5. ग. सिंहसंक्रान्तिः / 6. ग. वारस्थाने / 7-8. ग. घटिकास्थाने षोडश / 9. मूले 'वेदौ' इति छन्दोदृष्ट्या / 10-11. ग. घटिकास्थाने द्वापञ्चाशत् / 12. ग. पुस्तके नास्ति / 13. ग. भोगेन / * [57a] इति रिक्तपत्रम् / Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुइति / अनेनापि नष्टोन्नयनेन सूर्यभोगः स्फुटो भवति / प्रत्यहं सूर्यमण्डलदिनभोगेन' विना भोगः शुद्धो भवति वर्षमेकं यावत् / पुनरपरवर्षेपरसंक्रान्तिध्र वकं [भवति, तेन प्रतिवर्षमात्रं सूर्यभोगः शुद्धः२],३ चैत्रमासात् पुनश्चैत्रमासं यावत् / ततोऽपरवर्षमपेक्ष्य करणस्य तेन किञ्चिन्मासमेकं ध्रुवकं शुद्धम् / ततोऽशुद्धो दिनभोगः सूर्यस्य, प्रत्यहं 5 विश्वासचतुःपाणी(णि)पलान्तरेण उत्तरायणादुत्तरायणं यावत् पञ्च दिनानि भोगव शादूनी भवन्ति / प्रतिमासे पञ्चविंशति घटिका ऊनी भवन्ति / करणसंक्रान्तिकालात् करणसंक्रान्तिकालं प्रतिमासे पञ्चविंशतिघटिकाधिको वर्षावधेः पञ्चवाराधिक इति / अत्रोनाधिक (-) कथं ज्ञायते ? उत्तरायणमासादौ दशदिवसं यावत् परीक्षा कर्तव्या संकुच्छायया / यस्माद् दिनादारभ्य संकुच्छाया निवर्तते उत्तरतः, तत् संक्रान्ति10 दिनं सूर्यस्य तेन वारेण तया तिथ्या तेन योगेन तेन करणेनेति / तस्मिन् दिने सूर्यभोगो नक्षत्रस्थाने विंशतिः, घटिकास्थाने पञ्चदश इति मूलध्रुवकम् / तस्मिन् ध्रुवके प्रत्यहं सूर्यमण्डलदिनैर्लब्धं प्रक्षिप्य ततो रविपदानि शोधयेत् पूर्वोक्तविधिना; यत्रार्कस्य मण्डलदिनानि घटिकापाणीपलानि श्वासराशिचक्रप्रभोगान्ता उक्ता मूलतन्त्रे; तद्यथा "खर्ध्वग्न्याहतमेकाब्दं द्विस्थं द्विगुणितं त्वधः।। पञ्चषष्ट्या हतं५ लब्धं मूर्ध्नि राशौ धनं क्षिपेत् / / शेषं षष्ट्या हतं भूयो भागलब्धं ततोऽप्यधः / पुनः षष्ट्या हतं शेषं भागलब्धं ततोऽप्यधः // . पुनः षड्भिर्हतं शेषं पञ्चषष्ट्या विभञ्जितम् / लब्धं तस्याप्यधः स्थाप्यं श्वासपिण्डं नराधिप / दिनानि घटिका लिप्ताः श्वासान् कृत्वा त्रिधा पुनः / अधो गिरिख[58a]शैलाप्तं मध्यराशौ धनं क्षिपेत् / / चतुःषट्या ततो लब्धं मूनि राशौ ऋणं हरेत् / . अवशेषदिनान्यत्र घटी पाणी पलानि च // श्वासाश्च मण्डलं भानोश्चक्रभोगाद् भवत्यमी / दिनैकं हतमक्षेर्यन्नाडीभिः षष्टिभिस्ततः / सूर्यमण्डलभोगेन पञ्चषष्ट्याधिकशतत्रयेण" / / इति / . "सूर्यमण्डलभोगेन लब्धा नाड्यो दिनं प्रति / भूयः षष्ट्याहता लिप्ताः श्वासः षडभिर्हतो भवेत् // भोगोऽयं सूर्यनक्षत्रनाडिकादिषु योजयेत् / अयनादौ प्रत्यहं देयो यावद् भूयोऽयनं भवेत् // 1. क. दिने भोगेन / 2. ग. शुद्ध। 3. कोष्ठाङ्कितांशोऽधिकः प्रतिभाति / 4. ग. शुद्धो / 5. क. हृतं / 6. क, भागेन / Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः उक्तकर्मविधानेन शोधनीयं रवेः पदम् / अन्यथा करणमार्गेण शुद्धिर्नास्ति सदा रवेः // अशुद्धे सूर्यभोगेऽस्मिन् सो(शो)धिता' मङ्गलादयः / न स्फुटा वै भवन्त्यत्र मूलनष्टा इव द्रुमाः // चन्द्रस्य मण्डलं वक्ष्ये राशिचक्रप्रभोगतः। चक्रनाड्यो श्वेर्नाडी मासभोगेन मिश्रिताः / / त्रिंशद्भागेन लब्धाः स्युः चन्द्रभोगो दिन प्रति / नाडिकाचक्रनाड्यन्ता भुक्तैश्चन्द्रमादिनैः // घटीपाणीपलश्वासैमण्डलं तस्य तद् भवेत् / * दिनैर्नवशतैः षड्भिः सहस्र राहुमण्डलम् // प्रसिद्ध मङ्गलादीनां मण्डलं स्वस्ववारतः दिनमेकं हतं चक्षैर्खे)मण्डलेन विभञ्जितम् / / लब्धं भवति नक्षत्रं शेष षष्ट्या हतं पुनः / नायो मण्डलभागेन लब्धा लिप्तास्तथैव च // श्वासा मण्डलभागेन ग्रहाणां प्रत्यहं नृप / तदेव क्षेपकं कृत्वा ग्रहचारैः शोधयेद् ग्रहम् / / ग्रहभोगो यदाऽशुद्धस्तदा चन्द्रकलौ(लो)दये / ज्ञातव्यश्चन्द्रभोगेनायनरेखास्थितस्य वै॥ अयनेन शोधयेत् सूर्य चन्द्रं सूर्येण शोधयेत् / स्थितमेककलाभोगे इन्दुना मङ्गलादिकम् // तिथिं राहुप्रवेशेन पर्वच्छेदेऽशितेऽशिते / तिथ्योरुभयोर्मध्ये विमर्दनेन्दुसूर्ययोः // एवं सर्वं परिज्ञाय सिद्धान्ते भोगमन्यथा / अन्यथा लघुकरणादेरतोऽशुद्धि विवर्जयेत्” // इति / एवमुक्तक्रमेण परमादिबुद्धतन्त्रराजोक्तं सिद्धान्तलक्षणं लघुतन्त्रराजे “सिद्धान्तानां 25 विनाश" (का० त० 1.26) इति वचनेन संगृहीतं तन्त्रेण विस्पष्टं कृतम् / तत्कस्य हेतोः ? इह तीर्थिका लघुतन्त्रराजं दृष्ट्वा सूर्यभो[58b]गं विशुद्धं दृष्ट्वा स्वकीय 1. ख. साधिता। 2. क. मंगलोदयः। 3. ख. चन्द्रश्च / 4. ख. भावेन / 5. क. यैर्भुक्ते चन्द्रमा०। 6. क. ग. °चारतः / 7-8. ग. तिथिराहुप्रवेशेन / 9. अत्रतः घ. पुस्तकपाठो लम्यते / 10. ख. तन्त्रेन / Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुकरणान्तरे लिखिष्यान्ति ; अस्माकं करणेऽपि सूर्यभोगविशुद्धिरस्तीति, अतो हेतो!त्तानीकृतं टीकापेक्षयेति / इदानी दिननिशाहानिवृद्धिरुच्यते षण्मासं हानिवृद्धी द्वे यथासंख्यं हानिर्वृद्धिश्च भवति / दिननिशायाश्च 5 दिनस्य च निशायाश्च, सूर्यप्रचारैरुत्तरचारैर्दक्षिणचारैः सूर्यस्य सूर्यप्रचारैरिति / अन्धिप्राणाग्निलिप्ताः प्रतिदिनसमये वृद्धिनाशेऽयनाङ्गरिदं मानं कैलाशस्योत्तरभागे हिमवन्तं यावत् प्रत्यहं चत्वारः श्वासास्त्रोणि पाणीपलानि वृद्धि शश्चायनाङ्गेरयनाङ्गं सार्द्ध द्वयशीत्यधिकदिनशतं तैदिनैरयनाङ्गः सव्ये रात्रेवृद्धिर्भवति / उत्तरे वासरस्येति / कैलाश(स)स्य दक्षिणे वक्ष्यमाणे वक्तव्यम् / इह माने दक्षिणायन19 संक्रान्तिदिने षट्त्रिंशद्भिर्घटिकाभिर्दिनं भवति, चतुर्विंशतिभी रात्रिर्भवतीति / एवमुत्तरायणे रात्रिदिनम.नं विलोमेन ज्ञातव्यमिति / इदानीं राहुनक्षत्रभोग उच्यते मासा नेत्रार्कमिश्रा नयनविगुणिताश्चन्द्रपर्वैकमिश्राः खर्वम्भोधिप्रभक्ता मुनिकरगुणिताः खादिभागेन चर्भम् / शिष्टाः षष्टयाहता ये पुनरपि घटिकास्तेन लिप्ता हतास्ते चक्र लब्धं न वक्त्रं भवति च तमिनः पुच्छऋक्षार्द्धमिश्रम् // 39 // मासा इति / मासाः करणमासा इति / नेत्रार्कमिश्रा इति करणापेक्षा न सिद्धान्तापेक्षा। नेत्रार्क इति / द्वाविंश यधिकशतमिश्रा इति / नयनविगुणिताः पक्षराशिनिमित्तं द्वाभ्यां गुणिता इति / चन्द्रपर्वैकमिश्राः पूर्णिमाभोगार्थं पक्षमेकं 20 मिश्रम; अमावास्याभोगार्थ पक्षद्वयमिश्रं पक्षराशौ भवति / खर्वम्भोधिप्रभक्ता इति राहोः पक्षभोगार्थम् / पक्षमण्डलेन षष्ट्युत्तरचतुःपक्षशतेन२ भागः। तेन खर्वम्भोधिना प्रभक्का ये अवशेष[59a]पक्षास्ते मूनिकरगुणिता भवन्ति / नक्षत्रभोगार्थं खादिभागेन चर्भम् / खादोति शून्यादिना षष्ट्युत्तर चतुःशतभागेन लब्धमृक्षं भवति / पुनरवशेषा शिष्टाः षष्टयाहता ये, तेनैव भागेन लब्धा 25 घटिका भवन्ति / एवं षष्ट्या हतास्तेनैव भागेन लिप्ता भवन्ति / षड्भिहतास्तेनैव भागेन श्वासा भवन्ति / चक्र लब्धो(-)न वक्त्रम् / अत्र यत् खर्ध्वम्भोधिना भाग-४ लब्धं नक्षत्रादिकं तच्चक्रे सप्तविंशतिनक्षत्रात्मके ऊनीकृते चक्र वक्त्रं भवति / वक्त्रं नक्षत्रभोगेऽश्विन्यादिना' भवति च तमिनो, राहोस्तमोऽस्यास्तीति तमी, तस्य तमिनः। पुच्छऋक्षार्द्धमिश्रमिति / ऋक्षार्द्ध सार्द्धत्रयोदशनक्षत्राणि तैमिश्रं मुखभोगे 30 पुच्छ इति पुच्छभोगो भवतीति / 1. ग. चतुर्विशतीति रात्रैर्हानिर्भवतीति; घ. चतुर्विशतिभिः रात्रवृद्धि भवति / 2. ग. शतैः न / 3. क. च / 4. क. घ. पुस्तकयोः 'भाग' इति नास्ति / 5. क. अश्विन्या। T 276 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः मासास्त्रिशद्हताश्च प्रतिदिनसहिताः शैलखागैश्च लब्धं विस्थामध्ये विमिश्रं त्वपि जलधिरसैलब्धहीनोऽस्फुटाहः / शैलत्र्वेकैश्च मिश्रः स्फुटदिवसगणः शैलनागर्तुभक्तः शेषश्चर्धा हतं यत् पुनरपि खरसैर्गुण्यशैलादिनाड्यः // 40 // इदानीं मङ्गलादीनां नक्षत्रभोगार्थमहर्गणमुच्यते मासा इति करणमासाः। दिनराशिनिमित्तं त्रिंशदहताश्च ते दिनानि भवन्ति / ते दिना[नि] वर्तमानमासप्रतिदिनेन सहिता(नि)भवन्ति / त्रिस्था अधोराशेः / शैलखागैश्चेति सप्तोत्तरसप्तशतर्भागलन्धं मध्यराशौ विमिश्रम्, ततो मध्यराशेरपि जलधिरसैश्चतुःषष्टिभिर्भागलग्धेन होनोऽस्फुटाह इति / क्वचित् प्रतिदिनवाराधिकेन स्फुटार्थमेकवारो हीनो भवति; ततः स्फुटोऽहर्गणो भवति इति / इदानीं मङ्गल उच्यते शैलवेंकैश्च मिश्र इति करणापेक्षा न सिद्धान्तापेक्षा इति, सप्तषष्ठ्यधिकशतेन मिश्रः शैलाकैश्च मिश्र इति / स्फुटदिवसगणः शैलनागर्तुभक्त[59b] इति / स च दिवसगणो मङ्गलदिनैः सप्ताशीत्युत्तरषट्शतैर्भक्तः शैलनागर्तु भक्त इति / अतो मङ्गलस्य परिवर्तनं ज्ञात्वा शेषश्चाहतः सप्तविंशतिभिर्हतः पुनः शैलनागर्तुभिः हतं 15 नक्षत्रं भवति / खरसैः षष्ठिभिरपि गुण्यशैलादिभिः लब्धा नाड्यो मङ्गलभोगेन लब्धा भवन्ति / पाणीपलादिकं पूर्वोक्तविधिनेति / . ___ अत्र सर्वग्रहाणां पञ्चविधं भोगस्थानं भवति–राशिस्थानं नक्षत्रस्थानं घटिकास्थानं पाणीपलस्थानं श्वासस्थानम् / अधोऽधो भवन्ति-श्वासस्थानेषु उपरि श्वासा न तिष्ठन्ति; षड्भागेन लब्धाः पाणीपलेषु विशन्ति ; पाणीपलानि षष्ठयुद्धे (दर्श्वे) न 20 तिष्ठन्ति, षष्ठयाभागेन लब्धा घटिका राशौ विशन्ति / घटिकाप्येवं नक्षत्रराशौ विशन्ति; नक्षत्राणि कर्मद्वये साद्ध त्रयोदशोद्धेन तिष्ठन्ति / षड् राशयस्तिष्ठन्तीति निममः / इदानीं मङ्गलशुद्धिरुच्यतेशोध्याः सार्धा नवारे यदि ऋणमधिकं चक्रमिश्रे विशोध्यं त्याज्यं चक्रार्द्धम धिकमपि च भवेत् त्यक्तशेषोत्क्रमः स्यात् / ऋक्षे षष्टया हते युक् प्रभवति घटिकाभूतवह नीन्दुभु(भ)क्तं यल्लब्धं मन्दकर्मण्यपि च धनमृणं चोत्क्रमेण क्रमेण // 41 // शोध्याः सार्धा नवारे इति / इह मङ्गलस्य नक्षत्रादिभोगे पृथक्कृते एकस्मिन् भोगे आरे भवति' शोध्या नव नक्षत्राः। सार्द्धा इति त्रिंशद् घटिका घटिकास्थाने 1. क. शैलनागवं / 2. क. 0 स्थानेष ; ख. 0 स्थाने षडुपरि / 3. घ. भवन्ति / 4. क. 0 त्रयोदशार्द्धन। 5. क. घ. इति / Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 93 विमलप्रभायां [लोकधातुशोधनीया जन्मचरणग्रहणार्थम् / अश्विन्यादौ नक्षत्रभोगे यदि ऋणमधिकं चक्र" मिश्रे विशोध्यमिति / इह नक्षत्रभोगे अश्विन्यादिकेऽवश्यं ऋणं शोधनीयं यद्यधिकं ऋणं ऋणराशिरधिका भोगराशि हीना तदा चक्रे मिश्रे विशोध्यं चक्रं सप्तविंशतिनक्षत्रसमूहः ; तेन मिश्रे वि[60a]शोधनीयं ऋणमित्यर्थः / त्याज्यं चक्रामिति / अत्र शोधितेऽवशेषं चक्राई यदि भवति, तदा त्याज्यम् अर्धाधिकमपि भवेत् / अत्रार्द्धाधिकं यदवशेषं तस्य त्यक्तशेषस्योत्कमो भवति (स्यात्) उत्क्रमेण मन्दकार्ये धनं सर्वग्रहाणां क्रमेण ऋणमिति / ऋक्षे षष्टया हते यक् प्रभवति घटिका घटिकापिण्डनिमित्तम् / ऋक्षे पिण्डे षष्ट्या हते सति अधःस्थं घटिकापिण्डं मूनि युग् भवति / भूतवह्नीन्दुभु(भ)क्तं राशिचरणार्थम् / घटिकाराशेः पञ्चत्रिंशदधिक10 शतेन भक्तं यल्लन्धं तद् राशिचरणं भवति / मन्दकर्मण्यपि च धनमृणं चोरक्रमेण क्रमेण यथासंख्यं वेदितव्यम् / अत्र राशिचारपदानितत्त्वान्यष्टादशाद्रिः प्रकटरसपदान्यर्द्धचक्रे ऽप्यधोवं हन्याद् भोगेन नाडीः शरगुणशशिभिर्भागलब्धोद्धचक्रात् / पूर्वाद्ध ग्राह्य इष्टो भवति पदवशात् त्याज्य एव पराद्ध भुक्तं कृत्वैकपिण्डं ग्रहगमनवशाद् देयहेयं च नाड्याम् // 42 // तत्त्वानि जन्मनः प्रथमराशौ पञ्चविंशत्, द्वितीये अष्टादश, तृतीये अद्रीति सप्त पूर्वराशित्रये / ततो परचक्रार्द्ध चतुर्थराशौ सप्त, पञ्चमे अष्टादश, षष्ठे पञ्चविंशदिति प्रकटरसपदान्यचक्रे ऽप्यधोऽमिति / हन्याद् भोगेन नाडीः घटिकाराशिः पञ्च20 त्रिंशदधिकशतभागेन लब्धो राशिभोगो भवति / तदेव षट्पदमध्ये पदम् ; ततो द्वितीयः, भुज्यत इति भोगः, तेन भोगेनावशेषेणावशेषनाडीहन्यात् / शरगुणशशिभिर्भागलब्धोऽर्धचक्रात् / नाडीभोगेनाहतराशेः पञ्चत्रिंशदधिकशतभागेन लब्धः पूर्वार्धे ग्राह्य इष्टो भवति / पदवशादिति यावद् ग्रहोऽपराद्धं न व्रजति, ततस्त्याज्य एव परार्धे / स एव भागोऽ[60b]परार्द्ध त्याज्यो भवति / भुक्तं कृत्वैकपिण्डमिति यद् राशिवशेन चरणं भुक्तं ग्रहैस्तदेकपिण्डं कृत्वा पूर्वार्द्ध स्थितम्; अपराद्धेऽभुक्तं पिण्डमेकं कृत्वा पूर्वापरं भुक्तं त्यक्त्वा ग्रहगमनवशाद् देयहेयं च नाड्यामिति / ग्रहाणां गमनम् उत्क्रमेण क्रमेण च (का० त० 1.41), तद्वशाच देयं हेयम्; उत्क्रमणवशाद् देयम्, क्रमवशाद् हेयं नाड्याम्, घटिकाराशौ ग्रह भोगेन नक्षत्रराशाविति नियमः; सर्वत्र मन्दकर्मणि मङ्गलादीनामिति राशिकर्मविधिः, 30 जन्मचरणशुद्धिरिति / 1. क. चक्र, ग. चक्र। 2. ग. घ. एकपिण्डं। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योविनिविधिमहोद्देशः इदानीं शीघ्रकर्मविधिरुच्यतेसूर्ये भौमो विशोध्यो गुरुरपि रविजः शीघ्रकर्मण्यथैव सौम्ये शुक्र च सूर्यः खलु भवति धनं शीघ्रकार्ये क्रमेण / शोध्यः शेषोऽत्र चारो ग्रहचरणपदैः शेषनाडीनिहत्य षष्टया भागेन लब्धं ग्रहचरणपदं ग्राह्यहार्य तथैव // 43 // सूर्ये भौमो विशोध्यो गुरुरपि रविजः शीघ्रकर्मण्यथैव / अथानन्तरमेवेति / पुना राशिकर्मविशुद्धग्रहभोगः सूर्यभोगे शोधनीयः / सूर्ये भौमो विशोध्य इति; मन्दभोगे रविकारहिते पृथग् ग्रहभोगं कृत्वा अथैवेति गुरुरपि शोध्यो रविजः शनिरवि(पि)' शोध्यो भवति, यथा मङ्गलोऽपिशब्देनेति / क्व ? शोघ्नकर्मणि। एवं सौम्ये सौम्यभोगे सर्यः सो(शो)ध्यो बुधभोगार्थं शुक्र च शुक्रभोगे च सूर्यः सो(शो)ध्यः शुक्रभोगार्थम् / 10 अत्रोच्चग्रहो नीचग्रहे(ण)२ विशोध्य इति नियमः / तेन सौम्ये शुक्रे च सूर्यः शोधनीयः / खलु भवति धनं शीघ्रकार्ये क्रमेणेति / अत्र शीघ्रकर्मणि शीघ्रकार्ये क्रमेण धनं भवति / T277 खल्विति निश्चितम् / उक्तक्रमेण ऋणं भवति, अर्धचक्रे परित्यक्ते / उच्चग्रहभोगविशुद्धावशेषनक्षत्रं दिनभोग वशेन ग्रहाणां न[61a]क्षत्रचरणं भवति। तदेव ग्रहचरणपदमनेकघटिकात्मकम् / तैप्रहचरणपदैर्घटिकाभिः शेषनाडीनिहत्य षष्टया 15 भागेन लब्धं ग्रहचरणपदात् ग्राह्यहार्य तथैवेति पूर्ववत् पूर्वार्धे ग्राह्यम्, अपरार्धे हार्यमिति / भुक्तं कृत्वैकपिण्डं ग्रहगमनवशाद् देयहेयं समस्तं भौमे चारा जिनाद्याः प्रकटमनुपदे स्थापनीयाः समस्ताः / ' एवं सनग्रहाणां क्रमपरिगणना वेदितव्या नरेन्द्र सौम्ये शुक्रे विशुद्धो भवति दिनकरः सौम्यशुक्रौ च भोगात् // 44 // 20 भुक्तं कृत्वैकपिण्डं ग्रहगमनवशाद् देयहेयं समस्तमिति / अत्र शीघ्रकर्मणि क्रमे देयम्, उत्क्रमेण हेयम् / पूर्वार्धे भुक्तं पिण्डम्, अपरार्धे अभुक्तं पिण्डं पूर्ववदिति / भौमे चारा जिनाद्या इति जिनाश्चतुर्विंशतिः; तैः चादी येषां चतुर्दशपदानां मनुपदे चतुर्दशपदे स्थितानामादौ पदे स्थिताः; भौमे तदाद्याश्चारा जिनाद्याः प्रकटमनुपदे 25 चतुर्दशनक्षत्रस्थाने समस्ताः स्थापनीया इति / एवं सर्वग्रहाणां क्रमपरिगणना वेदितव्या नरेन्द्र इति / सौम्ये सौम्यभोगे शुक्र विशुद्धः सूर्यः सोमपुत्रो बुधश्च भवति / शुक्रे विशुद्धः सन् शुक्रो भवति, सौम्यशुक्रौ च भोगादिति मङ्गलविशुद्धिः / 1. ख. शशिरपि / 2, भोटानुसारम् / 3. ख. अवशेष / Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ लोकधातुइदानीं बुध उच्यतेश न्याकाशेन्दुगुण्यं दिनगणसकलं वह्निसूर्याद्रिहीनं शैलाद् रन्ध्रादिनागैः हृतमपि निहतं शेषमृक्षादिभेदैः / प्रोक्त गेन चळं पुनरपि घटिका सौम्यभोगे भवन्ति सौम्यं त्यक्त्वार्कमध्ये त्यज सुनृप नृपं चाद्धऋक्षं च सम्यक् // 45 // शून्याकाशेन्दुगुण्यं' दिनगणसकलमिति / प्राग् विशुद्धं सकलदिनगणं शतेन गुण्यं शून्याकाशेन्दुगुण्यमिति / वह्निसूर्याद्रिहीन[61b]तदेव शतगुणितं दिनगणम्, त्रयोविंशत्यधिकैकसप्ततिशतै नमिति / शेलाद् रन्ध्रादिनागैर्हतमिति / शैलात् सप्ततः, रन्ध्रादिनागा इति सप्तनवतिसप्तशताष्टसहस्राष्टैः३ शैलाद् रन्ध्राद्रिनागैमण्डलदिनैः स्वचरणस्य हृतं विभञ्जितमिति / अपि निहतं शेषमृक्षादिभेदैरिति मण्डलदिनभागावशेषं दिनगणनिहतमपि ऋक्षादिभेदैः सप्तविंशतिभिनिहतम् / आदिशब्दात् पुनर्मण्डल- .. भागावशेषं षष्टया निहतम् / एवं पाणीरलैनिहतं श्वासैः षभिनिहतमिति / प्रोक्तमण्डलदिनैर्भागेन ऋक्षं लब्धं भवति पुनरपि घटिकास्थाने / एवं पाणीपलानिःश्वासा लब्धा इति सौम्यभोगे चरणभोगे भवन्ति / सौम्यं त्यक्त्वार्कमध्ये त्यज सुनृप नृपं चार्धऋक्षं च सम्यगिति / अद्या(द्रया) दिमण्डलेन यल्लब्धं सौम्यभोगं तत् त्यक्त्वा शीघ्रकर्मणि विशुद्ध्यर्थम्, अतोऽर्कमध्ये त्यज हे सुनुप नृपं षोडशनक्षत्रम्, अर्धमृक्षं च त्रिंशद् घटिका सूर्यघटिकाभोगे' अथमृ(ऋणं न शुद्ध्यति, तदा नक्षत्रचक्रं प्रक्षिप्य ऋणं विशोधयेदिति पूर्वनियमात् / .. शिष्टं कार्य यथारे भवति धनमणं मन्दशीघ्रं च कर्म सौम्ये यन्मन्दकार्ये दशगिरिशिखिनः शीघ्रकार्ये नृपाद्याः / कृत्वाहः पिण्डमूल(नं) खखरसनयनैर्दन्तवह्नयब्धिभक्तं शेषे त्वक्षघ्नऋक्षं पुनरपि घटिका मन्दकार्ये गुरोश्च // 46 // शिष्टं कार्य यथारे भवति धनमृणं मन्दशोघं च कर्मेति सुबोधम् / सौम्ये यन्मन्दकार्ये दशगिरिशिखिन इति / सौम्ये बुधे मन्दकार्ये राशिकर्मणि षट्पदेषु पूर्वापरेषु 25 दश प्रथमराशिपदे, गिरि इति सप्त द्वितीये राशिपदे, शिखिन इति त्रयस्तृतोये राशिपदे, इति पूर्वार्धे; ततोऽपरार्धे चतुर्थराशिपदे त्रयः, पञ्चम[62a] राशिपदे सप्त, षष्ठराशिपदे दशेति दशगिरिशिखिनो मन्दकार्ये पदानीति। शीघ्रकार्य नक्षत्रकर्मणि नृपाद्याः षोडशाद्याश्चतुर्दशस्थाने चतुर्दश वारा भवन्ति, ते च वक्ष्यमाणे वक्तव्या इति बुधपरिशुद्धिः / 1. क. गुण्यां; भोटानुसारं 'गुण्य' / 2. क. सते; भोटानुसारं 'शतेन' / 3. क. सहस्रास्तैः / 4. क. अद्या; भोटानुसारम् 'अद्रया'। 5. क. भोगो; ग. ये भोगे / 6. क. न प्रक्षिप्य / Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः इदानीं बृहस्पतिरुच्यते कृत्वाहः पिण्डमूनं खखरसनयनैरिति षड्विंशतिशतैरूनमहः पिण्डं पूर्वदिनगणं' कृत्वेति / खखरसनयनरूनमिति करणापेक्षा न सिद्धान्तापेक्षात इति / दन्तवह्नवि(ह्नयब्धि)भक्तमिति द्वात्रिंशदधिकत्रिंशच्चतुःसहभक्तमिति / शेषे भत्त.विशेषे ऋक्षघ्नं सप्तविंशतिभिर्गुणितं मण्डलभोगेन' नक्षत्रं भवति / पुनरपि पूर्वोक्तक्रमेण घटिकादिका 5 भवन्तीति; गुरोर्नोगे चेति। नक्षत्रं शोध्यम हरनवशिखिनो मन्दकार्ये पदानि भूयः शीघ्रं पदानि प्रकटमनुपदे दिक्पदाद् यानि तानि / हत्वाहः खेन्दुनोनं जलनिधिवसुभिर्भक्तम!जिना: ऋक्षघ्ने चर्तंभोगः पुनरपि घटिका शीघ्रकार्ये भृगोश्च // 47 // 10 नक्षत्रं शोध्यमर्कमिति / अत्र बृहस्पतिभोगे द्वादशनक्षत्रं शोधनीयम्, शिष्टं कार्य मङ्गलवदिति / हरनवशिखिनो मन्दकार्ये पदानि पूर्ववत् षड्राशिपदे हर इति एकादश, ततो नव, ततः शिखिन इति त्रयः / एवमपराद्धेऽपि विलोमेनेति / भूयः शीघकर्मणि मनुपदानि प्रकटमनुपदे (चतुर्दशपदे) विक्पदाद यानि तानोति / दिगिति दशादिनक्षत्रचारपदानि वक्ष्यमाणे वक्तव्यानीति बृहस्पतिशुद्धिः / इदानीं शुक्र उच्यते हत्वाहः खेन्दुनेति दशभिर्दिनगणं हत्वा / ऊनं जलनिधिवसुभिरिति / चतुरशीतिभिरूनं कृत्वा भक्तमट्टैजिनाक्षरिति सप्तचत्वारिंशदधिकद्वाविंशच्छतै रिति / चरणमण्डलदिनैः शीघ्रचरण[62b]शुद्धध्यर्थम् , अवशिष्टे ऋक्षघ्ने चर्तभोगः पुनरपि घटिकाभोगैर्मङ्गलवत् / एवं पाणीपलादिभोगः शीघ्रकायें भृगोर्भवति मन्दकार्ये भृगोश्च / 20 ऋत्वृक्षं(त्वॉ) शोध्यमर्के शरयुगशशिनो मन्दकार्ये पदानि शीघ्र तत्त्वादिभेदैः प्रकटमनुपदेः देयहेयं तथारे / ऊनः खाक्ष्यष्टवेदैः स्फुटदिवसगणः षड्रसागाम्बरैकैः भक्तश्चक्षुघ्नऋक्षं भवति च शशिनः(शनेः) पात्यमष्टादशश्च // 48 // ऋत्वक्ष(क्ष)मिति षड्नक्षत्रम् / शोध्यमर्के सूर्यभोगे इति सर्वत्र पञ्चम्यर्थे 25 सप्तमी वेदितव्या। शरयुगशशिनो मन्दकायें पदानीति पूर्ववत् षड्राशिस्थाने शर 1. ख. पूर्वदिगणं / 2. क. क. भागेन / 3. भो. gNes bCu bSi (चतुर्दशपदे), अत एव अत्र भोटानुसारं'चतुर्दशपदे' इति योजनीयम् / 4-5. ख. पुस्तके नास्ति / 6. क. पुस्तके नास्ति; परन्तु भोटानुसारमावश्यकम्-Dag Pahi Don dul ८.ख. मर्को। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुइति पञ्च, युग इति चत्वारः, शशिन इति एकः / पूर्वार्धे एवं विलोमेनापरार्धे शीघ्र शीघ्रकर्मणि / तत्वादिभेदैरिति' पञ्चविंशत्यादिभेदेः२ / प्रकटमनुपदे चतुर्दशनक्षत्रचरणपदे; देयहेयं तथारे यथा मङ्गले तथा चारपदं देयं हेयं च भवतीति शुक्रशुद्धिः / इदानीं शनिरुच्यते ऊनः खाक्ष्यष्टवेदैः स्फुटदिवसगण इति / पूर्वदिनगणः स्फुट ऊनो विंशत्यधिकाष्टशतचतुःसहस्र रूनेति करणापेक्षा, न सिद्धान्तापेक्षा; अतः षडरसागाम्बरैकैक्त इति; षषष्ट्यधिकसप्तशतदशसहस्रमण्डलदिनैर्भक्त इति / अवशिष्टै ऋक्षघ्ने मण्डलदिनभागैर्लब्ध नक्षत्रं भवति / एवं पाणीपलादिको भोगो भवति शशि(नि)नः पात्यमष्टा दशञ्चेति / शनिभोगादष्टादश नक्षत्राणि पात्यानि भवन्ति; ऋणाधिके चक्रं दत्वा 10 शोध्यानि भवन्तीति; पूर्वनियमो जन्मनक्षत्रचरणार्थमस्य मन्दकर्मणि / षड्द्वाविंशद्दिनर्तुः प्रकटरसपदे शीघ्रकार्ये रसाद्याः शीघ्रो मन्दश्च चारः क्रमपदगमने वक्र एवोत्क्रमेण / पूर्वाद्ध[63a]चापरार्द्ध रविगमनवशानिर्गमश्च ग्रहाणां सप्तत्रिंशत्सु मासैर्भवति करहतः शीघ्रवक्रौंच केतोः / / 49 // T278 15 षड्द्वाविंशदिनर्तुरिति षड्राशिपदेषु पदानि, प्रथमराशी द्वाविंशत्, ततो दिनानि" पञ्चदश, ततः ऋतुरिति षट् / एवमपरार्द्ध विज्ञेयम्, प्रकटरसपद इति वचनात् / शीघ्रकार्ये रसाद्या इति शीघ्र नक्षत्रकर्मणि चतुर्दशस्थाने रसाद्याः षट्पदाद्याश्वारा देया हेयास्ते च वक्ष्यमाणे वक्तव्या ग्रहचारसमूहे सर्वथेति शनैश्चरशुद्धिः। इदानी चारलक्षणमुच्यते शीघ्रो मन्दश्च चारः क्रमपदगमन इति / शीघ्रकर्मणि सूर्यमण्डलादुदितग्रहस्य चतुर्दशचरणघटिका॰ पूर्वभोगः शीघ्रचार उच्यते / क्रमेण पदगमन इति क्रमपदगमनेऽपरार्द्ध यो भोगः स मन्दचार उच्यते / वक्रमेवोत्क्रमेण / ततोऽद्धचक्रे परित्यक्ते उत्क्रमो ग्रहस्य भवति / स च उत्क्रमो वक्रचार उच्यते / पूर्वार्धे चापरार्धे रविगमनवशानि र्गमश्च ग्रहाणां निर्गमचार इत्युच्यते / वनपरित्यागात् अत्रोदया(त्) क्रमगमने धनवृद्धिः 25 पूर्वाद्धं यावत्; ततोऽपराः धनक्षयं चक्रार्द्धं यावत्; ततः चक्रार्द्धपरित्यागादुत्क्रमेण पूवार्द्ध ऋणवृद्धिरपरार्द्ध ऋणहानिः सूर्यनक्षत्रप्रवेशं यावत् ; ततोऽस्त[ङ्ग]मनं (गते) सूर्ये पुनरेवोदयस्तेनैव क्रमेण वेदितव्य इति / सप्तत्रिंशत्सु मासैर्भवति करहतैः शीघ्रवकं च केतो रिति अत्र केतोरुद्देशपदमिदं वक्ष्यमाणे विस्तरेण वक्तव्यमिति ग्रहाधिकारः / 1-2. भोटानुसारम-Ni Su Tsa Na La Sogs Pahi dBye Bes De Nid LadBye Bes Ses So1 3. ख. वृद्धिः / ४.क. ०धिको; ग. ०धिक। 5. ग. घ. दिनानीति / 6. ग. हेतो। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिनिविधिमहोद्देशः इदानीं ग्रहाणामस्तमनोदयकाल उच्यतेयः कश्चित् सूर्यभोगं प्रविशति नियतं स ग्रहश्चास्तमेति सूर्य त्यक्तोदितः स्यादयनगतिविभागेन मार्गश्च तस्य / वामे मार्गे स्थितो यो रविगमनवशात् स व्रजत्युत्तरेण सव्यस्थो दक्षिणेन स्फुटमपि च रिपोर्युद्धमन्योऽन्यमत्र // 50 // / यः कश्चित् सूर्यभोगं प्रविशति नियतं स ग्रहश्चास्तमेतीति सूर्यमण्डलरश्मिभिरदृष्टत्वादस्तंगत इत्युच्यते[63b], न ग्रहस्य सर्वथाऽभाव इति / सूर्य त्यक्तोदितः स्यादिति स एवास्तंगतो ग्रहः स्वचरणवशात् सूर्यं त्यक्तः सन्नुदितो भवति, सूर्यरश्मिभिः' परित्यक्तत्वादिति / अयनगतिविभागेन मार्गश्च तस्येति / तस्योदितग्रहस्यायनगतिविभागेन; मार्गश्चायनयोविभागोऽयनविभागः; अग्निवलयात् कैलाश(स)स्योत्तरे हिमवन्तं 10 यावत्, हिमवतो दक्षिणेऽग्निवलयं यावत्, सार्द्धद्वयशीतिदिनशतविभागत इति; तेन सूर्यस्यायनगतिविभाग इति; तेन सूर्यगतिविभागेनोदितानां ग्रहाणां मार्गश्च तेषां भवतीति / वामे मार्ग स्थितो यो रविगमनवशात् स व्रजत्युत्तरेणेति / इह वाममार्गे ग्रहाणां सौम्यादीनां सौम्यानां बुधशुक्रकेतूनां वामाङ्गे सम्भूतत्वादिति सूर्यमण्डलेऽप्यस्त- 15 मनकाले वामाङ्गेन प्रवेशो वामाङ्ग नाप्युदयोऽतो वाममार्गे स्थितो यो ग्रहः स क्रूरग्रहाणामुत्तरेण व्रजति; यथा भानोः सव्यस्थो दक्षिणेनेति / इह सव्यस्थः सव्ये मार्गे यः सूर्यमण्डले अस्तंगतो मङ्गलो बृहस्पतिः शनिरिति, क्रूरो दक्षिणे सौम्यग्रहाणां व्रजति दक्षिणाङ्गे सम्भूतत्वादिति / अत्र वामाङ्ग सम्भूतत्वात् केतुः सौम्यः कायभेदेन, दक्षिणाङ्गे सम्भूतत्वाद् बृहस्पती रौद्रः कायभेदेन; तथा स्फुटमपि च रिपोयुद्धमन्योऽन्य- 20 मोति / अनयोः सौम्यक्रूरयो धमङ्गलयोबृहस्पतिशुक्रयोः शनिकेत्वोः परस्परं युद्धम्, रिपुत्वादिति / स्वक्षेत्रे संस्थितानां यदि भवति रिपुनिश्चितं तत्र युद्धं नक्षत्रे नान्येन युद्धं खलु भवति समायुक्तिरन्योन्यमत्र / वामे चन्द्रप्रवेशो यदि भवति रवी निर्गमश्चोत्तरेण वामे शृङ्गोन्नतिः स्यात् क्वचिदयनवशान्निर्गमे दक्षिणे च॥ 51 // स्वक्षेत्रे संस्थितानां यदि भवति रिपुनिश्चितं तत्र युद्धमिति / स्वक्षेत्रं मङ्गलस्य मेषराशिवृश्चिकराशि श्चेति; तस्मिन् क्षेत्रे संस्थितस्य यदि बुधभोगो भवति, तस्मि[64a]न् क्षेत्रे (तेक्को') तदा निश्चितं युद्धम् / एवं बुधक्षेत्रे मिथुने कन्यायां यदि मङ्गलो 1. क. सूर्य० / 2. क. ०स्यु (स्त्यु) / 3. घ. वामाङ्गे। 4. क. पुस्तके अयमशो प्रसङ्गः। *. घ. पुस्तके अग्रे पाठः खण्डितः। 25 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु भोक्ता चरणवशाद् भवति, तथापि युद्धमिति / एवं बृहस्पतिक्षेत्रे धनुषि मीने शुक्रो यदि भवति, तदा युद्धं शुक्रबृहस्पत्योः / एवं शुक्रक्षेत्रे वृषभे तुलायां चेति / तथा शनिक्षेत्रे मकरे कुम्भे यदि केतुर्भवति, तदा युद्धम् / एवं कर्कटेऽपि यदि शनिर्भवति, शनि क्षेत्रे तदा केतुना सह युद्धम्, केतोरुत्पन्नत्वादिति / नक्षत्रे नान्येन युद्धमिति / अत्र पुनर्नक्षत्रे ग्रहाणां जन्म नक्षत्रापेक्षयेति; न केवलं स्वक्षेत्रे राशौ युद्धं जन्मनक्षत्रेऽपि रिपोयुद्धं भवतीति, पुनर्वसौ शुक्रनक्षत्रे, मघायां मङ्गलनक्षत्रे, हस्तायां बृहस्पतिनक्षत्रे, अनुराधायां बुधनक्षत्रे, मूले शनिनक्षत्रे, उत्तराषाढायां केतुनक्षत्रे सौम्यमङ्गलयोः स्वस्वनक्षत्रे युद्धम्। एवं शुक्रबृहस्पत्योः शनिकेत्वोरिति, स्वनक्षत्रं विना अन्ये नक्षत्रे क्षेत्रे वा युद्धं न भवतीति खलु निश्चितम् / अन्यनक्षत्रे 10 समायुक्तिरन्योन्यं भवतीति / एवं चन्द्रस्यापि भृङ्गोन्नतिः; वामे चन्दप्रवेशो यदि भवति रवी निर्गमश्चोत्तरेण भवति; तदा उत्तरे शृङ्गोन्नतिः। क्वचिदयनवशाद् दक्षिणे दक्षिणायने दुर्भिक्षानावृष्टिहेतोः स्वभावत इति / पच्छेदे च राहोर्बजति सममुखः सम्मुखो ग्रास एव वामेचारेऽव(प)सव्ये रविगमनवशाद् दक्षिणे सव्यभागे / एवं राहविदिक्षु ग्रसति शशधरं निर्गतं पृष्ठतश्च अश्विन्याद्यर्द्धचित्रं निशिदिवससमा मध्यतो गोलरेखा // 52 // इदानीं राहोः प्रवेश उच्यते पर्वच्छेदे पूर्णिमायाश्छेदे, चकारादमावस्याच्छेदे च; राहोर्वजति चन्द्रः सममुखः सम्मुखो ग्रासः एव भवति / अत्र सम्मुखः पूर्वग्रासः, स एव [64b] राहोर्वलनवशात् 20 ज्ञातव्यः / सर्वकरणान्तरे प्रसिद्धत्वादत्र यत्नो न कृतो मञ्जश्रिया भगवतेति / वामे चारेश्व(प)सव्ये वामे वलने राहोरव(प)सव्ये वामे चन्द्रस्य ग्रासो भवति; रविगमनवशाद दक्षिणे सव्यभागे इति, रविभोगानिर्गतस्य चन्द्रस्य गमनवशाद् रविगमनवशादिति / दक्षिणे दक्षिणवलने दक्षिणे चन्द्रग्रासो भवति / एवं राहविविक्ष सति शशधरमिति / एवमुक्तक्रमेण वलनं वलनवशाच्छशधरं राहुर॑सति विदिक्षु; निर्गतं पृष्ठतश्च; 25 पूर्वादिवलनान्निर्गतं पश्चिमवलने पृष्ठतो ग्रसतीति मूलतन्त्रे चान्यकरणान्तरे वा राहोर्वलनादिकं ज्ञातव्यमिति / इदानीं नक्षत्रगोल उच्यते अश्विन्याद्यद्धचित्रं निशिदिवससमा मध्यतो गोलरेखा। अश्विन्यादिचित्राद्ध चित्रा दिरेवत्यन्तं मेषं तुलादिविषुवे दिनं रात्रिः समा गोलरेखा मध्यतो रवेरुदयास्तंT 279 30 गमनहेतोस्त्रिशत्रिंशद्दण्डात्मिका भवति / तदेव गोलं ऋक्षभेदेन भवति / 1. भो. Ri Bon Can (शशि) / Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः ऋक्षं सव्याव(प)सव्यं खलु भुवनपदे संस्थितं राशिभेदैश्चापाकारतुराशौ शिखिवलयगतं दक्षिणे गोलमध्यात् / वामे तच्छीतशैलं सुकमलदलवत् मेषपूर्वे तुलादौ वह्नः शीताद्रिसीम्नः खखखशरनगा योजनानां सहस्रम् // 53 // ऋक्षं सव्या[व](प)सव्यं खलु भुवनपदे संस्थितं राशिभेदैरिति / अत्र कर्मभूमौ 5 अज्ञानवशाद् बहुविधं गोलमतं कक्षादि भेदान्तरेणोक्तम् / अत्र किल गोले अष्टग्रहाणां शीघ्रमन्दगमनभदेन राशिभोगतुल्य इति / यथा धान्यमर्दने यो बलीवर्दः स्तम्भाद् दूरेभ्रंमति, स शीघ्रगामी बहुभिः पदैः प्रदक्षिणां करोति; यः स्तम्भसमीपं भ्रमति, स मन्दगामी स्तोकपदैः प्रदक्षिणां करोति; एवं ग्रहा अपि वेदितव्या इति / लौकिकमतं प्रथमं युक्त्या विचार्यते अत्र गणितव्यवहारो नास्ति; [65a] स्वस्वसिद्धान्ताभिप्रायवशादिति एकमतं न भवति; तस्मादेवं विचार्यते-इह गोले ये ग्रहाः सूर्याच्छीघ्रमन्दगामिनस्ते किमुपयुपर्यधोऽधः स्थिताः, अथ वामभागतो दक्षिणभागतः स्थिता इति ? उभयथा च विरोधः / यद्यध ऊर्ध्वं सूर्याद् व्यवस्थिताः, तदा शीघ्रमन्दानां समागमो न स्यात्, स्वकक्षापरित्यागात् / 15 - अथ ब्रूते पर सिद्धान्तवादी अधः स्थिताः सत्त्वाः अध ऊर्ध्वग्रहसमागमं समं पश्यति(न्ति), अधो ग्रहेणोर्ध्वग्रहः प्रश्ना(च्छा)दित स्य समत्वमिति / अत्रोच्यते-इह समत्वं मध्याह्नकाले, नोदये, नास्तमनकाले / उदयकाले अध ऊर्ध्व ग्रहा द्रष्टव्याः सत्त्वैः, भिन्नकक्षाप्रभावतः, तथाऽस्तमनकालेऽपि; न चैवम्, एवं सव्याव(प)सव्येऽपि व्यवस्थितानां सूर्येण सह समागमो नास्ति, *स्वकक्षापरित्यागतः / 20 एवं ग्रहाणां सूर्यमण्डलेऽस्तमनं न स्यादुदयोऽपीति / तस्माद् ग्रहाणां कक्षान्तरं नास्ति परमार्थतः / एतच्च बालानां व्यामोहजनकं वाक्यं युक्तिरहितं रचितमज्ञजनैरिति / _ इह प्रथमकक्षायां चन्द्रः, द्वितीयायां बुधः, तृतीयायां शुक्रः, चतुर्थ्यां सूर्यः, पञ्चम्यां भौमः, षष्ठ्यां बृहस्पतिः, सप्तम्यां राहुः, अष्टम्यां शनिरिति सम्भवति / इह राशिचक्रे सर्वग्रहाणामुत्तरगतिर्दक्षिणागतिरस्ति, यथा सूर्यस्य नक्षत्रभोगवशेन षड्राशि- 25 भोगवशेनेति / न च तस्या उत्तरगतेद्दक्षिणगतेः सूर्यसमागमे सूर्यस्य कश्चिद् ग्रह ऊध्वं गच्छति, कश्चिदधो गच्छति / इह राशिचक्रे मन्दगतिवशेन कश्चिद् ग्रहः सूर्यस्य पृष्ठत आगच्छति; उदितः सन् चन्द्रः पुरतो गच्छति; शीघ्रगतिवशाद् बुधशुक्रो चरणवशात् कदाचिदग्रतः कदाचित् पृष्ठत उदितौ गच्छत इति / 1. क. पक्षादि / 2. क. समानमानो। 3. क. परम / 4. भो. bsGribs Pa (प्रच्छादित) / 5. ख. पुस्तके ' रहितं' इति नास्ति / * अतः परं घ. पुस्तके पाठो लभ्यते। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां लोकधातुएषां गमनपरिज्ञानार्थं राशिगोलमुच्यते ऋक्षं सव्ये चतुर्दशस्थाने, अव(प)सव्ये चतुर्दशस्थाने संस्थितो(ते) राशिभेदैरिति, राशीनां भेदः सपादनक्षत्रद्वयं प्रत्येकराशेस्तै राशिभेदैः सार्द्धत्रयोदशनक्षत्राणि मध्यगोलरेखायाः; अश्विन्यादीनि चित्राद्ध यावदुत्तरे / पुनर्मध्यगोलरेखायाः चित्रार्द्धादीनि सार्द्ध5 त्रयोदशनक्षत्राणि रेवत्यन्तानि दक्षिणे। चापा[65b]कारतुराशौ शिखिवलयगतं दक्षिणे गोलमध्यात्। धन्वाकारे षड्राशौ नक्षत्राद्धचक्रं ऋक्षचक्रं दक्षिणे गतं गोलविषुवरेखायां मध्यत इति / वामे तच्छोतशैलं सुकमलदलवत् मेषपूर्व तुलादौ। यथा दक्षिणे षड्ाशौ प्रत्येकनक्षत्रार्द्धचक्रगतं तथा गोलमध्यरेखादुत्तरे प्रत्येकराशिभेदेन षड्राशौ गतम् ; 10 मेषपूर्वे तुलादौ कन्यान्ते गतमिति; एवं तुलादौ मीनान्ते गतमिति / अत्र पूर्वार्द्ध मेषः, इशे (ईशाने') वृषः, उत्तरार्द्ध मिथुनः; पुनरुत्तरार्धे कर्कटः, वायव्ये सिंहः, पश्चिमाः कन्या', पुनः पश्चिमार्धे तुला; नैऋत्ये वृश्चिकः, दक्षिणार्धे धनुः, पुनर्दक्षिणार्धे मकरः, आग्नेय्यां कुम्भः, पूर्वार्धे मीनश्चेति गोले राशिन्यासः। अस्मिन् मेषादये तुलास्तमनम्, वृषोदय वृश्चिकास्तमनम् / एवं सर्वत्रोदयराशेः सप्तराशे15 रस्तमनं वेदितव्यम्, अहोरात्रेति / इदानीं लोकसामान्यमतेन' गोलायाम उच्यते वहशीताद्रिसोम्नः खखखस(श)रनगा योजनानां सहस्रमिति / इह दक्षिणाग्निवलयादुत्तरमहाहिमवतः शो(सी)म्नः पञ्चसप्ततिसहस्र योजनानां गोलमानम् / एवं पूर्वापरवृत्तत इति स्फुटं पञ्चमपटले वक्तव्यमिति / मध्य चर्कार्द्धरेखागमनमपि रवेरेकरात्रं विषो च पश्चात् सव्याव(प)सव्यं चरति दिननिशि चक्षुभेदः क्रमेण / मार्गाणां खाहिचन्द्र त्यजति दिननिशं चायनान्तं हि यावत हानिर्वृद्धिः षडङ्जै(डंशै)स्त्वपि रविशशिनोः षष्टिनाड्यां निशाह्नि // 54 // मध्य(ध्ये) चक्रार्धरेखा इति मध्यराशिचक्रस्य विषुव रेखा पञ्चसप्ततिसहस्र योजनानां मध्ये सादर्धसप्तत्रिंशतसहस्रान्ते भवति, तस्यां गमनं मध्ये चक्रादर्धरेखागमनमपि रवेः। अपिशब्दात् सर्वेषां ग्रहाणा चक्राद्धमध्यरेखागमनं स्वस्वविषुवे भवत्येकरात्रं न सर्वकालमिति / पश्चात् सव्याव(प)सव्यं चरतोति पश्चाद् विषुवदिनाद् द[66a] क्षिणायने दक्षिणं चरति, उत्तरायणे उत्तरं चरति, सव्याव(प)सव्ये तुलादौ मेषादाविति / दिननिशि चक्षभेदैः क्रमेण मार्गाणां खाहिचन्द्रमिति अशीत्युत्तरशतसंख्यं मार्गाणां 1. भोटानुसारं 'dBan iDen (ईशाने)' इति / 2-3. घ. पुस्तके नास्ति / 4. क. गोलसामान्यमतेन; भो. hJig rTen sPyibi Lugs Kyis (लोकसामान्यमतेन)। 5. घ. पुस्तके सर्वत्र 'विषुवरेखा' स्थाने 'विश्ववरेखा' इति / Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः त्यजति / दिननिशं चायनान्तं हि यावदुत्तरायणाद् दक्षिणायनं यावद् दक्षिणायनादुतरायणं यावदिति / हानिर्वृद्धिः षडंशेस्त्वपि रविशशिनोः षष्टिनाड्यां निशाहीति / इह षडंशे हानिर्भवति, वृद्धिर्भवति / षडंशः षष्टिनाड्यां दशनाड्यौ रात्रे निः; मकरान्मिथुनान्तं यावद् दिवावृद्धिरिति दिनस्य हानिः; कर्कटाद् धन्वन्तं यावद् रात्रिवृद्धिरिति; खलु' रविशनि(शि)नोर्हानिवृद्धीति षडंशे / ___ इह कैलाश(स)खण्डे छायानियमः, नार्यविषये इति / आर्यविषये दशांशे हानिवृद्धी उत्तरायणाद् दक्षिणायनान्तं दक्षिणायनान्ताद् उत्तरायना(णा)न्तमिति,छायानियमवशात् / एवं भोट'-लोच'-चोनादिदेशेषु नवांशे अष्टमांशे सप्तमांशे सम्भलविषयान्तं यावच्छायावशेन हानिर्वृद्धी वेदितव्याविति / इदानीं द्वादशखण्डे भूगोलो मूनि सूर्यभ्रमणवशेनोच्यतेयस्माच्छैले जनानां भवति हि विषुवं मेषसूर्ये तुलार्के तस्माद् द्वयष्टे च खण्डे खलु वृषभगते वृश्चिकस्थे तथव रन्ध्राख्ये वहिनसंख्ये मिथुनधनुगते दिक्प्रमाणे चतुर्थे मार्तण्डे कर्कटस्थेऽपि च मकरगते पञ्चमैकादशे च // 55 // यस्माच्छैले जनानां भवति हि विषुवं मेषसूर्ये तुलार्क इति / यस्मिन् भूखण्डे 15 मेषार्के वसन्तार्द्ध विश्रु(षु)वं भवति, तुलार्के शरदर्धं भवति; तस्मादेवं मेषार्के शरदड़ भवति, तुलार्के वसन्त-ऋत्वद्ध विश्रु(षु)वं भवति / एवं परस्परापेक्षिकया यस्मात् प्रथमभूखण्डात् शैले सप्तमे खण्डे" मेरोदक्षिणादुत्तर उत्तराद् दक्षिणे सप्तमे भूखण्डे विश्रु(षु)- 7280 वं भवति; तस्माद् ह्यष्टये(द्वयष्टे) चख(च)खण्डे खलु वृषभगते वृश्चिकस्थे तथैवेति ; इह यथा पूर्वोक्ते मे[66b]रोदक्षिणान्तरभूखण्डे मेषसूर्ये तुलार्के विश्रु(षु)वं 20 भवति, तथा किञ्चिन्नैऋत्यकोणे स्थितः ईश्वर(ईशान)कोणार्द्धभागे स्थिते च खल्विति निश्चितम् वृषभगते सूर्ये वृश्चिकस्थे विश्रु (९)वं तदा भवति; वसन्ताधू शरदद्धमिति / एवं रन्धाख्ये नवमे वह्निसंख्येष तृतीये भूखण्डे नैऋत्यकोणे अपरार्धस्थिते ईशानकोणार्धस्थिते विश्रु (षु)वं भवति / मिथुने सूर्यगते धनुषि गते च वसन्ताद्ध(धै। शरदद्ध भवति / दिकप्रमाणे दशमे चतुर्थमेरोः पूर्वभूखण्डे पश्चिमभूखण्डे च विश्रु ()वं भवति; 25 वसन्ताधू शरदद्धं भवतीति / मार्तण्डे कर्कटस्थेऽपि च मकरगते पश्चि(च)मस्थे एकादशे च पूर्वभूखण्डे विश्रु(षु)वं भवति; वसन्ताधू शरदर्धं भवतीति / सिंहे कुम्भे प्रविष्ट द्विदशरसमहौ मीनकन्यागते च अस्मिन् वामायनं स्यान्मकरगतरवौ कुम्भसूर्ये द्वितीये / मीने खण्डे तृतीये त्वयनमपि नृणां मेषसूर्ये चतुर्थे भूताख्येऽर्के वृषस्थे मिथुनगतरवौ षण्मही सप्तमे च // 56 // 1. घ, पुस्तके नास्ति / 2. क. ग. वोट / 3. भो० पुस्तके 'Li'(ली) मात्रं दृश्यते / 4. क. पुस्तके नास्ति / 5. ग. पुस्तके नास्ति / 6. क. संख्या / Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुसिंहे कुम्भे प्रविष्टे सति सूर्ये पञ्चमे वायव्यकोणार्धस्थिते, एकादशे च वह्निकोणार्धस्थिते विश्रु(षु)वं भवति; वसन्ताधू शरदर्दू भवतीति / द्विदशरसमहाविति द्वादशमे(शे) वह्निकोणापरार्धे स्थिते रसे वायव्यकोणे अपराद्धे स्थिते महावित्या गमपाठः; मीनगते सूर्य कन्यागते च विषुवद्वयं' भवति, वसन्तार्द्ध शरदद्धं भवतीति / 5 एवं द्वादशभूम्यां द्वादशराशिवशेन सूर्योदयास्तमनविभागेन द्वादश मासाः षड् ऋतवो भवन्ति / . इदानीं द्वादशभूम्यां द्वादशोत्तरायणानि द्वादश दक्षिणायनानि सूर्यराशिम्रमणवशेनोच्यते अस्मिन् वामायनं स्यादिति / अस्मिन्निति मेरोदक्षिणे भूखण्डे / कुतो दक्षिणे? 10 लघुजम्बूद्वीपे, तथागतधर्मदेशनावशात् / अ[67a]तो दक्षिणे भखण्डे वामायनम्, उत्तरायन(ण)मिति, मकरगते रवौ। एवं कुम्भसूर्ये द्वितीये भूखण्डे ; मीने तृतीयखण्डे अयनमपि नृणां मेषसूर्ये चतुर्थे / पश्चिमे भूखण्डे चतुर्थ इति / भूताख्ये पञ्चमेऽर्के वृषस्थे सति मिथुनगतरवौ षण्मही उत्तरायनं(ण) भवति / सप्तमे मेरोरुत्तरे। मार्तण्डे कर्कस्थे भवति हरिगते चाष्टमे भूमिखण्डे कन्यारन्ध्रे तुलार्के भवति च दशमे वृश्चिके रुद्रखण्डे / चापस्थे द्वादशे स्यादयनमपि नृणां द्वादशारे च भूम्याम् एवं सव्यायनं स्याद् रविगमनवशात् कर्कटादौ च राशौ // 57 / / मार्तण्डे कर्कटस्थे वामायनं भवति हरिगते अष्टमे भूखण्डे भवति; कन्यागते सूर्ये रन्धु नवमे भूखण्डे तुलार्के भवति च दशमे भूखण्डे वृश्चिकसूर्ये रुद्र एकादशमे 20 खण्डे५; चापस्थे द्वादशे खण्डे स्यादयनं नृणामपि सम्भावने, द्वादशारे च भूम्यां स्थितानां लोकानामुत्तरायनं (ण) द्वादशराशिभेदेनेति / एवं सव्यायनं स्यात् / एवमुक्तक्रमेण दक्षिणायनं रविगमनवशात् ककंटादौ च राशौ भवति / अस्मिन् मेरोदक्षिणे लघुजम्बूद्वीपभूखण्डे दक्षिणायनं कर्कटादित्ये भवति / एवं दक्षिणावर्ते च सिंहादित्ये द्वितीये तृतीये कन्यादित्ये तुलादित्ये चतुर्थे मेरोः पश्चिमे दक्षिणायनं भवतीति / वृश्चि25 कादित्ये पञ्चमे धनुरादित्ये षष्ठे मकरादित्ये सप्तमे मेरोरुत्तरे कुम्भादित्ये अष्टमे मीना दित्ये नवमे मेषादित्ये दशमे वृषादित्ये एकादशे मिथुनादित्ये द्वादशे भूखण्डे लोकानां दक्षिणायनं द्वादशराशिभेदेन भवतीति / [67b] इदानीं सूर्यस्य भूवलयादूज़ क्रान्तिमानमुच्यतेऊर्ध्वं षण्णागसंख्या तपनमपि रवेश्चायने चोत्तरेऽन्ते तस्मात् क्षीणश्च सव्ये भवति नरपते रुद्रसंख्यासहस्रम् / एकाशीतिसहस्रं शरशतरहितं मध्यतो गोलरेखा तस्माद् यद्वद्वि(यद् वृद्धि)पातं खखशरेषूत्तरे दक्षिणे च // 58 // 1. क. विशुद्धद्वयं / 2. क. रन्ते / 3. क. भूखण्डे / 4-5. क. वर्तेन; ग. ०वर्ते च। ६.ग. घ. पुस्तकयोः नास्ति। 30 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः 103 ऊवं षण्णागसंख्या इति / इह सप्तमभूवलयाद् ऊर्ध्व षडशीतिसहस्रयोजनसंख्या तपनमपि रवेश्चायने' चोत्तरे'ऽन्ते दक्षिणायनादौ स्वस्वखण्डे कर्कटादौ दक्षिणायनं स्वस्वसंक्रान्तिदिने भवति द्वादशखण्डेषु यथाक्रममिति; तस्मात् क्षीणश्च सव्ये भवति नरपते रुद्रसंख्यासहस्रम् / तस्मात् दक्षिणायनसंक्रान्तिदिनात् सव्येऽयने उत्तरायनं(णं) यावत् क्षीणो भवत्येकादशसहस्रं पञ्चसप्ततिसहस्रं तपनं सूर्यस्योद्ध्वं 5 वेदितव्यमिति एकाशीतिसहस्रं स(श)रपञ्चशतरहितं मध्यतो गोलरेखा भवति, योजनमानम् / तस्या गोलरेखाया यद्वद् द्विपातं (यद् वृद्धिपातं ) भवति सूर्यस्य तत् खखशरेषु इति पञ्चशताधिकपञ्चसहस्राणि योजनानामिति, उत्तरे रेखाया दक्षिणे च स्वस्वखण्डे राशिभोगवशेनेति / इदानीं सूर्यस्य प्रतिदिनं तिर्यक्क्रान्तिदिशखण्डेषु सव्योत्तरे उच्यते- 10 क्षाराब्धि लङ्घयित्वा व्रजति दिनकरो दक्षिणे यावदग्नि कैलाश(स)स्योत्तरे च व्रजति हिमगिरि चोत्तरे चोत्तरस्थः / बाणास्तिथ्याहताश्च व्रजति दिगयने योजनानां सहस्रं साक्षिा हीन्दुलब्धं त्यजति दिनदिने पञ्चभूतः समन्तात् // 59 // क्षाराब्धिं लङ्घयित्वा व्रजति दिनकरो दक्षिणे यावदग्निमिति / इह द्वादशार- 15 भम्यां प्रत्ये/68a कैकखण्डे राशिवशात् क्षाराब्धि लङययित्वा दक्षिणायने स्थितः सूर्यो दक्षिणाग्निवलयादिकं यावद् व्रजति समुद्रान्तसीम्न इति / ततः सीम्नोऽग्निवलयात् कैलाश(स)स्योत्तरे व्रजति हिमगिरिम्(ः), उत्तरे मार्गे उत्तरायन(ण)स्थः सूर्यो दक्षिणायनादिदिनं यावत् / बाणास्तिथ्याहताश्चेति / बाण इति पञ्च, तिथिरिति पञ्चदश; ताभिः पञ्च [पञ्च] दशभिर्हता बाणास्तिथ्याहता इति पञ्चसप्तति भवति / 20 तं(1) पञ्चसप्ततिसहस्रसंख्या योजनानां व्रजति दिनकरो दिगयने हिमादग्नि' यावदग्नेहिमवन्तं यावत् पञ्चसप्ततिसहस्रं योजनानां दक्षिणायनादिदिगविभागः; तं दिग्विभागं षड्मासैर्यथाक्रमेण व्रजति उत्तरायणे दक्षिणायने चेति / सार्धाक्षा होन्दुलब्धं त्यजति दिनदिने इति / सार्धद्वयशीतिशतभागलब्धं पञ्चसप्ततिसहस्रात् प्रतिदिनदिगविभागं योजनानां त्यजति सूर्यः। एवमुभयायनभोगेन राशिचक्रस्य मण्डलदिनानि'° 25 पञ्चषष्टयधिकशतत्रयसंख्या[का]नि रवेर्भवन्ति / एवं द्वादशखण्डेषु तिर्यक्क्रान्तिः सूर्यस्य वेदितव्येति / ___इदानीं प्रत्येकराशिस्थितस्य सूर्यस्य द्वादशखण्डभ्रमणवशाद् द्वादशमासभेद उच्यते 1-2. क. ०यनेश्चोत्तरे / 3. ख. दिने; क. संक्रान्तिभेदेन / 4. भो. APhel 1Dan Grib (वृद्धिपातं); अतः भोटानुसारं 'वृद्धिपातं' इत्येव सुवचम् / 5-6. ख. पुस्तके नास्ति / 7-8. क. पञ्चसप्ततिभिर्भवति / 9. क. हिमाग्नि / 10, ख. मण्डलदिनादि। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु राशावेके स्थितोऽर्कः सकलमृतुगणं मासपक्षान् करोति खण्डे खण्डे च मासो भवति भुवितले द्वादशारे क्रमेण / यन्मानं यत्र खण्डे भवति दिनवशात् सप्तमे तन्निशायां लक्षादद्धमार्गे दिनमपि पुरतः पृष्ठतोऽर्कस्य रात्रिः // 60 // राशावेके स्थितोऽर्कः सकलमृत गणं मासपक्षान् करोतीति / इहैकराशी यत्र कुत्रचित् मेषादिके स्थितः सूर्यो द्वादशखण्डे षड् ऋतून् द्वादशमासान् चतुर्विंशति पक्षान् करोति; राशिचक्रभ्रमणवशेन; इह मेरोः सर्वदि[68b]गभागे यो राशिश्चक्रभ्रमणवशाद दक्षिणाग्नि स्पृशति, स सप्तमखण्डदिक्प्राप्तो मेरुशृङ्गं स्पृशति हिमपर्वतोऽद्ध्वं व्रजतीति न्यायात् सर्वमृतुगणादिकं सकलं प्रत्येकं राशौ स्थितस्यार्कस्य वेदितव्यमिति / 10 खण्डे खण्डे च मासो भवति भुवितले द्वादशारे क्रमेणेति / इह द्वादशारे भुवितले प्रत्येकखण्डे प्रत्येकमासो भवति एकराशौ स्थितस्य सूर्यस्य येन प्रकारेण तथा कथ्यते इह एकराशिनिर्देशेन सर्वराशयो वेदितव्या इति / अत्र लघुजम्बूद्वीपे मेरोदक्षिणे T281 मेषादिराशयः किल प्रसिद्धाः, वसन्तादय ऋतवः, चैत्रादयो मासाः, एवं पक्षाः सर्वे 15 इति; तस्मात् तस्मिन् मेषराशौ स्थितोऽर्को यथा द्वादशखण्डे सर्वमृतुगणादिकं करोति तथोच्यते-इह मेरोदक्षिणखण्डे मेषस्थोऽर्को वसन्तऋतुर्वैशाखमासं करोति, अग्निकोणार्द्ध' द्वितीयखण्डे ज्येष्ठमासं करोति; एवमग्निकोणात् परार्धखण्डे आषाढं करोति, तृतीये एवं चतुर्थे मेरोः पूर्वखण्डपूर्वविदेहे श्रावणमासं करोति, पञ्चमे ईशार्द्धखण्डे भाद्रपदं करोति, ईशकोणे अपरार्द्ध षष्ठे खण्डे आश्विनं करोति, मेरोरुत्तरे सप्तमे 20 खण्डे कार्तिकं करोति, वायव्यकोणार्द्ध खण्डे अष्टमे मार्गशीर्ष करोति, वायव्यापराद्धे कोणे खण्डे नवमे पुष्यं करोति, मेरोः पश्चिमे दशमे खण्डे माघं करोति, नैऋत्यकोणापरा?' खण्डे फाल्गुनं करोति, नैऋत्यकोणापराः खण्डे' चैत्रं करोतीति / एवं मासद्वयेन खण्डद्वये ऋतुर्भवति; प्रत्येकखण्डे शुक्लकृष्णपक्षभेदेन पक्षद्वयं भवति / एवं षड् ऋतवो द्वादश मासाः चतुर्विंशति पक्षा द्वादशखण्डेषु चक्राकारा भ्रमन्तो ज्ञातव्या 25 इति / ___ अस्मिन् दक्षिणखण्डे यो मासो द्वादशराशिवशेन भवति संक्रान्तौ सोऽपरसंक्रान्ती दक्षिणावर्तेन नैऋत्यकोणे गच्छति, नैऋत्याद्ध कोणस्थोऽपरकोणार्द्ध गच्छति, अपरकोणार्द्धस्थो मेरोरपरगोदान्यां गच्छति, अपरगोदान्यां स्थितो वायव्यार्द्धकोणं गच्छति, वायव्याद्धकोणस्थोऽपरकोणार्द्ध गच्छति, अपरको[69a]णार्द्धस्थ उत्तरकुरु 3) व्रजति, उत्तरकुरुस्थ ईशानकोणार्धं गच्छति, तत्रस्थोऽपरकोणार्धं गच्छति, अपर 1. क. अग्निकोणाद्वे / 2. क. इषार्द्ध / 3. क. ईषकोणे / 4. क. ग. घ. नैऋत्यकोणार्द्ध / 5-6. क. फाल्गुणं०; ख. पुस्तके नास्ति / ७.क. गोदावन्यां; ग. गोदानीं। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यावत् 10 पटले ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः कोणाद्धस्थः पूर्वविदेहं गच्छति, पूर्व विदेहस्थोऽग्निकोणार्धं खण्डं व्रजति, पूर्वार्द्धस्थोऽपरकोणार्धं व्रजति, अपरकोणार्धस्थो दक्षिणजम्बूद्वीपं वज्रति इति द्वादशमासानां प्रतिसंक्रान्तिवशेन द्वादशखण्डेषु संचरणं ज्ञातव्यमिति / - यन्मानं यत्र खण्डे भवति दिनवशात् सप्तमे तन्निशायां भवति / इह उत्तरायणसंक्रान्ती दक्षिणखण्डे दिवामानं क्षीणं रात्रिमानं वृद्धम्; तदेवोत्तरकुरौ सप्तमे भूमिखण्डे 5 आदित्योदयवशेन दक्षिणे रात्रिवृद्धिवशेन तन्मानं त्वत्र न भवति; जम्बूद्वीपे दक्षिणोदयवशेन सप्तमे रात्रिहानिवशेन ततो दक्षिणे भवति / एवं सर्वत्र प्रत्येकखण्डे वेदितव्यमिति / लक्षावर्धमार्गे* दिनमपि पुरतः पृष्ठतोऽकस्य रात्रिरिति / इह वृत्तमानं षट्लक्षम्; सूर्यस्य गमनादर्द्धमार्गे त्रिलक्षं दिनमिति / उदयास्तमनं यावदस्तमनादुदयं यावत् रात्रिः त्रिलक्षञ्च / एवमहोरात्रं वेदितव्यमिति। / इदानी द्वादशखण्डस्थानान्मेरुस्थितिरुच्यतेसर्वेषाञ्चोत्तरस्थो भवति नरपते शैलराजो जनानां पूर्वे सूर्योदयः स्याद् गिरिसममयनं पश्चिमे चास्तमेतत् / कालाः सन्ध्याश्चतस्र : प्रहरदिननिशाः सर्वदा संक्रमन्तो मेरोदिक्षु भ्रमन्ति प्रकटरविमहौ भेदिता लग्नभेदैः // 61 // 15 सर्वेषाञ्चोत्तरस्थो भवति नरपते शेलराजो जनानामिति / इह द्वादशखण्डे स्थितानां जनानां शैलराजो मेरुरुत्तरे भवति / पूर्वे सूर्योदयः स्यादिति सर्वेषां मेरोः सर्वखण्डस्थितानाञ्च यत्र भानुरुदयति सा पूर्वदिग् भवति; दक्षिणे जम्बूद्वीपस्थानां' पूर्वविदेहं पूर्वदिक्; अपरगो [69b] दान्यां जम्बूद्वीपं पूर्वदिगुत्तरस्थानामपरगोदानी पूर्वदिक्; पूर्वविदेहस्थानामुत्तरकुरुः पूर्वदिक्, 20 सूर्यभ्रमणोदयवशादिति / एवं कोणस्थितेषु अष्टखण्डेषु ज्ञातव्यमिति / पञ्चपञ्चदण्डान्तरेण प्रत्येकखण्डे सूर्योदय इति / गिरिसममयनमिति प्रत्येकखण्डे गिरिसमं मेरोरभिमुखं सूर्यगमनमुत्तरे दक्षिणे च पश्चिमे चास्तमेतत् / एवं द्वादशखण्डेषु यथापूर्वे उदयस्तथा पश्चिमेऽस्तमेतद् वेदितव्यमिति / कालास्त्रयः-प्रभातो मध्याह्नो विकाल इति / सन्ध्याश्चतस्रः-अर्धरात्र- 25 सन्ध्या पूर्वसन्ध्या मध्याह्नसन्ध्या विकालसन्ध्या / प्रहरा अष्टौ (ष्ट)-दिवायां चत्वारः, रात्रौ चत्वारः। दिननिशं (शाः) सर्वदा संक्रमन्तः / एवं कालादयोऽहोरात्रं सर्वस्मिन् काले संक्रमन्तः खण्डात् खण्डं मेरोदिक्षु भ्रमन्ति / 1. क. स्थानम् / 2. ख. चाष्टमेतत् / 3. क. ग. दिवा। 4. क. संक्रामन्तः / 5. क. कालोदयो। *-1 घ. पुस्तके नास्ति / Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातुप्रकटरविमहौ द्वादशारमह्यामिति' / भेदिता लग्नभेदैरिति / लग्ना द्वादश', तेषां भेदैर्भेदिताः कालादयो भ्रमन्ति / चतुश्चतुर्लग्नैः कालो भ्रमति; प्रत्येकप्रत्येकसन्ध्या त्रिलग्नैर्धमति; प्रत्येकप्रहरः सार्धलग्नेन म्रमति / एवं प्रत्येकलग्नं पञ्चदण्डैर्धमति; अर्धप्रहरः प्रहरार्द्धन भ्रमति; प्रहरार्द्धार्द्धन मुहत्तं भ्रमति; षष्टिपाणीपलैर्घटिका भ्रमति; 5 प्रत्येकपाणीपलं षट्श्वासैर्धमति / एवमहोरात्रं श्वासभेदेन लग्नभेदेन कालो भ्रमति गच्छति देहिनामिति / इदानीं मेरोः सर्वदिक्षु सूर्य'भ्रमणमानमुच्यतेनाड्यब्दे षट्सपादं च (न ?) क्रमति दिनकरो योजनानां सहस्रं षष्ठीनामग्निलक्षं भ्रमति दिननिशं पञ्चशैलं सहस्रम् / / 10 गोलार्द्ध खाग्नि नाडीर्वहति दिननिशं हानिवृद्धयोश्च पञ्च गोले सव्याव(प)सव्यं प्रतिदिनमपि तत् श्वासयुग्मं त्रिलिप्तम्॥६२॥ नाड्यब्धे(ब्दे) षट् सपादं क्रमति दिनकरो योजनानां सहस्रमिति / नाड्यब्धे(ब्दे) षष्ट्युत्तरत्रिशतश्वाससंख्याकाले षट्[70a]सपादं पञ्चाशद्विशताधिकषट्सहस्र मिति क्रमति दिनकरो योजनानां राशिस्थोऽयमाकाशेऽतो राशेरयं भ्रमणवेगो न सूर्यस्य 15 रास्या(श्या)धारे स्थितस्येति' अत्र राशिचक्रं सव्यावर्तेन भ्रमति, ग्रहराशिष्वव(प)सव्येन चरन्ति / यथा राशिचक्रं म्रमति तथा राहुरपि संचरति पश्चिमाभिमुखो मेरोः प्रदक्षिणां कुर्वन् / ग्रहाः पूर्वमुखा मेरोर(रोः) प्रदक्षिणां कुर्वन्तो राशिचक्रे संक्रमणं कुर्वन्ति / एवं परमार्थयुक्त्या राहुः पुण्यवान् सूर्यादयो दुष्टाः पापग्रहा उच्यन्ते इति / षष्ठीनामग्निलक्षमिति षष्ठीनां नाडीनामध्वे(ब्दे) काले षट्शताधिकैकविंशत्20 सहस्रश्वाससंख्याकाले। अग्निलक्षं विलक्षम्, पञ्चशैलं सहस्रमिति पञ्चसप्ततिसहस्र संख्या योजनानां भ्रमति; दिननिशमहोरात्रमिति / गोलार्द्ध खाग्नि नाडीर्वहति दिननिशमितीह विशु(षु)वसंक्रान्तिदिने पूर्वोक्तगोलरेखायां खाग्निः त्रिंशन्नाडीरहो वहति, त्रिंशन्नाडी रात्रि वहति, सूर्यः सममहोरात्रमित्यर्थः। हानिवृद्धचालयं (हानिवृद्धयोश्च) पञ्च गोले सव्याव(प)सव्यमिति / तस्माद् गोलार्द्धात् सव्याव(प)25 सव्यमासत्रयेण सव्ये रात्रवृद्धिः पञ्चनाड्यः, अव(प)सव्ये मासत्रयेण दिनवृद्धिः पञ्चनाड्यः। अत्र रात्रिवृद्धया दिवाहानिर्दिवावृद्धया राहानिःज्ञातव्येति / प्रतिदिनमपि 1. घ. द्वादशारमुतामिति / 2. क. द्वादशाः। 3. घ. प्रहरार्थेन / 4. क. ख. ग. पुस्तकेषु 'सूर्य' इति नास्ति / 5-6. 'राश्याधारे स्थितस्येति पदं टीकाकारेण प्रतीकं मत्वा अत्र लिखितम् / 'षष्ठीनामग्निलक्षं' इति स्थाने यदि इदं प्रतीकं नियोजितं क्रियेत, तदा छन्दोदृष्टया सामञ्जस्यमपि भवति; तथापि भोटानुवादे 'इति' शब्दं अनादृत्य एतत् पदं प्रतीकात्मना न स्वीकृतम् / अथ च टीकाकारोल्लिखितस्य प्रतीकस्य मूले यदि संयोजनं क्रियेत 'षष्ठीनामग्निलक्ष' इति पदं निरवकाशं भवेत् / अतः अनेनाधारेणात्र मूले परिवर्तनं न विहितम् / 7. क. ख. ग कुन्ति / 8. क. सूर्योदयो। 9. ग. पुस्तके नास्ति / Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] T282 ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः 107 तत् श्वासयुग्मं त्रिलिप्तमिति / अत्र सव्याव(प)सव्ये त्रिमासानां प्रतिदिनमहोरात्रे वृद्धिर्हानिर्वा श्वासद्वयं त्रीणि पाणीपलानि। ____ इदं मानं कैलाश(स)खण्डे, नार्यविषयादिके / आर्यविषये च प्रत्यहोरात्रलिप्ता द्वयं (पाणीपलानि) वृद्धिर्वा हानिर्वा वेदितव्या; मासत्रयेण मध्यविश्रु(षु)वात् त्रिंशदहोरात्रतुल्यमानान् नाडीत्रयं हानिर्वा वृद्धिर्वा अयनवशाद् वेदितव्येति / / (70b) इदानीं कैलाश(स)खण्डभेदेन द्वादशलग्नानामुदयकाल उच्यतेलिप्ता स्यान्मेषलग्ने गगननवकरं खर्तुनेत्रं वृषे स्यात् युग्मेऽप्याकाशखब्दे शररसघटिकाः स्युः कुलीरे च सिंहे / कन्यायां साषट्कं भवति खलु तुलाधु त्क्रमणैव सर्व षड लग्नरस्तमेतदुदितमपि तथाऽर्कनक्षत्रभेदैः // 63 // लिप्ता स्यान्मेषलग्ने इति / इह मेषलग्ने प्रथमोदयादपरलग्नोदयं यावत् कालो भवति / गगननवकरं लिप्तापाणीपलपिण्डं नवत्यधिकशतद्वयम्, अतः षष्टिभागेन घटिकाचतुष्टयं पञ्चाशत् पाणीपलानि मेषलग्नोदयकाल इति कैलाश(स)विषये नियमः। खर्तुनेत्रं वृषे स्यादिति / एवं वृषलग्नोदयकालः षष्ट्यु त्तरशतद्वयं पाणीपलपिण्डं चतस्रो नाड्यो विंशतिपाणीपलान्युदयकालः / युग्मेऽप्याकाशखादे युग्मेऽपि' मिथुने उदयकालः शतद्वयं लिप्तापिण्डं नाडयस्तिस्रः पाणीपलानि विंशतिरिति / स(श)ररसघटिकाः स्युरिति शर(:) पञ्चघटिका कुलीरे कर्कटलग्ने उदयकालः / ततः सिहे रस इति षट्पटिकालग्नोदये काल इति कन्यायां सार्द्धषट्कं कन्यालग्नोदयकालः षट् घटिका त्रिंशत् पाणीपलानि सार्वषट्कं भवतीति / तुलाद्युत्क्रमेणैव सर्वम् / अतः षड्लग्नकालावधेरपरषड्लग्ने तुलादिषूत्क्रमेण / एवमनेन 20 विधिना सर्वं निःशेषं भवतीति नियमः। - अत्र लग्नोदयकाले तुलायां षट् घाटिका त्रिंशत् पाणीपलानि; वृश्चिके षड्, धनुषि पञ्च, मकरे तिस्रो नाड्यः, पाणीपलानि विंशतिरिति; कुम्भे चतस्रो नाड्यः,विशति पाणीपलानि; मीने घटिकाश्चतस्रः, पाणीपलानि पञ्चाशदिति कैलासविषये नियमः / षड्लग्नरस्तमेतदुदितमिति, तथा हि-यस्मात् षड्लग्नरुदितमपि तस्मात् 25 अस्तमेतद् भवतीति / अकंस्य नक्षत्रभेदैरिति सार्द्धत्रयोदशनक्षत्रान्ते अस्त'मेतदुदयस्तथा सार्द्धत्रयोदशनक्षत्रान्ते अहोरात्रभेदेन षड्लग्नैः साद्धंत्रयोदशनक्षत्रैदिवाकालो भवति; षड्लग्नैः सार्द्धत्रयोदशनक्षत्रै रात्रिकालो भवति; लग्नोदयकालवशेन दिवारात्रि( :) होनाधिको(1) भवति, सूर्यसञ्चारवशादिति / 15 1. क. ख. ग. पुस्तकेषु 'अपि' इति नास्ति / 2. ख. अष्ट / Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 विमलप्रभायां [लोकधातु इदानी देहे मध्यमा(म)वर्षशतदिनश्वासादिकमुच्यते विंशत्येके सहस्र इत्यादिविंशत्येके सहस्रे रसशतसहिते निर्गता दन्तभागैः देहे श्वासाधिका ये प्रतिदिनसमये भूतशैलतु संख्याः / षट[71a]त्रिंशद्भिः सहस्रगुणितमपि शताब्दस्य मानं प्रसिद्ध शून्याग्निप्रभक्ता प्रभवति घटिका षष्टिभागाद् दिनं च / / 64 / / विंशत्येके सहस्र अयुतद्वये सहस्राधिके रसशतसहिते षट्शतयुक्ते इति / निर्गता दन्तभागैरतो(रिति) राशे' त्रिंशद्भागैनिगता। देहे शरीरे श्वासाधिका ये प्रतिदिनसमये द्वादशलग्नं संक्रान्तिकाले भूतशलतु संख्या पञ्चसप्तत्यधिकषट्शतसंख्या दिशद्भिः सहस्रगुणितमपि शताब्दस्य मानं प्रसिद्धम्; ते श्वासा वर्षशतदिनैः 10 षट्त्रिंशद्भिः सहस्रर्गुणिता वर्षशतश्वासमानं ते भवन्ति / अत्र प्रत्यहं त्रिनाडीश्वासाः षोडशशताधिकद्वययुतसंख्या वर्षशतादिनैर्गुणिता षट्सप्तति लक्षाधिकसप्तसप्ततिकोट्यो भवन्ति / तेभ्यो द्वात्रिंशद्भागेन लब्धास्त्रिचत्वारिंशल्लक्षाधिककोटिद्वयसंख्या मध्यमाया अवधूत्याः श्वासा भवन्ति; अवशिष्टास्त्रयस्त्रिशल्लक्षाधिकपञ्चसप्ततिकोट्यो ललना रसनयोः पञ्चमण्डलवाहकाः समभागतोऽर्द्धा ललनावाहकाः, अर्द्धा रसनावाहका 15 वामसव्यतो वर्षशतावधेरिति / शून्यत्वग्निप्रभक्ता प्रभवति घटिका। ततः श्वासराशेः षष्ट्युत्तरत्रिशतेन प्रभक्का लब्धा घटिका राशिर्भवति षष्टिभागाद् दिनं च। ततो घटिकाराशेः षष्टिभागेन लब्धं दिनपिण्डं भवति मध्यमायाः पञ्चविंशत्यधिकैकादशशतसंख्या पत्रिंशत्सहस्र भ्योऽवशिष्टं दिनपिण्डं पञ्चसप्तत्यधिकाष्टचत्वारिंशच्छतोत्तरमयुतत्रयं ललनारसनयोर्वर्ष20 शतावधेतिव्यमिति / इदानीमष्टग्रहाणां वर्षशतमानं सार्द्धचक्रप्रभोगत एकपिण्डत्वेन' कालचक्ररहितमुच्यते चन्दे पक्षे रवौ चायनमपि नव मासाश्च भौमे च रात्रिः षड वर्षाः स्युगुरोः स्यादयनमपि भृगोश्चायनं चन्द्रसूनो(:)। तिथ्याख्याब्दानि शौ(सौ)रोऽतमिनि नव तथा केतुहीना* च राजन् तत् सर्वं चैकपिण्डं वसुगुणितयुगाब्दानि सार्वत्रिमासाः // 65 / / [71b] चन्द्रे पक्ष इत्यादि। चन्द्रे पक्षश्चन्द्रस्य पक्ष एकस्त्रिशद्दण्डात्मकं रात्रं भवति, अर्धराशिचक्रोपभोगतः / रवौ चायनमपि (इति) रवेरयनम(मेवा) र्द्धमहो 1. क. ख. राशै / 2. ख. षट्सप्तत्रि० / 3. घ. एकपिण्डकत्वेन / 4, भोटानुसारम् / 5. भोटानुसारम् / * 'केतुहीना च राजन्' इत्यंशस्य अत्र संस्कृते यथा व्याख्या न दृश्यते तथैव भोटानुवादेऽपि नास्ति / Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले]. ज्योतिनिविधिमहोद्देशः 5 रात्रं **भवति, अर्द्धचक्रोपभोगतः। नव मासाश्च भौमे च रात्रिरिति करणविवक्षा / एवं गुरोः षड् वर्षाः स्युः। यथा रवेस्तथा अयनमपि भूगोश्चायनं चन्द्रसूनोर्बुधस्य च तिथ्याख्यावानि। पञ्चदश वर्षाणि, सौरो (रः) शनैश्चरस्य तमिनि राहोर्नव वर्षाणि अहोरात्रार्द्धमर्द्धनक्षत्रचक्रोपभोगतो भवति / तत् सर्व चैकपिण्डं वसुगुणितयुगाब्दानि, द्वात्रिंशदब्दानि, सार्वत्रिमासा भवन्ति, सत्त्वगुणविभागे सत्त्वानाम् / संख्या सार्धे दिने चाब्दशतमपि भवेत् कालचक्रोनमत्र प्राणाः सत्त्वे वहन्त्यारजसि तमसि वै कायवाचित्तभेदैः / पञ्चत्वं यान्ति तस्मात सुरनरभुजगाः सार्धरात्रेण चेन्दोरेषा संख्या प्रसिद्धा भवति सुनियता कालचक्र नरेन्द्र // 66 // संख्या सार्धे दिने शा(सा)र्द्धनक्षत्रचक्रोपभोगतः, सत्त्वरजस्तमोभेदेनाध्दशत- 10 मपि भवेत् कालचक्रोनमिति / त्रिवर्षत्रिपक्षोनं सार्द्धदशमासाधिक षण्णवतिवर्षपिण्डं भवत्यष्टग्रहाणामेकपिण्डत इति / प्राणाः सत्त्वे वहन्ति / अत्र सत्त्वानां सार्वत्रिमासाधिकद्वात्रिंशद्वर्षाणि यावत् प्राणाः सत्त्वे सत्त्वगुणा वहन्ति / तत आरजसि तेनैव मानेन, ततस्तमसि वै तेनैव क्रमेण पञ्चत्वं यान्ति / तस्मादवधेस्सत्त्वरजस्तमोऽवशा(सा)नतः सरनरभ जगाः स्वस्ववर्षशतमानतः। सादर्धरात्रेण चेन्दोः त्रिपक्षेण कालचक्रस्येति: 15 चकारात् पूर्वत्रिवर्षेणात्र पञ्चत्वं मरणं व्रजन्ति संसारिणः / "शतायुर्वं पुरुषः शतेन्द्रियः" (ऐ० ब्रा० 2 / 17 / 4 / 19)3 इति वचनाल्लोकव्य[72a]वहारः, परमार्थयुक्त्या नियमाभावः; सत्त्वानां स्वस्वकर्मवशादुत्पादो निरोधश्चावगन्तव्यो बौधैरिति / “शतायुर्वं पुरुषः शतेन्द्रियः" इति सन्ध्याभाषा / पुरुषश्चतुर्युगात्मा द्वययुताधिकत्रिचत्वारिंशल्लक्षवर्षश्वासलक्षणो बाह्ये, अध्यात्मनि तेनैव श्वासमानेन 20 चतुर्युगात्मा, यस्मिन् काले सर्व ग्रहाणां शून्ये चरणप्रवेशो भवतीति परमार्थयुक्तिः / सत्त्वानां पुनः शुभाशुभवशेन ऊनाधिकमायुर्भवति, न शतायुरिति नियमः, तथागतवचनादिति / एषा संख्या प्रसिद्धा भवति सुनियता कालचक्रे तन्त्रराजे / नरेन्द्र इत्यामन्त्रणं T 283 वज्रपाणेः सुचन्द्रस्येति / 1. घ. भवन्ति / 2. 'कायवाकचित्तभेदैः' इत्यंशस्य व्याख्या संस्कृते भोटे वाऽपि नास्ति / 3. द्र०-५०७६ / **-t. घ. पुस्तके 'भवति' इत्यारभ्य 'तिथ्याख्याब्दानि' इति यावत् अधोलिखितः पाठक्रमः'भवति, षड् वर्षाः स्युः, यथा रवेस्तथाऽयनमपि; भृगोश्चायनं चन्द्रसूनोर्बुधस्य च तिथ्याख्याब्दानि अर्द्धचक्रोपभोगतः, नव मासाश्च भौमेश्च रात्रिरिति करणविवक्षा; एवं गुरोः'। अयं भोटानुसारं नास्ति / 25 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 विमलप्रभायां [लोकधातु - इदानीं मध्यमावधूत्याः षष्ट्यंशा घटिका पञ्चग्रहाणां नक्षत्रोदयचरणघटिका मङ्गलादीनां पिण्डमुच्यते नोच्छिन्नमित्यादि नोच्छिन्ने कालचक्र त्वयनऋणनव क्षेपयित्वा समस्तं पञ्चानां शीघ्रकर्मण्यपि चरणघटी मङ्गलादिग्रहाणाम् / भौमे वेदतुवह्निः प्रभवति भुवनस्थानके चारभेदस्तुल्याः पूर्वापरार्द्ध त्वृणधनगतिषु स्थानभेदैनियोज्याः // 67 // नोच्छिन्ने कालचके / त्रिवर्षत्रिपक्षदिने अच्छिन्ने पञ्चविंशत्यधिकैकादशशते अयने ऋणनव, गर्भनवमासे ऋणघटिका नव क्षेपयित्वा समस्तं घटिकापिण्ड चतुःत्रिंशदधिकैकादशशतसंख्या पञ्चानां शोधकर्मणि नक्षत्रकर्मणि'; अपि चरणघटी 10 मङ्गलादीनां ग्रहाणां भवति / भौमे वेदर्तुवहि नस्तेभ्यो मङ्गले चतुःषष्टयुत्तरत्रिशत संख्या भवति; घटिकापिण्डं भवनस्थानके चतुर्दशचरणपदे सार्द्धत्रयोदशनक्षत्रभोगतः; चारभेदैश्चतुर्विंशत्यादिभेदैः; तुल्याः पूर्वापरार्धे, नक्षत्रचरणवशात् पूर्वार्द्ध द्वयशीत्य[72b]धिकशतम्, अपरार्द्ध द्वयशीत्यधिकशतं च नक्षत्राणामार्द्धत इति / ऋणधनगतिष्विति / उक्तक्रमेण ऋणगतिषु क्रमेण धनगतिषु स्थानभेदैनियोज्याः; 15 आदित्यमण्डलादुदितं नक्षत्रं प्रथमस्थानम्, तस्मात् स्थानभेदादपरचतुर्दशस्थानानि, तैः स्थानभेदैस्ता घटिका नियोज्या इति / आदौ जैनेन्द्रसंख्या प्रभवति घटिका वह्निनेत्रं त्रिधा च द्विस्था सैकाक्षिरष्टादशकतिथिहरा वह्निमूलाद् वरश्च / अष्टत्रिंशत्त्वशीतिः स्थितिभुवनपदे सत्रिपञ्चाशदत्र 20 तस्मिन्नर्के विशुद्ध त्वृणमपि च धनं चोत्क्रमेण . क्रमेण // 68 // आदौ जैनेन्द्रसंख्या प्रथमनक्षत्रभक्तिपदे चतुर्विंशतिः, वहिननेत्रं त्रिधा च प्रभवति त्रयोविंशतिः, प्रथमस्थानात् द्वितीये तृतीये चतुर्थे भवति विधेति / द्विस्था सैकाक्षिः, ततश्चतुर्थस्थानात् पञ्चमे षष्ठे स्थाने, एकविंशतिः द्विस्था इति / अष्टादशकतिथिहराः। ततः षष्ठस्थानात् सप्तमे अष्टमे नवमे स्थाने यथासंख्यमष्टादश,तिथिरिति पञ्चदश,हरा इति 25 एकादश / वहि नमूला वरश्चातो नवमस्थानाद् दशमस्थाने वह्निरिति त्रयश्चारास्ततो मूलादपरार्धमपरार्धे हरा एकादश एकादशे स्थाने / अष्टत्रिंशदशीतिः द्वादशे अष्टत्रिंशत्, त्रयोदशे अशीति स्थितिभुवनपदे चतुर्दशपदे सत्रिपञ्चाशदत्रेति, त्रिभिः सह पञ्चाशत् सत्रिपञ्चाशदिति, त्रयः पञ्चाशदत्र चतुर्दशपदे नियमः / तस्मिन्नक्षत्राद्धचक्रे अर्के विशुद्ध सति ऋणमुत्क्रमेण भवति, धन क्रमेण भवति, मङ्गलादीनां 30 ऋणं नक्षत्रभोगे हेयं धनं देयमिति / 1. ख. पुस्तके 'नक्षत्रकर्मणि' इति नास्ति / 2-3. घ. पुस्तके 'भौमे' इत्यारभ्य भवति'. इति पर्यन्तं नास्ति / 4-5. घ. पुस्तके 'अपरा द्वयशीत्यधिकशतं' इति अधिकः / Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः वेदाद्धेन्दुसंख्या प्रभवति घटिका शीघ्रकार्ये बुधस्य द्विस्थाने षोडशान्ये तिथिमनुमदना रुद्रशैलेन्द्रियं खम्[73a] / मूलाद् वेदाद्धरश्च प्रकटितनियतं द्वादशे विंशतिश्च अष्टाविंशच्चतुस्त्रिशदपि मनुपदे संस्थिताश्चारभेदैः // 69 // वेदानन्धेन्दुसंख्या प्रभवति घटिका शोधकार्ये बुधस्येति / इह चतुर्नवत्यधिक- 5 शतघटिकापिण्डं बुधस्य, यथा मङ्गलस्य चतुर्दशस्थाने स्वकीयघटिकापिण्डं तथा बुधस्याप्यवगन्तव्यम् / शीघ्रकर्मणि नक्षत्रकर्मणोति द्विस्थाने षोडशेति प्रथमस्थाने षोडश, द्वितीयस्थानेऽपि षोडश / अन्ये तिथिमनुमदना इति तृतीये पञ्चदश, चतुर्थे चतुर्दश, पञ्चमे त्रयोदश / रुद्रशैलेन्द्रियं खम् / षष्ठे एकादश, सप्तमे सप्त, अष्टमे पञ्च, नवमे शून्यमिति / मूलाद् वेदाह(द्ध)रश्चेति / ततो नवमस्थानान्मूले अपरार्धे दशमस्थाने चत्वारः, एकादशे एकादश, द्वादशे विंशतिः, त्रयोदशे अष्टाविंशतिः, चतुर्दशे चतुस्त्रिशदपि स्थापनीयाः। एवं यथाक्रमेण संस्थिताश्चारभेदैर्घटिका बुधस्य वेदितव्येति / अब्ध्याकाशेन्दुसंख्या भवति हि घटिकापिण्डमेतद् गुरोश्च द्विस्थाने दिक्प्रमाणा नववसु ऋतवः षट्करेन्दुश्च मूलात् / 15 वह्निः षडरन्ध्ररुद्रा नरपतिमुनयः सर्वचाराः क्रमेण शीने मन्दे च वक्र ग्रहगणनियमः सूर्यभेदैश्चरन्ति // 70 // अबध्याकाशेन्दुसंख्या चतुरुत्तरशतघटिकापिण्डं गुरोश्चतुर्दशस्थाने विभञ्जितं चारभेदेन भवति / तस्माद् घटिकापिण्डाद् द्विस्थाने दिक्प्रमाणा दश प्रथमस्थाने, द्वितीये दश, नवमे' वसु ऋतव इति तृतीये नव, चतुर्थे अष्ट, पञ्चमे षट् / 20 षट्करेन्दुश्चेति षष्ठे षट्, सप्तमे द्वौ, अष्टमे एकः / मूलादपरार्धाद् वहि नः षड्ध्ररुद्रा इति नवमे तिस्रः, दशमे षट्, एकादशमे(शे) नव, द्वादशमे(शे) एकादश / नरपतिमुनय इति त्रयोदशमे(शे) षोडश, चतुर्दशमे(शे) पदे सप्त ; सर्वचाराः [73b] क्रमेणेति / एवं सर्वचरणघटिका यथानुक्रमेण सर्वग्रहाणां वेदितव्येति; शीघ्र शीघ्रचारे उदितग्रहस्य पूर्वार्धे, मन्दे चापरार्धे च(व)के उत्क्रमेण पूर्वार्धे; चकारादुत्क्रमेणापरार्धे निर्गमे 25 प्रहगणनियमः सूर्यभेदैः सूर्यात् विशुद्धिभेदैश्चरन्तीति / षट्चन्द्राम्भोधिसंख्या भवति हि घटिका (:) शीघ्रकार्ये भृगोश्च त्रिस्थाने पञ्चविंशद् द्विजिन [इति] तथा हस्तनेत्रं द्विधा स्यात् / दोषास्तिथ्यष्टमूलात् षडपि च खगुणं चैकहीनं शतं च अन्ते वह्नयद्रिसंख्यं स्थितिभुवनपदे शुक्रचारा(:) क्रमेण // 71 // 30 1-2. क. नवसु / Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 112 विमलप्रभायां [लोकधातु षट्चन्द्राम्भोधिसंख्या इति षोडशाधिकशतचतुष्टयं पिण्डमेतच्चतुर्दशस्थाने भृगोः शुक्रस्य भवति / तस्मात् घटिकास्त्रिस्थाने पञ्चविंशदिति प्रथमस्थाने पञ्चविशदेवं द्वितीये तृतीयेऽपि द्विजिन इति चतुर्थे चतुर्विंशति(:), पञ्चमेऽपि तथा हस्तनेत्रं द्विधा स्यादिति षष्ठे द्वाविंशतिः। सप्तमेऽपि दोषा[]तिथ्यष्ट इति; अष्टमे अष्टादश, 5 नवमे पञ्चदश, अष्टमे अष्ट, मूलात् ततोऽपरार्धात् षडपि च खगुणमिति / एकादशे षट्, द्वादशे त्रिंशत्, त्रयोदशमे(शे) एकहीनं शतम्। अन्ते चतुर्दशमे(शे) वह्नयद्रिसंख्यमिति त्रिसप्ततिरिति / स्थितिभुवनपदे चतुर्दशपदे' शुक्रचाराः क्रमेणावगन्तव्या इति / सौरेः षड्भूतसंख्या प्रभवति घटिकापिण्डमेतन्नरेन्द्र 10 षड्भूताभूतवेदा जलनिधिनयनं युग्मशून्याश्च मूलात् / पक्षौ वेदाश्च भूता रसवसुशिखिन(ः) स्थापनीयाः क्रमेण एवं चारो ग्रहाणां भवति सुनियतः कालचक्रे समस्तः // 72 // [74a] सौरेः षड्भ तसंख्या इति षट्पञ्चाशत्घटिकापिण्डं चतुर्दशस्थाने मन्दस्य भवति; तस्मात् षड्भूताभ तवेदा इति प्रथमपदे षट्; द्वितीये पञ्च, तृतीयेऽपि; 15 चतुर्थे चतस्रः / जलनिधिनयनमिति पञ्चमे चतस्रः, षष्ठे द्वे, सप्तमे युग्ममिति द्वे, अष्टमे शून्यम् / मूलात तस्मादपरार्द्ध। पक्षो(क्षौ) वेदाश्च भूता इति नवमे द्वे, दशमे चतस्रः, एकादशे पञ्च; रसवसुशिखिन इति द्वादशे षट्, त्रयोदशेऽष्ट, चतुर्दशे तिस्रो नाड्यः स्थापनीयाः क्रमेण शनैश्चरस्य चतुर्दशस्थाने / एवं चारो, प्रहाणां भवति सुनियतः कालचक्रे समस्त इति मध्यमायां वर्षशतं श्वासदिनचक्रे कालचक्रे इति 20 ग्रहाणामुदयचारघटिका भोग इति / इदानीं मन्द्रकार्ये जन्मराशिघटिकामन्दपदान्युच्यन्तेषट्त्रिंशत्साद्धमासाः खलु वसुगुणिता मन्दकार्ये पदानि नेत्रा[] रन्ध्राक्षिसंख्या भवति च घटिका मङ्गलादिग्रहाणाम् / तत्त्वान्यष्टादशाद्रिः स्थितिरवनिसुतस्यापरे पूर्वभागे दिक्ौलाग्नी बुधस्येशनवतिशिखिगुरोः पूर्वभागेऽपरे च // 73 // षत्रिंशदित्यादि / षट्त्रिंशत्साद्धमासास्त्रिवर्षाणां षट्त्रिंशन्मासाः त्रिपक्षाणां पक्षमेकं गृहीत्वा खल्विति निश्चितम् / वसुगुणिता इति शब्दस्पर्शरूपरसगन्धसत्त्वरजस्तमोऽष्टगुणाः, एभिरष्टगुणगुणिता मन्दकार्ये पञ्चग्रहाणां पदानि भवन्ति / नेत्राद् रन्धाक्षिसंख्या, द्वानवत्यधिकं द्विशतसंख्या राशिघटिका भवन्ति / तस्मात् प्रकट____ 30 मङ्गलादीनां षट्पदेषु पूर्वार्द्धऽपरार्द्ध उत्क्रमेण ज्ञातव्या। तत्वान्यष्टादशाद्रिः 1. क. पुस्तके नास्ति / T 284 Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोदशः 113 स्थितिरवनिसुतस्यापरार्धे पूर्वभागे इति / तत्त्वानीति' पञ्चविंशतिः, अष्टादश, अद्रीति सप्त; अवनिसुतस्य मङ्गलस्यापरार्द्ध पूर्वभागे, एषां क्रमेणे[74b]ति / एवं विकौलाग्नी बुधस्य इति' दिक् दश, शैलाः सप्त, अग्निः तिस्र' इति / तथेशनवशिखिगुरोः / एकादशनवशिखीति त्रयः गुरोबृहस्पतेः। शेषं पूर्वोक्तक्रमेणेति' पूर्वभागेपरभागे च। शुक्रस्येष्वब्धिचन्द्रा भवति च शशि(नि)नः साक्षिनेत्रं दिनतु - से भौमस्य भुक्तिश्च नवतिघटिका पञ्चलोकेन्दुसंख्या। शुक्रस्येवं बुधस्यापि खरसहुतभुक् पिण्डमेकीकृतं स्यात् एतन्मासत्रयेणाब्ददिनऋणघटी भुक्तिरेषां त्रयाणाम // 74 // एवं शुक्रस्येष्वब्धिचन्द्राः 10 शुक्रस्येत्यादि / इषु(:) पञ्च, अधिरिति चत्वारि, चन्द्र एकः / एवं शशि (नि)*नः साक्षिनेत्रं दिन: भवति / साक्षिनेत्रं द्वाविंशति(:), दिन (-) पञ्चदश, ऋतु (:) षट्; असौ क्रमः पूर्वमुक्त इति / एवं कालचक्रमासपरिभोगाष्टगुणिता षष्ट्यंशा राशिचरणघटिका वेदितव्येति / . इदानी पञ्चग्रहाणां मङ्गलादीनां त्रिराशिपरिभोगात् त्रिवर्षदिनतुल्यघटिकापरि- 15 भोग उच्यते मास इत्यादिना मासे भौमस्य भुक्तिश्च नवतिघटिकेति' लोकरूढिः; स्वरूपतो मण्डलभागेन लब्धा घटिका भवन्ति / मासोऽपि सार्वत्रिंशदिनैर्भवति / तेन सिद्धान्तमानेन बृहस्पतिशनिभोगेन सार्धं नवतिघटिका त्रयाणां ग्रहाणां सूर्ये विशोधितानामिति सिद्धान्तः; पञ्चलोकेंन्वसंख्या शक्रस्य न यक्तम', सिद्धान्तप्रामाण्यात / सर्यभोगो यतः शक्रे 20 विशोधितः शुक्रो भवति; तेन पञ्चत्रिंशदधिकशतं शुक्रस्य मासपरिभोगं घटिकापिण्डम् / बुधस्याप्येवम् / खरसहुतभुक् पिण्डमेकोकृतं तत् षष्टयुत्तरत्रिशतघटिकापिण्डं भवति 1-2. घ. पुस्तके 'तत्त्वानि' इत्यारभ्य 'क्रमेणेति' इति यावत् नास्ति; अयमंशो भोटानुवादेऽपि नास्ति / 3-4. घ. पुस्तके 'इति' आरभ्य 'तिस्र' पर्यन्तं नास्ति; अयमंशी भोटानुवादेऽपि नास्ति / 5-6. घ. पुस्तके 'एकादशः' इत्यारभ्य '०क्रमेणेति' इति पर्यन्तं नास्ति; अयमशो भोटानुवादेऽपि नास्ति / 7-8. घ. पुस्तके 'शुक्रस्यः' इत्यारभ्य 'चन्द्र एकः' इति पर्यन्तं नास्ति / भोटानुवादे तु 'शुक्रस्य०' इत्यारभ्य 'ऋतुः षट्' इति पर्यन्तं नास्ति / 9-10. घ. नवति त्रिलोकघटिः / 11. घ. पुस्तके 'युक्तम्' इत्यतः 86 श्लोके 'शशिचरणवशात्' इति पर्यन्तं वटितम् / *. भोटानुसारम् / Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां लोकधातुपश्चानाम् / एतन्मासत्रयेणान्ददिनऋणघटी, अशीत्युत्तरसहस्रघटी, भक्तिरेषां त्रयाणामिति सिद्धान्तकट()क्षवचनात् मञ्जुश्रिया गदितम् [75 a] / मासे भुक्तिर्गुरोः स्यात् प्रकटितघटिका रुद्रपादाससंख्या त्रिंशत् पाणीपलानि स्फुटयुगघटिका सूर्यपुत्रस्य भुक्तिः / एकीभूता दिनाख्या त्रिगु णितमपि तत् सार्धमासः सरात्रः भतुर्भुक्तौ दिनानां प्रतिदिवसमृणं षट्ग्रहाणां च भुक्तिः / / 75 / / मासे भुक्तिर्गुरोः स्यादित्यादि सिद्धान्तवृत्तमिदं कटाक्षार्थमुक्तं लोकरूढिक्षयार्थम् / अत्र ये त्रिपक्षास्ते केतूदयभोगसम्बन्धिनः पञ्चग्रहाणां मूलसिद्धान्ते उक्ताः, अतो न ते बृहस्पतिशनिनो गे देया इति'। 10 इदानीं राहुभोगात् केतुभुक्तिरुच्यते मासेकं मन्दकर्मण्यपि च धनविभोनानुभुक्तं ग्रहैर्यत् तस्माद् वै सार्द्धसप्तत्रिगु णितघटिका भुक्तिरत्रैव मासे / राहोर्मासस्य भुक्तिः सरविशशिपदं चाद्ध नाडीविहीनं तिस्रोऽर्कस्यायनाड्यो(ो) शशिमदनदिने पञ्च चन्द्रस्य नाड्यः / / 76 // मासैकमित्यादि। इह प्राङ्मन्दकार्ये सार्धषट्त्रिंशन्मासावशेषं यन्मासं प्रहर्नानुभुक्तं तदेव मासमष्टगुणाहतं ततः षड्यंशेनाष्टघटिका ग्राह्या, तासु सार्धसप्तघटिका राहोर्मासपरिभोगः। त(अ)त्रैवेति सूर्यमासप्रमाणे राहोर्मासस्य भुक्तिः / सरविशशिपदमिति रवेः सत्त्वरजस्तमासि त्रिपदानि, शशिनो गन्धरसरूपस्पर्शशब्दगुणाः पञ्चपदानि; एतान्यष्टपदानि राहो सासप्तघटिका[रूपा]णि शेषार्धघटो निस्तमोरूपा 20 इति, तया हीनं चार्धनाडाविहोनम् / तिस्यो(स्रोs)स्यायनाड्ये(ो) मकरसंक्रान्ती प्रथमपक्षे तिस्रो नाज्यः सत्त्वरजस्तमात्मिका धनभोगः / एवं कर्कटप्रथमपक्षे ऋणपरिभोग इति / शशिमदनदिने इति प्रथमदिने प्रथमपदे पिण्डस्थाने चतुर्दशभागावशेषे त्रयोदशमे(शे) वा पञ्च चन्द्रस्य नाड्यो भवन्ति पञ्चगुणात्मिका इति [75b] / नो भुक्ता यार्द्धनाडी ऋतुदिनसमये सा कलाहीनचन्द्रा सा सूर्यस्याधिका स्यात् खलु युगग णिता सूर्यमासे दिनं तत् / राहोर्मासस्य भोगान्नयनविगु णितात् पक्षभोगेन भक्तात् लब्धाः केतोश्च नाड्यः प्रतिदिनसमये मासभोगाच्च राहोः // 77 // 1. इतः परं स्रग्धरांशस्य व्याख्यानं नोपलभ्यते, न चानुल्लेखस्य हेतुलिख्यते; यथा संस्कृते तथा भोटानुवादेऽपि नोपलभ्यते / अत एव अनुपलब्धांशस्य व्याख्यानं भोटदेशीयाचार्यः खेस्-डुब-जे महाभागैः स्वटीकायां (DushKhor Tik Chen) कृतम् ; तत्तु तत्रैव द्रष्टव्यम् / 2. ग. षष्ठ्यङ्गेन / 3. ग. हीनां / 4. ग. विहीनाम् / / Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः ____नो भुक्ता यार्धनाडी, राहुणा न भुक्ता, ऋतुदिनसमये चतुःषष्ठिदिने, सा कलाहीनचन्द्रा, चन्द्रस्य नष्टकलेत्यर्थः / सा सूर्यस्याधिका स्यात्, सूर्यस्य द्विनाडी भूत्वा अधिका प्रतिदिनयुगगुणिता 'वेदैस्तिथ्याहतम्' (का० त० 1.33) इत्यादिना; यन्मासमध्यदिनं तं तदेवाधिकं भवति / सूर्यमासे संक्रान्तिमासे विनमेकमधिकं तदेव मध्यमाङ्गं वेदितव्यमिति / राहोर्मासस्य भोगान्नयनविगुणितादिति राहोः' ऋतुभोगात्' 5 पञ्चदशघटिकातः पक्षभोगेन भक्तात्, पादोन चतुभिर्भक्ताल्लब्धाः केतोश्च नाड्यः चतस्रः प्रतिदिनसमये, पुनर्मासभोगात राहोः। हत्वा सप्ताद्धलिप्तां खलु गुणगु णिता शोधयेत् सूर्यभोगे केतुः सूर्येण सार्धं विचरति पुरतः पृष्ठतः शीघ्रचारे / चारे सा( द्विलिप्तां चरति दिनदिने सूर्यभोगात् क्रमेण षट् त्रिंशद्भिः सु(स्व)मासैश्चरति सघटिका लोकतिथ्याहताश्च // 78 // हत्वा सप्तालिप्तां सप्तलिका(प्ता)स्त्रयः श्वासाः। एतास्त्रिगुणैर्गुणिताः सार्धद्वाविंशल्लिका(प्ता) भवन्तीति करणविवक्षा स्वरूपतः। साईंस्त्रिभिगुणैर्या यत्र सूर्यस्य प्रत्यहं चतस्रो नाड्यः षड्विंशतिपाणीपलानि भुक्तिरिति, शोधयेत् सूर्यभोगे करणविवक्षायाः। असौ सूर्यभोगः प्रत्यहं चतस्रो घटिका विंशतिपाणीपलानि 15 सिद्धान्ते षट्पाणीपलान्यधिकानीति, तस्मिन् सूर्यभोगे शोधयेत्, शोधितावशेषं चरणं भवति / केतः सूर्येण सावध विचरति पुरतः शीघ्रचारे क्रमेण, पृष्ठतो वकचारे उत्क्रमेण चरणं च[76a]रणं चरति / चारे साा द्विलिप्तां चरति दिनदिने सूर्यभोगो(गा)त् क्रमेणोत्क्रमेण वा / षट्त्रिंशद्भिः सु(स्व) मासैश्चरति सघटिका लोकतिथ्याहतं च(श्च) / त्रिभिः पञ्चदशाहतं पञ्चचत्वारिंशदिति / सार्धं मासं द्विनाडी प्रतिदिनमुदयः शीघ्रवक्रेऽग्रपृष्ठे साधू मासं हि यावद् भवति तदुदयो दृश्यते मर्त्यलोके / भूयः श्रीकालचक्रे प्रविशति स यदा वर्षभोगेऽप्यदृश्यो ज्ञाते तस्योदयांशे तदुदयमपि ज्ञायतेऽनन्तकालम् // 79 // साधं मासं द्विनाडी प्रतिदिनमुदयः, त्रिवर्षावसाने लिप्ताभोगान् (सं)त्यज्य 25 प्रत्यहं पक्षत्रयं यावद् द्विनाडोभोगः शीघ्र अग्ने वक्र पृष्ठे। एवं साधं मासं यावत् तस्योदयः, किन्तु मासमेकं निधूमः; ततोऽन्तिमपक्षमेव सधूमः; तेन सत्त्वानां प्रकटो धूमकेतुः। गमनागमनेन मासमेकं भवति, धूमत्यागेन नक्षत्रवत् प्रतिभाति / भूयः श्रीकालचक्र त्रिवर्षभोगे प्रविशति स यदा वर्षभोगे तदाऽवृश्यो भवति / जाते तस्योदयांशे, एवं तस्य केतोरुदयांशे ज्ञाते सति, तदुदयमपि यज्जायतेऽनन्तकालमिति। 30 1-2. क. राहोरन्तभोगात् / 3. ग. पादादौ। 4. ग. विवक्षायाम् / 5. ग. चक्रवारे / 6. भोटानुसारम् / 7. ग. चक्रे / 8. ग. तदुभयमपि / 20 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 विमलप्रभायां लोकधातुइदानीं कालचक्रत्रिवर्षदिनानि पञ्चविंशत्तत्त्वगुणितानि अयनदिनहीनानि नवसहितानि ग्रहाणां मण्डलान्युच्यन्ते वर्षाहः पञ्चगुण्यं पुनरिषुनिहतं चायनाहः प्रहीणं रक्तन्फ्रेमिश्रं भवन्ति स्वगतिगुणवशान्मण्डलानि ग्रहाणाम् / भौमे शैलाहिषट कं भवति दिनगणं शैलरन्ध्रादिनागं सौम्ये दन्ताग्निवेदं भवति सुरग रोर्भार्गवेगोजिनाक्षी // 80 / / वर्षाहरित्यादि / वर्षाहोऽशीत्युत्तरमेकं सहस्रम्, त[76b]देव पञ्चगुण्यं पुनरिषुरिति पञ्चर्भािनहतं गुणितमित्यर्थः / एवं खण्डगुणितं पञ्चविंशद्गुणितं भवति / अयनाहोऽशोत्युत्तरशतम्, तेन होनम्, एकायने ग्रहाणां भुक्तिवशादेकायनदिनान्यूनी भवन्ति; रन्धमिधो(ध) भवति, रन्ध्रमिति नव, षट्विगुणास्तमिश्राणि दिनमण्डलानि ग्रहाणां स्वस्वगतिवशात् पञ्चानां भवति(न्ति), एकपिण्डत एकोनत्रिंशदधिकाष्टशतोत्तरषट्सहस्रायुतद्वयम्, ततो भौमे शैलाहिषट्कमिति सप्ताशीत्युत्तरषट्शतं' दिनगणं भवति / शैलरन्ध्रादिनागं सप्तनवत्यधिकं सप्तशताष्टसहस्रं सौम्ये भवति / दन्ताग्निवेदं द्वात्रिंश दधिकत्रिशतचतुःसहस्रं सुरगुरोर्भवति। भार्गवेऽगोजिनाक्षी सप्तचत्वारिंशदधिक15 द्विशतद्विसहस्रं भवति / षट्पटौलाक्षरैक (लाम्बरैक) भवति दिनगणं मण्डलं सूर्यसूनो(:). शैलर्वेकञ्च भौमे खलु भवति धनं चन्द्रपुत्रे शतघ्नम् / हीनं वह नयर्कशैले दशगुणितदिनं भार्गवेऽब्ध्यष्टहीनं शून्याकाशर्तु नेत्रं खकरफणियुतं(ग) मन्त्रिपुत्रो ऋणं स्यात् / / 81 / / भौमे सार्धा नवार्धाधिकनृपति बुधे सूर्यसू(ऋ)क्षं गुरौ स्यात् षट् शुक्र दोषमका(मर्का) वृण मिति सकल शोधयेद् भुक्तिमध्ये / पश्चाच्छुद्ध(द्धि)श्च तेषां भवति नरपते जन्मनक्षत्रचारात् स्वाङ्गे नीचस्य शुद्धिर्भवति गतिवशादुच्चकस्यार्कमध्ये // 82 // षट्षदर्शलास्व(म्ब)रेकम् , षट्षष्ठ्यधिकं सप्तशतायुतमेकं भवति दिनगणं मण्डलं सूर्यसूनोरिति / शैलर्वेकञ्च भौम इत्यादि पूर्वोक्तमिति टीकायां वृत्तद्वयं यावदिति / इदानीं ग्रहाणां जन्मशुद्धयर्थं नक्षत्रसमुच्चयमुच्यतेषण्मासर्मासभुक्तं गुणितमपि भवेत् कालचक्राब्दमासर्भागे लब्धं ऋणं स्यादपि रविशशिना नानुभुक्ताद्धनाडी / [77a] 1. ग. षट्पट्कं / 2. ग. शैलाम्बरकम् ; भो. Nam mKhah Cig (अम्बरैकम्) / T285 Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 117 पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः 117 केतोभूयोऽधिकं यत् प्रतिदिनसमये गुण्यमिन्दोदिनैश्च षष्टया भागेन नाडी प्रतिदिनसमये शीघ्रवक्रोदये च // 83 // षण्मासेर्मासभुक्तमिति तदुपरि शुद्धिः सिद्धान्ते, किन्तु सत्त्वाशयवशेन करणापेक्षा इति / केतूदये पुनस्त्रिपक्षदिनैश्चारपदं गुणितं सार्धद्वादशाधिकशतलिप्तापिण्डं भवति / तदेव प्रतिदिने उदयात् केतोर्भवति इति कार्य वेदितव्यम् / यार्धनाडी ऋक्ष- 5 ऋणस्थाने लब्धेति मातृमोदकवाक्यं सत्त्वानां पाचनायेति / इदानीं ग्रहाणां चारबलमुच्यतेसौम्यो मन्त्री च शीघ्र प्रभवति बलवान् भौमकेतू च वक्रे मन्दः शुक्रश्च मन्दे प्रकृतिगुणवशात् शेषचारेऽबलाश्च / शीघ्र पूर्वा मुखाः स्युः पुनरपरमुखा वक्रचारे प्रविष्टा 10 मन्दे सव्याननाः स्युः स्वगतिगुणवशान्निर्गमे चोत्तरास्याः / / 84 // सौम इत्यादि / सौम्यो बुधः, मन्त्री बृहस्पतिः, शीघ्र शीघ्रचारे उदितः सन् पूर्वार्धे प्रभवति बलवानिति / भौमश्च केतुश्च भौमकेतू वके अर्धमण्डले परित्यक्ते उत्क्रमभोगात् बलवान् भवति / मन्दः शनिः शुक्रश्च मन्दक्रमेणापरार्धे बलवानिति / प्रकृतिगुणवशाद्वान्त(धातु)गुण'वशादिति / शेषचारे चारत्रये अबलाश्च भौमादय 15 इति / शीघ्र पूर्वा मुखाः स्युः, सर्वग्रहाः शीघ्रचारे पूर्वार्धे पूर्वा मुखाः स्युः ; पुनस्ते' ते अपरमुखाः पश्चिममुखाः वक्रचारे प्रविष्टाः सन्तः, मन्दे क्रमेणापरार्धे सव्यानभा(नना) भवन्ति / स्वगतिगुणवशानिर्गमे चोत्क्रमेणापरार्धे उत्तरमुखा भवन्तोति / एतत् स्वरोदयभूमिबलार्थं वाक्यम् / सूर्यचन्द्रपदान्युच्यन्तेमासैस्त्रिंशद्दिना ये जलनिधिनिहताः खाक्षिचन्द्रं यदीन्दो राशीनां द्वादशानां युगगुणितपदं चाष्टवेदं रवेश्च[77b] / तन्मध्ये हानिवृद्धी त्वयनगतिवशादुत्क्रमेण क्रमेण चक्राछुट्टै समस्ता वसुयुगगणना वेदितव्या नरेन्द्र // 85 // मासेस्त्रिशदिना ये जलनिधिनिहता, त्रिंशद्दिनाश्चतुभिगुणितास्ते, खाक्षि- 25 चन्द्रं यदिन्दोः, विंशत्यधिकशतंपदं भवति, चन्द्रस्य सप्तदिनावधेः कलावृद्धयर्थं वक्ष्यमाणे वक्तव्यम् / राशीनां द्वादशानां चतुभिगुणितानां चाष्टवेदं रवेः पदं षण्मासावधेर्भवति, तदेव वक्ष्यमाणे वक्तव्यम् / अत्र संग्रहमात्रेणैषां पदानां नियमः / तन्मध्ये हानिवृद्धी त्वयनगतिवशादुत्कमेण[कमेण] चक्राआँखें समस्ता वसुयुगगणना, अष्टचत्वारिंशद् गणना वेदितव्याः करणविवक्षायामिति / 1. भो. Khams Kyi Yon Tan (धातुगुण)। 2. क. यतस्ते / 20 30 Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 विमलप्रभायां [लोकधातुइदानीं चन्द्रमण्डले राहुप्रवेशलक्षणमुच्यते पर्वच्छेद इत्यादिपर्वच्छेदे च राहोः प्रविशति शशिनो मण्डले मण्डलं च सर्वग्रासो विशुद्धो भवति शशिवशान्मण्डलं षष्टिनाड्यः / अर्द्धग्रासोऽद्धंशुद्धे भवति शशिवशान्नाडिका यावदस्ति छेदो ग्रासो रवीन्दोदिननिशिसमये कृष्णशुक्ले च पूर्वे // 86 / / पर्वच्छेदे, पूर्णावसाने, अमावास्यावसाने वा, राहोः प्रविशति मण्डले शशिनो मण्डलम् ; मण्डलशब्देनात्र षष्टिघटिका, एकनक्षत्रपरिभोगः, स च द्वादशराश्यात्मकः, षोडशकलात्मको वेदितव्यः, सर्वग्रासवशादिति, सर्वनासो विशुद्धो भवति / यदि राहुभोगेन चन्द्र भोगः परिशुद्धस्तदा सर्वग्रासः षष्टिनाडिकापर्यन्तम् / अर्द्धग्रासोऽर्द्धभोगे 10 शुद्धे सति शशिचरणवशान्मण्डलं षष्टिनाड्योश्चन्द्रस्य षोडशकलात्मकम् / एवं शशि चरणवशान्नाडिका यावदस्ति राहुभोगे प्रविष्टा तावदेककलायाश्चतुर्थांशं यावद् ग्रहसमागमो ज्ञेय इति'। एतत् सिद्धान्ते राहो[78a]वजनादिकं विस्तरेण बाह्यज्ञानार्थ वेदितव्यम् / अस्मिन् तन्त्रे लघुहेतुतो मञ्जुश्रया न प्रकाशितम् / अत्र यदध्यात्मोपयोग्यं तदेवोक्तं 15 संक्षेपत इति / एवं ग्रहयुद्धादिकं समस्तं सिद्धान्ते ज्ञातव्यम् / अत्र तन्त्रे सिद्धान्तापेक्षा ज्योतिषविषये ग्रहयद्धादिके; अध्यात्मनि ग्रहयद्धविवक्षा नास्तीति भगवतो नियमः / न बाह्ये ग्रहणे जाते सति सत्त्वानां शुक्रग्रहणं भवत्यध्यात्मनि; रविग्रहणाद् रजोग्रहणं भवतीति नियमः सर्वत्र नास्ति / तस्माद् बौद्धर्बाह्यपरिज्ञानार्थं ब्रह्मसूर्ययमनकरोमकसिद्धान्तं(:) ज्ञातव्यमिति(ज्ञातव्या इति) भगवतो नियमः।। इदानीं सर्वग्रहाणां चतुर्युगान्ते शून्यचरणप्रवेश उच्यते मानुष्याणामित्यादिमानुष्याणां शताब्दं गुणितमपि भवेद् वर्षभुक्त्या ग्रहाणां द्विस्थं दिग्भागलब्धं भवति च तद् ऋणं शोधयेन्मूनि राशौ / विंशत्येकं हि लक्षं षडयुतमपि च षट्वर्षसंख्या युगाढे भूयो राशिद्वयेन प्रभवति नियतं वर्षसंख्या चतुर्णाम् // 87 // ___ मानुष्याणां शताब्दं यत् तद्गुणितं वर्षभुक्त्या ग्रहाणामिति कालचक्रेण सह ग्रहाणां सार्धदिनेन वर्षशतभुक्तिः, त्रिदिनैद्विशतम्, त्रिंशदिनैदिसहस्रम्, षष्ट्युत्तरत्रिंशदिनैः चतुर्विशतिवर्षसहस्र भुक्तिर्भवति / तया वर्षशतं गुणितं द्विस्थं दिग्भागलन्धम्, दशभागेन लब्धम्, मूनि राशौ ऋणं शोधनीयं भवति; अवशिष्टं विंशत्येकं हि लक्षं षडयुतमिति 1. स्रग्धरायाः 'छेदो ग्रासो' इत्यादिकस्य अन्तिमांशस्य व्याख्यानं संस्कृते भोटानुवादे वापि न वर्तते / 2. ग. °मुद्रादिकं / 3. ग. घ. पुस्तकयोः ‘षड्युतम्' इति नास्ति। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः एकविंशतिलक्षं षडयुतमपि यद् वर्षसंख्या युगाधे भवति;युगान्तिात् पञ्च पदानि-कृद्युगस्य चत्वारि पदानि, त्रेतायाः पदमेकमिति, युगार्द्धमाकाशवायुतेजउदकपृथ्वीमण्डलात्मकम्, यथाक्रमं भर्तुमिनाड्यां' प्राणसञ्चार इति / भूयो राशिद्वयेन, पुद्वितीयराशिना पञ्चपदात्मकेन / तत्र त्रेतायाः पदद्वयम्, द्वापरस्य पदद्वयम्, कलेरेकपदम्, पृथिव्यपतेजोवायुशून्यात्मकम्; यथानु[78b]क्रमेण दक्षिणनाड्यां भर्तुः प्राणसञ्चारः पञ्चमण्डलात्मक 5 इति / एवमुभयनाडीमण्डलवर्षराशिद्वयेन वर्षसंख्या चतुर्णा युगानां द्वययुताधिकत्रिचत्वारिंशल्लक्षाणि मनुष्यवर्षाणामिति; भतुर्लग्नद्वयं वामदक्षिणनाडीमण्डलसञ्चारत इति; अत्र प्रत्येकयुगानाम् / शून्यं शून्यं खनागाः करमुनिशशिनः कृद्युगस्य प्रमाणं त्रेतायां खं खशून्यं रसनवदिनकृद् वर्षसंख्या प्रसिद्धा / शून्यं शून्यं खवेदं रसभुजगमिति द्वापरेऽब्दानि सम्यक् शून्याकाशं खनेत्रं गुणजलनिधयो वर्षसंख्या कलौ स्यात् // 88 // शून्यं शून्यं खनागाः करमुनिशशिन इति अष्टाविंशतिसहस्राधिकसप्तदशलक्षाणि वर्षाणां कृदयगस्य प्रमाणम, चतूमण्डलपदोपभोगत इति / त्रेतायाः२ खं खशून्य रसनवदिनकृदिति षण्णवतिसहस्राधिकद्वादशलक्षाणि वर्षसंख्या प्रसिद्ध ति। शून्यं शून्यं 15 खवेदं रसभुजगमिति चतुःषष्टि सहस्राधिकाष्टलक्षाणि द्वापरेऽब्दानि सम्यग् भवन्तीति / शून्याकाशं खनेत्रं गुणजलनिधय इति द्वात्रिंशत्सहस्राधिकचतुर्लक्षाणि वर्षसंख्या कलो स्यादिति / एवं त्रेतायाः त्रिपादाः, द्वापरे द्वौ, कलौ त्वेकपदम्; त्रिद्वयेकमण्डलात्मकः, प्रत्येकमण्डलं कलौ वर्षमानेनेति / एतैर्वर्युगान्ते ग्रहगणचरणं तिष्ठते राशिशून्ये अश्विन्याद्यं च भूयः प्रभव इति तथा चैत्रमासादिकं च / वारो योगस्तिथिर्वे करणमपि तथा चाधिकं तत्र काले / देवानां दानवानां क्षितितलनिलये रौद्रयुद्धं भविष्यति // 89 // [79a] एतैर्वर्षेयुगान्ते ग्रहगणचरणं तिष्ठते राशिशून्ये इति / एतैर्वर्षपूर्वोक्त'गान्ते चतुर्युगान्ते / ग्रहगणेत्यादि सुबोधम् / रेवत्यन्ते (राशिशून्ये तिष्ठति / )5 25 . अश्विन्याद्यं च नक्षत्रं भूयो ग्रहाणां भुक्तिर्भवति / प्रभव इति यथा भवति, चैत्रमासादिकं च तथा भवति / वारो योगस्तिथिर्वे करणमपि तथा चाधिकं तत्र काले / आदित्यवारः, 1286 विष्कम्भयोगः, प्रतिपत् शुक्लपक्षे तिथिः, करणं ववमित्यादिकम्; तस्मिन् काले / देवानां 1. घ. नाड्याः / 2. ध. त्रेतायां / 3. ग. घ. ०पादः / 4. भोटे सुबोधमिति न लिखितम्, अपि तु व्याख्यानं प्रस्तुतम् / 5. कोष्ठके लिखितांशो भोटानुवादमनुसृत्य प्रस्तूयते / तत्र एवमागतम्-Khyim Ni Ton Pa Dag LagNes So. Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लोकधातु 120 विमलप्रभायां वानवानां म्लेच्छानां क्षितितलनिलये वागदायां' नगर्या रौद्रयुद्ध भविष्यति / ततः कृयुगप्रवेशो भविष्यतीति। इदानीं तिथ्यादिग्रहभोगे सर्वशून्यस्थिते पुनः ध्रुवकोत्पादा उच्यन्तेतस्मादृक्षदिनकं गुणितमपि भवेत् षष्टिभिर्नाडिकाभिभुक्तिः स्यान्मण्डलेन प्रभवति नियता भागलब्धा ग्रहाणाम् / पूणे मासे ध्रुवं स्यात् पुनरपि च भवेद् वारनाडीपदेषु नक्षत्रे सूर्यभोगो भवति दिनगणः शोधितो मास एकः // 90 // इति / 1. इदानीमपि इराकदेशे बगदाद-महानगरी प्रसिद्धा / 2. कालचक्रतन्त्रराजस्य मुद्रितपुस्तकेषु अयं श्लोको न लभ्यते, अस्य मूलस्य भोटानुवादेऽपि अयं नोपलभ्यते; किन्तु विमलप्रभायाम्, तस्य भोटानुवादे च अयं विद्यत एव / भोटदेशीय-आचार्य-खेस्-...' डुब-जे-महाभागैरयं श्लोको मूलत्वेन गृह्यते / अतः अत्रापि मूलत्वेन स्वीक्रियते / आचार्य-खेस्-डुब-जे-महाभागः स्वकृतायां विद्यासागराभिधायां (Rig Pahi rGya mTso, पृ० 465) विमलप्रभाटीकायां नवतिसंख्यक(९०)श्लोकोऽयं मूलकालचक्रतन्त्रस्यैवेति स्वमतं प्रकाशितम् / तैरिदं स्थापितं यद् यद्यपि भोटदेशीयानु-: वादकेन लोचवा-शोङ-तोन् महाशयेन मूलकालचक्रतन्त्रस्यानुवादप्रसङ्गे अस्य श्लोकस्यानुवादो न कृतः, स्वभोटानुवादे अस्यानुवादो न प्रस्तुतः, तथापि तस्य इदं कार्य स्पष्टतया स्खलितरूपमेव / इदं प्रतीयते यदनुवादार्थ तेन या संस्कृतपाण्डुलिपिरधिगता, सा तथाविधैव एतच्छ्लोकरहिता एवं त्रुटिपूर्णा च आसीत् / विहायैनां प्रथमपटलस्य कारिकासंख्या न्यूना भविष्यति / खेस्-डुब्-जे-महाभागेश्च स्वयं विभूतिचन्द्रस्य संस्कृतपाण्डुलिप्यां श्लोकोऽयं मूलत्वेन दृष्ट्वा व्याख्यातः / सर्वमतदालोच्यात्रापि मलत्वेनायं श्लोको गृह्यते / अत्र खेस-डुब-जे-महोदयानामेतद्विषयिणी काचिद् वाक्यभङ्गिः प्रस्तूयते; तद्यथा "De Nes sGyu sKar Nams Kyis Ses Sogs Kyi Tshig bCad hDi rТsa Tshig Yin par Sin Tu gSal La Vibhuti Candrahi Phyag d Pehi rGyud Kyi rGya d Pe La dKyus Na Yod Cin hGrel pahi Phyag dPe La Yan rТsa bar Byas pahi mChen Bu Yod Do Ses gSun Pa ITar Nes par rТsa Tshig Tu Bya dGos So. "Di Med Na rТsa Bahi Tshig bCad Kyi Gran Kyan Mi Tshan Bas Son "Gyur Gyi rТsa Bahi Nan Du hDi Ma Byun ba Ni dPe Ma Dag pa Las bsGyur Bahi Kyon Du mNon No." उपरिलिखितभोटांशस्य संस्कृतानुवाद : "'तस्मादृक्षः' इत्यादि कारिका / इयं मूलकारिका अस्तीति सुस्पष्टम्; यतो हि विभूतिचन्द्रस्य हस्तलिखितपाण्डुलिप्यामियं कारिका मूलरूपेणैव वर्तते / टीकायाः पाण्डुलिप्यामपि इयं कारिका मूलकारिकव स्वीकृता भवति / अतः कारिकेयं मूलकारिका अस्तीति निश्चितम् / Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 पटले]. ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः इदानीं कालचक्रवर्षपक्षात् मासध्रुवकमुच्यतेषड्वर्गाः सार्कमात्राः खलु गुणगुणितास्त्रीणि वर्षाणि सूर्ये / आद्या ह स्वा दिनाख्यास्त्रिगुणशशिकलाः सार्द्धमासं हि चन्द्रे / नाड्यो हाद्याः समात्रास्त्रिगुणितमपि यत् तत् त्रिरात्रञ्च राहोः श्रीशून्यानाहताद्यास्त्रिगुणितमपि यत् तत् त्रिलग्नञ्च राहोः // 91 // . षड्वर्गाः सार्कमात्रा इति / षड् वर्गाः कचटत पसास्त्रिशदक्षरा(र)व्यञ्जनलक्षणा द्वादशस्वरैः सह षष्ट्युत्तरत्रिशता भवन्ति वर्णा ह्रस्वदीर्घस्वरभेदतः / अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ ल ल अं अः, एभिः प्रत्येकाक्षरं ककारादिकं द्वादशभेदभिन्नं भवति, तेन त्रिंशद् व्यञ्जनानि द्वादशभेदभिन्नानि षष्ट्युत्तरत्रिशतानीति / पुनस्ते ककारादयो परगुणैर्भेदिन्य(ता.) यणादेशैर्भेदिताः खलु गुणगुणिताः; गुणा :-अ ए अर् 10 ओ अल् अं; वृद्धिः-आ ऐ आर् औ आल् आः; यणा [79b]देशाः-हहा यया ररा ववा लला हंहा इति / एवं त्रोणि वर्षाणि सूर्येऽशीत्युत्तरसहस्रदिनानि भवन्ति तानि ककारादीनीति। आद्या ह्रस्वा दिनाख्याः पञ्चदश त्रिगुणशशिकला (:) ह्रस्वदीर्घप्लुतभेदेन साद्ध मासं त्रिपक्ष चन्द्र भवतीति / तत्र अ इ उ ऋल, अ ए अर ओ अल, ह य 15 व र ल, ला वा रा या हा, आल् औ आर् ऐ आ; ल ऊ ऋ ई आ, आँ ई ऋ ॐ ल आँ ऐं आर, औं आलं हाँ याँ राँ वाँ लाँ इति त्रिपक्षस्वराः / नाड्यो हाद्या भवन्ति षष्टिसंख्या द्वादशलग्नभेदेनेति मध्याह्नादर्द्धरात्रं ह्रस्वाः पूर्वोक्तविधिना; दीर्घा अर्द्धरात्रान्मध्याह्न यावत् त्रिंशदिति / श्रीशून्यानाहताधा ये पञ्च ते सत्त्वरजस्तमोभेदेन जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तस्वभावेन 20 त्रिलग्नानि राहोः प्राणवायोर्भवन्तीति नियमः / भूताः सूर्येन्दुसंख्याः पुनरपि नृपते साद्धं मासत्रिपक्षं त्यक्त्वा सार्द्ध हि मासं भवति मुनिवरैश्छेदितं कालचक्रम् / मासक्षेपैकवारो द्विगुणनृपघटोपिण्डके द्वे त्वधश्च चक्र वारो विभक्तो भवति नियमितः षष्टिभिर्देवतीभिः // 92 // 25 यदि इयं कारिका मूलकारिका न स्यात् तहि मूलकारिका अपूर्णा भवेत् / अतः प्रतीयते इदं यत् शोङ्-तोन्-लोचवामहाशयेनानूदितमूले अस्याः कारिकाया अप्रस्तुतिः त्रुटिपूर्णा, अपूर्णां पाण्डुलिपिमाधारीकृत्य तेनानुवादकायं कृतम्" इति / 1-2. ख. पत / 3-4. ख. ग. घ. ऋ ऋ उ ऊ / 5-6. ख. घ. ऋउ / 7. ख. पुस्तके नास्ति। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [लोकधातु 122 विमलप्रभायां भूताः सूर्येन्द्र संख्या (:) पुनस्त्रिवर्षत्रिपक्षभेदिता' पञ्चविंशत्यधिकैकादशशता भवन्ति हेन्दुप (नृप) इति साङ्घमासत्रिपक्षमिति / त्यक्त्वा सार्ध हि मासं / अतः सार्धमासं त्यक्त्वाऽपरमशीत्युत्तरसहस्र भवति / ततोऽविशेष मुनिवरैः सप्तभिश्छेदितं लब्धं कालचक्र भवति लघुः३ चतुःपञ्चाशदधिकशतात्मकं भागलब्धावशिष्टके द्वयं मण्डलमध्ये प्रज्ञोपायात्मकम् ; तदेव मासध्रुवके एकचारः, द्वात्रिंशत् घटिकापिण्डद्वयं प्रक्षिप्य तिथिमेकां पञ्च चारपदानि। चक्रे कालचक्रे५ षटपञ्चाशदधिकशते' वारो। विभक्तो भवति षष्टिदेवतीभिः घटिकाभिरित्यर्थः [80a] द्वात्रिंशद्भिश्च नाड्यो वसुगुणितमुनेर्दैवते (देवतो) पिण्डके द्वे देयं हेयं च देयं प्रथमशशिपदं पञ्चपञ्चात्र षड्भिः / 10 इन्दोः पक्षत्रयोऽहस्त्रिगुणमपि भवेत् सूर्यभोगे प्रसिद्धं. द्वे चर्खे षष्टिभक्ते प्रथमरविदिने रुद्रनाड्यः सभोगाः / / 93 // द्वात्रिंशद्भिर्देवतीभिर्घटिकाभिः द्वात्रिंशत्घटिकास्थाने मास- वको वसुगुणितमुनेः षट्पञ्चाशद् देवतीभिः पिण्डद्वयं पिण्डस्थाने भवति / देयं हेयं च देयम्, एकदेवती भवति; पञ्च देवत्यः पञ्च पदानि भवन्ति, पञ्चभिरेकेन सह षड्भिरिति / 15 इन्दोः पक्षत्रयोऽहः पञ्चचत्वारिंशद् दिनानि त्रिगुणितं सत्त्वरजस्तमआत्मकमपि भवेत् सूर्यभोगे प्रसिद्धम् / द्वे चर्खे षष्टिभक्ते विंशत्यधिकशतैर्नाडिकाभिनक्षत्रध्रुवके द्वे च भवतः / प्रथमरविदिने चतुर्गुणिते चतुर्घटिकादियुक्ता ईश(रुद्र)नाड्य * एकादश नाड्यो नाडीस्थाने भवन्तीति नियमः सर्वत्र / एतत् श्रीकालचक्र ग्रहगणसहितं बाह्यदेहेष्वभिन्न संहारस्फारहेतुं त्रिभुवननिलये कालरूपेण * सूर्य / प्रज्ञोपायप्रभेदैः समविषमकुलैः शीघ्रवक्रादिचारैन ज्ञातं वीतरागैः परममुनिकुलैब्रह्मरुद्रादिदेवैः // 14 // एतत् श्रीकालचक्र ग्रहगणसहितमित्यादिनोक्तक्रमेण बाह्यदेहेष्वभिन्न संहारस्फारहेतुम्, त्रिभुवनं कामरूपारूपम्, तस्मिन् निलये कालरूपेण प्राणरूपेण। सूर्य 1. ख. ग. घ. भेदिना; भो. पुस्तके 'भेदिता' इति नास्ति / 2. भो. एकादशशता दिनानि / 3-4. घ. पुस्तके नास्ति; भो. पुस्तकेऽपि नास्ति / 5-6. ग. घ. पस्तकयोः नास्ति / यद्यपि अयं भोटानुवादेऽपि नास्ति, तथापि भोटदेशीयाचार्यः खेस-डुब-जे महाभागैः स्वभोटटीकायां प्रयोगमनुरुध्य एतादशी एव कालगणना कृताऽस्ति / 7. ग. घ. युक्त / / Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 123 इत्यामन्त्रणं मञ्जुश्रियः; हे' [80b] सूर्यरथ, लघुतन्त्रसम्बन्ध-अध्येषण-प्रज्ञोपायप्रभेदैदिवारात्रिप्रभेदेन' चन्द्र-सूर्यभेदाद्यैः; समविषमकुलैः; समो दीर्घः विषमो ह्रस्वः,शोघ्रवक्रादिचारैर्न ज्ञातं वीतरागैः पर[78b] *ममुनिकुलैब्रह्मरुद्रादिदेवैरिति / एवं पूर्वोक्तविधिना एभिर्ब्रह्मादिभिर्न ज्ञातं कालचक्र भगवन्तं संवृतिरूपेण व्यवस्थितं व्यापकं सर्वव्याप्येषु स्थावरजङ्गमवस्तुषु, यथा सम्यक्सम्बुद्धेन भगवता सर्वज्ञेन ज्ञातं लौकिक-5 लोकोत्तर-संवतिविवतिरूपेण, सूचन्द्रस्य वज्रपाणेः प्रकाशितम्, मयापि तै(ते)सर्यरथ, संक्षेपतस्तदेव कालचक्रभगवन्तं प्रकाशितं मञ्जश्रिया यशोनरेन्द्रेणेति / इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां द्वादशसाहस्रिकायां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां विमलप्रभायां ज्योतिर्ज्ञानविधिमहोद्देशः नवमः // 9 // 10 (10) स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः इदानीं स्वरोदय उच्यतेआद्याः पञ्चस्वरा ये प्रथमतिथिवशात् पञ्चनन्दादियोगे कुर्वन्त्यत्रोदयान्ते यदि नृप न भवेत् तत्र भौमादिवारः / भौमेऽनिष्टोदये वै यदि भवति पुनः कृत्तिकायोग एव तस्मिन् संग्रामरोगो यदि भवति नृणां मृत्युरादिस्वरस्य // 95 / / 15 आदि(ये)त्यादि / अकार आदिर्येषां स्वराणां ते आद्याः पञ्च, अ इ उ ऋ ल इति; स्वयम्भुवोक्तम् “अइउण्; ऋलगि"ति (शि० सू० 1-2) प्रत्याहारग्रहणात् / "ए ओ(ङ); [ऐ औ]च्” (शि० सू० 3-4) (इति)° पाठात् सन्ध्यक्षरौ इकार-उकार 1. अत्र क. ख, पुस्तके त्रुटिते; त्रुटितांशः परं प्रथमपटलान्तं यावत् क. ख. पुस्तकयोः टीका नोपलभ्यते; केवलं मूलमात्रमस्ति / अत इतः पश्चात् ग. पुस्तकात् टीकायाः उल्लेखः प्रस्तूयते; तस्य पाठभेदः घ. पुस्तकात् दीयते / [80b]इत्यस्य पश्चात् ग. पुस्तकस्य [ ] कोष्ठके पृष्ठाकानां प्रस्तुतीकरणं च विद्यते / 2. घ. भेदेन / 3. घ. शीघ्रचक्रादिचारैः / 4. ग. संवृतिमयेण / 5-6. घ. इति श्रीमहादिबुद्धोद्धृतलघुकालचकतन्त्रराजटीकायां विमलप्रभायां द्वादशसाहनिकायां ज्योतिषनिविधिमहोद्देशः नवमः / 7-8. ग. पुस्तके 'आदित्यादि'तः 'आद्या'पर्यन्तमस्पष्टम.। अत्र येषु येषु स्थलेषु पाठा अस्पष्टाः तेषु तेषु स्थलेषु घ. पुस्तकादेव पाठाः प्रदत्ताः / 9. ग. स्वयंभुवोक्त; घ. स्वयंभुवव्यक्तं / 10. ग. पुस्तके नास्ति / * अतः परं कोष्ठके ग. पुस्तकस्य पृष्ठसंख्या दीयते; पूर्वे तु क. पुस्तकस्य पृष्ठसंख्या कोष्ठके प्रदत्ता। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 विमलप्रभायां [लोकधातुयोर्गुणौ, "ऋको(s)णो' रलौ" (चा० व्या० 1.1.15) इति सूत्रात् / ऋल नपुंसको / [पुन अकौ] न स्याताम्, ऋकारलकारयोरपि गुणतः इकारादीनां विशेषाभावात् / तस्मात् “अइ[उण];[ऋ] लु [क] ; ए ओ []" इति बालानां लोकरूढिः / गुणयणो[रु]त्पादात् “अइउण; ऋलुक्" इति न्यायः, "इको यणचि" (अ०. 6.1.77) 5 इति विशेषात्, “अको ऽ कि दीर्घः" (चा० व्या० 5.1.106; "अकोऽकि इत्येव सुवचम्"-सि० कौ०, “अकः सवर्णे दीर्घः" 6.1.101, इति सूत्रस्योपरि) [इति] ज्ञापकात् [च]। आदौ* ये पञ्चस्वरास्ते स्वयम्भुवा व्याकृताः, समानरूपास्ते' **चाकाशादिप्रकृतिवशाद् यथासंख्यं मञ्जुश्रिया लिखितः(त)स्वव्याकरणे' / अइउण (ण) ऋ लु 10 [क]'३ इति आकाशवायु-तेज-उदक-पृथ्वीस्वभावा यथाक्रमम्, तथा अ ए अर (र्) ओ अल (ल्) च, ह य र व ल ट (ट्) तथा मञ्जुश्रिया निर्दिष्टा (:) गुणयणादेशतः, स्वस्वप्रकृतिस्वभावाश्रयणादिति [ ] / ते पञ्चस्वराः प्रथमतिथिवशादिति'४ प्रथमतिथयः पञ्च'५, तमोभेदेन शुक्ल"... प्रतिपत् द्वितीया तृतीया चतुर्थी पञ्चमीति, ताभ्यां (सां) वशात्, प्रथमतिथिवशात् .: 15 पञ्चानां नन्दादयो योगाः; पञ्चस्वराणां नन्दा प्रथमा तिथिः, द्वितीया भद्रा, तृतीया जया, चतुर्थी रिक्ता, पञ्चमी पूर्णा; एवं षष्ठ्याद्यास्तथा एकादशा(श्या)द्या' / T287 अस्मिन् नन्दादियो[79a]गे कुर्वन्त्यत्रोदयान्ते" यदि तत्र भौमादिवारा(रो) न२° भवति(भवेत्) नन्दायां भौमः, भद्रायां बुधः, जयायां बृहस्पतिः, रिक्तायां शुक्रः, पूर्णायां मन्दः-अत्र नन्दादौ यदि भौमादिवारो न भवति, तदोदितो भवति; अन्यथा अनिष्टोदयः; हे नृप, भौमे अनिष्टोदये सति नन्दायां यदि' भवति पुनः कृत्तिकायोग२२ एव; तस्मात् नन्दा२३तिथौ संग्रामो वा रोगो वा यदि भवति, नृणां मृत्युरादिस्वरस्य 4 प्रथमस्वरस्येत्यर्थः, अकारादिर्यस्य नाम तस्य पुरुषस्य स्त्रियो२५ वा२६ / 1. ग. ऋकोणो। 2. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः ; भो. Ma nin du mi hGyur / 3-4. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 5. घ. ०भावस्त / 6-7. ग. पुस्तके अयमंशोsस्पष्टः / 8. ग. पुस्तके 'ण' इति नास्ति / 9. घ. स्वयंभुवो। 10-11. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 12-13. घ. 'अइ ऋउ लु' इति पाठः / 14. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 15-16. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 17. घ. एकादशाद्या; ग. एकादद्या। 18. ग. कुर्वन्त्युद्वोदयोन्ति / 19-20. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 21. ग. यतिदि / 22-23 ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 24. ग. मृत्युयादिस्वरस्य / ***.भो. dByans INa Gan Yin Pa De Dag ran Byun du Lun bsTan pas mNam Pahi No Bo STe (ये पञ्चस्वराः स्वयम्भुना व्याकृतत्वात् समानरूपास्ते)। 25-26. ग. स्तिपोवा॑ / Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 125 भद्रा सौम्ये द्वितीयो नृपति(म्रियते)* यदि मघायोग एवात्र वारे अश्लेषाक्षी (क्ष) जयायां यदि भवति गुरुाति मृत्यु तृतीयः / रिक्तातिथ्यां धनिष्ठा यदि भवति भृगुर्याति मृत्यु चतुर्थः पूर्णा मन्देन सार्द्ध प्रभवति भरणी पञ्चमो याति मृत्युम् // 16 // एवं भद्रा सौम्ये यदि मघानक्षत्रं भवति, तदा द्वितीय इकारस्वरनाम'(1) 5 नियति(ते)। एवं जयायां बृहस्पती यदि अश्लेषाः भवति, तदा तृतीय ऋकारस्वरनामा म्रियते / एवं रिक्तायां शुक्रो यदि भवति धनिष्ठा, तदा चतुर्थ उकारस्वरनामा म्रियते५; तथा पूर्णा शनौ यदि भरणी[प्र]भवति, तदा पञ्चम लकारस्वरनामा मृत्युं याति / एवं स्वराणा मुदितानामपि नक्षत्रका(वा)र वशात्** मृत्युयोगो भवति / 10 सूर्ये नन्दोदयानां व्रणमपि च भवेत् क्लेश एवातुराणां सौम्ये (सोमे) भद्रोदयानां प्रभवति नियतं युद्धे रोगे च तद्वत् / सत्यं पञ्चोदयानां भवति बहुफलं मृत्युयोगैविहीनं ज्ञातव्यं रोगयुद्धेऽप्यशुभशुभफलं देशयात्रा विवाहे // 97 // तथा सूर्यवारे' नन्दो''दयानां वणं रणे भवति, आतुराणां क्लेशो भवति / 15 एवं सोमवारे भद्रोदयानां ज्ञेयं सत्यं पञ्चोदयानां आकारादीनां स्वस्वतिथावुदितानां" बहुफलं 5 मृत्युयोगविहीनं भवतीति', तदेव नैमित्तिकेन ज्ञातव्यम्, रोगे युद्ध" चाशुभशुभफलं " देशयात्रायां विवाहकाले 20 चेति / / . . एवं नक्षत्रवाराः स्वरगणतिथयः पञ्चतत्त्वप्रभेदैः पक्षे मासेऽयनेऽब्देऽप्युदय इह भवेत् षष्टिसंवत्सरे च / 20 चैत्रादौ द्वादशाङ्गरुदय इह भवेत् पक्षभेदः स एव द्वासप्तत्यादीनामुदय इह भवेत् मासभेदे (दः) स्वराणाम् // 98 // 1. इकारश्वरनाम / 2-3. ग. ययश्लिवा / 4. ग. म्रियति / 5. ग. म्रियति / 6. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 7-8. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 9. भो. zLa (सोमे) / 10. ग. सूर्य० / 11-12. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 13. ग. ०दयाणां / 14. ग. 0 बुदिततां / 15. ग.० फल / 16-17. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 18. ग. विशुद्धिया शुभाशुभफलं / 19-20. ग. दिययात्राविवाहकाले / *. भी. hChi Bar hGyur (म्रियते)। ** भो. gZh (वार)। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 126 विमलप्रभायां [लोकधातुएवं नक्षत्रवाराः उक्तक्रमेण स्वरगणतिथयः पञ्चतत्त्वप्रभेदैरिति पुनरेवायमुदयः पक्षेमासेऽयनेऽब्देऽपि स्वराणां भवति षष्टिसंवत्सरे' च / अत्र चैत्रादिनोदयः चैत्रादौ मासद्वये" षष्टिदिनानि, तेषु द्वादश द्वादशदिनैः अकारादयो यथा क्रमेणोदयन्ति, शुक्लप्रतिपदादिना चैत्रस्य यावत् द्वितीयमासस्य पुनः शुक्लप्रतिपत् / एवं ऋतुभेदेन" पञ्चस्वराणां षट् परिवर्ताः संवत्सरे भवन्ति / पक्षोदयविषये द्वादशदिनैः पक्षभेद इति एवं संव[79b]त्सरदिनेषु' षष्ट्युत्तरत्रिशतेष्वकारादीनां द्वासप्तत्यो (सप्तत्यादीनां) क्रमेणोदयो ज्ञेयः / स एव चैत्रादि शुक्लप्रतिपदादिमासभेद' एष" इति / एवं प्रभवादिषष्टिसंवत्सरेषु पञ्चस्वराणां यथाक्रम'२ प्रत्येकसंवत्सरस्य - षण्मासैश्चायनाङ्गं प्रभवमुखगदिशाब्दैश्च वर्षम् एवं पञ्चस्वराणामुदय इह भवेच्चास्तमेवं हि भूयः / आदी बालाः स्वराश्च स्वतिथिगुणवशात् श्रीकुमारा द्वितीये प्रौढा वृद्धा क्रमेणाग्निजलनिधिदिने पञ्चमेऽस्तंगता स्युः // 19 // षड्४ मासैरुदयश्चतुर्विंशतिपरिवत्तैः पुनः पूर्वविधिरीत्याऽयनोदयः, प्रभवादी द्वादशसंवत्सरोदयः। एवं परिवर्त्तप्रभवादीनामिति वर्षोदयो ज्ञेयः / 5 एवं पञ्चस्व15 राणामुदय इह भवेत् अस्तंगतं[एवं]हि भूय इति, अत्र पक्षभेदे द्वादशदिनं नन्दा; एवं भद्रादयः मासभेदे द्वासप्ततिदिनं नन्दा, तथा" सदा(भद्रा)दयोऽपि / अयनभेदे अयनं नन्दा; एवं भद्रादयः / वर्षभेदे" द्वादशवर्ष नन्दा, एवं भद्रादयो याति(न्ति) / आदौ प्रथमं स्वरा बालाः स्व"तिथिगुणवशात(इति) आकाशवायुतेजउदकपृथिवीगुणवशात् [च]शब्दस्पर्शरसरूपगन्धगुणवशादिति यथासंख्यम् / अत्र नन्दाया20 मकारस्योदयः, भद्रायामिकारस्य, जयायामृकारस्य, रिक्तायामुकारस्य, पूर्णायां लकारस्य। एवं स्वकीयस्वकीयोदयदिनात द्वितीये दिने श्रीकमाराश्चेति भदायायकारः कुमारः, जयायामिकारः, रिक्तायामकारः, पूर्णायामुकारः२२, नन्दायां लकारः, प्रौढ (ढाः)वृद्धः (खाः) क्रमेणाग्निजलनिधिदिन इति स्वकीयदिनादग्निरिति तृतीयदिने प्रौढा भवन्ति,२३ जयायामकारः प्रौढम्, रिक्तायामिकारः, पूर्णायां ऋकारः, नन्दायाम25 कारः, भद्रायां लकारः। वृद्धः२४ जलनिधिरिति चतुर्थे दिने स्वतिथिः (थेः)।* अत्र 1. ग. पुस्तके सर्वत्र 'सम्वत्सर' इति पाठः / 2-3. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः। 4-5. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः। 6. ग. तृतीय०। ७.भो LozLa Dus Kyi dBye Bas (वर्षमासऋतुभेदेन)। 8-9. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 10. ग. शुक्लप्रतिपदादिनामभेदय / 11. ग. पुस्तके अस्पष्टम् / 12-13. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 14-15. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 16-17. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 18-19. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः। 20-21. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 22-23. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / *. भो. Tshes Las (तिथैः) / Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 127 पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः रिक्तायामकारो वृद्धः, पूर्णायामिकारः, नन्दायामृकारः, भद्रायामुकारः, जयायां लकारः। पञ्चमेऽस्तङ्गताः स्युरिति पूर्णायामकारोऽस्तंगतः,२५ नन्दायामिकारः, भद्रायामृकारः, जयायामुकारः, रिक्तायां लकारः इति स्वराणां पञ्चविध२६ उदयादिभेदो ज्ञेयः२७ / आद्याः पञ्चस्वरा ये खलु गुणगुणितास्ते द्विधा त्रिंशदेव कादौ वर्गाक्षरेषु प्रकृतिगुणवशाद्योजनीयाः समस्ताः / ह्रस्वानां शुक्लपक्षे ह्यु दय इह भवेत् पञ्चतत्त्वप्रभेदैर्दीर्घाणां कृष्णपक्षे भवति स नियतं सृष्टिसंहारयोगात् // 10 // आधाः२८ पंञ्चस्वरा ये खलु [गुण]गुणिताः सत्त्वरजस्[79b]तमो गुणिताः 10 पञ्चदश भवन्ति / ते पुनर्विघा त्रिशदेव, अ इ उ ऋ ल,"अ ए अर ओ अल, ह य र वल इति त्रिगुणा नन्दादयः शुक्लपक्षे; तथा ला वा रा या हा, आल औ आर ऐ आ लु ऊ ऋ ई इति नन्दाद्याः कृष्णपक्षे; एवमुभयपक्षयोस्त्रिशतिथीनां यथासंख्यमिति कादौ वर्गाक्षरेषु प्रकृतिगुणवशाद्योजनीयाः समस्तास्ते२ स्वराः 3 / ह्रस्वानां शुक्लपक्षे ह्य दय इति भवेत् पञ्चतत्त्वप्रभेदैरिति / अत्र यद् व्यञ्जनं 15 ह्रस्वस्वरेणोच्चारितम्, तस्य शुक्लपक्षे ह्यदयः; दीर्घाणां कृष्णपक्षे, एवं यद्दीर्घस्वरेणोच्चारितं दीर्घव्यञ्जनं तस्य कृष्णपक्षे उदयः। अत्र व्यञ्जनविषये सूर्यसंक्रान्तिपक्षो वेदितव्यः, सृष्टिसंहारयोगादिति / सप्तविंशत्तदृक्षं स्फुटश[]टिकाः सूर्यलग्ना नवांशाः एते च त्रिस्वभावाः स्थिरचलसुसमा मेषलग्नादयोऽत्र / मेषः कर्की तुला वै मकर इह चरास्तद् द्वितीया स्थिराश्च शेषाऽन्ये द्विस्वभावा दिननिशिसमये नित्यमेवोदितास्ते // 101 // सप्तविंशत्तदृक्षं सप्तविंशन्नक्षत्रपिण्डम्; तेषु सपादसपादनक्षत्रद्वयेन सूर्यलग्ना द्वादश / स्फुटशर इति पञ्चपञ्चघटिकात्मकास्ते नवांशा इति / एते च३४त्रि३"स्वभावाः स्वराः३६ (चलाः) मेषादयः, स्थिरा वृषादयः,३७ समा द्विस्वभावा मिथुनादयः / मेषः 25 कर्को३८ तुला मकर इति चत्वार स्व[च]राः, वृषः सिंहो वृश्चिकः कुम्भ इति स्थिराः, 24-25. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 26-27. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 28-29. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 30-31. घ. पुस्तके अ इ ऋउ ल इति पाठः / 32-33. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 34-35. ग. पुस्तकेऽस्पष्टम / 36-37. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः / 38. ग. की / Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 विमलप्रभायां [लोकधातुमिथुन कन्या धनु मीन इति द्विस्वभावा / एवं ते नित्यमेवोदिताः, अहोरात्रं द्वादश इति / अत्र' पृच्छाकाले चरैः शीघ्रं कार्यं भवति, स्थिरैः स्थिरम्, द्विःस्वभावैर्मध्यमकार्यमिति / तस्मिन् त्रिंशन्मुहर्त्तान्यपि दिनसमये नाडिकाप्येव षष्टिरादौ विंशत्स्वराणामुदय इह भवेद् वै मुहूर्ते मुहूर्ते / त्रिंशद्वर्गाक्षराणां प्रभवति घटिका ह्रस्वदीर्घप्रभेदैस्तिथ्यंशे चन्द्रमध्ये निगदित उदयाश्चास्तमेतं हि तस्मात् // 102 // तस्मिन् त्रिंशन्मूहर्तान्यपि, तस्मिन् लग्नमनुर्ह (समूहे ?) त्रिंशन्मुहूर्तान्यपि दिनसमयेऽष्टप्रहरात्मके नाडिकाप्येव षष्टि भवति / आदौ प्रथमे विंशत्स्वराणामुदय इह 10 भवेद वै मुहूर्ते म्हूत / तिथ्यंशे चन्द्रमध्ये इति एकां तिथिं त्रिंशन्मुहूर्त विभागं कृत्वा एकैकमुहूर्तांश(शं) प्रतिपदि अकारादीनां द्वितीयायामिकारादीनां तृतीयामामृकारादीनां चतुर्थ्यामुकारादीनां पञ्चम्यामृकारादीनां षष्ठ्यां [गुणा]कारादीनां सप्तम्यामेका[80a]रादीनां अष्टम्याम[रा]कारादीनां नवम्यामोकारानीनां दशम्याम (ल्) कारादीनां एका दश्यां हकारादीनां द्वादश्यां यकारादीनां त्रयोदश्यां रकारादीनां चतुर्दश्यां वकारादीनां 15 पूर्णायां लकारादीनां त्रिंशत्स्वराणां शुक्लपक्षे प्रत्येकतिथौ त्रिंशद्भेदेनोदयः सृष्टिक्रमेणेति ततः कृष्णपक्षे प्रतिपत्तिथौ नन्दायां संहारक्रमेण त्रिंशत्स्वराणामुदयः; तत्र प्रतिपदि लादिनां (लाकारादीनां) द्वितीयायां वादीनाम् (वाकारादीनाम्), एवं सर्वासामिति / / तिथ्यंशे चन्द्रमध्ये निगदित उदयश्चास्तमेतं हि तस्माच्चन्द्रादिति, अत्र यः शुक्लप्रतिपदादिके स्वर उदितः स कृष्णप्रतिपदादिके अस्तमिति / शून्यं वाय्वग्नितोयान्यवनिरपि कुलं चादि पञ्चस्वराणां राहग्नीन्द्वकसौम्या भृगुगरुरबलाः सौरिरुद्राधिदेवाः / पूर्वोक्तकैकलग्ने निशिदिवसवशान्नाडिका तत्र साध्या तन्मध्ये यः स्वरोऽभूद् ग्रह इति बलवान् मण्डले तेन साध्यम् // 103 // T288 शून्यं वाय्वाग्नितोयान्यवनिरपि कुलं चादि पञ्चस्वराणामिति पूर्वोक्तक्रमेणा25 कारादीनामाकाशादिकं कुलमिति / अधिदेवता राह्वादयो ग्रहाः, ह्रस्वदीर्घाणां यथा संख्यम्, राहुः कालाग्निः ह्रस्वदीर्घाकारो (रयो); चन्द्रो रविः वि(इ)कारयोः; बुधो भौम ऋकारयोः; शुक्रो गुरुरुकारयोः; केतुर्मन्दश्च लकारयोः / 1-2. ग. पुस्तके अयमंशोऽस्पष्टः। 3. घ. महत्तं / 4. भो. Yon Tan Gyi A Yig La Sogs Pa he (गणाकारादीनां)। 5.1. नवम्यामकारादीनां / 6. भो. La Yig La Sogs (लाकारादोनां)। 7. भो. Va Yig La Sogs (वाकारादीनां)। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 129 अत्र यथा न्यायमधिदेवाः। एवं द्वादशलग्ने कलग्ने निशिदिवसवशात् नाडिका तत्र साध्या वर्तमानलग्नोदये पञ्चमासाः (मांशाः); तन्मध्ये यः स्वरोऽभूद्ग्रह' इति बलवान् मण्डलं तेन साध्यम्, शून्याद्यं पृथिव्याद्यं विस(ष)मसमलग्नभेदेन साध्यमिति / वामे हस्वस्वराणामुदय इह भवेद् दक्षिणे चापराणां वामे शून्यादितत्त्वं ग्रहगणचरणं राहुमुख्यं समस्तम् / मध्ये तत्त्वं धराद्यं ग्रहगणनियमः सूर्यपुत्रादिनैव बाह्य वा कालनाडी ग्रहभवनसमा सस्वरा साधनीया // 104 / / वामे ह्रस्वस्वराणामुदयः, इह वामे विस(ष)मलग्नह्रस्वस्वराणां व्यञ्जनानामुदयो भवेत्, दक्षिणे समलग्नेऽपराणां दीर्घोच्चरितव्यञ्जनानां भवति / एवं वामे शून्यादितत्त्वं 10 पञ्चमण्डलमेकान्तरितं राह्वादिकं ग्रहगणचरणं' राहुमुख्यं समस्तमिति राहुश्चन्द्रो बुधो भृगुः केतुरिति / मध्ये दक्षिणलग्ने तस्वं धराद्यं मण्डलं पञ्चभेदम्, ग्रहगणनियमः सूर्यपुत्रादिनेति शनिबृहस्पतिर्मङ्गल आदित्यः कालाग्निरिति / अत्र समलग्ने मकरे। प[80b]ञ्चघटिका यथासंख्यं दीर्घस्वरोच्चारितं व्यञ्जनमुदयत्यकारादिभिः स्वरैर्गुणवृद्धिभिरिति / अत्र का प्रथमघटिकायां पृथिवीमण्डले, खा द्वितीयायां तोयमण्डले, 15 गा तृतोयायां वह्निमण्डले, घा चतुर्थ्यां वायुमण्डले, ङा पञ्चम्यां शून्यमण्डले; एवं कादीनि व्यञ्जनान्याकारादिभिरुच्चारितानि मकरे पञ्चमण्डलेषु यथाक्रममुदयन्ति / एवं कुम्भे पञ्चमण्डलेषु शून्यादिषु ह्रस्वस्वरोच्चारितानि ङादीनि विलोमेन वेदितव्यानि / तत्र ङ प्रथमघटिकायामाकाशमण्डले, घ द्वितीयायाम, ग तृतीयायाम्, ख चतुर्थ्याम्, क पञ्चम्यां पृथिवीमण्डले उदयति / एवं चा छा जा झाञा मीने, ञ झज छ च मेषे, पञ्च- 20 मण्डलेष्विति / तथा टा ठा डा ढा णा वृषे, ण ढ ड ठ ट मिथुने, पञ्चमण्डलेषु / एवं पा फा बा भा मा कर्कटे, म भ ब क प सिंहे, पञ्चमण्डलेषु / तथा ता था दा धा ना कन्यायाम, न ध द थ त तुलायाम्, पञ्चमण्डलेषु / एवं साया षा शा क' (ह) वृश्चिके, क' (ह) शष य स धनुषि, पञ्चमण्डलेष्विति / घटिकोदये व्यञ्जनान्यधिदेवतानि / तत्र'२ व्यञ्जनोच्चारितस्वरो व्यञ्जनं वर्णस्वरो भवति, स्वरो' जीव(प्राण)स्वरो भवति'४ | 25 स च जोव(प्राण)स्वरश्चन्द्रांशे ह्रस्वदीर्घभेदेन, मुहूर्तभेदेन, पूर्वोक्तेन ज्ञेयः / व्यञ्जनोदयो लग्नघटिकाभेदेन ज्ञेय इति / इह संग्रामे जीव(प्राण)स्वरे अस्तङ्गते मरणम्, वर्णस्वरे अस्तङ्गते व्रणम्, रोगिणां मरणं क्लेशम्, तथाप्यत्र नामाद्याक्षरे व्यञ्जनं नास्ति; तत्र स्वर'५ एव जीव X 1. घ. अधिदेवताः / 2. घ. लग्नेषु / 3. भो. Cha (अंशाः)। 4. ग. ग्रहा / 5. ग. पुस्तके नास्ति / 6. ग. मकारे / 7. ग. कक्कूटे / 8-9. घ. सा भा षा शा का। 10-11. घ. यह स स / 12. ग. अत्र / 13-14. घ. पुस्तके नास्ति / 15-16. ग. पुस्तके नास्ति / Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. विमलप्रभायीं [लोकधातुस्वरः, इतरश्च' वर्णस्वर इति / एवमध्यात्मनि वामदक्षिणे नासापुटमण्डल(ले) प्रवाहभेदेन व्यञ्जनोदयो ज्ञेयः। बाह्य वा कालनाडोति अत(तात्का)कालिकोदिता नाडी चा(वा)ग्रमतिहभवन (बाह्यग्रहभवन) समा ग्रहभवनमण्डलम्, तेन समा; सस्वरा सव्यञ्जना साधनीया शुभाशुभपरिज्ञानार्थमिति / इदानीं प्रश्नतः शुभाशुभफलमु(81a]च्यते प्रश्न इत्यादिनाप्रश्ने संग्रामकाले (प्रभ)वति च मरणं कालशून्योदिते च वायौ सूर्ये च भङ्गो व्रणमपि च भवेद्वह्निभौमोदये च / सन्धिस्तोये गुरौ स्यान्न हि भवति रणं भूमिमन्दोदये च मृत्यु(:)क्लेशा (शो)वणं स्यात् सुखमपि समता पृच्छकस्यातुरस्य।।१०५।। प्रश्ने सति संग्रामकाले प्रभवति मरणं कालशून्योदिते च संग्रामहेतोर्यस्यामन्त्रणं प्रथमं करोति, दक्षिणनाड्यां कालाग्निशून्यमण्डले उदिते सति स नृपो नरो वा, तस्य मरणं प्रकर्षेण भवतीति / एवं वायौ' वायुमण्डले सूर्ये उदिते भंगो भवति, वणमपि भौमवह्निमण्डलोदये सति, सन्धिस्तोये मण्डले गुरावुदिते भवति, भूमिमन्दोदये न हि 15 युद्धं संग्रामे भवतीति प्रश्ननियमः / एवमातुरस्य शून्यमण्डलादिके यथासंख्यं मृत्युः क्लेशो वणं सुखं समता स्यादिति पृच्छकस्य प्रश्ने सति आतुराणां भवतीति / संग्रामे शत्रुनाशः प्रभवति नियतो राहुशून्योदये च. वायौ चन्द्रे च भङ्गो व्रणमपि च रणे सौम्यवह्नयोदये च / शुक्र तोयेऽर्थलाभो रिपुरपि च वशी भूमिकेतूदये स्याद् एवं यात्राविवाहे भवति बहुफलं वाममार्गे ग्रहैश्च / / 106 // संग्रामे शत्रुनाशः, अत्र प्रथमोक्तस्य संग्रामे शत्रुनाशः प्रभवति नियतो वामनाड्यां राहुशून्यमन्डलोदये चेति / चकारः पादपूरणार्थः / वायौ वायुमण्डले चन्द्रोदिते भङ्गो भवति; वणमपि सौम्य वह नावुदिते सत्रोद्धृतप्रश्ने (शत्रोरुद्धृतप्रश्ने) / शुक्र तोयमण्डले उदिते अर्थ लाभो भवति। प्रथमोच्चारितस्य रिपुरपि च वशी''भूमिकेतूदये 25 स्यात् / संग्रामविषये, एवं यात्राविवाहे भवति बहुफलं वाममार्गे' 'ग्रहैश्च प्रश्ने कृते 3 सतीति 4 प्रश्नकाले नाशि(सि)कोदयनियमः / 1. घ. अन्यो। 2. भो. Phyi Rol Gyi gZh Yi gNas (बाह्यग्रहभवन०)। 3. ग. स्वराः / 4. घ. शोधनोया / 5. घ. वायौ न / 6-7. ग. पुस्तके नास्ति / 8. घ. शत्रोद्धृते मो (नो)च्चारितस्य प्रश्ने / 9. भो. Pho Nas Dris Pa Na dGrhi (शत्रोरुद्धृतप्रश्ने)। 10. ग. अलच्च / 11. ग. वसी। 12. ग. ०मार्गे। 13-14. ग. कृतिशतीति / Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले. स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः इदानीं स्वरप्रश्नमुच्यते दूतेनेत्यादिदूतेनोक्ताः स्वरा ये खलु दशगणिता राशिचक्रण मिश्रा भूयो भूताहतास्ते निकटजनयुताः सप्तभागावशेषाः / चन्द्रे वह्नौ शरेऽद्रौ विषमपदगते नास्ति सिद्धिनराणां नेत्रे वेदे रसे वै सुसमपदगते कार्यसिद्धिर्भवेत् सः (च्च) // 107 / / 5 दूतेनोक्ताः स्वरा ये खलु दशगुणिता वामदक्षिणमण्डलैर्गुणिता इति, राशिचक्रण द्वादशभिमिश्राः, भूयो भूताहताः पञ्चभिर्गुणितास्ते निकटजनयुता नैमित्तिकं विहाय निकटजनेन युता इति / सप्तभामावशेषा वारभोगावशेषा' इति, चन्द्र एकवारे स्थिते, वह्नौ तृतीये वारे, शरे पञ्चमे वारे, अडो (द्रौ) सप्तमवारे, अवशेष स्थिते सति नास्ति सिद्धिनराणामिति, आदित्ये मङ्गले बृहस्पतौ शनिश्चरे विषमे, नेत्रे द्वितीयवारे, वेदे 10 चतुर्थवारे, रसे षष्ठे, कार्यसिद्धिर्भवति, सुसमपदगते चन्द्रे बुधे शुक्रे चावशेषे स्थिते सतीति स्वरप्रश्ननियमः। इदानीं वर्षादी [81b]नां विशेषाद् विशेष उच्यते वर्षेत्यादिनावर्षा मासाश्च पक्षा दिननिशिसमया लग्नमध्ये प्रविष्टा लग्नकं पञ्चभेदैर्ग्रहगणसहितं सस्वरं तत्त्वभिन्नम् / 15 तत्त्वैकं. श्वासषष्टयभ्यधिकगुणशतं वर्तते कालनाड्यां नाड्य शाः षष्टिलिप्तास्तदवयव इति श्वासषटकं नरेन्द्र // 108 // .. वर्षाः षष्टि' संवत्सराः, मासा द्वादश, पक्षाश्चतुर्विंशतिः, दिननिशिसमया अहोरात्रम्, प्रहरा अष्टौ, द्वादशलग्नमध्ये प्रविष्टाः। तेषु शुभाशुभफलहेतोर्लग्नमध्ये T289 प्रविष्टा लग्नमध्ये स्तंगताः। एषां लग्नवारादपर बलं नास्तीति लग्नैकं पञ्चभेदै२. 20 ग्रहगणसहितं स्व (स) स्वरं तत्त्वभिन्न भवति पूर्वोक्तविधिना। तत्त्वैकं श्वासषष्भ्यम्य'४ धिकगुणशतं "त्रिशतं वर्तते कालनाड्यां मण्डलनाड्यामिति / नायंसाः१७ (ड्यशाः) षष्टिलिप्ता इति तदवयवो लिप्ताः; अवयव इति श्वासषट्कम् / नरेन्द्रेत्यामन्त्रण इति विशेषाद् विशेषः श्वासबलनियमः / 1. ग. पुस्तके नास्ति / 2. ग. पुस्तके नास्ति / 3. घ. पुस्तके 'वारे' इति नास्ति / 4-5. ग. विशेषतो; घ. विशेषाद् विशेष / 6. ग. पुस्तके नास्ति / 7. ग. ०चतुविशतिः / 8. ग. तेसु / 9. ग. हेतोलग्न० / 10. ग. लग्नफले / 11. ग. लग्नवारादपरं / 12. ग. भेदे० / 13. घ. सुस्वरं / 14. ग. षष्ठाधिक० ; घ. षष्ट्यधिक० / 15. ग. गुणसतं / 16. ग. वर्तते / 17. ग. घ. नाद्यसाः। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधातु - विमलप्रभायां इदानीं निःश्वासोच्छ्वासमध्ये' शुभाशुभफलमुच्यतेनिःश्वासोच्छ्वासमध्ये त्वशुभशुभफलं ज्ञायते योगयुक्तै र्दैवज्ञैः कालनाड्यां गतदिवसवशात् शोधयित्वार्कचन्द्रौ / न ज्ञाते वर्तमानेप्यशुभशुभफलं यो वदत्यत्र लोके सोऽन्धोप्यर्थं गृहीत्वा प्रविशति गहनं हस्तिसिंहप्रकोणम् // 109 // निःश्वासोच्छ्वासयोर्मध्ये यथासंख्यं अशुभशुभफलं३ निःश्वासे नाभिः (1) घ्राणे बहिनिर्गते प्रश्नकाले अशुभफलं भवतीति, उच्छ्वासे बाह्यतो नाभौ घ्राणे प्रविष्टे सति प्रश्नकाले शुभफलं भवति / तदेव ज्ञायते योगयुक्तर्नान्यैरिति; दैवजे ज्योतिषिभिः पुनः कालनाड्यां ज्ञायते / गतदिवसवशात् शोधयित्वार्कचन्द्रो' विषम10 समलग्नौ वामदक्षिणमण्डलनाडी बाह्य सा(शो)धयित्वेति / न ज्ञाते वर्तमाने एवं पूर्वोक्ते वर्तमानकाले 1 न ज्ञाते सति अशुभशुभफलं यो ववत्यत्रलोके; सोऽन्धोऽप्यर्थ गृहोत्वा प्रविशति गहन / वनं हस्तिसिंहप्रकोणमिति शुभाशुभफलाफलनियमः / इदानीं लग्नयोग उच्यते न ज्ञात इत्यादिन ज्ञाते सूक्ष्मयोगो(गे)ग्रहबलसहितो दीयते लग्नयोगः कालाग्निः सूर्यभौमो दिनकरतनयाद् दीयते सप्तराशौ / मृत्यु व्याधि व्रणं वै सकलधनविनाशश्च कुर्वन्ति तस्मिन् तस्मात् तद् वर्जनीयं स्फुट मम वचनैरन्यलग्नं प्रदेयम् // 110 / / न ज्ञाते सूक्ष्मयोगे पूर्वोक्ते निःश्वासोच्छ्वासयोगे न ज्ञाते सति सूक्ष्मयोगे'५ प्रहबलि(ल)सहितो दीयते लग्नयोगो लोकव्यवहारेणेति / उदयलग्ने उदयात् सप्तमे लग्ने 20 यदि कालाग्निर्भवति, तदा शुभकार्याथिनो मरणं भवति; यदि सूर्यो भवति, तदा व्याधिर्भवति; यदि भौमो भवति, तदा व्रणं भवति; यदि शनिश्चरो भवति, तदा धनविनाशो भवति / एवमुदयलग्ने जन्मल[82a]ग्ने सप्तमे च एतत् सर्वं तस्मिन् ग्रहाः कुर्वन्ति यस्मात्, तस्मात् तद् वर्जनीयं स्फुट “स(म)म वचनैरन्यलग्नं प्रदेयं मन्त्रिणेति / 1. ग. श्वासो० / 2. ग. निःश्वासश्वासयोर्मध्ये / 3. ग. अशुभाशुभफलं / 4. ग. भवति / 5. ग. दैवज्ञ]० / 6. ग. कालनाद्यां / 7. ग. ०त्वार्कचन्द्री। 8. ग. विसम०। 9. ग. ज्ञायते / 10. ग. वर्तमाणे। 11. ग. वर्तमान / 12. ग. शोऽन्धो०। 13. ग. गहणं / 14. ग. शुभाशुभफलादेशफलनियमः / 15. ग. शूक्ष्मयोगे / 16. ग. भोगो / 17. ग. वजनीयं / 18-19. ग. स्फुटमवचनैरन्य०; घ. स्फुटमवचने नान्यलग्नं / Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 133 राहुश्चन्द्रश्च सौम्यो गुरुभृगुसहितो जन्मसप्तस्थराशी शत्रो शः स्वपुष्टिविजय इति रणे द्रव्यलाभः सरागः / सम्यग्लग्नैश्च सर्वैर्यदि भवति पुनर्वामनाडी स्वदेहे नूनं सर्वार्थसिद्धिः सकलभुवि तले शुद्धवारे तिथौ च // 111 // अत्रोदयलग्ने' यदि राहुभवति सप्तमे च, तदा शत्रो शो' भवति; यदा 5 चन्द्रो भवति, तदा स्वपुष्टिर्भवति; यदा सौम्यो भवति, तदा विजय इति रणे; यदा भृगुर्भवति, तदा द्रव्यलाभः सरागो नार्या सहेति / सम्यक्(ग)लग्नैश्च सर्वैयदि भवति पुनः द्वादशलग्नः सौम्यग्रहसहितैः शुभं भवति / ___ यदि भवति पुनर्वामनाडी' स्वदेहे, नूनं सर्वार्थसिद्धिः सकलभुवि तले शुद्धवारे तिथौ च / अत्र शुद्धवार आदित्यो हस्तनक्षत्रेण, पुष्येण च गुरुः, बुधो 10 अनुराधया, शनिः रोहिण्या, सोमः श्रवणेन, मङ्गलोऽश्विन्या, शुक्रो रेवत्या सिद्धियोगा इति / अत्राशुभाः आदित्यो अनुराधया, सोमः कृत्तिकया, भौमः शतभिषया, बुधोऽश्विन्या, गरुमंगशीर्षया', भगः रोहिण्या, शनिहस्तेन-एते मृत्युयोगाः। दग्घतिथीवंजयित्वा' सर्ववारैः सर्वाः२ तिथयः शुद्धा विशिष्टभोगं विवर्य / अत्र दग्धतिथयःआदित्येन द्वादशी दग्धा, सोमेनैकादशी'दग्धा. दग्धा' मङ्गलेन दशमी, बुधेन तृतीया, 15 बृहस्पतिना षष्ठी, शुक्रेण द्वितीया, शनिश्चरेण सप्तमीति / एताः तिथयः शुभकार्ये वर्जनीयाः, अशुभकार्ये सर्वाः क्रूरा ग्रहतिथ्यादयो ग्राह्या इति। अत्र सर्वे योगाः प्रशस्ताः१५ व्यतीपातं परिघं वैधृति वर्जयित्वा / सौम्यकार्ये तथा विष्कम्भे विघटिका वर्जनीयाः / पञ्चशूले 16 च वर्जयेत्; षट् गण्डे च, अतिगण्डे च, नव व्याघाते वर्जे च(वर्जयेत्)इति योगाशुद्धिः। ' एवं शुद्धवारे तिथौ चेति लोकव्यवहारेण वारादिपरिशुद्धिः, परमार्थतः सत्त्वानां पूर्वकर्मोपार्जितं शुभाशुभफलं भवतीति तथागतनियमः / इदा[82b]नीं तारादिबलं लोकव्यवहारेणोच्यते'८ कृत्वा ऋक्ष(त्वृक्ष)मित्यादिकृत्वा ___ त्वृक्षं त्रिभागं नवनवनवकैर्जन्मनक्षत्रमादौ क्रूराश्चन्द्रेण सार्धं विषमपदगता मृत्युरेवातुराणाम् / अश्विन्याये स्त्रिनाड्यामहिरपि रचितो रेवती यावदेव पापेन्दु जन्मऋक्षं भवति यदि नृणामेकनाड्यां विनाशः // 112 // 1. ग. अतोदयः / 2. ग. शत्रोन शो। 3. ग. सरागो नानार्या / 4. ग. सव्वैर्यदि / 5. ग. पुस्तके नास्ति / 6. ग. पुनमिनाडी। 7. ग. सुशुद्धवारे / 8. ग. शनि / 9. ग. गुरुमृगशीर्षया / 10. ग. 0 र्वजयित्वा (सर्वत्र 'व्व' 'ज्ज' इति) / 11. ग. सर्व० (सर्वत्र 'ब्व' इति)। 12. ग. सर्वा / 13. ग. सौमेन / 14. घ. पुस्तके नास्ति / 15. ग. प्रसस्ता। 16. ग. पञ्चशूने / 17-18. ग. तारादिवर्णलोक० / 20 Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 विमलप्रभायां [लोकधातुकृत्वा त्वृक्ष' त्रिभागमिति एतत् सप्तविंशति नक्षत्राणि त्रिभागानि नवनवनवकैरिति तेषु नवके[९] प्रत्येकनवकेषु(नवके)४ जन्मनक्षत्रं रोगिणो योधस्य संग्रामे; आदौ प्रथमं नवनवकाद्' भवन्ति ; तत एकान्तरितं नक्षत्रं विषमपदम्; तस्मिन विषमपदे यदि करा आदित्यमङ्गलशनिना लगने (कालागन) यश्चन्द्रेण साद्ध भवन्ति, तदा मृत्युरेवातुराणां संग्रामे योधस्य वा / समपदे जय इति ताराबलनियमः / इदानी फणिचक्रमुच्यते अश्विन्येत्यादि अश्विन्यायैः सप्तविंशतिनक्षत्रैस्त्रिनाड्यामहिरपि रचितो रेवती नक्षत्रं यावदेव पापेन्दं, पापग्रहश्च इन्दुश्च पापेन्दं; रोगिणो योधस्य वा यज्जन्मनक्षत्रं यदि भवति नृणामेकनाड्याम्", तदा विनाशो मत्युर्भवतीति त्रिनाडीफणिचक्रनियमः। कृत्तिकादिनैकान्तरित''त्रिनाड्या तद्वदाद्रादि 'नाडि(त्रि)नक्षत्रान्तरिते"त्रिनाड्यां चन्द्र गते यः प्रथमं युद्धभूमिं विशति'", स विजयी भवति; नाडीबाह्येषु त्रिनक्षत्रे चन्द्रे स्थिते यः पश्चात् प्रविशति, स विजयी भवतीति तृतीयफणिचक्रनियमः / आयुर्दशाफलमुच्यते" षट् तिथ्ये त्यादिषट् तिथ्यष्टाद्रिचन्द्रां दशसनवदशाकविंशत् सुवर्षान् सूर्येन्द्वङ्गारो बुधोऽर्को गुरुभुजगशिता भुञ्जते तान् क्रमेण / तस्मिन्नन्तर्दशायां पुनरपि च ततश्चाष्टवर्गाक्षरैश्च करा कुर्वन्यशान्ति परमसुखकराः सौम्यरूपा ग्रहा , ये // 113 / / 20 अत्राष्टारचक्रं कृत्वा ततः पूर्वादिशान्तमष्टोत्तरशत् वर्षाणि९ आदित्यादिग्रहाणां भोगे स्थापयितव्यानि / षट् पूर्वारे२० तिथिरिति पञ्चदशाग्नेय्याम्, अष्टौ याम्ये, अद्रिचन्द्रामिति सप्तदश नैऋत्ये दश वारुणे, सनवदशेति२२ एकोनविंशतिर्वायव्ये२३, अर्क२४ इति द्वादश उत्तरे, एकविंशतिः२५ ईशाने२६ / सूर्यः षट् भुङ्क्ते२७, चन्द्रः पञ्चदश, अङ्गारो अष्टवर्षान् भुङ्क्ते, बुधः सप्तदश भुङ्क्ते, अर्को दश भुङ्क्ते, गुरुबृहस्पति “रेकोनविंशतिः भुङ्क्ते, भुजग इति राहुादश वर्षान् भुङ्क्ते, शितः शुक्र 1: ग. चक्षं / 2. ग. सप्ताविंशति / 3. ग. नवके / 4. ग. प्रत्येकनवकेषु / 5. ग. नवनवका / 6. ग. भवति / 7. ग तन्नक्षत्रं / 8. ग. तारावल / 9. ग. पापैन्दुं / 10. ग. ना / 11. ग. नाद्यां (सर्वत्र)। 12. ग. न्तरितुतिः / 13. ग. वडादि / 14. ग. नाडिडिनक्षत्रा० / 15. ग. विशति / 16. ग. वाहेषु / 17. ग. आयुई शा० / 18. ग. तिथो / 19. ग. पूर्वादिनान्तं अष्टोत्तर० / २०.ग. पूर्वारे (सर्वत्र 'व्व' इति) / 21. ग. अतिचन्द्रा० / 22. ग. सनवदशमिति / 23. ग. तिर्वायव्ये / 24. ग. अर्क। 25-26. ग. एकविंशतीशाने / 27. ग. भुक्ते (सर्वत्र) / 28. ग. गुरु बृह०। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 135 7290 पटले ] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः एकविंशतिवर्षान् भुङ्क्ते / एवमष्टोत्तरशतवर्षान्' यथासंख्यं सूर्यादयो' भु अ[83a]- ते तान् क्रमेणेति / पुनस्तस्मिनन्तर्दशायामिति अत्र किल स्थूलदशायां क्रूरा अशान्ति कुर्वन्ति, आदित्यमङ्गलशनिराहवश्चेति; सौम्याः शान्ति कुर्वन्ति, चन्द्रबुधबृहस्पतिशुक्रा इति / अत्र पुनरेकस्मिन् षड्वर्षादिके दशायां पुनरष्टविधा अन्तर्दशा भवति; 5 तस्मिन्नन्तर्दशायां पुनरपि च ततः अष्टवर्गाक्षरैरिति अत्र'' वर्गाक्षराणि द्विधाएकानि लोकरूढिपाठेन, अन्यानि स्वयम्भुपाठेन / तत्र लोकपाठेन अवर्गः अ इ उ ए ओ; [स्वयम्भुपाठेन]'' अइउ[],१२ ऋलग्३ इति'४ न्यायः। कवर्गः क ख ग घ ङ; एवं चवर्गः, टवर्गः, तवर्गः, पवर्गः, य-र-ल-वाः, सवर्गः श-ष-स-हा इति लोकपाठेन / हयवर[]'५; लण्; अमङणनम्, झभञ्; घढधष्"; जब गडदश्; खफछ'ठथच- 10 टतव(व); कपय; शषसर् ; [हल् ]2deg इत्याद्याकाशादिन्यायः / अत्रैवाकाशादिना२१ वर्गाक्षराणां परिशुद्धिर्नास्ति२२ सं(शं)करप्रपञ्चपाठादिति / अत्र पुनः अ इ उ ऋ ल इत्यादित्यस्य स्थूलदशायां षड्वर्षे 23 अन्तर्दशायामष्टविधो२४ भोगः२५ / एवं हयवर[]"लण् इति२७ चन्द्रस्य पञ्चदशवर्षे 8 अन्तर्दशायामपि, ङ घ ग ख क मङ्गल. स्याष्टवर्षे अन्तर्दशायामपि, ज झ ज छ च बुधस्य सप्तदशवर्षे अन्तर्दशायामपि, ण ढ ड 15 ठ ट शनिनो दशवर्षे अन्तर्दशायामपि, म भ बफ प गुरोरेकोनविंशतिवर्षे अन्तर्दशायामपिन ध द थ त शनिराहोर्दादशवर्षे अन्तर्दशायामपि, क श ष य स ह३० इति शुक्रस्यैकविंशतिवर्षेषु अन्तर्दशायामष्टविधो भोग इति / एवं वर्गस्वभावाः सूर्य-चन्द्राकाश-वायुतेज-उदक-पृथ्वी-ज्ञान-धातुस्वभावाः३१ अष्टौ वर्गा यथाक्रमेण पञ्चपञ्चाक्षरा मकाः, यत्र ए ओ अर आर अल आल, तत्र मूलप्रकृतिर्लाह्येति / एवमष्टवर्गाक्षरेषु पञ्चवर्षेष्वा- 20 दित्यादयः षड्वर्षादिषु मुहूर्तस्वरेण मण्डलव्यञ्जनेन भोक्तारः, पञ्चविभागतः षड्वर्षादिरन्तर्दशाया अष्टमभागेनेति दशाचक्रनियमः / प्रत्येकग्रहो भोक्ता प्रथमविभागे आयुर्दशा३२. [142b घ] धिपतिः, ततोऽन्ये सप्त यथानुक्रमेणेत्यायुर्दशानियमः / 1. ग. एतमष्टोत्तर० / 2. घ. सूर्यो। 3. घ. भुक्ते / 4.5. ग. ता क्रमे / ६.ग. पुन तस्मि० / 7. ग. 06 शा० (सर्वत्र 'इ' इति)। 8. ग. यत् वर्षादिके / 9. ग. वर्गा० सवत्र 'गर्ग' इति)। 10. ग. अष्ट / 11. ग. घ. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 12. ग. घ. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 13-14. ग. ०लगिति / 15. ग. घ. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 16. ग. ज०। 17. ग. ०ष / 18. ग. व / 19. ग. च / 20. ग. घ. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 21. घ. तत्रैवा० / 22. ग. नास्ति / 23. ग. षट / 24. ग. सप्तविधो। 25. ग. भागः। 26-27. ग. ०रलडिति / 28. ग. वर्षा / 29. ग. ङ्कः / 30. ग. पुस्तके नास्ति / 31. ज्ञानस्वभावा / 32. अतः परं 119 श्लोकस्य व्याख्याने विद्यमान 'योगिन्यो विष्टिरुद्राश्च' इत्यस्मात् पूर्व. ग. पुस्तकं त्रुटितम्; अतोऽयं त्रुटितांशः घ. पुस्तकादापूर्य दीयते / एवमुल्लिखिते त्रुटितांशभागे घ. पुस्तकस्यैव पृष्ठसंख्यायाः [ ] कोष्ठकेषु उल्लेखः क्रियते / . 188 Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [लोकधातु 10 इदानीं प्रतीत्यसमुत्पादमु(उ)च्यतेपुष्ये* मासे त्वविद्या मकरगतरवौ कुम्भसूर्ये च माघे संस्कारो मीनसूर्ये भवति नरपते फाल्गुने मेषसूर्ये / विज्ञानं नामरूपं वृषमिथुनगते चैत्रनैशाखज्येष्ठे नेत्राद्यं कर्कटेऽर्के भवति हरिरवौ स्पर्शनं वेदना च // 114 // आषाढे श्रावणे योषिदपि तुलगते माघ(भाद्र)मासेऽश्विने च तृष्णोपादानमेव प्रभवति च भवः कातिके वृश्चिके च। . जातिश्चापस्तु(स्थ)सूर्ये मरणमपि तथा मार्गशीर्षे क्रमेण एवं सूर्येन्दुभेदैरुभयगतिवशाद् द्वादशाङ्गानि राजन् // 115 // . पुष्ये माघेऽभिसन्धौ मकरगतरवौ तत्र वारे त्वविद्या तस्मान्मृत्यु द्वितीये भवति नरपते जातिरेवं तृतीये। एवं सर्न भवाद्यं क्रमगतिगुणितं द्वादशाङ्गानि यावत् तस्माद्वह्नयब्धिबाणं मरण(मकर)गतिवशात् षष्ठमासं (षडङ्ग) कदाचित् // 116 / / पक्षास्तिथ्याख्यवार रविचरणवशात् षोडशाङ्गैः कदाचित् संस्कारो माघसन्धौ कलशगतरवौ तत्र संस्कार एव / विज्ञानं तद्वितीये प्रभवति दिवसे नामरूपं तृतीये एवं मासद्वयानं भवति रविवशात् सृष्टिसंहारयोगात् // 117 // अत्राविद्यांशं विषममपि भवेच्छोभनं सर्वकार्ये संस्काराद्य समं यत् त्वशुभमपि यदा सेकयात्राविवाहे / एवं पक्षप्रभेदैः शशिगमनवशाद् द्वादशाङ्गानि यानि शुक्ले कृष्णे च पक्षे प्रथमतिथिवशात् सृष्टिसंहारयोगात् // 118 // 'आयुर्दशा' पश्चादागतांशः घ. पुस्तके [142b] पृष्ठे वर्तते, ततः परं त्रुटितांशं यावदत्र 'घ' पुस्तकस्यैव पृष्ठसंख्याया उल्लेखः / पुनः यतः ग. पुस्तकमारभ्यते ततः ग. पुस्तकस्यैव पृष्ठसंख्या कोष्ठकेषु उद्भियते / * अतः परं मूलं क, पुस्तकादेव दीयते / Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 137 ___ [143a]'पुष्येत्यादि / पुष्ये मासे तु पुष्यनिर्गमे माघप्रवेशदिने अविद्या / अत्र द्वादशारः [2] राशिचक्रं मकरादिकम् / तत्र थपरि [प्रथमे आरे] 2 मकर इति दिने गतरवौ कुम्भसूर्ये च माघे, चकारादत्रैव माघान्ते फाल्गुण(न) प्रवेशदिने संस्कारः, एवं फाल्गुणा(ना)न्ते मोनचैत्रादिदिने विज्ञानम्, तथा चैत्रान्ते वैशाखादिदिने मेषे नामरूपम्, एवं वैशाखान्ते ज्येष्ठादिवृषभे दिने षडायतनम्, तथा ज्येष्ठान्ते आषाढादिमिथुनसंक्रान्ति- 5 दिने स्पर्शः। एवमाषाढान्ते श्रावणादिकर्कट संक्रान्तिदिने वेदना। एवं श्रावणान्ते भाद्रपदादिसिंहसंक्रान्तिदिने तृष्णा, तथा भाद्रपदान्तेऽश्विन्यादिकन्यासंक्रान्तिदिने उपादानम्, एवमश्विन्यन्ते कात्तिकादितुलासंक्रान्तिदिने भवः, तथा कात्तिकान्ते मार्गशीर्षादिवृश्चिकसंक्रान्तिदिने जातिः, तथा मार्गशीर्षान्ते पुष्यादिधनुसंक्रान्तिदिने जरामर[143b]णमिति 10 द्वादशारेषु यथासंख्यं ज्ञेयानि द्वादशाङ्गानि / त्रिसूर्यभेदः चन्द्रभेदः सर्वत्र प्रसिद्धः, पुष्यप्रतिपदादिना / उभयगतिवशादिति संक्रान्तिवशात् पक्षतिथिवशादिति द्वादशाङ्गानि। पुष्ये माघेऽभिसन्धौ मकरगतरवौ तत्र वारे त्वविद्या तस्माद् दिना[द्] द्वितीये दिने जरामणम् तृतीय वारे जातिः, चतुर्थे भवः, पञ्चमे उपादानम्, षष्ठे तृष्णा, सप्तमे 15 वेदना, अष्टमे स्पर्शः, नवमे षडायतनम्, दशमे नामरूपम्, एकदशमे विज्ञानम्, द्वादशमे संस्कार इति / यथा तृतीये वारे तथा त्रयोदशमे जातिः, चतुर्दशमे भवः, पञ्चदशमे वारे उपादानम् / .. कदाचित् षोडशमे वारे तृष्णेति सूर्यगतिभेदेनाङ्गानि, क्वचित् संक्रान्तिपक्षे 20 षोडशवारो भवतीति दक्षिणनाड्यां मकरसमं लग्नवशादिति / एवं माधफाल्गुन्य[144a]भिसन्धो कुम्भगतरवौ तत्र वारे संस्कारः, द्वितीये विज्ञानम्, तृतीये नामरूपम्, चतुर्थे षडायतनम्, पञ्चमे स्पर्श; षष्ठे वेदना, सप्तमे तृष्णा, अष्टमे उपादानम्, नवमे भवः, दशमे जातिः, एकादशमे जरामरणम्, द्वादशमेऽविद्या इति वामनाडी कुम्भविषयलग्नवशेन सृष्टिक्रमेण / अत्र यथा तृतीये तथा त्रयोदशमे नामरूपम्, 25 पञ्चदशमे स्पर्शः, क्वचित् षोडशमे वेदनेति / एवं सूर्यचन्द्रवारः सर्वत्रसमविषमभेदेन ज्ञेय उभयपक्षे संक्रान्तौ वारभेदेनेति / 1. अतः परं 'घ' पस्तकात [ ] कोष्ठके पाण्डुलिपेः पष्ठसंख्या प्रदत्ता / 2. अत्र घ. पुस्तकं त्रुटितम्; अतः भोटानुसारं अत्र पाठः पूरितः / भोटानुवादे 'Dan pohi rTsibs La' (प्रथमे आरे) इति विद्यते / 3-4. अत्रापि घ. पुस्तकं त्रुटितम्, तत्र 'इ "सूर्ये' इति / अतः भोटानुवादाद् अत्र पाठः पूरितः ; तत्र *Chu Srin te der Nima Son pa Laho' इति अस्ति / 5. घ. कर्कट / 6-7. भो. Nima hi dBye ba (सर्यभेदो लभ्यते)। ८.भो. rGyu ba (वाहः)। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 138 विमलप्रभायां [लोकधातुअत्राविद्यांशं विषमं सर्वसौम्यकार्येषु शोभनं अविद्या, विज्ञानम्, षडायतनम्, वेदनोपादानजातिरिति विषमांशं संस्काराद्यं समं यत् सौम्यकार्येऽशुभं संस्कारो नामरूपस्पर्श-तृष्णा-भव-जरामरणमिति समं विषमं क्रूरकर्मणि प्रशस्यते / एवं शुक्लपक्षे पुष्ये मासे प्रतिपदि अविद्या द्वितीयाद्यां (यां) संस्कारः षष्टि5 (सृष्टि)'भेदेन कृष्णपदि[प्रति]पदि अविद्या, द्वितीयायां जरामरणमित्युपसंहारक्रमेण' (द्वाद) श[144b]ति[थि]षु द्वादशाङ्गानि यथा पुष्ये मासे शुक्लकृष्णपक्षभेदेनाविद्यात्य(द्य)ङ्गानि तथा माघे शुक्लकृष्णपक्षभेदेन संस्कारादीनि सृष्टिसंहारभेदेनावगन्तीति (न्तव्यानीति), एवं फाल्गुनादिके शुक्लकृष्णपक्षेषु विज्ञाने यानि (विज्ञानादीनि) प्रत्येकं द्वादशाङ्गानि भवन्ति / 10 अत्रैव यथा त्यै (लौ)किक व्यवहारो ज्योतिषज्ञानेऽभिज्ञारहितो ज्ञेय इति प्रतीत्यसमुत्पादनियमः, तेन विस्तरो नोक्त इति / इदानीं भूमिबलमुच्यतेसूर्यारौ केतुमन्दौ रिपुनिधनकरौ संस्थितः सव्यपृष्ठे वामेऽग्रे सौम्यरूपं ग्रहगणसकलं युद्धभूम्यां तथैव / ___15 योगिन्यो विष्टिरुद्राश्च पवनसहिताः सौख्यदाः सव्यपृष्ठे वामेऽने मृत्युरूपा समविषमगता द्वे बले घातयन्ति // 119 / / सूर्येत्यादि / अत्र भूमिवल (य) मष्टदिशात्मकं ज्ञात्वा राशिचक्रे ग्रहन (क्ष) त्रं त्र (चक्र) भूम्यामष्टदिशासु यत्र सूर्यारौ केतुमन्दौ रिपुनिधनकरौ, संस्थिताः सर्वे सव्ये दक्षिणपृष्ठे वा शत्रूणामभिमुखो वामतः स्थिता मरणं कुर्वन्तीति / वामेऽग्रे 20 सौम्यरूपं ग्रहगणसकलं युद्धभूम्यां तथैव रिपुनिधनकरं (:) चन्द्रो बुधः शुक्रो बृहस्पति रिति सौम्यरूपं ग्रहगणं शत्रूणां दक्षिणे पृष्ठतः स्थितं रिपुनिधनकर इति नियमः / एवं वक्ष (क्ष्य) माणे यो [145 a घ] [84 a ग] गिन्यो विष्टिद्धाश्च पवनसहिताः सौख्यदाः सव्यपृष्ठे रिपूणां वामेऽग्ने स्थिता निधनकरा भवन्तीति / समविषमगता अर्द्धक्रूरा रिपूणां सव्ये पृष्ठे अद्धंकरा न भवन्ति; अर्द्धसौम्या वामेऽग्रे भवन्ति, अर्द्ध25 सौम्या न भवन्ति; तदा द्वे बले' घातयन्ति,'° उभयवलानां मरणं भवतीति नियमः। 1. भो, SPro ba (सष्टि)। 2. अत्र घ. पुस्तकं त्रुटितम् ; त्रुटितांशो भोटानुवादात पूरितः / 3. भो. Tshes bCugNis Po rNams la (द्वादशतिथिषु)। 4. भो. rNam par Ses Pa La Sogs pa (विज्ञानादि) 5. भो. hJig pahi (लौकिक) / 6-7. भो. hKhor lo hKhor ba (चकं भ्राम्य०)। 8. अतः परं ग. पुस्तकं प्रारभ्यते / 9. ग. वल / 10. ग. पातयन्ति / Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः इदानी ब्रह्माण्यादियोगिनीबलमुच्यतेब्राह्मी रौद्री कुमारी खगपतिगमना शूकरी वज्रहस्ता चामुण्डा चैव लक्ष्मीर्भवति वसुतिथावादितिथ्यां नवम्याम् / शके यक्षेऽग्निकोणे दनुयमवरुणे मारुते चेशभूमौ कुर्वन्त्यत्रोदयं ताः पुनरपि तिथिषु द्वयष्टभेदैविभिन्नाः // 120 // 5 ब्राह्मोत्यादि / अत्र शक्लपक्षे कृष्णपक्षे वा प्रतिपदि ब्रह्माणी शक्रे, द्वितीयायां प(य)क्षे' रौद्री, तृतीयायामग्निकोणे कौमारी, चर्तुथ्यां नैऋत्यै वैष्णवी, पञ्चम्यां याम्यां वाराही, षष्ठ्यां वारुणे(ण्ये) ऐन्द्रो, सप्तम्यां वायव्यौ(व्ये) चामुण्डा, अष्टम्याम् ऐशान्ये महालक्ष्मीरिति; वसुतिथौ अष्टतिथौ, आदि प्रतिपदादौ नवम्यामिति / पुनर्नवम्यां ब्राह्मी शक, दशभ्यां रौद्रो प(य)क्षे, एकादश्यां कौमार्यग्नौ, द्वादश्यां वैष्णवी नैऋत्ये, 10 त्रयोदश्यां वाराही याम्ये, चतुर्दश्यां ऐन्द्री वारुण्ये, पञ्चदश्यां पूर्णिमायाममावस्यायाञ्च अर्द्धतिथौ चामुण्डा अर्द्धतिथौ महालक्ष्मीरिति न्यायः / एवमास्वष्टदिशासूदयं कुर्वन्ति, ताः योगिन्यः / पुनरपि प्रतिपदादि तिथिषु पूर्वार्द्ध अष्टभेदाः, अपरा? अष्टभेदाः, एवं द्वयष्टभेदेषूदयन्ति तासु तिथिसु ज्ञेयाः, तासां स्वस्वतिथौ प्रथमाष्टमांशो' भोगः तिथ्याधिपत्याः, पश्चात् यथोक्तक्रमेण सप्तभोगाः सप्तानामिति न्यायः / एवमपराद्धेऽपि तिथौ 15 ज्ञेयमिति योगिनीचक्रोदयनियमः / विष्टीनां शुक्लपक्षेऽप्युदय इह भवेत् . शक्रयाम्याब्धिकोणे कृष्णे पक्षे च भूयः शिखिदनुपवनः चेशकोणे क्रमेण / रुद्रः पूर्वापराद्धं व्रजति दिनवशादुत्तरे चोत्तरेऽर्के वारुण्यादग्निवर्ण (मन्तं) व्रजति सनियतं दक्षिणे दक्षिणेऽङ // 121 / / 20 इदानीं विष्टिबलमुच्यते विष्टोनां शुक्लपक्षे चतुर्थ्यामष्टम्यां एकादश्यां पूर्णमास्यामुदयो यथाक्रमेण शक्रे याम्य(ये) पश्चिमे उत्तरे' च / कृष्णपक्षे तृतीयायां सप्तम्यां दशम्यां चतुर्दश्यामुदयो यथाक्रमेण आग्नेय्यां नैऋत्य वायव्ये इ(ई)शे च इति विष्ट्युदयनियमः। आसां कार्य पूर्वोक्तमिति / इदानीं रुद्रबलमुच्यते रुद्रः पूर्वात् पूर्वदिशातो अपरार्ध वारुण्यां यावत् व्रजति दिनवशात् संक्रान्तिचारवशादिति / उत्तरे वामावर्तेन उत्तराक। उत्तरायणे स्थिते मकरे कुम्भार्दै पूर्वे 1. भो. gNod sByin (यक्षे)। 2. घ. प्रतिपदौ / 3. ग. ब्राह्मणी / 4. घ. स्यां वा / 5. ग. पुनरवै / 6. घ. प्रतिपदौ / 7. ग. ०मांसो / 8. ग. भोग / 9-10. ग. याम्यपश्चिमोत्तरे। 11. ग. उत्तरार्क (सर्वत्र 'क' इति): घ. उत्तरार्को। Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधातु 140. विमलप्रभायां कुम्भा॰ [84b] मीनार्के' ईशाने मेषे वृषभा॰३ उत्तरे, वृषभा॰ मिथुने वायव्ये / ततो वारुण्यादग्निमन्द(न्त)मिति दक्षिणायनस्थिते अर्के रुद्रो दक्षिणे व्रजति कर्कटे, सिंहाढे वारुण्ये, सिंहार्द्ध कन्यायां नैऋत्ये, तुलायां वृश्चिकाढे, याम्ये वृश्चिकाढे, धनुष्याग्नेय्यामिति रुद्रोदयनियम. इत्यादिमासरुद्रः पक्षरुद्रो दिनरुद्रः कालरुद्रः षट्प्रकारा निरय सरुद्रो दिनरुद्रः कालरुद्रः षट्प्रकारो निरर्थकस्तेन 5 नोक्त इति / इदानीमर्द्धप्राहारिक राहुबलमुच्यतेपूर्वादर्द्धप्रहरात् प्रविशति पवने दक्षिणे याति तद्वत् ईशे तोयेऽग्नियक्षे ब्रजति दनुपुरे मारुतेऽर्केऽस्तमेति / त्यक्त्वा श्रीमूलराहुं प्रभवति विजयी मारुतोऽप्यङ्कयुद्धे 10 संग्रामे मूलराहुर्घसति रिपुबलं तेन तुल्योऽस्ति नान्यः // 122 // अत्र सप्तवारेषु आदित्योदये पूर्वात् पूर्वदिग्भागतः, अद्धप्रहरादूर्ध्व प्रविशति पवने, ततोऽपरार्द्धप्रहरान्ते दक्षिणे याति, भूयोऽपरार्द्धप्रहरान्ते इ(ई)शें व्रजति, ततोऽपरप्रहरार्द्धान्ते वारुण्यां व्रजति, ततोऽपरप्रहरार्द्धान्ते आग्नेय्याम्, ततोऽपरप्रहरार्द्धान्ते यक्षे, ततोऽपरप्रहरार्द्धान्ते नैऋत्यां विशतीति नियमोऽष्टदिक्षु आदित्योदयादित्यास्तमनं 15 यावदिति / एवं रात्रौ ज्ञेयः / त्यक्त्वा श्रीमूलराहुं प्रभवति विजयो अयं मारुतोप्यङ्क युद्ध', द्वयोर्योधयोयुद्ध; संग्रामे पुनः मूलराहुर॑सति रिपुबलं तेन तुल्योऽस्ति' नान्यो' 4 राहुरस्ति'५, मासादिराहूणां मध्ये इति नियमः / इदानीमङ्कयुद्धे योधबलमुच्यते मात्राहीनस्तु योधः समविषमरणे हन्यते चाधिकेन 20 श्वासे नामद्वयोर्यत् प्रविशति हृदयं तस्य युद्धे जयः स्यात् / दूतेनोक्तादिनामा प्रभवति विजयी हन्यते पृष्ठनामा . आर्यवर्णैः स्वराद्यैः समविषमगतैर्निष्फलादेश एव // 123 // मात्राहीनस्तु योधः समरणेऽङ्कयुद्धे विषमरणे उभयबलसंग्रामे समविषमरणे हन्यते चाधिकेन, अधिकमात्राक्षरनाम्ना' इति / ह्रस्वमात्री दीर्घमात्रिणा हन्यते, दीर्घमात्री 25 प्लुतमात्रिणा हन्यते, न पुनरपरपरनिमित्तम् / श्वासे नामद्वयोर्यत् प्रविशति हृदयं तस्य युद्ध जयः स्यात् / यस्य श्वासे नाम निर्गच्छति बाह्ये स म्रियते / अपरप्रयोगः दूतेनोक्तादिनामा प्रभवति विजयी हन्यते पृष्ठनामेति नियमः। आयैरिति ध्वज-धूम-सिंह-श्वान-वृष-खरगज-ध्वांक्षा इत्यार्याः वर्णाः, श्याम-गौर-रक्त-कृष्णाः, तथा ब्रह्म-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्राः, स्वरा 1. घ. मीनके / 2-3. मेषवृषभार्धे / 4-5. ग. अद्ध रुद्र / 6. ग. इदानीमर्थद्ध; घ. प्राहारत् / 7. घ. प्रहरान्ते / 8. घ. नैऋत्ये / 9. ग. निसमो / 10. ग. अष्टदिषु / 11-12. ग. मारुतोऽप्यङ्कयुद्धोयेधम्मोयुद्धे। 13-14. घ. ०अस्ति नास्ति। 15. ग. राहुर्नास्ति / 16-17. घ. अक्षराणामेति / १८.ध. पुनरपरनिमित्तं / - Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः धैरक्षरपिण्डंद्विगुणं मात्रापिण्डं चतुर्गुणं सप्तभागावशेषं फलम् / एतैः स्वराद्यैरन्यैरपि प्रपञ्चेन स्वरेणोक्तः (ईश्वरेणोक्तः)' समविषमगतैनिष्फलादेश एव / [85a] कुतः ? पञ्चाभिज्ञाऽभावात्, सर्व लोकव्यवहारेण बालानां व्यामोहजनकवाक्यम्, स्वकर्मफलभोगरहितम् / ग्रहादिबलव्यपदेशेन ऋषिभिमिथ्या रचना कृता, ईश्वरधर्मस्थैः स्वरोदयरचना" कृता, इति ईश्वरेण भाषितमिति मृषावाक्येन लोकान् प्रतारयन्ति / एतत् प्रपञ्चं विस्तरेण 5 परमाक्षरज्ञानसिद्धी वक्तव्यमत्रतिष्ठत्विति / इदानीं मूलराहुबलमुच्यते काल इत्यादिकाल: सव्येऽव(प)सव्ये यदि भवति तमी युद्धभूमी नृपाणां संग्रामे देवनाथो हरिहरसहितो हन्यते मानुषैश्च / तस्मात् श्रीमूलराहुस्त्रिभुवनविजयी वक्ररुद्रासुरीणां 10 ज्ञातव्यो युद्धकाले क्षितिवलयगतो नान्यथा शत्रुनाशः // 124 // कृत्वा ऋक्षाणि भूमौ मुनियुगविहितानीन्द्रयक्षाब्धियाम्ये तच्चक्रं भ्राम्यमाणं दिवसगतिवशाद् वेदितव्यं समस्तम् / नक्षत्रे यत्र काल: प्रभवति च तमी दृष्टिपाते द्वयोश्च संग्रामे शत्रुसैन्यं निपतति सहसा गर्भमध्ये जयः स्यात् // 125 // 15 राही काले स्थितानां भवति समरणं तुल्यपातो बलानां दृष्टयंशे निर्गतानामुरगगतिवशात् सैन्यभङ्गो हि तत्र / दृष्टयंशं वर्जितानां प्रभवति विजयो गर्भवेशे द्वयोश्च एवं श्रीमूलराहुगुरुवचनगते ज्ञायते कालचक्रे // 126 / / अत्र* कृत्वा ऋक्षाणि भूमौ इत्यष्टाविंशद् ऋक्षाणि, सूर्यो यस्मिन्नक्षत्रे तत् नक्षत्रं 20 पूर्वसप्तनक्षत्राणां मध्ये सव्याव(प)सव्यं(ये) त्रीणि त्रीणि नक्षत्राणि मुनिरिति पूर्वे सप्त युगनिह(विहि)तानि, यथा पूर्वे सप्त तथा उत्तर पश्चिमे याम्ये, चक्र भ्राम्यमाणं 1. भो. dBai Phyug Gis (ईश्वरेण)। 2. ग. सर्व० (सर्वत्र 'व' इति) / 3. ग. भिम्मिथ्या। 4. ग. धर्मस्थैः (सर्वत्र 'म' इति)। 5. घ. वचना / 6. इदं तु पञ्चमपटले आगतम् / 7. घ. विहतानि; भो. bsGyur ba (विहितानि)। 8. ग. सर्वे / 9. भो. सप्त इति नास्ति / *. 124-126 संख्याकानां त्रयाणां श्लोकानामत्र टीकाक्रम एवमागतः-सर्वप्रथम १२५तमश्लोकस्य टीका प्रारब्धा; तत्र च आद्यात् 'प्रभवति च तमी' इत्यस्य व्याख्यानानन्तरं १२४तमश्लोकस्य द्विपादयोर्व्याख्यानमागतम्, ततः १२५तमश्लोकस्य शेषांशस्य व्याख्यानम् ; तदनन्तरं १२६तमश्लोकस्य व्याख्यानम्; एवमन्ते १२४तमश्लोकस्य अन्तिमद्विपादयोर्व्याख्यानम् / Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T292 142 विमलप्रभायां [लोकधातुदक्षिणावर्तेन, नक्षत्ररचना वामावर्तेन, अहोरात्रेणाष्टाविंशन्नक्षत्राणां प्रत्येकोद[य]भोगः / अत्र भ्रमणवशात् यत्र नक्षत्रे कालः पुच्छराहुर्भवति प्रभवति च तमी सव्ये काल:3 अव(प)सव्ये तमी मुखराहुः यदि भवति, युद्धभूमौ नृपाणाम्, तदा संग्रामे देवनायो हरिहरसहितो हन्यते' मानुषै दृष्टिपातेन / मुखपुच्छराहोः तयोर्द्वयोश्च संग्रामे शत्रसैन्यं 5 निपतति सहसा गर्भमध्ये जयः स्यादिति / अत्र यदि पूर्व मुखं पश्चिमे पुच्छस्तदा दक्षिणे दृष्टिरुत्तरे गर्भः, यदा चाग्नेय्यां मुखं तदा वायव्ये पुच्छो नैऋत्ये दृष्टिः, ईशे गर्भः, यदा दक्षिणे मुखं तदा उत्तरे पुच्छो वारुण्ये दृष्टिः पूर्वे गर्भः, यदा नैऋत्ये मुखं तदा ईशे पुच्छो वायव्ये दृष्टिराग्नेय्यां गर्भः, यदा वारुण्ये मुखं तथदा (तदा) पूर्वे पुच्छ उत्तरे दृष्टिदक्षिणे गर्भः, यदा वायव्ये मुखं तदा आग्नेय्यां पुच्छ ईशे दृष्टिः नैऋत्ये गर्भः, यदोत्तरे 10 मुखं तदा दक्षिणे पुच्छ: पूर्वे दृष्टिः पश्चिमे गर्भः, यदा ईशे मुखं तदा नैऋत्ये पुच्छः आग्नेय्यां दृष्टिर्वायव्ये गर्भ इति / एवं राहो काले स्थितानां मुखे स्थितानां पुच्छे स्थितानां[स]मरणं भव[85b]ति, तुल्यपातो बलानां भवति, दृष्टय शे निर्गतानाम् / अत्र दृष्टयंशे द्वादशनक्षत्राणां दृष्टी गतानां सव्ये वामतस्तृतीयो भागश्चत्वारि नक्षत्राणि राहोश्चत्वारि कालस्येति / 15 उरगगतिवशात् सैन्यभगो हि तत्र / दृष्ट्यं शं वजितानां गर्भे स्थितानां द्वादशनक्षत्राणां तृतीयो भागो गर्भ प्रदे(वे)शः,'' चत्वारि नक्षत्राणि सव्ये, चत्वारि" अव(प)सव्य'२ इति / अत्र दृष्टयंशे स्थितानां गर्भाङ्गे प्रविष्टा अभिमुखा भवन्ति, तैः सार्द्ध युद्धम्। एवं श्रीमूलराहुर्गुरुवचनगते'' ज्ञायते कालचक्रे। गुरुवचनं बुद्धवचनमिति / तस्मात् कारणात् श्रीमूलराहुस्त्रिभ वनविजयी चक्र(वक्र) इति ग्रहा रुद्राः, आसुरीति 20 षष्टि योगिन्य इति; तासां विजयी वक्र रुद्रासुरोणां मध्ये; ज्ञातव्यो युद्धकाले क्षितिवलयगतो नान्यथा [शत्र] नाशः / एवमुक्तक्रमेण राहुतिव्य इति नियमः। योगिन्यो विष्णु(ष्टि)रुद्रा ग्रहणसहिताः सम्व(स्व)रस्योदयञ्च त्यक्त्वा सर्वाणि तानि त्रिभुवनविजयी क्षत्रियैर्ग्राह्य एकः / . ग्रस्तौ येनेन्द्रसूर्यौ त्रिदशभयकरौ रौद्रमूर्त्यञ्जनाभौ भूमौ पूर्वापरं यो भ्रमति दिननिशं दक्षिणं चोत्तरं च / / 127 // अत्र योगिन्यादिकं सर्व बलं त्यक्त्वा क्षत्रियैरेकोऽयं राहुह्यो येनेन्दुसूर्यो५ प्रस्तौ त्रिदशानां भयङ्करौ रौद्रमूर्तिरञ्जनाभः, अहोरात्रेण भूमौ पूर्वापरं यो भ्रमति दक्षिणं चोत्तरञ्च दिग्विभागमष्टदिक्षु स एव ग्राह्य इति नियमः संग्रामकाले। 1. घ. प्रत्येकादयभोगः। 2-3. घ. सव्यकालः। 4-5. ग. हन्यतेम्मानुषै० / 6. ग. निपतिते / 7. ग. गर्भः (सर्वत्र 'भ' इति)। 8. ग. निर्गतार्ना / 9. ग. दृष्ट्यङ्ग। 10. भो. Sugs pa (प्रवेशः)। 11-12. ग. पुस्तके नास्ति / 13. घ. गतो। 14. ग. चक्र / 15. सूर्यो (सर्वत्र 'य्य' इति)। 16. ग. संग्रामवलः; भो, Tobs La (०बले) / Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 143 पटले]. स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः इदानीं दुष्टशत्रुदुर्ग'विध्वंसनाथ यन्त्राण्युच्यन्ते संग्राम इत्यादि - संग्रामे भग्नशत्रुः प्रविशति सहसा कोट्टमध्ये कदाचित् कृत्वा यन्त्राणि बाह्य ह्यनवरतशिलावह्निवाणप्रपातैः / खड्गाधुच्छेदयन्त्रैः क्षितितलनिलये पञ्जरैः शृङ्गभेदैस्तदुर्ग चूर्णयित्वा कतिपयदिवसैः साधनीयः स दुष्टः // 128 // / संग्रामे भग्नशत्रुः प्रविशति सहसा कोट्टमध्ये कदाचित्, तदा कृत्वा यन्त्राणि" बाह्ये, तैर्यन्त्रैर्मुक्तैरनवरतशिला[पातैर्व] हिवाणप्रपातेः खङ्गाधुच्छेदयन्त्रैः स्वगृहे रक्षा कृत्वा, क्षितितलनिलये वज्रपञ्जरैः शृङ्गभेदैश्च तद्दुर्ग चूर्णयित्वा कतिपयदिवसः साधनोयः स दुष्ट इति न्यायः। अत्र स्थलप्राकारकोट्टे पाषाणयन्त्र लक्षणमुच्यते चत्वार इत्यादिचत्वारो द्वयष्टहस्ताः समविषमपदैश्छिद्रिताष्टप्रदेशास्स्तम्भा भिन्नार्गलाभिर्जलधियुगयुगाभिश्च पृष्ठेकया च / मूले यन्त्रस्य मानं भवति दशकरं मूनि भागे तदर्द्ध यष्टिर्हस्तद्वयोना प्रभवति कणयो मूनि भागा दिशाश्च // 129 // चत्वारः स्तम्भा द्वयष्टहस्ता इति षोडश हस्ताश्चतुरस्राः विस्तारेण' षोडशा- 15 गुला उत्तमयन्त्रस्य , मध्यमस्य स्तम्भाश्चतुर्दश हस्ता विस्तारेण चतुर्दशाङ्गुलाः, अधमस्य स्तम्भा द्वादश हस्ता विस्तारेण द्वादशाङगलाः : ते च च्छिद्रिताः" अष्टप्रदेशः सम[86b]विषमपदैः; समः१२पूर्वापरकोटिः, विषम(:)सव्येतरकोटिः, तस्यामष्ट स्थानेष च्छिद्रिताः,४ च्छिद्रं विस्तार त्रिभागिकम् / ते च भिन्नार्गलाभिः 5 पूर्वे चतसृभिः, दक्षिणे च चतसृभिर्वामे च चतसृभिः, पृष्ठेऽधोभागे एकयेति पृष्ठस्तम्भयोः पञ्च च्छिद्राण्येव, पूर्व- 20 स्तम्भयोरष्ट इति ; यन्त्रस्य मानं मूले दशहस्तम्, उद्ध्वं पञ्चहस्तं यष्टिहस्तद्वयेनोनस्तम्भानामिति / कणयमानं 7 षट्हस्तं कणयस्य वामदक्षिणे“ गोपुच्छाकारः / वृत्तं सार्द्धद्विहस्तं मुनिमनुनियतं द्वयङ्गुलं छिद्रमे त्यक्त्वा हस्तं हि यष्टिः प्रविशति कणये कीलिता पृष्ठभागे। पञ्चाशद् रज्जुबद्धे शिरसि कटके मूनि मानद्धि वृत्ते यष्ट यन्ते साङ्गुलीकं प्रविशति वलयं वृत्तिमेका वितस्तिः // 130 // 1. ग. दुर्ग (सर्वत्र 'ग' इति)। 2. विध्वंशनार्थं / 3-4 ग. पुस्तके 'संग्राम इत्यादि' नास्ति / 5. ग. मन्त्राणि / 6. ग. पुस्तके नास्ति / 7. ग. प्रकर० / 8. ग. पाषानयतु / 9. घ. विस्तरेण / 10. ग. चतुर्दश / 11. ग. छिद्रिताः / 12. घ. समं। 13. घ. तस्याष्ट / 14. ग. छिद्रिताः; घ. छिद्रा। 15. ग. भिन्नार्गलाभिः (सर्वत्र 'गर्ग' इति)। 16. घ. द्वयेनोनास्तम्भोगमिति / 17. ग. माणं / 18. घ. दक्षिण, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 विमलप्रभायां [लोकधातु मध्ये वृत्तं सार्द्धद्विहस्तम् उभयपार्श्वेन' विंशत्यङ गुलम्, अग्रकलशयो स्त्रिशदङ गुलम्, मध्यवृत्तस्य मध्ये च्छिद्रं चतुर्दशाङ गुलं विस्तरेण सप्ताङ गुलम्, तस्मिन् कणयच्छिद्रे यष्टि हस्तमेकं त्यक्त्वा, त्रयोदश हस्तान् गोपुच्छाकारान् कृत्वा, यष्टिस्तस्मिन३ च्छिदेश प्रविशति. लोडकीलकेन पप्रभागेन कीलिता स्थिरीभवति / यष्टिशिरसि हस्तमाने (न)६ त्रिभागान्तरेण च्छिद्रद्वयम्, तयोः च्छिद्रयोः कटकद्वयं षष्टयङ गुलं वृत्तं विस्तरेण लोहदण्डवृत्तं षडङ गुल मेकैकपञ्चाशत् रज्जवो बद्धाः शिरसि च कटके इति। यष्टयन्ते वलयं द्वादशाङ गलवृत्तं यष्टयग्रे साङ गुलीकं . विशति, यष्ट्या सह कीलद्वयेन सजिह्व कीलितं जिह्वाग्रे ऽङ गुली ज्ञेया / षडङ्गुली जिह्वा वलयमाना यष्टिवलयान्तर्विष्टा भवति / यष्टयाङ्गल्या त्रिहस्तं भवति च नियतं क्षेपणं रज्जसाद्धं पाषाणं तस्य मध्ये प्रविशति बलवत्कण्टकैः कण्टयमाणम् / मुक्तं खे याति शीघ्र निपतति सहसाट्टालकादौ प्रतोल्यां. चूर्णीकृत्वा समस्तं व्रजति भुवि तलं वज्रपातो यथैव // 131 / / अत्र यष्टयगुल्या'१ त्रिहस्तं 2 क्षेपणं रज्जुसार्द्धम्१३; अत्र चर्म?. 15 क्षेपणश्चतुर्विशत्यङ्गुलं विस्तरेण, मध्ये द्वादशाङ्गुलं सव्याव(प)सव्येन गोपुच्छाकारम्, उभयपार्वे सूत्रमयं रज्जुद्वयं सार्द्धद्विहस्तादिकम्; पाषाणं तस्य क्षेपणस्य मध्ये प्रविशति बलवत्कण्टकै 5 रज्जुभिः कण्टयमाणम् ; मुक्तं खे' याति" शीघ्रम्, गत्वा निपतति सहसा अट्टालकादौ“प्राकारे प्रतोल्यां वा; चूर्ण कृत्वा समस्तं व्रजति भुवि तलं' पाषाणं वज्रपातो यथैवेति / तस्याङ्गल्यर्द्धचन्द्रा क्षितितलनिलये ब्रह्मरेखा द्विपावें द्वयष्टौ मोक्षप्रदेशा उभयकरतलान्मुष्टिबन्धाद् विमोक्षः / मोक्षे भूस्पर्शनं वै समविषमपर्यन्त्रगर्भे स्थितैश्च / स्वेच्छापाषाणपातस्त्रिविधगतिवशाद् दुर्गविध्वंसनार्थम् // 132 // तस्य यन्त्रस्याङ्गुल्यर्द्धचन्द्राकृतिः क्षितितलनिलये ब्रह्मरेखा अगुल्याधः२१. 25 (प्र) समा भव[86 b]ति / तस्या द्विपाश्वें अष्टौ मोक्षप्रदेशा वितस्त्येकैकान्तरेण 1. घ. पाशेन / 2. घ. अत्र कणययो। 3-4. ग. सा यष्टिस्तस्यच्छिद्रे / 5. ग. यशोष्टिशिरसि / 6. ग. हस्तमाणे / 7. ग. शतङ गुल / 8. ग. शान। 9. घ. विंशति / 10. ग. यष्टी। 11-12. ग. ०ङ गुल्यास्त्रिहस्तं; घ. ०ङ गुल्यान् त्रिहस्तं / 13. ग. रज्जुसोर्ध्वम् / 14. ग. चर्म (सर्वत्र 'म' इति)। 15. ग. वरत्रकट्ट के; घ. बलवत्क""। 16-17. ग. क्षयति / 18. ग. अदुलकादो। 19. घ. पुस्तकेऽयमंशोऽस्पष्टः / 20. ग. ०ङ गुलार्द्ध / 21. ग. अङ गुल्यधः; भो. mGo (अन) / 20 Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले]. स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः पाषाणस्य भवन्ति; उभयकरतलान्मुष्टिबन्धाद विमोक्षो भवति / मोक्षकाले पाषाणस्य भूस्पर्शनं भवति, सम'पदैः सव्यपादेयंन्त्रगर्भे प्रविष्टः, विषम पदैर्वामपदैः प्रविष्टैरिति / स्वेच्छापाषाणपातास्त्रिविधगतिवशात्, वामदक्षिणमध्यगतिवशाद्, दुर्गविध्वंसनार्थमिति स्थलदुर्गभेदनियमः। ऐभं यस्य प्रहारैनिपतति सहसा तस्य किं क्षुद्रजन्तुः कोट्टाट्टाले स्थितं यदि रिपुबलसकलं पातयेद् बाह्यसंस्थम् / का स्पर्द्धा तेन सार्द्ध क्षितितलनिलये धन्विनां दुर्गयुद्धे कः शत्रुस्तत्र दुर्गे विशति यममुखे यत्र यन्त्रप्रहाराः // 133 // ऐभं यस्य प्रहारैरित्यादिवृत्तं सुबोधमिति / इदानीं जलदुर्गग्रहणाय जलयन्त्रलक्षणमुच्यतेषट्पट्स्तम्भैर्भुजैः स्यादुभयपुटसमो हस्तयुग्मान्तराले गर्भेकैकोऽर्कहस्तोऽप्युभयपुटसमो नाधिको हीन एव / सर्व प्रत्येककोष्ठे पिहितमपि फलैश्चर्मभिः सिक्थवस्त्रगर्भे ऋत्वष्टदोषैस्त्रिगुणदिनकरैरेकमन्त्रं प्रकुर्यात् // 134 // षडित्यादि / अत्र जलयन्त्रार्थ षडङगुलात् काष्ठाच्चतुर्दशहस्ता विस्तारेण, हस्ति- 15 यन्त्रस्य चतुर्विशत्यङगुलाः, अश्वयन्त्रस्य विंशत्यङ्गुलाः, नरयन्त्रस्य षोडशाङ्गुलाः, षट्स्तम्भैादशहस्तान्तरान्तरस्थ(स्थि)तैरुभयपुटसमो नाधिको हीन एव; गर्भे एकैको द्वादशहस्तः, अधः पटे ऊर्ध्वपटे हस्तयग्मान्तराले द्विहस्तान्तराले षट्स्तम्भैः पुटद्वयेनैकैकगर्भा(8) भवतीति नियमः। सर्वं (सर्वत्र) प्रत्येककोष्ठे पिहितमहि(पि) फलैः (फलकैः) / अत्रोभयपार्वे भुजान् कारयित्वा, प्रत्येकफलके एकपाश्र्वे 20 कारयित्वा, अपरपावें अध ऊर्ध्वफलककोटीन् रक्षयित्वा, मध्ये अङ्गुलमेकं फलकात् फलकमध्ये प्रवेश्य नियन्त्रयेत्, यथा तोये प्रवेशो न भवति / एवमध उद्धा पूर्वापरे वामदक्षिणे सर्वत्र कार्यम् / उच्छयेण त्रिहस्तो गजानां गर्भः', अश्वानां सार्द्धद्विहस्तः, नराणां द्विहस्त इति चर्मभिः शि(सि)क्थवस्त्रैस्तेषु प्रत्येकफलके सन्धिप्रदेशेषु चर्मभिर्द्वतैः शि(सि)क्थवस्यैर्मनि मुद्रयेत्, यथा लहरिजलं न प्रविशति; गर्भमध्ये हस्तद्वयो- 25 च्छ्रितं ग्रीवास्थाने गर्भमध्ये प्रवेशाय कर्त्तव्यमिति। एभिर्ग:रधममध्यमोत्तमभेदैरनेकयन्त्राणि भवन्ति / ऋतुभिः षड्भिर्गर्भयन्त्रं भवति, अष्टभिर्वा दोषैरष्टादशभिर्वा ति(त्रि)गुणदिनकरैः . षट्त्रिशद्भिर्वा तद्विगुणैः तद्विगुणै [87a]र्वा गर्भयन्त्रं भवति, सहस्रगर्भपर्यन्तं महासमुद्रलङ्घनाय / 1. घ. पुस्तके नास्ति। 2. ग. यतुगर्भे / 3. ग. विसम / 4. ग. मिपदैः 5. भो. Kun la | 6. भो. sPan leb / 7. ग. गर्भः। * घ. पुस्तके १३४तमश्लोकव्याख्यायाम् 'एकको'पर्यन्तं पाठो लभ्यते; अनेच 135-136 श्लोकव्याख्यांशो लभ्यते / Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 . विमलप्रभायां [लोकधातु द्वौ द्वौ गर्भान्तराले स्खलितमपि भुजैमुद्रितं वा समन्तात् पृष्ठे षट्काण्डधारा उभयभुजसमा चाग्रतो यन्त्रवाहाः / कूपस्तम्भैनिबद्धश्चलदनिलपटैश्चालितं चानिलेन तत्रारूढं स्वसैन्यं व्रजति जलनिधौ तोयदुर्गक्षयार्थम् // 135 // अत्र बाह्ये चतुर्भुजासु प्रत्येकगर्भे पूर्वापरे भुजे पद(पुट) 'द्वये काये वामदक्षिणे [षण्णां मध्ये] आसु चतसृसु भुजासु स्तम्भकाष्ठेषु च्छिद्रभुजाच्छिद्रेभ्यो निर्गतेषु भुजाविस्तारत्रिभागिकेषु हस्तत्रयफलकेन उभयकोटिच्छिद्रितेषु न सर्वगर्भान् अन्योऽन्यं नियन्त्रयेत् गर्भकोणचतुष्टये। शेषप्रकाशस्थानेषु कीतिवालान् वाह्येदिति, ऊर्चे मुद्रितं वा पूर्वापरं समन्तात् कीतिवालप्रवाहस्थानानि वर्जयित्वा / सर्वयन्त्रस्य पृष्ठे 10 षट्काण्डधाराः; एवं द्वादश वि(त्रिंशतिः शतपर्यन्ताः, उभयभुजा समाश्चाग्रताः; तेषां काण्डधाराणां यन्त्रवाहाः सहस्रपर्यन्ता भवन्ति यन्त्रानुरूपत इति / अथ वा तान् अकुलं ज्ञात्वा कूपस्तम्भैनिबद्ध श्चलदनिलपटेर्वातपटैश्चालयन्तं वातेन तद् यन्त्रम्, तत्रारूढं स्वसैन्यं व्रजति जलनिधौ तोयदुर्गक्षयार्थम्, द्वीपान्तरग्रहणार्थमिति न्यायो दुष्टानां दमनार्थमिति जलयन्त्रलक्षणम् / इदानीं गिरिदुर्गक्षयार्थमग्नितैलमोक्षणाय वातयन्त्रमुच्यतेएके पीठेऽब्धिकोणे चलदनिलपटः सध्वजस्तम्भबन्धः पक्षे पृष्ठे मनुष्यैस्खलितमपि महौ रज्जुना मूनि गच्छत् / वातेनोधूयमानो व्रजति नभसि वै शैलदुर्गस्य मूनि , तस्मात् मुक्ताग्नितैलं दहति रिपुबलं सर्वदुर्गं समन्तात् // 136 // . एक इत्यादि / अत्र चतुर्हस्ते चतुरस्रे फलके पीठे मध्ये त्रिहस्तस्तम्भो विस्तारवृत्तेन द्वादशाङ्गुल: वामदक्षिणपृष्ठोऽग्रकोणेषु लोहकीलं सकटकम् ; तेषु कटकेषु रज्जुभिर्मनि स्तम्भं नियन्त्रयेत् / यन्त्रभागद्वयं उधिःपर्यन्तं दृढवस्त्रैराच्छादयेत् / अत्र कोणे ध्वजाः पञ्चहस्तमेकविस्तारः, अधोवामदक्षिणकोण*कटके रज्जुत्रयं हस्तद्वयं यावत्। तत्र एकं समाहारेण गिरिदुर्गादूर्ध्वमानतुल्यम्, तेन रज्जुना पृष्ठे मनुष्यैः 25 स्खलितं महौ रज्जुना मूनि गच्छता(त) तद् यन्त्रं वातेनोधूयमानं व्रजति नभसि वै शैलदुर्गक्षयार्थम् / तस्य मूनि तत्र यन्त्रेऽग्नितैलं पुरुषमेकं अग्निसहितं प्रवेशयेत्, तेन नरेण तस्माद् वातयन्त्रात् मुक्ताग्नितेलं दहति रिपुबलं सर्वदुर्ग समन्तादिति निश्चितं गिरिदुर्गभङ्गनि[87b]यमः / 1. भो. Nan (पट) / 2. अयमंशो भोटानवादे नास्ति / 3. ग. निर्गतेषु / 4. ग. वामदक्षिणे पष्ठोऽग्रे कोणे / 5-6 घ. 'स' अनन्तरं 'कटकं तेष' इति नास्ति / 7. ग. मानुष्यैः / *. 'अधोवामदक्षिणकोण' पर्यन्तमेव घ. पुस्तकं लभ्यते: अतः परं नास्ति / Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . 147 स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः चक्रं मूलेरघट्ट प्रभवति कणये चाग्रतश्चक्रमन्यत् द्विद्वयङ्गुल्यन्तराले पुनरपि रचितं मण्डलाये समन्तात् / चक्र सार्धद्विहस्तं भवति च कणयश्चोर्ध्व तोऽन्यस्सयष्टि: यष्टयने तीक्ष्णखड्गं भ्रमति लघुतया भ्रामिते यन्त्रमूले // 137 // कतूरी (कर्तरी')यन्त्रं प्रत्यक्षदर्शनेनावगन्तव्यम्, वृत्तेनापि स्फुटमुक्तमिति / रज्जुक्या वातयन्त्रं व्रजति हि गगने स्वप्रदेशात् क्रमेण दुर्गोर्वे शत्रुदूतस्ततिगतिनियतां रज्जुकी मानयित्वा / भूमौ मानं तथा वै कथितमपि भवेत् शृङ्गभेदे रिपूणां शृङ्गं दग्ध्वा समन्ताद् रिपुभवनतले मण्डलेऽग्नि प्रदद्यात् // 138 // एवं शृङ्गभेदोऽपि वातयन्त्रमपि प्रकटितं स्फुटं वृत्तेनापि अत्र टीका(या) विवक्षा 10 नास्तीति / चक्राणां मूनि भागे रचितमपि महामन्दिरं लौहकाष्ठेवृत्ताकारं समन्तात् पिहितमपि फलश्चर्मभिर्माहिषैर्वा / मानुष्यैश्चाल्यमानं व्रजति सममहौ खानिकां यावदेतत् तत् खानि पूरयित्वा प्रविशति सहसा कोट्टभित्तौ प्रतोल्याम् // 139 // 15 तथा वज्रपञ्जरेऽपि विवक्षा नास्तीति / . इदानी संग्रामे सगुड [सकवच] गजभेदाय नाराचयन्त्रमुच्यतेपीठे कीलद्वये वै सगुणमपि धनुनिश्चल यन्त्रयित्वा पृष्ठे द्वौ लौहकीलौ सुरचितकणयेऽप्यङ्गुलोकार्धचक्राः / अगुल्यग्रे गुणेन प्रचुरसमशरा तीक्ष्णनाराचकानां मुक्ताः संग्रामकाले सगुडगजतनुर्भेदयित्वा प्रयान्ति // 140 / / 20 षडङ्गुलं दीर्घतो नाराचया(मा)नं सिंहं कृत्वा तस्याध उर्ध्व सव्यवामभागे चतुरस्रषडङ्गुललौहदण्डारी(ग्रे) मुद्रितच्छिद्रे लौहकोलकैः द्विसन्धौ मध्यमायां सगुणमपि धनुनिश्चलं यन्त्रयित्वा, पुनस्तस्य पृष्ठभागे सव्येतरे चतुरस्रौ द्वौ लौहकीलको लौहदण्डाने कीलच्छिद्रे कणयानद्वयं प्रवेशयेत्, कणयमध्येऽङ गुलिकाः षट्-पञ्च-चतुः-त्रिः- 25 द्वे वा। अधो लौहैकदण्डिका कनिष्ठाङ गुलिप्रमाणा दीर्घेण व्यङ गुला अधः कीलकटके 1. भो.Gri Gug (कर्तरी)। 2. भो. GoCha Dan bCas pa (सकवच)। 3. भो. Va | 4. भी. Phur parNam Kyis (लोहकीलः)। 5. ग. अधो है। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 148 विमलप्रभायां लोकधातुसचले प्रवेशयेत् / उद्धे गुणान् अङ गुल्यग्रे नियन्त्रयेत् / तत्रामुल्यने प्रत्येकसन्धौ नाराचगुणाः, तेन प्रचुरगुणसमशरा बाह्यनाराचतीक्ष्णमुक्ताः संग्रामकाले सगुडगजतनुं भेद(तनु दायित्वा प्रयान्तीति नाराचयन्त्रनियमः। इदानीं राजमन्दिररक्षणाय पातालखड्गयन्त्रमुच्यते द्वौ स्तम्भावितिद्वौ स्तम्भौ भूमिगर्भे दृढमपि निहितौ रज्जुभिर्वेष्टयमानौ रज्ज्वोर्मध्येऽसिमुष्टिविंशति सवलयावतितानेकवर्ते / / तन्मध्ये खड्गमुष्टिः प्रभवति नियता चालिता कीलिता च मुद्रावर्तेन सार्धं पिहितमसिवरं स्तम्भितं चाग्रभागे // 141 / / अत्र द्वौ स्तम्भौ चतुरस्रौ द्वादशङ गुलमानौ, विस्तरेण चतुर्हस्तौ हस्तद्वयं 10 खानिकाऽधोभूमिनिहितो, हस्तद्वयं खानिकामध्योच्छितो (मध्ये स्थितो') स्थानादूर्ध्वं सार्द्धहस्तान् त्यक्त्वा अधो-वाम-दक्षिण-स्तम्भच्छिद्रे अर्गलान् प्रवेशयेत्, ऊर्वे षडङ गुलं त्यक्त्वा रज्जुभिर्वेष्टयेत् चलनार्थं वलयस्य / तयो रज्ज्वोर्मध्ये अशि(सि)मुष्टिः वलयमध्ये प्रविष्टा। प्रथमं वलयमनेकावतैत्तितं वलयमध्ये असिमुष्टिः प्रविष्टा / कोलिताचार्य(प्र)भागे, तथा चाग्रतः स्तम्भद्वये विलोमेनात्तिता खड्गाग्रगत15 मुद्रयाग्रभागे स्तम्भितम्, खड्गानमुद्राग्रे रज्जुना स्तम्भितः खड्गमुष्ट्यग्रकणयभागे षडङ गुलमानं कणयम् / तस्योर्वे छिद्ररेखा भवति च फलके निर्गमश्चालितस्य खड्गोज़ देय एकस्त्वयसकृतलघुश्चन्द्रमा मध्यभागे।' पादो यस्येन्दुमूनि प्रपतति सहसा च्छिद्यते सोऽसिना च कोट्टे द्वारावसाने नरपतिभवने यन्त्रमेव प्रहारि // 142 // ततः खानिफलकैरूद[88a]वं चाद्वयेत्(वर्जयेत्) खड्गनिर्गमं येन चालितस्य भवति अयसलघकृतम। चन्द्रमेति गह्यभाषा मध्येति प्रपञ्चः। अत्र खड्गमष्ट्यग्रे वलयोपरिफलकं देयम्; तस्मिन् फलके यस्य पादः पतति च्छिद्यते सोऽसिनेति स्वरूपं ज्ञातव्यम् ; खड्गयन्त्रनियम इति खड्गयन्त्रलक्षणम् / एवमनेकयन्त्राणि कोट्ट25 द्वार विनाशे (द्वारावसाने) संग्रामकाले नरपतिभवने सदा मूलद्वारं मागं वर्जयित्वा यन्त्रमेव प्रहारोति पातालखड्गयन्त्रनियमः / इदानी क्षत्रयुद्धे स्यन्दनलक्षणमुच्यतेअक्षोर्ध्वं मूलपीठं भवति रविभुजैश्चक्रमानं नवांश कोणे स्तम्भार्गलाभिविषमसमरथो सार्द्धमानेन पीठात् / 1. भो. Nan du gNas pa Dag (मध्ये स्थितौ)। 2. ग. निर्गमे / / 3. ग. गुह्या भावा। ४.ग. पादं / स T 294 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः भागार्द्ध योधभूमिर्विषमसमधुरा वाजिनां वा गजानाम् तस्माच्चिहार्द्धभूमावुपरि विरचितादर्शहारा ध्वजाद्याः // 143 // अक्षोद्ध्वं इ(मि)त्यादि / अत्र रथार्थं प्रथममक्षो दृढं कार्यम्, अश्वानां रथस्य चक्रमानं सार्द्ध हस्तद्वयम् अक्षश्चतुरङ्गुलचिकित्(गुणः कश्चित्) साधिकः, तेनैव मानेन चतुरस्र वृत्तम्; ततोऽक्ष ऊर्ध्वं पीठम्, अक्ष(ष्ट३)दिक्षु मध्ये चक्रमानं 5 नवांशं नवकोष्ठात्मकमिति; तदेव रविभु दिशभुजैः षडङ्गुलविस्तारैः षड्भिः पूर्वापरैः, षड्भिर्दक्षिणोत्तरैः पोठं भवति / अक्षश्चतुर्दशाश्गुलविस्तारः; स त्रिभागं कृत्वा, मध्यभागं परित्यज्य द्वयोर्द्वयोः (रुद्धयोः) स्थाने च्छिद्रयेत्; तयोः च्छिद्रयोश्चक्रारं प्रवेश्याक्षेण सार्द्ध कीलयेत्; चक्रनेस्यां (म्यां) लौहकरणयं (कणयं)६ निश्चलमाधारच्छिद्रवलये प्रविष्टं सचक्रं भवति (भ्रमति")। ततस्तस्य पीठस्य चतुःकोणेषु चतुःस्तम्भाः 10 पीठभुजविस्तारा दीर्घत्वेन द्विगुणाः। ते चार्गलाभिश्चतुर्दिक्षुभिन्ना अध ऊर्ध्वभिन्ना समरयः, समाश्वेश्चालितः; विषमरथो विषमाश्वेश्चालितः, द्वी-चतुः-षट्-समाश्वाः, त्रि-पञ्च-सप्त-विषमाश्वा इति विषमरथः साद्ध मानेन पीठादिति ऊर्ध्वभागा[] योधमूमिरिति ऊा स्तम्भानां भागमेकं पीठप्रमाणं त्यक्त्वा, अर्द्धभागे पीठोपरि योधभूमिः, पीठाधमाना भवति, विषमसमधुरा वाजिनां वै (वा) वाज्यु(गजानामु)- 15 च्छयेण भवति, विस्तारेऽष्टाङ्गला, दीर्घत्वेन पोठाद् द्विगुणा, अर्गलाभिः सार्धं कीलिता; ततः पीठभागाध ऊर्ध्वं चिह्नायभू भिर्भवति / चतुर्भिरङ्गुलो[88b]परि, तस्यां भूम्यां विरचिता आदर्शहारा ध्वजाद्याः। आदिशब्देन चामरवितानघण्टादय इति योधभूमिचिह्न भूम्योर्मध्ये चतुर्दिक्षु प्रकाशो युद्धार्थमिति / सार्द्धकद्वित्रि(वि)भागाः शशिकरशिखिनो मूलपीठार्गलानां 20 वृत्ता साकभागैः(गे) कमलरथमही नन्दिभेदैः समा स्यात् / साधारं चक्रमानं तुरगगजवशात् साद्धहस्तं द्विधा च. देवानां पद्मजातिः सुरसुतविहितो नन्दिजातिर्नराणाम् / / 144 // एवं द्वौ द्वौ (सार्द्धकद्वि) विभागा इति मूलपीठस्याध एको विभागो योधभूम्याम्, अर्द्धविरा(भा)गः प्रकाशे चिह्नावेतौ द्वौ विभागाविति / शशिकरशिखिन इति स्तम्भा- 25 र्गलानां मूलपीठोपरि चतुरङ गुलानाम् एको विभागो धुरास्थाने; तस्मात् स्तम्भानां द्वौ विभागौ चतुरङ गुलानां योधा युद्धस्थाने; तत्स्थानां (ततः स्तम्भानां') त्रिभागा उपरि चतुरङगुलानाम्, तदुपरि चिह्नभूमिर्ध्वजादीनामिति / वृत्ता साधैंकभागैः (गे) पीठा 1-2. भो. bSi hGyur Cun Zad Chag pa Dan bCas pa (चतुर्गुणः कश्चित् साधिकः) / 3. भो brGyad (अष्ट)। 4. ग. ईशा / 5. भो. rTse mo (ऊर्ध्व)। 6. भो. Khul Sin (कणयं) / 7. भो. hKhor Baho (भ्रमति) / 8. भो. gLan porNams Kyi (गजानाम)। 9. भो. Ka Ba rNams Kyi (स्तम्भानां)। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 150 विमलप्रभायां [लोकधातुउ(दुोपरि पूर्वोक्ताः सार्धभागे भूमिवृत्ताः, कमलरथस्य भवति; नन्दिभेदैरिति नन्दिरथभेदे चतुरस्रा मही भवति / एवमुक्तक्रमेण साधारं चक्रमानं तुरगरथस्य सार्धहस्तं भवति; तुरगरथस्य मानात् द्विधामानं गजरथस्य भवति, चक्रपीठार्गलचिह्नादीनामिति नियमः / अत्र देवानां पद्मजातिवृत्तरथो भवति / सुरसुतविहित इति 5 अर्जुनस्य वितानं नन्दिजातिश्चतुरस्रः, नराणामन्यथापि' चतुरस्रो रथो विहितः क्षत्रियाणामिति / अष्टाम्भोध्यक्षचक्रस्त्रिविध इह महास्यन्दनोऽर्धः समश्च दिव्योऽर्कस्यैकचक्रो विषमहयरथश्चासुराणां विनाशः / युद्ध ऽवेवत्तिकः स्याद् विषमसममहास्यन्दनः क्षत्रियाणां भग्नो सम्मुखो वे समविषमरणे पृष्ठभङ्गी समः स्यात् // 145 // अष्टाम्भोध्यक्षचस्त्रिविध इह महास्यन्दनोऽर्थः समश्चेति / इहश्च(च)तुरक्षरष्टचक्रमहारथो अवैवर्ती संग्रामे भवति; अध ऊर्दू अक्षाभ्यां चतुश्चक्रः अर्द्धरथो भवतीति / *[तस्मात् अष्ट इति चक्रम्; अम्भोधिरिति चतुर्रक्षाः; एवं त्रिविध इति . .. चतुश्चक्रम्, तथा द्वि, तथा अक्षाः। स्यन्दनस्यन्दनाधसमः तुल्यः। दिव्योऽर्करथैक- . 15 चक्र इति एकेन चक्रेण दिव्यरथो भवति, तथा अर्के भवति / विषम इत्यादि सुगमः / ] ** अक्षेनैकेन चक्राभ्यां समरथो युगपृष्ठभङ्गो भवतीति रथलक्षणनियमः। इदानीं देवानां विमाने वा नृपाणां यात्राचलगृहलक्षणमुच्यतेषट्पञ्चाब्यग्निभागैः प्रभवति च समा च्छिद्रिता स्तम्भकोटिमूलादूर्ध्वाद्ध भागो भवति पुरवशाच्चामराणां विमाने / एवं भूमौ नृपाणां त्रिविधपुरवशाद् देशयात्रोत्सवेषु हस्ताद्ध स्थान्तरेण प्रभवति हि महाभ्रामरी सर्वदिक्षु // 146 / / 1. भो. gSan rNams Kyi Yan (अन्येषामपि)। *. नन्दिभेदे कमलरथस्य चतुरस्रा मही भवतीत्यन्वयः सुकरः / *-**. अत्र ग. पुस्तके अयं व्याख्यांशो नास्ति, अस्ति च भोटानुवादे / अतः ततः संस्कृते अनुद्य अत्र प्रस्तूयते; भोटांशोऽविकलरूपेण अधः समुपन्यस्यते "Dehi Pyir brGyad Ces pa ni hKhor Loho. Chu gTer Ses pa ni Srog Sin bSiho. De ITar rNam gSum Ses pa ste hKhor Lo bSi Dan De bSin du gis so. De bSin du Srog Sin No. Sin rTa ni Sin rTahi Phyed Dan mNam pa ste mTsuns paho. Ni mahi Sin rTa mChog ni hKhor Lo gCig pa Ses pa ni hKhor lo gCig Gis Lha rNam Kyi Sin rTar Gyur Te De bgin du Ni ma La hGyur ro. Mi mNam Ses pa La Sogs pa ni Go sLa ho." Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः 151 - षडित्यादि / अत्र विशद्धस्ताः चत्वारस्तम्भा विंशत्यगुलविस्ताराः ; एषां चतुः कोटिच्छिद्रिताः समा भवन्ति-एका च्छिद्रकोटिः षट्हस्तविभागे, द्वितीया पञ्चहस्तविभागे; तत्र तृतीया चतुर्हस्तविभागे भवति, [चतुर्थी' त्रिहस्तविभागे२], अब ऊर्वे हस्तैकैकं वर्जयित्वा च्छिद्रकोटिरभिमुखा भवति / मूल[89a]भासे(गे) भूम्यां त्रयोदशहस्तो भवति मूल भासा(गा)दूधै अर्धभागो भूम्यां सप्तार्द्धहस्तो भवति; प्रत्येक- 5 पुरवशात् पुरभूम्यां भवति, चतुश्च(तु)रा गेलोपरि भूमिर्भवति गणविमाने / एवं भूमौ नपाणां त्रिविधपुरवशाद देशयात्रोच्छ(त्स)वेषु प्रथमपुरे स्तम्भबाह्यच्छिद्रे बाह्यनिर्गतार्गलोपरि फलंकैः सर्वत्र भ्रामरो त्रीणि हस्ता भ्रामरी द्वितीयपुरे एकहस्ताद(ध)भ्रामरी सर्वविभि(क्वि)ति देवविमानप्रस्थानगृहलक्षणनिगमः / इदानीं च(व)सन्तोत्सवाय चक्रदोलालक्षणमुच्यतेचक्रोइँ स्तम्भमूनि त्रिविधपुरवशाद् दोलकाः सर्वदिक्षु द्वयष्टावष्टौ ततोऽर्द्धा दिगृतुयुगभुजाधार एष त्रिभूमौ / ऊर्तेऽधो भ्राम्यमाने भुजधृतकणये योषितामासनानि अन्तर्बाह्य निविष्टान्यध उपरिगतान्यष्टदिक्चालितानि // 147 // चक्रोर्ध्व इत्यादि / अत्र पूर्वो(वीरथ-च(व)दष्टचक्राणि मूलपीठञ्च, तदुपरि 15 हस्तिरथस्तम्भायात्मन(यामेन)श्चत्वारः स्तम्भाः, विमानच (वत्) त्रिविषपुरात्मका दोला भवन्ति, चतुश्चतुर्गलोपरि द्वघष्टावष्टौ, ततो द्वाविंशति (अर्ध इति) प्रथमपुरे .. चतुर्दिक्षु षोडश द(दो)लका भवन्ति, द्वितीये अष्टौ, तृतीये चत्वारः। दिक्दशभुजैरर्गलो परि स्थितैः सव्याव(प)सव्यैः पूर्वापरस्थैः दोलका प्रथमपुरे; द्वितीये ऋतुभिः षड्भिः भवति, तृतीये चतुभिरिति दोलकानां भुजा आरा (आधारा)स्त्रिभूम्यामिति 20 द्वयोयोभुजयोरेकैककणयो च्छिद्राधारे प्रविष्टा / एकैककणये चतुश्चतुरासनानि योषितां भवन्ति, अन्तर्बाह्य निविष्टानि अध उपरिगतान्यष्टदिक्चालितानीति चक्रदोलालक्षणनियमः। . इदानीं वाटिकादिसिञ्चना) जलयन्त्रलक्षणमुच्यते ऊर्ध्व इत्यादिऊर्ध्वाधो वक्रमानं भवति च नलिकाकारयन्त्रं समन्तात् 25 नालाग्ने कुम्भमुखं शु(सु)षिरमपि यदा नाडिरन्ध्रप्रमाणम् / तोयाकृष्टि करोति स्खलितमपि जलं मोक्षितं कुम्भरन्ध्रा उद्याने वाटिकायां व्रजति सममही नीयते यत्र तत्र // 148 // 1-2. अयमंशो ग. पुस्तके नास्ति; भोटानुवादादत्र उद्धृतः; तत्र तु एवमागतम्"bsi pa Ni Khru gSum Gyi Cha la hGyur ro (चतुर्थी त्रिहस्तविभागे) / 3. भोटानुसारं चतुश्चतुरिति द्विवारम्-bSi bSi | 4. ग. विमाणे / 5. भो. Phyed de Ses pa ni (अर्ध इति) / Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T 295 152 विमलप्रभायां [लोकधातुऊर्श्वेऽधो वामदक्षिणे यन्त्रं च(व)क्रनालाकारौ(र), मध्ये सच्छिद्रं मध्यं चतुर्हस्तं वा मूलयन्त्रम्, तस्य नालाग्रे कुम्भमुखं ग्रीवा नालाग्रे प्रवेश(श्य)माना अधः कुम्भे च्छिद्रं नालिरन्ध्रप्रमाणं यन्त्रपृष्ठनालाग्रे अपरनलिका जलमध्ये प्रविष्टा कर्तव्या; ततः कुम्भच्छिद्रं जलगति(त)नालिकाच्छिद्रम् अग्रतो वा नालिकाच्छिद्रं मुद्रयेत्; ततो मूल, यन्त्रच्छिद्रेण जलं प्रवेशयेत् यावज्जलपूर्ण यन्त्रं भवति / ततो [89b] जलमध्यबिन्दुं (च्छिद्र) कम्भच्छिद्रं वा नालिकाच्छिदं योगपद्येन कम्भं तोयाष्टिं शरतः स्तः) करोति, तदेव जलमुद्याने वाटिकायां व्रजति समभूम्यां नोयते यत्र तत्र व्रजतीति जलशे(षे)कयन्त्रलक्षणनियमः / इदानीं मञ्जश्रियः सूर्यरथनियमामन्त्रन(ण)मुच्यते दुष्टानामितिदुष्टानां साधनार्थं प्रवरभुवि तले धार्मिकानां जया) पूर्वोक्तं चादिबुद्धे त्रिभुवनगुरुणा यत् सुचन्द्रस्य सर्वम् / . . तन्मध्ये किञ्चिदत्र स्फुटमिह विषये देशितं ते मयाद्य स्वस्थाने रक्षणार्थ कुरु सकलमिदं द्वेषलोभैन्न सूर्यः // 149 // इह दुष्टानां साधनार्थ पूर्वोक्तमादिबुद्धे यत् त्रिभुवनगुरुणा शाक्यसिंहेन 15 सुचन्द्रस्य वज्रपाणिनिर्मितंकायस्य सर्वस्वरोदययन्त्रलक्षणम्, तन्मध्ये, तस्य स्वरोदय यन्त्राध्यायस्य मध्ये, किञ्चिदत्र स्फुटमिह विषये सम्भलाख्ये देशितम्, ते सूर्यरथस्य मया मञ्जुश्रिया यशोनरेन्द्रेण, अद्य स्वस्थाने रक्षणार्थ कुरु सकलमिदं द्वेषलोभैन्न सूर्य इति सूर्यरथस्य नियमो यथा तथान्येषामपि कालचक्रपरिज्ञानानि नाम यमपि नियमो भगवतः। इति श्रीमलतन्त्रानुसारिण्यां द्वादशसाहसिकायां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां विमलप्रभायां स्वरोदययन्त्रविधिनियममहोद्देशः' दशमः // 10 // T1925 (11) म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनमेवादि इदानीं महाचक्रवत्तिनो म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनमेवादि सुबोधमिति तेनोक्तं (तेन नोक्त) टीकायां लोकधातु म प्रथमपटल:* मद्यक्षीराब्धिमध्ये** मुनिमहिवलये संस्थितां कर्मभूमि लक्षे योजने च भ्रमति नरपतिः सूर्यखण्डान् क्रमेण / 1-2. ग. स्वरोदययन्त्रविधिनियमो महोद्देश इति / * अतः परं टीका नास्ति; क पुस्तके मूलमात्रमस्ति; अत एव मूलमात्र प्रस्तूयते / ** अतः परं मूलस्य भोटानुवादस्य 'पृष्ठसंख्यासङ्केतः' 'मार्जिन'स्थाने प्रस्तुतः / [ ] कोष्ठके पाण्डुलिपिपृष्ठसंख्यासंकेतः क. पुस्तकात् प्रदत्त। . Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनमेवादि खण्डै योजनानां वसुदलसहितं पञ्चविशत्सहस्रं कैला(स)शस्तस्य मध्ये वरहिमगिरिणाऽऽवेष्टितः सर्वदिक्षु // 150 // भूमौ कैलाश(स)खण्डं हिमगिरिसहितं तत्रिभागं समन्तात् बाह्य चैकैकपत्रं दिनकरविषयैर्भूषितं द्वीपदेशैः / सव्याः सम्भलाख्ये मुनिवरनिलयं ग्रामकोट्याधिवासं कोटिग्रामैनिर्बद्धो भवति हि विषयो मण्डलं ग्रामलक्षः // 151 // एकद्वित्र्यब्धिभेदैः शररसविजनैः पञ्चलोकादिभेदैभिन्नश्चक्री नरेन्द्रो भ्रमति भुवि तलेऽन्वेषणोयः स विज्ञैः / चक्री चार्ली च खण्डी विषयनरपतिः मुद्रहस्तस्ततोऽन्यः बाह्ये कालस्य भेदः खलुः भवति यथा लोकनाथस्य तद्वत् // 152 // 10 सप्ताब्ध्यद्रिवारा मुनय इह तथा सात्विका दिव्ययोनिमत्स्यः' कूर्मो वराहो नरहरिसहितो वामनो यामदग्निः / रामः कृष्णस्तथाष्टौ दनुकुलभयदा राजसा भूतयोनि-२ द्वात्रिंशद् विष्टरान्ते भवति दनुरिपुश्चक्रपाणिः शतायुः // 153 // आद्रोऽनोघो वराही दनुभुजगकुले तामसान्येऽपि पञ्च म्लेच्छोऽसौ श्वेतवस्त्री मधुमतिमथनी योऽष्टमः सोऽन्धकः स्यात् / सम्भूतिः सप्तमस्य स्फुटमखविषये वागदादौ नगर्यां यस्यां लोकोऽसुरांशो निवसति बलवान् निर्दयो म्लेच्छमूर्तिः // 154 // उष्ट्राश्वौ गाश्च हत्वा सरुधिरपिशितं शुद्धपक्वं हि किञ्चित् गोमांस सूततोयं घृतकटुकसमं तण्डुलं शाकमिश्राम् / 20 एकस्मिन् वह्निपक्वं नवफलसहितं यत्र [84b] भोज्यं नराणाम् पानञ्चाण्डं खगानां भवति नरपत तत्पदं चासुराणां / / 155 / / बिन्दुः शक्त्याञ्जनेयो गरुडसुरसरिन्नारदः कामधेनुः दुर्गा विद्वत्सु विद्याक्षरपरमकलादिव्यभाषाशरीराः / एते सञ्चाररूपैरवतरति विभुनिकायो जिनस्य __भूतं भव्यं भविष्यत् प्रवदति सकलं वेदतर्कादिशास्त्रम् / / 156 / / 1. क. पुस्तके नास्ति, भोटानुवादादुपलब्धपाठाच्च पूरितः / 15 T20 Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोकधातु विमलप्रभायां श्रीमान् राजन् कलापे कतिपयदिवसैः सम्भलाख्ये प्रसिद्ध शैलावेष्टे चतुर्दिक शरगुणितशते योजनानां प्रमाणे / स्वस्थाने यास्यसि त्वं प्रवरनपति स्थापयित्वा सुरेशं सप्त श्रीशाक्यवंशे प्रकटनृपतयश्चाष्टमः श्रीयशश्च // 157 / / सोऽयं श्रीमञ्जुवज्रः सुरवरनमितो वज्रगोत्रेण कल्की दत्वा व्रजाभिषेकं सकलमुनिकुलान्येककल्कं करिष्यत् / सम्यग् यानाधिरूढो दनुकुलभयदः श्रीयशः सेल्लपाणिः सत्त्वानां मोक्षहेतोः प्रकटमपि महौ कालचक्र करिष्यत् // 158 // तन्मध्ये पञ्चविंशत्क्रमपरिगणित विष्टराणां युगान्ते कल्कीगोत्रे सुरेशः सुरवरनमितो रौद्रकल्की भविष्यत् / साधूनां शान्तरूपः सुखद इति तथैवान्तको म्लेच्छजातेः शैलाश्वारूढचक्री हनदरिसकलं सेल्लहस्तोऽर्कतेजाः // 159 // कल्कीगोत्रस्य मध्ये करगुणितयुगे पुत्रपौत्रेऽप्यतीते तस्मिन् काले भवद् वै खलु मखविषये म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिः / यावन्म्लेच्छेन्द्रदुष्टः सुरवरनमितो रौद्रकल्की च यावत तस्मिन् काले द्वयोश्च क्षितितलनिलये रौद्रयुद्धं भविष्यत् // 160 / / युद्धे म्लेच्छान् हनन् यः सकलभुवि तले चातुरङ्गः स्वसैन्यैः कैलासाद्रौ युगान्ते सुररचितपुरे चक्रवर्त्यागमिष्यत / / रुद्रं स्कन्दं गणेन्द्रं हरिमपि च सखीन् दास्यते कल्किना च शैलाश्वान् वारणेन्द्रान् कनकरथनृपान् शस्त्रहस्तान् भटांश्च // 161 // 20 शैलाश्वैर्वायुवेगैर्गुणगुणितगुणैः कोटिविभिश्ववर्णे दाख्यैर्लक्षसंख्यौर्मदमुदितगजैः स्यन्दनैर्भूतलक्षैः / षड्भिश्चाक्षौहिणोभी रसनवतिकुलैमौलिबद्धर्नरेन्द्ररेतत् सैन्येन कल्की हरिहरसहितो म्लेच्छनाशं करिष्यत् // .162 / / Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] म्लेच्छधर्मोत्पाटनबुद्धधर्मप्रतिष्ठापनमेवादि 155 हन्तव्यं म्लेच्छवृन्दं वरकटुकभटैारणेन्द्रंर्गजानां शैलाश्चैः सैन्धवानां समविषमरणे पार्थिवः पार्थिवानाम् / अश्वत्थामा महाचन्द्रतनयहनू[85a]मांस्तीक्ष्णशस्त्रर्हनिष्यत रुद्रो म्लेच्छेन्द्रनाथं सकलदनुपति कृन्मती रौद्रकल्की // 163 // हत्वा म्लेच्छांश्च युद्धे हरिहरसहितः सर्वसैन्यैककल्की कैलाशा(सा)द्रौ वजियष्यत् सुररचितपुरे संस्थितो यत्र चक्री / तस्मिन् काले धरण्यां सकलजलकुलं धर्मकामार्थपूर्ण शस्यान्यारण्यजानि स्थिरफलनमितास्ते भविष्यन्ति वृक्षाः / / 164 / / 5 उच्छिन्ने म्लेच्छवृन्दे परिजनसहिते मानवाब्दे शतार्द्ध / कल्की सिद्धि वजिष्यत् सुररचितपुरे तुङ्गकैलाश(स)पृष्ठे / पुत्रों ब्रह्मा सुरेशस्त्रिदशनरगुरोर्युग्मधर्मे भवेतां ब्रह्मा पृष्ठकखण्डे भवति नरपतिः सव्यभूम्यां सुरेशः / / 165 // 10 कृत्सव्यान्(न्ध्यां) म्लेच्छधर्मं त्रिभुवनगुरुक(भिः)च्छेदियत्वा सिद्धा(च्छित्वा)ब्दाष्टौ शतानि व्रजति सुखपदं ब्राह्मणं (ब्रह्माणं) स्थापियत्वा / भूयस्तस्यैव मध्ये भवति नरपते वर्णभेदः सुतानां तेषां मध्येऽसुरेन्द्रा नरपतिमुनयः प्राकृताऽन्ये भवन्ति // 166 // म्लेच्छानां नाशहेतोव्रजति सुरपतिर्द्वादशेन्द्राभियुक्तः खण्डे खण्डे च चक्री व्रजति सुखपदं म्लेच्छधर्म निहत्य / पुत्रौ ब्रह्मा सुरेशस्त्रिदशनव(र)गुरोः पृष्ठतश्चात्र तद्वत् (अग्रतश्च) पृष्ठे ब्रह्मादिवशे विविधभुवि तलेऽनेकभेदा भवन्ति / / 167 // 20 ब्रह्मादौ मानवाब्दाष्टदशशतयुगं(तं) चाम्व(यु)रेतन्नराणां तस्याद्ध काश्यपस्य प्रवरभुवि तले नारसिंहस्य चाद्धम् / षष्टया हीनं तथैव प्रतिदिन(युग)समये वामनादौ हरेश्च कल्क्यन्तं यावदायुः प्रभवति च शतैकाब्दसंख्या जनस्य // 168 // Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां लोकधातु- . एवं सर्वेषु खण्डेष्वपि युगसमयो म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिवर्षास्तै(ष्ट)कशतं वै स्थितिरपि च ततो म्लेच्छधर्मस्य नाशः / तस्माद् विंशत्सहस्रं करशतरहितं बुद्धधर्मप्रवृतिः कृत् त्रेता द्वापरं वै वहति कलियुगं शक्तिमानेन भूम्याम् // 169 / / उत्पत्तिर्लोकधातोर्ग्रहचरणसमा सम्भवश्चक्रिणश्च म्लेच्छानां धर्मनाशः परमसुखपदे कल्किनो मार्गदानम् / एतत् सर्वं यथार्थं कथितमपि मया ते सुचन्द्र त्रिकालाद् भूयः किं पृच्छसि त्वं सकलजनहितार्थं च मां मोक्षहेतोः / / 170 // इति श्रीमदाविबुद्धोधृते श्रीमहाकालचक्रे लोकधातुविन्यासः प्रथमपटलः // 1 // Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2. अध्यात्मनाम द्वितीयपटलः (1) कायवाञ्चित्तोत्पत्ति-चतुरार्यसत्यनिर्णय-महोद्देशः नमः' शाक्यमुनये। गर्भाधानमिदं करोति महतां यः पाचनार्थं नृणां निर्मुक्तो भवबन्धनैरपि भव(न्)३ मार्गाय च प्राणिनाम् / नानाजातकमालिका गुणवती सत्त्वार्थिनो दृश्यते प्राग् बुद्धस्य महद्धिकस्य चरितं तस्मै नमस्तायिने / प्रणम्य वज्रसत्त्वं श्रीशाक्यसिंहं तथागतम् / अध्यात्मपटले टीका पुण्डरीकेण लिख्यते // मञ्जुश्रीचोदितेनैव सुगतव्याकृतेन च। मया श्रीलोकनाथेन जगतः करुणात्मना // इह' श्रीमहाकालचक्रमण्डलगृहपूर्वद्वारावसाने श्रीमति महारत्नमण्डपे रत्न- 10 सिंहासनस्थः सूर्यरथाध्येषितः सन् मञ्जुश्रीभगवान निर्मितकायो यशो नरेन्दोऽध्यात्मपटलदेशनार्थं परमाविबुद्धात् सुचन्द्राध्येषणं शाक्यमुनेर्भगवतः प्रथमवृत्तेनाह; तद्यथा न ज्ञातं विश्वमानं जिनजनक मया यत् त्वया देशितं च भूयोऽहं श्रोतुकामस्त्रिभुवनसकलं देहमध्ये कथं स्यात् / श्रुत्वा सौचन्द्रवाक्यं प्रवदति सुगतः साधुकारं प्रदाय 15 सत्त्वानां मोक्षहेतोः परमकरुणया विश्वमानञ्च देहे // 1 // इहाध्यात्मपटलेऽध्येषकदेशकसंग्रहवृत्तम्, म श्रिया सङ्गीतिकारेण लघुतन्त्रनिर्देशितं वितनोमि न ज्ञातमित्यादिना इह देहमध्ये न ज्ञातं विश्वमानम्, जिनजनक इति वज्रसत्त्वः शाक्यमुनिः, निरावरणस्कन्धानां जनको जिनजनकस्तस्यामन्त्रणं हे जिनजनक, त्वया देशितं बाह्ये 20 विश्वमानं तदेहे न ज्ञातम्, अतो भूयोऽहं श्रोतुकामस्त्रिभुवनसकलं देहमध्ये कयं केन प्रकारेण भवेदिति / अतोऽध्येषणं सौचन्द्रवाक्यं श्रुत्वा प्रकर्षेण वदति सुगतः साधुकारं प्रदाय सुचन्द्राय सत्त्वानां मोक्षहेतोः परमकरुणया विश्वमानं च देहे / चकारात् सर्वतन्त्रान्तरमपि देहे वदति / द्वितीयपटलदेशनायै अध्येषकदेशकसंग्रहोद्देशः / 1-2. भो. dPal Dus Kyi hKhor Lo La Phyag hTshal Lo ( नमः श्रीकालचक्राय)। 3. Srid Pa (भव) / 4. क. ख. इति / 5. क. ख. निर्देशं / ६.ख. कारणेन / 21 Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 विमलप्रभायां [अध्यात्म देशनावृत्तमाह [86a] पृथ्वोत्यादिपृथ्वीतोयाग्निवाताः कुलिशसुरधनुर्वायवो राशिचक्रं चन्द्रार्को राहुमेरुफणिमनुजसुरा राशिवक्राः सताराः / संक्रान्तिर्मासपक्षा दिननिशितिथयो देहमध्ये समस्त ज्ञातव्यं स्वस्ववर्गस्त्रिविधविभुगतिर्योगिना शून्यभेदैः // 2 // इह देहमध्ये पृथिव्यादिकं समस्तं ज्ञातव्यं स्वस्ववर्णैरिति / दन्त्यवर्णैः पृथ्वी ज्ञातव्या, औष्ठ्यैः स्तोत्रम्, मूर्द्धन्यैरग्निः, तालव्यैर्वायुरिति पृथ्वोतोयाग्निवाताः। कुलिशं विद्युत् पुनर्मूर्धन्यैः / सुरधनुरिन्द्रधनुर्दन्त्यः। वायवो दश तालव्यैः। राशिचक्रम्, आदिकाद्यैः समस्तैश्च चन्द्रो बिन्दुनाऽर्को विसर्गेण, राहुर्व्यञ्जनेन अस्वरेण, मेरुर्नामाक्षरेण, फणिनां वास ओंकारेण, मनुजावासो मर्त्यलोक आ:कारेण, सुरावासः हैकारेण / वक्रा ग्रहा मङ्गलादयो दक्षिणवामबीजैः पूर्वोक्तः संक्रान्तिादशवर्गभेदैः; मासा अप्येवम्; पक्षाः षड्वर्गार्द्धभेदैः; दिननिशितिथयः काद्यैः सस्वरैः पूर्वोक्तैरिति देहमध्ये समस्तं ज्ञातव्यं योगिना / त्रिविधविभुगतिर्योगिता शून्यभेदैः। पूर्वोक्तक्रमेण वज्रसत्त्वस्य' त्रिविधस्य कामरूपारूपस्वरूपस्य गतिरपि त्रिविधा, महासुखेन सर्वात्मनि 15 स्थितत्वादिति / सा च शून्यभेदैरिति बोधिचित्तचतुर्बिन्दुभेदैर्ज्ञातव्य इति देहे विश्वसंग्रहोद्देशनियमः। इदानीं मनुष्यशरीरोत्पत्तये कार्यकारणसामग्रीसंग्रहवृत्तं तृतीयमाह देहे इत्यादि देहेऽस्मिन् धातुवृन्दं भवति हि सकलं षड्रसाहारपानाद् भूतेभ्यः षड्रसाश्च प्रकटितनियतं भूतवृन्दं खधातौ / शून्ये ज्ञानं विमिश्रं भवति समरसं चाक्षरं शाश्वतं च. एवम्भूतस्थशान्तं त्रिविधभवगतं वेदितव्यं स्वकाये // 3 // इह देहे धातुवृन्दमिति लोमत्वक्रक्तमांसास्थिमज्जादिकं धातुवृ[86b]न्दं भवति हि सकलं षड्रसाहारपानाविति लवणमधुरकटुतिक्तकषायाम्लाः षट् रसाः, एषामाहारपानवशाद् धातुवृन्दं भवति / भूतेभ्यः षट् रसा इति पृथ्व्यप्तेजोवायुरसेभ्यः षड् रसाश्च भवन्ति / भूतवृन्दं खधाताविति पृथ्व्यप्तेजोवायुरसवृन्दं खधातौ पूर्वोक्तपरमाणुधर्म भवन्ति / शून्ये ज्ञानं विमिश्रमिति इह व्याप्यव्यापकसम्बन्धेनावस्थितं संवृत्या यत् स्वशरीरे सर्वसत्त्वानां विज्ञानम्, तदेव शून्ये शून्यताबिम्बे भावनाबलेन T 296 ग्राहकचित्तं ग्राह्यचित्ताभासे विमिश्रं समरसं चाक्षरं शाश्वतं भवति / अत्र शाश्वतं 30 निरावरणमुच्यते / एवम्भू तस्थशान्तं महासुखं त्रिविषभवगतं वेवितव्यं स्वकाये १.ग.चित्तवनसत्त्वस्य / २.क. ख. द्वितीय० / Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कायवाकचित्तोत्पत्ति-चतुरार्यसत्यनिर्णय-महोद्देशः योगिनेति / इहाध्यात्मपटले अस्य वृत्तस्य संक्षेपविवरणं वक्ष्यमाणे ज्ञानपटले परमाक्षरज्ञानसिद्धी विस्तरेण वक्तव्यमिति शरीरोत्पत्तये कार्यकारणसामग्रीनियमः / गर्भाधानादिकमाह बीजमित्यादिनाबीजं धत्ते धरित्री कमलगतमतो रोहयत्यम्बु पश्चात् तेजो बोधं करोति ग्रसति रसरसं मारुतो वृद्धिमस्य / वृद्धेः खं चावकाशं ददति नरपते कालतः सिद्धिरेवं दिव्याः कुर्वन्त्यवस्थाः प्रसवनसमये बालकादौ च काले // 4 // इह द्वीन्द्रियसंयोगाद् यच्च्युतं भगरक्तं गुह्यकमले तद् बीजमित्युच्यते / तद् बोज पत्ते परित्री, गुह्यकमले यः पृथ्वीधातुः स इत्यर्थः / कमलगतमिति गुह्यकमलगतम्, अतो गुह्यकमलाद् रोहयत्यम्बु पश्चात् तेजो बोधं करोतीति, अस्य बीजस्य 10 अम्बुना प्ररोहितस्य' तेजः प्रबोधं करोति / प्रसति रसरसमिति षड्रसं मातृभक्षितं पीतञ्च यत् तद् असति रसरसं तेजः / मारुतो वृद्धिमस्य बीजस्य करोति / वृद्धः सकाशात् खं शून्यमवकाशं वदाति / नर[87a]पते इत्यामन्त्रणम् / कालतः सिद्धिरेवम् / एवमनेन क्रमेण मत्स्यादेः सिद्धिर्गर्भनिष्पत्तिर्भवति / दिव्याः कुर्वन्त्यवस्था इति दिव्या धूमादयो दशावस्थास्ताः कुर्वन्ति / गर्भबालकौमारादिका दशावस्थाः, प्रसवनसमपे 15 बालकावौ च काल इति गर्भाधाननियमः / बीजस्य स्वधातुकृत्यमाह बीजस्येत्यादिबीजस्य क्षमा करोति स्फुटगुरुघनतां तोयमेव द्रवत्वं तेजः पाकं करोति प्रवरदशविधो मारुतो वृद्धिमस्य / वृद्धभूयोऽवकाशं ददति हि गगनं कालतः सृष्टिरेवनानाभावैरनेकैः सतनुरवमनः शक्तयः स्फारयन्ति // 5 // इह या बोजस्य शुक्ररक्तस्य मा सा गुह्यकमलगतान् षड् रसान् भक्षयित्वा स्फुटं गुरुघनतां करोति, शरीरस्योत्पत्तये तोयमेवं द्रवत्वं करोति, तेजः पाकं करोति भक्षितानां रसानाम्, प्रवरक्शविधो मारुतः प्राणादिवृद्धि करोति, अस्य बीजस्य शरोराय, वृद्धभूयोऽवकाशं वदति हि गगनम्, कालतः सृष्टिरेवम्, पूर्वोक्तविधानतः। 25 नानाभावैरनेकैः सतत(न)रवमन' इति कायवाञ्चित्तानि शक्तयो धूमादयः कायवाक्चित्तर्मिण्यः स्फारयन्तीति बीजधातुकृत्यकथनम् / 20 १.क. ख. पुरोहितस्य; भो. Rab tu bsDus pahi (प्ररोहितस्य) / 2. क. वृद्ध / 3. भो. Lus bCas ( सतनु०)। 4. क. ख. सक्तयो / Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां 10 160 [अध्यात्मअध्यात्मचित्तवज्रवरविष्णोर्दशावस्था उच्यन्ते गुह्येत्यादिनागुह्याब्जे रक्तमध्ये पतितमपि यदा बोधिबोज सजीवं मत्स्यः कर्मो वराहो भवति नरहरिमिनो रामरामौ / कृष्णो बुद्धो नरेन्द्रो भवति दशविधा(:)चाप्यवस्था दशेता गर्भे तिस्रस्तथैका प्रसवनसमये बालकालेऽपि च द्वे // 6 // [87b] कौमारे यौवनेऽन्या प्रभवति विपुलैका च सम्यक् तथैका वृद्धत्वेऽप्येकशान्ता भवन(ति) निधनता चान्तिमा गर्भजानाम् / मत्स्याकारस्तु मात्स्ये भवति कतिदिनं कूर्मभावश्च कौऱ्या वाराह्ये तस्य सूर्यायतनमपि भवेन्नारसिंहे प्रसूतिः // 7 // . इह गुह्याब्जे रक्तमध्ये पतितमपि यदा बोषिबीजमिति शुक्र सजीवमालय- . विज्ञानसहितं गुह्याब्जे पतितं यदा, तदा दशावस्थालक्षणं भवति / तेषु गर्भमध्ये मत्स्यकूर्मवराहावस्थास्तिस्रो भवन्ति; तथैका प्रसवनकाले नरसिंहावस्था; बालकालेऽपि च द्वे, दन्तोत्थानाद् वामनावस्था, दन्तोत्थानाद् दन्तपातं यावत् परशुरामावस्था / ___कौमारे यौवनेऽन्या इति दन्तपातात् षोडशवर्षावधेः प्रथमविपुला रामावस्था, 15 तथा अपरा विपुला षोडशवर्षात् पलितोत्पत्तिं यावत् कृष्णावस्था, पलितोत्पत्तेः मरण दिवसं यावद् बुद्धावस्था', मरणदिने सर्वभूतस्यैकलोलीभूतत्वाच्छरीरे कल्क्यवस्था भवति / वृद्धत्वेऽप्येकशान्ता भवन(ति) निधनता चान्तिमा गर्भजानामिति दशावस्थानियमः। अध्यात्मनि चित्तवज्रधरविष्णोर्दशावस्थाकृत्यमुच्यते मत्स्येत्यादिना__ इह मात्स्ये भावे मत्स्याकारो भवति बोधिचित्तवज्रो विष्णुः कतिदिनं ऋतुदिनं यावत् ततः कौर्पा भावे कूर्मभावो भवति, चकारादपरऋतुदिनं यावत्; वाराह्ये भावे बोधिचित्तविष्णोः सूर्यायतनं द्वादशायतनोद्भवो भवति, तृतीयऋतुदिनं यावत्; एवं सप्तमासाज्जातदिनं' यावत् नारसिंहे भावे प्रसूतिर्भवति, कराभ्यां योनिविदारणात् / वामन्ये बालभावो द्विनृपतिदशनान्युद्भवं यान्ति राम्ये भूयो राम्ये पतन्ति स्फुटमपि कपट कारयेत् सैव कार्ये / बौद्धे शान्ति करोति व्रतमपि नियम* याति मृत्यु च काल्क्ये शुक्रे मज्जास्थिनाडी भवति रजसि वै चर्मरक्तं च मांसम् // 8 // 20 3. ग. वज्रघरविष्णुः / १.ग. बौद्धा। 2. भो. Srid pa (भवति)। 4. ग. सप्तम / *क. नियतं / Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] कायवाञ्चित्तोत्पत्ति-चतुरायंसत्यनिर्णय-महोद्देशः 1 रक्तं बीजं प्ररोहत्यमृतरसगतं गर्भमध्येकमासे पश्चाद् बीजाकुरस्य सुहृदि दशविधा नाडिकात्यन्तसूक्ष्मा / नाभौ [88a] चाष्टाष्ट कान्याः करचरणमुखेषुव॑तः सर्म्यमाणा मासे पूर्ण द्वितीये करचरणमुखोद्देशनं किञ्चिदत्र // 9 // बामन्ये भावे बालभावो भवति पूर्वोक्तः, द्विनृपति द्वात्रिंद्दशनान्युभवं यान्ति 5 राम्ये, परशुराम्ये भावे' पतन्ति / स्फुटमपि कपटं कारयेविति स एव बोधिचित्तविष्णुः कार्ये भावे मायां कारयेत्, बौद्ध भावे शान्ति करोति / सत्त्वानां व्रतमपि नियमं याति मृत्युं च काल्क्ये / काल्क्ये भावे पूर्वोक्तविधिना मरणं यातीति दशावतारः / इह वाक्ये यन्मत्स्यादिकं पुराणं रचितं दुष्टब्रह्मऋषिभिस्तद् बालानां वञ्चनाय नरकावाप्तिहेतुकमिति वक्ष्यमाणायां परमाक्षरज्ञानसिद्धौ विस्तरेण वक्तव्यम् / . 10 मातृगर्भस्थयोः शुक्ररजसोविकाराः गर्भाधानमारभ्य प्रसूतिपर्यन्ता उच्यन्ते शुक्र इत्यादिना इह शरीरे षट् कोषा जातकस्य भवन्ति-शुक्रे मज्जा भवति, अस्थीनि भवन्ति, नाड्यश्च स्नायवो भवन्ति, रजसि चर्मरक्तं च भवति, मांसं च भवति, एकस्माद् रक्ताद् रक्तबीजप्ररोहना(णा)दिति / ... अत्र गर्भ मासमेकं यावद् रक्तं बीजं प्ररोहति पञ्चामृतरसगतम्, पश्चात् बोजाङकुरस्येति, ततो मासादूर्ध्वं बोधिचित्तस्याङकुरीभूतस्य हृदयमध्यस्थाने वशविषा नाड्यः प्राणादिवाय्वाधारा भवन्ति; ताश्चात्यन्तसूक्ष्मा बालप्रमाणा; नाभी नाभिप्रदेशेष्टाष्टाकाश्चतुःषष्टिदण्डवाहिन्यो भवन्ति; अतिसूक्ष्मा अनुक्काऽपि द्वादशराशिसंक्रान्तिवशाच्चतुःषष्टीनामाधारभूता द्वादश ताः नाड्यो भवन्ति; तथात्यन्त- 20 सूक्ष्मास्ताः सर्वाः पूर्वोक्ता नाभिनाड्यः करचरणमुखस्थानकरणाय ऊर्ध्वतः सम्रमाणाः करचरणमुखस्थानेषु, ततः सर्म्यमाणप्रभावात् / द्वितीये मासे पूणे सति मुखकरचरणोद्देशनं किञ्चिदत्र इह प्राङ्मत्स्यावस्थादिने गते स[88b]ति कूर्मावस्थायां मुखकरचरण'. स्थानेषु पञ्च स्फोटका भवन्ति / हस्तौ पादौ च कण्ठो भवति समशिरः पूर्णमासे तृतीये 25 सूक्ष्मा मासे चतुर्थे करचरणमुखे नाडिका कण्ठदेशे / 15 1. ग. 'पुनराम्ये भावे' इत्यधिकः पाठः / 2. भोटानुवादानुरोधेन 'परशुराम्ये द्विनृपति द्वात्रिंशद्दिनानि उद्भवं यान्ति, राम्ये पतन्तीति क्रमः / 3. क. नियतं / 4. क. ख. जातस्य / ५.क. ख. कस्मात् / 6-7. ख. तनायो / 8. भो. gDon Dan rkan pa Dan Lag pa (मुखचरणकर)। Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 162 विमलप्रभायां [अध्यात्ममांसान्याश्रित्य चास्थोनि खरसशिखिनः पञ्चमे सन्धयश्च पष्ठे मासे च मांसं भवति च रुधिरं वेदना सौख्यदुःखम् // 10 // हस्तौ पादौ च कण्ठो भवति समशिरः कूर्मः, अपरा सूक्ष्मनाड्यः करचरणमुखे कण्ठदेशे करचरणानां षट्सन्धिषु मुखकण्ठे सहजसम्भोगनाड्योऽतिसूक्ष्माश्चतुर्थे मासे पूर्ण सति भवन्तीति कूर्मावस्था / पञ्चमे मासे वाराह्ये भाव मांसान्याश्रित्य चास्थीनि खरसहुतभु गिति षट्युत्तरत्रिशतान्यस्थीनि सन्धयश्च तावत् यः षष्ठे मासे च चकारात् वाराह्ये भावे मांसं रुधिरं भवति, वेदना भवति, सुखदुःखं च वेत्ति, अभिज्ञा1297 बलेन पूर्वनिवासानुस्मृति च, स्वचित्तेन वैराग्यं करोति, भवदुःखं निन्दयति, बुद्धमार्ग प्रशंसयति। भ्रकेशा रन्ध्ररोमाण्यपि मुनिवरे नाडिकाः सावशेषा मासादूध्वं हि जाताः प्रतिदिनसमये शून्यशून्याक्षिसंख्या / मर्माण्यस्थीनि मज्जा भवति च रसना मूत्रगूथेऽष्टमे च . रन्ध्राख्ये घोरदुःखं प्रसवनसमये योनिना पीडितस्य // 11 // ततो भ्रूकेशा रोमरन्ध्राणि चक्षुरादीनि / अपि च वाराह्ये भावे मुनिवरे सप्तमे 15 मासे पूर्ण सति सम्पूर्णान्यायतनानि भवन्ति / इह गर्भमासादूचं प्रतिदिनसमये शून्य शन्याक्षिसंख्या द्विशतसंख्याः प्रत्यहं नाडिका भवन्ति / ततः षष्ट्यत्तरत्रिशतमर्माणि अस्थीनि, तन्मध्ये मज्जा भवति रसना जिह्वा जिह्वन्द्रियोत्पादाय, [89a] पूर्वचक्षुरादयो भवन्ति कठिनाः। ततो रसनोत्पादकालादिह मूत्रगूथे चाष्टमे मासे भवतः / वाराह्ये भावे ततो रन्नाख्ये नवमे मासे पूर्ण सति क्वचिद् दशमे, एकादशे द्वादशे वा 20 वाराह्यभावावसाने घोरदुःखं भवति प्रसवनकाले योनिना पीडितस्य नारसिंहे भावे गर्भजातकस्येति गर्भोत्पत्तिनियमः। चतुरार्यसत्येषु संसारिणां दुःखसत्यमाह गर्भ इत्यादिगर्भे गर्भस्थदुःखं प्रसवनसमये बालभावेऽपि दुःखं कौमारे यौवने श्री (स्त्री)'धनविभवहतं क्लेशदुःखं महद् यत् / 25 वृद्धत्वे मृत्युदुःखं पुनरपि भयदं षड्गतौ रोरवाद्यं दुःखाद् गृह्णाति दुःखं सकलजगदिदं मोहितं मायया च / / 12 / / इह संसारिणां प्रथमं तावत् गर्ने स्थितानां गर्भस्थदुःखं कुम्भीपाकसदृशं भवति प्रसवनसमये मुद्गरयन्त्रपीडितवत्, बालभावेऽपि विष्ठाभक्षणे शूकरवत्, कौमारे यौवने च श्री(स्त्री) 'वियोगदुःखं धनविभवहतं दुःखम्, तदभावात् / वृद्धत्वेऽपि जरामरणही दुःखम्, पुनरपि मरणान्ते षड्गतो भयदं रौरवाचम् | आदितः प्रेततियंगगतौ रौद्रं दुःखं भवति पापवशाद् दशा(श)कुशल परित्यागात् / एवं दुःखाद गृह्णाति दुःखं सकल 1. भो. Bud Med (स्त्री) / 2. भो aGe ba bCu (दशकुशल)। . Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वटले ] कायवाकचित्तोत्पत्ति-चतुरार्यसत्यनिर्णय-महोद्देशः 163 जगविवं मोहितं मायया च / इह संसारे मायया मोहितमहङ्कारममकारात्मिकया नरकप्रेततिर्यग्गतौ दुःखं गृह्णातीति / / मार्गसत्यमाह संसार इत्यादिसंसारे मानुषत्वं क्वचिदपि तु भवेद् धर्मबुद्धिः कदाचित् तस्माद् बुद्धेऽनुरागो भवति शुभवशादादियाने प्रवृत्तिः / तस्माद् श्रीवज्रयाने क्वचिदखिलमतिर्वर्त्तते भावनायां तस्यां बुद्धत्वमिष्टं परमसुखपदेऽहो प्रवेशोऽतिकष्टः (कष्टम्) // 13 // [89b] इह षट्गत्यात्मके संसारे मानुषत्व क्वचिदपि तु भवेत्, ततो धर्मबुद्धिः कदाचिद् भवति नराणां तीथिकदानादिधर्मेषु / तस्माद् बुद्धेऽनुरागः कदाचित् शुभवशाद . भवति, दानाद्यनुरागोऽपि / ततोऽपि शुभवशादादियाने प्रवृत्तिर्भवति श्रावकप्रत्येक- 10 बुद्धयाने / तस्मात् श्रीवजयाने प्रवृत्तिः, वज्रमभेद्यमच्छेद्यं महदिति / तदेव यानं मन्त्रनयं पारमितानयं फलहेत्वात्मकम्, एकलोलीभूतम्, तस्मिन् प्रवृत्तिर्वज्रयाने प्रवृत्तिः / ततः क्वचिदखिलमतित्तते भावनायाम्, कस्याञ्चित्' सालम्बनशून्यतानिरालम्बनकरुणात्मिकायां पुण्यज्ञानवशेन, तस्यां भावनायां बुद्धत्वमिष्टं भवति / एवं परमसुखपदेऽहो प्रवेशोऽतिकष्टः (ष्टम्) दूराद् दूरतरः संसारिणां संसारसुखाभिलाषिणामिति। 15 समुदयसत्यमाह गर्भ इत्यादिनागर्भे संशुद्धकायः प्रसवनसमयाद् दन्तभावोऽर्थ (भावे च) धर्मः दन्तानां वै प्रपातः प्रभवति नृप सम्भोगकायो जिनस्य / तस्मान्निर्माणकायः प्रकटितनियतो मृत्युसीम्नो नराणां गर्भे बाहये चतुर्धा भवति पुनरसौ ज्ञानविज्ञानभेदात् // 14 // 20 - इह प्रथमं लोकसंवृत्या विशुद्धकायादिकं गर्भजातस्य शरीरे संदृश्यते; पश्चाद् तद् वै धर्मण बुद्धस्य भगवतः सुविशुद्धकायादिकं योगिभिर्वेदितव्यम् / अत्र मातृगर्भ यावत् तिष्ठति तावत् पञ्चाभिज्ञो संशुद्ध कायो भवति शरीरिणः / ततः प्रसवनसमयमारभ्य यावद् दन्तोत्थानं तावद् धर्मकायो भवति / ततो दन्तोत्थानाद् यावद् वन्तप्रपातो भवति तावत् सम्भोगकायो जिनस्य बोधिचित्तवज्रस्य / नपेत्यामन्त्रणम्। तस्माद दन्तपाता- 25 निर्माणकायः प्रकटितो नियतो मृत्युसीम्नो नराणां गर्भजानामिति / गर्भ बाह्ये चतुर्षा भवति, पुनरसौ कायसमूहः, इह ज्ञानभेदात् गर्भे षड्विज्ञानभेदात् बाह्ये, ज्ञानविज्ञानभेवाविति / [90a] 1. क. ख. कस्याचित्ते। 2, भो, So Ni sKyes Pa Dag Kyai (दन्तोत्थानं ) / Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलामायां. [ अध्यात्मविज्ञानं चन्द्रसूर्यावपि कमलगताः शुद्धकायः स गर्ने धातुस्कन्धोद्भवो यो भवति दशविधो धर्मकायो जिनस्य / तस्मात् सम्भोगकायो भवति गुणवशाच्छोत्रशब्दादिजाते तस्मात् केशादिजाते प्रसवनसमयश्चात्र निर्माणकायः // 15 // अत्र गर्भे तावद् विज्ञानमालयविज्ञानं सत् सौख्यं ज्ञानमिति / चनासूर्यो शुक्ररजसी अपि कमलगता मातृकमलगतास्त्रयः एकीभूता गर्भनिष्पत्तये; शुखकायः स गर्ने भगवत(ता) उच्यते. मात्रापित्रा(त्र्या) लयविज्ञानैकसखावस्थातः। घातस्कन्धानामदभवो यो क्शविषः, स धर्मकायो जिनस्य बोधिचित्तवज्रस्य / अतोऽध्यात्मश्रोत्रादीनामिन्द्रियाणां शब्दादीनां विषयाणां जाते सति गुणवशाद दिवसवशात् सम्भोगकायो भवति / तस्मात् केशाविजाते आदितः लोमविट्मूत्रनिष्पत्तिः। प्रसवनसमयो योनेरुत्पादो निर्माणकाय' उच्यते गर्भ। जाते श्वासोद्भवो यः भवति निर्गुणः शुद्धकायः स एव / तस्मात् दन्तोद्भवो योऽस्फुटमपि वचनं धर्मकायस्तथैव / तस्मात् पातो द्विजानां प्रसवति नृप सम्भोगकायो जिनस्य दन्तेभ्यः मृत्युसीम्ने भवति जिनपतेर्बाह्यनिर्माणकायः // 16 // ततो बाह्ये कायचतुष्टयं(ये) जाते सति श्वासस्य प्रथम उद्भवो यो मध्यनाड्यां' भवति, स निर्गुणो वाग्वज्रविषये संशुद्धकायः, स एव सपादषट्पञ्चाशत्श्वाससमूहं यावत् तावत् शुद्धकायो मध्यमाप्रवाहतः / तस्मात् प्राणसञ्चारवशाद् दन्तोदभवो योऽस्फुटमपि वचनं यत् तत् संज्ञालक्षणम्, स वाग्वज्रविषये धर्मकायः / तस्मात् पातो द्विजानां दन्तानां पातो भवति, यावत् सम्भोगकायोऽष्टवर्षपर्यन्तं परिस्फुटवचनात् / दन्तेभ्यः पतितेभ्योमृत्युपर्यन्तं निर्माणकायो बाह्ये भवति / इह गर्भे काय[90b]भेदेन चतुर्विधः कायभेदः / बाह्ये प्राण[सं]चारभेदेन चतुर्धा कायभेदो ज्ञानं विज्ञानं च . देहे (अन्तः)२ बाह्येऽपि कायप्राणयोः सहायः / अत्र कायभेदः शुक्रसम्बन्धी, वाग्भंदो रक्तसम्बन्धी; एवं व्याप्यव्यापकसम्बन्धेन चित्तभेदेन चतुर्विधः कायभेदः / जाग्रदादिलक्षणेन ज्ञानभेदे25 नापि चतुर्विधः कायभेदः, आनन्दादिना चतुर्विधस्वभावेनेति देहे बाह्य सहजादिकायोत्पादनियमः। कायवाञ्चित्तज्ञानोत्पत्तिमाह गर्भ इत्यादिनागर्भ श्रीकायवज्रं प्रथममिह भवेद् वाक्स्वरूपं प्रसूते चितं दन्तोद्भवे वे पुनरपि पतनादुद्भवे ज्ञानवज्रम् / ज्ञानं विज्ञानमिदं रविशशिसहितं ज्ञानवज्रादिसर्व गर्भे रूढं क्रमेण प्रभवति बलवत् कायवज्रादिना च // 17 // 1. क. ख. निर्माण / 2. भो. Nai (अन्तः) / Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] कायवाञ्चित्तोत्पत्ति-चतुरार्यसत्यनिर्णय-महोद्देशः 165 इह मातृगर्भे ज्ञानं सहजानन्दं विज्ञानमिश्रितमालयविज्ञानम्, रविशशिसहितं रजःशुक्राभ्यां सहितं ज्ञानवजादिसर्व सहजानन्दादिकं भवति / गर्भे रुढं क्रमेण प्रभवति बलवत् कायवजादिना च / अत्र प्रथम' गर्भे श्रीकायवज्रं भवति प्रसूत्यवधिं यावत्, कायावयवनिष्पत्तिरित्यर्थः। ततः प्रसूते वागवज्रं प्राणसंचारः प्राणोत्पत्तिः। ततश्चित्त संज्ञाग्राहक द्वात्रिंशद्दन्तोभवे सति भवति। वे इत्येकान्तनिश्चितमित्यर्थः। 5 7298 पुनरपि दन्तपतनात द्वात्रिंशद्दन्तोद्भवे सति स्त्रीणां द्वादशवर्षावधि ज्ञानवजू शुक्रच्युत्यवस्थालक्षणं सहजानन्दलक्षणं५ नराणां षोडशवर्षावधेर्वेदितव्यमिति कायवाचित्तज्ञाननिष्पत्तिकथनम् / आधाराधेयसम्बन्धमाह पृथ्वोत्यादिपृथ्वीगर्भो हुताशो भवति च (न) धरणीमारुतौ शून्यगर्भो 10 वायोभूमेश्च गर्भो भवति हि सलिलं निःस्वभावःस्वभावम् / भूमेराधार अम्बु ज्वलनमपि जलस्यानिलः पावकस्य वायोः शून्यं नरेन्द्र प्रभवति हि तथाधार आधेयभूतः // 18 // [91a] इह पृथ्व्या गर्भो हुताशोऽग्निर्भवति, न तत्कुली, पृथ्वीगुणस्वभावाभावात् / आकाशगर्भे शून्यमध्ये तिष्ठतो धरणीमारुतौ न तत्कुलजातो, आकाशगुणाभावात् / 15 एवं वायुगर्भ (6) भ मेश्च गर्भ (:) सलिलं भवति; तदेव वायुगर्भ निःस्वभावानुरूपेणावस्थितम्'; यत्र यत्र वायुः संसरति, तत्र तत्र तेन साद्धं व्रजति / यद् भूमिमध्ये व्यवस्थित तत् स्वभावं द्रवरूपं खन्यमानं दृश्यते भूम्यमिति / अत्र पुनः सर्वेषां पृथ्व्यादीनामाकाशमाधारः, पृथिव्यादयो भूता आधेयाः। अत्र यथाक्रममाधाराधेयौ भवतः। भूमेराधारमम्बु भूमिमण्डलस्य बाह्य यथा जलमण्डलमाधरः तथा शरीरेऽपि / ज्वलनमप्य- 20 ग्निमण्डलं जलस्येति जलमण्डलस्याधारः / अनिल इति वायुपण्डलम् / पावकस्याग्निमण्डलस्य वायुरिति वायुमण्डलस्स्य शून्यमाकाशमाधारः / एवं सर्वेषां भूतानां पृथिव्यादीनां शून्यमाधारो भवति / / - समूहाधाराधेयमाह स्कन्ध इत्यादि स्कन्धाधारो हि भौतो भवति वरतनौ भूतवृन्दस्य नाड्यो नाडीनां प्राणवायुर्भवति दशविधश्चेतना प्राणवायोः / तच्चित्तं द्विस्वभावं भवति गुणवशात् सस्वभावास्वभावं भर्ताधारस्तयोश्च त्रिभुवननमितोऽनाहतः सर्वगो यः // 19 // 12. ख. प्रथमगर्ने। 3-4. क. ततश्चित्तसंज्ञाग्राहकं / 5. क. सहजानन्दक्षणं / 6. भो. Ma yin (न)। 7. क. ख. गर्भो। 8. भो. Ma yin (न)। 9. क. ख. निःस्वभावमन्दरूपेण; ग. * मण्डरूपेण / . 22 Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलभायां [अध्यात्म इह शरीरे पञ्चस्कन्धानामाषारो हि भौतं (तो) पृथिव्यादिभूतसमूह (हो) भवति / तत्कस्य हेतोः? इह पृथिव्यादिप्रकृतेरभावात् प्रत्ययो नास्त्यविद्यादिकः / अविद्यासंस्कारविज्ञानादिप्रत्ययाभावे रूपादिस्कन्धाभावः। यतश्चतुर्भूतात्मक रूपम्, षड्वात्वात्मको महापुरुषपुङ्ग(द्ग)लः, अतः स्कन्धाधारो हि भौतं(तो)भवति / बरतनी भूतवृन्दस्य नाड्यो द्वासप्ततिसहस्रसंख्या भवन्त्याधारास्तासां नाडीनामपि प्राणवायुराधारः, संस्कारकारणात् / स च दशविषो वक्ष्यमाणो वक्तव्यः / चेतना [91b] प्राणवायोराधारः; सा चेतना तदेव द्विस्वभावं चित्तं भवति, गुणवशादिति सत्त्वरजोवशात् (स)स्वभावं' जाग्रतस्वप्नलक्षणम. तमोगणवसान्निःस्वभावं सस(षप्तलक्षणं निरिन्द्रियं भवति / तयोश्च सस्वभावास्वभावयोर्भाधारः सुखदुःखावस्थाधावी(धारी)' संसारि10 णाम् / स च सुखदुःखाभ्यां रहितस्त्रिमुवननमितो यः सोऽनाहतः सर्वगो भवति सुखदुःखान्तकृन्निष्ठ इति / गन्धोत्पत्तिधरण्यामपि शिखिनि रसस्योदके रूपधातोः वायो स्पर्शस्य शान्ते त्वपि भवति रवस्याम्बरे धर्मधातोः / शून्यं गृह्णाति शब्दं खलु जिनजनको धर्मधातुं च वायुः गन्धं वह्निश्च रूपं रसमपि सलिलं स्पर्शमेव धरित्री // 20 // धातूनां जन्यजनकसम्बन्धमाह गन्ध इत्यादिना इह बाह्ये वाऽध्यात्मनि गन्धोत्पत्तिधरण्यां भवति मुख्यतः, रसादीनां पुनर्गौणत इति / अपि सम्भावने, शिखिन्यग्निधातो रसस्य षट्प्रकारस्याग्नेः परिपाकहेतुतो रसस्योत्पत्तिर्भवति, यतस्तस्मादुदके रूपधातोः। इहाकुरादीनां प्ररोहादिकं नानावर्ण 20 नानासंस्थानमुदकाद् भवति मुख्यतः, गौणतः पुनः रसादीनामप्युत्पत्तिः / एवं वायो वायुधातो स्पर्शस्योत्पत्तिर्भवति; शान्ते ज्ञानधातौ रवस्येति शब्दोत्पादः। अम्बरे पश्चात्मकरसधातौ शूतके (सूचके) धर्मधातोर्बोधिचित्तधातोरुत्पत्तिर्भवति सुखावस्थाया इति / इदानीं ग्राह्यग्राहकसम्बन्ध उच्यते___ इह परकुलालिङ्गनतः कार्यसिद्धिर्भवति, स्वकुलालिङ्गनेन स्वात्मनि क्रियाविरोधात् / अतः परकुलालिङ्गनं शरीरोत्पत्तिकारणं भवति / तेन शून्यमिति शून्यकुलो द्भूतं श्रोत्रेन्द्रियं गृह्णाति शब्दं ज्ञानधातूद्भूतम् / खलु जिनजनक इति निश्चितं ज्ञानधातूद्भूतं मनइन्द्रियं गृह्णाति, धर्मधातुमाकाशधातूद्भूतविषयम् / वायुरिति जन्यजनकाभेद्यत्वेन वायूद्भूतं घ्राणेन्द्रियं भूमिधातूद्भूतं गन्धविषयं गृह्णाति / व[92a]ह्नि 25 1. भो. Rai bSin Can (सस्वभावं)। 2. ग. भो. bdain Pa (धारी)। 3. अत्र ख. पुस्तके 'गन्धोत्पत्तिधरण्यामपि शिखिनि रसस्योदके रूपधातोः वायो इत्यादिश्लोकः' इत्यधिको लिखितः। 4. भो. gSal Bar Byed Pa (सूचके)। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 167 पटले] कायवाकचित्तोत्पत्ति-चतुरायंसत्यनिर्णय-महोद्देशः श्चेति अग्निधातूद्भूतं चक्षुरिन्द्रियं गृह्णाति तोयधातुजनितं रूपविषयम् / वह्निधातुजनितं रसविषयं जलधातूद्भूतं रसनेन्द्रियं गृह्णाति / धरित्री पृथ्वीधातूद्भूतं कायेन्द्रियं गृह्णाति वायुधातूद्भूतं स्पर्शविषयमिति विषयविषयिणां ग्राह्यग्राहकलक्षणनियमः। लोकसंवृत्या रूपादीनां स्कन्धानां प्रत्येकधातौ सिद्धिमाह सिद्धमित्यादिसिद्धं रूपं धरण्यां त्रिभुवननिलये चोदके सिद्धसंज्ञा वह्नौ वै वेदना च प्रभवति पवने सिद्धसंस्कार एव / विज्ञानं ज्ञानमिश्रं सगगनकुलिशे सिद्धमेवात्र काये धातुस्कन्धादिसर्वं भवति च रजसा बोधिचित्तादियोगात् // 21 // इह धातुस्कन्धानामैक्यं सिखमुच्यते; अत्र घरण्यां मुख्यतो रूपं सिद्धम्, संज्ञादयो गौणतः सिद्धाः। त्रिभुवननिलये धातुकविषये, न निर्वाणधर्मे भवतीति / चकारादुवके 10 संज्ञा सिद्धा भवति / इह संज्ञानामस्वरधर्मचन्द्रः, शुक्र तोयप्रकृतिः, तोयप्रकृतित्वात् संज्ञा सिद्धा भवति, उवक इति निश्चयः। वह्नौ वै वेदना चेति इह वह्निप्रकृतिः सूर्यो रजः, कालि: सूर्यरजः कालिस्वभावा वेदना। अतो वह्नौ वेदना सिद्धा भवति मुख्यतः, शेषा गौणतः प्रभवन्ति / पवने सिद्धः संस्कारस्कन्धः, एवमत्र वायुः कायवाक्चित्तसंचालकः संस्कारजनकः, तेन वायुप्रकृतिः संस्कारः सिद्धः। एवं विज्ञानं ज्ञाननिषं 15 ज्ञानसहितम् / यथाक्रम सगगनकुलिशे आकाशे विज्ञानं सिद्धं श्रोत्रविज्ञानादिलक्षणम् / कुलिश ज्ञानधातौ ज्ञानं सिद्धं बोधिचित्तच्यवनान्ते सुखवक्षणात्मकस् / अत्र काये षड्धात्वात्मके महापुरुषपुंग(पुद्ग)ले / कस्माद् धातुस्कन्धादिसर्वमित्याह / रजसा बोषिचित्तावियोगात इह शरीरे धातुस्कन्धादिक यत् सर्वं तद् रजः शुक्रालयविज्ञानसुखक्षणावस्थासंयोगाद् भवति [92b] / 'श्रोत्रादीनां ग्राहकाणां शब्दादिविषयग्राहकत्वेन तत् स्वभावत्वमाह श्रोत्रमित्यादि श्रोत्रं वज्रस्वभावं भवति नरपते चित्तमाकाशभावं घ्राणो भूमिस्वभावो भवति च रसना वह्निभावा तथैव / चक्षुस्तोयस्वभावं त्रिभुवननिलये वायुभावश्च कायः / एवं श्रोत्रादिसर्वं भवति गुणवशात् ज्ञानविज्ञानयोगात् // 22 // इह शरीरधर्मे श्रोत्रं ग्राहकत्वेन शून्यलक्षणं ग्राह्यविषयग्रहणेन वजूस्वभावं शब्दस्वभावमिति / अत्र ग्राहको धर्मः कायभेद उच्यते, ग्राह्यो धर्मो भावभेदः / अतो ग्राह्यस्वभावेन जन्यजनकस्वभावो विज्ञेयो नरपत इत्यामन्त्रणम् / चित्तं मनः आकाशस्वभावं धर्मधातुस्वभावम्, धर्मधातुविषयग्राहकत्वात् / घाणो भूमिस्वभावो गन्ध- 30 स्वभावः, गन्धग्रहणाद् / भवति च रसना वह्निस्वभावा तथैव, यथा पूर्वे वह्निजन्म 25 Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T299 10 168 विमलप्रभायां - [ अध्यात्म(न्य)रस(स्व)भावो' रसग्रहणात् / चक्षुस्तोयस्वभावम्, तोयजनितरूपग्रहणात् / त्रिभुवननिलये, न निर्वाणे / वायु[स्वभावश्च काय इति कायेन्द्रियं वायुजनितं स्पर्शविषयग्रहणात् / एवमुक्तक्रमेण श्रोत्रादिकं सर्व भवति गुणवशादिति शब्दधर्मधातुगन्धरसरूप स्पर्शवशात् / श्रोत्रं मनो घ्राणो जिह्वा चक्षुः कायः-एते षडिन्द्रियधातवः ज्ञानविज्ञान5 योगाद विज्ञेया इति / षड्धातुवशेन मात्सर्यादयः (दीन्) षट् चित्तविकारानाह मात्सर्यमित्यादिमात्सर्य ज्ञानधातौ भवति वरतनौ चाम्बरे द्वषवज्रं (चित्तम्) ईर्ष्याचित्तं हि वायौ प्रकटितमनले रागचित्तं तथैव / तोये श्रीमानवज्र(चित्तं) प्रकृतिगुणवशान्मोहवज्रं (चित्त) धरण्यां वाग्रहस्तौ पादपायू मरुदनलजलक्ष्मासु सर्वे बभूवुः // 23 // इह शरीरे चित्तस्य मात्सर्य ज्ञानधातो, पञ्चम्यर्थे सप्तमी; ज्ञानधातूवशात्, मात्सर्यचित्तं सत्त्वाना[93a]मित्यर्थः। अम्बरे द्वेषवन(चित्त)मिति आकाशधातुवशात् सत्त्वानां द्वेषचित्तम् / एवं वायुधातुवशादीpचित्तम्, अनलधातुवशाद् रागचित्तम्, तदेव प्रकटितं मुनिना। तथैव तोयधातुवशान्मानचित्तम्, पृथ्वीधातुवशान्मोहचित्तम्, 15 प्रकृतिर्ज्ञानादिधातुधर्मस्तस्य गुणाः स्वभावास्तत्स्वभाववशान्मात्सर्यादयो भवन्ति चित्ते संसारिणाम् / धातुवशेन कर्मेन्द्रियाण्याह-वागित्यादि / इह वागिन्द्रियं वायुधातोर्भवति, पाणोन्द्रियं तेजोधातोः, पादेन्द्रियं तोयधातोः, पृथ्वीधातोः पाय्विन्द्रियम्, अनुक्तत्वात्, आकाशधातोः गुह्येन्द्रियम् / षोडशवर्षान्ते ज्ञानधातौ दिव्येन्द्रियं भवतीति षट्कर्मेन्द्रिय 20 नियमः। षड्धातूभ्योऽपानादयो वायवो भण्यन्ते अपानेऽत्यादिनाआपानो ज्ञानधातौ त्रिविध इति भवेत् प्राणवायुश्च शून्ये वायोमध्ये समानः शिखिनि पुनरुदानोऽम्भसि व्यान एव / भूम्यां नागोऽथ कूर्मोऽपि कृकरपवनो देवदत्तो धनञ्जश्चत्वारो वायुवह्नयोरपि पयसि महो संश्र(भ)वन्ति क्रमेण // 24 / / इह शरीरे अपानवायुर्ज्ञानधातोर्भवति; अत्रापि पञ्चम्यर्थे सप्तमी / स च विण्मूत्रशुक्रकर्षणतस्त्रिविध इति भवेत् प्राणवायुश्च शून्ये, आकाशधातोः, चकारात् सोऽपि त्रिविधो वामदक्षिणमध्यनाडीप्रवाहतः। वायोर्मध्ये वायुधातुस्वभावात् समानो भवति / शिखिन्यग्निधातौ पुनरुवानोऽम्भसि उदकधातौ व्यानः / भूम्यामिति भूधातौ नागः / 1. भो. Rai bSin (स्वभाव)। 1. भो. Yai Dag hGyur (संभवन्ति) / Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले 1 कायवाञ्चित्तोत्पत्ति-चतुरायसत्यनिर्णय-महोद्देशः अथ अनन्तर कूर्मादयश्चत्वारः वायुधातोः कूर्मो भवति, तेजोधातोः कुकरः, उदकधातोदेवदत्तः, पृथ्वीधातोधनञ्जयः। षोडशवर्षान्ते आकाशधातोरानन्दवायुः, ज्ञानधातोः सहजानन्दवायुः [93b] / धातुवशाच्छरीरे हस्तादिसन्धौ चक्रादीन्युच्यन्ते उष्णीषमित्यादिनाउष्णीषः शून्यधातौ भवति सुरनृणां ज्ञानधातौ च गुह्य ... 5 हृत्पद्मं वायुधातौ प्रकटशिखिनि वै कण्ठचक्रं स्फुरद्धि / तोये भ्रूमध्यपद्मं वसुवसुदलकं नाभिचक्रं च भूम्यां षट्सन्धिः पादपाण्योमहिजलहुतभुग मारुतेषु त्रिसंख्या // 25 // .. अत्र आकाशातोरुष्णोषकमलं चक्रं वा भवति / दलसंख्या वक्ष्यमाणे वक्तव्या। सुरनणां ज्ञानधातोश्च गुह्यं भवति, गुह्यकमलमित्यर्थः। हृत्पनं वायुधातोर्भवति / 10 प्रकटशिखिनः कण्ठचक्र भवति / स्फुरत् (स्फुटम्'), हिनिश्चये, तोयधातौ भ्रूमध्यपनम् / वसुवसु चतुःषष्टिदलकं नाभिचक्र (पद्म२)भ मिधातौ भवति / षट्सन्धिरिति बहुवचने एकवचनम् / पादपाण्योमिपादे तिस्रो भूमिधातोः सत्त्वरजस्तमोगुणानां भेदात् भवन्ति / महोति हस्वो भपर्यायः। दक्षिणपादे तिस्रः उदकधातोर्गणत्रयभेदात इति; वामहस्ते तिस्रोऽग्निगुणत्रयभेदादिति; दक्षिणहस्ते तिस्रो वायुगुणत्रयभेदात् मार 15 तेषु त्रिसंख्येति / द्वादश चक्राणि वक्ष्यमाणे वक्तव्यानीति अष्टादशचक्रनियमः / इदानीं धातुवशादगुल्यो(ल्यु)त्पादमाह भू मोत्यादिनाभूम्यादौ पञ्चधातौ त्रिविधगुणवशात् पादपाण्योर्बभूवुः अगुल्योऽङ्गुष्ठकाद्यास्त्रिगुणितदशकाः पर्वरूपाः समस्ताः / संग्राह्यास्ता नखान्ताः पुनरपि दशनान्ये च तत्त्वप्रभेदै . 20 रन्यद् यल्लोमकान्तं भवति वरतनौ तत् तदेवञ्च धातौ // 26 // इह हस्तपादयोरङ्गुष्ठकाद्याः कनिष्ठान्ताः; वामे दक्षिणे च पञ्चधातुगुणत्रयस्वभावेन त्रिपर्वात्मिकाः। ततः[94a]पृथ्वीधातुवशादगुष्ठको भवति, पृथिवीधातुगुणत्रयवशाङ्गुष्ठपर्वाः त्रयः / एवं तोयधातुस्वभावेन तर्जनी, तथा तेजोधातुस्वभावेन मध्यमा; एवं वायुधातुस्वाभावेनानामिका, आकाशधातुस्वभावेन कनिष्ठिका / यथा वामहस्ते तथा 25 दक्षिणेऽपि / एवं पादयोविज्ञेया इति / हस्तद्वये पादद्वयेऽपि त्रिगुणितदशकास्त्रिशत् पर्वरूपाः समस्ता संग्राह्यास्ता नखान्ताः। दशनान्युच्यन्ते-अत्र यदि प्रथम बालस्योर्ध्व दन्तद्वयं भवति, तदा दक्षिणदन्तभूमिस्वभावं भवति, वाम तोयस्वभावम् / अथाधो भवति, तदा दक्षिणवह्निस्वभावम्, 1. भो. gSal Bar (स्फुट)। 2. भो. Pad Ma (पप)। Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ अध्यात्मवाम वायुस्वभावः(वम्) / एवं पुनरूध्वं तेजोवायुस्वभावी, अधः पृथिवीतोयस्वभावी, पुनरधो वायुतेजःस्वभावी, पुनरूद्धे पृथ्वोतोयस्वभावौ। एवमनुलोमविलोमेनोधिश्चतुर्धातुस्वभावेन द्वात्रिंशद् दन्ता वेदितव्या। यदा वक्रदन्तास्तदा आकाशधातुः / एवं लोमकेशानीति धातुभेदात् ज्ञेयानि / __अन्य यल्लोमकान्तं भवति वरतनौ तत्' तदेव पञ्चधातो वेदितव्यम्, कायविवेक सार्द्धत्रिकोटिभेदं यावद् धातुविकाराः / रजःशुक्रवशाद् धातुविकारः, समुदयसत्यं कायविधै (वे)केनेति भगवतोक्तम् / इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहसिकायां विमलप्रभायां कायवाञ्चित्तोत्पत्तिदुःख-मार्ग-समुदय-निरोधसत्यनिर्णयमहोद्देशः प्रथमः // 1 // (2) समुदयसत्यादिमहोद्देशः इदानीमाधाराधेयसमुदाय उच्यते गुह्य त्यादिनागुह्योष्णीषे च नाभौ सहजजिनतनुनिःस्वभावस्वभावा हृच्चक्रे धर्मकायो भवति हि नृप सम्भोगचक्रे जिनस्य / बिन्दौ निर्माणकायो भवति गुणवशाच्चाधिदेवक्रमेण हृच्चक्र कण्ठचक्र शिरसि च कमलं धर्मसम्भोगशुद्धम् // .27 / / इह शरीरे षट् चक्राण्याधारभूतानि, चत्वारः काया आधेयाः; तेषु सहजकायस्त्रिकमलेषु स्वभावास्वभावभे[94b]देन / अतो गुह्मकमले उष्णोषकमले नाभिकमले विशुद्धकायोऽधिदेवता निःस्वभावा, अकल्पनास्वभावा, प्रतिसेनोपमा / हवये धर्मकायः, कण्ठाब्जे सम्भोगकायोऽधिदेवता कायभेदन / बिन्दाविति शिरसोऽब्जे शुद्धचक्रे निर्माणकायोऽषिदेवता। कायभेदेन नाभौ निर्माणचक्रे निर्माणकायोऽधिदेवता इति कायभेदे नियमः / गुणवशादिति चक्राणां गुणः; ज्ञानाकाशभूमिगुणः सहजकायाधाराणाम्; वायुगुणो धर्मकायाधारस्य; तेजोगुणः सम्भोगकायाधारस्य; उदकगुणो निर्माणकायाधारस्येति आधाराधेयभावः। उक्तक्रमेण हृच्चक्र' कण्ठचक्र शिरसि च कमलं धर्मसम्भोगशुद्ध मिति। नाभौ कण्ठे च गुह्य शिरसि च हृदये तद्वदुष्णीषमध्ये मातुर्भर्तुः क्रमेण त्रिविधमपि भवेत् कायवाञ्चित्तवज्रम् / चक्र रत्नं खपद्म जलजमसिवरं षटकुलं वज्रयुक्तं तान्यूधिस्त्रिनाध्यस्त्रिविधपथगताश्चन्द्रसूर्याग्निभेदैः // 28 // 1-2. ग. तत्तदेवश्च पाती / 3. भो, dBen Par (विवेक) / 4. क. ख. मूल / Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले समुदयसत्यादिमहोदेशः कायाधारभेदेन षट्कुलान्युच्यन्ते नाभावित्यादिना इह शरीरे षड्धातुवशेन षट्चक्रेषु षट्कुलानि भवन्ति यथासंख्यम्-मातुः कुलानि त्रीणि, भर्तुः पितुः कुलानि च / नाभौ पृथिवीचक्रे चक्रकुल भवति, कण्ठे अग्निपर्दो रत्नकुल भवति, गुह्य ज्ञानकमले कतिकाकुलं भवति, मातुर्यथासंख्यं कायो(य) वाञ्चित्तश्च / एवं शिरसि तोयकमले कमलकुलं भवति; हृदये वायुकमले खङ्गकुलं 5 T300 भवति / तद्वदुष्णोषमध्ये आकाशधातुकमले वजकुलं भवति / भर्तुः कायवाञ्चित्तञ्च यथाक्रमं रजःशुक्रयोः कुल भवति / पृथिव्यादिधातूत्पन्नानां विकाराणां यथानुक्रमेणेति / वायुनाडीभेदेन तान्येवाह तानीत्यादि इह प्राणापानत्रिनाडिकाभेदतः त्रिनाडीसंज्ञाल [95a] क्षणानि भवन्ति-विड्नाडी चक्कुलमपाने, सूर्यनाडी रत्नकुलं प्राणे, शुक्रनाडी कतिकाकुलम् अपाने इति मातुस्त्रि- 10 कुलानि कार्यवाचित्तानि; तथा चन्द्रनाडी प्राणे कमलकुलम्, अपाने मूत्रनाडी खगकुलम्, प्राणे मध्ये राहुनाडी वज्रकुलमिति भर्तुः कायवाञ्चित्तानीति षट्कुलनियमः / काये भावप्रवेश-धातुवर्णा उच्यन्ते काय इत्यादिनाकाये भावप्रवेशः खमिव समरसो भावमध्ये च कायो ज्ञातव्यो योगयुक्तः प्रकृतिगुणवशाद् धातुवर्णादिभेदैः / 15 पीतः कृष्णश्च वर्णस्त्वरुण इति सितो भूमिवाताग्नितोये ज्ञानाकाशे च नीलो भवति च हरितः कायभावप्रभेदैः // 29 // इह शरीरे ग्राहग्राहकभेदो धातूनां परस्परं भवति। तत्र यो ग्राहको धातुः सामग्रीवशात् स कायसंज्ञो भवति; यो ग्राह्यः सामग्रीवशात् स भावसंज्ञो भवति / तेन ग्राह्यग्राहकयोः परस्परमेकत्वं समरसत्वम्, अतः काये भावप्रवेशः। 29 समिव समरसो भावमध्ये च कायो, ज्ञातव्यो योगयुक्तैः प्रकृतिगुणवशाद पातुवर्णाविभेदैरिति / अत्र प्रकृतयः पृथिव्यादिधातवः कायेन्द्रियादीनां गन्धादिविषयाणां चतुण्णां भवन्ति / अत्र कायभेदेन कायेन्द्रियम्, गन्धविषयम्, पाय्विन्द्रियम्, आलापः पृथिवीकायस्वभावतः' पीतवर्णाः भाववशात्, वायुप्रकृतितः कृष्णवर्णाः / एवं घ्राणेन्द्रियम्, स्पर्शः, वागिन्द्रियम्, विस्रावो वायुप्रकृतयः कायभेदेन 25 कृष्णवर्णाः; पृथिवी भावभेदेन पीताः; चक्षुरिन्द्रियम्, रसः, पाणीन्द्रियम्, गतिस्तेजः प्रकृतयः कायवशाद् रक्तवर्णा भवन्ति, भाववशादुदकप्रकृतयः सिता भवन्ति / एवं जिह्वन्द्रियम्, वर्णो रूपम् (वर्णरूपम्), पादेन्द्रियम्, आदानमुदकप्रकृतयः कायभेदेन सितवर्णा भवन्ति, अग्निप्रकृतिभाववशाद् रक्तवर्णा भव[95b]न्ति / भूमिवाताग्नितोये भूप्रकृतौ वातप्रकृती अग्निप्रकृतौ तोयप्रकृतौ वर्णो वेदितव्यः / एवं श्रोत्रेन्द्रियम्, 30 धर्मधातुविषयम्, भगेन्द्रियम्, शुक्रच्यवनम्, एते आकाशप्रकृतयः कायभेदेन हरितवर्णाः, 1. ग पृथिवीप्रकृतयः / 2-3, भो Kha Dog Gi gZugs (वर्णरूपं) / Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 172 विमलप्रभायां : [ अध्यात्मज्ञानप्रकृतिभावभेदेन नीलाः। तथा मनेन्द्रियम् (मन इन्द्रियम्), शब्दः, दिव्येन्द्रियम्, मूत्रस्रावः, एते ज्ञानधातुप्रकृतयः काल(य) 'भेदेन नीलवर्णाः आकाशप्रकृतयो भावभेदेन हरिताः। अतो ज्ञानाकाशे च नीलो भवति च हरितः कायभावप्रभेदैरिति कायभाव, प्रकृतिवर्णनियमः। प्रज्ञोपायालिङ्गनमस्थिमांसादिधातूनामाह प्रज्ञेत्यादिप्रज्ञोपायोऽस्थिमांसं ससलिलरुधिरं पावको मूत्रमेव .:, वातो विट्शून्यशुक्र भवति वरतनी श्रीरजश्चित्तमेव / श्रोत्राच्छब्दादयोऽन्ये स्वजिनकुलवशाद् वाक्स्वरूपादयश्च एवं देव्यः सबुद्धा विषयविषयिणो मण्डले वेदितव्याः // 30 // इह शरीरे प्रज्ञा अस्थिधातुः, उपायो मांसधातुः, तयोः परस्परं संयोगः पृथिवीसंस्कारयोः, यत् कठिनतत्वं तत् पृथिवीधातुरिति ज्ञापकात् प्रज्ञोपायास्थिमांसमिति / एवं प्रज्ञोपायः ससलिलरुषिरमुदकधातुना सार्द्ध वेदनास्कन्धः। तथा पावक इति उष्णता मूत्रमिति संज्ञा, अनयो प्रज्ञोपायतः / ननु शुक्रधातुः संज्ञास्कन्धः, कथं मूत्र मित्युच्यते ? इह शरीरे या संज्ञा सा जातमात्रस्य बालस्य मूत्रस्रावतः, यन्महासुखज्ञानं 15 तत् षोडशवर्षावधेर्भवति शुक्रच्यवनधर्मतः। अतो मूत्रं संज्ञाधर्मः, शुक्रं ज्ञानधर्म इति विशेषात् मूत्रं संज्ञास्कन्ध इति / एवं* वातो विट् प्रज्ञोपायवायुधातु रूपस्कन्ध इति / शून्यमिति रजोधातुः, शुकमिति विज्ञानधातुः प्रज्ञोपाय इति / भवति वरतनौ श्रीरजो धर्मधातुविषयं बोधिचित्तमेव / एवं धोत्रात् शब्दादयोऽन्ये इति / शब्दः प्रज्ञा श्रोत्र उपायः, गन्धं प्रज्ञा घ्राणोपायः (घ्राण उपायः), रूपं प्रज्ञा चक्षुरुपायः, रसः प्रज्ञा 20 जिह्वोपायः, स्पर्शः प्रज्ञा काय उपायः, धर्मधातुः प्रज्ञा म[96a]न उपायः, विट्स्रावः प्रज्ञा गुद उपायः, गति प्रज्ञा पाद उपायः, आदानं प्रज्ञा कर उपायः, आलापः प्रज्ञा वागिन्द्रियमुपायः, मूत्रक्रिया प्रज्ञा भग उपायः, लिङ्ग वा शुक्रच्यवनप्रज्ञा शङ्खिनीन्द्रियमुपाय इति। - स्वजिनकुलवशात् वाक्स्वरूपादयश्च कर्मेन्द्रियाद्या इति / एवमुक्तक्रमेण देव्यः पृथिव्यादयः सबुद्घा वैरोचनादिभिः सार्द्ध विषयविषयिणो मण्डले वक्ष्यमाणे वक्तव्या इति परस्परं प्रज्ञोपायालिङ्गनविधिनियमः। इदानीं चन्द्रसूर्यशुक्ररजःकृत्यमुच्यते नाडोत्यादिनानाडीनां षट्सहस्रं दिनकरगुणितं गभंमध्ये च कृत्वा वर्षे पूर्णे च वृद्धि त्यजति शशधरोऽर्कश्च वृद्धि करोति / .. 1. भो. Lus ( काय ) / 2. क. ख. प्रज्ञोपाय इति / 3. क. पुस्तके नास्ति / 4. ग. सर्वबुद्धा। *+ख. पुस्तके नास्ति / Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले]. समुदयसत्यादिमहोद्देशः वर्षेषु द्वादशेषु त्यजति दिनकरो धातुवृद्धि स्वदेहे नाडीच्छेदं प्रसूते भवति दिनदिनं युग्मसंख्याक्रमेण // 31 // इह शरीरे गर्भमासादेकादूर्ध्व प्रत्यहं नाडीशतद्वयं भवति; मासमध्ये त्रिशद्भिदिनैः षट्सहस्रसंख्या भवति; दादशमासावधेः पष्ट्युत्तरत्रिशतदिनसप्ततिसहस्रसंख्या भवति / नाडीनां षट्सहस्र दिनकरगुणितमिति द्वादशगुणितं गर्भमध्ये च वृद्धि]' कत्वा। 5 चकाराद् वाह्येऽपि द्वादशमासान्तं यावत् / गर्भाधानम[स्य] एकमासं वर्जयित्वा वर्षे पूर्ण सति वृद्धि त्यजति शशधरः, चकारात् त्रयोदशभिर्मासैरिति अर्कश्च वृद्धि करोतीति / तप्तश्चन्द्रशुक्रनाडी धातु संख्यापरिच्छित्तौ सत्यां धातुवृद्धि रजः करोति द्वादशवर्षान्(णि) यावदिति / चकारात् शुक्रं च धातुवृद्धि करोति / वर्षेषु द्वावशेषु त्यजति दिनकरो धातुद्धि स्वदेहे स्त्रीणां रजः सम्भवो(वां) यावदिति सूर्यवृद्धिः / पुंसां षोडशवर्षावधेः 10 शुक्रससम्भवो(वां) यावदिति / चकारः समुच्चये। एवं नाडी[96b]च्छेदोऽपि(मपि) प्रसते सति भवति प्रतिदिनं यग्मसंख्याक्रमेणेति वक्ष्यमाणे विस्तरेण वक्तव्यमिति नाडीधातुवृद्धिनियमः। इदानीमाकाशादितत्त्वान्युच्यन्ते श्री भूतानोत्यादिनाश्री भूतानीन्द्रियाणि प्रभवति दशकं पञ्च कर्मेन्द्रियाणि 15 तन्मात्राः पञ्च चोक्ताः सगुणमपि मनो बुद्धयहङ्कारदिव्या / तत्त्वान्येतानि देहे त्रिभुवननिलये भुक्तिरेषा विभोश्च पञ्चस्कन्धात्मकस्य त्रिविधभवगतस्यात्मकर्माणितस्य // 32 // इह शरीरे बालकस्य श्री भूतानि पञ्चेन्द्रियाणि पञ्चाकाशादीनि श्रोत्रादीन्येकत्र दशकं भवति / एवं पञ्च कर्मेन्द्रियाणि तन्मात्रा इति शब्दतन्त्रमात्रादय इति 20 पञ्च चोक्ताः / सगुणमपि मनः, सत्त्वरजस्तमोभिः सहितं मनः / एवं बुद्धिरपि अहङ्कारोऽपि दिव्या प्रकृतिरपीति / / तत्त्वान्येतानि चतुर्विंशतिः देहे त्रिभुवननिलये बाह्ये मुक्तिरेषा विभोश्च / किम्भूतस्य ? पञ्चस्कन्धात्मकस्य लोकसंवृत्या त्रिविधभवगतस्यात्मकर्माजितस्य भुक्तिर्भवति / चतुर्विशत्यात्मिका प्रकृतिः पुरुषस्य ग्राह[क]धर्मिणो Tou ग्राह्यधर्मिणी प्रकृतिः / स्वाभाविका पुनर्ग्राह्यधर्मरहिताऽपरा प्रभास्वराऽस्तीति प्रकृति- 25 पुरुषनियमः। इदानीं शरीरे पृथिव्यादीनां लक्षणमुच्यते पृथ्वीत्यादिनापृथ्वी काठिन्यमम्बु द्रवमपि हविरुष्णं च वायुलघुत्वं छिद्रं शून्यं दृढास्थि त्वमरगिरवरो वृष्टिरत्रामृतं स्यात् / 1. भो. hPhel ba (वृद्धि)। 2. भो. mNal bZun bahi ZLa ba (गर्भाधानस्य मासं)। 3. ग. आह / 4-5. भो, mChog gi Ran bSin (दिव्ययाः प्रकृतिः ) / 23 Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 विमलप्रभायां [ अध्यात्मवज्रं शब्दश्च वायुं(यु) विडपि च घटिकाः श्वासनिःश्वासयुग्मं . युग्मैः संक्रान्तिरेका द्विगुणनवशतैः ज्योतिषा रन्ध्रभेदाः // 33 // इह शरीरे पृथिवी कठिनम्, अम्बु द्रवम् / अपि हविरुष्णत्वं च [97a] | वायुलघुत्वम्, यतः संकोचन प्रसारणं करोति / ' छिद्रं शून्यं दृढास्थि पृष्ठास्थिदण्डः कटि5 मारभ्य स्कन्धपर्यन्तं अमरगिरिवरो मेरुरिति / वृष्टिर्या बाह्य तत्र [सा अत्र] शरीरे अमृतं जिह्वालम्बिकाभ्यां स्तुकनावः / वजू शब्दो हृदये अन्त्राणां गजिर्या / वायु (चापः) इन्द्रधनुर्विडपि / घटिका या बाह्ये पष्टिपाणीपलात्मिका, सा देहे श्वासनिःश्वासयुग्मं निर्गमप्रवेशयुग्मं प्राणवायुरिति घटिका / एभियुग्मै द्विगुणनवशतैरित्यष्टा दशशतैः संक्रान्तिरेका भवति / बाह्ये संक्रान्तिः मासैस्त्रिशद्भिदिनैरिति अध्यात्मनि पञ्च 10 नाड्यः पञ्चमण्डलवाहिन्यः / ज्योतिष आदित्यादयो ग्रहास्ते रन्ध्रभेदा दश भवन्ति / अत्र गुदरन्ध्र चन्द्रः, मूत्ररन्ध्र रविः, शुक्ररन्ध्र कालाग्निः, मुखरन्ध्र राहुः, दक्षिणनेत्ररन्ध्र मङ्गलः, वामनेत्ररन्धं बुधः, दक्षिणघ्राणरन्ध्र बृहस्पतिः, वामघ्राणरन्ध्र शुक्रः, दक्षिणकर्णरन्ध्र मन्दः, वामकर्णरन्ध्र केतुरिति / एषां पुनर्मङ्गलादीनां षडिन्द्रियभेदो वक्ष्यमाणे पञ्चमपटले वक्तव्य इति पृथिव्यादिनियमः। . इदानीं नक्षत्रादिकमुच्यते नक्षत्रमित्यादिनानक्षत्रं दन्तपंक्तिस्त्वनुदिनघटिका सन्धिभेदाद् भवन्ति नाड्यो नद्यन्त्रमेघास्त्वपरशशिकला धातवो द्विस्वभावाः / .. लोमा यूका च शुक्रं कृमिकुलसहितं भूतयोनिश्चतुर्धा नन्दाद्यगुष्ठपर्वा(व)कमलमपि शिरो गुह्यपद्म च शक्तिः // 34 / / अभीचिना (अभिजिता) सहाष्टविंशन्नक्षत्राणि सप्तशलाकाचक्रभेदेन / चत्वारि दण्डनक्षत्राणि, चतुःकोणे शलाकानक्षत्राणाम्, एवं द्वात्रिंशदिति / दन्तानां क्रमोत्क्रमचारभेदेन चतुर्दश नक्षत्राण्यो(ण्य)चक्रे चतुर्दशाधश्चक्रे स्थितानि दन्तानां पंक्तिरूधिो भवति [97b] अर्द्धचक्रभेदत इति नक्षत्रं दन्तपंक्तिः / अत्र दिनघटिका सन्धिभेदा[व] भवन्ति इति प्रत्यहं षष्टिघटिका वर्षानुदिनैः श्वाससंख्या भवन्ति / ता घटिकाः षष्ट्युत्तर25 त्रिशतदिनानि भवन्ति / तानि च षष्ट्युत्तरत्रिशतसन्धयो भवन्तीति सन्धि[भेदाः] / नाड्यो नद्य इति इह लोकधातो बाह्य द्वासप्ततिसहस्रनद्यः समुद्रगामिन्यः, अध्यात्मनि द्वासप्ततिसहस्रनाड्यो रसवाहिन्यो भवन्तीति / अन्त्रमेघाः। अन्त्र इति अविभक्तिकं पदम्, अन्त्राणि मेघा भवन्तीति, रसस्रवणादिति गर्जनलक्षणात् / अपर शशिकला घातवो द्विस्वभावाः। अत्र कला द्विधा-लोमादिधातुविकारेणैका, शुक्रच्य90 वनधर्मेणेत्यपरा / अनयोः पुनर्या लोमादिधातुविकारेणावस्थिताः, ता अपि द्विधा अपरा 20 20 1. क. स. भवति / 2. क. सा. श्रुक० / 3. भो. gSu (चापः)। 4. ग. भेदेन / Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 175 पटले] समुदयसत्यादिमहोद्देशः शशिकला इति / अत्र सूक्ष्मलोमबृहल्लोमप्रतिपत् द्वितीया, एवं त्वक् तृतीया चतुर्थी, रक्तं पञ्चमी षष्ठी, एवं मांसः सप्तमी अष्टमी, तथा नाड्यो नवमी दशमी, एवमस्थीनि एकादशी द्वादशी, तथा मज्जा त्रयोदशी चतुर्दशी, एवं शुक्रं पञ्चदशी षोडशी कला, धातवो द्विस्वभावा इति नियमः। इदानीं भूतयोनिरुच्यते लोमेत्यादिना___ इह लोकधातौ चतुर्षा भूतयोनिः-इह पृथिवीयोनिः स्थावरा बाह्य, अध्यात्मनि लोमानि; बाह्य वायुयोनिरण्डजाः, अध्यात्मनि यूकाः; बाह्य उदकयोनिः कृमिकुलादयः संस्वेदजाः, शरीरेऽपि कृमिकुलादीनि, बाह्य जरायुजाः शुक्रसम्भूता, अध्यात्मनि शुक्रमेव; बाह्य ऽनुक्तत्वादिति आकाशधातुः रसरूपा उपपादुकाः, अध्यात्मन्यण्डरूपा सूक्ष्मप्राणिनः इति भूतयोनिश्चतुर्धा च / . 10 ____नन्दाधङ्गुष्ठपर्वमि(इ)ति / इह बाह्य प्रतिपदादयः पञ्चपञ्चतिथयो नन्दादय उच्यन्ते / ते च शुक्लकृष्णपक्षभेदेन कनिष्ठाङ्गुष्ठादिना त्रित्रिपर्वस्वभावेन वामकराङ्गुलीपर्वा(णि) नन्दादयो भवन्ति, आकाशादिधातुभेदेन / दक्षिणकरामुलीपर्वा(णि) पृथिव्यादिभेदेन, वृद्धाङ्गुष्ठादिपर्वभेदेन' पञ्चदश; एवं पादाङ्गुलीपर्वा(णि) द्वि[98a]तीयमासतिथिभेदेन ज्ञेया(नि) इति / एवं प्रत्येकऋतुभेदेन वर्षे षट् परिवर्ता भवन्ति 15 षड्ऋतुभिरिति नन्दाद्यङ्गुष्ठपर्वनियमः / / कमलमपि शिरो नाभिपमञ्च शक्तिरिति सहजतनुर्भवतीति पूर्वोक्तविधिनेति शक्तिनियमः। इदानीं स्वर्गादय उच्यन्ते ब्रह्माण्ड[मि]त्यादिनाब्रह्माण्डं स्वर्गलोको वरकरचरणौ मर्त्यपाताललोको अब्धिद्वीपाश्च शैला द्रवमृदुकठिना धातवस्त्रिस्वभावाः / क्षाराब्धि मूत्रमेषां शिखिचलवलयं रक्तचर्माणि राजन् केशाः सिद्धाः समस्तास्त्रिभुवननिलयेऽनेकभेदैश्च सिद्धाः // 35 // इह शरीरे ब्रह्माण्डमुष्णीषात् कण्ठचक्रपर्यन्तं स्वर्गलोको भवति / वरकरौ / मर्त्यलोको भवति / चरणौ पाताललोको भवति / अब्धयश्च द्वीपाश्चाब्धिद्वोपाः। 25 शैलाश्च सप्त यथासंख्यं द्रवधातवः। शरीरे सप्त समुद्राः। तेषु क्षारसमुद्रो मूत्रम्, मद्यसमुद्रः प्रस्वेदः, उदकसमुद्रः स्तुकः दुम्धसमुद्रः स्त्रीणां दुग्धो नराणां श्लेष्मधातुः, दधिसमुद्रः शिरोमस्तिष्कम्, घृतसमुद्रो वसाः, मधुसमुद्रः शुक्रमिति / 1. ग. वृद्धाङ्गुष्ठपर्वादिभेदेन / 2. क. ख. चित्त; भो. Dus (ऋतु ) / 3. क. ख. श्र कः। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 विमलप्रभायो [ अध्यात्मतथा द्वीपाः। द्वादशारं जम्बूद्वीपम्, हस्तपादद्वादशखण्डेषु; मांसं रौद्रम्, कालजं क्रौश्चम्, किन्नरज बुक्कम्, कुशं मेदम्, सिताभं मूत्रम्, चन्द्र नाड्य इति मृदुधातवः / शैला इति वज्रपर्वताः पादकरनखाः। शीताद्रिः करास्थीनि, द्रोण उपवाह्वस्थीनि, मणिकरो बाह्वस्थीनि, निषढः(टः) पादास्थीनि, मन्द्रराद्रिः जङ्घास्थीनि, 5 नीलाभ ऊर्वस्थीनि इति कठिनधातवः सप्तशैलाः / अष्टमो मेरुः, शरीरकङ्कालं कटिमारम्य स्कन्धपर्यन्तमिति नियमः / द्रवमृदुकठिना धातवस्त्रिस्वभावाः / शिखिचलवलय[98b]मिति शिखिवलयं रक्तम्, वायुवलयं चर्माणि / राजन् इत्यामन्त्रणम् / केशाः सिद्धाः समस्तास्त्रिभुवन निलयऽनेकभेदैश्च सिद्धा इति / इह बाह्य लोकधातो त्रिधा सिद्धाः-खेचराः, भूचराः, T 302 10 पातालवासिनः / तेषु खेचराः शिरोरुहाः, भूचराः कक्षसम्भूताः, पातालवासिनो भग लिङ्गसम्भूताः / लोमानुक्तत्वात् सार्द्धत्रिकोटिलक्षणा इति स्वर्गादिनियमः। . . इदानीमग्नित्रयमुच्यते हृदित्यादिनाहृत्कण्ठे नाभिपद्मे पविरविशिखिनस्तत् स्फुरन्ति क्रमेण धन्वाकारे च वृत्ते त्वनुदिनहवने चाब्धिकोणे च कुण्डे / 15 तेषामूा परोऽग्निः स्फुरदमलकरो ज्ञानमूर्तिस्तमोऽन्ते यस्मिन् सूर्यो न विद्युत्पतिशशधरो न ग्रहास्तारकाद्याः / / 36 // इह शरीरे दक्षिणाग्निर्गार्हपत्यमावहनीयोऽग्नित्रयम् / यथासंख्यं हृत्पद्म धन्वाकारे पवि(:) विद्युदग्निः, कण्ठकमले वृत्ते सूर्याग्निर्गार्हपत्यम्, नाभौ चतुरस्र कुण्डे आहवनीयः क्रव्यादाग्निरिति स्फुरन्ति क्रमेण / अनुदिनहवने चाब्धिकोणे च कुण्ड 20 [इति] नियमः / तेषामूचे परोऽग्निः स्फुरदमलकरो ज्ञानमूर्तिस्तमोऽन्ते मुहकमले ललाटकमलेऽच्छिन्नः। यस्मिन् स्थाने सूर्यो न विद्युत्पतिशशधरो न प्रहास्तारकाद्याः, आदितः क्रव्यादाग्निरिति चतुर्थः सत्योऽग्निज्ञानमूर्तिरित्यग्नित्रयनियमः / [99a] इदानीं वारघटिकादय उच्यन्ते वारा इत्यादिनावारा हृत्पद्मपत्रे प्रकटितघटिका नाभिपद्म च षष्टिभूमध्येऽहः पदं वै मनुरपि नृप सम्भोगचक्रेऽपि चर्कम् / ऋक्षाणां नाभिपद्म पुनरपि घटिका योगिना वेदितव्या नाड्यः पाणीपलानि स्फुटसकलतनौ हस्तपादादिसन्धौ / / 37 // इह बाह्ये सप्तकाराः। अष्टमी कुलिका भुक्तिः शरीरे ते हकमलदलेष्वष्टष्वष्टौ भवन्ति-पूर्वदले आदित्यः, आग्नेय्यां सोमः, दक्षिणे मङ्गलः, नैऋत्ये बुधः, वारुण्ये Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले 1 समुदयसत्यादिमहोदेशः बृहस्पतिः, वायव्ये शुक्रः, कुवेरे शनिः, ईशाने कूलिकाभोगे केतुः', अपरभोगार्धे राहुरिति प्रकटितघटिका नाभिपच षष्टिः। दल चतस्रः शून्यघटिकादलानि, शेषाणि षष्टिदलानि षष्टिमण्डलवाहिन्यः दलानि षष्टिघटिका इति प्रत्येकवारस्य षष्टिसंख्या / 5 मध्ये षोडशदलेषु दलद्वयं शून्यवाहकम् / चतुर्दशदलेषु चतुर्दश पदानि चन्द्रस्य भूताभूतेष्वित्यादीनि / तत्र प्रथमदले भृता(भूता) इति पञ्चघटिकात्मकं पदम्; एवं द्वितीये 5 तृतीये / वेदा इति चतुर्थघटिकात्मकः चतुर्थदले / शिखि[नि] तिस्रो नाड्यः पश्चमे पदम् / कर इति द्विघटिकात्मकं पदं षष्ठदले। शशिन इति एकघटिकात्मक पदं सप्तमं सप्तमे दले / एवं विलोमेनाष्टमे एकघर्षाटकात्मक" पदम्, नवमे द्विघटिकात्मकम्, दशमे विघटिकात्मकम्, एकादशमे(शे) चतुर्घटिकात्मकम्, द्वादशमे(शे) पञ्चघटिकात्मकम्, त्रयोदशे चतुर्दशेऽप्येवं ज्ञेयमिति / चन्द्रपदानि मनुसंख्यकानि भवन्ति / नृप इत्या- 10 मन्त्रणम् / सम्भोगचक्रे कण्ठचक्रे द्वात्रिंशद्दलेषु दलचतुष्टयं शून्यम् / अन्येष्वष्टाविंशतिदलेषु अभीचि(अभिजित)सहितान्यष्टाविंशत् ऋक्षाणि भवन्ति; तानि वामावर्तेन पूर्वसप्तशलाकासू मध्ये मध्यमायां रेवत्यन्तेष / अश्विनी द्वितीयायाम, भरणी तृतीयायाम, कृत्तिका चतुर्थ्याम्; ततो दण्डनक्षत्रं स(श)लाका सप्त सप्तदलसंज्ञा नाड्य इति / तत उत्तरस(श)लाकासु सप्तसु वामावर्तेन प्रथमस(श)लाकायां रोहिणी, द्वितीयायां मृग- 15 शिरा, तृतीयायामा, चतुर्थ्यां पुनर्वसुः, पञ्चम्यां पुष्यः, षठ्यामश्लेषा, सप्तम्यां मघा, तत एवमन्यापि वेदितव्या इति / ऋक्षाणां नाभिपयेषु पुनरपि घटिकाः षष्टि वेदितव्येति / नाडयः पाणीपलानि षष्टिः, षष्टीनां षट्त्रिंशत् श] तानि स्फुटसकलतनो हस्तपादाविसन्धाविति वक्ष्यमाणे वक्तव्यो विस्तरेणेति वारादिनियमः [99b] / इदानीं प्राणशक्तेर्नाभ्यादिचक्रमणमुच्यते नाभीत्यादिनानाभ्यब्जे सूर्यपत्रे भ्रमति परकला संक्रमन्ती क्रमेण संक्रान्तिः प्राणयुग्मैद्विगुणनवशतैः ककिलग्ने नरेन्द्र। यस्मिन् लग्ने स्थितोऽर्को भ्रमति दिननिशं तत्र सा वेदितव्या ज्ञातव्यं लग्नमानं धनमृणविषुवं चायनं सव्यमानम् / / 38 // इह यथा बाह्य सूर्यो द्वादशराशिषु वर्षसंक्रान्तिभेदेन भ्रमति, तथाध्यात्मनि 25 द्वादशराशिषु प्रतिदिनं द्वादशसंक्रान्तिभेदेन प्राणशक्तिश्च भ्रमति / नाम्यब्जे सूर्यपत्र भ्रमति परकला प्राणशक्तिः संक्रमन्ती क्रमेण द्वादशराशिपत्रेषु / संक्रान्तिः प्राणयुग्मैद्विगुणनवशतेरिति / इह बाह्य सूर्यस्याष्टादशशतैर्दण्डैरेकसंक्रान्तिर्भवति, तथा 1. क. ख. सति; ग. शनिः; भो mJug Rins ( केतु ) / 2. क. ख. पुस्तके - 'दल' इति नास्ति / 3. क. ख. पुस्तके 'दलानि' इति नास्ति / 4. क. ख. भृताभृतेषु; भो. hByui Das hByut be mDah (भूताभूतेषु) / 5.6. क. ख. एकघटिकापदम् / 7. मो. brGya Phrag Sum CurTsa Drug (षट्त्रिंशत् शतानि)। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ अध्यात्मश्वासैरष्टादशशतैः प्राणशक्तिरेकदले संक्रान्तिर्भवति / सा च कक्कि(कर्कट)लग्ने नरेन्द्र / इह बाह्य सूर्यस्य कर्कटो जन्मराशिः। एवं सर्वजातकानां यस्मिन् लग्ने जन्म भवति, सा राशिः कर्कटसंज्ञा वेदितव्या 'प्राणजन्मराशि स्थानीया' इति न्यायात् / कक्कि(कर्कट)लग्ने नरेन्द्र इत्यामन्त्रणम् / यस्मिन् लग्ने बाह्य स्थितोऽकं 5 उदयकालात भ्रमति दिननिशं तत्र सा वेदितव्या सप्तस(शलाकाभेदेन / ज्ञातव्या (व्यं) लग्नमानं / यथा बाह्ये सूर्यस्य संक्रान्तिरूनाधिका दिनैर्वेदितव्या, तथाध्यात्मनि ऊनाधिकश्वासर्वेदितव्येति सूर्यस्य दण्डभेदेन शरीरे श्वासनियमः / प्राणस्य ऋणधनविषुवं कर्कटादिषु रविका[पाद]वशेन ऋणम्, मकरादिषु धनम् / ज्योतिषोक्तविधिना विषुवं प्रतिसंक्रान्तिदिनं सपादषट्पञ्चाशद्दण्डात्मकमिति बाह्य , अध्यात्मनि श्वासात्मकं प्रति10 लग्नसंक्रान्तिभेदेनेति द्वादशसंक्रान्तिभ्रमणम् / इदानीं प्रत्येककमलदले पञ्चमण्डलप्रवाह उच्यते एकेक इत्यादिना- . . एकैके पद्मपत्रे प्रवहति धरणी पश्चिमे चोत्तरेऽम्बु वह्निः सव्ये च पूर्वे प्रवहति पवनः पत्रमध्ये च शून्यम् / संक्रान्ति(:) [100a] पञ्चभेदैः प्रवहति विषुवं होननिःश्वासषष्टिः 15 एवं संक्रान्तिभेदाः प्रतिदिनसमये लग्नभेदैर्भवन्ति / / 39 // ... इह बाह्ये सूर्यस्य एकैकसंक्रान्तौ पञ्चमण्डलभोगाः / त्रिशदिनैः पञ्चमण्डलभोगः; षड्दिनैः षष्ठ्युत्तरत्रिंशतदण्डैरेकमण्डलभोगः; तथाध्यात्मन्यष्टादशशतैः श्वासैः पञ्चमण्डलभोगः, षष्ठयुत्तरत्रिंशतश्वासैरेकमण्डलभोगो भवति(तीति) नियमः / अत्र प्रत्येकसंक्रान्तिदले पञ्च स्थानानि भवन्ति–दलस्य पश्चिममुत्तरं दक्षिणं पूर्व मध्यम् / तत्र प्रत्येके पद्मपत्रैकैके प्रवहति धरणी-मण्डलं पश्चिमे दलस्योत्तरेऽम्बुमण्डलं वहति, वह्निमण्डलं सम्ये वहति, पुनः पूर्वे प्रवहति पवनमण्डलम् / पत्रमध्ये च शून्यमण्डलं वहति / प्रत्येक षष्ठ्युत्तरनिःश्वासशतत्रयं प्राणशक्तिरिति एवं संक्रान्तिः पञ्चभेदैः भवति प्रत्येका। एषु मण्डलेषु षष्ठयुत्तरत्रिशतश्वासमध्ये सपादएकादशैकादशश्वासान् गृहीत्वा प्रवहति विषुवं लग्नोदयाभिसन्धौ, होननिःश्वासषष्टिरिति सत्रिपादश्वासत्रयोनानुवहति श्वासान् सपाद७ षट्पञ्चाशदिति / एवं संक्रान्तिभेदो (भेदाः) अध्यात्मनि द्वादशलग्नभेदैर्भवन्ति, इति संक्रान्तिनियमः। इदानीं पञ्चमण्डलाधिदेवा उच्यन्ते शून्येत्यादिनाशूनाद्यं पञ्च तत्त्वं प्रवहति नियतं चोत्तरे क्ष्मादिसव्ये राह्वग्नी चन्द्रसूर्यो बुद्धमहीतनयौ दैत्यमन्त्री गुरुश्च / केतुर्मन्दश्च खादिष्विति दशपतयः क्षेत्रिणो मण्डलेषु - षण्मासं चन्द्र ईशो भवति नरपते चोत्तरे दक्षिणेऽर्कः // 40 // Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] समुदयसत्यादिमहोद्देशः इह बाह्ये सूर्यस्य मेषादिविषमलग्ने शून्यमण्डलादिभोगः, वृषभादिसमलग्ने पृथिवीमण्डलादिभो[100b] गः; तथाध्यात्मनि शून्याचं पञ्च तत्त्वमिति शून्यं वायुरग्निस्तोयं पृथिवीमण्डलं प्रवहति नियतमुत्तरे वामनासापुटे / मावि(दी)ति पृथिव्यप्तेजोवायुशून्यमण्डलं सव्यनासापुटे वहति / एषु वाम(अपसव्य)सव्येषु दशमण्डलेषु यथासंख्यं 1303 वामे शून्यमण्लं राहुरधिदेवता प्रवाहकाले; दक्षिणे कालाग्निः; वामे वायुमण्डले चन्द्रः, 5. दक्षिणे सूर्यः; वामे वह्निमण्डले बुधः, दक्षिणे मङ्गलः; वामे तोयमण्डले शुक्रः, दक्षिणे बृहस्पतिः; वामे पृथिवीमण्डले केतुः, दक्षिणे मन्दः'; एवं खाविषु मण्डलेष्वधिपतयो दश क्षेत्रिणो भवन्तीति / एवं षण्मासं चन्द्र ईशो भवति, मेषमिथुनसिंहतुलाधनुः, कुम्भराशौ वामनाड्यां चन्द्रः, शक्रधातूरीश उत्तरे; दक्षिणे वषभकर्कटकन्यावश्चिकमकरमीनराशौ; अर्को रजोधातुरीशो भवति / नरपत इत्यामन्त्रणमिति मण्डलाधिपति- 10 नियमः। इदानीं प्राणादयो वायव उच्यन्ते तस्येत्यादिनातस्योवं हृत्प्रदेशे वसुदलकमले संस्थितं नाडिचक्र प्राणाद्यं वायुवृन्दं रविशशिशिखिनो वामसव्ये च मध्ये / वामे नाडी शशाङ्को वहति खलु सिता दक्षिणे रक्तसूर्या 15 मध्ये कालाग्निरूपा प्रवहति विषुवे हीननिःश्वासषष्टिः // 41 // .. इह नाभिचक्रे गर्भे चतुर्दलात्मके, तद्बाह्ने अष्टदलात्मके, तबाहये द्वादश दलात्मके, तबाहये चतुःषष्टिदलात्मके / दलशब्देन नाड्यः श्वासमिण्यो' गृह्यन्ते / तस्य नाभिचक्रस्योर्ध्व सार्द्धद्वादशाङ्गुलादूवं हृत्प्रदेशे संस्थितम्, नाडीचक्रमष्टारम् अष्टनाड्यात्मकम् / तेषु प्राणाद्यं वायुवन्दं वसुदलकमले शशि- 20 रविशिखिनः / शिखोति राहुः / वामे चन्द्रनाडी शशाङ्को वहति सितवर्णा, दक्षिणे रक्तवर्णा सूर्यस्य नाडी व[10la]हति, अष्टसु दलेषु मध्ये कालाग्निरूपा नाडी राहुनाडी प्रवहति, विषुवे लग्नोदयाभिसन्धौ सपादषट्पञ्चाशत् श्वासानि(इ)ति / अस्मिन्नष्टारे हदब्जे प्रहरसंक्रान्तिनाड्यो वेदितव्याः। नासारन्ध्र पञ्चमण्डलवाहिन्योऽमी भवन्ति / नाड्या नाड्यां प्राणसञ्चारः सप्तविंशतिशतैः श्वासप्रश्वासैर्भवति सार्द्धसप्तदण्डैरिति / प्राणोऽपानः समानः कमलवसुदले मारुतश्चाप्युदानो व्यानो नागश्च कूर्मोऽथ कुकरपवनो देवदत्तो धनञ्जः / इत्येवं नाडि(डी)चक्रे दशविधपवनाः संस्थिताः कर्मभेदैः शङ्खिन्यन्तं त्विडाद्यं स्वहृदयकमलं नाभिचक्रं समस्तम् // 42 // 1. ख. मण्डः; भो. sPen pa (शनिः)। 2. क. मिणो। Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलामायां [ अध्यात्मतत्र प्राण झवं वहति; अपामो नाभ्यधो वहति; समानः पूर्वदलेऽधिदेवो रोहिणीनाड्याम्; उदान आग्नेयदले हस्तिजिह्वानाड्याम्; व्यानो दक्षिणदले पिङ्गलानाडयाम्; नागो नैऋत्यदले पूषानाड्याम्; कूर्मो वारुण्यदले जयानाड्याम् ; कृकरो वायव्यदलेऽलम्बुषानाड्याम्; देवदत्त उत्तरदले इडानाड्याम्; धनञ्जय ईशदले कुहानाज्याम्; सुषुम्नायां प्राणः, दिक्संख्या सं(शं)खिनीया स्रवति बोधिचित्तं तस्यामपानोऽधिदेवता / इत्येवं नाडि(डो)चक्र दशविधपवनाः संस्थिताः कर्मभेदैः / एषां प्राणादीनां सर्वेषां वा द्वासप्ततिनाडीसहस्रेषु व्याप्तिः, किन्त्वष्टस्थानेषु जन्माष्टानामिति / सं(शं)हिन्यन्तं स्विडाधं स्वहदयकमलं नाभिचक्रं समस्तम, जन्मस्थानं समानादीनामिति हृच्चक्रनियमः। इदानीं प्राणादिकृत्यमुच्यते प्राण इत्यादिनाप्राणः प्राणं करोत्यर्कशशिपथगतस्त्वन्नपानं समस्तम् आपानो नेत्यधस्तात् सकलसमरसं नेति काये समानः [101b] / काये स्पन्दत्युदानो मुखकरचरणीतनाटयं करोति व्यानो व्याधिं करोति प्रकृतिगुणवशाद् गात्रभङ्गं तथैव / / 43 // इह शरीरे प्राणः प्राणं बलं करोति अर्कशशिपथगतः सन्अर्कपथः पिङ्गला, रसना वा; शशिपथ इडा, ललना वा; तस्याः पथगत इति / तु निपातनार्थम् / अन्नपानं समस्तम्, यत् रसं भक्षितमुदकादिपीतम्, तत् सकलमपानवायुरधो नेतीत्यागमः / नयति सकलं समरसं तुल्यरसं यावत् काये समानो नाम वायुः, सप्तधातुषु समरसं करोतीत्यर्थः / काये स्पन्दत्युदानो नाम वायुर्मुखकरचरणैर्गीतनाट्यं करोति / अत्र शरीरे स एवोदानो मुखेन गीतादिकं हास्यालापादिकं करोति, करचरणैर्नाट्यं करोति, गमनादिकं चेति / व्यानो व्याधि करोति प्रकृतिगुणवशादिति उदकप्रकृतिवशाद् गात्रभङ्ग तथैव करोति यथा व्याधिम् / नागोऽप्युद्गारमेव स्फुटकरचरणात् संकुचन् कूर्मवायुः क्रोधं क्षोभं समस्तं स कृकरपवनो जृम्भिकां देवदत्तः / कायं पञ्चत्वगन्तुं(गतं)त्यजति(न)नरपते वायुरेको धनञ्जः एवं प्राणादिसर्वे प्रकृतिगतगुणान् वायवो न त्यजन्ति // 44 // नागोऽप्युद्गारं करोत्येव स्फुटकरचरणात् संकुचन् कूर्मवायुः; स इति क्रोध क्षोभ समस्तं कृकरो वायुः करोति; जम्भिकां देवदत्तः करोति; कायं पञ्चत्वं गतं घनञ्जयो वायुनं त्यजति / नरपते इत्यामन्त्रणम् / वायुरेको धनञ्जय इति / एवमुक्त32 क्रमेण वायवः प्राणादयः सर्वे प्रकृतिगतगुणान् वायवो न त्यजन्ति, [102a] आकाशा दिप्रकृतिगुणानिति प्राणादिकृत्यनियमः / Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ]. समुदयसत्यादिमहोद्देशः 181 इदानीं नाडीसंज्ञा तीथिकसंज्ञाभिरुच्यते पिङ्गेत्यादिनापिङ्गाः सूक्ष्मास्त्विडाद्यास्त्रिविधपथगता रोहिणी हस्तिजिह्वा पूषा षष्ठी जयाऽगापि च वसु नवमेऽलम्बुषा श्रीकुहे च। दिक्संख्या शङ्खिनी या स्रवति नरपते बोधिचित्तं सुखान्ते एतत् श्रीनाडिचक्रं भवति बहुविध सन्धिभेदैरनेकैः // 45 // / पिङ्गाः सूक्ष्मास्त्विडाद्यास्तिस्रो नाड्य इडादयः / त्रिविधपथगता इति चन्द्रपथगता इडा, सूर्यपथगता पिङ्गला, राहुपथगता सुषुम्ना इति रोहिणी चतुर्थी, हस्तिजिह्वा पञ्चमी, पूषा षष्ठो, जयाऽगेति सप्तमी, अपि वसु अष्टमी, अलम्बुषा नवमी, कुहा दिक्संख्या शङ्खिनी या दशमी शङ्खिनी बोधिचित्तं स्रवति सुखान्ते / एतत् श्रीनाडिचक्र' भवति बहुविधं सन्धिभेदैरनेकैरिति / अत्र शरीरे सन्धिभेदाः षष्ट्युत्तरत्रिशतसंख्यास्तैः 10 सन्धिभेदैः षष्ट्युत्तरत्रिशतनाडीचक्रभेदा भवन्तीति / प्राणादिवायुप्रकृत्यभेदा अप्येवं ज्ञेया इति नाडीचक्रनियमः। इन्द्रेऽग्नौ.याम्यदैत्ये सवरुणपवने यक्षरुद्रे च मध्ये एषु स्थानेषु शक्तिभ्रंमति दिननिशं तत्स्वरूपं भजन्ती। तस्योचं कण्ठचक्रे ग्रहगणसहितं संस्थितं चर्क्षचक्र ब्रह्माण्डे श्रीललाटे स्वरपरिकरितः (') श्वेतबिन्दु स्रवन् वै // 46 // इदानीं तस्मिन्नेव नाडीचक्रे इन्द्राद्यधिष्ठानमुच्यते इन्द्र इत्यादिना इह इन्द्रदले प्राणशक्तिरिन्द्रस्वभावं भजति प्रहरमेकं यावत्; अग्निदले अग्निस्वभावम्, याम्यदले यमस्वभावम्,नैऋत्यदले नैऋत्यस्वभावम्, वारुण्यदले वरुणस्वभावम्, वायव्यदले वायुस्वभावम्, धनददले धनदस्वभावम्, ईशदले रुद्रस्वभावम् / 20 एवमेष्वष्टदलेषु तत्स्वभावं भज[102b]न्ती भ्रमति प्राणशक्तिरिति इन्द्रादिस्वभावनियमः। इदानीं कण्ठचक्रमुच्यते इह हत्कमलस्योवं सार्द्धद्वादशाङ्गलान्ते कण्ठचक्रे ग्रहगणसहितं संस्थितं चर्क चक्रम् / चत्वारि दण्डनक्षत्राणि, अष्टाविंशति प्रधाननक्षत्राणि; एभित्रिंशद्दलकम् / 25 चतुर्दण्डनक्षत्राणि त्यक्त्वा प्राणस्याष्टाविंशद्दलकेष्वहोरात्रेण संक्रमणं षष्टिदण्डेभ्यो भागेन लब्धं प्रत्येकदले सञ्चार इति / ब्रह्माण्डे श्रीललाटे स्वरपरिकरितं श्वेतबिन्दुं प्रवन् वै / तस्यापि कण्ठकमलस्योर्ध्वं सार्द्धद्वादशाङ्गुलान्ते ललाटकमले षोडशदले दलद्वयं त्यक्त्वा चतुर्दशदलेषु प्राणस्याहोरात्रेण सञ्चारः; षष्टिदण्डेभ्यश्चतुर्दशभागलब्धेन प्रत्येकदलत्यागः। 15 १.ग. श्रीनाभिचक्रं / 2-3. क. पुस्तके नास्ति / 4. ग. 0 दलेषु / Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T 304 182 विमलपभायां [अभ्यासबिन्दुविसर्गौ कणिकायां वेदितव्यो चन्द्रपदवाहेति / पुनर्नाभिचके चतुःषष्टिनाच्यो भीमादिसंज्ञाभिः; हृदये अष्ट इडादिसंज्ञाभिः'; कण्ठेऽश्विन्यादिसंज्ञाचतुःसन्ध्यासंज्ञाभिः; ललाटनाड्यां प्रतिपदादिसंज्ञाभिः; उष्णीषे चतुःसन्ध्याभेदेन चतुःतत्त्वसंज्ञाभिः; इत्येषु कण्ठललाटकमलदलेष्वन्तर्भूतमष्टदलं चक्रं वेदितव्यम् / एवं नाभी हृदये कण्ठे ललाटे अष्टारचक्र पृथिव्यप्तेजोवायुस्वभावम्; उष्णीषे चतुर्दलं शून्यस्वभावम्; नाभौ चतुर्दल ज्ञानस्वभावम्; गुह्ये द्वात्रिंशद्दलकम्; बाह्य षोडशदलेषु स्वरनाड्यः; अन्तर्दशदलेषु स्कन्धधातुनाड्यः; ततोऽन्तर्दलेषु षट् शून्यनाड्य इति / एवं षट्चक्रसंख्या षट्पञ्चाशदधिकैकशतं षट्चक्रेषु वक्ष्यमाणेषु वक्तव्यमिति] षट्चक्रनियमः। मूले पृथ्व्यम्बु वामे प्रवहति हुतभुक् दक्षिणे मूनि वायुमंध्ये व्योमद्वयोश्च प्रवहति विषुवं नासरन्ध्रक्रमेण / भिन्दन्त्येतानि शक्तिर्वजति परपदं द्वादशान्तं कलान्तं क्षेत्राद्या हस्तपादे करकमलपुटेऽङ्गुष्ठकान्ताः समस्ताः // 47 // इदानीं नासापुटद्वये पञ्चमण्डलप्रवाह उच्यते मूल इत्यादिना इह वामनासापुटे दक्षिणे च मूले अधो भागे पृथिवीमण्डल वहति, अम्बु वामे 15 वहति वामे द[103a]क्षिणे च नासापुटे; नासापुटद्वयमध्यरेखाभिमुखं सर्वेषाश्चोत्तरस्थो मेरुरिति ज्ञापकात् / प्रवहति हुतभु मण्डलं बक्षिणे, दक्षिणं च उभयोत्तरयोर्बाहयं नासारन्ध्रभागमिति / मूनि वायुमण्डलं वहति उभयो सापुटयोः, मध्ये व्योमद्वयोनर्नासापुटयोः पृथ्व्यप्तेजोवायुमण्डलमध्ये व्योममण्डलं वहति; वामलग्नसञ्चारे वामे, दक्षिण लग्नसञ्चारे दक्षिणे मण्डलप्रवाहः। द्वयोर्नासापुटयोः पुनर्योगपद्येन विषुवं ज्ञानमण्डलं 20 वहति प्राणशक्तिरिति / भिन्वन्त्येतानि नाभिहत्कण्ठललाटोष्णीषनासापुटमण्डलानि भिन्दन्ती दण्डराशिप्रहरनक्षत्रतिथि सन्ध्यामण्डलभेदैरिति।शक्तिः प्राणशक्तिर्वजति परपदं निरालम्बं द्वादशान्तं द्वादशाङ्गुलान्तमिति, कलान्तं षोडशकलान्तमिति / इह पृथिवीमण्डलप्रवाहवायुर्नासापुटात् द्वादशाङ्गुलं व्रजति, ततो निवर्तते; उदकमण्डलवायुस्त्रयो दशाङ्गलं व्रजति, ततो निवर्तते; तेजोमण्डलवायुश्चतुर्दशाङ्गुलं व्रजति, ततो निवर्तते; 25 वायुमण्डलवायुः पञ्चदशाङ्गुलं व्रजति, ततो निवर्तते; शून्यमण्डलवायुः षोडशाङ्गुलं व्रजति, ततो निवर्तते; ज्ञानमण्डलवायुः पृथिवीमण्डलान्तेषु मध्ये प्रविष्टा() द्वादशाङ्गुल वहति पुटद्वये, आकाशान्ते मध्यमा प्रविष्टा षोडशाङ्गुलं बहति / इह यदा बाह्ये वृद्धि गच्छति, तदाऽध्यात्मनि ह्रस्वो भवति; यदा षोडशादी बहिह्रस्वो भवति वायुनाडीवशेन, तदा नाभौ वर्द्धन्ते चतुरङ्गुलानीति प्राणशक्तिप्रवाहनियमः।। इदानी क्षेत्रादय उच्यन्ते क्षेत्र इत्यादिनाइह शरीरे क्षेत्रद्वयं बाहुसन्धिद्वये, उपक्षेत्रमुरुसन्ध(न्धि)द्वये, छन्दोहद्वयं उपबाहु १.क. ख. इन्द्रादिसंज्ञाभिः। 2. क. ख. पुनर्योगपदेन / ३.क. ख. पुस्तके 'तिथि इति नास्ति / 4, क, ख, * मण्डलान्ते सा / Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ]. चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः 183 सन्धिद्वये, उपच्छन्दोहं जानुसन्धिद्वये, मेलापकद्वयं करसन्धिद्वये, उपमेलापकं पादसन्धिद्वये, श्मशानद्वयं करतलद्वये, उपश्मशानद्वयं पादतलद्वये, चतुर्महाश्मशानानि कराङ्गलिद्वये, उप(महा)श्मशानानि' चत्वारि पादाङ्गुलिद्वये इति क्षेत्रादिनि[103b]यमः / इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां' लघुकालचक्रतन्त्रराजटोकायां' द्वादशसाहस्रिकायां विमलप्रभायां / समुदयसत्यादिमहोद्देशो द्वितीयः॥२॥ (3) चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः इदानीं चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्धं स्वदेहे उच्यते चक्रीत्यादिनाचक्री वजे स्वदेहे सुरवरपतयो द्वादशाङ्गा निरुद्धाः सम्यग्ज्ञानं हि कल्की गजतुरगरथाः किङ्करायंप्रमाणाः / प्रत्येकं रुद्रसंज्ञा प्रभवति हनूमान् श्रावकं प्राणिनां च पापं म्लेच्छेन्द्रदुष्टस्त्वकुशलमपि(पथि) यत् कृन्मतिर्दुःखदाता // 48 // . इह स्वदेहे मनुष्यदेहे यो बाह्य चक्री प्रथमपटले उक्तः, स देहे वजी चित्तवज्र इत्यर्थः / ये सुरवरपतयो द्वादश ईश्वरादयः, ते द्वादशाङ्गा निक्खा इति / यः कल्को सम्यग्ज्ञानं स्वदेहे हि तस्माद्धेतोः / ये बाह्य गजतुरगरथाः किङ्करा आर्य-अप्रमाणा- 15 श्चत्वारो देहे, ते यो बाह्य खः स देहे प्रत्येकज्ञानसंज्ञी; यो बाह्य हनुमान् स स्वदेहे श्रावकज्ञानमिति स्वदेहे महा चक्री सपरिवार कल्की च भवति / तथा यो बाह्य म्लेच्छेन्द्रबुष्टोऽसौ पापचित्तं शरीरे / यो बाह्ये कृन्मतिदुःखदाता अकुशलपथ इति देहे / अश्वत्थामा त्वविद्या दनुबलसकलं मारपक्षश्चतुर्धा संहारस्तस्य युद्धे भवभयनिधनं श्रीजयो मोक्षमार्गः / कैलाशे (से) धर्मदानं भवभयहरणं द्रव्यपूर्णा च पृथ्वी पुत्रो ब्रह्मासुरेशस्त्रिदशनरगुरोः पृष्ठतश्चाग्रतो यः // 49 // मञ्जुश्रीलॊकनाथस्त्रिभुवनविजयी श्रीरजो बोधिचित्तं पृष्ठे ब्रह्मादिवंशा विविधमहितलेऽनेकबुद्धा विशुद्धाः / 1. भो. Ne bahi Dur Khrod Chen po ( उपमहाश्मशानानि ) / 2. क. ख. मूल / 3. क. ख. लघुतन्त्रराजकालचक्रटीकायां / 4. क. ख. ति / 5. क. ख. प्रमाणा; भो. Tshad Med pa (अप्रमाणा)। 6. भोटे नास्ति / 7-8. भोटे नास्ति / Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 - विमलप्रभायां [ अध्यात्मएवं म्लेच्छेन्द्रयुद्धं भवति हि नियतं देहिनां देहमध्ये मायारूपं तु बाह्ये खलु मखविषये म्लेच्छयुद्धं न युद्धम् // 50 // यो बाह्य अश्वत्थामा स देहे अविद्याप्रवृत्तिरिति; यद् बाह्य बनुबलं हस्त्यश्वपादातिकं स देहे मारपक्षश्चतुर्धा / संहारस्तस्य युद्ध, यो बाह्य म्लेच्छेषु तत् स्वदेहे 5 [104a] भवभयस्य निधनम् / श्रीजयो यो बाह्य महाचक्रिणः कल्किनश्च स स्वदेहे मोक्षमार्गलाभः। यद् बाह्य कैलाशे(से) धर्मदानं महाचक्रिणः तत् स्वदेहे भवभयहरणम् / या बाह्य द्रव्यपूर्णा धरित्री सा शरीरे धातुसमूहो विशुद्धः / बाह्य यो चक्रिणः पुत्रौ ब्रह्मासुरेशावभूताम्, पृष्ठतः एकखण्डे धर्मदेशकः, अग्रतोऽनखण्डे म्लेच्छधर्मक्षयार्थी। स मञ्जश्रीर्लोकनाथस्त्रिभुवनविजयी तत् स्वदेहे रजो बोधिचित्तं सुखदमिति प्रणिधानचित्तं प्रस्थानचित्तं च / पृष्ठे खण्डे ये ब्रह्मादिविविधवंशास्ते स्वदेहे अनेकबुद्धा विशुद्धाः स्कन्धधात्वायतनस्वभावा इति म्लेच्छेन्द्रयुद्धं भवति हि नियतं देहिनां देहमध्ये / मायारूपं तु बाह्य खलु मखविषये म्लेच्छयुद्धन युद्धमिति अस्य विस्तरो वक्ष्यमाणे पञ्चमपटले परमाक्षरज्ञानसिद्धौ वक्तव्य इति / . . इदानीं मध्यमा त्रिपक्षं त्रिवर्षभेदस्त्रिकुलादितन्त्रभेदः समाजादिक उच्यते कालाब्द इत्यादिना कालाब्दे वह्निसंख्येऽब्ददिनगणहते षट्कुल चायनाङ्कात् षट्त्रिंशन्मासभेदाद् रसगुणितरसाद् योगिनीनां कुलानि / ' वारच्छेदेन लब्धा प्रकटितनियता देवताः कालचके पक्षच्छेदेऽभिधानं भवति नरपते देवतादेवतीभिः // 51 // इह कालाब्दे मध्यमा'नाडोवर्षे वह्निसंख्ये त्रिवर्षसंख्ये अ[104b]ब्दविनगणहते षष्ट्यत्तरत्रिशतदिनहते सति अशीत्यत्तरसहस्रो दिनगणो भवति / तदेव त्रिवर्षं त्रिकलं कायवाक् चित्तकुलवर्षभेदेन सत्त्वरजस्तमः स्वभावमिति / ततो दिनगणादयनभेदेन अशीत्युत्तरशतभागेन लब्धानि षट्कुलानि भवन्ति / पुनर्मासभेदेन ततो दिनगणात् T 305_25 त्रिंशद्भागेन लब्धानि षत्रिंशत् कुलानि भवन्ति / रसगुणितरसादिति षड्भिर्गुणिताः षट्त्रिंशद्योगिनीनां कुलानि / एवं योगिनीनामुपायानामिति / ततोऽशीत्युत्तरसहस्रदिनगणात् वारच्छेदेन लब्धा प्रकटितनियता देवता कालचक्र माण्डलेया इति / चतुःपञ्चाशदधिकशतं शेषं प्रज्ञोपाययुगलम्; एवं षट्पञ्चाशदधिकशतं कालचक्रम्; सप्तभागावशेषं कुलिकास्थानाधिदैवं देवतादेवीचक्रं कुलिकालक्षणमिति; पुनस्तस्मात् पूर्वदिन 151 1. क, ख. ग. पुस्तकेषु 'मध्यमाया' इति दृश्यते; किन्तु 'मध्यमा' इत्येव सम्यक् प्रतीयते; भो: Tsa dBu Mahi Lo (मध्यमानाडोवर्षे)। 2. भो. rnal hByor pa rNam Kyi ho (योगिनाम्) / Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः 185 गणादशीत्युत्तरसहस्रात् पक्षच्छेदेऽभिधानमिति पञ्चदशभागेन लब्धाभिर्देवतादेवतीभिरभिधानं भवति / कालचक्राधिपतिमिथनेन साद्धं द्वासप्ततिदेवतादेवतीलक्षणमिति त्रिवर्षभेदैर्योगिनीतन्त्रनियमः; लोकसंवृत्या त्रिकुलषटकुलषट्त्रिंशत्कुलानि योगिनीतन्त्र इति योगिनीतन्त्रनियमः / / मायाजालं दिनाङ्गास्त्रि(ङ्गात् त्रि)विधमपि भवेद्रन्ध्रवेदेश्च सम्यक् / भूतो भूतार्णवैः स्याच्छिखिजलनिधिभिः श्रीसमाजर्तुभेदः / तत्त्वाख्यं षड्भिर्टानं त्वपरमपि तयोरर्धभेदैविभिन्नोभूयो मिश्रो द्विभेदस्त्रिदशनवदिशाभिश्च रन्ध्रः सतत्त्वैः // 52 // इदानी क्रियायोग-योगतन्त्राणि त्रिषट्प्रकारभेदेनोच्यते(न्ते) मायाजालमित्यादिना - 10 इह मध्यमात्रिपक्षदिनानि पञ्चचत्वारिंशदिनानि द्वादशगुणितानि तानि दिनाङ्गानि चत्वारिंशदधिकपञ्चशतसंख्यानि' भवन्ति प्रतिदिनद्वादशलग्नभेदादिति / तस्माद् दिनाङ्गात् चत्वारिंशदधिकपञ्चशताद् व्यवकलितं मायाजालं त्रिविषमपि भवेत्, एक रन्ध्रवेदैरेकोनपञ्चाशद्भिर्देवतायुग्मैर्भवति, भूतो द्वितीयं भूतार्णवेः स्यादिति पञ्चचत्वारिंशद्भिर्युग्मैर्देवतानां भवतीति / अपर शिखिजलनिषिभिः त्रयश्च- 15 त्वारिंशद्भिर्दवतायुग्मैरिति / अतो दिनाङ्गाद् व्यवकलितस्त्रिभे[105a]दैः सप्तत्रिंशदधिकशतसंख्या भवन्ति, द्विगुणदेवतादेव्यः चतुःसप्तत्यधिकद्विशतसंख्या भवन्ति, इति मायाजालनियमः। अस्य प्रपञ्चार्थः पञ्चमपटले वक्तव्य इति मायाजालक्रियायोगतन्त्रनियमः। इदानीं षट्प्रकारः समाजभेद उच्यते तस्मात् व्यवकलितावशेषाद् दिनाङ्गात् श्रीसमाजर्तुभेद इति / तत्त्वाख्यमिति पञ्चविंशत्यात्मकम्, तस्माद् दिनाङ्गात् पञ्चविंशद्भिर्व्यवकलितैर्देवतायुग्मैर्भवति / अपरमतः पञ्चविंशतिः षड्भिीनमेकोनविंशत्यात्मकम्, एकोनविंशतिभिर्देवताभिर्व्यवकलितैरिति / अपरमपि तयोः पञ्चविंशत्येकोनविंशत्यात्मकयोरर्धभेदैविभिन्नो भेदो भवति / पञ्चविंशत्यर्धः सार्द्धद्वादशैकोनविंशत्यर्द्धः सार्द्धनव, अतोऽर्द्धः सार्द्ध द्वादशे 25 प्रविशति / तत्र एकोनवात्मकः समाजः, अपरस्त्रयोदशात्मकः / भूयोऽपरो मिश्रो विभेदो भवति समाजः। त्रिदश इति त्रयोदश। नवदिशा एकोनविंशतिः। एभिस्त्रिदशनवदिशाभिश्च द्वात्रिंद्भिदेवतायुग्मै समाजो भवति; रन्ध्रनवभिः सतत्त्वैः पञ्चविंशद्भिः सहः द्वितीयः समाजः चतुस्त्रिशद्भिर्देवतायुग्मैर्भवति / एवं समाजः षड्भेदभिन्नः / 1-2. क. पुस्तके '०'संख्यानि' इत्यारम्य •'पञ्चशताद्' यावत् नास्ति / 3. क. दिनाङ्गा। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 146 विमलप्रभाग [ अध्यात्मएषु षट्षु तन्त्रराजेषु द्वात्रिंशदधिकशतदेवतायुग्मैः संख्या द्विगुणिता देवतादेवतीसंख्या चतुःषष्ट्यधिकद्विशता इति / एवं समाजमायाजालेषु नवसु तन्त्रराजेष्वधिपतियुग्मेन साद्धं चत्वारिंशदधिकपञ्चशत' दिनाङ्गसंख्या देवतादेवत्यो भवन्ति / एषु तन्त्रेषु स्कन्धधात्वायतनचन्द्रसूर्यचरणनिष्पत्तिभेदेन भेदो गर्भे यथा तथा पश्चमपटले 5 आसनभेदेन वक्तव्य इति योगतन्त्रनियमः। इह गर्भे जातकस्य स्कन्धधातुनिष्पत्त्या नवात्मकः समाजः, तथा स्कन्धधातुसहजधर्मसम्भोगनिर्माणचक्रे निष्पत्त्या त्रयोदशात्मकः, तथा स्कन्धधातुचक्रविषयनिष्पत्त्या एकोऽनविंशत्यात्मकः, तथा स्कन्धधातुचक्रविषयषट्नेत्रादिनिष्पत्त्या पञ्चविंशत्यात्मक इति / तथा स्कन्धधातूचक्रविषयेन्द्रियकर्मेन्द्रियगुह्योष्णीषकमलनिष्पत्त्या द्वात्रिंशदा10 [105b]त्मक इति / तथा स्कन्धधातुषट्चक्रविषयेन्द्रियकर्मेन्द्रियदिव्येन्द्रियानन्दोपेत्या (अनिन्दानुपेत्य) चतुस्त्रिशदात्मकः समाज इति / गर्भाधानात् षोडशवर्षावधेर्यावत् षट्प्रकार उत्पादो बालानामिति समाजनियमः पञ्चमपटले विस्तरेण वक्तव्यः / एवं मायाजाले स्कन्धधातवो नवलोमाद्यष्टधातवो द्वादशायतनानि चतुश्चक्रसहितानि वातपित्तश्लेष्मसन्निपातधातुसहितानि षट्कर्मेन्द्रियाणीति त्रयश्चत्वारिंश15 दात्मको मायाजालः / उष्णीषगुह्यकमलसहितं पञ्चचत्वारिंशदात्मकमिति रागद्वेषमोह मानेन सार्द्धमेकोनपञ्चाशदात्मकमिति मायाजालनियमः पञ्चमपटले विस्तरेण वक्तव्य इति योगिनीयोगतन्त्रोत्पादनियमः। - इदानीं बाह्याध्यात्ममुद्रोच्यते - इह सर्वत्र हेतुना फलं मुद्रणीयम्, फलेन च हेतुर्मुद्रणीय इति / रजोधर्मित्वात् 20 सूर्यः प्रज्ञाहेतुः, शुक्रमित्वाच्चन्द्रः फलमुपायः। परापेक्षिकया शुक्रमित्याच्चन्द्रः प्रज्ञाहेतुः, रजोधर्मित्वादुपायः सूर्यः फलम् / एवं सर्वत्र प्रज्ञा शून्यताहेतुः, उपायः करुणा फलमिति / चन्द्रांशे षड् दिना ये(नि) खलु दिवसगणे वारभागेन लब्धाः षण्मुद्रा वज्रिणस्तास्त्वपरदिनगणः कायवाञ्चित्तमुद्राः / 25 प्रज्ञाकाये त्रिलग्ना प्रकटितनियता योगिनी योगतन्त्रे शक्तिः क्रोधाः क्रमेण प्रभवति दशकं पञ्चकं बुद्धदेव्यः / / 53 // अत्र ये चन्द्राशे पञ्चचत्वारिंशददिनगणास्तस्माद वारभागेन लब्धाः षड दिनानि षण्मुद्रा वज्रिणो भवन्ति-चक्री कुण्डलं कण्ठिका रुचकं मेखला भस्मयज्ञोपवीत मिति, बाह्यमुद्रा कालचक्रस्य अपरविनगणम्(:) / अवशेष त्रिसंख्यं कायवाञ्चित्तमुद्रा 30 अध्यात्मनि वज्रिण इति बाह्याध्यात्मनि नव मुद्रा वेदितव्याः। प्रज्ञाकाये प्रजातन्त्रे उपायकाये उपायतन्त्रे त्रिलग्ना सत्त्वरजस्तमात्मकाः कायवाञ्चित्तलक्षणा' इति योगिनी योगतन्त्र प्रकटितो मुद्रानियमः / [106a] 1. ग. पञ्चाशत / 2-3. स. पुस्तके नास्ति / ४.क.कायवाक्लक्षणां। . Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T306 पट] चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कामपाकुलता-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः 187 इदानीं कालचक्रदेवतादेवीसंख्या उच्यते शक्तीत्यादिना इह षट्चक्रनाडीविश्वस्वभावो देवतागणः। शक्तिः क्रोषाः क्रमेण प्रभवति दशकमिति दश शक्तयो दश पारमिताः; उष्णीषादयो दशक्रोधा इति प्रत्येकं वशकम् / पञ्चकं बुद्धदेव्य इति अक्षोभ्यादयः पञ्च बुद्धाः, वज्रधात्वीश्वर्यादयः पञ्च देव्यः इति प्रत्येकं पञ्चकम् / रूपाद्यक्ष्यादिषट्कं पुनरपि नृपते देववृन्दं द्विषटकं योगिन्यो नागचण्डाष्टकमिति भवने सर्वमेतद् द्विगुण्यम् / एतत् श्रीकालचक्रं चतुरधिकशतं तस्य चार्द्ध त्रिधातौ सूर्यांशे या च षष्टिः प्रतिदिनघटिका निर्गता मासमध्ये // 54 // रूपांवक्ष्याविषट्कमिति / रूपवज्रादयः षट् क्षितिगर्भादयः षट्, एवं प्रत्येकं 10 षट्कं पुनर्वेववृन्दं द्विषट्कमिति इन्द्रादिकं द्वादशसंख्यम्, योगिन्यो नागचण्डाष्टकमिति चचिकादीनामष्टकम्, अनन्तादीनामष्टकम्, श्वानास्यादीनामष्टकम्, एतत् समस्त(1) देवतागणम(:) साधनापटले प्रत्येकं नामभेदैर्वक्तव्यमिति / भवन इति बाह्येऽध्यात्मनि सर्वमेतत् पुनः प्रज्ञोपायभेदेन द्विगुण्यम्; एतत् श्रीकालचक्रं चतुरधिकशतं तस्य चाधं द्वापञ्चाशदेवतात्मकम् / एवं सूर्यचन्द्रभेदेन पुनस्तदेवैकत्वेन षट्पञ्चाशदधिकैक- 15 शतदेवात्मकं कालचक्र वेदितव्यम् इति कमलकर्णिकास्थदेवतागणनियमः / इदानी चचिकादिकमलपत्रदेव्य उच्यन्ते सूर्याशे द्वात्रिंशद्भागेन श्वासचक्रात् प्रतिदिने घटिकाद्वयं यल्लब्धं मासस्य मध्ये त्रिंशदिनैः षष्टिनाड्यो भवन्ति कुलिकारूपिण्यः / योगिन्यस्ताः समस्तास्त्रिभुवननिलये लग्नमिश्रा द्विगुण्या सूर्यांशेऽहः प्रभिन्नं द्विगुणितमपि यद् योगिनीवृन्दमत्र [106b] / . पिण्डीभूताः समस्तास्त्रिगुणरविदिनास्साभिधाना भवन्ति चन्द्रे पक्षप्रभेदो भवति दिनकरे वर्गभेदः समस्तः // 55 // ताश्च योगिन्यो लग्नमिया लग्नचतुःसन्ध्याकुलिका विमिश्रा चतुःषष्टिर्भवन्ति / ताश्च प्रज्ञोपायभेदेन द्विगुणिता अष्टाविंशत्यधिकशतसंख्या भवन्तीति / पुनः सूर्याशेऽहः 25 प्रभिन्नं षष्टयुत्तरत्रिशतदिनप्रभिन्नं चैत्रादितिथिलक्षणं देवतागणम् / तदेव द्वादशलास्यादिभिः सहितं द्विगुणितमपि विंशत्यधिकसप्तशतसंख्यं देवतीवृन्वं भवतीति / पिण्डीभूताः समस्ता इति एता देव्यः साभिधाना द्वासप्ततिदेवताभिः सहिता मुद्राषट्केन सार्द्ध त्रिगुणरविविना त्रिवर्षदिना अशीत्युत्तरसहस्रसंख्या इति त्रिवर्षदिनगणस्वभावा देवतादेव्यो वेदितव्या योगिनीतन्त्रेऽ[इत्य]भिप्रायः / एवं सूर्यवर्षप्रभेदो भवति शशधरे पक्षभेदः 30 समस्तो मायाजालसमाजयोर्नवधा चत्वारिंशदधिकपञ्चशतदेवतागणैरिति / / Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 188 विमलप्रभायां [ अध्यात्मएवं तत्रादिबुद्धे स्वकरनृपतयोः देवतादेवतीनां प्रज्ञोपायो निशाहो भवति हि समविभागोऽर्द्धरात्रे दिनार्द्ध / येन ज्ञातं स्वदेहे दिननिशिसमयैर्माससंक्रान्तिभेदैः स श्रीमान् मञ्जुवज्रो भवभयमथनो जन्मनीहैव बुद्धः // 56 // एवं सूर्यचन्द्रदेवतागणैरेकीभूतैश्चादिबुद्धं (द्धो) भवति। तस्मिन्नाविबुधे स्वकरनृपतयो विंशत्यधिकषोडशशतसंख्या इति, तेषां देवतादेवतीनां प्रज्ञोपाय(यो) निशाह इति / यथासंख्यं प्रज्ञा रात्रिभागः, उपायो दिवाभागः समविभागो मध्याह्नादर्वरात्रे अर्द्धरात्रान्मध्याह्ने सार्द्धत्रयोदशनक्षत्रः दशाधिकाष्टशतदण्डै[107a]र्वा घटिका भिर्वा निशाविभागः; एवं दिवाविभागः। श्रीमान्न(ति)क्षत्रमण्डले आदिबुद्धे देवतागणो 10 नक्षत्रनाडीसंख्यात्मको भगवतोक्त इति / यथा बाह्य नक्षत्रघटिकाभोगः सर्वग्रहाणाम्, तथाध्यात्मनि कायवाञ्चित्तज्ञाने षडिन्द्रियधर्माणामिति / येन ज्ञातं स्वदेहे / एवमुक्तक्रमेण प्रज्ञोपायात्मकं येनादिबुद्धं (इति) स्वदेहे ज्ञातम् / दिननिशिसमयैः सन्ध्याप्रहरादिभेदैः माससंक्रान्तिभेवदिशभिः स योगी श्रीमान् म वज़ो भवभयमथनो जन्मनीहैव बुद्ध इति लघुतन्त्रमूलतन्त्रदेवतोत्पादनियमः / त्रिंशद्भागेन तस्मात् त्रिगुणितनियता देवताः कालचक्रे मुद्राषटकं च बाह्यं पुनरपि नियताश्चक्रनाड्यस्तथैव / उष्णीषे द्विः हृदोऽष्टौ शिरसि नृपतयो दन्तसंख्या च कण्ठे नाभौ चाष्टाष्टगुण्या द्विगुणनृपतयो गुह्यमध्ये प्रसिद्धाः // 57 / / इदानीमतः परमादिबुद्धाल्लघुतन्त्रोत्पाद उच्यते त्रिंशदित्यादिना इह परमादिबुद्धात् विंशत्यधिकषोडशशतात् त्रिंशद्भागेन लब्धाः चतुपञ्चाशद्देवता भवन्तीति / पुनः कायवाञ्चित्तगुणितास्त्रिगुणा द्वाषष्ट्यधिकशतं भवति / एषु माण्डलेयाश्चतुःपञ्चाशदधिकशतसंख्या मण्डलेसं(शं) प्रज्ञोपाययुग्मं बाह्य मुद्राषट्कमिति / कालचक्र परमादिबुद्धान्निर्गतं दशभागेनेडादिसं(शं)खिन्यन्तनाडीभेदेनेति बाह्य नेयार्थमिति लघुकालचक्रनियमः। इदानीं कालचक्रनाड्य उच्यन्ते चक्रनाड्यस्तथैवेत्यादिना इह शरीरे त्रिकुलनाड्यस्तिस्रः कायवाञ्चित्तविन्दुधारिण्यः, नाभौ गुह्यवज्रमणाविति तथा षट्कुलनाड्यो ललना-रसना-अवधूती-विण्मूत्र-शुक्रवाहिन्य इति / तथा षट्त्रिंशत् कुलनाड्यः उष्णोषाविषट्चक्रनाड्यः षट्, द्वे शब्दग्राहिण्यो, द्वे स्पर्श ग्राहि[107b]ण्यो, द्वे रसग्राहिण्यौ, द्वे रूपग्राहिण्यौ, द्वे गन्धग्राहिण्यो; एता दश30 नाड्यः / नाभिचक्रमध्येऽपरमण्डलेषु द्वादशसंक्रान्तिनाड्यः, अष्टप्रहरनाड्यः / एवं सर्वाः षट्त्रिंशत् कुलनायिका भवन्ति-षड् रसरूपिण्यः, षड् धातुरूपिण्यः, षडिन्द्रियरूपिण्यः, षडविषयरूपिण्य,षट् कर्मेन्द्रियरूपिण्यः, षट् कर्मेन्द्रियविषयरूपिण्यः, एवं षड् रूपप्रकतिन्यः Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटल].. चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः 189 षट् वेदनाप्रवतिन्यः, षट् संज्ञाप्रवर्तिन्यः, षट् संस्कारप्रवर्तिन्यः, षड् विज्ञानप्रवर्तिन्यः, षड् ज्ञानप्रबतिन्य इति षट्त्रिंशत् कुलनाड्योऽप्याधाराधेयसम्बन्धेन द्वासप्ततिरिति ज्ञेयाः / तथाह-कालचक्रनाख्यः उष्णोऽद्विरिति चतुर्दलरूपिण्यः, चतस्र'श्चतुःसन्ध्याप्रतिन्यः / हृदोऽष्टौ नाड्यो रोहिण्यादयः समानादीनामाधारभूताः / प्रत्यहं प्रहरभेदेन वाराष्टकवाहिन्यः। अत्राध ऊध्वं द्विनाच्योराधेयो वायुरिति / शिरसि नपतयः षोडश- 5 तिथिप्रवतिन्यः। बन्तसंख्या च कण्ठ इति कण्ठचक्रे अष्टाविंशति नक्षत्राणि, चत्वारि दण्डनक्षत्रप्रवर्तिन्यो द्वात्रिंशदिति / नाभौ नाभिकमले राशिनाडिकाबाह्ये घटीनाड्यः अष्टाभिरष्टगुणिताश्चतुःषष्टिनाड्यः षष्टिमण्डलवाहिन्यश्चतुःशून्यप्रवाहिन्यः चतुःषष्टिदण्ड प्रवर्तिन्य इति / द्विगुणनृपतय इति / द्वात्रिंशद्गुह्यमध्ये गुह्यकमलनाड्यः शुक्रादिद्वात्रिंशद्धातुप्रवर्तिन्य इति। षण्णाड्यश्चक्ररोधा दशविषयहराः सन्निपातस्वभावा भूयो भूयो द्विगुण्याः पुनरपि गुणिताः श्लेष्मपित्तानिलांशाः / एता वै मृत्युनाड्यो गुरुनियमवशादायुरारोग्यदाश्च षट्चक्र वायुनाड्यो मरणभयहरा योगिनां नात्र चित्रम् // 58 // एषु षट् नाड्यः षट् चक्करोधा भवन्ति; दश विषयहारिण्यो भवन्ति / ताः 15 सन्निपातस्वभावा इति ताः पुनद्विगुण्याः श्लेष्मांशाः विंशतिः भूयो द्विगुण्या पित्तांशाः / चत्वारिंशद् भवन्ति, पुनरपि अनिलांशास्ताऽशीतिर्भवन्ति, इति षट्पञ्चाशदधिकशतनाङ्यः षट्चक्रेषु व्यवस्थिताः कालचक्रनाड्योऽवगन्तव्याः / एता वै मृत्यू[108a]नाड्यो गुरुनियमवशादायुरारोग्यदाश्च / षट्चक्रे कालनाड्य उक्ता मरणभयहरा गुरूपदेशेन भाविताः सत्यो योगिनां नात्र चित्रमिति। उष्णीषेऽब्धिर्ललाटे जलधिहतयुगाः श्लेष्मधातुप्रकोपाः कण्ठे दन्ता हृदब्जे नयनहतयुगाः पित्तधातुप्रकोपाः / माभौ गुह्य ऽब्धिषष्टि नृपतिरपि तथा वायुधातुप्रकोपा गुह्य ऽन्यादिषट्कं प्रकटितनियताः सन्निपाता निरोधाः // 59 // उष्णीषेऽब्धिश्चतस्रः जलधिहतयुगा इति षोडश ललाटे, एता विंशति नाड्यः 25 श्लेष्मधातुप्रकोपा इति / कण्ठे दन्ता इति द्वात्रिंशन्नाड्यः / हृदब्जे नयनहतयुगा इति अष्ट नाड्यः, एताश्चत्वारिशन्नाड्यः पित्तधातुप्रकोपा इति नाभौ च गुह्य च यथासंख्यम् अधिषष्टिरिति चतुःषष्टिनाड्यः / नृपतिरपि गुह्यकमले बाह्ये परिमण्ले नाड्यः षोडश, एता अशीति नाड्यो वायुधातुप्रकोषा इति / गुह्येऽन्याविक' चेति दश नाड्यो मध्यपरिमण्डले / अन्या षट् च गर्भपरिमण्डले यथासंख्यम् / सन्निपाताः सन्निपातप्रकोपा 30 T307 १.क. ख. ततः / 2. क. ख.० दल / 3-4. क..दिश्चेति / Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां [ अध्यात्मइति / निरोधा इति षट्चक्रनिरोधस्वभावाः / एवं षट्पश्चाशदधिकशतकालचक्रनाड्यो देवतादेवतीस्वभावेनावस्थिता बालानां मृत्युदायिकाः, योगिनां सुखदायिकाः षड्कुलनाडीभिः सार्धं भाविताः सत्यः; द्वाषष्ट्यधिकशतं कालचक्रं षट्चक्रनाड्यात्मकमिति / तासु पुनषिष्ट्यधिकशतनाडीषु प्रत्येकनाडी दशवायुप्रचारेण स्कन्धधातुदशस्वभावेन दशविधा भवन्ति / एवं सर्वा दशगुणिता विंशत्यधिकषोडशशतसंख्या भवन्ति सप्ताविशन्नक्षत्रघटिकावाहिन्यः / एवं श्रीमान्नक्षत्रमण्डलपरमाविबुद्धे एतावत्यो देवत्यः प्रज्ञोपायेनेति' / अतो विस्तरान्नक्षत्रमण्डलाल्लोकसंवृत्या श्लेष्मादिधातुवाहिन्यो [108b] देवता लौकिकसिद्धिसाधनाय च शरीरसिद्धिसाधनाय वा मञ्जुश्रियोद्धृताः षट्चक्रनायिका इति कालचक्रनाडीसंकर नियमः / इदानीं षट्कुलनाडीरक्षणमुच्यते षडित्यादिनाषण्णाड्यश्चक्ररोधास्त्रिविधपथगताश्चन्द्रसूर्याग्निभेदैदेहे ता रक्षणीयाः गुरुनियमवशान्मृत्युदाः प्राणिनां याः / षट्सु प्राणप्रवेशो यदि भवति नृणां मृत्युहानिस्तदा वै सूक्ष्मायां न प्रविष्टे ह्यमरणविषयश्छिद्यते योगिभिश्च // 60 // : इह शरीरे याः षड् नाड्यश्चक्ररोधा उक्तास्त्रिविधपथगताश्चन्द्रसूर्यराहुवामदक्षिणमध्यपथगताः, ऊर्ध्वमधोविण्मूत्रशुक्रपथगताश्चन्द्रसूर्याग्निभेदेनेति / देहे ला रक्षणीया योगिना; कुतः ? गुरुनियमवशादिति / गुरुनियमः षडङ्गयोगः, तेन मरणाद् रक्षणीया मृत्युदाः प्राणिनां याः षण्णमासां प्राणप्रवेश इति / षट्सु प्राणप्रवेशो यदि भवति नृणां सर्वकालं मृत्युहानिस्तदा वै एकान्तमेषु षट्सु मध्ये सूक्ष्माऽवधूती मध्यमा, 20 तस्यां सूक्ष्मायां प्राणे न प्रविष्टे सति हमरणविषयः च्छिद्यते योगिभिश्च; अपि तुन च्छिद्यते मरणविषय इति / इति मूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचकतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहसिकायां विमलप्रभायाम् अध्यात्मनि चक्रवत्तिम्लेच्छयुद्ध-कालचक्रकुलतन्त्र-नाडीकुलोत्पत्ति-महोद्देशः तृतीयः // 3 // (4) अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः इदानीं देहिनामकालमरणलक्षणमुच्यते प्राण इत्यादिनाप्राणो यद्येकनाड्यां वहति दिननिशं जीवितं कालवर्षम् अव्युच्छिन्नेकपक्षं वहति यदि नृणां जीवितं सार्द्धवर्षम् / 1. क. प्रज्ञोपायेति / 2. क, श्च / 3, क.० सम्वर / Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले 1 अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः अव्युच्छिन्नैकमासं वहति नरपते जीवितं च त्रिमासं एवं योगी स्वेदेहे शशिगतिमरणं ज्ञायते कालचक्र // 61 / / [109a] इह शरीरे नाभिचक्रं द्वादशारं राशिचक्र मेषादिविषमलग्नात्मकमेकान्तरितम् / एवं वृषभादिसमलग्नात्मकमेकान्तरितं दलम् / अतः प्राणसञ्चारो नासापुटे विषमलग्नेषु मेषादिसु षट्सु वामे भवति / वृषभादिसमलग्नेष दक्षिणनासापुटे प्राणसञ्चारो भवति। 5 पश्चपञ्चदण्डैदशसंक्रान्तयः प्रत्यहं भवन्ति / एवमहोरात्रेण षष्टिदण्डादश संकान्तयःषड् वामनासापुटे, षड् दक्षिणनासापुटे, मध्यमायां द्वादशप्रवेशेष्विति / धातुसमत्वं शरीरे रोगरहितानां रोगाभिभूतानां पुनर्वातपित्तश्लेष्मधातूनां वैषम्यम् / अतो वैषम्यात् प्राणस्य वैषम्यम्, तेन अहोरात्रमेकरात्र्यां(नाड्यां) वामायां यदि वहति, तदा जीवितं कालवर्षम्; मध्यमा वर्षशतपूर्णलक्षणं जीवितसंख्यं नराणां भवति / 10 अव्युच्छिन्नेकपक्षं यदि वहति, तदा सार्धवर्षमायुर्भवति'; ततो मरणं गच्छति / अव्युच्छिन्नं निरन्तरं यदि मासमेकं वामनाड्यां वहति, तदा जीवितं मासत्रयं भवति / एवं स्वदेहे योगिना शशिगतिमरणं ज्ञायते कालचके इति / अत्रारिष्टविषये कालचक्रं द्वादशारं राशिचक्रं तदेव भूम्यां लिखित्वा प्रथमदलेऽरिष्टदिन षट्त्रिंशदायुर्मासाः स्थापनीयाः / ततो मासमेकं न वहति, अरिष्टदिनवृद्धिः 15 द्वितीयमासान्ते तृतीयमासप्रवेशे दिनद्वयं वहति वामनाडी तस्मिन्नेव पत्रे' / ततस्तृतीयमासं न वहति, चतुर्थमासान्ते पञ्चममासप्रवेशे दिनत्रयं वामनाडी(ड्यां) प्राणो वहति / ततः पञ्चममासात् षष्ठे मासे न वहति / एवं षण्मासैररिष्टदिनास्त्रयः (दिनानि त्रीणि); मध्ये दिनास्त्रयो (दिनानि त्रीणि); अन्ते सव्या वामारिष्टधर्मिणः / अरिष्टं नामाकालमरणम्; रिष्टं वर्षशतावधेर्मरणमिति / एवं षट्त्रिंशन्मासेम्योऽरिष्टदिनसहितेभ्यो जीवितस्य 20 षड् मासा गताः। ततस्तस्मिन् पत्रे प्रा[ण]वायोरसञ्चारः। एकादशसंक्रान्तिभिरहोरात्रं व्रजति षट्शताधिकैकविंशत्सहस्रश्वासप्रश्वासैरिति / अत्र श्वासचक्रस्योनता [109b] नास्ति राशिपत्रपरित्यागेऽपीति / ततो द्वितीयपत्रे चतुर्दिनं पञ्चदिनं५ षडदिने(नं) सप्तमे मासे अष्टमे नवमे च यथासंख्यं वहति / ततस्त्रिशन्मासराशेरपरमासत्रयं जीवितस्य गतम् / ततः सप्तविंशन्मासान् गृहीत्वा तृतीये पत्रे प्राणः सञ्चरति, पत्रद्वयं त्यजति / 25 दशसंक्रान्तिभिरहोरात्रं करोति, दशपत्रेषु संक्रमति प्राण इति / सप्तविंशतिमासेभ्यः प्रत्येकमासे पुनः सप्तदिनं वामनाडी वहति, अष्टदिनं नवदिनं वहति / ततो मासत्रयमपरमूनं भवति सप्तविंशतिमासेभ्यः / एवं पूर्वोक्तविधिना तृतीयं राशिपत्रं त्यजति / नवपत्रेषु संक्रमणं प्राणः करोति / एवं दशदिनमेकादशदिनं द्वादशदिनं वामनाड्यां वहति / ततश्चतुर्थं पत्रं त्यजति / ततश्चतुर्विंशतिमासेभ्यो 30 मासत्रयमूनं भवति जीवितस्य / एवं त्रयोदशदिनं चतुर्दशदिनं पञ्चदशदिनम्; 1. ख.. वहति / 2. क. ख. ग. यन्त्रे; भो. hDab ma La (पत्रे)। 3. भो. rTsar (नाड्यां)। 4. क. ख. सव्या०। 5. ग. पुस्तके नास्ति / 6. भोटानुवादे 'ततः' इति नास्ति / Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 विमलप्रभायो [ अध्यात्मततः पञ्चमपत्रं त्यजति; सप्तपत्रेषु संक्रान्ति करोति; एकविंशतिमासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति, तथा षोडशदिनं सप्तदशदिनमष्टादशदिनं प्रतिमासं वहति यथाक्रमम् / ततः षष्ठं पत्रं त्यजति; षट्पत्रेषु संक्रान्ति करोति; अष्टादशमासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति जीवितस्येति / एवमेकोनविंशतिदिनं विंशतिदिनमेक 'विंशतिदिनं वहति / ततः सप्तम राशिपत्रं त्यजति, प्राणः पञ्चराशिपत्रेषु संक्रमणं करोति अहोरात्रेणेति / ततः पञ्चदशT308 मासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति जीवितस्य / एवं द्वाविंशतिदिनं त्रयोविंशतिदिनं चतुर्विंशतिदिनं निरन्तरं यदा वहति, तदा अष्टमपत्रं त्यजति, चतुर्ष संक्रान्ति करोति, द्वादशमासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति जीवितस्य / एवं पञ्चविंशतिदिन षड्विंशतिदिनं सप्तविंशतिदिनं यदा वहति, तदा नवमं पत्रं त्यजति, पत्रत्रये संक्रमणं करोति, नव10 मासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति जीवतस्येति / तथा अष्टाविंशतिदिनमेकोनत्रिंशदिनं त्रिंशद् दिनं यदा वहति, तदा दशमं पत्रं त्यजति, पत्रद्वये संक्रान्ति करोति, षण्मासेभ्यो मासत्रयमूनं भवति जीवितस्य / [110a] तथैकत्रिंशद्दिनं द्वात्रिंशदिनं त्रयस्त्रिंशदिनं यदा वहति, तदा एकादशमं पत्रं त्यजति, एकपत्रे संक्रान्तिं करोति, त्रिमासेभ्यो नवति दिनानि ऊनानि भवन्ति जीवितस्येति / ततः पूर्वपत्रे अवाहितदिनत्रयं द्वादशमे पत्रे 15 दिन द्वयं वहति / ततो द्वादशमं पत्रं त्यजति, ततः कणिकायामेकदिनं वहति, यावत् प्राणचक्रश्वासविच्छेदो भवति / ततो वामनाङ्यरिष्टेन मरणं यान्ति अयोगिनो ये नरा इति वामनाड्यां चन्द्रारिष्टनियमः। सत्त्वरजस्तमोभेदेन प्रतिमासे[s]रिष्टदिनवृद्धिरेकोत्तरेणेति। अत्र राशिचक्रन्यासः -राशिचक्रं द्विपुटं कृत्वा प्रथमपुटे अरिष्टदिनानि, अपरपुटे अरिष्टदिन20 शेषा आयुर्मासा इति। अत्र प्रथमचक्रारे अरिष्टदिनानि त्रीणि, मासास्त्रिंशत्, द्वितीयपुटे अरिष्टदिनानि षट्, शेषा आयुर्मासाः सप्तविंशत्(तिः)। एवं तृतीये आरे अरिष्टदिनानि नव, तथा मासाश्चतुर्विंशतिः; चतुर्थे दिनानि द्वादश मासा एकविंशतिः; पञ्चमे दिनानि पञ्चदश, मासा अष्टादश; षष्ठे दिनानि अष्टादश, मासाः पञ्चदश; सप्तमे दिनान्येक विंशतिः, मासा द्वादश; अष्टमे दिनानि चतुर्विंशतिः, मासाः नव; नवमे दिनानि सप्त25 विंशतिर्मासाः षट्, दशमे दिनानि त्रिंशत्, मासास्त्रयः; एकादशमे चक्रारे अरिष्टदिनानि त्रयस्त्रिंशत्; अवसाने त्रिमासक्षयः / ततः पूर्वमनारूढं दिनत्रयं प्रथमराशौ चक्रारे पत्र(यद्) दिनद्वयं द्वादशमे पत्रे दक्षिणनाड्यां वहति दक्षिणनाडीधातुक्षयार्थम्; दिनमेक मध्यमायामवधूत्यां वहति श्वासचक्रक्षयार्थम् / ततः प्राणोत्क्रान्तिश्चन्द्रारिष्टे वामनाच्यामिति चन्द्रारिष्टनियमः। [110b] इदानीं सूर्यारिष्टं दक्षिणनाड्यामुच्यते पञ्चम्य इत्यादिनापञ्चभ्यः पञ्चविंशदिवसगतिरुहारोहते पञ्चवृद्ध्या तस्मादेकोत्तरेण त्रिगुणितदशकं व्युत्तरं यावदेव / 1. ख. विंशतिएक० / 2. क. ख. पुस्तकयो स्ति / 3. क. ख. पत्राये / 4. क.ख. त्रिमासद्वयं / Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] 15 अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः काले पौष्णे समस्तास्त्रिनयनशशिनः षट् त्रियुग्मेन्दवो ये मासास्तेऽहानिशेषास्तिथिदिगिषुगुणा द्वीन्दवो जीवितस्य // 62 // इह शरीरे चन्द्रः सूर्यगुणान् सत्त्वरजस्तमो गृहीत्वारिष्टदिनानि दर्शयति; सूर्यश्चन्द्रगुणान् शब्दस्पर्शरूपरसगन्धान् गृहीत्वा ह(ह्य)रिष्टदिनानि दर्शयति / पञ्चपञ्चोत्तरेण पञ्चराशिं यावत्, ततो राशिद्वयमेकोत्तरेण, ततो मूलादारभ्य त्रयस्त्रिंशद्- 5 दिनानि आरोहति, पञ्चदशदिनैरष्टमराशिं त्यजति, दशभिनवराशिं त्यजति, पञ्चभिदशमराशिम्, त्रिभिरेकादशराशिम् / एवं त्रयस्त्रिंशद्दिनानि दक्षिणनाड्यां प्राण आरोहते / ततो द्वादशराशौ दिनद्वयं वामनाड्यां वामनाडीधातुक्षयार्थम्, दिनमेकं मध्यनाडयां श्वासचक्रक्षयार्थम्, ततो मरणं गच्छतीति / तद्यथा पञ्चभ्योऽवधि-दिनेभ्यः पञ्चविंशतिदिनानि यावद् दिवसगतिल्हारोहते पञ्चवृद्ध्या / पञ्च दश पञ्चदश 10 विंशति पञ्चविंशति जन्मनः पञ्चराशिषु / तस्मादेकोत्तरेण षट्विंशत्सप्तविंशदिनानि षष्ठे सप्तमे राशौ यथाक्रमं सत्त्व[र]जसोः क्षयार्थम् / ततः काले पौष्णे सति त्रिगुणितदशकम् अष्टमे नवमे दशमे राशौ रोहते प्राणः; ततः एकादशे व्युत्तरं मासं भवति यावदेव / समा (समस्ता) वर्षाऽरिष्टदिनावशेषा राशिचक्रे जन्मराश्यादिषु द्वादशराशिष त्रिनयनशशिनः जन्मराशौ त्रिवर्षा / अरिष्टदिनावशेषा द्वितीये द्विवर्षम्, तृतीये वर्षमेकमिति समारिष्टदिनावशेषा जीवितस्य। ततः षटत्रियग्मेन्दवो ये इति चतर्थराशी षण्मासास्ते, पञ्चमे त्रयो मासाः, षष्ठे मासद्वयम्, सप्तमेऽरिष्टदिनावशेषमासमेक जीवितस्य / ततो जन्मस्थानात् सप्तमस्थानं पोष्णं गर्भजानामाधानमासं(7) मकरः / तस्मात् सप्तमं प्राणजन्ममासं कर्कटश्चन्द्रनाडीवृद्धिपरित्यागात् द्वादशराश्यन्ते पुनर्मकरो भवति, त्रयोदशमासो गर्भाधानादिति / अतः कर्कटः प्राणस्य जन्मस्थानं न सूर्यस्यैवेति / 20 तत उदयति / तस्माज्जन्मनो मकरोदये सप्तमे राश्युदये सूर्यस्यास्तमनं नाम पोष्णकालः / [illa] तस्मात् कालात् प्राणोऽवैवतिको भवति, शरीरे स्थिरीकर्तुं न शक्यते देवासुरैर्मनुष्यैः। रात्रिभागे चन्द्रोदयकाल इति; चन्द्रोदयो नाम शुक्रधाती मृत्युप्रवेश इति / मत्यरुदयो' न शक्रधातोरिति, अरिष्टवायप्रवेशादिति / ततः पौष्णकालात् शुक्रक्षयार्थं त्रयस्त्रिंशद्दिनानि प्राणो रोहते दक्षिणनाड्याम्; ततो दिनद्वयं / वामनाड्याम्, दिनमेकं मध्यमानाड्यामिति / अहानि शेषाः, तिथिः पञ्चदश, विपिति दश, इषुः पञ्च, गुणा इति त्रयः, द्वि इति द्वे, एकदिनं जीवितस्येति सूर्यारिष्टे एकव्याख्याननियमः। इदानी द्वितीयव्याख्यानमुच्यते स्वस्थानादित्यादिनास्वस्थानाद् राशिचक्र त्यजति परकला हानिशेषैश्च तुल्यैवर्षौसैदिनैश्च त्रिनयनशशिभिः षत्रियुग्मेन्दुभिश्च / पौष्णाद् वै हानि तुल्यैस्तिथिदिशि(गि)षु गुणैः कणिकायां प्रविष्टे: षट्त्रिंशद्भदिनान्ते भवति दिनकरारिष्टयोगेन मृत्युः // 63 / / 1. क. मृत्योरुदयो। 2. ग. मध्यमानामनाड्यामिति / Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलप्रभायां - ["अध्यात्म इह शरीरे नाभिकमले द्वादशनाड्यात्यक राशिचक्रम् / तत्र जन्मस्थान प्रथमराशिनाडीगर्भोत्पादस्य बालकस्य यल्लग्नं तदेव वृषभादिकं समनाडीस्वभावम्; तस्मात् स्वस्थानाद राशिचक्रं द्वादशारं नाडीचक्रं षष्टिमण्डलात्मक त्यजति परकला प्राणशक्तिः / हानिशेषश्च तुल्यैरिति हानिरारोहणदिवसाः पञ्च दश पञ्चदश पञ्चविंशतिः 5 षड्विंशतिः सप्तविंशतिरिति हानिः; शेषास्त्रिवर्षा, द्वौ वर्षों एकवर्ष' षण्मासाः त्रिमास(साः) द्वौ मासौ मासमेकमिति हानिशेश(षा)स्तैहानिशेषैः प्रथम पत्रादिकं यावत् सप्तनाडीपत्रं तावत् क्रमो वर्षेमसिरिति त्रिनयनशशिभिवर्नाडीत्रयं त्यजति, नियुT309 ग्मेन्दुभिर्मासैः सप्तनाडी त्यजति / दिनैश्च पौष्णात् वै हानितुल्यैः पौष्णकालावधेर्जन्म स्थानात् सप्तमोऽर्कस्यास्तमनकालो रजस इति [111b], तस्मात् पौष्णात् तुल्यैरा10 रोहणायुदिन राशिनाडीपरित्यागः प्राणशक्तेः तिथिः पञ्चदशदिनैः, दिक् दशदिनैरिषुः पञ्चदिनैगुणैरिति त्रिभिर्दिनैरेभिस्त्रयस्त्रिशदिनैरष्टमीनाडी नवमीनाडी दशमीनाडीमेकादशीश्च राशिनाडी पञ्चमण्डलवाहिनीं सूर्यप्रवाहेण त्यजति एकदक्षिणनाडीप्रवाहेण / द्वादशमी दिनद्वयेन वामनाड्यां मध्यमा यामेकदिनेनेति कणिकायां प्रविष्टः(ष्टः)।' एवं षोष्णात् षट्त्रिंशदिनैभवति दिनकरारिष्टयोगेन मृत्युनराणामिति द्वितीय15 व्याख्याननियमः। पूर्वे वाणाग्निलोकं त्यजति दिनगणं सूर्यवर्षत्रयस्य तस्मात् सारोहणं वै शरयुगशिखिनं खाग्निचन्द्रं तृतीये / नेत्राहिशैलवाणं वसुकरमपरं सप्तमे रोहणं च तस्मात् तिथ्यादिसर्वं दिनगणमपि यत् कणिका यावदेव // 64 // इदानी पत्रात्" पत्रे' त्रिवर्षाद् दिनत्याग उच्यते पूर्व इत्यादिना इह राशिचक्रे जन्मलग्ननाडी पूर्व इत्युच्यते; तस्मिन् जन्मलग्नपत्रे अशीत्युत्तरसहस्रदिनगणात् मध्ये वाणाग्निलोकमिति पञ्चत्रिंशदधिकत्रिंशदिनगणं त्यजति त्रिवर्षेभ्यः / ततस्तत्पत्रं शून्यीकृत्य द्वितीयपत्रे अवशेषदिनगणं गृहीत्वा प्राणशक्तिः प्रविशति, तस्माद दिनगणात् सारोहणं पूर्वादपरपत्ररोहणदिनैर्दशभिः सार्धं शरयुगशिखिनमिति 25 पञ्चचत्वारिंशदधिकत्रिशतदिनगणं त्यजति द्वितीयपत्रे / ततोऽवशेषं गृहीत्वा तृतीयपत्रे प्रविशति, द्वितीयं शून्यं भवति / पुनस्तत्रैव पञ्चदशारोहणदिनैः सार्द्ध सप्तत्यधिकशतदिनं तृतीयपत्रे त्यजति; अवशेषं गृहीत्वा चतुर्थ प्रविशति, तृतीयं शून्यं भवति / ततो विंशत्यारोहणदिनैः सार्द्ध नेत्राहिरिति द्वयशीतिदिनगणं त्यजति चतुर्थपत्रे; अवशेषं गृहीत्वा पश्चमे [112a] प्रविशति, चतुर्थ शून्यं भवति / पुनः पञ्चविंशत्यारोहणदिनैः सार्द्ध 1. क, ख. एकवर्षा / 2. क. ख. पुत्रादिकं / 3. ख. पुस्तके नास्ति / ४.क. ख. मध्यमो। 5-6. क. ख. पत्रास्यते: भो. hDab ma bCugNis. La (द्वावधपत्रे)। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः शेलवाणं सप्तपञ्चाशद्दिनगणं त्यजति पञ्चमे' पत्रे'; अवशेष गृहीत्वा षष्ठे प्रविशति, पञ्चमं शून्यं भवति / पुनः षड्विंशत्यारोहणदिनः सार्द्ध अष्टाविंशतिदिनगणं त्यजति षष्ठे' पत्रे / ततः सप्तमे पत्रे प्रविशति, षष्ठं शून्यं भवति / ततः सप्तमे रोहणं सप्तविंशतिदिनगण त्यजतिः अवशेष षटत्रिंशददिनगणं गहीत्वा अष्टमे पत्रे प्रविशति. सप्तमं शन्यं भवति। ततोऽष्टमे पञ्चदशदिनं त्यजति; अवशेषमेकविंशदिनं गृहीतत्वा नवमे प्रवि- 5 शति, अष्टमं शून्यं भवति / ततो नवमे दशदिनं त्यजति; अवशेषमेकादशदिनं गृहीत्वा दशमे प्रविशति, नवमं शून्यं भवति / ततो दशमे पञ्चदिनं त्यजति; अवशेषं षड्दिन गृहीत्वा एकादशे प्रविशति, दशमं शून्यं भवति / तत्र दिनत्रयं त्यजति; अवशेष दिनत्रयं गृहीत्वा द्वादशमे प्रविशति, एकादशमं शून्यं भवति / तत्र दिनद्वयं त्यजति; अवशेषं दिनमेकंगहीत्वा णिकायां प्रविशति, द्वादशमं नाडीराशिपत्रं शन्यं भवति / एवमशीत्यतरसहस्रसंख्यैः सूर्यस्य मध्यमात्रिवर्षदिनैः प्राणशक्तिर्द्वादशारं राशिचक्रं त्यजति / ततः कणिकायां दिनमेकं मध्यमा(यां)" वहति / ततः श्वासचक्रं त्यक्त्वा विज्ञानं प्राणवायुना सार्द्धमन्यत्र षड्गतौ संक्रमणं करोति, इति सूर्यस्यारिष्टनियमः / . अत्र न्यासः - पूर्वन्यासवत् द्विपुटे वर्षभेदेन दिनत्यागभेदेनेति पूर्वपुटे अरिष्टदिनन्यासोऽपरपुटेऽवशेषायुर्दिनन्यासः / द्वितीयचक्रे दिनत्यागन्यासः, पूर्वपत्रेषु क्रमेण शून्य- 15 न्यास इति सूर्यारिष्टदक्षिणनाड्यां समलग्ने जातानां विषमलग्ने जातानां चन्द्रारिष्टमल्पायूनाम्, इति सूर्यारिष्टनियमः / इदानीं मध्यमारिष्टं कालाब्दक्रमेण सूर्यस्य यद् बालजनैस्तीथिकैरुक्तसत्त्वानां व्यामोहजनकं वर्षशतावधेस्तस्य प्रतिषेध उच्यते इह तीथिकैः किलोच्यते-दक्षिणनाड्यां पञ्चनाडीप्रवाहेण व[112b]र्षशतमायुः, 20 षष्ठनाडीप्रवाहेण नवतिवर्षाण्यायुः, सप्तनाडीप्रवाहेणाशीतिवर्षाण्यायुः, अष्टनाडीप्रवाहेण पञ्चाशद्वर्षाण्यायुः, नवनाडीप्रवाहेण त्रयस्त्रिशद् वर्षाण्यायुः, दशनाडीप्रवाहेण षड्विंशद्वर्षाण्यायुः, पञ्चदशनाडीप्रवाहेण चतुर्दशवर्षाण्यायुः, त्रिशन्नाडीप्रवाहेण द्वादशवर्षाण्यायुः, अहोरात्रप्रवाहेण दशवर्षाण्यायुः, द्विदिनप्रवाहेणाष्टवर्षाण्यायुः, त्रिदिनप्रवाहेण षड्वर्षाण्यायुः, चतुर्दिनप्रवाहेण पञ्चवर्षाण्यायुरिति; ततः पञ्चदिनप्रवाहेण त्रिवर्षाण्यायु- 25 रिति तीथिकानां नाडीश्वासनियमः दक्षिणमार्गे। स एव न घटते युक्त्या विचार्यमाणः सर्वज्ञोक्त्या / इह नराणामरिष्टाभावे वामदक्षिणनाड्यां पञ्च समेषु विषमेषु लग्नेषु पञ्च दण्डानि प्राणवायुर्वहति / वर्षशतायुषः पुरुषस्य प्राणस्य वामे सव्ये सप्तवर्षाणि श्वासवृद्धिरयनभेदेन, ततः षष्टिवर्षाणि पाणीपलवृद्धिरयनवृद्धिभेदेन, ततस्त्रिशद्वर्षाणि नाडीवृद्धिस्त्रिमासभेदेन, ततस्त्रिवर्षत्रिपक्षाणि 30 दिनभेदेन वृद्धिरिति कालवृद्धिन्यायः / अतो न्यायात् यस्याकालमरणं भवति गर्भोत्पादा 12. क. ख. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 3-4. क. स. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 5. भो. dBu mar (मध्यमायां ) / 6. भो. Sum Cu (त्रिंशत्) / Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1310 199 विमलप्रभायां [ अध्यात्मद्वालस्य त्रिवर्षेः पञ्चवर्षेर्वा द्वा'दशवर्षेर्वा विंशत्यादिभिर्वा मरणम्, तस्य पश्चनाड्युपरि षट्सप्तादिनाडीप्रवाहकमो निरर्थकः, गर्भोत्पादत्रिवर्षमरणावधेरिति / अत्र यदि मासादूर्व जातकस्य मरणं भवति, तदा जन्मदिनादारभ्य प्राणावायुः पौष्णकालात् तिथिदिगि षुगुणाद्यमारूढः / एवं द्विमासान्ते मरणं त्रिमासान्ते चतुर्मासान्ते षड्मासान्ते एक5 वर्षान्ते द्विवर्षान्ते त्रिवर्षान्ते गर्भोत्पादात्त्रयस्त्रिशद्दिनारोहणविलोमेन यावत् पञ्चदिना रोहणं दक्षिणनाड्यां शब्दादिपञ्चगुणक्षयभेदेन वामनाड्यां दिनमेकं सत्त्वादित्रिगुणक्षयभेदेनेति / एवं गर्भोत्पादात् प्रथमेऽपि मरणं ज्ञेयं कणिकायां प्राणप्रवेशादिति आहोरात्रतः, . एवं तृतीये दिने मरणं द्वादशमे पत्रे प्राणोदयात्, एवं षष्ठे दिने एकादशे प[113a] प्राणोदयात्, एवमेकादशे दिने दशमे राशिपत्रे प्राणोदयात्, एवमेकविंशतिमे दिने नवमे 10 राशिपत्रे प्राणोदयात्, एवं षट्त्रिंशतिमे दिने अष्टमे राशिपत्रे क्रमेण प्राणोदयात् / एवं द्विमासे सप्तमे राशिपत्रे प्राणोदयात्, एवं त्रिमासे षष्ठमे[ष्ठे] पत्रे प्राणोदयात्, एवं चतुर्मासे पञ्चमे प्राणोदयात्, एवं षण्मासे विंशतिदिनः चतुर्थपत्रे प्राणोदयात्, एवं सपक्ष वर्षेके .. तृतीये प्राणोदयात्, द्विवर्षे दशदिनैः द्वितीये प्राणोदयात्, तृतीये वर्षे प्रथमे प्राणो-' दयात्, चतुर्थे वर्षे (न)५ दिनन्यायः' गर्भोत्पादाच्छतवर्षावधिं यावदिति सूर्यारिष्ट 15 नियमः। यथा सूर्यस्तथा सत्त्वादिगुणत्रयभेदेन गर्भोत्पादाच्चन्द्रारिष्टनियमः, तथा कालोतरे ऊर्ध्वश्रोत्रे उक्तमीश्वरेण यथा वामा तथाऽवामा मध्यमा च तथैव च / त्रिवर्षान्ते मखादा। 20 इति परसिद्धान्तेऽपि कुत्रचिन्नियमोऽस्तीतिचन्द्रसूर्यारिष्टनियमः। ___ एवं त्रिवर्षान्तमेकदिनमारभ्य बालस्य यन्मरणं चन्द्रमार्गे वा सूर्यमार्गे वा तदशीत्युत्तरसहस्रभेदभिन्नं प्रत्येकदिनमरणभेदेन, नात्र नियमो गर्भजानां कर्मणः। किन्तु नाडिकाश्वासप्रवाहेणारिष्टदिनैः प्राणसंख्या ज्ञायते / अतो(s)रिष्टचक्रं मरणचक्रं राशि चक्रनाडीभ्यः प्राणस्य पञ्चमण्डलप्रवाहपरित्यागोऽनुक्रमेणेति / ततः कणिकायां प्रवेश25 स्तद्दिने मरणमिति न्यायः / इदं त्रिवर्षकाललक्षणं शतवर्षावधेर्मध्यमाप्रवाहेण सूर्यस्य परिकल्पितेन सर्वसत्त्वानां मरणं किल भगवतोक्तम् / तदेव चन्द्रस्य त्रिपक्षधर्मेण चन्द्रस्यारिष्टमरणं न स्यादिति / इह येन चन्द्रस्य धर्मेणारिष्टमरणं न भवति तेन बालेरप्रबुद्धेः प्रकल्पितम् / यथा वामनाड्यामरिष्टमरणं नास्ति चन्द्रधर्मतः दक्षिणायां सूर्य प्रवाहतोऽरिष्टमरणमुक्तं सर्वज्ञेनेति अज्ञानिनां वाक्यम् / इह त्रिवर्षाधिदेवः सूर्यशब्देन 10 प्राणवायुश्चन्द्रशब्देनापानवायुस्त्रिपक्षाधिपतिः। अत्रेडापिङ्गलासुषुम्नामधि[113b]पतिः प्राणः सूर्यो नाभेरूवं प्रवाहतः, अपानो विण्मूत्रचन्द्रनाडीनामधिपतिः नाभेरधः . 1. ख. पुस्तके नास्ति / 2. भो. Phyogs Dan bCas par ( सपक्षे ) / 3-4. ग. त्रिवर्षे / 5-6. भो. Rigs pa Ma yin (न दिनन्यायः ) / 7, भो, Phyi ma (उत्तरे)। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] . अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः 197 प्रवाहतः। एवं चन्द्रस्याधो गुणत्रयम्, सूर्यस्योर्ध्वं पञ्चमण्डलविषयगुणपञ्चकम् / तेन त्रिगुणभेदेन वामे चन्द्रारिष्टम्, दक्षिणे पञ्चगुणभेदेन सूर्यारिष्टः, अधोव॑नाड्योरिति चन्द्रसूर्यारिष्टनियमः। इदानीं मध्यमापरिपूर्णकालमरणलक्षणमुच्यते कालाब्दमित्यादिनाकालाब्दं यावदेका दिवसगतिवशाद् रोहते संक्रमन्ती चन्द्राख्ये सूर्यमार्गे विषमसमदिनैरेकवृद्धया क्रमेण / भूयः संक्रान्तिभेदो विषमसमदिनदिशारे करोति सादं मासं हि यावत् त्रिगुणितदशकं जीवितं च त्रिरात्रम् // 65 // इह शरीरे नरनारीणां सत्त्वरजस्तमोभेदेन प्राणप्रवाहः। सार्द्धदशमासाधिकषड्नवतिवर्षाणि यावद् वामदक्षिणे पञ्चमण्डलप्रवाहतः / त्रिवर्षत्रिपक्षाणि(न्) यावत् 10 मध्यमकालः वर्षशतायषां नराणामिति नियमः। तत्र वामदक्षिणमध्यमास्तिस्रो नाड्यः सत्वरजस्तमःस्वभाविन्यः; आसु मृत्युस्तमोनाडीप्रवाहसंख्यां गृहीत्वा प्राणापानस्वभावेन / वामायां दक्षिणायां विषमसमदिने रोहते कालान्दं त्रिवर्षत्रिपक्षं यावत् / दिवसगतिवशात् दिवसाः पञ्चविंशत्यधिकैकादशशताः, तेषां गतिवशाद्यावदायुःक्षयो भवति तावदारोहते संक्रमन्निति(न्ती)चन्द्राख्ये वाममार्गे सूर्यमार्गे दक्षिणे विषमसमदिनैरेक- 15 वृक्षचा क्रमेणेति एकदिनं वामनाड्यां रोहते यदि मेषादिविषमलग्ने जन्मोऽ()भूत्; दक्षिणे दिनदयमारोहते यदि वषादिसमलग्ने जन्मोऽभत / ततो भयः संक्रान्तिभेदं विषमसमदिनर्वामारोहणावसाने दक्षिणारोहणावसाने च करोति[114a]आरोहणदिनमानेनेति / द्वावशारे राशिचक्रे क्रमेण पञ्चमण्डलपरित्यागाय वामनाड्यामाकाशादिमण्डलक्षयार्थ संक्रान्ति करोति, दक्षिणनाड्यां पृथिव्यादिमण्डलक्षयार्थं करोति / अत्र 20 .वामे पञ्चदिनारोहणेन संक्रान्तिदिनैर्मेषादिविषमलग्नेषु षट्सु शन्यमण्डलप्रवाहं प्राणवायुः त्यजति; दक्षिणे षट्दिनारोहणेन षट्संक्रान्तिदिनैर्वृषभादिसमलग्नेषु षट्सु पृथिवीमण्डलप्रवाहं त्यजति प्राणः। एवं वामनाड्यामेकादशदिनैर्वायुमण्डलं त्यजति, दक्षिणदलेषु द्वादशदिनरुदकमण्डलं त्यजति / एवं सप्तदशदिनैर्वामदलेषु तेजोमण्डलं त्यजति; दक्षिणदलेषु अष्टादशदिनस्तेजोमण्डलं त्यजति / भूयो वामदलेषु त्रयोविंशति- 25 दिनरुदकमण्डलं त्यजति; दक्षिणदलेषु चतुर्विंशतिदिनर्वायुमण्डलं त्यजति / पुनरेकोनविंशद्दिनर्वामदलेषु षट्सु पृथ्वीमण्डलं त्यजति / दक्षिणे त्रिशद्दिनैराकाशमण्डलं त्यजति / एवं विषमसमदिनर्वामदक्षिणारोहणेनेति' त्रिशद्दिनानां त्रिंशत्संक्रान्तिदिनादशलग्ननाडीदलेषु पञ्चमण्डलपरित्यागः / ततः एकत्रिंशद्दिनारोहणेन वामनाड्यां विषमदलेषु सत्त्वधातुक्षयः / एकत्रिंशत्संक्रान्तिदिनैरपि दक्षिणनाड्यां द्वात्रिंशद्दिनारोहणेन 30 रजोधातुक्षयः / द्वात्रिंशत्संक्रान्तिदिनैरपि। ततस्त्रयस्त्रिशदिनारोहणेन विषमदलेषु तमोधातुक्षयः, त्रयस्त्रिंशत्संक्रान्तिदिनैरिति / एवं श्लेष्मनाडीक्षयः विषमसमदिनमा वृषभादिसमलग्ने जन्मोऽ(r)भूत् / ततो भयः १.क.०णारोहणेति / 26 Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 विमलप्रभायां [ अध्यात्म सत्त्वधातुः, पित्तनाडीक्षयो रजोधातुः, वातना डीक्षयस्तमोधातुरित्युच्यते। त्रयस्त्रिशद्दिनारोहणेन' त्रयस्त्रिशत्संक्रान्तिदिनैरिति / उभया(य)राशिसंक्रान्तिसंकलितदिनविंशदधिकैकादशशतदिनानि भवन्ति त्रिवर्षत्रिपक्षदिनत्रयोनानामिति पञ्चमण्डलसत्त्वरजस्तमोनाडी(डि)काच्छेदः। प्राणवायोः स्थानपरित्याग इति / एवं सार्द्ध मासं हि यावत् त्रिवर्षदिनानि प्राणारोहणेनेति / ततस्त्रिदशकमपरं गर्भाधानमासदि[114b]नगणं त्रिंशदिनात्मकं जीवितस्य त्रिरात्रं यावदिति दक्षिणानाड्यामारोहणं सर्वसंक्रान्त्यभावः, त्रयस्त्रिशद्दिनानि यावत् स्कन्धधातूनां विच्छेदः। अत्र रूपादयः पञ्च स्कन्धाः, पृथिव्यादयः पञ्च धातवः, कायेन्द्रियाणि पञ्चेन्द्रियाणि, गन्धाद्याः पञ्च विषयाः, गुदाद्यानि पञ्च कमन्द्रियाणि, आलापादयः पञ्च कर्मेन्द्रियविषयाः, एतेषां त्रयस्त्रिशद्दिनैः च्छेदो भवति परस्परसंयोगाभावः, ततः एकदिनं मध्यमायां विशति श्वासचक्रक्षयार्थम् / षष्ठः स्कन्धः, षष्ठो धातुः, षष्ठमिन्द्रियम्, षष्ठो विषयः, षष्ठं कर्मेन्द्रियम्, षष्ठकर्मेन्द्रियविषयः, शुक्रच्युतिमरणान्ते भवतीति स्कन्धधात्वायतनविच्छेदनियमः। T31 15 इदानीं जातकानां मृत्युश्वासारोहणमुच्यते श्वासानित्यादिनाश्वासांल्लिप्तांश्च नाडी दिननिशिसमयान् रोहते संक्रमण सप्ताब्देश्चायनाङ्गादयनगतिवशात् षष्टिसंवत्सरैश्च / त्रिंशद्वस्त्रिमासान् दिवसगतिवशात् कालवर्षेश्च पक्ष त्रिंशत् सार्द्धभक्तर्भवति दिनगणै रोहणं कालचक्रात् // 66 // इह शरीरे श्वासचक्रं लिप्ताचक्रं घटिकाचक्रं दिनचक्रं यथा बाह्ये तथा देहेऽपि / 20 तत्र षट्श्वासात्मकं श्वासचक्रम्, षष्टिपाणीपलात्मकं पाणीपलचक्रम्, षष्टिघटिकात्मकं घटिकाचक्रम्; अशोत्युत्तरसहस्रदिनात्मकमरिष्टचक्रम्, षट्पञ्चा(श)दधिकैकादशशतदिनात्मकं कालमृत्युदिनचक्रमिति / एषु चक्रेषु मृत्युः श्वासरूपेण पाणीपलस्वभावेन घटिकास्वभावेन दिनस्वभावेनारोहति वामनाड्यां दक्षिणनाड्यां यथासंख्यमेकोत्तरेण / प्रथमं तावत् श्वासानारोहते / सप्ताब्दैश्चायनांका(ङ्गा) दिति / इहोत्पन्नस्य यस्यारिष्टं 25 वर्षशतावधेर्नास्ति कालमरणं भविष्यति, तस्यायनद्वयं वाम[115a]नाड्यां दक्षिणनाड्यां पञ्चमण्डलवाहकः प्राणवायुर्वहति। ततस्तृतीयेऽयने वामनाड्यामाकाशमण्डले एकश्वासमारोहते, चतुर्थे न आरोहते, ततस्तृतीयवर्षे पश्चमेऽयने दक्षिणनाड्यां पृथिवीमण्डले श्वासद्वयमारोहते, पुनः षष्ठेऽयने न आरोहते। ततः सप्तमेऽयने १.ख. रोहणे। 2. क. ख. वयोमानमिति / 3. क. सा. त्रिवर्षादिना; भो. LogSum Gyi Nin Sag rNams ( त्रिवर्षदिनानि)। 4. क. ख. विंशति / 5. क. ख. चक्रकुर्यार्थम् / 6. ग. स्कन्धार्थः। 7. क. त च / 8. भो, Yan Lag Las (अङ्गात्) / Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले]. अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः वामनाड्यामाकाशमण्डले श्वासत्रयमारोहते, अष्टमे न / एवं नवमे न [दक्षिणनाड्यां पृथिवीमण्डले श्वासचतुष्टयमारोहते, दशमे न / पुनरेकादशमे वामनाड्यां शून्यमण्डले पश्च श्वासानारोहते, द्वादशमे न / ततस्त्रयोदशमेऽयने दक्षिणनाड्यां पृथिवीमण्डले षट् श्वासानारोहते, चतुर्दशमेऽयने न / एवं षट्श्वासैश्चक्रं तदेकं लिप्ता पाणीपलं वा भवति अत्र सार्द्धमासोनसप्तवर्षाणि | अतो'ऽवधेलिप्ताचक्रोवं श्वासारोहणं न भवति / लिप्ता- 5 स्वभावेन लिप्ता आरोहते अयनगतिवशात् षष्टिसंवत्सरैश्चेति / ततः सप्तवर्षादूर्ध्वमपरषष्टिवर्षाणि यावत् एकान्तरितायने नैकादिना विषमपाणीपलानि आरोहते / एकोनषष्टिलिप्तान यावद् वामनायामाकाशमण्डले, दक्षिणनाड्यां पथिवीमण्डले द्वितीयादिना समानि षष्टिपाणीपलानि यावत् षट्सु षट्सु दलेषु विषमसमलग्नस्वभावेष्विति / पाणीपलचक्रं षष्टिपाणीपलैः, तदेवेकोटका भवति / अतः सप्तषष्टि- 10 वर्षावधेर्नाडो आरोहते, मृत्युनाडीस्वभावेनेति / त्रिंशद्वर्षस्त्रिमासादिति पुनरेकनाडीमादि कृत्वा वामनाच्या दक्षिणनाड्यां विषमसमनाडीमेकान्तरितेनारोहत, अयनार्द्ध त्रिमासैमिनाड्यामाकाशमण्डले एकनाडीमारोहते, अपरत्रिमासैन / पुनरपरायनाद्धं त्रिमासैदक्षिणनाड्यां पृथिवीमण्डले नाडीद्वयमारोहते। एवं त्रिभिर्मासैः षष्टिनाडीश्व वामदक्षिण च षट्सु राशिदलेषु आकाशमण्डले पृथिवीमण्डले आरोहते, मृत्यु डीस्वभावेनेति / अतः सार्धमासोनसप्तनवतिवर्षावधर्नाडीचक्रमारोहते, तदेव दिनमेकं भवति / ततो दिनस्वभावेन दिनचक्र वामदक्षिणनाडयां पूर्वोक्तेन क्र[115b]मेणारोहते, अतो दिवसगतिवशात् कालवर्षेश्च पक्षस्त्रिवर्षेः / चकारात् त्रिपक्षश्च, विद्भिरपरदिनैश्चेत्यत्र मृत्युदिनारोहणसंख्या द्वात्रिंशतः सार्द्धभक्तः कालचक्रादिति / पञ्चविंशत्यधिककादशशताल्लब्धं दिनगणं कणिकापर्यन्तं वेदितव्यम् / अत्रारोहणदिनानि लब्धानि 20 सार्द्धद्वात्रिंशविभागेन चतुस्त्रिशत्, घटिका षट्त्रिंशत्, पाणीपलानि पञ्चपञ्चाशत्, सार्द्धश्वासद्वयम्, एषु दिनमेकं कणिकायामवशेष वामदक्षिणारिष्टो वेदितव्यः। प्रतिदिना• रोहणं घटिकाधिकं भवति, अन्तिमारोहणं दक्षिणनाड्यामिति कालमृत्युनियमः / इदानीं नाभिचक्रादिनाडिकाच्छेद उच्यते पक्ष इत्यादिनापक्षे पक्षे च नाडी नवहतभुजगाश्च्छिद्यते नाभिचक्रे सन्धावैकैकनाडी त्यजति शिखिदिनः कर्मचक्रे क्रियाख्ये / कण्ठे नक्षत्रनाडीस्त्यजति दिनदिने मासमध्ये क्रमेण बिन्दुस्थं पक्षमध्ये त्यजति शशिपदं वारनाडी हृदिस्थः // 67 // अत्र नाभी द्वादश राशिनाड्यः षष्टिमण्डलवाहिन्यः षष्टिः, नवहतभुजगाष्टो नवभिर्हता द्वासप्ततिर्भवन्ति / अतो नवहतभुजगे नाभिचक्रे पक्षे पक्षे च नाडी च्छिद्यते। अत्र पक्षोऽष्टादशदिनर्वेदितव्यः, तेन पक्षण वामे शून्यादिमण्डलवाहिनी 1. ग. ततो। 2. क. ख. वहति / Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 200 1312 15 विमलप्रभायां [ अध्यात्मत्रिंशत् नाडीस्त्रिवर्षंस्त्यजति, दक्षिणे पृथिव्यादिमण्डलवाहिनी त्यजति त्रिंशदिति / एवं त्रिंशत्रिंशत्पक्षः षष्टिः परित्यज्यन्ते(ज्यते) प्राणवायुनेति / सर्वत्र मण्डलनाडीषु त्यक्त्वा षष्ठांशम्, त्रिवर्षपक्षः पञ्चमण्डलवाहिनों त्यजति / सन्धावे. कैकनाडी त्यजति शिखिदिनैः कर्मचक्रे क्रियाख्ये चेति / इह शरीरे कमंचक्र हस्तयोः षट्सन्धिषु, पा(116a]दयोः षट्सन्धिषु, द्वादशभेदभिन्नं द्वादशचक्रात्मक द्वादशमासभेदतः। प्रत्येकसन्धिचक्रे त्रिंशन्नाड्यः, द्वादशसन्धिषु षष्टयुत्तरत्रिशतनाडयः, तेष दक्षिणस्कन्धबाहसन्धौ मकरे त्रिंशन्नाडयस्त्रिशततिथिभेदतः; वामस्कन्धबाहुसन्धौ फाल्गुने त्रिंशन्नाड्यस्त्रिशत्तिथिभेदतः। एवं दक्षिणोपबाहुसन्धौ चैत्रनाड्यः, वामोपबाहुसन्धौ वैशाखनाड्यः, दक्षिणकरोपबाहुसन्धी ज्येष्ठनाङ्यः, . 10 वामकरोपबाहुसन्धौ आषाढत्रिंशत्तिथिभेदेन त्रिंशन्नाम्य इति / हस्तयोः कर्मचके षट्प्रकारेऽशीत्युत्तरशतनाड्यः षट्सन्धिषु / ततो दक्षिणोरुकटिसन्धौ श्रावणमासतिथिभेदेन त्रिंशन्नाड्यः, वामोरुकटिसन्धौ भाद्रपत्रिंशन्नाड्यः। एवं दक्षिणोरुजानुसन्धी अश्विनत्रिंशन्नाड्यः, वामोरुजानुसन्धौ कार्तिकत्रिंशन्नाड्यः, दक्षिणपादजानुसन्धी मार्गशीर्षत्रिंशन्नाडयः, वामपादजानुसन्धौ पृष्यमासत्रिंशततिथिस्वभावेन त्रिंशन्नाडयः / एवं पादयोः षट्सन्धिषु कर्मचक्रे अशीत्युत्तरशतनाड्यः, कर्मचक्रं कर्मेन्द्रियक्रिया प्रवर्तनादिभूतमिति / एतासु नाडीषु शिखिदिनः प्रत्येकं त्रिभिस्त्रिभिदिनरारोहणात् / एभिस्त्रिवर्षदिनैरशीत्युत्तरसहस्रसंख्यैः षष्ट्युत्तरत्रिशतनास्त्यिजति प्राणवायुः / क्रियास्ये इति आदानगमनादिक्रियां करोतीति क्रियाख्यं हस्तपादाङ्गुलीपर्वसन्धिषु षष्टिषु थत्मा. (षड्ना)ड्यात्मकं चक्रं पृथिव्यप्तेजोवायुशून्यज्ञाननाडीस्वभावात्मकं प्रत्येकसन्धी स्थित 20 षड्नाड्यात्मकमिति / षष्टिपर्वसन्धिषु षष्टयुत्तरत्रिशतनाड्यः; तासु प्रत्येकनाडी त्रिभि खिभिदिनः परित्यजति यथा कर्मचक्रे / यदा दक्षिणकरोपबाहुसन्धौ त्रिंशन्नाडी त्यजति, तदा दक्षिणकरे ऊर्ध्वपञ्चाङ्गुलीषु षट्पट्नाडींस्त्यजति / एवं त्रिंशन्नाडी पञ्चाङ्गुलीषु त्यजति मासदिनैस्तिथिभिरिति / एवं वामे वेदितव्यम् / यदा दक्षिणबाहूपबाहुसन्धी त्यजति, तदाङ्गुलीमध्यपर्वसन्धिषु त्रिंशन्नाडी त्यजति / एवं वामेऽपि' / यदा दक्षि[116b]णस्कन्धबाहुसन्धौ त्यजति, तदाङ्गल्यधःपर्वसन्धिषु. त्रिंशन्नाडीस्त्रिंशद्दिनस्त्यजति नवतिदिनैः। एवं वामेऽपि ज्ञातव्यम् / यदा दक्षिणपादजानुसन्धी त्रिंशन्नाडीः त्यजति, तदा दक्षिणपादाङ्गुल्यर्द्धपर्वसन्धिषु त्रिंशन्नाडी त्रिंशद्दिनस्त्यजति / एवं वामेऽपि / यदा दक्षिणजानुसन्धौ त्यजति, तदाङ्गुलीमध्यपर्वसु त्रिंशन्नाडीस्त्यजति / एवं वामपदेऽपि ज्ञेयः / यदा दक्षिणकट्युरुसन्धौ त्यजति, तदा पादाङ्गुल्यधःपर्वसन्धिषु 3. त्रिंशन्नाडीः त्यजति / एवं वामेऽपि ज्ञेयः। इदानीं नाडीनामधिदैवाक्षराण्युच्यन्ते अत्र कवर्गो विलोमेनाकाशादिह्रस्वस्वरभिन्नो वामस्कन्धबाहुसन्धाविति / एवं दक्षिणस्कन्धबाहुसन्धौ ज्ञानादिदीर्घमात्राभिन्नः कवर्गः; वामे आकाशादिह्रस्वमात्राभिन्नश्चवर्गो बाहूपबाहुसन्धौ, ज्ञानादिदीर्घषण्मात्राभिन्नो दक्षिणे / वामे आकाशादिषण्मात्राभिन्नः टवर्गः करोपबाहुसन्धी, दक्षिणे ज्ञानादिमात्राभिन्नः / एवं षण्मासा 1. ख. वामे। 2. क. ख. ज्ञानमात्रानिः / Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 201 पटले] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देश' उत्तरायणे इति / ततो दक्षिणकटयुरुसन्धौ ज्ञानादिदीर्घषण्मात्राभिन्नः' पवर्गो दक्षिणे, वामे आकाशादिह्रस्वमात्राभिन्नः। एवं जानूरुसन्धौ दक्षिणे ज्ञानादिषण्मात्राभिन्नतवर्गः, वामे ह्रस्वाकाशादिमात्राभिन्नः / एवं दक्षिणपादजानुसन्धी ज्ञानादिदीर्घषण्मात्राभिन्नः सवर्गः, वामे ह्रस्वाकाशादिमात्राभिन्नो विलोमेनाकाशव्यञ्जनादिना / एवं प्रत्येकवर्गः त्रिंशदक्षरात्मा दीर्घह्रस्वभेदेन कर्मचक्र द्वादशचक्रेषु त्रिंशदारेष्विति / ततः क्रिया- 5 चक्रंषु प्रत्येक ककारादिव्यञ्जनं ज्ञानादिदीर्घषण्मात्राभिन्नम्; दक्षिणाङ्गुष्ठादिप्रत्येकसन्धिष्वङ्गुष्ठाधः पर्वसन्धौ षड्नाडिकात्मनि कव्यञ्जनं ज्ञानादिमात्राभिन्नम्; तर्जनीसन्धौ खकारः, मध्यमासन्धौ गकारः, अनामिकासन्धौ धकारः, कनिष्ठासन्धी डकारो ज्ञानादिदीर्घषण्मात्राभिन्न इति / वामकनिष्ठाधः पर्वसन्धौ ह्रस्वाकाशादिमात्राभिन्नो डकारः, अनामिकासन्धौ धकारः, मध्यमासन्धौ गकारः, तर्जनीसन्धी 10 खकारः, अङ्गुष्ठसन्धौ ककारः. ह्रस्वाकाशादिषण्मात्राभिन्नः इति / एवं दक्षिणे द्वितीयपर्वपंक्तो अङ्गष्ठादिके चवर्गः दीर्घस्वरभिन्नः, वामे ह्रस्वमात्राभिन्नः / एवं दक्षिणतृतीयपर्वपंक्तो दीर्घस्वरभिन्नः टवर्गः, वामे ह्रस्वमात्राभिन्न इति / एवं दक्षि[117a]णपादाङ्गलीपर्वेष दीर्घमात्राभिन्नः पवर्गः. वामे हस्वमात्राभिन्नः। दक्षिणमध्यपर्वेष दीर्घमात्राभिन्नस्तवर्गः, वामे ह्रस्वाकाशादिमात्राभिन्नः। दक्षिण-ऊर्ध्वपर्वसन्धिषु दीर्घ- 15 मात्राभिन्नः . सवर्गः, विलोमेनाकाशादिषण्मात्राभिन्नो वामाङ्गलीपर्वसन्धिष्विति प्रथमवर्षे, द्वितीये गुणवृद्धया भिन्नाः, तृतीये यणादेशादिभिभिन्नाः षड्वर्गा इति / अस्य विस्तारो वक्ष्यमाणे वक्तव्यमिति नेह प्रतन्यते / कण्ठे नक्षत्रनाडोस्त्यजति दिनदिने मासमध्ये क्रमेणेति / कण्ठचक्रे अष्टाविंशन्नक्षत्राणां नाड्यस्तांस्त्यजन्ति अष्टाविंशतिदिनैः स्वरात्मकैः / बिन्दुस्थं ललाटस्थं पक्षमध्ये 20 त्यजति शशिपदं चतुर्दशनाड्यात्मकं चतुर्दशदिनैश्चतुर्दशप्लुतस्वरैः / वारनाडी अष्टदिनैस्त्यजति विषयसत्त्वादिगुणैरिति गुह्यस्थस्त्रिशद्व्यञ्जनात्मिका नाड्यस्त्यजति कालमरण इति नाडीच्छेदनियमः। इदानी कर्मचक्रेषु सूर्यस्वभावेन प्राणस्य क्रमोत्क्रमच्छेदो वर्गसंज्ञाभिर्नाडीनामुच्यते वर्गम्य इत्यादिना वर्गेभ्यः सस्वरेभ्यः क्रमति दिनकरश्वायनं राशिभेदैः पश्चादेकोत्तरेणोत्क्रमति दिनदिने कालवर्ष हि यावत् / छिन्नेऽब्दे पक्षमध्ये स्वरदिवसवशाद् रोहणं च क्ष(क)मश्च निःश्वासोच्छ्वासहानिर्दिननिशिसमये जीवितस्यैकरात्रम् / / 68 // 1. क. ख. पुस्तकयोः 'षड्' इति नास्ति / 2. स. दीर्घः। 3. ग. पुस्तके 'षड्' इति नास्ति / 4. क. टकारः / Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 203 विमलप्रभायां [ अध्यात्म T313 ___ इह कर्मचक्रे द्वादशारे हस्तपादयोदशसन्धिषु प्रत्येकं त्रिंशन्नाड्यात्मकं चक्रम्; तेषु द्वादशचक्रेषु माघमासादित्रिंशत्तिथ्यधिदैवेषु कादयः षड्वर्गाः विसर्गादिषट्दीर्घमात्राभिन्नाः संहारक्रमेण दक्षिणहस्तपादषट्सन्धिषु पृथिव्यादिव्यञ्जनधर्मेण, तथाकाशादिव्यञ्जनधर्मेण सृष्टिक्रमेण प्रत्याहारपाठेन डादिना आकाशादिह्रस्वस्वरभेदभिन्ना वामहस्तपादयोः षट्सन्धिचक्रेषु षड्वर्गाः / तेभ्यो वर्गेभ्यः सस्वरेभ्यः क्रमति दिनकरः प्राणवायुमृत्युना सार्द्ध चायनं राशिभेदैरिति, अयनं प्रथममु[117b]त्तरायणं मकरादिकमाघमासादिकमिति, तदेवायनं दक्षिणवामभुजयोः षट्सन्धिचक्रेषु भ्रमति / तथा क्रियाचक्रे हस्ताङ्गुलीत्रिंशत्पर्वसन्धिषु चक्रषु षड्नाड्यात्मकेषु प्रत्येकैकाङ्गुली पर्वचक्रे कादिव्यञ्जनं षड्दीर्घमात्राभिन्नं दक्षिणकराङ्गुलीपर्वसन्धिचक्रेषु चरति, संहार10 क्रमेण; वामे सृष्टिक्रमेणाकाशादिव्यञ्जनमाकाशादिस्वरभिन्नम् / एवं दक्षिणायनं पादयोः षट्सन्धिचक्रेषु कर्माख्येष्विति अगुलीपर्वेषु क्रियाख्येष्विति / _ अत्र माघे मकरसंक्रान्ती तिथिभेदेन चन्द्रः, संक्रान्तिवारभेदेन सूर्यारोहणं / ' ज्ञेयम् / यत्र सूर्यो वर्धते, तत्र चन्द्रक्षयः; यत्र चन्द्रो वर्धते, तत्र सूर्यक्षय इति / एवं मकरादी' सूर्यवृद्धिः, मकरे दक्षिणस्कन्धबाहुसन्धिचक्रे त्रिंशन्नाडीषु त्रिंशत् कादयो दीर्घमात्राभिन्नाः। संज्ञामिणोऽघिदैवाः, प्राणमिण इति प्रथमनाड्यां क्काः। एवं सर्वपर्वेषु त्रिषु त्रिषु यथाक्रमं वर्णाः; तद्यथा-काः क्क्ल क्क क्कू क्की का इति प्रथमषड्नाडीषु; एवं दक्षिणाङ्गुष्ठपर्वाधःसन्धौ षड्नाडीषु क्रियाचक्रे / एवं ख्खाः लू ख्खू ख्खु ख्खी ख्खा इति कर्मचक्रे द्वितीयषड्नाडीषु क्रियाचक्रे तर्जन्यधःपर्वसन्धौ षड्नाडीषु / तथा ग्गाः ग्ल ग्गू गृ ग्गी ग्गा इति कर्मचक्रे 20 तृतीयषड्नाडोषु क्रियाचक्रे मध्यमाधःपर्वसन्धौ षड्नाडीषु / एवं 'ध्याः लू घ्घू घ्घ घी घ्या इति कर्मचक्रे चतुर्थ षड्नाडोषु, क्रियाचक्रे ऽनामिकाधःपर्वसन्धौ / षड्नाडीषु / एवं ङ्ङाः ल फू ङ ङ्ङी ङ्ङा इति कर्मचक्रे पञ्चमे षड्नाडीषु, क्रियाचक्रे कनिष्ठाधःपर्वसन्धौ षड्नाडोषु / एवं षड्भिः षड्भिदिनैः पृथिव्यादिकं मण्डलं सूर्यस्त्यजति / त्रिंशदिनैः पञ्चमण्डलानि त्यजति, ततो वामनाड्यां कुम्भे 25 संक्राति / तत्राकाशादिक्रमः / कवर्गः कर्मचक्रे क्रियाख्ये चेति / अत्र फाल्गुने कुम्भसंक्रान्तौ वामस्कन्धबाहुसन्धौ कर्मचक्रे त्रिंशन्नाडीषु डकारादीनि व्यञ्जनानि ह्रस्वाकाशादिस्वरभिन्नान्याकाशमण्डलादिना; तद्यथा-ङ ङि ङ ङ ङ्लू डं इति प्रथमषड्नाडोष्वाकाशा दिषण्मण्डललक्षणेषु कियाचक्रे वामकनिष्ठाधःपर्वसन्धौ षड्नाडोषु / एवं घ घि घृ घुघल 30 घं इति द्वितीयषड्नाडीषु वायुमण्डलस्वभावा स्वकर्मचक्र क्रियाचक्र अनामिकाधः पर्वसन्धौ षड्नाडीषु / एवं ग गि गृ गु ग्ल गं इति तृतीयाग्निमण्डलषड्नाडोषु 1. क. ख. मकारायः। 2. ग. पुस्तके नास्ति / 3. स. पुस्तके नास्ति / 4. ल. एवं गति / Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः 203 कर्मचक्र क्रियाचक्र मध्यमाधःपर्वसन्धी षड्नाडीषु / एवं ख खि खु ख्ल खं इति चतुर्थमुदकमण्डलं षड्नाडीषु; कर्मचक्र क्रियाचक्रे तर्जन्यधःपर्वसन्धौ षड्नाडीषु; तथा क कि कृ कु कल क[118a]इति पञ्चमे पृथिवीमण्डलषड्नाडीषु कर्मचक्रे षण्मात्रककारस्य क्रियाचक्रेऽङ्गुष्ठापः प्रथमपर्वसन्धौ षड्नाडीषु / एवमेकऋतौ दक्षिणे वामे मकरकुम्भमासयोः षष्टिकादयो मात्राः संहारसृष्टिभेदेनेति। ततश्च वर्गात् समात्रान् मीनमेषभेदेन क्रमति दक्षिणबाहूपबाहुसन्धी, कर्मचके त्रिंशन्नाडीषु पृथिव्यादिपञ्चमण्डलेषु षड्दिनभेदेन चवर्गान् सस्वरान् क्रमति / संहारस्तद्यथा-च्चाः च्च् च्चू च्च च्ची च्चा इत्यवनौ / छ्छा छ्छ्ल छ्छू छ्छ् छ्छी छ्छा इति जले / ज्जाः ज्ज्लू ज्जू ज्ज जी जा इति अग्नौ / झ्झाः झझलू झ्झू झूझ झ्झी झ्झा इति वायो। आः ल अञी आ इत्याकाशे / त्रिंश- 10 न्मात्राः कर्मचक्रे क्रियाचक्रेऽपि दक्षिणाङ्गष्ठमध्यपर्वात् कनिष्ठामध्यपर्वान्ते पञ्चसन्धिषु षट्पट्नाडीषु चादीनि त्रिंशदक्षराणि संहारक्रमेण ज्ञातव्यानि इति / एवं वामभुजोपभुजसन्धौ कर्मचक्रे त्रिंशन्नाडीषु क्रियाचक्रेऽपि कनिष्ठाङ्गलीमध्यपर्वात् अङ्गष्ठमध्यपर्वान्ते पञ्चसन्धिषु षट्पट्नाडीषु प्रादयो वर्णास्त्रिशद् भवन्ति; तद्यथा- त्रि ऋजुञ्ल अं इति आकाशमण्डले, झ झि झु झु झूल में इति वायो, ज जि जृ जु ज्ल जं इति तेजसि, 15 छ छि छ छु छुट छ इति तोये, च चि च चु च्ल चं इति पृथिव्याम् / एवं वसन्तऋती क्रमति चवर्गः राशि'भेदेनेति / ततो दक्षिणकरोपबाहसन्धौ कर्मचक्रे त्रिंशन्नाडीषु क्रियाचक्रे दक्षिणाङ्गुष्ठोर्ध्वपर्वादिपञ्चसन्धिषु षट्षड्नाडीषु संहारक्रमेण टवर्गान् क्रमति वृषभेदेनेति; तद्यथा-ट्टाः ल टू टू ट्टी ट्टा इति अवनौ, ठ्ठाः ल ठू ठ्ठ ठी ठ्ठा इत्युदके, ड्डाः ड्ड्लू ड्डू ड्ड ड्डी ड्डा इत्यग्नौ, ढ्ढाः ढ्ढ्लू ढ्ढू ढढ़ ढ्ढी ढ्ढा इति वायो, ण्णाः ण्ण्ल एणू ण ण्णी ण्णा इत्याकाशे, एवं संहारेण / ततो वामकरोपबाहुसन्धी सृष्टिक्रमेण कर्मचक्रे त्रिंशन्नाडीषु क्रियाचक्रे वामकरकनिष्ठोज़पर्वादङ्गुष्ठपर्वसन्धिषु षड्नाडीषु आकाशादिमण्डलक्रमेण णकारादीन्यक्षराणि; तद्यथा-ण णि ण णु ण्ल णं [118b] इत्याकाशे, ढ ढि ढ ढु ढल ढं इति पवने, ड डि डु डु ड्ल डं इत्यग्नौ, ठ ठिठ्ठु ठं इत्युदके, ट टि टू टु लु टं इति पृथिव्याम्, वृषमिथुनराशिभेदेन क्रमति ग्रीष्मऋतौ। 25 एवमुत्तरायणे अशीत्युत्तरशताक्षराणि क्रमति दिनकरश्वायनं राशिभैदैरिति / पश्चाकोत्तरेणोरक्रमति दिनदिने इति पश्चाद्दक्षिणायने चन्द्रापानवायो मृत्युः क्रमति, सूर्य उत्क्रमति हीनो भवति / चन्द्रस्य रात्रे वृद्धिर्भवति, यस्य वृद्धिस्तस्य चरणेषु मृत्युः क्रमति इति न्यायात् सूर्य उत्क्रमति हस्ताङ्गुली(लि)मूनिसन्धिभ्यो १.क. ख. मात्रासि; ग. मात्राराशि; भो. Khyim Gyi dBye Bas Tsa sDe (राशि)। 2-3. क. ख. सूर्यवत् क्रमति / 4-5. भो. dMan par Mi hGur (न हीनो भवतीति)। ६.ग. रात्रौ / Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 विमलप्रभायां [ अध्यात्मयावद् दक्षिणस्कन्धबाहुसन्धिप्रथमनाङ्याः पर्यन्तमिति / अत्र दक्षिणायने चन्द्रः' क्रमति दक्षिणकट्युरुसन्धी कर्मचक्रे विंशनाडीषु / दक्षिणाङ्गुष्ठाधःपर्वात् कनिष्ठाधःपर्वान्तं यावत् संहारक्रमेण क्रियाचक्रे पञ्चाङ्गुलीपर्वसन्धिषु षट्क्षड्नाडीषु पवर्गाक्षराणि त्रिंशत् क्रमति, कर्कटभेदेन त्रिवर्षाधिपतिः; तद्यथा-प्पाः प्प्ल प्पू प्प प्पी प्पा इत्यवनी, फ्फा: 5 फ्फ्लू फ्फू फ्फ फ्फी फ्फा इति जले, ब्वाः ब्लू ब्बू ब्ब ब्बी ब्बा इति तेजसि, भ्भाः भल भ्भू भभ भभी भ्भा इत्यनिले, म्माः म्म्ल म्मू म्म म्मी म्मा इत्याकाशे, एवं कर्कटभेदेनेति / ततो वामकट्युरुसन्धौ सृष्टिक्रमेणाकाशादिमण्डलभेदेन त्रिंशदक्षराणि विलोमेनः; तद्यथाम मि म म म्ल मं इत्याकाशे, भ भि भृ भु भ्ल भं इति पवने, ब बि बृ बुब्लू बं इति तेजसि, फ फि फु फु फ्ल फं इत्युदके, प पि पृ पु प्ल 4 इति पृथिव्यां सिंहसंक्रान्तिभेदेन 10 भाद्रपदं क्रमति / एवं वार्ण्यऋतुं चन्द्रः क्रमति, सूर्य उत्क्रमति / ततो दक्षिणोरुजानु सन्धौ कर्मचक्रे क्रियाचक्रे पादाङ्गुष्ठमध्यपर्वात् कनिष्ठामध्यपर्वान्तं पञ्चसन्धिषु षड्नाडोषु T314 तवर्गः क्रमति तेभ्यो राशिसंहारभेदेन त्रिंशदक्षराणि; तद्यथा - त्ताः त्ल त्तू त त्ती त्ता इत्यवनौ, थ्थाः थ्थल थ्थू थ्थ थ्थी थ्या इति जले, दाः ल द् द् द्दी दा इति तेजसि, ध्धाः लू धू धू ध्धी ध्धा इति वायो, न्नाः न्द्र न्नू न्न नी ना इत्याकाशे, एवं कन्या15 भेदेन क्रमति चन्द्र इति / त[119a]तो वामोरुजानुसन्धौ कर्मचक्रे क्रियाचक्रे वामपादक निष्ठामध्यपर्वाङ्गुष्ठपर्यन्तं पञ्चसन्धिषु षट्षड्नाडोषु; तद्यथा-न नि नृ नु (न्ल) नं इत्याकाशे, तथा ध धि धृ धु ल धं इति वायो, एवं द दि दृ दु दल दं इति तेजसि, थ थि थू थु थ्ल थं इति जले, त ति तृ तु ल तं इति पृथिव्याम्; एवं तुलाभेदेन वामे सृष्टिक्रमेण चन्द्रः क्रमति, सूर्य उत्क्रमति शरदतौ इति / ततो दक्षिणपादजानुसन्धौ 20 कर्मचक्रे त्रिंशन्नाडीषु क्रियाचक्रे दक्षिणाङ्गुष्ठोज़पर्वात् कनिष्ठोलपवं यावत् पञ्चसन्धिषु षट्षड्नाडीषु संहारक्रमेण वृश्चिकभेदेन सवर्गान् त्रिंशदक्षराणि समात्राणि क्रमति चन्द्रः; दक्षिणे सूर्य उत्क्रमति; तद्यथा-स्साः स्स्लू स्सू स्स स्सी स्सा इत्यवनिमण्डले, य्याः य्य्ल य्यू य्य य्यी य्या इति जले, षाः ष्ष्ल ष्षू ष ष्षी ष्षा इति तेजसिं, श्शाः श्श्लू श्शू श्श श्शी श्शा इति वायौ, एवं काः क्लू कू क की का इत्याकाशे षड्नाडीषु त्रिंशदक्षराणि वृश्चिकभेदेनेति / ततो वामपादजानुसन्धौ कर्मचक्रे त्रिशन्नाडीष क्रियाचक्रे कनिष्ठागुल्यूज़पर्वादङ्गुष्ठो+पर्व यावत् पञ्चपर्वसन्धिषु षट्षड्नाडीषु सृष्टिक्रमेण त्रिंशदक्षराणि चन्द्रः क्रमति, सूर्यो वामभुजायां स्कन्धधातूत्क्रमति धनुराशिभेदेनेति; तद्यथा-क कि कु कु क्ल कं इत्याकाशे, तथा श शि शृ शु श्ल [शं] इति वायौ, ष षि षषु ष्ल षं इति तेजसि, य्य य्यि य्य य्यु य्य्ल य्यं इत्युदके, एवं स सि सृ सु स्ल 3. सं इति पृथिव्याम्, एवं त्रिंशदक्षराणि धनुभेदेनेति / अतः शिशिरऋतोरारभ्य चन्द्रस्य क्रमणाभावः / 1. क, ख, चन्द्र। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 205 पटले ) . ___ अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः पुनर्मकरादी सूर्यस्य वृद्धिरिति / प्रथमवर्षे सत्त्वगुणभेदेन काल: सूर्यचन्द्राभ्यां सह क्रमि(म)ति, ततो द्वितीये वर्षे रजोभेदेन गुणवृद्धिस्वरैः कादयो वर्णास्त्रिशत् त्रिंशन्नाडीषु वर्मचक्रे क्रियाचक्रे पूर्ववद् वेदितव्या इति / मकरे संहारक्रमेण; तद्यथा-काः काल क्को क्कार् क्कै क्का इत्यवनौ, तथा रुखाः ख्खाल् खो खार् खै ख्खा इत्युदके, ग्गाः ग्गाल् ग्गौ ग्गार् ग्गै ग्गा इति तेजसि, घ्याः घ्याल् घ्घौ घ्घार घ्यै घ्या इति वायो, ङ्काः डाल ड्डौ डार् ङ्ङे ङ्ङा इ[119b]त्याकाशमण्डले, दक्षिणबाहोः पूर्ववत् मकरभेदेन सूर्यः क्रमति, चन्द्रो दक्षिणपादे उत्क्रमति, तथा कुम्भभेदेन सृष्टिक्रमेण गुणसहितेभ्यः क्रमति, वामबाहुसन्धौ; तद्यथा-ङ ङ ङर् ङो ङल डं इत्याकाशे, घ घे घर घो घल छ इति वायौ, ग गे गर् गो गल् गं इति तेजसि, ख खे खर् खो खल खं इत्युदके, क के कर् को कल के इति पृथिव्याम्, कुम्भभेदेन वामे सृष्टिक्रमेण; एवं 10 मीनमेषयोः यथासंख्यं चवर्गाक्षराणि त्रिंशत्-त्रिंशत्-संहारसृष्टिक्रमेणेति दक्षिणवामे सन्धिनाडीषु वसन्तऋतौ; तथा टवर्गाक्षराणि ग्रीष्मऋतौ / ततः सूर्य उत्क्रमति, चन्द्रः क्रमति / कर्कटके सिंघे(हे) पादसन्धौ त्रिंशन्नाडोषु दक्षिणे वामे पूर्ववत् वृद्धिगुणसहितेभ्यत्रिंशदक्षरेभ्यः क्रमति / वार्ण्यऋतौ पवर्गाक्षराणि वृद्धिगुणैर्युक्तानि क्रमति चन्द्रः, शरदि तवर्गाक्षराणि, शिशिरे सवर्गाक्षराणि संहारसृष्टिक्रमेणेति / एवं द्वितीयवर्षे 15 षष्ट्युत्तरत्रिशतमात्रान् चन्द्रसूर्यो क्रमत इति; ततस्तृतीये वर्षे तमोभेदेन काल: सूर्येण सार्द्ध कादिवर्गेभ्यः सस्वरेभ्यश्चरति' / अत्र यणादेशाः स्वरा उच्यन्ते तैः सार्धं त्रिंशत्-त्रिंशदक्षराणि तमोविषयकालश्चरति इति संहारसृष्टिभेदेन पूर्ववद्धस्तपादसन्धिषु कर्मचक्रे क्रियाचक्रेष्विति; तद्यथा-कहाः क्क्ला क्क्वा क्का 20 क्या कहा इत्यवनौ मकरभेदेनेति; [तथा] ख्हाः रुला ख्वा ख्खा ख्ख्या रुख्हा इति 'जले; तथा ग्रहाः ग्ला ग्वा ग्ग्रा ग्ग्या ग्रहा इत्यनले; हाः घ्ला वा घ्घ्रा घ्या ध्व्हा इति वायौ; डहाः ङ्ङ्ला ङ्ङ्वा ङ्गा या ङङहा इत्याकाशे / एवं सूर्यः क्रमति दक्षिणे, ततो वामे सृष्टिक्रमेणेति / ङ्ह ड्य ङ ङ्व ङ्ल डह इत्याकाशे / घ्ह ध्य घ्र घव घ्ल हं' इति वायौ / म्ह ग्य ग्र ग्व ग्ल म्ह' इति तेजसि / रुह ख्य ख ख्व खुल रूह इत्युदके / वह क्य क्र क्व क्ल कह इत्यवनौ / एवं वामे सष्टिक्रमेण त्रिंशन्मात्रांश्वरति सूर्यः शिशिर ऋतौ / एवं वसन्ते चवर्गः, ग्रीष्मे टवर्गः। ततः सूर्य उत्क्रमति षट्सन्विभ्यः / चन्द्रः पादसन्धौ क्रमति / वायें पूर्ववत् पवर्गः। शरदि तवर्गः। हेमन्ते सवर्गः, संहारभेदेन सृष्टिभेदेनेति / एवं तृ[120a]तीये वर्षेऽपि षष्ठ्युत्तरत्रिशतमात्रान् क्रमति दिनकरः। 1. ग. स्वस्वरेभ्यः०। 2. ग. तद्यथा; भो. De bSin Du ( तथा ) / 3. भोटे सर्वत्रान्ते सानुस्वारं दृश्यते, संस्कृतेऽपि तथैव / अत एव प्रथमाक्षरतोऽन्तिमाक्षरो भिन्नः; भोटे च सर्वत्रान्तिमे ज्ञेयः / 4. क, ख. एवं वसन्त / 27 . Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 विमलप्रभायां [ अध्यात्मकालवर्ष हि यस्मात् तस्मादेवाशीत्युत्तरसहस्रदिन'क्षयस्तयोर्वेदितव्य इति त्रिवर्षनाडीच्छेदो व्यञ्जनानामिति नियमः / ___ ततः छिन्नेऽब्दे सति पक्षमध्ये पञ्चवत्वारिंशत् ह्रस्वदीर्घप्लुतस्वरधर्मेण स्वरदिवसवशात् पञ्चचत्वारिंशद्दिनवशाद् रोहणं च मृत्योः सूर्यभेदेन सूर्यस्य, चन्द्रभेदेन चन्द्रस्य / रोहणमिति कण्ठे अष्टाविंशद् दिनानि, ललाटे चतुर्दशदिनानि पूर्वोक्तानि, गुह्ये त्रिदशकमिति त्रिंशद् दिनानि, ततः कण्ठे दिनचतुष्टयम्, ललाटे दिनद्वयं जीवितस्य त्रिरात्रम् / अपरमत्र स्वरच्छेदे तिथिः षट्पश्चाशद्दण्डात्मिका ग्राह्या। एवं पञ्चचत्वारिंशत्तिथयः स्वरधर्मिण्यः, तिस्रः शून्यधर्मिण्य इति व्यञ्जनधर्मऽप्येवं दिनद्वयम् / एतासु दिनाष्टकं हृदयकमले आरोहते, ततो दशवायूनां समाहारः। 10 कणिकायां निःश्वासोच्छ्वासचक्रस्य यावद् हानिर्दिननिशिसमये जीवितस्यैकरात्रं भव तीति / ततः कर्मवशादन्यत्र विज्ञानसंक्रमणमिति नियमो मध्यमामरणे सति प्राणिनां शतायुषामिति नाडीच्छेदनियमः / इदानीं निर्माणचक्रादिषु षट्दिनावधेर्मरणादवशेषनाडिका दशवायुवाहिन्य उच्यन्ते नाभावित्यादिना नाभौ कण्ठे ललाटे स्वहृदयकमले नाडिकाः सावशेषास्तिष्ठत्यर्को रसोऽग्निः स्वहृदयकमले सार्द्धनाडी तथैव / पाणेः पादस्य सन्धौ तिथिगुणितयुगाः षड्दिनं यावदेव अन्ते सर्वत्र सूक्ष्मा प्रवहति दिवसं च त्यजन्ती हृदब्जम् // 69 // इह नाभिचक्रे बाह्यमण्डलवाहिनी नाडीक्षयपरित्यागात् त्रिवर्षीय त्रिपक्षरो20 हणे व्यञ्जनारोहणे षड्दिनं यावद् द्वादशराशिनाड्यः शून्यमण्डलपृथिवीमण्डलात्मिकाः ____ श्वासचारेणावतिष्ठन्ते(ते) अर्क इति / एवं कण्ठे षण्मुहू[120b]र्त्तवाहिन्यो, रस इति / T 315 चन्द्रस्यार्द्धप्रहरवाहिन्यः तिस्रो ऽग्निरिति / हृत्कमले प्रहरवाहिनी सार्द्धनाडी स्वहृदय कमले साद्ध'नाडी तथैव सावशेषा इति / पाणेः पादस्य सन्धाविति षष्ट्युत्तरत्रिशत नाडीमध्ये कर्मचक्रे क्रियाचक्रे सन्धिषु / तिथिगुणितयुगा इति षष्टिनाड्यो दशवायुवा25 हिन्य इति / द्वादशसन्धीनां प्रत्येकसन्धौ पञ्चपञ्चनाड्यो दशवायुवाहिन्य इति शेषाः / कालमृत्युर्वायुर्महातमो धर्मो क्रियाचक्रे षष्टिसन्धिषु एकैकनाडी दशवायुवाहिनी पञ्चपञ्चकालमृत्युमहावायुवाहिन्य इति; एवं षड्दिनं यावत् / ततः षड्दिनैरिन्द्रियविषयनाडीक्षयं कृत्वाऽन्ते मरणदिने सर्वत्र सूक्ष्मा मध्यमावधूती वहति चन्द्रसूर्यविण्मूत्रवाहिनीं त्यक्त्वा महातमः कालवायुर्मरणान्तं वहति यावत् श्वासचक्रक्षयो भवतीति नियमः / दिवसं च 30 त्यजन्तीति हृदब्जमिति / एवं सूर्यचन्द्रारोहणनाडी व्यञ्जनकर्मक्रियाचक्रावशेषनाडी श्वासच्छेदकालमरणनियमो भगवतोक्तः / १.क. ख. दिनकर / 2. क. ख, अर्घ / 3. क, ख, त्रिशो। 4. क. ख. कर्म / Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] . अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः 207 इदानीं चन्द्रसूर्यचारक्षयेण कालवृद्धिरुच्यते षट्त्रिंशद्भिरित्यादिनाषट्त्रिंशद्भिः सहस्र ध्रुशतदिनगणे रोहते कालनाडी यां यां सूर्येन्दुशक्तिदिननिशिसमये पूरितं स्वस्वचारैः / सूर्याऽहः सूर्यचारे त्वृणमपि च भवेच्चन्द्रचारे तदर्द्ध नक्षत्राहः प्रभेदै रविशशिचरणं शून्यमासे च मृत्योः // 70 // इह वर्षशते दिनगणे कृते षट्त्रिंशतसहस्रदिनानि भवन्ति / धरिति वर्षसंज्ञा, तैः षट्त्रिंशद्भिः सहस्र ध्रुशतविनगणै रोहते कालनाडी, मृत्युः नाडीषु वर्द्धते द्वासप्ततिसहस्रेषु मृत्युवायुः प्रविशति / पञ्चमण्डलवायुः क्रमतोऽपसरति षष्ठांशं' तत्र स्थापयित्वेति / कां रोहते कालनाडीवायुः ? यां यां पूरितं सूर्येन्दोर्न शक्तिदिननिशिसमये स्वस्वचारैनक्षत्रचारेण सूर्यस्याशक्तिरिति, तिथिचरणैश्चन्द्रस्याशक्तिरिति[121a]। 10 सूर्याऽह इति द्वादशदिनानि सूर्यचारे त्वृणमपि भवेच्चन्द्रचारे तदद्धं षड्दिनानि / अत्र प्रतिमासे त्रिंशद्दिनन्न राशिमेकं सूर्यश्च रति, न चन्द्रः षष्टिदण्डानिति द्यौ चरति / अतो नक्षत्राहःप्रभेदै रविशशिचरणं शून्यमासे च मृत्योः, तयोर्यत्राशक्तिः स शून्यमासो द्वात्रिंशन्मासान्ते, स च चतुःषष्टीनाड्यात्मक इति / तासु चतुःषष्टिनाडीषु शून्यवायुः प्ररोहते, नाभिकमले द्वासप्ततिसहस्राणां मध्ये प्रत्यहं नाडीद्वयं रोहते इति सामान्यश्छूल- 15 * (स्थूल)नियमः। इदानीं प्रत्यहं श्वासभेदेनारोहणमुच्यते प्राणा इत्यादिनाप्राणा देहेऽधिका ये प्रकटितविषुवे वेदपादोनषष्टिः सर्वे संक्रान्तिभेदैः प्रतिदिनसमये नाडियुग्मं निहन्ति / भूयो भूयोऽब्दमध्ये रविशशिचरणात् शून्यनेत्राद्रिसंख्या . एवं कालः शताब्दैः क्रमति सुरनृणां स्वायुषं स्वस्वमानैः // 71 // इह षट्शताधिककविंशत्सहस्राणां मध्ये ये ज्ञानमण्डलवाहिनो भवन्ति ते देहे श्वासाधिका इत्युच्यन्ते / प्रकटितविषुवे उभयलग्नमध्ये पादे वेदोनषष्टिः सपादषट्पञ्चाशदिति; ते सर्वे द्वादशसंक्रान्तिभेदैः पञ्चसप्तत्यधिकपुटशतं भूत्वा प्रतिदिनसमये नाडीयुग्मं निहन्तीत्यागमपाठः; घ्नन्तीति रूपम् / इदं नाडीयुग्मं वामे दक्षिणे द्वासप्तति- 25 नाडीसहस्राणां मध्ये नाडीयुग्मं घ्नन्ति पञ्चमण्डलवायुसञ्चारविनाशो भवतीति / शेषाः पञ्चचत्वारिंशच्छ्वासाः तिष्ठन्ति भूयो भूयोऽब्दमध्ये; एवं प्रतिदिनं नाडी युग्मं हन्यमाना ऽन्दमध्येऽब्ददिनैः षष्ठ्युत्तरत्रिशतदिने रविशशिचरणात् दक्षि[ण]वाममण्डलसञ्चारात् / 1. Drug Cuhi Cha Sas (षष्टयशं)। २.ख. तदुवं / 3. क. श्वासादिका / 4. ख. पूर्वे / Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 विमलप्रभायां / अध्यात्म शून्यनेत्राद्रिसंख्या इति विंशत्यधिकसप्तशतानीति / एवं कालः शताब्दैः षट्त्रिंशद्भिः सहस्रदिनैः क्रमति / सुरनृणां वा(स्वा)युष[1] द्वासप्ततिनाडीसहस्रं पञ्च[121b]मण्डलवाहकम्, चन्द्रादित्यचरणमिति / स्वस्वमानैः पूर्वोक्तः सूक्ष्मतनु'[ज]भूतदेवादिदिनैरिति नाडीच्छेदनियमः। इदानीं कालनाडीस्वभाव उच्यते दष्टमित्यादिनादष्टं व्याधिः प्रहारो यदि भवति नृणां कालनाड्यां कदाचित् / शीघ्र तेनाश्रयेण प्रविशति सहसा मूलचक्रेषु कालः / रुद्ध्वा चक्रषु नाडी रविशशिगमनं छेदयित्वा समस्तं मध्ये सूक्ष्माश्रितं यद् हरति नरपते जीवितं प्राणिनां च / / 72 / / . ___ इह शरीरे कालनाड्यां मध्यमाप्रवाहकाले यदि दष्टं भवति, व्याधिर्भवति, प्रहारो वा नृणां कदाचित्; तदा शोधू तेनाश्रयेण प्रविशति सहसा मूलचक्रेषु षट्सु / कालो महातमो वायुः। स च प्रविष्टः सन् षट्चक्रेषु षट्पञ्चाशदम[धि]कनाडोशतम्, असौ रुद्ध्वा रविशशिगमनं सव्येतरनाड्यां छेदयित्वा समस्तं मध्ये सूक्ष्माश्रितम्, अवधूतीनाड्याश्रितं यज्जीवितं प्राणवायुः तद् हरति नरपते जीवितं प्राणिनामिति 15 कालनाडीनियमः। इदानीं धर्मचक्रादौ चन्द्रचरणा न्युच्यन्ते हृत्पद्म इत्यादिनाहृत्पद्म श्रीललाटे चरति शशिपदं भूतदिग्वासराख्यं सम्भोगे नाभिचक्रे नवदशसहितं रुद्रयुग्मं जिनाख्यम् / तत्त्वाख्यं सप्तरात्रात्त्यजति पुनरसावुत्क्रमन् यः शशाङ्को बिन्दौ पूर्णा प्रकृत्य प्रविशति हृदये शुक्लपक्षे क्रमेण / / 73 // इह चन्द्रस्य चरणभेदेन चतुर्दशभागेन समविषमगतेन तिथिषु वृद्धि निर्वा / सा सप्तमदिने सप्ततिथिषु[122a] पञ्चविषयगुणा बालकुमारादिभेदेन सप्तमे दिने वृद्धिहनिर्वा निवर्तते विंशत्यधिकशतचरणेषु पूर्णेषु / अत्र विंशत्यधिकशतांशान्युच्यन्ते इह चतुर्दशभागावशेषे एकचरणे दृष्टे तद्दिनकलायाः षष्टिनाडिकांशानां मध्ये पञ्चनाडिकांशाः कलाया धनेऽधिका भवन्ति, कृष्णायाः शुक्लाया वा ऋणस्थाने हीना भवन्ति / द्वितीये दिने द्वितीयायाः पञ्चांशाः, प्रथमायाः कुमारभेदेन द्विगुणा ज्ञातव्या 1. क. ख. तत्र; भो. Lus sKyes ( तनुज)। 2-3. क. ख. तद्वति / 4. क. ख. ०वरणा। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः 209 इति / एवं तृतीयदिने तृतीयायाः पञ्चांशाः; एवं द्वितीयायाः दश, प्रथमाया वा[यु]भेदेन पञ्चदश / एवं बालप्रभेदेन चतुर्थ्याः पञ्चांशाः, तृतीयाया दश, द्वितीयायाः पञ्चदश, प्रथमाया युवाभेदेनकोनविंशतिः / एवं पञ्चमे दिने पञ्चम्यां(:) पञ्चांशाः, चतुर्थ्या दश, तृतीयायाः पञ्चदश; द्वितीयाया एकोनविंशतिः, प्रथमाया वृद्धभेदेन द्वाविंशतिः / एवं षष्ठे दिने षष्ठ्याः पञ्चांशाः, पञ्चम्या दश, चतुर्थ्याः पञ्चदश, तृतीयाया एकोनविंशतिः, 5 द्वितीयाया द्वाविंशतिः; प्रथमाया अतिवृद्धिद्धीभेदेन चतुर्विंशतिः। एवं सप्तमे दिने सप्तम्याः पञ्चांशाः, षष्ठ्या दश, पञ्चम्या पञ्चदश, चतुर्थ्या एकोनविंशतिः, तृतीयाया द्वाविंशतिः, द्वितीयायाः चतुर्विंशतिः, प्रथमायाः पक्वावस्थाभेदेन सप्तमे दिने पञ्चविंशत्यंशाः धनं वा ऋणं वा चरणवशाद् भवन्ति / एवं बालादिक्रमेण सर्वेषां प्रमेयो ज्ञेयः / एवं सप्ततिथीनां चरणांशान् गृहीत्वा हृत्कमलादिषु विंशत्यधिकशतदलेषु शशाङ्कः 10 क्रमति, ततः पुनरुत्क्रमति / शशिपदं स्वकीयं पदमित्यर्थः / हृदयेऽष्टदलेष्वष्टांशाः, ललाटे षोडशदलेषु षोड़शांशाः, सम्भोगे द्वात्रिंशद्दलेषु द्वात्रिंशदंशाः, नाभिकमले चतुःषष्टिदलेषु चतुःषष्ट्यंशाः। एवं विंशत्यधिकशतांशान् भुक्त्वा चन्द्रकलाया हानिर्वा वृद्धि निवर्तते / हृत्पद्मे ललाटे च भूतदिग्वासराख्यं सम्भोगे नाभौ च नवदशसहितं रुद्रयुग्मं जिनाख्यम् / तत्त्वाख्यं सप्तरात्रात्यजति पुनरसो उत्क्रमन् यः शशाङ्कः / प्रथमकलायाः 15 T316 पञ्चविंशत्यंशाः परिपक्वाया भवन्ति; सा चाष्टमे दिने ना[122b]भाव[1]धिदेवता भवति / पुनः पूर्णमास्यां नाभिहृत्कण्ठललाटेषु पूर्णं करोति / बिन्दुस्थाने बिन्दी पूर्णा प्रकृत्य इति, ततो नाभेः पुनरुत्क्रमन् चतुःषष्टिदलेषु चतुःषष्टयंशाः, हृदयेऽष्टांशाः, कण्ठे द्वात्रिंशदंशाः, ललाटे षोडशांशाः; एवं चतुर्दशदिनैः पदानां पूर्ण भवति / तस्मिन् पूर्णा प्रकृत्य प्रविशति हृदये शुक्लपक्षे धनपक्षे क्रमेण / भूयः कृष्णे च तद्वद् व्रजति पदपदान् नाभिपद्मे हि यावदष्टारे षोडशारे हृदि शिरसि तथा कृष्णशुक्ल()ब्जसंज्ञे। कण्ठे द्वात्रिंशदारं द्विगुणितमपरं रक्तपीतं च नाभौ द्वयष्टम्यौ नाभिकण्ठे शिरसि च हृदये श्वेतकृष्णा च पूर्णा / / 74 // आद्यास्त्रिशत् स्वरा ये हयरवलयुता बिन्दुभिः श्रीविसर्गभिन्नाः षष्टिर्बभूवुर्युगनृपवसुदन्ताश्च ते केशराने / बिन्द्वाकारैविसर्गर्वरकमलदले कादिवर्गा विभिन्नाः विंशत्येकं शतं च प्रहरगतिवशाद् रोहते क्षीयतेऽर्कः / / 75 // भूयः कृष्णे च तद्वद् ऋणपक्षे पूर्ववदुत्क्रमेण वायुपृथिवीतोयाग्निपनदलेषु संहारेण यावद् ऋणपूर्णा कृष्णपदानां हृदये भवतीति पदनियमः / अत्र कमलान्यष्टारं हृदये कृष्णम्, षोडशारं शिरसि शुक्लम्; कण्ठे द्वात्रिंशदारं ' रक्तम्, द्विगुणितं तस्यापरं चतुःषष्ट्यारं नाभी पोतमिति पद्मदलनियमः / 30 Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 विमलप्रभायां अध्यात्मइदानीं चतुःपर्वस्ना(स्था)नमुच्यते द्वयष्टम्यावित्यादिना इह हृत्कमलादिषु वायुतेजउदकपृथ्वीधातुस्वभावेषु चन्द्रः स्वरभेदेन कर्णिकाकेशराग्रेषु चरति। आधास्त्रिशत् स्वरा ये हयरवलयुता बिन्दुभिः श्रीविसर्गभिन्नाः षष्टिर्बभूवु5 रिति / इह पूर्वोक्ता ह्रस्वाः पञ्च, गुणरूपाः पञ्च, यणादेशाः पञ्च ह्रस्वाः; एते पञ्चदश बिन्दु[123a]भिभिन्नास्त्रिशद् भवन्ति / दीर्घवृद्धिस्थानीया हादयः पञ्चदश, त्रिंशद् विसर्गविभिन्नाः; एवं षष्टिर्बभूवुरिति / ते युगनुपवसुदन्ताश्च केशराने इति / अत्र हृत्कमले चन्द्रोऽमां कृत्वा पूर्वापरार्द्धकलाभेदेन पञ्चदशतिथिभिस्त्रिशत् स्वरांश्चरति / अत्र हृत्कमले केशराग्रे शुक्लप्रतिपत् पूर्वार्द्ध अ, अपरार्द्ध अं; द्वितीयायां पूर्वार्द्ध इ, अपराद्धं ई इति हृदये युगचत्वारः कणिकां वर्जयित्वा / ततः कण्ठकमलकेशराने तृतीयायां पूर्वापरार्द्धः ऋ ऋ; एवं चतुर्थ्यां उ ऊ, पञ्चम्यां ल लं, षष्ठ्यां अ अं, . सप्तम्यां ए ए, अष्टम्यां पूर्वार्द्ध अर केशराने, अपरार्द्ध अरं कणिकायामिति; . नवम्यां ओ ओं, दशम्यां अल अलं इति कण्ठकमले केशराने चरति / ततो ललाटकमलकेशराने एकादश्यां पूर्वापराद्धं ह हं, द्वादश्यां पूर्वापरार्द्ध य यं, त्रयोदश्यां र 15 रं, चतुर्दश्यां व वं, पूर्णायां पूर्वार्द्ध ल इति केशराने, अपरार्द्ध लं कर्णिकायामिति / शिरसि पूर्णा चन्द्रस्य सृष्टिक्रमेण वायु-तेज-उदक-कमलकर्णिकासु चरति; ततः पृथ्वीकमलकर्णिकासु संहारक्रमेण कृष्णपक्षे दीर्घान् सविसर्गान् चरति; तद्यथा-कृष्णप्रतिपदि पूर्वार्द्ध लाः, अपराद्धं ला / एवं द्वितीयायां वाः वा, तृतीयायां राः रा, चतुर्थ्यां याः या, पञ्चम्यां हाः हा, षष्ठयां आल: आल, सप्तम्यां औः औ, अष्टम्यां आरः, कणिकायां आर, नवम्यां ऐः ऐ, दशम्यां आः आ, एकादश्यां लूः लू, द्वादश्यां ऊः ऊ, त्रयोदश्यां ऋ ऋ, चतुर्दश्यां ईः इ, पञ्चदश्यां आः आ। अत्र कणिकायां द्वयं शून्यकम्, एतयोः कणिकायां न' स्वरविसर्गौ / पुनः हृत्कमले अमावस्यान्ते प्रतिपदाद्यं हृतकमलकेशराने श्वेतकृष्णा च पूर्णा नियमः। शुक्लाष्टमी कण्ठकमलकेशराग्रे कणिकायां च; कृष्णाष्टमी नाभिकमले केशराने कणिकायाम्, पूर्णा कृष्णा हृदये, पूर्णान्तं शिरसि, हृदय इति 25 अमावस्यान्तप्रतिपत्प्रवेशकाल इति नियमः। इदानीं सूर्यव्यञ्जनभोगा उच्यन्ते बिन्द्वित्यादिना इह कादयो वर्गा बिन्द्वाकारैविसर्गश्चतुभि[123b]भिन्नाः सन्तो विंशत्यधिकाक्षरशतं भवति, तदेव वरकमलदले विंशत्यधिकशते प्रहरगतिवशाद रोहते क्षीयतेऽकः संहारसृष्टिभेदेनेति / अत्र प्रहरगतिः चतुःसन्ध्या, तासां गतिवशात् प्रहरगतिवगादिति / 30 अत्र हृत्कमले अमावस्यान्तं प्रतिपदादौ चतुःषष्टिदलेषु चतुर्दलानि शून्यानोति; तेषु प्रतिपत् स्साः स्सा, याः या इति चतुर्दलेषु चतुःसन्ध्या प्रतिपदा स्सादीश्वरति अर्क इति / एवं द्वितीयायां ष्षाः षा, श्शाः श्शा इति / एवं ततीयायां क्काः क्का, ताः ता इति; 1-2. क. ख. सस्वरौ विसर्गः; ग. अस्वरौ विसर्गः; भो. dByais Dai rNam par bCad pa Med Do (न स्वरविसर्गों)। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः 211 चतुर्थ्यां थ्थाः थ्था, द्दाः द्दा इति; पञ्चम्यां ध्धाः ध्धा, नाः ना इति; षष्ठयां प्पाः प्पा, फ्फाः फ्फा इति; सप्तम्यां ब्बाः ब्बा, भ्भाः [भा इति; अष्टम्यां म्माः म्मा, डाःट्टा इति; नवम्यां ठाः ठ्ठा, ड्डाः ड्डा इति; दशम्यां ढ्ढाः ढ्ढा, ण्णाः ण्णा इति; एकादश्यां चाः चा, छ्छाः छ्छा इति; द्वादश्यां ज्जाः ज्जा, इझाः इझा इति; त्रयोदश्यां ज्ञाः ञा, क्काः क्का इति; चतुर्दश्यां ख्खाः ख्खा, ग्गाः ग्गा इति; शक्लपौर्णमास्यां घ्याः घ्या, ड्डाः / ङा इति / नाभिकमलदलेषु सूर्यः सादिवर्गाक्षरं भुक्त्वा निवर्तते इति / शिरसि स्वचारेण चन्द्रः प्रविशति / ततः सूर्यभुक्तकमले चन्द्र आगच्छति, चन्द्रभुक्तकमलेषु सूर्यो गच्छति, सृष्टिक्रमेण कृष्णपक्षे[ सूर्यः ]', चन्द्रः संहारक्रमेणेति / इह सर्वत्र यदा चन्द्रः सृष्टया चरति, तदा सूर्यः संहारेण; यदा सूर्यः सृष्टया, तदा चन्द्रः संहारेणेति नियमः / इदानीं ललाटकमलादिदलेषु सूर्यः ङादिवर्गाक्षरं चरत्युत्क्रमेण, कृष्णप्रतिपदि ङ 10 डं, घघं ललाटै चतुर्दलेषु चरति; द्वितीयायां ग गं, ख खं; तृतीयायां क कं, अं; चतुर्थ्यां झ झं, ज जं / ततः कण्ठकमलदलेषु पञ्चम्यां छ छं, च चं; षष्ठयां ण णं, ढ ढं; सप्तम्यां ड डं, ठ ठं; अष्टम्यां ट टं, म मं; नवम्यां भ भं, ब बं; दशम्यां फ फं, प पं; एकादश्यां न चं, ध धं; द्वादश्यां द दं, थ थे; त्रयोदश्यां त तं, क कं हृदयकमलदलेषु; चतुर्दश्यां शशं, षषं इति / ततो अमावस्यांय यँ, स सं कणिकाकेशराग्ने / हृदयममान्त- 15 मनाहतं बिन्दु[124a]शून्यं षडक्षरमिति / पञ्चाक्षरं महाशून्यमिति चन्द्रार्क नियमः / . इदानीं चन्द्रसूर्ययो द्ध(ध)नमृणमुच्यते चन्द्र इत्यादिनापक्षे चन्द्रः स्वचारैऋणमपि कुरुते वासराख्यं पदं च भूयो मासद्वयेन त्वपरमपि दिनं वर्द्धते वर्षयोगात् / पूर्णेऽब्दे षड्दिनं स्यादपरमपि तथा वर्द्धते मृत्युसीम्नः एवं सूर्यस्य राजन् द्विगुणमृणमिदं वर्द्धते वर्षवर्षात् // 76 / / . इह तिथिध्रुवके प्रतिदिनं 'देया हेयाश्च देया' इति वचनात् वारस्थाने षष्टिघटिकात्मिका कला दीयते / तस्या ऋणहेतोघटिकास्थाने घटिका ऊना; अत एकघटिकोना कला प्रत्यहं स्थूलमानेन, सूक्ष्ममानेन सपादषट्पञ्चाशत्पाणिपलानि / कुतः ? यतः चतुःषष्ट्या भागलब्धेऽहर्गणे ऋणं भवति; अतः प्रत्यहं सपादषट्पञ्चाशत्पाणीपलानि 25 चतुःषष्टिदिनैदिनमृणं कलाक्षयमित्यर्थः / सूर्यस्य दिनद्वयमिति / एवं पक्षे चन्द्रः स्वचारैऋणमपि कुरुते वासराख्य पदं च, पञ्चदशघटिकाख्यं पदमिति / तिथौ चतुर्थभागाख्य- T317 1. भोटानुसारमत्र 'सूर्यः' इति अपेक्षितः प्रतीयते, किन्तु संस्कृतप्रतीषु अयं न लम्यते भोटक्रमश्चेत्यम्-Nag Pohi Phyog La Nima Syed pahi Rim pas Te Zla Ba Dud pahi Rim pas Sol 2. क. ख. पुस्तकयोः नास्ति / 3. क. ख. 0 लब्धो / Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 विमलप्रभायां [ अध्यात्म 5 मिति / चकारात् सपादषट्पञ्चाशत्पाणीपलोनमिति / भूयः पुनः प्रतिदिनहानिना(न्या) मासद्वयेनापरमपि दिनं चतुःषष्टिदिने ऋणं भवति, पुनवर्द्धते वर्षयोगात् / पूर्णेऽब्दे षड्दिनं स्यात्, पूर्वोक्तविधिनोनम्, अपरमपि तथा वद्धते मृत्युसीम्नः, मृत्युसीम्नो वर्षशतम्; ततो मृत्युसीम्नः सार्द्धद्वाषष्टयधिकशतपञ्चकं दिनगणं ऋणं वद्धते / एवं सूर्यस्य राजन् द्विगुणमृण'मिदं वद्धते वर्षशतान्(वर्षात्) नृत्युसीम्नः पञ्चविंशत्यधिक-एकादशशतदिनगणं वर्द्धते मृत्युसीम्न इति ऋणनियमः। इदानीं श्वासादिभेदेन वर्षसंख्या उच्यते षट्वासरित्यादिनाषट्श्वासरेकलिप्ता प्रभवति घटिका षष्टिपाणीपलेश्च षष्टीनाड्यो दिनं स्यात् त्रिगुणितदशभिर्वासरेसिमेकम् / [124b] षण्मासैश्चायनं स्याद् द्विगुणितमयनं वर्षमेकं प्रसिद्धम् आयुः पुंसां शताब्दादृणगतिषु गतं कालनाडीवशेन / / 77 // इह शरीरे मनुष्याणां श्वासप्रश्वासैः षड्भिरेकलिप्ता भवति, सा च पाणीपलमुच्यते / तैः षष्टिभिः पाणीपलेरेकघटिका भवत्येकदण्डात्मिका ताः षष्टिनाड्यो दिनमहोरात्रं स्यादिति, तैर्दशभिस्त्रिगुणितैस्त्रिशत्मासमेकं वासरैरिति / तैः षण्मासैमकरादिभिरयनमेकं भवति / तदेवायनं द्विगुणितं वर्षमेकं प्रसिद्धम् / अतः शताब्दायुः पुंसामृणगतिषु गतं तमोनाडीगतिषु गतं कालो मृत्युस्तस्य नाडीवशेनावधूतीसंख्याधर्मेणेति कालनाडीनियमः। इदानीमीश्वरादीनां कुशीदत्वमुच्यते त्रैलोक्य इत्यादिनात्रैलोक्ये नास्ति योगी सुरभुजगनृणां पूरितुं यः समर्थश्चन्द्रादित्यौ स्वदेहे चरति दिनगणं नैव चन्द्रस्वचारैः / . सूर्यश्चऑणि सर्वाणि चरति भुवने वर्षमध्ये क्रमेण वर्षे वर्षे त्वृणेन असति सभुवनं कालचक्र कवीरः // 78 // ___ इह त्रैलोक्ये सुरभुजगनणां मध्ये योगी नास्ति यः समर्थः पूरितु चन्द्रादित्यौ स्वदेहे / तत् कस्माद्धेतोः ? यतः स्वचारैश्चन्द्रः षष्ट्युत्तरत्रिशतदिनगणं न चरति वर्षा25 वधेः सूर्यश्चाणि सर्वाणि सप्तविंशन्न चरति भुवने शरीरे वर्षमध्ये क्रमेण पूर्वोक्तविधिना; अतः प्रतिवर्षात् प्रतिवर्षे ऋणेन प्रसति सभुवनं शरीरम् / कालचक्रकवीर उत्पादक्षयहेतुभूतः [सं]सारिणां कालचक्रकवीरः; अतः स साधनीयश्चन्द्रार्की 20 १.क. ख. भो. पुस्तकेषु 'ऋणं' इति नास्ति / 2. क. दण्डास्मिना / *. अत्र क. पुस्तके 'इह शरीरे मनुष्याणां श्वासप्रश्वासैः षभिरेकलिप्ता भवति का' इति पुनलिखितः। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 213 पटले ] अरिष्टमरणलक्षण-नाडीच्छेद-महोद्देशः पूरयित्वा[125a] बोधिचित्तरजो धर्मी प्राणापानौ पूरयित्वा योगिनेति नियमो बुद्धस्य भगवतः। इदानीं मूत्रादिधातुविकारलक्षणमुच्यते अरिष्टवशात् छिन्नेत्यादिनाछिन्ना यद्येकनाडी भवति नरपते मूत्रमम्बुत्व(अम्लत्व)मेति तन्मात्रान् पञ्चरात्रांस्त्यजति परकला पिण्डविच्छेदकाले / शब्दं कर्णे रसञ्च त्यजति खलु मुखे तारकामक्षिमध्ये गन्धं घ्राणे नराणां करचरणतनो चोष्णभावं क्रमेण // 79 // इह शरीरे छिना योकनाडी वामा दक्षिणा वा प्राणप्रवाहरहिता भवति; नरपते इत्यामन्त्रणम्; मूत्रमम्बुत्व(अम्लत्व) 'मेति षण्मासावधेः। तन्मात्रान् पञ्चरात्रान् त्यजति परकला प्राणशक्तिः षड्दिनावधेर्यथाक्रमम्, प्रतिदिने पिण्डविच्छेदकाले 10 शब्दविषयं कर्णात् त्यजति, कणं इत्यागमपाठात् पञ्चम्यर्थे सप्तमीति; रसं च त्यजति खलु मुखे जिह्वाया इति पञ्चदिनावधेः; तारकामक्षिमध्यात् चतुर्दिनावधेः; गन्धं घाणात् त्रिदिनावधेः; नराणां करचरणतनावुष्णत्वभावः स्पर्शभावः द्विदिनावधेः; अन्तदिने धर्मधातुं शुक्रच्युतिं त्यजति श्वासचक्रं चेति / अपरषड्दिनाभ्यन्तरे मृत्युलक्षणमुच्यतेनासाग्रं लम्बमानं शिरसि धृतभुजो दृश्यते तत्स्वरूपं लाक्षारागप्रघृष्टोऽप्युभयकरतले नैव रागं करोति / आदित्यः कृष्णवर्णः परिणतशशभृद् दृश्यते पीतवर्णः मूत्रं देहश्च शीतो भवति नरपते तद्दिने मृत्युरेव // 80 // इह शरीरे मरणे प्रविष्टे स्वकीयं नासानं लम्बमानं हस्ति कराकारं दृश्यते; 20 शिरसि धृतभुजः स्वकीयं तत्स्वरूपं द[125b]श्यते, न सूक्ष्मो दृश्यते; तथा लाक्षारागप्रघृष्टोऽप्युभयकरतले नैव रागं करोति करतलचर्मणि; आदित्यः कृष्णवर्णो दृश्यते, परिणतशशभृत् पूर्णिमाचन्द्रो दृश्यते सम्पूर्ण पोत इति षड्दिनावधेः; ततो यस्मिन् दिने मूत्रं देहश्च शीतो भवति, तदिने तस्मिन् दिने मृत्युरेव / नरपते इत्यामन्त्रणम् / अपरमपि षड्दिनाभ्यन्तरे मृत्युलक्षणमुच्यतेजिह्वाध: कालसूत्रं प्रभवति नयने ब्रह्मरेखातिसूक्ष्मा श्वासश्चन्द्रार्कमार्गे स्फुरति नरपते द्वे कपोले तथैव / 1. ग. अमृतम्; भो sKur Ba Nid ( अम्लत्वम् ), भोटानुसारं अम्बुत्वस्थाने अम्लत्वपाठः सम्यक् प्रतीयते / 2. क. ख. हस्त / 3. ख. पुस्तके 'तेन सक्ष्मो दृश्यते' इत्यधिकः पाठः / 4. क. ख. स पूर्वः / 28 Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 214 विमलप्रभायां [ अध्यात्मकक्षाविष्टं स्तनोवं ग्रहगणसकलं दृश्यते सस्फुलिङ्गं स्तब्धग्रीवा सगात्रा भ्रमणमपि तनौ लक्षणं चाष्टमृत्योः // 81 // इहारिष्टमरणाक्रान्तस्य जिह्वाधः कालसूत्रं कृष्णरेखा भवति, तथा नयने ब्रह्मरेखातिस क्षमा केशप्रमाणरेखा कृष्णरक्तमण्डलभेदिनी भवति, श्वासः चन्द्रार्कमार्गे स्फुरति, द्वे कपोले स्फुरतः। तथैव कक्षाविष्टं स्तनोर्ध्वम्, नाड्यौ कक्षाविष्टौ भवतः, दृश्यते न ग्रहगणसकलं दृश्यते सस्फुलिङ्गम्, स्तब्धग्रीवा तस्य सगात्रा हस्तपादसहिता . निश्चेष्टा भ्रमणमपि तनो भवति लक्षणं चाष्ट मृत्योरेतदुक्तं भवति / अपरमपि यत् किञ्चित् विपरीतं दृश्यते शरीरे बाह्ये वा छायापुरुषादिकं तत् सर्व मरणलक्षणं योगिना वेदितव्यम्, तत् ज्ञात्वा दानादिकं कार्यम् / यदि पुण्यबलेन 10 जीवति, तथापि शोभनम्; अथ मरणं गच्छति, तथापि यद् दत्तं तस्य फलमनुभुङ्क्ते / अतः उभयपक्षतो दानं देयं सौगतैः सुखाथिभिरिति भगवतो नियमः। इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहसिकायां विमलप्रभायाम अरिष्टमरणलक्षण नाडीच्छेद-महोद्देशः चतुर्थः // 4 // (5) क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः इदानीं लोकसंवृत्यां सृष्टिसंहारलक्षणः कर्लोच्यते उत्पत्तिमित्यादिना[126a]उत्पत्ति यः करोति प्रसवनसमय बालकोमाररूपं . संहारः सैव लोके पुनरपि कुरुते कालचक्री न सूर्यः / चन्द्रादित्यादिदेवान् ग्रसति स भगवान् रात्रिभागे सभूतान् भूयो मुञ्चन्त्यनन्तानपि दिनसमये सृष्टिहेतोः क्रमेण // 82 // इह संसारे यः च्युतिक्षणः सत्त्वानामुत्पत्ति करोति रजःशुक्रसंयुक्तम् आलयविज्ञानधर्मी गर्भे; ततो गर्भासे (शये) प्रसवनसमयं करोति, बालकौमारादिरूपं करोति; शरीरस्य सृष्टिसंहारं(:)स एव्य(व) च्युतिक्षणो' लोके स्वर्गमर्त्यपाताले पुनरपि कुरुते कालचक्रो न सूर्यः। सूर्यो रजः चन्द्रः शुक्रम् आलयविज्ञानेन विना कालचक्रेण 25 [कालचक्रेण] विना न करोतीत्यर्थः। इह कस्मान्न करोति ? रजःशुक्रधर्मी सूर्यचन्द्र इति / इह सर्वत्राग्निसूर्यसोमात्मकं जगदिति प्रसिद्धं वाक्यमित्युच्यते / इह यतश्चन्द्रावित्यादिदेवान् प्रसति स भगवान् रात्रिभागे सभूतानिति इह संसारे रात्रिभागश्चन्द्रः सृष्टिः, दिवाभागः सूर्यः संहारस्तान् / अत्र रात्रिभागे उत्पत्तिकाले स आलयविज्ञानलक्षणो' १.ग. अरिष्ट; भो. Dod(इष्ट) / 2. क.ख. मूलतन्त्रा० / 3. ग. पुस्तके नास्ति / 4. ग. विमलप्रभाटीकायां / 5. ग. लघुकालचक्रतन्त्रराजस्यारिष्ट / 6. ख. बालकौमारी०। 7. क. ख. च्युतिकरणो। 8. ग.. लक्षणे। . 20 Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पटले ] क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः 215 मातृग चन्द्रः शुक्रम् आदित्यो रजः; आदिशब्देन विण्मूत्रसम्भूतानि पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशधातुसहितान्(नि) असति रजः शुक्राधारस्थितः कायवाञ्चित्तनिष्पादनार्थम्, चन्द्रः शुक्रमीश्वरः, रजः सूर्यः सदाशिवः, मज्जा रुद्रः, मूत्रं विष्णुः, ब्रह्मा विडिति / चन्द्रादित्यादिदेवान् ग्रसति रात्रिभागे उत्पत्तिकाले / भूयः पुनः मुञ्चन्त्यनन्तान् शरीरे नाना- 7318 भावैर॑स्ते सति विकुर्वितान् खलु दिवससमये संहारकाले त्यजतीत्यर्थः / सृष्टिहेतोः पुनर- 5 परोत्पादहेतोर्मुञ्चति, क्रमेण पृथिव्यादिधातुपरित्यागेन नाभिहृत्कण्ठललाटोष्णीषाधारे क्रमेणेति संवृतिकर्तानियमः [126b] / इदानीं कर्मकरणादिकं लोकसंवृत्या उच्यते शब्दाद्यमित्यादिनाशब्दाद्यं कर्मषट्कं भवति हि करणं त्विन्द्रियाणां च षटकं वर्षा मासाश्च पक्षा दिननिशितिथयश्चन्द्रसूर्यौ च कर्ता / एषां संहारकर्ताऽपर इह भवेत् सृष्टिकर्ता न कर्ता व्योमव्यापी खवज्री विषयविरहितो निगुणो निःस्वभावः // 83 // इह शरीरे निष्पन्ने सति शब्दस्पर्शरूपरसगन्धधर्मधातुषट्कं कर्म भवति, करणमिन्द्रियाणां षट्कं श्रोत्रकायचक्षुजिह्वाघ्राणमनःषट्कम् / वर्षा मासाश्च द्वादशराशिभेदेन चन्द्रकलाभेदेन', पक्षाश्चतुर्विंशतिः, दिननिशि अहोरात्रम्, तिथयः पञ्चदश, 15 चन्द्रसूर्यौ च करणमेतत् समस्तम् / कर्ता आलयविज्ञानलक्षणः शुक्रच्युतिक्षणः सहजानन्दो लोकसंवृत्येति / एषां च्युतिक्षणादीनां कर्तृकरणकर्मणः संहारकर्ताऽपर इह भवेत्, यतः सृष्टिकर्ता न कर्ता / ततो व्योमव्यापी खवञी विषयविरहितो निगुणो निःस्वभावः सहजकायो निःकलः सवर्गो व्यापी इति / अतः सृष्टिसंहारकर्ता निर्वाणलक्षणो नास्तीत्यर्थः, इति कर्ता(र्तृ)क्षयनियमः। . इदानीं समुदयादिकमुच्यते गन्ध इत्यादिनागन्धो वर्णो रसः स्पर्श इति च धरणी तोयवह्निश्च वायु अष्टौ वै रूपिणः स्युः समुदितविषया एकमुख्याः समस्ताः / एतत् त्रैलोक्यकृत्स्नं स्फरणनिधनतां याति कालप्रभावात् शब्दः शून्यं ह्यरूपं भवति नरपते धर्मधातुर्मनश्च // 84 // 25 इह संसारे समुदयादुत्पादो नैकधर्मादिति / अत्र समुदयो गन्धो वर्णो रसः स्पर्श इति च धरणी तोयो वह्निश्च वायु[127a]रित्येते ऽष्टौ रूपिणः स्युः समुक्तिविषया एकमुख्याः समस्ताः। एषामष्टरूपिणामेको गुणो मुख्यो भवति; शेषा गौणा भवन्तीति पूर्वोक्तम् / शब्दः शून्यं ह्यरूपं भवति नरपते धर्मधातुर्मनश्चेति चत्वारोऽरूपिणः / अत्र शून्यशब्देन शुक्रधातुरुच्यते / एतत् त्रैलोक्यकृत्स्नं स्फरणनिधनतां याति 30 कालप्रभावाच्च्यतिक्षणप्रभावादित्यर्थः, इति समुदयनियमः / 20 1. ग. पुस्तके नास्ति / 2-3. ग. सर्वव्यापी / Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 विमलप्रभायां [ अध्यात्म- . इदानी संसारबन्ध उच्यते बध्नात्यात्मेत्यादिनाबध्नात्यात्मा विकल्पैः प्रकृतिगतगुणैः कोशकीटो यथैव आत्मानं चात्मना वै पुनरपि मनसा मुञ्चते निर्विकल्पात् / तस्माद् राजन् स्वकर्म प्रकृतिगुणगतं दुःखसौख्यं करोति कः कर्ता किं करोति प्रकृतिविरहितो मुह्यतेऽज्ञानलोकः / / 85 // इह शरीरे स्कन्धाहङ्कारमात्रः संसार आत्मा, स चात्मानं बध्नाति विकल्पैः प्रकृतिगतगुणैरिति / प्रकृतिः स्कन्धधात्वायतनसमूहः, तत्र गतगुणा उत्पादनिरोधलक्षणा गन्धादयः, संसारचित्तस्य भावाभावविकल्पलक्षणाः, तैः प्रकृतिगतगुणैविकल्पैर्बध्नात्या त्मानं कोशकीटो यथैवात्मानं गुणैः स्वतनुनिर्गतैस्तन्तुभिर्बध्नाति / आत्मानं चात्मना 10 वै पुनरपि मनसा मुश्चते निर्विकल्पादिति पुनः स आत्मा प्रकृतिगतगुर्गविकल्पैर्मुक्तो निर्विकल्पो भवति, तस्मानिर्विकल्पमनसा मुञ्चत्यात्मानं संसारदुःखादिति / तस्माद् राजन् स्वकर्म प्रकृतिगुणगतं दुःखसौख्यं करोति, कः कर्ता किं करोति प्रकृतिविरहितोऽष्टादशधातुरहितो न करोतीत्यर्थः, इति मुह्यतेऽज्ञानलोको मिथ्यात्मकर्तापरिकल्पनयेति कर्मबन्धनियमः। इदानीं पृथिव्यादि-अष्टविधा प्रकृतिरुच्यते पृथ्वीत्यादिनापृथ्वीतोयाग्निवाता गगनमपि मनो बुद्ध्यहङ्कारचित्तं स्थूला सूक्ष्मा परा च त्रिविधगुणगता वर्णबिन्द्वादिभेदैः / [127b] स्थूलास्थूलेन्द्रियेषु प्रकृतिरधिगता सूक्ष्मचित्ते च सूक्ष्मा ज्ञाने च ज्ञानमूर्तिः प्रकृतिरविकृतिः जीवभूता न भूता // 86 // ___ इह शरीरे आदावष्टविधा प्रकृतिः, पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशमनोबुद्ध्यहङ्कारात्मिकाष्टविधेति संसारचित्तस्य / एषां पुनस्त्रिधा स्थूला सूक्ष्मा परा च त्रिविधगुणगता सत्त्वरजस्तमोगुणेषु गता गुणगता इति वर्णबिन्द्वादिभेदैः स्थूलास्थूलेन्द्रियेषु गता जाग्रदवस्थाधर्मिणी, स्थूला जाग्रद्भावग्रहणादिति स्थूलचित्तस्य जडवासनाग्राहकस्येति / सूक्ष्मचित्तस्य सूक्ष्मा स्वप्नावस्थामिणी, मनोमयेन्द्रियैर्मायोपमभावग्रहणादिति / सूक्ष्मा 25 परा च सर्वेन्द्रियनिरोधलक्षणा सुषप्तावस्थार्मिणी, परा सर्वभावपरित्यागादिति, न पश्यतीत्याहुरेकीभूत इत्यादिलक्षणा / एवं त्रिविधा सत्त्वरजस्तमोभेदेन जाग्रत्-स्वप्नसुषुप्त-धर्मिणी प्रकृतिः, स्थूलादि वा लक्षणा, सूक्ष्मा सन्ध्यालक्षणा, परा महानिशालक्षणा इति / चकारादपरा चतुर्थी प्रकृतिः ज्ञानमूत्तिः; सा ज्ञानचित्तस्य तुर्याचित्तस्य शुक्रच्युतिकाले तुर्यावस्थाधर्मिणी सत्त्वानामुत्पादनिरोधहेतुभूता' यतः, अतो ज्ञानमूर्तिः; 30 सा च प्रकृतिरविकृति वभूता महाप्राणभूता धर्मधातुस्वभावेति / न भूतेति पृथिवी तोयतेजोऽनिलशुक्रभूता न भवतीत्यर्थः / एवं संसारचित्तस्य जाग्रदादिभेदेन चतुर्विधो नियमः प्रकृतेः। 1. क.ख. सत्त्वानामनुत्पादनिरोधः / Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 217 पटले] क्षणलक्षण-कालचक्रमहोद्देशः इदानीं तुर्यादीनां संज्ञाधर्मा उच्यन्ते आयेत्यादिनाआद्याः शून्यानि पञ्च प्रकृतिरविकृतिः श्रोकलाबिन्दुनादं कालश्चित्तं च बुद्धिः प्रकृतिरपि तथान्ये स्वरा मारुताद्याः / स्थूला वर्गाक्षराणि त्रिगुणितदशकं षोडशान्ये विकारास्तेषां मध्ये न वज्रो प्रकृतिरविकृतिापको निःस्वभावः // 87 // 5 [128a] इह संसारे वेद्यवेदकयोः संज्ञाऽर्थप्रतिपादकी(दिका), सा च दाच्यवाचकलक्षनावस्थितेति / अत्र ज्ञानप्रकृतेराद्याः शन्यानि पञ्च, अनाहताद्याः, अनाहतमध्येऽकारशून्यम्, पूर्वे इकारशून्यम्, दक्षिणे ऋकारशून्यम्, उत्तरे उकारशून्यम्, पश्चिमे लकारशून्यम् इति आद्याः शून्यानि पञ्च प्रकृतिरविकृतिः। श्रीकलाबिन्दुनादं कालश्चित्तं च 10 बुद्धिरिति / कला सूर्यः, बिन्दुश्चन्द्रः, नादो राहुः, कालः कालाग्निः, चित्तं बुद्धिरिति / प्रकृतिरपि सुसु(षु) सावस्थाधर्मिणी। अन्ये स्वरा मारतायाः, आदिशब्देनाकाशाद्या इति अ' इ ऋ उ ऋ (C), अए अर् ओ अल् ह य र व लाः। एवं दीर्घा इति स्वप्नप्रकृतिः / स्थूला वर्गाक्षराणि द्वादशमात्रासहितानि षष्ट्युत्तरत्रिशतानि जाग्रत्प्रकृतिरिति / षोडशान्ये विकारा स्थूला इति / प्रत्येकैकाक्षरस्य पञ्चदशस्वरग्रहणेन 15 व्यञ्जनेन सार्द्ध षोडशविकारा इति सर्वत्र पञ्चधातवः पञ्चेन्द्रियाणि पश्चविषया विकारा इति मनसा सार्द्ध षोडश / एषां पृथिव्यादीनां मध्ये वज्री न प्रकृतिन्नविकृतिापको निःस्वभावः, यतः संसारवासनामुक्तः चित्तधर्मी, अतोऽस्ति तच्चित्तं यञ्चित्तमचित्तमिति (अ० सा० प्र० प्रा०, 1) / संसारचित्तरहितं निर्वाणचित्तमपरमस्ति, वज्रीसंज्ञया भगवतोक्तमिति चतुर्विधप्रकृतिनियमः / - इदानीं सत्वानां स्वकर्मफलोपभोग उच्यते संसार इत्यादिना संसारे सौख्यदुःखं प्रकृतिगुणगतं चास्ति तत्कर्मजं च स्थूल सूक्ष्मं च शान्तं (परं च) त्रिविधमपि भवेत् कर्म चैतन्नराणाम् / कर्ता चाहं विकर्म त्वपरपशुपतिः चास्ति कर्तेति कर्म नाहं कर्ता परो वा प्रकृतिविरहितो ज्ञायते तन्न कर्म / / 88 // 25 इह संसारे सत्त्वः सौख्यं वा दुःखं वा सौख्यदुःखं प्रकृतिगुणगतं पूर्वोक्तगुणगतं च स्वयंकृतमित्यर्थः [128b] / अस्ति तत्कर्मजं च स्वकृतकर्मणा जातं कर्मजं भक्त इत्यर्थः / तदेवात्र कायवाञ्चित्तवशात् त्रिविधं स्थूलं सूक्ष्म परं च / त्रिविधं विकर्म कर्म अकर्म / तेषु यत् कर्ताहमिति चित्तमुत्पद्यते तद् विकर्मसंज्ञम् / अपरः पशुपतिरन्यो T319 20 1-2. ग. अ इ ऋउ ल। 3-4. क. ख. अरे / 5. भो. Las Kyi dBai Po INa (पञ्च कर्मेन्द्रियाणि)। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 विमलप्रभायों [अध्यात्मवा फर्तास्ति यच्चित्तमुत्पद्यते तत् कर्मसंज्ञम् / नाहं कर्ता परो वा प्रकृतिविरहितः स्कन्धादिसामग्रीरहितः यच्चित्तमुत्पद्यते तदकर्मसंज्ञमिति / एवं यत् ज्ञायते आत्मपरकर्ता(तृ)ग्रहरहितं तन्न कर्म क; कृतं' न कर्तृहेतुभूतमिति / कर्मणा उत्पाद(:) सामग्रीवशात्, यथा- शालिबीजाच्छालिनिष्पत्तिस्तथा शुभकर्मणा शुभकर्मफलनिष्पत्तिः, 5 यथा कोद्रवबीजात् कोद्रवनिष्पत्तिस्तथाऽशुभकर्मणाऽशुभफलनिष्पत्तिः / 'न स्वतो नापि परत' इति (मा० का० 1,2) वक्ष्यमाणे वक्तव्यमिति कर्मफलनियमः। इदानी कर्ता [2] विना सफलं कर्म उच्यते तस्मादित्यादिनातस्मात् कर्ता न कश्चिद् दह(द)ति न हरति प्राणिनां सौख्यदुःखं संसारे पूर्वकर्म प्रभवति फलदं यत्कृतं त्रिःप्रकारम् / . मूढानां बुद्धिरेषा. दह(द)ति स हरते सृष्टिसंहारकर्ता देहे छिद्रं न पश्यन्त्यपरिमितशुभं हार्यमाणं स्वकाक्षैः / / 89 / / इह संसारे प्राणिनां सौख्यदुःखं कश्चित् कर्ता न ददते' इ(ति) न हरते (ति) यस्मात् पूर्वकर्म स्वयंकृतं प्रभवति फलदं यत्कृतं त्रिःप्रकारम् / तस्मात् कर्ता न कश्चिद् ददति न हरतीत्यथः। मूढानां बुद्धिरेषा ददति स हरते सृष्टिसंहारकर्ता इति / . 15 कस्माद् ? यतः स्वदेहे छिद्र न पश्यन्ति अपरिमितशुभं हार्यमाणं स्वकाक्षरिति / स्वेन्द्रियैर्बाह्ये षड्विषयप्रवृत्तैरध्यात्मनि अनाश्र(स्र)वसुखरहितैः [इति स्वकर्मफलोप-, भोगनियमः। इदानीमिच्छादीनां कर्तुः [129a] परस्परसंयोगभाव उच्यते इच्छेत्यादिनाइच्छाशक्तिः क्रिया या स्वमनसि जगतो ज्ञानशक्तिस्तृतीया भावालोकं प्रवेशं समरसकरणेऽर्थोपलब्धि करोति / भूयस्त्यागं चतुर्थी त्रिभुवननमिताऽद्वया वै क्रमेण तासां मध्ये न किञ्चिद् ग्रसति नरपते मुञ्चते नैव वजी // 90 // इह जगतः सत्त्वानां स्वमनसोच्छाशक्तिर्या भावानामालोकं करोति, प्रवृत्ति' मनसः करोतीत्यर्थः। क्रिया भावेषु प्रवेशं करोति; ज्ञानशक्तिर्भावसमरसकरणेऽर्थो25 पलब्धि करोति, अर्थनिश्चयं ज्ञाननिश्चयमित्यर्थः / भूयस्त्यागं पूर्वज्ञानस्य त्यागं चतुर्थी त्रिभुवननमिताऽद्वया वै क्रमेण करोति, इति मनसः शक्तयश्चतस्रः; तासां चतसणां मध्ये न किञ्चिद् असति / आलोकं प्रवेशं समरसकरणम्, अर्थोपलब्धि ज्ञानत्यागं वा, मुञ्चति नैव वज्रो विशुद्धचित्तात्मा य इति इच्छादिनियमः / 1. क. हृतं / 2-3. क. ख. विनाशफलं / 4. क. ख. दहते; ग. ददते; भो. Byin (ददते)। 5. क. ख. दहति / ६.क. ग्रहतिर्मनसः। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः - 219 इदानीं दुःखसौख्यप्रदातोच्यते आत्मेत्यादिनाआत्मा कर्ता न तत्र प्रभवति नृपते दुःखसौख्यप्रदाता बन्धो मोक्षो न कश्चिद्भवति नरपते चित्तशक्ति विवयं / आकाशं कुम्भमध्ये व्रजति न च जलं नीयमाने च यद्वद् व्योमव्यापी खवज्री विषयविरहितो देहमध्ये च तद्वत् // 91 // 5 संसारे आत्मा कर्ता न तत्र प्रभवति नृपते दुःखसौख्योः (ख्य)प्रदाता, दुःखसौख्यप्रदाता न कश्चिदस्ति त्रिभुवननिलये चित्तशक्ति विवज्यं / चित्तशक्तयोऽत्र जाग्रत्स्वप्नसुसु(षु)प्ततुर्यालक्षणा इति, तासां प्रदाता तुर्या उत्पादनिरोधर्मिण्यवस्था, तां चित्तशक्ति विवर्य नान्यः कश्चिदात्मा कर्ता वा सौख्यदुःखप्रदातेति / बन्धो मोक्षो वाऽपरः [न]' कश्चिदस्ति शुक्रच्युति विहाय सत्त्वानामिति संसारचित्तं विहायेत्यर्थः / निर्वाणचित्तं 10 पुनः संसारातीतं सर्वदेहे स्थितं न बध्यते न मुच्यते केनचित् / आकाशं कुम्भमध्ये व्रजति न च जलं नीयमाने च यद्वद्; व्योमव्यापी खवज्रोति शून्यतादिविमोक्षविशुद्धं चित्तं खवज्रीति; विषयविरहि[129b]तो निर्गुण इति तन्मात्रादिसत्त्वरजस्तमोरहितं जाग्रत्स्वप्नसुसु(षु)तुर्यारहितमित्यर्थः; निःस्वभावो देहमध्ये च तद्वत्; सा(शा)श्वतो भाव उच्छेदोऽभावः, तो न विद्यते यस्य स वज्री विशुद्धचित्तमित्यर्थ इति संसारनिर्वाणचित्त- 15 नियमः। ... इदानी कर्मवाद उच्यते एवमित्यादिना एवं कर्मास्तिवादी भवति स भगवानेकशास्ता न कर्ता सर्वज्ञश्चादिबुद्धस्त्रिभुवननमितः कालचक्री न चक्री / ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रः शरणमधिगतो यस्य पादाब्जमूले 20 .तं वन्दे कालचक्रं जिनवरजननं निर्गुणं निर्विकल्पम् // 92 // एवमुक्तेन क्रमेण कर्मास्तिवादी कर्ता [इति] नास्तिवादी नैरात्म्यवादी भवति, स भगवान् विशुद्धचित्तात्मा। "न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मक(:)[मा०का०५,२]", एकशास्ता धातुके न कर्ता / सर्वज्ञश्चादिबुद्धः सर्वज्ञता-सर्वाकारज्ञता-मार्गज्ञतामार्गाकारज्ञता प्राप्तत्रिभुवननमितः कालचक्रो अनाश्र(स्र)वसुखसर्वाकारधर्मो। न चक्री 25 विष्णुः। कुतः ? यतो ब्रह्माविष्णुश्च रुद्रः शरणमधिगतो यस्य पादाब्जमूले, तं वन्दे कालचक्रमिति सोऽहं मञ्जुश्रीजिनवरजननं निर्गुणं निर्विकल्पं पूर्वोक्तलक्षणमिति शून्यतावादिनियमः। [130a]इदानीं मरणान्ते भाववशादुत्पादमाह शान्त इत्यादिना- शान्ते भावेऽमरत्वं भवति नरपते तामसे नारकत्वं 30 तिर्यक्त्वं राजसे च प्रवरभुवितले मानुषत्वं च मिश्रे / 1-2. भो. Ma Yin (न कश्चिदस्ति)। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 / विमलप्रभायां [अध्यात्मभूतत्वं त्रिप्रकारं रजसि तमसि वे सात्त्विकोऽन्योऽन्यमिश्रेयद्भाव मृत्युकाले स्मरति च मनसा सम्भवस्तत्र जन्तोः // 93 // इह संसारे सत्त्वानां स्वकर्मवशात् सत्त्वगुणादिभावस्तद्भावादुत्पादमाह / अत्र मरणकाले शुभकर्मवशात् शान्तो भावो भवति सत्त्वगुणात्मकः, तस्मिन् भावे जाते सति 5 मरणान्ते अमरत्वं भवति / नरपते इति सुचन्द्रसम्बोधनम् / अशुभवशाद् रौद्रभावो' भवति तमोगुणात्मकः, तस्मिन् तामसे भावे नारकत्वं भवति / मध्यमाऽशुभवशाद् राजसो भावस्तस्मिन् राजसे भावे सति तिर्यक्त्वं भवति मरणान्ते। प्रवरभुवितले मानुषत्वञ्च मिश्रे, शुभाशुभसंवलिते मानुषत्वं भवति / भूतलं(त्वं) त्रिप्रकारं रजसि तमसि वै सास्विकेऽन्योन्यमिथे। अत्र सत्त्वाधिके उत्कृष्टाः प्रेताः, रजोऽधिके मध्यमाः, 10 तमोऽधिकेऽधमा' इति / असुरास्तु देवान्तर्वतिन एव; एवं मनुष्याः सत्त्वाधिके सुखिनः, रजोऽधिके दुःखिनः, तमोऽधिके सदादुःखिनः; एवं सर्वत्र स्वर्गादिकेऽपि / अनन्तकर्मफलविपाकः सत्त्वानां स्वकर्मवशाद्भवतीति; अतो यद्भावं मृत्युकाले स्मरति च मनसा सम्भवस्तत्र जन्तोरिति भावोत्पादनियमः / T 320 इदानीं देवादिभेद उच्यते देवत्वमित्यादिना15 देवत्वं चाष्टभेदैः सुरवरनिलये मानुषत्वं यथैकं तियंञ्चोऽब्धिप्रकाराः खलु नरकगतो नारकत्वं तथैकम् / एषु स्थानेषु जन्तुमति रसगतो कर्मपाशैर्निबद्धो नामुक्तो याति मोक्षं परमसुखपदं जन्मलक्षैरनेकैः // 94 // इह सुरवरनिलये स्वर्ग देवत्वं चाष्टभेदैर्भवति; पृथ्वीकृत्स्नेनाप्कृत्स्नेन तेजःकृत्स्नेन 20 वायुःकृत्स्नेन शून्यकृत्स्नेन चन्द्रकृत्स्नेन सूर्यकृत्स्नेन राहुकृत्स्नेनेति भावितेन दानादिपुण्य बलेन दशाकुशलपरित्यागेनेति देवत्वं चाष्टभेदैर्भवति / मानुषत्वं यथैकं ष[130b]धात्वात्मकम् / तिर्यञ्चोऽब्धिप्रकाराः चतुःप्रकाराः। षड्धात्वात्मकम्, नारकत्वं तथैकं नरकगतो षड्धातुवासनोद्भूतं स्वप्नतुल्यमिति / असुरत्वं देवान्तर्भूतम्, प्रेतत्वं नार कान्तभूतम, दुःखोपभोगतः। एषु चतुर्दशस्थानेषु अष्टैक-चतुरेकजातिष जन्तुरालय25 विज्ञानधर्मी' भ्रमति रसगताविति षड्गतौ कर्मपार्शनिबद्धः, नामुक्तः कर्मपाशैन याति मोक्ष परमसुखपदं जन्मलक्षैरनेकैरिति देवादिभेदनियमः, सत्त्वाशयवशादिति / इदानी बन्धहेतुरुच्यते स्कन्धैरित्यादिनास्कन्धर्धात्विन्द्रियश्च त्रिविधभवभयः पञ्चकर्मेन्द्रियैश्च तन्मात्रैः कर्मदोषैः सह गुणमनसा बुद्धयहङ्कारकाद्यैः / 1. क. ख. रौद्रो। 2. क. ख. अधर्मा / 3. क. ख. द्विप्रकाराः / 4. ग. जन्तुरालयविज्ञानधर्माबद्धो। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 10 पटले] क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः एतेर्बद्धो हि जीवो भ्रमति रसगतो सूक्ष्मभावेन भूयः भावे त्यक्ते प्रयात्यक्षयपरमपदं यत्र जन्मी न भूयः // 95 // इह षड्गतिसंसारे जीवः प्राणालयविज्ञानधर्मी बद्धो भ्रमति / कैः ? []कन्धभूतैः षड्धातुभिरिन्द्रियस्त्रिविषभवभयैः षड्विषयैस्तन्मात्रैः पञ्चकर्मेन्द्रियैश्च कर्मदोषैः शुभाशभैः सह गुण मनसा बचहङ्कारकाद्यैराद्यशब्देन प्राणशक्तिमलप्रकृतिरिति, 5 एतैर्बद्धो हि जीवो भ्रमति रसगतो सूक्ष्मभावेन, भूयः पुनश्च्युत्यानन्देनेति बन्धः सूक्ष्मस्थूलभावो जाग्रत्स्वप्नसुसु(षु)प्ततुर्यालक्षणः / एतस्मिंश्च भावे त्यक्ते प्रयात्यक्षयपरमपदं यत्र गतो न भूयो जन्मी संसारी भवति, इति संसारवासना-अविद्यानियमः / इदानीमस्या विपक्षा विद्योच्यते [वेदः] साङ्ग इत्यादिनावेदः साङ्गो न विद्या स्मृतिमतसहितस्तकंसिद्धान्तयुक्तः शास्त्रश्चान्यद्धि लोके कृतमपि कविभिक्सवैश्वानराद्यैः[131a] / विद्येत्यध्यात्मविद्याऽक्षरमपि मुनिभिः प्रोक्तमेवात्र लोके / त्रैलोक्यं यत्र कृत्स्नं भवति नरपते लीयते यत्र भूयः // 96 // इह संसारे लोकव्यवहारे विद्या या परमार्थतत्त्वविषयेऽविद्या सा। प्रथमं वेदः साङ्ग षड्भिरङ्गः सह, अङ्गानि च सूत्रं गेयं व्याकरणं छन्दो निरुक्ति ज्योतिश्चेति, 15 एभिः सहेत्यर्थः / स च स्मृतिमतसहितः स्मृतयो मन्वादयः, तैः सहितः संयुक्तः / तर्को लौकिकवस्तूप्रमाणशास्त्राणि; सिद्धान्ता लौकिकसिद्धिसाधका मण्डलचक्रादिविकल्प भावनाधर्मास्तैर्युक्त इति विशेषणम् / एवं शास्त्रं चान्यति लोके कृतमपि कविभिासवैश्वानराद्यैरिति व्यासकाव्यं भारतम्, वैश्वानरकाव्यं भावनाधर्मः, आदिशब्देन वाल्मीक(कि)काव्यं रामायणम्, मार्कण्डेयकाव्यं पुराणधर्मादयः संगृहीताः,कृतंकविभिरेभिर्न 20 विद्या / तहि विद्या केत्याह-विद्येति अविकल्पिताऽध्यात्मविद्या शून्यता सर्वाकारैरुपेता, अन्यच्चाक्षरमपि विद्याऽनालम्बिनी अनाश्र(स्र)वसुखात्मिका इति / विद्या हेतुफलात्मिका हेतुफलैकलोलीभूता ग्रः(अग्नि)प्रभा दहनैकलोलीभूतवदिति / मुनिभिरतीतवर्तमानैः प्रोक्तमेवात्र लोके धर्मचक्रस्थैः / किंरूपा सेत्याह-त्रैलोक्यं यत्र कृत्स्नमिति, यस्मात् सुखक्षणात्रैलोक्यं सकलं भवति उत्पादकाले, लीयते यत्र भूयः, मरणकाले यत्र क्षणे 25 लीयते / भावसमूहः क्षरक्षणे स एव क्षणोऽनाश्र(स्र)वसुखमक्षरमुच्यते / यस्माद् बुद्धा उत्पद्यन्ते धर्मचक्रप्रवर्त्तनाय, यस्मिन् महापरिनिर्वाणो(ण) हि नरपत इति विद्यानियमः / इदानीं पूर्वयोगाभ्यासबलमुच्यते योगीत्यादिनायोगीन्द्रोऽप्राप्तयोगः प्रचलितमनसा याति मृत्यु कदाचित् श्रीमान् मानुष्यलोके प्रवरमुनिकुले जायते योगयुक्तः / १-२..भो. Yon,Tan Dai bCas (सगुण) / Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 222 विमलप्रभायां [अध्यात्म पूर्वाभ्यासेन तेनाहरति पुनरपि ज्ञानयोग विशाल लब्धे ज्ञाने प्रयात्यक्षयपरमपदं यत्र जन्मी न भूयः // 97 // [131b] इह मत्ये यदि योगी विद्यायोगमभ्यस्यमानो मरणमुपैति अप्राप्तयोगः कदाचित प्रचलितमनसा श्रीमान् मानुष्यलोके प्रवरमुनिकुले बुद्धबोधिसत्त्वकुले, योगः शून्यताकरुणाभिन्नं विशुद्धतत्त्वं विशुद्धचित्तम् ; तेन युक्त इति योगयुक्तः, न योगपरिपूर्णः पुनः पूर्वाभ्यासेन तेनाहरति अवाप्तो हि ज्ञानयोगं विशालमिति न प्रादेशिकं सर्वाकारमिति भावः। लब्धे ज्ञाने परिपूर्णे प्रयाति अक्षयपरमपदमिति; न विद्यते क्षयो यस्येत्यक्षयपरमपदमिति विग्रहः। किम्भूतं तदित्याह-यत्र पुनर्जन्मी उत्पत्तिमान भवति, तत् सर्वं बुद्धानां पदं परमपदमिति / इदानी बौद्धानामसुराणां म्लेच्छानां ज्ञानोत्पत्तिकाल उच्यते ज्ञान इत्यादिनाज्ञानोत्पत्तिर्जिनानां रविदिनसमये चार्द्धरात्रे निशान्ते मध्याह्न चासुराणां शशिनिशिसमये निर्गमे वासव(र)स्य / सम्यग्ज्ञाने विभङ्गे प्रभवति वचनं संस्कृतं प्राकृतं च शान्तं रौद्रं च कर्म त्रिभुवननिलये पौरुषं प्राकृतं च / / 98 // इह खलु त्रिविधो योगाभ्यासः बौद्ध आसुरो भौत(तिक)श्च / तत्र बौद्धो योगः शून्यताकरुणात्मकः, आसुरः कल्पनाधर्मः, भौतिको द्विप्रकारः, शाश्वतरूप उच्छेदरूपश्च / एवं त्रिविधो योगी (गो) स एव विद्यते यस्य तद्योगाभ्यासरतत्वादिति / तेषु दिवाभागे बौद्धयोगिनां ज्ञानोत्पत्तिः, रात्रिभागे आसुरयोगिनाम्, चतुःसन्ध्यारहिते काले भौत(तिक)योगिनां ज्ञानोत्पत्तिरिति / अत्र कालविभागः ज्ञानोत्पत्तिजिनानां रविदिन20 समये चार्द्धरात्रे निशान्ते, मध्याह्ने चासुराणां शशिनिशिसमये निर्गमे वासव(र)स्य / भौतानामनुक्कत्वादपि सन्ध्यारहितकाले। अत्रार्द्धरात्रे पूर्वसन्ध्यायां वाग्ज्ञानाधिष्ठानं भवति बौद्धानाम् [132a], असुराणां मध्याह्नसन्ध्यायां अष्टङ्ग(स्तङ्ग)तसन्ध्यायां वागज्ञानाधिष्ठानं भवति। भूतानामपरचतुःप्रहरसन्ध्यायां दिवाभागे शाश्वतज्ञानाधिष्ठानम्, रात्रिभागे उच्छेदज्ञानाधिष्ठानम्, अनयोर्बोद्धासुरयोर्यथासंख्यम्; सम्यग्ज्ञानं बौद्धानां T 321 25 भवति, विभङ्गं तद्धर्मविरोधि भवति असुराणाम् / सम्यग्ज्ञानं दिवालोकवत् सर्वदर्शि, विभङ्गज्ञानं रात्र्यालोकवत् किञ्चित् सत्त्वानां जीवमरणदर्शीति / कथं ज्ञायत इत्यत आह-धर्मदेशनया इति, इह सम्यग्ज्ञाने विभङ्ग प्रभवति वचनं संस्कृतं प्राकृतं चेति / सम्यग्ज्ञानोत्पन्नानां संस्कृतवाक्यं सर्वरुतात्मकमिति, विभङ्गज्ञानोत्पन्नानां प्राकृतं वाक्यं भवति देशकानाम् एक विषयभाषान्तरेणेति / शान्तकर्मदेशक बौद्धानां ज्ञानं 30 सर्वसत्त्वकरुणात्मकम्, रौद्रकर्मदेशकं असुराणां ज्ञानं तिर्यक्सत्त्वापकारिमांसभक्षणायेति / 1-2. क. ख. आत्मविषय०; भो. Yul gCig Gi sKad gCig Gi Khyad Par Gyis (एकविषये एकभाषायां भाषान्तरण)। Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः 223 त्रिभुवननिलये पौरुष कर्म बौद्धानां ज्ञानं देशयति, क्षितौ प्राकृतं कर्म असुराणां ज्ञानं देशयति / भूतानां विमिश्रं कर्म देशयति पृथिव्यामिति ज्ञानदेशनानियमः। इदानी बौद्धासुरयोभुक्तिकाल उच्यते मध्याह्नावित्यादिनामध्याह्लादर्द्धरात्रं दिननिशिसमये भुक्तिकालस्तयोश्च अन्नं गोमांसभोज्यं बहुविधरसदं पानमण्डस्य शुक्रम् / रक्तं श्वेतं च वस्त्रं रविशशिगतिवत् स्वर्गपातालवासः धर्मोऽहिंसा च हिंसा गुरुनियमवशाद् वज्रर्दैत्यासनं च // 19 // इह प्रतिदिने मध्याह्नदारभ्या रात्रं यावद्दिनसमयम(ः)। अर्द्धरात्रादारभ्य मध्याह्नपर्यन्तं निशिसमयः। तस्मिन् दिननिशिसमये स्वस्वसमयस्य परार्द्ध भुक्तिकालः तयोबौद्धम्लेच्छयोर्यथासंख्यं तपस्विनाम्, न गृहस्थानामिति नियमः। बौद्धासुरयोः पुनः 10 खानपानं य[132b]थासंख्यम् / अन्नं विशिष्टतरं बौद्धानाम्, गोमांससहितं म्लेच्छानाम् / पानं यथासंख्यं बहुविषरसदं मिष्टं बौद्धानाम्, कुक्कुटादीनामण्डस्य शुक्रपानं म्लेच्छानामिति / परिधानं यथासंख्यं रक्तवस्त्रं बौद्धानाम्, श्वेतं म्लेच्छानां तपस्विनाम् ; गृहस्थानां न नियमः। तथा मरणान्ते आवासो यथासंख्यम्, रविशशिगतिवदिति रवेरूद्ध्वं गतिः, चन्द्रस्याधो गतिः, तयोर्गतिवत् स्वर्गवासो रविगतिर्बोद्धानाम्, पाताल- 18 वासोऽसुराणां चन्द्रगतिवदिति / यथा मूलतन्त्रे सेकोद्दे शे' भगवानाह "अधश्चन्द्रामृतं याति मरणे सर्वदेहिनाम् / _ ऊर्ध्वं सूर्य रजो राहु विज्ञानं भावलक्षणे" / * तथा धर्मो यथासंख्यम् / बौद्धानां धर्मोऽहिंसा, म्लेच्छानां हिंसा, चकाराद् भूतानाम् / गुरुनियमवशाद भावनाकाले इष्टदेवतास्तुतिकाले यथासंख्यं बौद्धानां वज्रासनं प्रशस्तम्, 20 म्लेच्छानां दैत्यासनं प्रशस्तम्, चकारादपरं सामान्यमिति तस्य न विधिर्न निषेध इति / अत्र दैत्यानां भूतले वामजानुप्रसारतः, वामजानूद्ध्वं दक्षिणपादः, दक्षिणजानूर्ध्वप्रसारो वामपादोद्ध्वम्, दक्षिणपादश्चकारादधः दक्षिणपाद ऊध्वंम्, पादतलेऽपिचकारात् पृष्ठे कटिनिषण्ण इति वज्रासनादिवक्ष्यमाणे वक्तव्यमिति बौद्धासुरक्रियानियमः। भूतानां मिश्रकर्म प्रभवति वचनं मिश्रपैशाचिकं च धर्मोऽहिंसा च हिंसा खलु गुरुनियमाज्जीवघातादिदोषाः / यागाद्यर्थं प्रवृत्तिर्भवति नरपते वा निवृत्तिः कदाचित् खाद्यं पेयं च मिश्रं रविशशिगमनान्मिश्रमार्गः परत्र // 10 // 1. क. ख. शक्नोद्देशे। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 विमलप्रभायां [अध्यात्मभूतानां पुनः पूर्वोक्तमिश्रकर्म / तदत्र' वृत्ते न विस्पष्टं कथितम्; तद्यथा-भूतं वा (भूतानां) मिश्रकर्म प्रभवति वचनं मिश्रपैशाचिकं च, धर्मोऽहिंसा च हिंसा खलु गुरु[133a]नियमाज्जीवघातादिदोषः। योगार्थ (यागाद्यर्थर) प्रवृत्तिरिति यो (या)गाद्यर्थमादिशब्दात् संग्रामार्थं हिंसाप्रवृत्तिः, फलार्थ निवृत्तिरहिंसाप्रवृत्तिर्भवति / नरपते 5 वा निवृत्तिः कदाचिदिति / खाद्यं पेयं च मिश्रं रविशशिगमनात मिश्रमार्गः परत्र इति व्यामिश्रमार्गो भूतानां सर्वो वेदितव्यः, इति भूतक्रियानियमः। इदानी मार्ग वक्तुकाम आह ज्योतिरित्यादिनाज्योतिः सूर्याचिरब्धौ(सूर्योऽचिरध्वो) सितदिनमयनं चोत्तरं चार्द्धवर्ष चन्द्रो ज्योतिनिशा चासितमयनमिदं दक्षिणे धूममार्गे / अचिः स्वर्गे सुराणामपि भवति तनौ नागलोकेऽसुराणां व्यामिश्रो मर्त्यलोके भवति नरपते प्रेततिर्यङ्नराणाम् // 101 // . इह खलु त्रिविधो मार्गः-ज्योतिर्मा! धूममार्गो विमिश्रमार्गः। एषु अचिरथे(ध्वो) ज्योतिः सूर्यः। शि(सि)तदिनमयनमुत्तरं दिवावृद्धिलक्षणम् अर्द्धवर्ष बाह्ये, अध्यात्मनि मकरादिषड्लग्नात्मकमिति, उदयास्तमनमिति संज्ञितम् / धूममार्गो ज्योति15 श्चन्द्रो निशा चा शि(सि)तमयनमिदं दक्षिणे'धूममार्गे कर्कटादिकं षण्मासदक्षिणायनम्, यत्र रात्रैर्वृद्धिस्तद् दक्षिणायनम् ; अस्तमनादुदयं यावन्नियम इति / अत्राचिः स्वर्ग सुराणां मार्गगमनाय / असितमयनं धूममार्गो नागलोकगमनायासुराणामिति / व्यामिश्रो दिवारात्रिधर्मा मर्त्यलोकगमने प्रेततिर्यङ्नराणा मुत्पत्तये प्रकटित इति मार्गनियमः, सत्त्वरजस्तमोगुणस्वभावेन पूर्वजन्मवासनाजनितेनेति / 20 इदानीं सत्त्वानां वासनाग्रहमुच्यते श्रावकबौद्धासुरभूतकर्मरतानां यो यन्मध्य इत्यादिना यो यन्मध्ये प्रविष्टो व्रतनियमरतः कर्मपाशैनिबद्धस्तन्मध्ये स्वस्वभावाद् भवति नरपते तत्कुले तद्ग्रहेण / याव[133b]च्चित्तस्य भावस्त्रिविधभववशाद् वेदना सौख्यदुःखं 25 तावत् संसारपोरे भ्रमणमिह नृप स्वर्गम] त्वधश्च // 102 / / इह संसारे जन्म कर्मवासनाबलेन देवासुरभूतक्रियानुरक्तो यो यन्मध्ये प्रविष्टो भवति व्रतनियमरतः कर्मपार्शनिबद्धः, तस्य धर्मस्य क्रियाभिर्बद्ध इति; तन्मध्ये स्व-स्वभावाद् भवति; नरपते इत्यामन्त्रणम् / तत्कुले देवासुरभूतकुले / तद्ग्रहेणेति तद्भावग्रहेण / तेन देवासुरभतकुले जन्मी भवति, सत्त्वरजोतमोहङ्कारेण पूर्वोक्तविधिनेति याव 1. ग. तदनु। 2. ग. यागादिष्वर्थ ; भो. mChod sByin La Sogs Don Du (यागाद्यर्थम्)। 3. क. ख. ग. अचिरथे भो. Lam (अध्व) / 4. क. वा। 5. क. ख. दक्षिणां / 6. क. ख. सुराणां; भो. MirNams (नराणां)। Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___225 पटले ]. क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः च्चित्तस्य भावस्त्रिविधभववशाविति / इह संसारचित्तस्य त्रिविधभववशादिति कामरूपारूपभववासनावशात् वेदना सौख्यदुःखं सांसारिकम्, तावत् संसारे दुःखलक्षणं भ्रमणं चित्तस्यापि, नृप स्वर्गमत्र्येषु, अधश्च देवमनुष्यनरकादिषड्गतिषु भ्रमणमालयविज्ञानस्येति वासनाग्रहनियमः / अतस्त्रिधा वासनातीतः "संसारपारकोटिस्थः कृत्यकृत्यस्थले स्थितः" (ना० स० 6, 13) / ज्ञानकायो भगवान् सम्यक्सम्बुद्धो देवासुरनागादिभिर्नमस्कृतचरणारविन्दः कालचक्र इति वासनापगमनियमः। इदानीं यथा गर्ने व्यञ्जनस्वरोत्पादोऽभूत्, तथा मृत्युलक्षणमुच्यते कायानित्यादिना काद्यान् वर्गान् समात्रानपि गुणगुणितान् यान् त्रिपक्षस्वरांश्च 10 त्रिंशद् वै व्यञ्जनानि त्रिविधगतिवशाद् रोहते तानि मृत्युः / चारान् पञ्चग्रहाणां रविशशिचरणं राहु केत्वोः पदं च द्वात्रिंशद्वर्षपक्षानपि गुणगुणितांश्चन्द्रसूर्याग्निभिन्नान् // 103 // इहाधानकाले रजस्त्रिंशद्व्यञ्जनात्मकम्, शुक्रं त्रिंशत्स्वरात्मकम् / अनयोः संयो[134a]गः, आलयविज्ञानाधिष्ठितयोः। अत्र गर्भोत्पादे प्रथमपक्षे त्रिंशद्व्यञ्जनानि 15 ककारादीनि ह्रस्वस्वराधिष्ठितानि, अपरपक्षे दीर्घस्वराधिष्ठितानि, इति व्यञ्जनपक्षद्वयं मरणे प्रकटितं भवति / एवं शुक्रस्याकाशधातुप्रवेशः; रजसि शुक्लपक्षे कृष्णपक्षे पृथ्वीधातुप्रवेशः / एवं रजसोऽप्युद्भूतानुभूतयोः पृथिव्याकाशंधात्वोः शुक्रधातौ प्रवेशः / एवं द्वितीयमास प्रथमपक्षे इकाराधिष्ठितानि व्यञ्जनानि रजसि वायुधातुप्रवेशः, अपरपक्षे T322 ऊकाराधिष्ठितानि उदकधातुप्रवेशः। तृतीयमासप्रथमपक्षे ऋकाराधिष्ठितानि तेजोधातु- 20 प्रवेशः, अपरपक्षे ऋकाराधिष्ठितानि तेजोधातुप्रवेशाय / चतुर्थमासप्रथमपक्षे उकाराधिष्ठितानि उदकधातुप्रवेशाय, अपरपक्षे ईकाराधिष्ठितानि वायुधातुप्रवेशाय / पञ्चममासप्रथमपक्षे लकाराधिष्ठितानि पृथिवीधातुप्रवेशाय, अपरपक्षे दीर्घाकाराधिष्ठितानि आकाशधातुप्रवेशायेति / सृष्टिसंहारभेदेनाकाशादिपृथिव्यादिप्रवेशः शुक्ररजसोः परस्परमिति / तत् इन्द्रिय-कर्मेन्द्रियाधिष्ठानार्थं गुणवृद्धिहादयो ह्रस्वदीर्घा व्यञ्जनेषु प्रवेशं कुर्वन्ति / षष्ठमासस्य पूर्वपक्षा॰ अ, पूर्वपक्षापरार्द्ध ह, अपरपक्षा? आल, अपरपक्षाः ला, सप्तमस्यैवं ए य औ वा, अष्टमस्य अर र आर् रा, नवमस्य ओ वा ऐ या, दशद(म)स्य अल ल आ हा ला, इति त्रिंशद्व्यञ्जनेषु प्रवेशं दशमासैः स्कन्धधात्वायतनादीनां निष्पत्तिरिति गर्भमासादूर्ध्वमिति शुक्ररजःसंयोगः, स्कन्धधात्वायतनादीनां स्फरणं सृष्टिसंहारक्रमेण / एवमेकादशे मासे बिन्दुना त्रिंशदधिष्ठितानि, द्वादशे मासे 30 विसर्गाधिष्ठितानि भवन्ति / अतश्चन्द्रधातुशुक्रधातूनां नाडीमज्जास्ती(स्थी)नामुत्पादपरिच्छेदः / अर्को रजो वृद्धि करोति द्वादशवर्षाणि प्रज्ञायाः, उपायस्य षोडशवर्षाणि, ततो 1. क. ख. शुक्रपक्षे / 2. क. पुस्तके 'मास' इति नास्ति / 3-4. क.ख. अल अल् आ। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 विमलप्रभायां [ अध्यात्मशानधातुपाकः / प्रज्ञाया रजः पाकः, उपायस्य शुक्रपाकः, ततः' प्रज्ञायाऽपरद्वादशवर्षाणि, उपास्यापरषोडशवर्षाणि पृथिवीधातुपाकः। अतोऽवधेः सत्त्वभागो मध्यमो भवति [134b] / प्रज्ञायाऽपराष्टादशवर्षतोयधातुपाकः, उपायस्य सार्द्धद्वाविंशतिदिनमासैकाधिक षोडशवर्ष पूर्ववत् तोयधातुपाकः / पूर्ववत् प्रज्ञाया अग्निपाकः, उपायस्यापि पूर्ववत् / एवं 5 वायुधातुपाकः, आकाशधातुपाकः; षण्णवतिवर्ष साद्धंदशमासेः सर्वधातूनां पाकः सत्त्वरज स्तमोभेदेन / ततो मध्यनाडी वर्षपक्षमानेन दिनमानेन त्रिंशद्व्यञ्जनमानेन पञ्चपञ्चाशदधिकैकादशशतदिनगणेन कालः प्ररोहति / काद्यान् वर्गान् समात्रान् पूर्वोक्तानपि गुणगुणितानशीत्युत्तरदिनसहस्रभूतान् यान् त्रिपक्षस्वरांश्च ह्रस्वदीर्घप्लुतान् पञ्चचत्वारिंशत्रिंशद्व्यञ्जनानि / त्रिविधगति10 वशादिति वामदक्षिणमध्यमागतिवशाद् रोहते तान्(नि) मृत्युरिति / एवं चारान् पञ्चन हाणां मङ्गलादीनां चतुःत्रिंशदधिकैकादशशतान् पूर्वोक्तानिति / रविशशिधरणं रसयुगशशिनम् एकादशपदात्मकं राहुकेत्वोः पदं सार्द्धसप्तात्मकं मासपरिच्छिन्नात्मकं केतोरुदयपदं प्रतिदिनं द्विघटिकात्मकम् / एते पद घटिकात्मकास्त्रिवर्षस्त्रिपक्षत्रिंशद्व्यञ्जनदिनसंख्या स्तानेवारोहते मृत्युरिति / एवं द्वात्रिंशद्वर्षपक्षानपि गुणगुणितान् चन्द्रसूर्याग्निभिन्नान् 15 सत्त्वरजस्तमोभिन्नानिति षण्णवतिवर्षेऽपरे सार्द्धदशमासपक्षानिति / पक्षा वर्षत्रयाणामपि शशिनि गुणाः कालवह्नि द्विपक्षाः ऊनीभूताः शताब्दे समविषमगतौ शेष]पक्षा रवीन्द्वोः / लोकाक्ष्यग्न्यक्षिसंख्या दिननिशिसमयान् भर्तृहीनान् समस्तान् वर्गान् मात्रान् रवीन्द्वोर्ग सति गतिवशाद् व्यञ्जनादीनि मृत्युः॥१०४॥ 20 वामदक्षिणनाडीपक्षा वर्षशतपक्षाणां मध्ये पक्षा वर्षत्रयाणां द्वासप्ततिः, शशिनः अपि गुणास्त्रिपक्षाः, कालवह्निद्विपक्षाः; एवं सप्तसप्ततिपक्षा ऊनीभू ताः शताब्दे शता[135a]ब्दपक्षराशौ चतुर्विंशतिशतसंख्ये, शेषपक्षा रवोन्द्वोः सव्यावसव्ययोरिति / लोकाश्यग्न्यक्षिसंख्या इति त्रयोविंशत्यधिकत्रयोविंशतिशताश्चेति / एवं दिननिशिसमयान् भर्तृहोनान् समस्तान्, वर्षशतस्य षट्त्रिंशत्सहस्रांश्च, भर्तृहीनान् त्रिवर्षत्रिपक्षव्यञ्जनमास25 दिनहीनान् वामे दक्षिणे भक्षते मृत्युः / वर्गान् मात्रान् रवीन्द्वोर्गसति गतिवशाद व्यक्षनावोनि मृत्युः, अरिष्टादारभ्य मध्यमाकाले भक्षते इति / सार्द्धा वे चक्रनाडीः शशिपदरहिता वारनाडीविहीनाः प्रज्ञोपायप्रभेददिननिशिसमयैर्भक्षते तांश्च मृत्युः / एवं वर्गान् समात्रान् स्वरगणसहितान् व्यञ्जनान्येव वारान् हीने वा मध्यमेष्टे शशिरविमरणे व्यञ्जने चाधिदेवे // 105 // 1. भो.पुस्तके 'प्रज्ञाया' इत्यतः पूर्व 'sNa Ma bSin Du (पूर्ववत्)' इति अस्ति / 2. ग. ततो। 3. क. पारा, ग. वारा; भो. rKan Pa (पद)। 4. ग. पुस्तके 'पक्षा' इति नास्ति / Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पटले] . क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः 227 एवं सार्द्धा वै चक्रनाडीः सार्द्धचक्रमष्टादशराशि संख्यां पञ्चविंशदधिकशतगुणिता घटिका त्रिशदधिकचतुर्विंशतिशतसंख्या इति; शशिपदानि क्रमोऽक्रम'भेदेन भूताभूतेषु वेदादीनि शतसंख्यानि, तै रहिताः शशिपदरहिता वारनाडी सप्त, तेर्होनाः समस्तास्त्रयोविंशत्यधिकत्रयोविंशतिशतसंख्याः, प्रज्ञोपायप्रभेदैः संहारसृष्टिमेदिननिशिसमयैर्भक्षते तांश्च मृत्युः / एवं वर्गान् समात्रान् स्वरगणसहितान् व्यञ्जनान्येव पारान्, होने वा 5 मध्यमेष्टे शशिरविमरणे व्यञ्जने चाषिदेवे इति हीने चन्द्रारिष्टमरणे, मध्यमे सूर्यारिष्टमरणे, व्यञ्जने चाधिदैव इति मध्यमेष्टमरणे पूर्वोक्तनियमः / द्वात्रिंशच्चकरक्तं सशशिरविगतौ नाडिकाच्छेद एषः / भूयस्त्रिशत्त्रिरात्रैस्त्यजति सकुलिशान् स्कन्धधात्विन्द्रियादीन् / [135b] त्यक्त्वा चन्द्रार्कनाडौं प्रविशति शि(शं)खिनी प्राणवायुदिनकं विच्छेदं यावदेव क्षितिजलहुतभुग्(ङ्)मारुताकाशधातोः // 106 // ततो दानिशच्चैकरक्तमिति त्रयस्त्रिशद् दिनानि शशिरविगतौ वामगत्या सार्द्ध दक्षिणगतो नाडिकाच्छेद एष (:) चन्द्रसूर्यारिष्टे साधारणः, कालमरणे भूयः पुनः त्रिशतत्रिरात्रैः', त्रयस्त्रिशदिनैस्त्यजति सकुलिशान् कायवाञ्चित्तसहितान् स्कन्धधात्विन्द्रियादीन् / ततस्त्यक्त्वा चन्द्रार्कनाडी ललनारसनां प्रविशति शि(शं)खिनोमवधूती 15 प्राणवादिनैकं विच्छेदं यावदेव क्षितिजलहतभुग्(ङ)मारुताकाशधातोः / इह मध्यमायां मरणदिने प्राणप्रविष्टः कालवाताक्रान्तः सन् नाभी पृथ्वीधातुं पञ्चगुणस्वभावं त्यजति, ततः पथ्वीधातोविच्छेदो भवति; हृदये तोयधातुं चतुर्गणस्वभाव त्यजति, तोयधातु(तो)विच्छेदो भवति; कण्ठे तेजोधातुं त्रिगणस्वभावं त्यजति, ततस्तेजोधातोविच्छेदो भवति; ललाटे वायधातुं द्विगुणस्वभावं त्यजति, ततो वायुधातोविच्छेदो भवति; उष्णीषे 20 एकगुणस्वभावमाकाशधातुं त्यजति, ततः शून्यधातोविच्छेद इति / प्राणस्य धातोः परित्याग ऊर्ध्वम् / अधो नाभी कायबिन्दुधर्ममपानं त्यजति, ततो जाग्रदवस्थाक्षयो भवति; गुह्ये वाबिन्दुधर्म त्यजति, ततः स्वप्नावस्थाच्छेदो भवति; मणौ चित्तबिन्दुधर्म त्यजति, ततः सुसु(षु)प्तावस्थाच्छेदो भवति / ऊर्श्वेऽप्येवं रजोधातुबिन्दून् प्राणांस्त्यजति, ततो हि कायवाञ्चित्तविच्छेदो भवति / संक्रान्तिकाले ज्ञानधातुं षष्ठं त्यजति; सर्वाङ्गे 25 शुक्रमधस्त्यजति, रज ऊवं त्यजति, तुर्यावस्थाविच्छेदो भवति / एवं गर्भजानां मरणकालनियमः। इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहनिकायां विमलप्रभायां लोकसंवृत्योत्पादनिरोधहेतुभूत-क्षणलक्षण-कालचक्रनियममहोद्देशः 30 पञ्चमः // 5 // 1. क. ख. क्रमोक्तम० / 2-3. ख. पुस्तके नास्ति / 4. क. ख. धर्ममयानं / 5. क. ख. मूलतन्त्रा। Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T323 228 विमलप्रभायां [अध्यात्म(६) रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः इदानीं लौकिकलोकोत्तरसिद्धिहेतोस्तनुरक्षणमुपदिशन्नाह आदावित्यादि-. आदौ . संरक्षणीया सकलजिनतनुमन्त्रिणा सिद्धिहेतोः कायाभावे न सिद्धिर्न च परमसुखं प्राप्यते जन्मनीह / तस्मात् [136a] कायार्थहेतोः प्रतिदिनसमये भावयेन्नाडियोगं काये सिद्धेऽन्यसिद्धिस्त्रिभुवननिलये किङ्करत्वं प्रयाति // 107 // . इह खलु संसारे सत्त्वानां प्राणोऽपानश्च संहारक्रमेण निर्गच्छति, सृष्टिक्रमेण प्रविशति शरीरे यथा तथा मूलतन्त्र भगवान्नाह सेकोद्देशे "नाभ्यब्जे हृदये कण्ठे ललाटोष्णीषपङ्कजे / भूतो याग्नि मरुच्छ्न्यं संहारेण प्रवाहिनी। निर्गच्छन्ती विशन्ती सा सृष्टिना विशति क्षितौ" // तथाऽपानशक्तिः "नाभी गुह्ये च मण्यब्जे कायवाञ्चित्तवाहिनी। निर्गच्छन्ती विशन्ती सा संहारसृष्टिरूपिणी" / / अतः कारणात् आदी संरक्षणीया सकलजिनतनुः पञ्चस्कन्धादितनुमन्त्रिणा सिद्धिहेतोः, 15 कायाभावे न सिद्धिनं च परमसुखम् अनास्रवं सुखं प्राप्यते जन्मनोह, तस्मात् कायार्थ हेतोः, कायार्थ इति बोधिचित्तम्, तस्य रक्षणहेतोः प्रतिदिनसमये भावयेन्नाडी(डि)योगम्, ललनारसनयोर्योगान्नाडियोगं मध्यमायां भावयेत् प्राणवायुम्, अपानं सं(शं)खिन्यां विण्मूत्रनाडियोगमिति / दिननिशिसमये द्वादशलग्ने इह' नाडी(डि)योगं भावयेत् / अनेन भावितेन कायसिद्धिः, काये सिद्धे सति अन्या सिद्धि लौकिकी किङ्करत्वं प्रयातीति 20 लौकिकसिद्धिसाधननियमः। इदानीं लोकोत्तरसिद्धिसाधनमार्ग उच्यते शून्य इत्यादिनाशून्ये धूमादिमागं गुरुनियमवशाद् भावयेद् विश्वसीम्नो नाडीचक्रेषु तस्मात् स्थिरमपि कुरुते प्राणमापानवायुम् / पश्चादिन्दो(न्द्वो)निरोधं ग्रह इव कुरुते बोधिचित्तस्य योगी तस्माद् यत् किञ्चिदिष्टं कतिपयदिवसैः प्राप्यते जन्मनीह // 108 // इह शून्ये धूमादिमागं गुरुनियमवशात् वक्ष्यमाणक्रमादिति / भावयेद् विश्वसोम्नो विश्वं सर्वाकारं वि[136b]श्वं तत्पर्यन्तं चित्तमिति / नाडीचक्रषु तस्मादवधेः स्थिरमपि कुरुते प्राणमापानवायुं नाभिचक्रे योगी। पश्चादिन्दो(न्टो)निरोधमिति ग्रह इव राहुरिव 1. क. इदं; भो. hDi (इयम)। 2. क. ख. पश्चान्निरोधमिति; भो. Phyis Nas zLa Ba Nes Par hGog Pa (पश्चादिन्दोनिरोधम्)। 25 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 पटले]. रसायनादिवालतन्त्रमहोद्देशः 229 कुरुते बोधिचित्तस्य योगी। प्राणापानयोः परस्परं संयोगो योगः, स यस्यास्ति(स्तीति) योगी; बोधिचित्तस्य च्युतिक्षणस्य निरोधमुपस(श)मं निष्यन्दादिकमक्षरं करोति / तस्माद यत् किञ्चिविष्टमिति तस्मानिष्यन्दाद् विपाकपुरुषकारवैमल्यमिष्टं यत् किञ्चिदवाच्यं तत् कतिपयदिवसः प्राप्यते जन्मनोह / कतिपयदिनानि त्रिवर्ष-त्रिपक्ष-कालचक्रदिनानि, तैरिति महामुद्रासिडिः प्राप्यते एभिः स्कन्धः शून्यादिविमोक्षशोधितैरिति 5 महामुद्रासिद्धिसाधनमार्गनियमः। इदानीमकालमरणवञ्चनोच्यते मार्तण्ड इत्यादिनामार्तण्डेन्टोनिरोधः समविषमगतौ मध्यमेऽग्नी प्रवेशः प्राणापानद्वयोश्च प्रथमदिनगते वञ्चनाकालमृत्योः / प्राणेनापूरयित्वा सह करचरणैरगुलिपर्वान्नखान्तान् षट्चक्रे बुद्धदेव्योऽभयकरकमला योगिना भावनीयाः // 109 // इह यदाऽकालमरणलक्षणं पश्यति योगी तदा मातंण्डेन्द्रोनिरोधः दक्षिणवामनाज्योनिरोधः। समविषमगताविति संहारसृष्टिगतौ मध्यमे अग्नाविति राहुकालाग्नौ मध्यनाड्यां प्रवेशः कर्तव्यः / प्राणापानद्वयोश्च प्रथमदिनगते मध्यमाप्रवाहैकदिनगते सति वञ्चना साऽकालमृत्योर्भवति योगिनामिति / प्राणेनापूरयित्वा पञ्चमण्डलवाहिना 15 प्राणेन मध्यमायोगेन सह करचरणैरङ्गुली(लि)पर्वान्नखान्तान् पूरयित्वा षटचक्र उष्णोषादिके बुद्धदेव्योऽभयकरकमला योगिना भावनीया वक्ष्यमाणक्रमेण इत्यकालमरण. वञ्चनानियमः। इदानीं वातरोगादिशमनमुच्यते अपानेत्यादिनाआपानाकुञ्चनेष्टं भवति वरतनौ वातरोगे समस्ते प्राणायामः कफे स्यात् पुनरपि च तयोर्मुञ्चनं पित्तदोषे / ऊवधि:[137a] सन्निरोधो भवति सुखकरः सन्निपाते ज्वरे च नाभ्यूवं प्राणवायुः सकलरुजहरो नाभिमूलेऽपरश्च // 110 // इह शरीरे पूर्वोक्ता'शीति नाड्यो वातदोषकारिण्यः, नाभी गुह्ये च तासां समधातुत्वकरणाय अपानस्याकुञ्चनमिष्टं सुखकरं भवति वरतनौ मन्त्रिणां वातरोगे 25 शूलादिके समस्ते इति / तथा ललाटे उष्णीषे विंशति नाड्यः श्लेष्मदोषकारिण्यः / तासां समधातुकरणाय प्राणायाम इष्टो भवति / कफे स्यादिति कफरोगे जाते सति प्राणनिरोधः कर्तव्यो योगिनेति / पुनरपि च तयोर्मुञ्चनं पित्तदोषे इति पित्तदोषे जाते सति तयोः प्राणापानयोर्बाह्ये मुञ्चनं कृत्वा वक्ष्यमाण मेण बाह्यवातं शीत्कारेण गृहीत्वा लम्बिकायां जिह्वामारोप्य अमृतपानं स्तूकादिकं कर्तव्यम् / पित्तरोगे समस्ते 30 1. ख. पुस्तके नास्ति / 30 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 230 विमलप्रभायां [अध्यात्मनाझ्यः कण्ठे हृदये चत्वारिंशत् पित्तदोषकारिण्यः / तासां धातुसमत्वकरणायासो योगः कर्तव्य इति / ऊधिः सन्निरोधो भवति सुखकरः सन्निपाते ज्वरे चेति / इह गुह्ये दश नाड्यः सन्निपातकारिण्यः ; तासां धातुसमत्वकरणायोर्ध्वाधः प्राणापानयोनिरोध इष्ट इति ज्वरे चेष्टः / कस्माद्धेतोः ? यतो नाम्यूध्वं' वहति प्राणवायुः, अतः सकलरजहरो नाभि'मूले अपानो वहति, नाभेरधः सकलरुजहरोऽपरश्चेति वातादिरोगोपशमनियमः। इदानीं जठररोगोपशमनाय प्रतिविधानमुपदिशन्नाह आकुञ्च्येत्यादिनाआकुञ्च्यापानवायुं त्रिविधपथगतं प्राणमेवोर्ध्वतश्च सङ्घट्टे यावदग्निः प्रभवति बलवान् व्याप्नुवन् सर्वकाये / जग्री(यकृत)प्लीहार्ष(र्श)रोगानपि जठरगतान् मासयोगाच्च हन्ति / ऊर्ध्वश्वासं च काशं(सं) त्रिविधमपि विषं नेत्ररोगादिकञ्च // 111 // इह जठरे यदा जग्रयादिकं भवति, तदा आकुञ्च्यापानवायुम् अधस्त्रिविधपथगतमिति विण्मूत्रशु[137b]क्रपथगतं प्राणमेवोद्धं (वं)तश्चाकुञ्चनीयं चन्द्रसूर्याग्निपथगतम्, तयो सङ्घट्टे यावदग्निर्जठराग्निः प्रभवति बलवान् व्याप्नुवन् सर्वकाये / असोऽग्निर्जनो(यकृत्)प्लोहार्ष(श)रोगानपि जलोदरादीनि मासयोगाच्च हन्ति; ऊर्ध्व'T 324 15 श्वासं च काशं(सं) च त्रिविधमपि विषं स्थावरं जङ्गमं कृत्रिमञ्च नेत्ररोगादिकं शिरःशूलं हन्तीति जठररोगोपशमनियमः। कक्षात् सव्यावसव्यात् स्तनमपि बलवत् पीडितं प्राणरोधात् / सव्याद् वामा न नाडी प्रवहति सहसा वामकक्षा च सव्या / मासार्द्धनाप्यरिष्टं हरति मरणदं योगयुक्तश्च योगी पादौ वज्रासनस्थो धृतकरकमलो पृष्ठशूलस्य नाशम् // 112 // इदानीमरिष्टवञ्चनाय नाडीबन्धकरणमुच्यते कक्षादित्यादिना इह यदा योगी मध्यमायामहोरात्रं प्राणं प्रवेष्णं(ष्टुं न शक्नोति, तदा वामारिष्टे दक्षिणे सञ्चार प्राणस्य करोति, दक्षिणारिष्टे च वामे सञ्चारं करोति, मासाद्ध मासमेकं यावदिति / अनेनोक्तेन कारणेन कक्षात सव्यावसव्यात स्तनमपि बलवत 25 पोडितं प्राणरोषात् / सव्ये स्तने पीडिते न वामनाडी वहति, वामकक्षात् पीडिते न सव्या नाडी वहति; एवं मासार्द्धनाप्यरिष्टं हरति मरणदं योगयुक्तश्च योगीति, योगः पूरकरेचकयोरेकता कुम्भक इति, तेन युक्तो योगयुक्त इति; हरतीत्यपनयतीत्यकालमरणवञ्चनानियमः। 1. क. ख. नात्यूध्वं; ग. नास्त्यूध्वं ; भो. ITe Bahi sTen Du (नाभ्यूज़)। 2. क. प्राणमेवोद्धतं चाकुञ्चनीयं / 20 Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . रसायनादिबोलतन्त्रमहोद्देशः - 231 इदानी पृष्ठशूलनाशकरणमुच्यते पादौ वज्रासनस्थ(स्थौ) इति वज्रासनं सव्योरुमूनि वामपादं वामोरुमूनि दक्षिणपादम्, तो पादौ पृष्ठस्थबाहुवज्रबन्धेन वामकरेण दक्षिणपादो धृतो दक्षिणेन वामपादः, तो पादौ घृतकरकमलो पृष्ठशूलस्य नाशं कुरुत इति / उौं पादौ शिरोऽधो व्यपहरति तनो श्लेष्मरोगं समस्तं प्रस्रावः प्राणरोधात् कतिपयदिवसैमूत्रकृच्छं निहन्ति / प्रत्यूषेऽनामिकाभ्यां जलविगतमुखे दन्तपंक्ति प्रघृष्य नेत्राणामञ्जनं स्यान्नयनरुजहर ताडनं वा जलेन // 113 // [138a] ऊर्बो पादौ शिरोऽधो व्यपहरति तनौ श्लेष्मरोगं समस्तमिति / प्रस्तावः प्राणरोधात कतिपयदिवसैर्मचकृत्स्नं(कृच्छ) निहन्ति / प्रत्यूषे अनामिकाभ्यां जकविगत- 10 मुखेप्रक्षालिते दन्तपंक्ति प्रघर्षण (प्रघृष्य) घृष्ट्वा नेत्राणामञ्जनं स्यानयनरुजहरं भवति / प्रत्यूषे ताडनं वा जलेन नेत्रयो रुजहरं भवतीति / / सुप्तो(से)नोत्तार(न)नाभि (भिध)तकरकमलाऽजीर्णशूलं निहन्ति गण्डानामुद्भवे वे सह घृतलवणैः स्वेदनं वृद्धिनाशः / अर्कक्षीरप्रलेपस्त्वथ भवति कदाचिद् दन्तकीट: संशूलो व्याघ्रीबीजस्य धूमो धृतमिहं नलिकाद्यैश्च कीटादिनाशः / / 114 // सुप्तो(प्ते)नोत्तार(न)नाभिर्वामकरणे धृता या सा धृतकरकमलाऽजीर्णशूलं निहन्ति प्राणायामसहितेति / गण्डानामुद्भव इति गण्डपिटकादीनामुद्भवकाले सह घृतलवणेवस्त्रबद्धः स्वेदनं वृद्धिनाश एव / अर्कक्षीरप्रलेपस्त्वथ गण्डादीनामुद्भव इति नियमः; कदाचिद् दन्तकोटः सशूलो भवति, तदा व्याघ्रोबीजधूमो धृतो नलिकाद्यैः कोटाविनाश 20 एव / व्याघ्रीति कण्ठ(ट)कारीति सामान्यरोगोपशमननियमः। ... इदानीं कुष्ठरोगोपशमनाय प्रतिविधानमुच्यते वर्षेत्यादिनावर्षा॰ श्वेतकुष्ठं हरति वरतनौ मन्त्रिणां किं तदन्यत् प्रज्ञासङ्गे सु(स्व)चित्तं सुलि(स्खलि)तमपि सदा प्राणवायोनिरोधात् / सप्तत्यब्दां जरां वै सपलितां च द्विवर्षप्रपूर्णे मुद्रासिद्धि(स)तदूर्ध्वं भवति कतिदिनर्मागचित्तप्रसङ्गात् // 115 // असो महायोगः पूर्वधूमादिनिमित्तेन प्राणायात्मन(यामेन) साधितोऽक्षरसुखक्षणः, बोधिचित्तं मुद्रासङ्गेन स्खलु(ल)यित्वा तदेव बोधिचित्तं मुद्रायोगेन स्खलितं समु(सु)खं प्राणापानयोनिरोपात वर्षा श्वेतकुण्ठं हरति वरतनौ मन्त्रिणां किं तदन्यत् / यदि कुष्ठं न हरति तदा षोडशाब्दिका मुद्रां सेवयति योगो [138b] प्रत्यहं मांसभोजनमद्यपानम्, 30 Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 10 विमलप्रभायां [अध्यात्मतस्य षड्मासाभ्यन्तरेण योनिमन्थाने बोधिचित्तं स्खलितं विधृतं सत् कुष्ठरोगं हरति, कुम्भकयोगेन, अत्र नास्ति सन्देहस्तथागतवचने / न केवलं कुष्ठं हरति, अपि तु सप्तत्यब्दां जरां वै सपलितां द्विवर्षप्रपूर्णे मुद्रासङ्गे बोधिचित्तं स्खलितमिति / अनेनैव योगेन योगिनः कतिपयदिवसः कालचक्रत्रिवर्षत्रिपक्षदिनैस्तदूर्ध्वमिति जराविनाशोवं मुद्रासिद्धिर्भवति मार्गचित्तप्रसङ्गाविति कृष्ठोपशमननियमः। यच्छब्दो हृत्प्रदेशे भवति वरनृणां श्रूयते श्रोत्ररन्धस्तस्मादूर्ध्वं हि मुष्टी(मूछी)(व)जति समरसं त्याजितं चैकभूतम् / / यच्छब्दं जीवलोके भवति (वदति) च बलजं (भवज) तत्तु देव (:)शृणोति विज्ञानं चैव दूरा[त्]श्रवणमपि विभो यो(भोर्यो)गिना भावनीयम् // 116 // कृत्वा पर्यङ्कबन्धं विकसितवदनोऽन्योऽन्यदन्तं स्पृशेन्न आकृष्टो बाह्यवातस्त्वमृतरससमो नाभिचक्रे प्रविष्टः / सन्तापं क्षुत्पिपासां हरति वरतनौ सन्निरुद्धो विषं च श्वेतो बिन्दुर्ललाटे सु(स्व)रपरिकरितो मुञ्चमानोऽमृतं वा // 117 // घ्राणे रन्ध्रद्वयेन त्वपि वि(पि)हितमुखे बाह्यवातः समस्तः प्राणेनाकृष्य वेगात् तडिदनलनिभो घट्टितोऽपानवायुः / काले नाभ्यां स योगाद् (काले नाड्या संयोगाद्) व्रजति समरसं - चन्द्रसूर्याग्निमध्ये अन्नाद्यां क्षुत्पिपासां हरति वरतनौ (अन्नाद्य क्षुत्पिपासामपहरति तनौ) चामरत्वं ददाति // 118 // * 116 तः 121 पर्यन्तं षट्श्लोकानामनुवादो भोटानुवादे (कञ्जूरसंग्रह) नोपलभ्यते तेषामुपरि विमलप्रभाव्याख्या च संस्कृतप्रतीषु भोटानुवादेषु वा नोपलभ्यते / अथ चैतद्विषये आचार्य-खेस-ड्रब-जे तत्पूर्ववत्तिभिःबुत्तोन्-मी-फम्-रिन्पोछे-आदि-आचार्यरपि स्व-स्व-व्याख्यानेऽत्र शङ्का नोत्थापिता, अतस्तैः मौनमेवाचरितम् / सम्भावये तत्र हेतुः तथाविघसंस्कृतप्रतीनां भोटदेशे अप्राप्तिः यत्रषां षण्णां सन्निवेशः स्यात् / अस्मिन् विषये प्राप्तसंस्कृतप्रतीनामपि द्विधा स्थितिः-कुत्रचिदुपलब्धिः षण्णां कुत्रचिन्नेति / प्रस्तुतसंस्करणस्याधारभूतायां प्रतौ यथा षट्श्लोका उपलब्धा दृश्यन्ते एतादृशा एव च अन्या अपि द्वि-त्रि-प्रतयः सन्त्येव डा० लोकेशचन्द्रसंरक्षित-प्राचीनग्रन्थसंग्रहालये / किन्तु बिहारराज्ये पटनास्थितकाशीप्रसादजायसवाल-अनुसन्धान-संस्थान-संरक्षितायां पुरातन्यां विभूतिचन्द्रलिखितायां प्रतौ श्लोका एते नैव प्राप्यन्ते, स्युस्तथाविधा अन्या अपि काश्चित् प्रतयः / एतस्यां स्थिती अप्राप्तिवशादेव भोटानुवादो भोटविद्वद्भिर्न कृतः स्यात् / 15 Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 233 स्वच्छायामातपस्थामपरमुखरवेः स्तब्धदृष्टयावलोक्य पश्चाद् व्योमाभिवीक्ष्ये(क्षे)त् समरसपुरुषो(षा) दृश्यते धूम्रवर्णः / षण्मासाभ्यासयोगादवनिगतनिधिं दर्शये(द्)च्छिद्रभूमि (भूमिछिद्र) वृक्षच्छायां प्रविश्यत्तथ(श्य त्वपि) गगनतले भाविता ___ बिन्दुमाला // 119 // / या शक्तिर्नाभिमध्याद् व्रजति प(व)रपदं द्वादशान्तं कलान्तं सा नाभौ सन्निरुद्धा[त्] तदिदननमिता (तडिदनलनिभा) दण्डरूपोत्थिता वा (च)। चक्राच्चक्रान्तरं वै मृदुललितगतिन्धारिता(गतिश्चालिता) मध्यनाड्यां यावच्चोष्णीषरन्ध्र स्पृशति हठतया सूचिबद्धा ह्यचर्म // 120 // [139a] 10 आपानं तत्र काले परमहठतया प्रेरयेदूर्ध्वमार्गे उष्णीषं भेदयित्वा व्रजति प(व)रपुरं वायुयुग्मे निरुद्धे / एवं वज्रप्रबोधात् सतनु(मनसि) स विषयात्] खेचरत्वं प्रयाति पञ्चाभिज्ञास्वभावा भवति पुनरियं योगिनां विश्वमाता // 121 // इदानीं प्राणायामनियम उच्यतेप्राणायाम प्रकुर्याद् हदि शिरसि तथा यावदग्मिर्व्यथाऽभत् तस्मादूवं हि मूच्छी व्रजति सुकमलेऽयन्त्रितो वा बलेन / उष्णीषं भेदयित्वा व्रजति परपुरं (हि मरणं) स्कन्धधातून विहाय मुद्रासनप्रणष्टो न हि सुखफलदो जन्मनीहैव पुंसाम् // 122 // . इह शरीरे प्राणायाम कुम्भकं कुर्यात मन्त्री हवि शिरसि तथा यावदग्निर्व्यथा- 20 भूत तावद् हृदयं दह्यते, शिरसि च व्यथा भवति / तत ऊध्वं न कुर्यादिति नियमः, यदि करोति तस्माद्ध्वं हि मूच्छी व्रजति सुकमले, नाभिकमले प्राणो मूच्छी व्रजतीति / अयन्त्रितो वा बलेनोष्णीषं भेदयित्वा बजति हि मरणं स्कन्धधातून विहाय [य]तः, अतो मुद्रासङ्गप्रणष्टो न हि सुखफलबः प्राणायामो जन्मनीहैव पुंसामिति प्राणायामनियमः। मुद्रोक्ता भावानार्थं दिननिशिसमये नेव रागक्षयार्थ वाग्वजं तर्पणार्थं न खलु मदकरं मन्त्रिणामुक्तमेवम् / 15 अतोऽत्यधिकमेतद् विचारणीयं यत् संस्कृतप्रतिषु तत्र सत्स्वपि षट्श्लोकेषु तेषां व्याख्या कथं न लभ्यत इति / अस्मिन विषये अनेकाविधाः सम्भावनाः समुदिताः भवेयुः / एतत् सर्व तथ्यजातमाधृत्य मालोचनीयं भूमिकायाम्, तत्र विरम्यते / Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 - विमलप्रभायां [अध्यात्मसर्वाहारः सुखार्थ प्रतिदिनसमयेऽजीर्णहेतोर्न चोक्तः श्रीचर्यासिद्धिहेतोभ्रंमणमपिचित्तौ (तौ) कीलनाथं न रात्री // 123 // [इदानीं योगिनां मुद्रास्वादनाहारचारनियम उच्यते मुद्रेति इह भगवता मुद्रोक्ता योगमुद्रोक्ता भावनार्थम्, नैवरागक्षयार्थ हेतोः दिननिशि5 समये स्त्रीक्रीडाम्; तथा मद्यपानं किञ्चित् मुखतर्पणार्थम्, न कलशादिवत् / न हि मदः योगीन्द्राणां मोक्षदः भवति; तथा आहारकरणमत्र सर्वाहारः सुखार्थम्, यत् किंश्चिदाहारकरणं तत् सर्वं स्वल्पसुखाय भवति / तेन प्रतिदिनसमयेऽजीर्णहेतोनं कर्तव्य इत्याहारनियमः। श्रीचर्या योगचर्या सिद्धिहेतोरिति सिद्धेहेतोः। तेन श्मशानोपश्मशानादिषु भ्रमणं रात्री न क्रीडार्थमित्यर्थः / योगचर्यानियमः / ]** *. **. मुद्रोक्ता भावनार्थमित्यादिश्लोकस्य व्याख्या संस्कृतप्रतिषु मया न दृष्टा; किन्तु भोटानुवादे सा लब्धा / अतो भोटानुवादात् पुनः संस्कृतेनूद्य सा मया उपरि कोष्ठके प्रस्तुता / भोटानुवादः तञ्जूरसंग्रहे एवं विद्यते "Da Ni Phyag rGya Ses Pa La Sogs Pas rNal thByor Pa rNams Kyi Phyag rGya Dan Myan Ba Dan Kha Zas Dan rGyu Bahi Nes Pa gSuns Te, hDir bCom IDan \Das Kyis Phyag Gya gSuns Pa Ni bsGom Pahi Don Du rNal bByor Gyi Phyag rGya gSuns Pa sTe. Chag Pa Zad Pahi Don Te rGyur Nin mTshan Du Bud Med Dan Rol Par gSuns Pa Ni Ma Yin No. De bSin Du chan Gi bTun Ba Ni Cun Zad Kha Tshim Par Byed Pa sTe. Bum Pa La Sogs Pa bSin Du Ma Yin Te. Myon Byed Ni rNal hByor Gyi dBan Po. rNam La Thar Pa sTer Bar Byed Par MikGyur Ro. De bSin Dy Kha Zas Byed Pa Ni "Dir Kha Zas Tham Cad bDe Bahi Don Te. Gan Gun Zad Kha Zas Byed Pa De Tham Cad Sin Tu Chun Bar bDe Bar Gyur Te. Deni Phyir Nin Sag So Sohi Dus Su Ma Su Babi rGyur Mi Byaho Ses Pa Ni Kha Zas Kyi Nes Paho. dPal IDan sPyod PasTe rNal hByor sPyod PadNos Grub Gyur Ses Pa dNos Grub Kyi rGyur Te. Desi Pbyir mTshan Mo Dur Khrod gNas Dan Ne Bahi gNas La Sogs Par kKhyam Pa Dag rTsed Mohi Don Du Ni Ma Yin No Ses Pahi Don Te. Nal hByor Gyi sPyod Pahi Nes Paho" (T 324, 3-4). . . . . , अस्य श्लोकस्य व्याख्या संस्कृतप्रतिषु नोपलभ्यते, किन्तु भोटानुवादे सा लब्धा, अत्रको हेतुरिति विवेचयता आचार्य-खेस-डुब-जे महाभागैरुक्तं यत् व्याख्यायाः विशुद्धभारतीयसंस्कृतप्रतिषु 'इदानीं योगिनां मुद्रास्वादनाहारचारनियम उच्यते इति सुबोधम्' इति मात्र लभ्यते एव / सोऽप्यंशो मया संस्कृतप्रतिषु न दृष्टः / अत्र खेस-ब-जे-महाभागानां स्वमतमुल्लेखनीयमस्ति / तेन उक्तं यद अन्येऽपि Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . रसायनादिवालतन्त्रमहोद्देशः इदानीमवधूतयोगिभैषज्यमुच्यतेअक्षोभ्यं किञ्चिदुष्णं मुखरुजशमनं दन्तशूलस्य चैव प्रत्यूषेऽक्षोभ्यनस्यं शिरसि रुजहरं तोयनस्यं तथैव / कर्णे नेत्रं (त्रे) प्रविष्टं त्वु(ह्यु)भयरुजहरं मूत्रमुष्णं च शीतं भूतार्तेऽक्षोभ्यनस्यं त्रिकटुकसहितं सौख्यदं चापि दष्टे // 124 // 5 इह यदा योगिनो मुखरोगो भवति, अक्षोभ्यं किश्चिदुष्णं कृत्वा मुखे घृतं मुखर(रु)जस(श)मनं भवति / दन्तशूलस्य चैवेति चकारा[139b]द् दन्तकीटस्य च / यदा शिरसि रोगो भवति, तदा प्रत्यूषे अक्षोभ्यं नस्यं कृतं शिरसि रुजहरं भवति / तोयनस्यं तथैव योगिनामिति / यदा कर्णरोगो भवति, तदा मूत्रमुष्णं कृतं कर्णे प्रविष्टं नेत्ररोगे शीतं कृतं नेत्रे प्रविष्टं यथासंख्यमुभयरुजहरम, मूत्रमुष्णं च शीतमिति / 10 भूतात इति भूतप्रेतादिग्रस्ते अक्षोभ्यनस्यं त्रिकटुकेन सहितं सौख्यदं चापि वष्टे, सर्पदष्टेऽपि सौख्यदं भवतीति मुखरोगाद्युपस(श)मननियमः / विण्मूत्रं शक्ररक्तं नृपत(ल)लसहितं भक्षितं चायुदं स्यात् / सध्यानं पुष्पनस्यं हरति सपलितानङ्गजातान् जरांश्च / भुक्तं पञ्चप्रदीपं सकलरुजहर मक्षिकाच्छदिमिश्रं स्त्रीपुष्पं शुक्रमिश्रं त्वपहरति रुजं भक्षितं वर्षयोगात् // 125 // इदानीं पञ्चामृतयोग आयुवृद्ध्यर्थमुच्यते विडित्यादिना इह 'यथा बाह्ये तथा देहे',(पृ०४७) इति वचनात् बाह्ये पञ्चद्रव्याणि, अध्यात्मनि पञ्चद्रव्याण्येकीकृत्य पञ्चामृतयोगः, ततः पञ्चामृतं भक्षितं योगिनामायुदं स्यादिति / 'भोटाचार्य-श्रीपङ्लो-प्रभृतिभिरपि स्वीक्रियते यत् भोटानुवादे उपलब्धोऽयं व्याख्यांशः मूलसंस्कृतस्य नास्ति, अपि तु केनचिद् भोटदेशीयेन विदुषा भोटानुवादे अयमंश आरोपितः / अस्मिन् विषये खेस्-ड्रब-जे-महाभागानां यद् वक्तव्यं तदुदध्रियते "hDihi rGya dPe Dag Pa Tham Cad La Da Ni Phyag rGya Ses Pa La Sogs Pas rNal hByor Pa rNam Kyi Phyag rGya Dan Myan Ba Dan Kha Zas Dan rGyu Bahi Nes Pa gSuns Pa Ni Go Laho Ses hByun Gi hGrel Pahi Tshig gSan Med Kyan "Dir thByun Ba Ni Bod Mi mKhas Pa Sig Gis bCug Par mNon No Ses dPan Lo Dan Chos rJe Bu La Sogs Pa mKhas Pa Phal Che Ba gSun La. Kha Cig m Tshan Bu dKyus Su Sor Paho Ses Zer Ro". (hGrel Chen Dri Med Hod Kyi "Grel bsad. The Collected Works of the Lord mKhas Grub rJe dGe Legs dPal bZan Po. Vol. 3. New Delhi, 1980, "Ga", page 141 b). . Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T325 236 विमलप्रभायां [अध्यात्मबाह्ये विदशब्देन वैरोचनिर्वलिवलेवंशाद् गन्धको विडुच्यते, अध्यात्मनि विडेव, अनयोस्तुल्यभागः। मूत्रं बाह्ये विष्णु नृपो भि(भृ)ङ्गराजरसम्, अध्यात्मनि मूत्रमेव / रक्तं बाह्ये अभ्रकम्, अध्यात्मनि स्त्रीपुष्पम्, तुल्यभागमिति / शुक्रबाह्ये पारदः, अध्यात्मनि शुक्रमेव, अनयोः समभागमिति / नृमांसं बाह्ये त्रिफला, अध्यात्मनि मज्जा, अनयोरपि समभागमिति / एवं विडेकभागः, मांसस्य पादोनभागः, रक्तार्द्धभागः, शुक्रस्य एकपादः, एतदेकीकृत्य मूत्रेण सप्तवारान् भावयेत् / आतपे भूयो भूयः शोषयित्वा, ततः प्रत्यहं कर्षमात्रं घृत-मधुभ्यां भक्षितं षण्मासावधेरायुदं भवति, शाकाम्लतैललवणवर्जनादिति पञ्चामृतनियमः। इदानीं पुष्पनस्य उच्यते सध्यानमित्यादिना इह ध्यानं मध्यमायां प्राणप्रवेशः, तेन ध्यानेन सह सध्यानमिति / पुष्पं स्त्रीरजः, बाह्ये केशराजिका भृङ्गराजः, तस्य रसः स्त्रीपुष्पतु[140a]ल्यं सध्यानं पुष्पनस्य सध्यानानां हरति सपलितानङ्गजातान् जरांश्च, षण्मासावधेरिति [नस्य]' नियमः / . इदानीं पञ्चप्रदीपमुच्यते गोश्वदन्तीहयनराणां मांसमक्षिकादिमिश्रं मधुना मिश्रं भुक्तं पश्चप्रदीपं 15 सकलरुजहरं भवतिः अपरं मक्षिकाच्छदिमाधवी, तया साई सकलरुजहरं भवतीति नियमः / स्त्रीपुष्पं शुक्रमिनं पूर्वोक्तं बाह्याध्यात्मिकम्, अपहरति जरां भक्षितं च वर्षमिति पूर्वोक्तभोजननियमः। इदानीं वाताद्युपस(श)म उच्यतेवातघ्नं क्षारमम्बु प्रभवति मधुरं पित्तशत्रुः कषायः / श्लेष्मघ्नं सर्वतिक्तं कटुकमपि तथा चौषधिर्वा रसो वा / श्लेष्मघ्नं छागदुग्धं त्रिकटु कसहितं माहिषं पित्तशत्रुः वातघ्नं चोष्ण(चोष्ट्र)दुग्धं त्रिविधरुजहरं गोपयः सपिरेव / / 126 // वातघ्नं क्षारमम्बु प्रभवति मधुरं पित्तशत्रुः कषायद्रव्यं* श्लेष्मघ्नं सर्वतिक्तं त्रिकटुकसहितम्, औषधि, रसो वा भक्षितं पीतमिति / श्लेष्मघ्नं छागदुग्धं त्रिकटुक25 सहितम्, माहिषं पित्तशत्रु::, शर्करासहितम् / वातघ्नं वो(चो)ष्णदुग्ध (ष्ट्रदुग्ध) शै(से)न्धवसहितं त्रिविधरुजहरं गोपयो यथासंख्यम्, सैन्धवादिसहितं वातपित्तश्लेष्मघ्नमिति / सपिरेव गोघृतं त्रिविधरुजशमनं ज्वररहितानामिति नियमः। 1. भो. rNub Pa (नस्य)। 2. क. ख. वोष्णदुःखं; ग. वोष्णदुग्धम् / 3. भो. rNa Mohi Ho Ma (उष्ट्रदुग्धम्)। *. एतावानंशः क. पुस्तके नास्ति, ख. पुस्तकादयं गृहीतः। . Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 237 पटले] . रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः इदानीं मुखादिरोगोपस(श)मनाथ क्वाथतैलाधुच्यते जातीत्यादिनाजातीक्वाथाम्बु चोष्णं मुखरुजशमनं दन्तशूलस्य चैवं तेलं वस्त्वम्बुपक्वं त्रिकटुकलवणैः कर्णरोगस्य नाशः / आज्यं क्षीराहिरक्तः क्वथितमपि सदा घ्राणरोगस्य नाशः कर्कोटी लाङ्गलीन्द्री हरति सहखरां गण्डमालां प्रलेपात् // 127 // 5 इह सर्वद्रव्याष्टगुणं तोयं जातीपत्राष्टगुणं तोयं पादावशेषं जातोक्वाथाम्बुतोयं किञ्चिदुष्णं मुखरजस(श)मनं भवति / दन्तशूलस्य चैवं तैलं तिलतैलं वस्त्वम्बु छागमत्रम्, तेन तुल्यं पक्वं तैलावशेषं त्रिकटकलवणैः सपादांशैः पाकावशा(सा)ने प्रदत्तः, तत्कणे प्रविष्टं कर्णरोगस्य नाश इति [140b] / एवमाज्यगोघृतक्षीरेणाष्टगुणेन क्वाथावसाने अहिर्नागकेशरं रक्तं [क]कुमं तैः पादांशेन दत्तैरनेन घृतेन नस्यं घ्राणरोगस्य 10 नाश एव / कर्कोटी वन्ध्यकर्कोटी लागली इन्द्रो इन्द्रवारुणी तिक्ता हरति सहखरां गर्दतांलतैः (गर्दभाम्बुलिप्तैः') सह गण्डमालां प्रलेपादिति नियमः संक्षेपतः, विस्तरेण वैद्यशास्त्रे ज्ञेय इति / इदानीं वज्रकण्ठकोपस(श)मनमुच्यते कुर्याद्धस्तावित्यादिनाकुर्याद्धस्तौ प्रलम्बौ समपदकमले प्राणवायोनिरोधं यावद् भूम्यां प्रपातो न हि भवति तनोर्मुञ्चनं च ज्वरस्य / भूयो भूयः समाधौं मरणभयकरान् नाशयेत् कण्टकान् वै हृत्पद्मे चन्द्रमूनि त्वमलशशिनिभा भाविता विश्वमाता // 128 // इह यदा पापरोगोपद्रवो भवति, तदा प्रथमं ज्वरो भवति, हस्तपादसन्धिषु व्यथा भवति, शिरश्च व्यथते। इदं लक्षणं ज्ञात्वा समाधिमवलम्बयेत् / तत्रायं विधिः-नि(नी)रन्ध्रे 20 गृहे प्रवेश्य ज्वरितः कुर्याद्धस्तौ द्वौ प्रलम्बी ऊरुपर्यन्तं समपदकमले कुर्यात्, प्राणवायोनिरोधं कुम्भकं कुर्यात्, यावत् प्रया(पा)तो भूम्यां न हि भवति तनोः तावज्ज्वररोगेण भूम्यां प्रपातो भवति; अथाप्रपातो यावत् पुनः पुनः प्राणायाम कुर्यादिति नियमः / मुञ्चनं च ज्वरस्य यावन्न भवति तावत् कार्यम्, ज्वरे मुक्ते सति न कुर्यादिति नियमः / भूयो भूय. समाधौ स्थितो मरणभयकरान् नाशयेत् कण्टकान् वै। हृत्पद्ये त्वमल- 25 शशिनिभा भांविता विश्वमाता, प्राणायामेन पद्मवरदहस्ता वज्रपद्मासनस्था चन्द्रमण्डले द्विभुजैकवक्त्रेति नियमः / इति पापरोगोपस(श)मः / 1. भो. Bon Buhi Chu Dan bCas Pa Byugs Pas (सह गर्दभाम्बुलिप्तः) / 2. क, ख, वज्रपद्मायनस्था / - Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 238 विमलप्रभायां [अध्यात्मइदानीं पापरोगोपस(श)मनाथ भैषज्यमुच्यतेपिष्ट्वा शीताम्बुसूर्यो ज्वरविहि(ह)तनृणां कण्टकान् नाशयन्ति घृष्ट त्वक्षोभ्यमिश्रं हरति भयकरान् वा कपालं ज्वरान्ते / [141a] मन्त्रश्चों कारपूर्वो जलशिखिमरुतां वज्रपूर्व च नाम / रक्षां तेनैव कुर्यात् शिरसि गलहृदो भिगुह्यादिकेषु // 129 // इह यदा पापरोगचिह्न भवति ज्वरितहस्तपादसन्धिषु व्यथा तथा(दा) पिष्ट्वा शीताम्बुना मसूर्यो ज्वरविहि(ह)त' नृणां दत्ताः कण्टकान् नाशयन्ति; तथा ज्वरान्ते तृतीयदिने कण्टकोत्थानकाले पापरोगेण मृतस्य कपालम् अलाभे यथालब्धं (घृ)ष्टम् अक्षोभ्यमिकं पीतं पुरुषकपालं पुरुषेण, स्त्रीकपालं स्त्रिया। अलाभे यथालब्धं पीतं हरति भयकरान् कण्टकान् धा(वा) इति यथालब्धं कपालं ज्वरान्ते इति नियमः / अत्र मसूर्यादीनामभिमन्त्रणाय मन्त्रो भवति / स च ओंकारपूर्व इति मन्त्रश्चों कारपूर्वः। .. जलशिखिमरुतां पूर्वम् ओंकारः, जलमिति पवर्गस्य द्वितीयाक्षरं तोयधातुः फ इति, शिखीत्यधो र इति, ऊर्वे एकारः, एषां जलशिखिमरुताम् एकत्वं कें', अनुस्वारम् आकाशं सर्वव्यापित्वादिति / बज्रपूर्व च कण्टकानां नाम, रि(र)क्षां तेनैव कुर्यात्; यथा मसूर्यादेः सप्तवाराभिमन्त्रितं तथैव रक्षां तेनैव शिरसि गले हृदये नाभी गुह्ये आदिशब्दादुष्णीषे; एषु षट्सु स्थानेषु त्रिसन्ध्यायां रक्षां कुर्यादिति नियमः। अत्र मन्त्रः-ॐ के विश्वमात[:] वज्रकण्टकान् नाशय नाशय मम शान्ति कुरु कुरु स्वाहा, पररक्षार्थ देवदत्तस्य शान्ति कुरु कुरु स्वाहा, इति नियमः / इदं भगवत्या विश्वमातुः सर्वेत्यु(षु उ)पद्रवेष्वात्मपररक्षायां स्मर्तव्यमिति भगवतो नियमः। अनेन मन्त्रेण सप्तवारानभिमन्त्र्य मसूरिकाः शीताम्बुना पिष्ट्वा पातु[तु] देयाः, ज्वरनष्टस्य कपालम् अक्षोभ्येन पिष्ट्वा देयम्; भूतग्रस्तस्य त्रिकटुकेन सहितम् अक्षोभ्यं पिष्ट्वा देयमिति पापरोगोपस(श)मननियमः / इदानी सूर्यातपस(श)मननियमः क्रियते तुल्येत्यादिनातुल्यं धात्री च धान्यं त्वपरमपि तथा तिन्तिडीपत्रचूर्ण तोये चन्द्रार्कजुष्टे खलु विगतमले क्वाथयेत् पादशेषम् / तत् [141b] क्वाथं खण्डमिश्रं पुनरपरदिनात् पीतमेतत् त्रिरात्रं ग्रीष्मे सूर्यांशुदाहं हरति मरणदं सप्तधातौ गतं च // 130 // इह यदा ग्रीष्मे सूर्याशुदाहो भवति अध्वनि, तदा तुल्यं धात्रीति आमलकीफलचूर्णम्, धान्यमिति कुस्तुम्बुरुः, तेन तुल्यमपरमिति; तथा तिन्तिरी(डी)पत्रचूर्ण बन्धु 1. भो. rNam Par bsNun Pa (विहत)। 2. ग. ०वाराभिमन्त्रणम् / 3. क. ख. पुस्तकयो स्ति / 4. भो. hDab Ma (०पत्र) / 20 Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T326 पटले] . रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 239 लोपत्रचूर्णमिति तुल्यम्; एवं सर्वेषां तुल्यभागं कृत्वा, तोये चन्द्रार्कजुष्टे इति चन्द्रार्ककिरणैः स्पृष्टे खलु विगतमल इति शैवालादिमलरहिते, क्वाथयेत् पादशेषमिति क्वाथस्य यावत् पादमेकं भवति, तावद् द्रव्यत्रयं क्वाथयेत्, द्रव्याष्टगुणं तोयं दत्त्वेति / अत्र तुलाया मानं न भवति, क्वाथविषये आढकेन मानं सर्वत्रेति नियमः। तत् क्वाथपादात् समानं खण्डमिश्रं पुनरपरदिनात् पीतम्, एवमनेन क्रमेण त्रिरात्रं 5 प्रत्यूषकाले ग्रीष्मे सूर्यांशुदाहं हरति मरणदं सप्तधातौ गतं चेति लोमचर्मादौ गतम्, चकारादपरमपीति नियमः। इदानीमपररसायनमुच्यते हेमेऽर्कमित्यादिनाहेमेऽ(म्न्य)कँ कान्तलोकं(हं) पटलजमयसं वाहयेन्मक्षिकेन बीजार्केनापि पिष्टिर्मलविगतरसे वाहयेत्(कारयेत्) षट्पलश्च / 10 गोतकं दारयित्वा खलु खरशिखिना ग्राह्यमेवाग्रम(वात्र) मस्तु श्रीपिष्टया कल्किपात्रे' क्वथितमपि पुनर्यावदर्द्धप्रमाणम् // 13 // इह शरीरे यः कश्चिद् बाह्यरसायनार्थी सिद्धरसाभावे मध्यरसायनमिदं कुर्यात्, अस्य च विधिरुच्यते-हेम्नीति विशुद्धस्वर्णे, अर्कमिति ताम्रम्, कान्तं लोहम्, पटलजमभ्रकलोहम्, अयसं तीक्ष्णम्, एषां प्रत्येकं समभागकृतानां भागं सुवर्णसमं माक्षिकचूर्णं 15 प्रतिवाये(प)न प्रकटमू[142a]षायां तोववातेन निर्वाहयेत्; यावद् हेमं तिष्ठति, तदेव बोजम्, तेन बोजेनार्द्धन स्वर्णपलद्वयेन रसे चतुःपले मलविगत इति सप्तपातनाकृते पिष्टं षट्पलं कारयेदिति / ततो गोत्रक(गोतक)मपगतनवनीतं खरशिखिनेति तीव्राग्निना विवारयित्वा, तस्य विदारितस्य कर्पटेन गालयित्वा स्वच्छं मस्तु ग्राह्यम्, कल्कं त्यक्त्वा / तदेव मस्तु अयस्कान्तपात्रे हेमपिष्टया सार्द्ध पुनः क्वाथयेत्, याववद्ध- 20 प्रमाणं भवति / उद्धृत्याशुद्धखण्डाष्टपलमथ नववत् क्षेपनी(णी)यं हि तत्र तद्भोज्यं सर्वकालं ह्यस(श)नविरहितं चायनं यावदेव / षण्मासैदिव्यदेहो वलिपलितगतो यात्यनेनामरत्वं तस्माद् भोज्यं तदेव प्रतिदिनसमये किन्तु पिष्टया विहीनम् // 132 // 25 तत उद्धृत्याशुद्धखण्डाष्टपलमिति तम् अराजादिकानाम् आहारपरिणामवशेन३ नवादिकं सप्तादिकं च / खण्डस्य चतुःषष्टिभागिकमरिचचूर्णमपि तत्र क्षेपनी(णो)यमिति तदेव भोज्यं सर्वकालम् अस(श)नविरहितं चायनं यावदेवाषण्मासैदिव्यदेहो वलिपलितगतो यात्यनेनामरत्वम् / इह पाने ताम्बूलभक्षणं विहितम्, ताम्बूलकल्कं विहाय तद्भोज्यं सर्वकालमिति / तदेव मस्तु तेन विधिना भोज्यं भोजनीयम् / हेमपिष्टया 30 1. भो. Khab Len sNod (अयस्कान्तपात्रे)। 2. भो. Dar Ba (तक्र) / 3. ग. भेदेन / Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 240 विमलप्रभायां [अध्यात्म विहीनम्, किन्तु यावत् पिष्टिकाऽस्ति तावत् तया सार्द्धम् / पश्चात् तया विना सर्वकालमिति रसायननियमः। इदानी भक्काद्युपभोगाय हेमाद्धिकमाह पूर्वोक्तमित्यादिनापूर्वोक्तं बोजराजं सममपि तु रसे जारित चार्द्धमात्रं क्षाराम्लैमर्दयित्वा बहु विविधविडैर्यावदेकत्वमेति / पित्ताम्लर्गन्धकायैः (द्यैः) दरदमपि शिलां मर्दयेत् सूततुल्यं तल्लेपात् तारपत्रं व्रजति कनकतां पक्ष(क्व)मद्धिकेन // 133 // इह पूर्वोक्तं बोजराज सममपि तु रसे चा(जा)रितं चाद्धमात्रम्, क्षाराम्लैमर्दयित्वा बहु विविधविडैर्वक्ष्य[142b]माणैर्यावदेकत्वमेति / ततः पित्ताम्लै'गन्धकाद्यैः२ दरदमपि 10 शिलामिति इह रसक्रामणाय त्रीणि द्रव्याणि रसतुल्यानि रसेन साद्धं पित्ताम्लै 'मर्दयेत् / गोपित्तं मत्स्यपित्तं वा फलाम्लं वा यथालब्धं बोजपूरकाद्यम्, गन्धकम्, दरदम्, शिलाम्, तालकम्, शशकम, काक्षी, काशीषं, तुत्थकम्, हेमगिरिकम् एषां गन्धकादीनामुपरसद्वयम्, महारसं एकम्, त्रीणि रसतुल्यानि / तस्य लेपात तारपत्रं दिनत्रयं चुल्लिकाधः स्थापितं व्रजति कनकतां पक्वं चुल्लिकाग्निना, अद्धिकेन हेम्ना। इति हेमाद्धिक15 नियमः। इदानीं पुष्पक्रियोच्यते तीक्ष्णमित्यादिनातीक्ष्णं चाकाशजातं त्वललवणयवक्षारसर्ज क्रमेण वृद्धं चार्के द्विगुण्ये समरसकरणाद् दाहयेदकशेषम् / भूयः क्षारेण शुद्धं भवति मृदु तथा गोमयाचे निषिक्तं तारे दत्तं त्रिभागं हृतमपि भरितं शुद्धपुष्पत्वमेति // 134 / / इह पुष्पशब्देन ड(द्र)म्मरूपक द्रव्यमुच्यते / तीक्ष्णं तारेण ताडितं भरितं चेति, तस्येयं दलशुद्धिः। तीक्ष्णमाकाशजातमित्यभ्रकसत्त्वम् / अलमिति तालकं लवणं सैन्धवम्; यवक्षारम्, सर्जरसम्; तोक्षणाद्यं क्रमेण वृद्धमिति एकद्वित्रिचतुःपञ्चषड्भागं यावत् / ततः सर्वमेकीकृत्य अर्के ताने द्विगुणे समरसकरणात् प्रथममन्धमूषायां धमेत्; 25 ततः प्रकटमूषायां वा(दा)हयेद कशेक(शेष) यावद् भवति / भूयः क्षारेण टङ्गणक्षारेण शुद्धं भवति, मृदु तथा गोमयाचे निषिक्तमिति गोमयं गोतक्रम्, आवितः अर्कमूलम्, वज्रीकनकमूलम्, एरण्डमूलम्, क्षीरकञ्चुकीमूलम्, पोषयित्वा सन्धान कारयेत्, सप्ताह यावत् ; ततस्तस्मिन् तक्रेनिषेकं दद्यात् यावन्मृदुर्भवति। तदेव तारे दत्तं विभागं हृतमपि भरितं वा शुद्धपुष्पत्वमेति / इति पुष्पदलनियमः। 1. क. पित्ताद्यः। २.ख. गन्धकायः / 5. भो, bSreg Par Bya (दाहयेत्)। 3. क. ख. पक्षं। 4. क. रूषक / / ६.मो. Lhag Ma(शेवम)।. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 241 इदानीं बुद्धबोधिसत्त्वपूजार्थ गन्धधूपादिकक्षपुटमुच्यते एलेत्यादिनाएला कर्पूरमाला वलघनफलिनी वायसम् अद्रिजं च कर्कोलं सिंहमूत्रोत्पलफलमृगजा रक्तदैत्यानि पूतिः / नागं शीतं रणं पत्रपलजललतान्यम्बरं चक्रमेतत् पञ्चद्रव्यस्तु गन्धं कुरु मृगशशिभिर्दूपपुष्पासवाद्यैः / / 135 // 5 इह शोधितद्रव्याणि गन्धसा(शा)स्त्रोक्तविधिना पञ्चविंशतिकोष्ठात्मके कक्षपुटे पातयेत् / प्रथमकाष्ठे एला, द्वितीये कर्पूरम्, तृतोये मालेति स्पृक(क्का)पुष्पम्, चतुर्थे वलं सिलकचूर्णम्, पञ्चमे घनं मुस्तकम्, षष्ठे फलिनीप्रियङ्गुपुष्पम्,सप्तमे वायसं कृष्णागुरुः, अष्टमेऽद्रिजं शैलेयकम्, नवमे कर्कोलकम, दशमे सिंहमूत्रम्, एकादशमे उत्पलं कुष्ठम्, द्वादशे फलं जातिफलम्, त्रयोदशमे मृगजा कस्तूरिका, चतुर्दशमे रक्तं कुङ्कमम्, पञ्च- 10 दशमे दैत्यं मुरा, षोडशमे पूतिः पुत्रकेशम्, सप्तदशमे नागं नागकेशरपुष्पम्, अष्टादशमे शोतं चन्दनम्, एकोनविंशतिमे रणम् उशीरकम, विंशतिमे पत्रं तमालपत्रम्, एकविंशतिमे पलं मांसी, द्वाविंशतिमे जलं वा(पा)लकम्', त्रयोविंशतिमे लतेति, लता कस्तूरिका, चतुर्विशतिमेऽम्बरं भेरुण्डविष्ठम्, पञ्चविंशतिमे चक्र (वर्क') पिण्डोन(त)गरपुष्पम्, एवमेतद्व्याणि / एभिः पञ्चद्रव्यैर्यथारुचितैः कक्षपुटोद्धृतैः शोभनं गन्धं कुविति 15 नयमः / मृगशशिभिरिति कस्तूरिकाकर्पूरसहितैर्द्धपैः पातयेत्, सुगन्धपुष्पैसियेत्, आसवाद्यैरिति मद्यः सर्वैर्वक्ष्यमाणैः कर्पूरकस्तूरिकाजातीफलसहितैर्वेधयेदिति द्रव्यपातनियमः। इदानीं कक्षपुटपतितानां द्रव्याणां भाग उच्यते नेत्र इत्यादिनानेत्रन्द्वग्न्यब्धिबाणा गुणजलधिशरा हस्तचन्द्रेषु नेत्रा चन्द्राग्न्यब्धोन्दुकाला युगशरनयनाब्धीषु नेत्रेन्दुलोकाः / एलाद्या भागसंख्याः क्रमपरिरचिताः पञ्चपञ्चप्रकोष्ठव्यैर्गन्धं भवेत् कक्षपुटपुरगतैः शुद्धभागैदिनाख्यैः // 136 // इह प्रथमकोष्ठपतितद्रव्यस्य नेत्रमिति द्वौ भागो, द्वितीये इन्दुरिति एको भागः, तृतीयेऽग्निरिति[143b]त्रयः, चतुर्थेऽब्धि[रिति] चत्वारः, पञ्चमे बाणा इति पञ्च, 25 षष्ठे गुणा इति त्रयः, सप्तमे जलधिरिति चत्वारः, अष्टमे शरा इति पञ्च, नवमे हस्त इति द्वौ, दशमे इन्दुरित्येकः, एकादशमे इषुरिति पञ्च, द्वादशे नेत्रमिति द्वौ, त्रयोदशे चन्द्र इत्येकः, चतुर्दशे अग्निरिति त्रयः, पञ्चदशे अब्धिरिति चत्वारः, षोडशे' इन्दुरित्येकः, सप्तदशे काल इति त्रयः, अष्टादशे युग इति चत्वारः, एकोनविंशतिमे शर T327 इति पञ्च, विंशतिमे नयन इति द्वौ, एकविंशतिमे' अबिधरिति चत्वारः, द्वाविंशतिमे 30 1. भो. Pa la Ka / 2. भो. hKhjog Po (वक्र) / 3. क. ख. दत्तैः / 4. भो. Min Par Bya (पाचयेत) / 5. क. ख. महा; भो. Chan (मद्य)। 6-7. ख. पुस्तके नास्ति / Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 विमलप्रभायां [अध्यात्मइषुरिति पञ्च, त्रयोविंशतिमे नेत्र इति द्वौ, चतुर्विंशतिमे इन्दुरित्येकः, पञ्चविंशतिमे लोक इति त्रयः / एवमुक्तक्रमेण एलाद्या भागसंख्याः क्रमपरिरचिता पञ्चपञ्चप्रकोष्ठेषु; तैः पञ्चद्रव्यैर्गन्धं भवेत् / कक्षपुटपुरगतैः, पुरमिति कोष्ठकं शुद्धद्रव्यभागैदिनाख्यैरिति पञ्चदशभागः, एकद्वित्रिचतुःपञ्चभिरेकीभूतैरिति द्रव्यभागनियमो गन्धकक्षपुटे / जात्याद्येलालतानां दलकलशपुरे पातनीयं क्रमेण लाक्षासजं च दुग्धं पुरमपि च सितं धूपकार्येषु धूपम् / कुर्यात् कर्पूरखण्डै : कुसुमरसयुतैर्वह्निभागैर्नखैश्च . पिष्टं तद् गन्धतोयैरपि मधुरहितां धूपवति प्रकुर्यात् / / 137 // इदानीं धूपकक्षपुट उच्यते जातीत्यादिना10 इह पूर्वपातितानां कक्षपुटद्रव्याणां मध्ये जात्यादिपञ्चद्रव्याण्युद्धत्य तेषां स्थाने यथाक्रमेणान्यानि पञ्च देयानि; तत्र जातोति जातीफलम् आदितः, द्वितीया एला, तृतीया लता कस्तूरिका, चतुर्थं दलं तमालपत्रम्, पञ्चमं कलशं कक्कोलम्; एषां पुरे कोष्ठे पातनीयं क्रमेण-जातीफलकोष्ठे लाक्षा, एलाकोष्ठे सर्जरसम्, लताकोष्ठे दुःख (दुग्ध)मिति श्रीवासम्, दलकोष्ठे पुरमिति गुर्गु(ग्गु)लम्, कक्कोलकोष्ठे सितमिति कुन्दु15 रुकम् / एवं धूपकार्येषु धूपम्, पञ्चद्रव्यैः पूर्वोक्तभागैः कुर्यादिति नियमः / कर्पूरखण्डैः सह यत्र खण्डम्, तत्र मधु देयं खण्डेन सार्द्ध वह्निभागैर्नखैश्च सार्द्धम् / एवमष्टादश भागैः षडङ्गो धूपो भवति, कर्पूरखण्डमधुकस्तूरिकासहितो दशाङ्ग इति धू[144a]पकक्षपुटे द्रव्यनियमः। इदानीं धूपवतिरुच्यते पिष्टं तदित्यादि इह धूपकक्षपुटोक्तं मधूकविरहितं गन्धोदकेन किञ्चित् खण्डमिश्रेण पिष्टा धूपति तेन कुर्यान्नाराचाकाराम्, धूपनाय वस्त्रादिकं सद्धर्मप्रतिमार्थमिति नियमः / नाभ्यादौ सिंहमूत्रे शशिगगनपुरे पातयेत् स्नानयोगे ग्रन्थि व्याघ्र हरेणुं हतमपि च तथा शङ्खत्वक्तिविभागाः / धान्यं मुर्वी शताऔं दममपि मधुरो तद्वदुद्वर्तने च पूर्वोक्ते चानिवृत्ते जलजमपि तनुर्ग्रन्थिपणं च तैले // 138 / इदानीं स्नानकक्षपुट उच्यते नाभ्यादावित्यादिना इह पूर्वकक्षपुटपातितद्रव्याणां मध्ये चत्वारि (पञ्च) द्रव्याणि नाभ्यादीन्युद्धृत्य तेषां कोष्ठेषु यथासंख्यं स्नानकक्षपुटेऽन्यानि देयानीति / तत्र नाभिकोष्ठे ग्रन्थिपणं पातयेत्, 1. ग. सप्तादश / 2. भो. INa (पञ्च)। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 243 सिहमूत्र'कोष्ठे व्याघ्र नखम्, शशिपुरे हरेणुम्, गगनपुरे हतमिति कचोरकम् / अपि च, तथा यथा धूपकार्ये संख(शङ्ख)मिति नखं तस्य त्रिभागम्, एवं त्वविभागास्त्रयो देयाः, स्नानयोगे स्नानद्रव्याणां मध्ये / एवमष्टादशभागे षड्द्रव्यैः स्नानं भवति / स्नानकक्षपुटे द्रव्यनियमः। इदानीमुद्वर्तनकक्षपुटमुच्यते इह स्नानकक्षपुटोक्तपञ्चद्रव्याणां मध्ये त्वग्वत् त्रयो भागाः पञ्चद्रव्याणां देयाः। धान्यमिति कस्तुम्बुरुम्, मुर्वीति मरुवकम्, शताहृति शतपुष्पा, दममिति दमनकम्, मधुरो एषां पञ्चानां त्रयो भागाः-एवमष्टादशभागेनोद्वर्तनं भवति / उद्वर्तनद्रव्यनियमः। इदानीं पकतैलार्थ तैलकक्षपुट उच्यते पूर्वेत्यादि इह पूर्वोक्तिगन्धकक्षपुटद्रव्यगणेऽनिवृत्ते जलजमिति नखम्, जलजमिव तनुरिति त्वक, ग्रन्थिपणं च, तयोर्भागत्रयं दत्त्वा गन्धकक्षपुटपञ्चद्रव्यैः सार्द्ध सप्तद्रव्यैरष्टादशभागेन वक्ष्यमाणक्रमेण तैलं पचेत्, नानागन्धतैलं भवति / तैलकक्षपुटद्रव्यनियमः / [144b] एवं चूर्णादिकम्चूर्णे ग्रन्थि च तद्वद् भवति तनुहत पानवासे मुखे च त्वग्वोलं ग्रन्थिशङ्ख फलदलपुटपाके च हंसादिके च / एवं त्रिंशत्प्रभेदैः सुरचितविविधान् गन्धधूपादियोगान् कुर्याद् द्रव्यविशुद्धैः फलपुटपचितैर्वासितैर्वेधितैश्च // 139 // चूर्णे चूर्णविषये प्रन्थि च तद्वदिति नखवत्पञ्चद्रव्येषु देयं ग्रन्थिपर्णकम् / तत्र(तनु)हतं पानवासे देयं भवति, मुखवासे च त्वग्वोलं ग्रन्थिशङ्कमिति द्रव्यचतुष्टयस्य भागत्रयं 20 फलपाके दलपुटपाके हंसपाके आदितो दोलाया (पा)के वक्ष्यमाणे देयमिति / एवमुक्तक्रमेण त्रिंशत्प्रभेदैस्त्रिशद्गन्धादियोगान् सुरचितान् विविधान् गन्धधूपादियोगान् स्नानोद्वर्तनादिकान् कुर्याद् गन्धाद्यर्थी, द्रव्यैः किम्भूतैः ? विशुद्धैः फलपुटपचितेवर्वासितर्वेधितैरिति द्रव्यसंग्रहनियमः / / इदानीं गन्धस्य धूपपाक उच्यते अष्टांशावावित्यादिअष्टांशादौ कषायो भवति दलवशात् तद्विगुण्योगधूपः पश्चाद् द्रव्यप्रमाणो गुड इति च भवेद् वर्द्धते ग्रीष्मयोगात् / पादांशं शङ्खधूपं मधुकमपि सितां निर्दहेद् द्रव्यतुल्यां पिण्डं शङ्खप्रमाणं मलयलघुचलं चन्द्रयुक्तं च तद्वत् // 140 // 1. क. ख. सिंहसूत्र० / 2. क. ख. हृतमिति, भो. Ha Ta (हत०)। 3-4. क.ख. त्वगवर्गयोः / Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 विमलप्रभायां [अध्यात्मइह गन्धयोगे त्रिविधं दलम्-अधममध्यमोत्तमम् / तत्राधम मुस्तकम्, सै(0)लेयम्, उशीरकम्, वा(पा)लकम्,' कपित्थम्, विल्वम्, मुरा, मांसीति; एतानि दलान्य-२ धमानि / एषां वशाद बलवशादादौ कषायो गुडेन मोदितं हरीतकीचूर्ण धूपो भवति; तेन दलमष्टांशेनादौ धूपयेद् दिनमेकम्, ततः पुष्पवासं कृत्वा दिनद्वयम्, तृतीये दिने मध्यमदलं मिश्रयेत्; ततस्तद्विगुण्योगधूप इति / तस्य पूर्वापरस्य द्विगुण्य उग्रधूप इति / लाक्षाम्, सर्जरसम्, श्रीवासम्, गुग्गुलुः, कुन्दुरुकम्-एभिः पञ्चोप्रैर्गुडेन मोदितैरुग्रधूपो भवति; कषायस्य द्विगुण्यो देयः, दलस्य पादांशमिति / ___ अत्र मध्यमदलं पुष्पवर्गम्, चन्दनम्, अगुरुम्; फलवर्गम्, नखम्, त्वग्वर्गम, निर्यास वर्गमिति / एवं दिनद्वयम् उग्रधपेन धपयेत् एकान्तरितं दिनद्वयं पुष्पवासं कुर्यात, 10 पश्चाद् द्रव्यप्रमाणं गुडम्, अपि च धूपेन सार्द्ध निर्दहेत ग्रीष्मे; ततो वर्द्धते ग्रीष्मयोगात्, वार्षे द्रव्यद्विगुण्यः, हेमन्ते त्रिगुण्यो देयः, ततो गुडे दग्वे सति शङ्कमिति नखं गुडेन साई पादांशं निर्दहेद दिनद्वयं पूर्वविधिना। ततो मधुकं सितां स(श)करां द्रव्यतुल्यां निर्दहेत पिण्डधूपेन सार्द्धम् / धूपग्रासस्याद्यावसाने केवलं निर्दहेत् / एवं गुडोऽपि प्रतिदिनं ग्रासत्रय दग्ध्वा विश्रामयेत्, प्रतिदिनं द्रव्यस्याष्टांसं(शं) धूपं निर्दहेत्, अन्यथाऽनेनापक्वो भवति, 15 अधिकेन दग्धगन्धो भवति, अपक्वे अम्लो भवतीति नियमः / पिण्डमिति पिण्डधूपम्, कक्षपुटोक्तं कर्पूरसहितम् उग्रद्रव्यवर्जितम्, पञ्चद्रव्यमधुस(श)करामोदितैः पिण्डधूपम् तदेव संख(शङ्ख)प्रमाणमिति द्रव्यपादांशं निर्दहेत् / तत्र पुत्रकेशं जातीफलं कर्पूरं नाभिः, अपरं कक्षपुटोक्तमुत्तमं दलं दत्त्वा, मलयं चन्दनम्, लघुमित्यगुरुम्, चलमिति' सिलकम्, चन्द्रमिति कर्पूरम्; तेन युक्तं T382 20 द्रव्यत्रयम् / तद्वदिति पिण्डधूपद्रव्यसदृशं' निर्दहेद् मधुस(श)करासहितम् / अत्र गुडो वटिकागुडो ग्राह्यः, न द्रव्यपूर्वक इति नियमः / पक्वं गन्धं सुपुष्पैः कतिपयदिवसं व्यासयेद् यावदिष्टं . पश्चाद् वेधं शतांशं त्रिफलशशिमदैः कारयेत् सासवैश्च / / सि(शि)ग्व्रम्बु छागमूत्रं कुसुमरससमं क्वाथयेत् पुष्पजान्तं मासैकं धान्यपक्वं भवति मृगसममासवं नाभिविद्धम् // 141 // 25 ततः पक्वं गन्धं ज्ञात्वा, अस्य पार्क मर्दितस्य गन्धेन करस्य तलं यदि रक्तं भवति, तदा परिपक्कम; अथ न पक्कम्, अतो यावत् पाकं न भवति तावच्छीतधपं न दाहयेदि[145b]ति / एतत् पक्कं गन्धं सुपुष्पैः चम्पकाद्यैः सुगन्धैः कतिपयदिवसं पक्षाद्धं पक्षमेकं वा यावद् धूपदोषं त्यजति, तत इष्टं भवति / पश्चाद् वेधं सतांसं (शतांशं) 1. भो Pa La Ka (पालक)। 2. भो. rZas (द्रव्याणि) / 3. क. ख. ग्रीवासं / 4. भो. Khu Ba (शुक्र); क. ख. निज्जास / 5. क. ख. बलमिति / 6. क. ख. पिण्डद्रव्यधूपसधृशं / Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसायनामिहोद्देशः फल(त्रिफल)मिति जातीपालन, कोलम्) अथवा' एला कक्कोलस्वामे, लता कस्तूरिका, शशीति कर्पूरम्, मवमिति कस्तूरी, एषां समभागं कृत्वा शतांशेन गन्धस्य वेधं कारयेत् / सासवैरिति वक्ष्यमाणैर्मदासवेः सार्द्ध वेधं शतांशेन दद्यात् / वेधस्याष्टगुणासमिति वैधनियमः। इदानीं गन्धानां मोवनार्थम् आसवमुच्यते शिखित्याविना इह गन्धशास्त्रीक्तविधिना विस्तरों यत्र यादृश आसवादीनां पाकः स तत्रव गन्धशास्त्र ज्ञेयः / अत्र चे संक्षेपत उक्तः शिवम्बु इति। शिपुरसम्, छागमूत्रम्, कुसुमरसमिति मधु, तेन संमं तुल्यमानम् अग्निना क्वाथवेत्, पुष्पजान्तमिति मधुपर्यन्तम्, तत उद्धृत्य नारिकेलादौ प्रक्षिप्य धान्यराशिमध्ये मासमेकं पक्वं भवति / मृगसमम् आसवं नाभिविमिति. अग्निपाकावसाने नाभिरिति कस्तूरी, अनुक्तमपि 10 कपरम्, त्रिफलम्, तेन स(श)तांशं वेधं दत्वा, ततो धान्ये स्थापयेत्। ततस्तेन गन्धस्य वेध पूर्वोक्तं कारयेदिति नियमः / सर्वस्मिन् गन्धशास्त्रे धूपपाकाय त्रिविधं धूपयन्त्रम्समम्, डमरुकाकारम्, मूनि सरावाकृतिः, मध्येऽङ्गुलद्वयं छिद्रं षडङ्गुलमधर्म कषायोगधूपार्थम्; मध्यममष्ठागुलोच्छितम्; नखगुडपिण्डधूपार्थम्; उत्तम दशाङ्गुलं शीतधूपार्थम्, अस्य यन्त्रस्य तले वालुका सहितं खपरं चूल्लिका मूनि दत्वा 15 द(त)प्त वालि(लु)कायां धूपग्रासं दत्वा, तदुपरि यन्त्रम्, यन्त्रोपरि गन्धकल्कप्रलिप्तमगुल्यर्द्धमुच्छ्रितं मृत्कपालं स्वल्पकल्के नारिकेल' दत्वा धूपं निर्दहेत, दण्डक दण्डार्द्ध धूपप्रमाणं ज्ञात्वा / तत उद्धृत्य कपालं फलकोपरि वस्त्रं दत्वाऽधोमुखं स्थापयेत्, येन धूपो' न गच्छति पाककालेऽपि कपालयन्त्रयोर्मध्ये आवस्त्रेण वेष्टयेत् / इति धूपपाकनियमः। फलपाके बीजपूरकस्य गर्भशस्य"मुद्धृत्य, त्वचं परिवयं, मध्ये गन्धकल्क प्रक्षिपेत्, बाह्ये वल्कलैर्वेष्टयित्वा मृदाङ्गुलेकोच्छितं लैपयेते; पश्चाद 2 गोकर्षाग्निना पुटप्रयोगेण पाचयेत्, यावत् तल्लेपोऽग्निवर्णो भवेत् / तत ऊध्वं गन्धनाशो भवति, ततोज्नेरुद्धृत्य शोति(ती)भूतं गन्धं नाभ्यादिभिर्वेधयेत् पूर्वोक्तविधिनेति फलपाकनियमः / दलपुटपाकेऽपि केतकोपत्रः [146a] पुटिकां कृत्वा मध्ये गन्धकल्क क्षिपेत् / शेष 25 फलपाकवत् / हंसपाके स्वर्णकलशं रौप्यं वा गर्भे गन्धकल्केन लिप्त अगुलैकेनोच्छितेन ताम्रकटाहे गन्धोदकार्द्धपरिपूरिते प्लवमानं 4 कथनमनुभवन्'५ हंस इव प्लवमानो"हंसपाक 1, क. ख. ग. पुस्तकेषु नास्ति / 2. क. ख. विविधा / 3. क. ख. गुलमध्यमं / 4. क. ख. डनुभं / 5. क. ख. ग. बालिका / 6. क. ख. चूणिका। 7. क. ख. .. दप्त। 8. भो. bDug Pa hDZin Pa (धुपग्राहम)। 9. ग. नालिकेरं / 10. भो. Du Ba (धमः) / 11. भो. hBras Bu (०फलम्)। 12-13. क. ख. यवानो। 14. क. ख. पूर्वमानं / 15. क. ख. भवन्तु / 16. क. ख. पूर्वमानो। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 विमलप्रभायां... [अध्यात्मइति वेधादिकं पूर्ववदिति हंसपाकनियमः, हंसपाके चेति वचनात् / दोलापाकाद्युच्यते इह गन्धशास्त्रोक्तानां नवविधद्रव्याणां मध्ये अधमदलानाम् अष्टविधं कर्म शुद्धयेक्षालनम्, स्वेदनम्, उद्वर्तनम्,' भजनम्, भावनम्, धूपनम्, वासनम्, बन्धनं चेति / 5 तत्र क्षालनं काञ्ज(जि)केन, स्वेदनं दोलापाकेन, उद्वर्तन' गन्धोदकेन, मर्दितानां भजन गुडतोयादिना, भावनं शिशुछागमूत्रादिभिः, धूपनं कषायोऽग्नैः(ग्रैः), वासनं केतक्यादिपुष्पैः, वेधनं नाभ्यादिद्रव्यैरिति / अधमदलानां मुस्तकादीनां पुष्पगणे क्षालनं श्वे(स्वे)दनादिकं कुर्यात्, भजनं वर्जयित्वा / एवं त्वग्गणे मध्यमदलानां मूलगणे काष्ठगणे पत्रगणे जीवगणे नखस्य भज(ज)नं पुत्रकेशस्य पुटपाकः / शेषं पुष्पगणवत् / 10 फलगणे निर्जा(या)सगणे द्रवद्रव्यगणे न किञ्चित् कर्म कार्यमिति / एषामुक्तद्रव्याणां चूर्णं कृत्वा भाण्डमुखे वस्त्रोपरि चूर्णं देयम्, भाण्डं गन्धोदकेनार्द्धपूर्णं चूर्णि(ल्लि)कोपरि दत्वा बाष्पश्वे(स्वे)देन श्वे(स्वे)दयेत् यावच्चूर्ण स्तिमितं भवतिः तत उद्धृत्योद्वमनादिक (द्वर्तनादिक) कारयेत् / एवं पुत्रकेशस्यापि दोलाश्वे(स्वे)दः; नखस्य श्वे(स्वे)दस्थाने गोमयेन मृदा काथनं भर्ज(ज)नम्, कषायोदके निषेचनम् शेषं पूर्ववदिति पञ्चविधपाक15 नियमः / शेषं गन्धशास्त्रे ज्ञातव्यं गन्धाथिनेति / इदानीं गन्धादीनां गुह्यमुच्यते गुह्यमित्यादिनागुह्यं गन्धेषु पूर्ति रसनखचपलं धपयोगेषु गुह्यं तद्वत् सी(शी)तं तुरुष्कं गुरुमपि शशिनं वासकार्येषु पुष्पम् / वेधे कर्पूरनाभि त्रिफलमदसुरा स्नानयोगे च सम्यक् .. गुह्यं त्वग्ग्रन्थिपणं वनचरसहितं ग्रन्थिमुद्वर्तनं च // 142 // इह गन्धादीनां शीतधूपपाककाले गुह्यं गन्धेषु पूर्ति दद्यात् / रसनखचपलमिति गुह्यम् / इह धूपपाके अम्लो[146b]भूतानां गन्धानां धूपं दद्यात्, धूपयोगं कृत्वा / धूपयोग इति धूपपाकविषये गन्धरसं नखं सिलकं गुडेन मोद(शोध)यित्वा' दिनैकं दिनद्वयं वा यावदम्लत्वं त्यजति, ततः पिण्डादिकं दद्यादिति नियमः। अथ खरपाकेन गन्धे दग्धे सति निशायां शशाङ्ककिरणैः स्पृशेद् गन्धम्; तदभावे जलतोरे स्थापयेद् यावद् दग्धदोषोपस(श)मो भवति / गन्धानां विनाशे कारणमुच्यते इह शुद्धाशुद्धद्रव्याणामेकत्वं विनाशे कारणम्, तथा तैलं शा(सा)द्रस्थानम्, पलालम्, क्षारद्रव्यम्, विण्मूत्रम्, मूषकसंस्पर्शः, वातम्, अत्युष्ण स्थानमिति / 1. क. ख. उद्वमनं / 2. क. ख. उद्वमनं। 3. ख. भञ्जनं / 4. क, ख. उदमनादिकं / 5, क. ख. मोदयित्वा / 6. क. ख. अभ्युण / Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ T329 पटले] रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 247 तवच्छोतमिति चन्दनम्, तुरुष्कम्, गुरुशशिनम्, गुह्यम्, पुत्रकेशावसाने शीतादिधूपो देयमिति पाकान्ते नियमः / वासकार्येषु पुष्पं गुह्यं यावद् धूपदोषोपस(श)मो भवति / वेध इति वेधविषये कर्पूरम्, कस्तूरिका, त्रिफलम्, मदसुरेति कस्तूरिकासवो गुह्यं यावत् पुष्पवासदोषोपस(श)मो भवतीति गन्धयोगे नियमः / स्नानयोगे च सम्यगिति स्नानविषयेऽवश्यं गुह्यमिति देयं स्नानद्रव्यगण'मध्ये त्वगग्रन्थिपर्णम् / वनचरसहितमिति पुत्रकेश- 5 सहितम्, भागत्रयं पञ्चदशभागमध्ये दातव्यमिति नियमः / उद्वर्तनयोगे ग्रन्थिपणं देयम्; स्नाने यथाविभागमिति गन्धकक्षपुटविधिरुक्तः / इदानीं नाभिर्भर्ता गन्ध उच्यते शुद्धाब्ज[मि]त्यादिनाशुद्धाब्जं द्रव्यहीनं मधुकविरहितं गन्धतोयेन पिष्टं पक्वं धूपैः कषायोग्रसमधुकरजैसवृद्ध्या क्रमेण / द्वौ ग्रासौ खण्डमिश्री मलयचपलयोर्लोहकर्पूरयोश्च ग्रासस्याद्यावसाने मधुकमपि सितां निर्दहेदादिधूपात् // 143 // इह यदा एकद्रव्येण गन्धराज कर्तुमिच्छति, तदा शुद्धाजमिति नखम्, तदेव सामान्येन चतुर्विधम्-गजकर्णम्, अश्वखुरम्, उत्पलपत्रम्, वरद (बदर) पत्रं चेति / तेषु गन्धयोगजे गजकर्णाऽ श्वखुरं देयम्, धूपयोगे व(ब)दरोत्पलपत्रं देयम् / अत्र वरुर- 15 (बदर) पत्रं श्रेष्ठम्, तस्याभावे उ[147a]त्पलपत्रादिकं ग्राह्यम्, शुद्धं गन्धशास्त्रोक्तविधिना कथितं भजि(ज्जि)तम्, गुडकषायोदकेन षि(सिक्तं चूर्णितम्, त्रिफलादिभिः प्रलेपितं वासितमिति शुद्धम् / तदेवान्यद्रव्यर्होनं मधुकमित्यासवम्, तेन विरहितम् / गन्धतोयेन पिष्टमिति इह गन्धोदकार्थं स्वच्छतोयं गृहीत्वा एला-त्वग-मांसी वालक चन्दनं पोटलिकायां बद्ध्वा कर्षमेक'मष्टाढकतोये क्षिपेत् / ततः पादावशेष काथयेत् 20 यावद् गन्धोदकं भवति / तेनापरमपि गन्धं पोषयेदिति नियमः। पक्कं धूपैरिति तदेव शुद्धनखं पिष्टं धूपपाकविधिना पक्कं धूपैः / कषायोग्रसमधुकरजैसवृद्धचा क्रमेणेति मधुस(श)करया सहैकग्रासं कषायस्य प्रथमदिने प्रासस्याद्यावसाने मधुकमपि सितां निर्वहेवादिधूपादिति नियमात् / प्रथमं मधुकस(श)कराग्रासो देयो मध्ये कषायधूपस्य पुन' °ासावसाने मधुस(श)करां निर्दहेत्, द्वितीये दिने पुष्पवासं कारयेत्, एवमेकान्त- 25 रितम् उग्रधूपस्य ग्रासद्वयं दिनद्वयेन निर्दहेत्, नखस्य ग्रासत्रयं त्रिभिदिनैः / ततो द्वौ ग्रासौ खण्डमिश्राविति मलयस्य द्वौ ग्रासौ दिनद्वये / चपलस्यैकम् / लोहकर्पूरयोरपि ग्रासस्याद्यावसाने मधुस(श)करापूर्ववदिति / एवमेकान्तरेण चतुर्विंशतिदिनै पैः पक्कं भवति / 1. ग. गुण / 2. क. ख. नाभिभर्ता / 3. क. ख. वरद / 4. भो. Ba Da Ra (बदर) / 5. ग. पुस्तके 'वरदपत्रं' इति नास्ति / 6. क. कर्णो / 7. भो. Ba Da Ra (बदर)। 8. भो. Pa La Kar 9. भो. So gNis (कर्षद्वयम्); क. ख. पुस्तकयोः 'कर्षमेकं कर्षद्वयं' वा नास्ति / 10. ग. पुस्तके 'पुनः' इति नास्ति / Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 विमलनभायां [अध्यास वासं कृत्वा सुपुष्पैः कतिपयदिवसैर्गन्धतोयेन मिश्रं अश्रा(स्रा)वे मृत्कपाले दृढपिहितमुखे वेष्टिते सिक्थवस्त्रैः / कृत्वा विस्तीर्णभाण्डे त्वथ धरणितले पूरिते वालुकाभिः / पक्वं षण्मासयोगाद्भवति जलगतो नाभिभर्ता सगन्धः // 144 // ततो वासं कृत्वा दशदिनं सुपुष्पैः यावद्धृपदोषोपस(श)मो भवति / गन्धतोयेन मिमिति पूर्वविधिना प्रत्यहं गन्धतोयं काथयेत. शीतोदकं न दद्यात। शीतोदकेनाम्लो भवति, तेन गन्धतोयेन मिश्रं मन्धं कृत्वा अधा(ना)वे मृत्कमाले बाह्यसिल्क(स)वस्त्रेण वेष्टिते दृढपिहितमुखे तदेवापरे विस्तीर्णे भाण्डे जा[147b]तिकायामथ' धरणितले, अस्याभावे तस्मिन् भाण्डे प्रक्षिप्य उपरि वालि(लु)कां दद्याद् यावद्भाण्डं कण्ठपर्यन्तं पूरितं भवति / तत्र वालि(लु)काभिः पूरिते भाण्डे सामान्यमुदकं सूर्यतप्तं देयम्, तदेव भाडं सूर्यतापे स्थापयेत् षण्मासं यावत् / एवं पकं षण्मासोपयोगासवति जलगतो नाभिभर्ना गन्ध इति गन्धराजनियमः। इदानीं पुष्पतैलार्थ गन्धतैलाय च तिलशुद्धिरुज्य(च्य)ते कृस्वेत्यादि कृत्वा शुद्धिं तिलानां क्वथितदलजलैधुपलेपादिभिश्च 15 पश्चाज्जात्यादिपुष्पैः कतिपयदिवसं वासयेद् यावदिष्टम् / यन्त्रे तैलं गृहीत्वा नृप निपुणतया स्थापयेत् काचभाण्डे स्नाने वाऽभ्यङ्गने वा भवति मदकरं पुष्पतैलं ह्यपक्वम् // 145 // इह तिलान् परिपक्कान् नवान् संगृह्य कथितवलजलैरिति दलान्याम्रपवाणि, एवं जम्बू-कपित्थ-मातुलुङ्ग-विल्वानां पञ्चवृक्षाणां पत्राणि, तैः कथितं जलं तैर्दलजलैर्मवंगित्वा 20 तिलानां तुषा पनयनं प्रथमशुद्धिः। ततो जालायन्त्रोपरि वस्त्रं दत्वा, तदुपरि तिलान परभाण्डे पिहित्वा धूपयेत्, द्वितीया शुद्धिः / लेपाविभिरिति त्रिफलैर्लेपो देयो गन्धतोयेन पिष्टैः, आदितः सूर्यरश्मिभिः शोषयेत् / एवं तिलावां शुद्धि कृल्या पञ्चा(श्का)ज्जाव्यादिपुष्पैः कतिपयविवसं पक्षं वा दशदिनं वा निरन्तरं वासयेद् यावन्मदितानां कासितः पुष्पगन्धमद्वहति, तत इष्टं वासनं भवति। ततः कोलाल्लोकयन्त्रण तैलंगहीत्वा. नम 25 इत्यामन्त्रणम्, निपुणतया काचभाण्डे स्थापयेत् / तत् तैलं स्नाने वाऽभ्यङ्गने वा भवति मदकरं पुष्पतैलं हपक्वमिति / अथ पकतैलं कर्तुकामः, तदा तवेब तैलं समतोयेन सुगन्धेन काथयेद् यावत् तैलं फेनं मुञ्चति / ततोऽवतारणकाले अष्ट्रांशेन गन्धद्रव्यं गन्धोदकेन पिष्टवा देयम्, पश्चादवतारयेद् यावत् शीतलं भवति / ततः कस्तूरिकाद्यैर्वेध दत्वा काचभाण्डे स्थापयेत् / तदे[148a]व मदासवेन पादांशेन मिश्रितं लाक्षाभाण्डे 1. क. कामामध, ग. जाडिकायामथ / 2, क. तुला / 3. ग. यावतादितानां; भो. bsGos ParNams (वासितानां)। Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले ] . रसायनादिबालवन्धमहोद्देशः 241 सूयंतापैः सप्ताहं तप्तं कस्तूरिकातैलं भवति / वेणुकनलिकायां पक्वं सूर्यपाकं भवति; एवं विलेपनाद्यं वेणुकनलिकायां पक्वं दिव्यविलेपनं भवति नाभ्यादिभिर्विद्धम् / एवं नानाविधं गन्धशास्त्रोक्तं गन्धादियोगं कारयेत् / अत्र संक्षेपत उक्तं भगवतेति गन्धयुक्तिनियमः। इदानीं गुर्विणीनां प्रसवनार्थं सर्वतश्चतुस्त्रिशतिकं यन्त्रमुच्यते भूभूवित्यादिना-5 भूभृत्सूर्येन्दुमन्वक्षिमदनवसवो रुद्रराजाग्नयश्च दिग्भूता रन्ध्रषटकं तिथिजलनिधयः स्थापनीयाश्च कोठे / संख्याकोष्ठेश्चतुभिर्जलनिधिशिखिनो लेखयित्वा समस्तं श्रीचक्रं.मानपृष्ठे प्रसवनसमये दर्शयेद् गुर्विणीनाम् / / 146 // इह यदा गुर्विणीनां प्रसवनकाले गर्भस्तम्भनं भवति बाह्यदूतीदोषेण, तदा इदं 10 यन्त्र मानपृष्ठे लिखेत्; मानमित्याढकम् ;तस्य पृष्ठे षोडशकोष्ठकान् कृत्वा प्रथमकोष्ठे भूभृत सप्त, द्वितीये सूर्य द्वादश, तृतीये इन्दुरित्येकम्, चतुर्थे मनुश्चतुर्दश, पञ्चमेऽक्षि द्वौ, षष्ठे मदनेति त्रयोदश, सप्तमे वसवोऽष्टौ, अष्टमे रुद्र एकादश, नवमे राजानः षोडश, दशमेऽग्नय इति त्रयः, एकादशे विगिति दश, द्वादशे भूता इति पञ्च, त्रयोदशे रन्ध्रा इति नव, चतुर्दशे षट्कमिति षट्, पञ्चदशे तिथिरिति पञ्चदश, षोडशे जलनिधय 15 इति चत्वारः; स्थापनीयाश्च कोष्ठे'षोडशे / एषामङ्कानां चतुःकोष्ठे स्थितानां संख्या एकपिण्डितं जलनिधिशिखिन इति चतुस्त्रिंशत् सर्वत्र | एतद् यन्त्रं लिखित्वा समस्तं श्रीचक्र मानपृष्ठे प्रसबनसमये दर्शयेव गुविमोनामिति गर्भमोचननियमः / [148b] इदानीं गर्भादिबालतन्त्रमुच्यते योगिन्य इत्यादियोगिन्योऽष्टाष्टका याः प्रकटमहितले मातरो याः प्रसिद्धा 20 गर्भाख्या वासराख्या त्रिगुणनवदशैकादशान्यास्त्रिपञ्च / मासाख्या वत्सराख्या सकलभुवितले ताः प्रगृह्णन्ति बालं गर्भे शूलं च पीडां प्रसवनसमयेश्येव कुर्वन्ति योनौ // 147 // इह महीतले याः प्रकटाः चतुःषष्टियोगिन्यः, तास्ता (अ)ष्टाष्टका मातरः प्रसिद्धाः, तासां मध्ये गर्भाख्यास्त्रिगुणनव इति सप्तविंशतिः, वासराख्या दश, एकादश मासाख्याः, 25 अन्यास्त्रियं(प)ञ्चेति पञ्चदश वत्स रास्यास्तास्त्रयःषष्टिः बालं गृह्णन्ति सकलभुवितले गर्भे शूलं च पीडां प्रसवतसमयेऽप्येव कुर्वन्ति योचाविति / इह गर्भाख्यानां मध्ये पञ्चदशाधानदिनमारभ्य पञ्चदशदिनानि यावद् गर्भशूलं प्रकुर्वन्ति, ततो नवमासं यावन्नव, प्रसवनकाले एका, स्तनक्षारोहारिण्यौ द्वे इति गर्भाख्यानां नियमः। T 330 १.क.ब. माधु। 2. क. स. बाप। Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 विमलप्रभायां [अध्यात्म- . जातानां बालतन्त्रं भवति दिनवशान्मासवर्षप्रभेदात् पञ्च क्रूराः कुमाराः प्रकृतिगुणवशात् संस्थिताः पर्वसन्धौ / बाला(बाल) गृह्णन्ति ते वै स्वतिथिभयगतं नैव मुञ्चन्ति राजन् तेषां शान्त्यर्यमस्मिन् प्रभवति विविधं मण्डले होमकाद्यम् // 148 // जातानां बालानां बालतन्त्रं भवति दिनवशान्मासवर्षप्रभेदादिति / इह बालतन्त्रमिति बालचिकित्सा मातृपीडितानाम्। तत्र वासराख्यानां बलि वक्ष्यमाणं दद्यात् / जातानां जन्मदिनमारभ्य दश दिनं यावत् स्वस्वदिने बालानां पीडां कुर्वतीनां प्रत्येकमासवसा(शा)देकादशता, एकादशमासान् [149a] यावत् / ततः पञ्च दशानां पञ्चदशवर्षान् यावत्, तदुपरि बालकुमारत्वाभावः, षोडशमे(शे) वर्षे शुक्रच्यवना10 दिति नियमः। इदानीं पञ्च क्रूरा उच्यन्ते क्रूरेत्यादि इह भुवितले नन्दादितिथिभेदेन पञ्चतिथीनां सन्धिषु कौमारा आकाशादि- .:. प्रकृतिगुणवशात् संस्थिताः पर्वसन्धौ / ते स्वतिथौ भयगतं बालं गृह्णन्ति, सर्व सामान्य बलिना नैव मुञ्चन्ति बालम् / राजन् इत्यामन्त्रणम् / तेषां शान्त्यर्थमस्मिन् प्रभवति 15 विविध मण्डले होमकाद्य वक्ष्यमाणमिति क्रूरनियमः / इदानी गर्भाख्याभिः पीडितानां गुर्विणीनां भैषज्यमुच्यते कुष्ठेत्यादिकुष्ठोशीरं कसेरु तगरकुवलयं केशरं पङ्कजस्य पिष्ट्वा शीताम्बुना मन्त्रितमपि कुलिशैर्गर्भशूलेषु देयम् / गर्भस्तम्भेऽष्टलोमानि ल(न)कुलशिखिनः पोषयित्वा प्रदेयं / दुग्धाज्यं पायसान्नं दधिगुडसहितं दीयते वासरीणाम् // 149 / / इह यदा गुर्विणीनां गर्भशूलं भवति, तदा भैषज्यम्-कुष्ठम्, उशोरम्, कसेरुम्, तगरमूलम्, उत्पलकन्दम्, पद्मकेशरम्; एतानि द्रव्याणि शीताम्बुना पर्युषितेन पिष्ट्वा अभिमन्त्रितमपि कुलिशैरिति 'ॐ आःहूँ अमुकाया गर्भशूलं हर हर स्वाहा' इति मन्त्रः, अनेनाभिमन्त्र्य गर्भशूलेषु देयमिति नियमः / एवं गर्भस्तम्भे अष्टरोमाणि 25 नकुलस्य, शिखिनो मयूरस्य पिच्छं गृहीत्वा, शीताम्बुना पिष्ट्वा, पूर्ववद्देयान्यभिमन्त्र्य / क्षीरापहारिण्याः क्षीरवृक्षतले स्नापयेत् / सप्तमल्लिकैर्गोक्षीरपूर्णैः क्षीरभक्तेन बलिं दद्यादिति गर्भाख्यानां नियमः। 1. भो. Drug Cu (पष्टि)। 2. भो. Khrus Dan sByin Sreg Gi Bya Ba (स्नानहोमकार्यम् / Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले रसायनदिबालतन्त्रमहोद्देशः 251 इदानीं वासरीणां विधिरुच्यते दुग्धेत्यादिना इह दशदिनाभ्यन्तरे गृहीतस्य बालकस्य शान्त्यर्थं दुग्धम्, आज्यम्, पायसान्नं वधिगुडसहितं पोलिका'मोदकांश्च गन्धं पुष्पं प्रदीपं बली दीयते वासरीणाम्, स्नानं धूपं वक्ष्यमाणमिति वासरीणां त्रिरात्रबलिनियमः / [149b] इदानीं मासाख्यानां विधिरुच्यते पक्षे(पक्वे)त्यादिनापक्वान्नं पञ्चभिन्नं दधिगुडसहितं पोलिकामोदकांश्च गन्धं पुष्पं प्रदीपं स्नपनमपि दलैः पञ्चरात्रं प्रकुर्यात् / गोदन्तं मेषशृङ्गं मृगनखचिकुरं सर्पनिर्मोकधूपं बालानां मासजानां कथितमपि बलिं पुष्टिहेतोः समस्तम् // 150 // इह दशदिनादूर्ध्व मासः, तत एकादशमासान् यावत् मासजातकानां शान्त्यर्थं 10 बलि मातृणां दद्यात्, पक्वान्नं पञ्चभिन्नमिति घृतेन पक्वं पूरिका घृतपूरम्; सौमाली सेवालवटकानिति पञ्चभिन्नम् अपरमोदनं दधिगुडसहितं पोलिकामोदकांश्च / गन्धमिति चन्दनम्, सुगन्धपुष्पं तिलनैलेन' प्रदीपं घृतेन वा। स्नपनमपि दलैरिति पञ्चक्षीरवृक्षाणामश्वत्थादीनां पत्रैः किञ्चित् क्वथितोदकेन सोष्णेन बालं स्नापयेत. पञ्चरात्रं यावत् समस्तं कुर्यात् / स्नानावसाने बालस्य धूपं दद्यात्, गोवन्तम्, मेषशृङ्गम्, मानुष्यनखम्, मृगरोमम्, चिकुरम्, सर्पनिर्मोचम्(चकम्) / एतदेकीकृत्वा(त्य) तीव्राङ्गारेण धूपम्, देवताबलौ पूर्वोक्तगन्धधूपादिकं देयं चतुर्दिक्षु ग्राममध्ये चेति नियमो बालानां मासजातानां कथितमपि पुष्टिहेतोः समस्तम्। / इदानीं संवत्सरीणां बलिरुच्यते पञ्चानमित्यादिनापञ्चान्नं पञ्चखाद्यं जलचरपिशितं गन्धपुष्पं प्रदीपं मद्यं पूर्वोक्तधूपं स्नपनमपि तथा दिग्बलिं दिग्विभागे। बालानां वर्षजानां प्रकटितमवनौ पुष्टिहेतोर्नरेन्द्र गर्भाद् वर्षत्रिपञ्च प्रभवति नियतं योगिनीनां प्रपूजा // 151 // इह दशमासादूर्ध्व मासद्वयं वर्षमिह गृह्यते; तस्मात् पञ्चदशवर्षाणि यावत वर्षजातकानां मा[150a]तृपोडितानां शान्त्यर्थं संवत्सरीणां बलिं दद्यात् / पञ्चान्न- 25 मिति भक्तं सितं पोतं रक्तं कृष्णं हरितं कृत्वा हरिद्रादिभिः, एतत् पञ्चान्नम् / पञ्चखाद्यमिति पक्वान्नं पूर्वोक्तं जलचरम्, मत्स्यम्, मांसम्, पिशितमिति; गन्धाद्यं . .. 1-2. ख. ग. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 3. ग. पुस्तके 'सेवालि' इति नास्ति / 4. ख. तिलेन / 5. क. ख. पञ्चान्नं। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 विमलप्रमायों [अध्यात्म पूर्वोक्तम् / मद्यं पूर्वोक्तं धूपादिकम्; सर्व वंशचङ्गेडिकायां दत्वा त्रिवारान् निर्मञ्च- . (छ)येत् सदीपबलिना। विगिति दशदिनम् / देशविग्विभागे इन्द्रादि-ईशानपर्यन्तम् अध ऊध्र्व बलिः ग्राममध्ये चतुःपथे दातव्येति / बालानां वर्षजातानां प्रकटितमवनों पुष्टिहेतोः, नरेन्द्र इत्यामन्त्रणम् / इति संवत्सरीणां पूजानियमः / 5 एवं गर्भाव वर्षत्रिपञ्चेति पञ्चदशवर्षपर्यन्तं त्रयः(त्रिषष्टियोगिनीनां नियतं पूजा कर्तव्या, अन्यथा बालानां शान्त्यादिकं न भवतीति योगिनीनां पूजानियमः / इदानी मातृगृहीतानां दोषलक्षणमुच्यते अङ्गेत्यादिअङ्गात् क्षयोऽक्षिशूलं मुखकरचरणं पीततां याति सम्यक् प्रश्रा(स्रा)वः पीतवर्णो ज्वर इति च भवेच्छर्दिशोषं च मर्छा / ज्ञात्वा चिह्नानि तेषामपि नृप करणं मण्डले होमकार्य नोऽदत्ते मुञ्चयन्ति प्रकृतिगुणवशान्मातरो भूतजाश्च // 152 // 10 इह यदा मातृभिगृहीतो बालको भवति, तदा तस्याङ्गात् क्षयो भवति, अनिशूलं भवति, मुखकरौ चरणौ च मुखकरचरणं पोततां याति, सम्यक् प्रवा(ला)वः पीतवर्षों भवति, ज्वरो भवति, छर्दिर्भवतीति, शोषं च मूर्छा भवति; एतानि मातृदोषचिह्नानि 15 ज्ञात्वा तेषां बालकानाम्, अपिशब्दात् क्रूरग्रहगृहीतानां मण्डले होमादिकं कार्यम्; अन्यथा नोऽदत्ते बलो मुञ्चयन्ति प्रकृतिगुणवशात् भूतजा मातरः पूर्वोक्ता इति चिकित्सालक्षणम् / इदानी चतुःषष्टिमया कुलिकया गृहीतस्य मृत्युलक्षणमुच्यते श्वेतेत्यादिनाश्वेताङ्गं यस्य सर्वं भवति नरपते स्फोटकाश्चातिसूक्ष्मा वक्रग्रीवा सगात्रा स्रवति सरुधिरं वक्त्रगुह्ये गुदे च / त[150b]स्मिन् पूजां न कुर्याद्भवति हि लघुता मन्त्रिणां मोहितानां मृत्युस्तस्यास्ति नूनं सुरनरभुजगै रक्षितुं शक्यते न // 153 // इह चतुःषष्टिमा कुलिका सर्वासां योगिनीनां प्रत्येकसन्धी व्यापकरूपेणास्थिता गर्भदिनमासवर्षाणां सन्धी। तया गृहीतस्य बालकस्य श्वेताङ्ग सर्वं भवति; स्फोट२७ काश्चातिसूक्ष्माः सर्षपराजिकामात्रा भवन्ति; वक्रा ग्रोवा भवति; सगात्रा श्र(स्र)वति रुधिरम् / वक्त्रे वा, गुह्ये वा, गुदे वा। ईदृशं लक्षणं दृष्ट्वा तस्मिन् विषये पूजां न कुर्यात् / यदि करोति तदा मोहितानां मन्त्रिणां लोभाद् लघुता भवति / कुतः ? यतो नूनं तस्यास्ति मृत्युः सुरनरभुजगै रक्षितुं शक्यते न इति मृत्युचिह्ननियमः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] T331 10 रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 253 इदानीं मण्डले पूजिताः सुखकरा उच्यन्ते नागेत्यादिनागा यक्षा ग्रहा येऽपि च दनुकुलजा राक्षसा वै पिशाचाः शाकिन्यो दुष्टनागा नररुधिररता डाकिनीरूपिकाश्च / कुम्भा(कूष्मा)ण्डाः क्षेत्रपालास्त्वपि गणपतयः क्षेत्रवेतालसिद्धाः सापस्माराः खगेन्द्राः परमसुखकराः पूजिता मण्डले स्युः // 154 // इह नागादिभिः पीडितानां नागादयःपूजिता वक्ष्यमाणमण्डले सुखकरा भवन्ति / एषां लक्षणान्यनेकानि भूततन्त्रोक्तानि मुद्राबन्धेन ज्ञातव्यानि, अत्रैव वक्ष्यमाणे कियन्तीति / इदानीं क्रूरपूजार्थ मण्डलं मण्डलस्थानमुच्यते क्रूराणामित्यादिकराणां पूजनाथं भवति नरपते मण्डलं ग्रामबाह्ये वृक्षस्थाने श्मशाने सुरवरभुवने सङ्गमे वा नदीनाम् / हस्तं वा द्वौ चतुष्कं त्रिदशनवनृपैर्देवतानां प्रमाणेमध्ये त्वष्टारचक्रं भवति गुणवशान्मण्डलादर्द्धभागम् // 155 // [151a] इह क्रूराणां पूजनार्थ मण्डलं प्रामबाह्ये भवति / तत्रैवैकवृक्षस्थाने, श्मशाने, सुरवरभुवन इति शून्यदेवालये, सङ्गमे वा नदीनाम्, हस्तं वा द्वौ चतुष्कमिति / इह विभवानुरूपत एकहस्तं मण्डलम्, द्विहस्तम्, चतुर्हस्तं वेत्यारभ्य यावद् हस्तसहस्रं वा तावद् वर्तयेदाचार्यः / त्रिदशनवनपैरिति इह नवदेवतानां प्रमाणम् एकहस्तं मण्डलम्, त्रयोदशानां द्विहस्तम्; नृप इति षोडशानां चतुर्हस्तम्, इत्यारभ्य यावद् विंशत्यधिकषोडशशतानां हस्तसहस्रपर्यन्तं वर्तयेत विभवतः। इह सर्वमण्डलानां मध्ये अष्टार चक्र वा पद्मं भवति मण्डलावर्द्धभागिकम् / द्वारं चक्राष्टभागं भवति खलु तदर्द्धन वेदी च हाराः प्राकारा वेदिकार्डास्त्रिगुणमपि भवेत् तोरणं द्वारमानात् / वृत्तं कुण्डं त्रिभागं सितकमलमयं पूरितं श्वेतरङ्गैः कुर्यात् श्रीपञ्चरङ्गैः स्वकुलदिशि गतं देवतानां स्वचिह्नम् // 156 // द्वारं मण्डलचक्राष्टभागम्, द्वारार्द्ध वेदिका हारभूमिश्च, पञ्चप्राकाररेखा 25 वेदिकार्द्धन रत्नपट्टिकापि, द्वारमानेन नियूह पक्षकं कपोलं चेति, तोरणं त्रिगुणं द्वारात् इति मण्डललक्षणनियमः। इदानीं शान्तिककुण्डमुच्यते वृत्तमित्यादि इह वक्ष्यमाणकुण्डानां मध्ये वृत्तं कुण्डग्राह्यं शान्त्ये, तदेव त्रिभागमिति वितस्तिद्वयं विष्कम्भम्, वितस्त्येकं गम्भीरम्; शि(सि)तकमलमयमिति गर्भमध्ये 30 20 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 विमलप्रभायां [आयात्मश्वेतरजसा पद्मम्, वेदिकोपरि' पद्मावली,२ बाह्येऽधः पद्मपत्राणि। एवं पूरितं श्वेतरङ्गः। ततः श्वेतपद्मकर्णिकादलेषु पञ्चरङ्गैर्देवतानां चिह्न कारयेत्, स्वदिशि गतं कुलवशात् पञ्चतथागतवशादिति / वज्रं मध्येऽसि पूर्वे भवति कुलवशाद् दक्षिणे रक्तरत्न वामे श्वेतं च पद्मं शतदलसहितं पश्चिमे चक्रचिह्नम् / आग्ने[151b]य्यां कतिका * कमलदलगता दैत्यकोणेऽङ्कशः स्याद् वायव्ये वज्रपाशो भवति नरपते रुद्रपत्रे त्रिशूलम् // 157 // वज्रं मध्य इति इह वक्ष्यमाणे "वज्र वा सर्वकर्मणि(सु)"(३.१२) इति वचनात् पद्मकर्णिकायां वजं नीलम्, विज्ञानस्कन्धः ; असिः पूर्वपत्रे कृष्णः संस्कारः; भवति 10 कुलवशात्, दक्षिणे रक्तरत्नं वेदना; वामे उत्तरपत्रे श्वेतपद्मं शतदलं संज्ञा; पश्चिमे चक्रचिह्न पीतं रूपस्कन्ध इति / आग्नेय्यपत्रे कतिका कृष्णा वायुरिति कमलदलगता, दैत्यकोणे नैऋत्येऽङ्कुशो रक्तस्तेज इति, वायव्ये वज्रपाशः, पीतः पृथ्वीति / रुद्रपत्रे ईशाने त्रिशूलं शुक्लं तोयधातुरिति, मध्ये वज्रमाकाशधातुर्विज्ञानेन सार्द्धमिति / पूर्वद्वारे च खड्गं कृष्णघननिभं दक्षिणे वज्रदण्डो वारुण्ये श्रीगदा च प्रभवति नियतं चोत्तरे मुद्गरश्च / ज्ञात्वा चित्तानुसारं कुरु सुबहुविधं कालचक्र हि यावत् वन्ध्यानां पुत्रहेतोय़हनिहतनृणां शान्तिपुष्टयर्थमेतत् / / 158 / / पूर्वद्वारे च खड्गम्, कृष्णमोविजं क्रोधः; दक्षिणद्वारे वज्रदण्डो रक्तो रागवज्रः क्रोधः; वारुण्ये पश्चिमद्वारे [श्रो]गदा पोता मोहवज्रः क्रोधः; उत्तरद्वारे 20 मुद्गरः शुक्लो मानवज्रः क्रोधः; मध्ये वज्र द्वेषवज्रो नीलक्रोधराज इति / ज्ञात्वा इत्यादि पुष्टयर्थमेतदिति पर्यन्तं सुबोधम् / इदानीं ग्रहपीडितानां स्नानविधिरुच्यते कुम्भ इत्यादिनाकुम्भाष्टाभिः सरत्नैर्दलकमलमुखैः सप्तमल्लैरपक्वै स्तोयैः पञ्चामृताद्यैः स्नपनमपि च निर्मुञ्च(मञ्छ)नं सर्षपाद्यैः / 25 गन्धधुपैः प्रदीपैविविधफलरसैः श्वेतपुष्पैश्च वस्त्रैः कृत्वा पूजां विचित्रां पुनरपि च ततो होमयेच्छान्तिहव्यम् // 159 // [152a] 1-2. ग. वेदिकापद्मावलि / Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः 255 ___ इह मण्डलदिक्षु अष्टकलशा वक्ष्यमाणलक्षणोपेताः सरत्नाः पञ्चरत्नसहिताः, वक्ष्यमाणौषध्यादियुक्ताः / दल इति क्षीरवृक्षपल्लवाः कमलमुखाः, तैरिति; तथा सप्तमल्लैरिति सप्तसरावैरपक्वैः, तोयैः पञ्चामृताद्यैः, तैः सहितैः, तोय-दुग्ध-दधि-घृत-मधुइक्षुरसगन्धोदकैः; एभिः पूर्णैः सप्तमल्लैर्यथाक्रमेण स्नपनं कुर्यात् / ततोऽष्ट()भिः कुम्भैजयविजयघटाभ्याम् अपिशब्दादिति / निर्मञ्च(ञ्छ)नं सर्षपाद्येरिति प्रथम पञ्चगोमयपिण्डकाभिः, ततो ज्वलत्तृणचूलि(ल्लि)काभिः सर्षपाद्यैः भक्त'पिण्डकादिभिरिति कर्यादेभिनिर्मञ्च(ञ्छ)नम् / ततो गन्धाः पूनां कृत्वा, मण्डलप्रतिष्ठां कृत्वा, प्रवेशयेद् मण्डले / तत्राभिषेकं दत्वा मण्डलकलशोदकेनाभिषेकं तोयादिकं कृत्वा, ततो होमयेत् शान्तिहव्यमिति / / दुग्धं धान्यं तिलाद्यं(ज्यं) शरशतसमिधः पञ्चदुग्धाज्रिपानाम् अर्घ चावाहनं चाचमनमपि तथैवार्चनं पूजनं च / कुर्याच्छान्त्यर्थमेतत् प्रवरभुवितले मातृभिः पीडितानां षट्त्रिंशद्योगिनीनां भवति नरपते सर्वकालं हि पूजा // 16 // दुग्धमित्यादि सुबोधम् / अपरं यदनुक्तं तत् सर्वमभिषेकपटलोक्तविधिना कार्यमाचार्येणेति सर्वत्र नियमः। इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां* लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहसिकायां विमलप्रभायां रसायनादिबालतन्त्रमहोद्देशः षष्ठः // 6 // 10 ___15 (7) स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः नैरात्म्यं कर्मपाकस्त्रिभवऋतुगतिर्द्वादशाङ्गप्रतीतेः सम्भूतिर्वेदसत्यं द्विगुणितनवकाऽवेणिका बुद्धधर्माः / पञ्च[152b]स्कन्धास्त्रिकायाः सहज इति तथैवाजडा शून्यता च यस्मिन्नेतद् वदन्ति प्रकटितनियता देशना वज्रिणः सा // 161 // प्रणिपत्य जगन्नाथं कालचक्रं महासुखम् / स्वपरे दर्शने किञ्चिद् मतमुक्तं वितन्यते // 2. क. ख. मूल। 3-4. क. ख. विमलप्रभायां द्वादशसाह 1. क. भण्ड। निकायां। Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 विमलप्रभायां [अध्यात्म___इदानीं परमादिबुद्धात् मञ्जुश्रियोदितं स्वपरदर्शनानुमतं टीकया वितन्यते नैरात्म्येत्यादि / इह लोकसंवृत्या विचार्यमाणः सर्वदर्शनसिद्धान्तः समानो लौकिकसिद्धये; तद्यथा येन येन हि भावेन मनः संयुज्यते नृणाम् / तेन तन्मयतां याति विश्वरूपो मणिर्यथा // इति भावसंकल्पः समानः; तथा धात्विन्द्रियादिविचारोऽपि तुल्यः। व्यावहारिक कर्तृकरणादिकं च तुल्यम् / बौद्धतीथिकयोविशेषो नास्ति'; शून्यतातत्त्वं प्रति विशेषः, स च नैरात्म्येत्यादि / ____ इह नैरात्म्यं द्विविधम्-पुं(पुद्गलनैरात्म्यम्, धर्मनैरात्म्यमिति / कर्मविपाक10 स्त्रिविधः-कायिकवाचिकमानसिकश्चेति / त्रिभवः कामरूपोऽरूपः। ऋतुगतिरिति नरकप्रेततिर्यकमनुष्यासुरदेवानां गतिः षड्गतिः; द्वादशाङ्गप्रतीतेः साक्षात् सम्भूतिः षड्गतिकानामिति / वेबसत्यमिति चतुरार्यसत्यम्, दुःख-समुदय-मार्ग-निरोधलक्षणं चेति / द्विगुणितनवका इत्यष्टादश आवेणिका बुद्धधर्मा वक्ष्यमाणे(णा) वक्तव्याः। पञ्चकन्या इति रूपादयः। त्रिकाया इति धर्मकायादयः, सहज[काय] 'श्चतुर्थ इति / तथैवाजडा 15 शून्यता सर्वाकारवरोपेता प्रतिसेनोपमेति / यस्मिन्निति यानत्रये एतन्नैरात्म्यादिकं देशका वदन्ति प्रकटितनियता देशना वज्रिणः सा, बौद्धदृष्टिवसा(शा)त् सत्त्वाशयेनेति तथागतमतनियमः। इदानी ब्रह्मविष्णो(ण्वो)र्मतमुच्यते यस्मिन्नित्यादियस्मिन् वेदः स्वयम्भूर्मुखकरचरणादौ च योनिर्जनस्य नान्यो धर्मोऽश्वमेधात् पर इति भवेद् देशना ब्रह्मणः सा।. कर्ताऽत्मा कर्मकालः प्रकृतिरपि गुणाः शून्यता नष्टधर्मा कर्ता हेतुः फलस्य प्रकटितनियता देशना सात्र विष्णोः // 162 // ___ [153a] इह यस्मिन् मते वेदः स्वयम्भूरकृतक आकाशवत्, मुखकरचरणादौ च योनिजनस्येति / इह ब्रह्ममुखं ब्राह्मणयोनिः, भुजौ क्षत्रिययोनिः, आदिशब्दादूरुद्वयं वैश्ययोनिः, पादौ शूद्रयोनिरिति / नान्यो धर्मोऽश्वमेधाविति इह स्वर्गसाधनेऽश्वमेधयज्ञात् परो नान्यो दानादिधर्मोऽस्ति इति भवेद् देशना ब्रह्मणः सा इत्यादि ब्रह्ममतनियमः / १.ख. अस्ति / 2. क. ख. नैरात्म्येति: भो. Ces Pa La Sogs Pa (इत्यादि)। 3. क. ख. ग. सकाशात् ; भो. dNos (साक्षात्) / 4. भो. sKu (कायः)। . Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1332 पटले]. स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 257 इह तदन्तर्भूते गीताधर्मे विष्णुमते, तद्यथा-कर्तास्ति, आत्मास्ति, शुभाशुभ- कर्मास्ति, कालोऽस्ति, पृथिव्यादिप्रकृतिरस्ति, सत्त्वादयो गुणाः सन्ति, शून्यता' नष्टधर्मतास्ति'*, न पश्यती त्याहुरेकीभूत इत्यादितः। कर्ता हेतुः फलस्य शुभाशुभकृतस्य दायकोऽस्तीति / प्रकटितनियता देशना सात्र कालचक्रे विष्णोरिति वैष्णवमतनियमः / इदानीमीश्वरमतमुच्यते षण्मार्गा इत्यादिषण्मार्गाः पञ्चतत्त्वं परपदमखिलं चापरं मन्त्रदेहं विद्यात्मा सच्छिवत्वं त्रिविधपदगतेोजनं त्यागभावः / बिन्दो दः(दं) शिवत्वं सकलतनुगतं द्वादशग्रन्थिभेदाः एतत् सर्वं हि यत्र प्रभवति नियता देशना सा शिवस्य // 163 // इह पूर्वोक्तेन विष्णुमतेन सार्द्ध षण्मार्गादिकं कुतः ? 'एकमूर्तिस्त्रयो देवा ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः'। 10 1-2. ग. 'शून्यता नष्टधर्मता' इति नास्ति भो.sTon Pa Kid Ni mNam Pahi ___Chos Nid De (शून्यता समधर्मताऽस्ति) / 3-4. क. ख. नय इयती / * मूले टीकायां च 'शून्यता नष्टधर्मा' अय वा 'शून्यता नष्टधर्मता अस्ति' इति पाठो लभ्यते / वैशेषिकपक्षे कथमिदं समञ्जसं स्यादिति विषये प्रयासभेदो दृश्यते; अत एव ग. पुस्तके 'शून्यता नष्टधर्मता अस्तीति स्थाने 'नास्ति' इत्येव पाठोऽङ्गीकृतः / टीकाया भोटानुवादे तु 'नष्टधर्मता' इति 'समधर्मता' इत्यनुवादो विहितः / किन्तु मूलं टीकां चाधृत्य स्वाभिप्रायमाविष्कुर्वता खेस्- ड्रब-जे- महाभागेन यथास्थितं . नष्टधर्मता-पाठमङ्गीकृत्यापि कथं वैशेषिकपक्षे 'शून्यता नष्टधर्मता' इत्येव वाक्यं समञ्जसमिति प्रतिपादितम् / . नित्यपरमाणुसंयोगैः सृष्टिमधिगच्छताऽपि तदुपादानकं भौतिकं जगद् अनित्यत्वाद विनश्यत्येवात एतस्य सृष्टिजातस्य नष्टधर्मतात्वेन शून्यता समधिगता भवत्येवेति खेस् डूब जे महाभागानां मतसारांशः / भोटभाषया चायमित्थं विवतो भवति "Ton Pa Nid Ni dNos Po Ran Grub Dus Las Yun Rin Du gNas Pa Yan Nams Paham Sig Pahi Chos Kyi Chod Pa Nid yod De. Nos Po Thams Cad rТsa Bar Thim Pahi sGo Nas gCig Tu Gyur Ba La Sogs Pas. m Thar Sig sTe Mi m Thon Bahi Phyir Ro" (hGrel Chen Dri Med Hod Kyi kGrel bSad-Ga', page 161A). . उपरिलिखितभोटांशस्य संस्कृतानुवादः "स्वोत्पत्तितः दोर्घकालं यावत् स्थितानां वस्तूनां विनाशभङ्गधर्मोच्छेद्यत्वरूपा वा शून्यताऽस्त्येव, यतो हि स्वोपादाने विलीनीभूतानि एकीकरणादिभिः वस्तूनि विनश्यन्ति, अदृश्यतां च गच्छन्ति"। Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 विमलप्रभायां [अध्यात्मइति वचनात् कर्ता आत्मा कर्म काल: प्रकृतिगुणाः शून्यता नष्टधर्मा निर्वाणं काष्ठावस्थातः' / एभिः सार्द्ध षण्मार्गादिकं वेदितव्यमिति नियमः* / इह शरीरे षण्मार्गाः षड्विषयेषु प्रवर्तका इति / पञ्चतत्त्वमिति आकाशादिधातुसमूहम् ; परपदमिति षष्ठो ज्ञानधातुः; अखिलमिति सर्वधात्वेकलोलीभूतम्; चकारादपरं मन्त्रदेहमित्यालिकाल्यात्मकं मन्त्रतत्त्वमिति / विद्येति आनन्दादिकामतत्त्वम्; आत्मेति आत्मतत्त्वं नित्यम्; सच्छिवत्वमिति शिवतत्त्वं सर्वव्यापि / तस्य रूपपरिवर्जितस्य त्रिविधा [153b] पदगतिः-पिण्डस्था, पदस्था, रूपस्था कायवाचित्तविकल्पर्मिणो, तस्यास्त्रिविधपदगतेर्योजनमिति / एषां षण्मार्गादीनामुत्पादकाले योजनं मेलापक(नम्) इति, मृत्युकाले त्यागभावः, तेषां विघटनमित्यर्थः। बिन्दोर्भदं शिवत्वमिति इह शुक्रबिन्दोर्भेद च्यवनसुखावस्थालक्षणम्, तदेव शिवत्वम् ; सकतनुगतमिति चराचरव्यापि / द्वादशग्रन्थ(न्थि)भेदा इति इह प्राणिनां तनुगता द्वादशराशयो ग्रन्थिशब्देनोच्यन्ते, तेषां द्वादशराशीनां भेदा वर्षायन कालयुगऋतुमासपक्षदिनघटिकापाणीपलश्वासा इति / एतत् सर्व हि यत्र सिद्धान्ते प्रभवति नियता देशना सा शिवस्य / [इति] शिवमतनियमः। 1. क. ख. कायावस्थातः / 2. क. ख. शिवत्वं; भो. Si Bahi De Nid (शिवतत्त्वं) / 3. ख. वर्षापन / *. वैष्णवमतानुबन्धेन (शैव)मतस्य कथं समुत्थानमिति प्रश्नं समादधता 'एकमूर्तिस्त्रयो देवा' इत्याद्युक्तं टीकायाम् / तं स्फुटीकुर्वता खेस्- ड्रब- जे- महाभागेनोक्तं यत् गीतावैष्णवमते कर्ताऽस्तीत्यनेन परमाणुकर्तृवादः फलदायकत्वेन चेश्वरक वादोऽङ्गीकृतः, तदनुरोधेन शैवमतस्य समुत्थानं प्रसङ्गसङ्गतमेवेति / भोटे यत् तदित्थम्- . "hDir Debi Nan Du hDus Pa gLuhi Chos Mra Ba Lha Khyab h Jug Gi rJes Su hJug Pahi Bye Brag Pa.Dan Rigs Pa Can Pa Dag gi \Dod Pa "Di ITa ste. Byed Pa Po Yod Pa Dan Ses Pa Ni hJig rTen Thams Cad Tsom Pa Po rDul Phran rTag Pa Cha Med Yod Pa La bSad dGos Kyi. Thams Cad Byed Pa Po Tshan Paham Khyab hJug Yod Pa Dan Zer Ba Don Ma yin Te. Hog Tu hDi Dag hGog Pahi Kabs rDul Phran Cha Med Byed Pa Po yin Pa La dGag Pa gSuns Kyi Khyab bjug Byed Pa Po Yin Pa La dGag Pa Ma gSuns Pahi Phyir Ro." (bGrel Chen Dri Med Hod hGrel bSad--Ga', page 161A). उपरिलिखितभोटांशस्य संस्कृतानुवादः"अत्र अस्मिन् संगृहीतेषु गीताधर्मवादेषु वैष्णवेषु वैशेषिकनैयायिकयोर्यद् अभिमतम् तत कर्ता अस्तीति सर्वलोकस्य रचयिता नित्यनिरवयवपरमाणुः अस्तीत्यर्थकम, न तत्र सर्वकर्ता ब्रह्मा वा विष्णुर्वा अस्तीति अभिमतम् अत एवाने तयोः खण्डनावसरे निरवयवपरमाणोः कर्तृत्वमेव दृषितम्, नैव तत्प्रसङ्ग विष्णोः कर्तृत्वं खण्डितम्"। ' Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपरदर्शनव्यायविचारमहोद्देशः 251 नास्तीशः कर्मपाकोऽपि च गणविषयान् भूतवृन्दं हि भुङ्क्ते तस्याभावे फलं न स्फुटममरगुरोर्देशना वेदितव्या / कर्ता(l) सृष्टं समस्तं सचरमचरजं तायि(जि)नां भुक्तिहेतोः स्वर्गस्तस्य प्रतोषाद् भवति खलु नृणां देशना रह्मणः सा // 164 // इदानीं लोकायतमतमुच्यते नास्तीत्यादि इह देहिनां नास्तोशः, कर्ता नास्तीति; कर्मपाकोऽपि च नास्ति / गुणविषयानिति गुणाः सत्त्वादयः, विषया गन्धादयः; भूतवृन्दमिति पृथिव्यादिकम्. तान् भुङ्क्ते; तस्य भूतवृन्दस्याभावे मरणान्ते कर्मफले (फल) न। हरीतकीगुडादिसंयोगान्मदिराशक्तिवत् भूतानां संयोगशक्तिः, तस्याभावे न कश्चित् परलोकं कायोऽस्तीति स्फुटममरगुरोर्ब्रहस्पतेर्देशना वेदितव्येति लोकायतमतनियमः। इदानीं म्लेच्छतायि(ज़ि)नां' मतमुच्यते कर्ते (त्रै)त्यादि इह कर्ता(l) रह्मणा (रहमानेन) सृष्टं समस्तं सचरं जङ्गमम्, अचरं स्थावरं वस्तु / तायि(जि)नामिति म्लेच्छानां श्वेतवासिनां भुक्तिहेतोः / स्वर्गस्तस्य रह्मणः प्रतोषात्, अप्रतोषान्नरको भवति खलु नृणां रह्मणः / सा पूर्वोक्तक्रियेति तायि(जि)-६ मतनियमः / [154a] इदानी क्षपणकमतमुच्यते त्रैकाल्यमित्यादिनात्रैकाल्यं द्रव्यषट्कं नवपदविहितं जोवषट्कायलेशाः पञ्चान्ये सन्ति काया व्रतसमितिगतिर्ज्ञानचारित्रभेदाः / जीवः कायप्रमाणो ह्यपरिमितभवैर्ब्रह्मचर्येण मोक्षो / यस्मिन् मोक्षप्रमाणं ह्यपरि निगदितं देशना सा जिनानाम् // 165 // 20 - इह क्षपणकसिद्धान्ते स्याद्वादे द्रव्यपर्यायाभ्यां नित्यानित्यव्यवहारः। तत्र त्रैकाल्यमिति अतीतमनागतं वर्तमानं चेति द्रव्यषट्कमिति जीवः, पुद्गलः, कालः, आकाशम्, पुण्यम् (धर्मः), पापं (अधर्मः) चेति / एषां मध्ये जीवः काल आकाशवत् (आकाशं) नित्यम्; नवपदविहितमिति जोवाजीवाश्र(स्र)वसंवरवर्जनम्, (निर्जर)बन्धमोक्षगत्यागतिश्चेति; जोवषटकायलेशा इति पृथ्वोकायलेशा:(श्या), अपकायलेशा (श्या), तेजकायलेशाः- 25 (श्या), वायुकायलेशाः(श्या), वनस्पतिकायलेशा (श्या), त्रश(स)कायलेशाः(श्या) इति 1. भो. sTag gZig (ताजिनां)। 2. क. ख. ब्रह्मणा, ब्रह्मणः; भो. Rahma Na (रह्मण)। 3. भो. Tag gZig (ताजिनां)। 4. क. रक्षणः; ख. ब्रह्मणः; भो. Rahma Na (रह्मण)। 5. क. रक्षणः; ख. ब्रह्मणः; भो. Rahma Na (रह्मण)। 6. भो. Tag gZig (ताज़ि)। 7. भो. Nam mKhah (आकाशम्)। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 विमलप्रभायां [अध्यात्मजीवानां षट्कायलेशाः(श्या)। पञ्चान्ये सन्ति काया इति आहारिकः कायः, ज्योतिःकायः, ने(नैसर्गिककायः, उपपादुककायः, चरमकायश्चेति जीवानाम् / व्रतसमितिगतिनिचारित्रभेदा इति क्षपणकानां व्रतानि पञ्च-अहिंसा प्रथमम्, द्वितोयं सत्यम्, तृतीयं दत्तादानम्, चतुर्थं ब्रह्मचर्यम्,पञ्चमं सर्वपरिग्रहपरित्याग इति; समितयः पञ्च5 ईर्यासमितिः, भाषासमितिः, पर्येषणासमितिः, आदाननिक्षेपणसमितिः', निकटप्रतिष्ठापनासमिति(उत्सर्गसमिति)रिति; गतिभेदाः पञ्च-नरक-तिर्यक्-मनुष्य-देव-मोक्षगतिश्चेति; ज्ञानभेदाः पञ्च-मतिः, श्रुतिः (श्रुतः), अवधिः, मनःपर्येषणम् (पर्यायः२), कैवल्यज्ञानं चेति / चारित्रभेदास्त्रयोदश-व्रतभेदाः पञ्च, समितिभेदाः पञ्च, कायगुप्तिः, वागगुप्तिः चित्तगुप्तिश्चेति / इत्येतन्मोक्षमार्गमर्हद्भिः प्रोक्तम् / जीवः कायप्रमाणः / 10 अपरिमितभवैनित्यजीवे न मोक्षः / यस्मिन् सिद्धान्ते मोक्षप्रमाणं' ह्यपरि त्रैलोकस्य निगदितं पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षं छत्राकारम्, सा देशना जिनानामिति क्षपणकमतनियमः / [154b] इदानीं तीथिकानां मतस्य युक्तिविचारेण दूषणमुच्यते वेद इत्यादिवेदोऽसौ न स्वयम्भूस्त्रिभुवननिलये वेदशब्दोऽर्थवाची ब्रह्मा वक्त्रैश्चतुभिः प्रकटयति पुरा वेदशब्देन चार्थम् / शब्दस्यार्थोऽप्यभिन्नस्त्वथ दहति मुखं किन्न शब्दोऽग्निरुक्तः तस्माद् वै देशकोऽप्यस्त्यविदितविषयेऽनागतार्थेऽप्यतीते // 166 // इह युक्त्या विचार्यमाणो वेदः स्वयम्भून भवति / कुतः ? आह-वेदशब्दस्यार्थवाचकत्वात् / इह यः शब्दोऽर्थवाची स कण्ठताल्वादिप्रयत्नेन जनितो यस्मात्, तस्मान्न 20 स्वयम्भूरिति सिद्धम् / अथ नायं वेदशब्दः, अन्यो वेदः कर्णविवरान्तरे सर्वशब्दार्थैकलोलीभूतो नित्यः, तस्यायमभिव्यञ्जक इति सिद्धम् / अत आह-इह यदि सर्वशब्दार्थंकलोलीभूतत्वेनावस्थितो नित्यो वेदस्तदा घट' इत्युक्ते सति कर्णविवरान्तरे कोलाहलेन भवितव्यम् ; न चैवम्; तस्मादियं प्रतिज्ञा वृथा-नित्यः शब्दोऽपरोऽस्ति व्यापकोऽर्थस्याभिन्नः / यदि 25 शब्दार्थयोरेकत्वम्, तदा अग्निशब्द उक्तः स्वमुखे(ख) किं न दहति ? तस्मान्न वेदस्य नित्यत्वम्, नार्थेन सहैकत्वमिति सिद्धम् / किञ्चान्यत्; इह किल श्रूयते यदा वेदाभावो T333 भवति, म्लेच्छैर्वेदधर्मे उच्छादिते सति, तदा ब्रह्मा वक्त्रैश्चतुभिः प्रकटयति पुरा वेदशब्देन चार्थः(र्थम्), 'इन्द्रः पशुरासीत्' इत्यादिपाठेनेति / अतोऽर्थोऽन्यो वेदोऽन्य इति 1. भो. bLais Pa Mi HDor Ba (आदानानिक्षेपण); "ईर्याभाषेषणादाननिक्षेपोत्सर्गाः समितयः" (तत्त्वार्थसूत्र 9.5) / 2. "मतिश्रुताऽवधिमनःपर्यायकेवलानि ज्ञानम्" (तत्त्वार्थसूत्र 1.9) / 3. "तदनन्तरमूवं गच्छत्यालोकान्तात्" (तत्त्वार्थसूत्र 10.5) / 4. ख. पुस्तके 'तस्मात्' इति नास्ति / 5. क. ख. पट / Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 261 सिद्धम् / तस्माद् देशको ब्रह्माऽस्ति, अविदितविषयेऽनागतार्थेऽ[प्य]तीत इति देशकः सिद्धः / आसीत् पाठाद् मुखपाठात्' कृतकः सिद्धः / वेदो नाकाशतुल्यः कृतक इह मुखोच्चारितः स्थानभेदात् युक्त्या प्रादेशिकश्च द्विजमुखपठितः सर्वगोऽन्ये पठन्ति / यस्मात् शूद्रादिजातिः पठति लिखति नासर्वगो वेद एषस्तस्माद् वेदः प्रमाणं न हि भवति नृणां ज्ञानिनां पण्डितानाम् // 167 / / [155a] 5 अतो वेदो न आकाशतुल्यः कृतक इह मुखोच्चारितः स्थानभेदादिति नियमः / युक्त्या प्रादेशिकश्च द्विजमुखपठितः सर्वगोऽन्ये पठन्ति / यस्माच्छूद्रादिजातिः पठति लिखति नासर्वगो वेद एषः; तस्माद् वेदः प्रमाणं न हि भवति नृणां ज्ञानिनां पण्डिता- 10 नामिति वेदः कृतकः सिद्धः संक्षेपतः। विस्तरेण प्रमाणशास्त्र ज्ञेय इति मञ्जुश्रयो नियमः। इदानीं पूर्वोक्तं ब्राह्मणादीनां योनिदूषणमुच्यते इह किल ब्रह्ममुखं ब्राह्मणानां योनिः, तदुत्पन्नत्वादिति / एवं भुजौ क्षत्रियाणां योनिः / आदिशब्दाद् ऊरुद्वयं वैश्यानां योनिः, पादद्वयं शूद्राणां योनिः; एवं चत्वारो 15 वर्णाः / एषां चतुर्णामन्तिमो वर्णः पञ्चमः चण्डालानाम्; तेषां का योनिन ज्ञायते ब्राह्मणैस्तावदिति / किञ्चान्यत् / इह ब्रह्ममुखाद् ब्राह्मणा जाताः, किल सत्यम् ? अतः पृच्छामि-किं ब्राह्मण्ये(ण्यो)ऽपि ततो जाताः, यदि स्युस्तदा भगिन्यो भवन्ति, एकयोनिसमुत्पन्नत्वादिति / एवं क्षत्रियादीनामपि विवाह हो) भगिन्या सार्द्ध भवति ? कथम् ? अथ भवति, तदा म्लेच्छधर्मप्रवृत्तिभवति / म्लेच्छधर्मप्रवृत्तौ जातिक्षयः, जातिक्षयान्नरक- 20 मिति न्यायः। अपरमपि विचार्यते इह यद्येकः स्रष्टा प्रजानाम्, तदा कथं चतुर्वर्णा भवन्तीति ? यथा एकस्य पितुश्चत्वारः पुत्रास्तेषां न पृथक् पृथग् जातिः, एवं वर्णानामपि / अथ ब्रह्मणो मुखादिभेदेन भेदः, तदा स एव युक्त्या न घटते। कथम? यथा उदम्बरफलानां मलमध्याग्र- 25 जातानां भेदो नास्ति, तथा प्रजानामपि। अपरोऽपि श्वेतरक्तपीतकृष्णवर्णभेदेन भेदो न दृश्यते; तथा धात्विन्द्रियसुखदुःखविद्यागमादिभिर्भेदो न दृश्यते यस्मात्, तस्माजातिरनित्ये(रनियते) ति सिद्धम् / एवमश्वमेधादियागफलं शुकेन' दूषितम् / तद्यथा 1. क. ख. पुस्तकयो स्ति / 2. ख. तनो। 3. क. ख. श्रेष्ठाः / 4. भो. Nes Pa Med Pa (अनियता)। 5. ग. शुक्रेन / Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 विमलप्रभायां [अध्यात्म"यूपं छित्वा पशं हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् / यद्येवं गम्यते स्वर्गो नरकः केन गम्यते // " इति 'शुकवाक्यं प्रसिद्धम् / तस्मान्न वेदः स्वयम्भूः, न मुखादियोनिर्जनस्य, नाश्वमेधात् परतो धर्मोऽन्य इति; सर्वप्रलापं निरर्थकं विचार्यमाणमिति ब्रह्ममतं वैष्णवमतमीश्वरेण 5 साद्धं दूषणीयमिति / इदानीमीश्वरमतस्य दूषणमुच्यते अस्तीत्यादिअस्तीशः सर्वकर्ता यदि स च जगतः कर्मभोक्ता न चान्यः नापीशः कर्मकर्ता यदि स च न भवेत् सर्वकर्ता समन्तात् / [155b] कर्ताऽन्यः प्रेरितः सन् यदि परमपराधीनता कर्तुरेषा 10 तस्मात् कर्ता न चेशोऽशुभशुभफलदः प्राणिनां कर्म मुक्त्वा // 168 // इहास्तीश्वरः सर्वकर्ता यदि भवति, तदा कर्मभोक्ता न चान्य इति / कथम् ? अन्यो वटकमश्नाति, अन्यः पिपासया म्रियते / न चैवम् / यः करोति स कर्ता, यत् क्रियते तत् कर्म; तस्य कृतस्य कर्मणः फलभोक्ता कर्मकर्ता / न च कर्मणा विना कर्ता सिद्धयति; यथा कुम्भं करोतीति कुम्भकारः। एवं यः कर्म करोति स कर्तेति न्यायः / आह15 नापोशः कर्मकर्ता, स्वतन्त्रः प्रयोजक इति / इह यदि कर्मकर्ता न भवति, तदा सर्वकर्ता समन्तादिति निरर्थकम / इह कर्ता यदि प्रेरितः सन कर्म करोति. तदा कर्तः पराधीनता। यस्य पराधीनता तस्य प्रयोजकः कथं विरुद्धकर्मणि कृते सति निग्रहं न करोति; स्वतन्त्रतया विना, स्वतन्त्रता ईश्वरेण व्याप्ता / एवं कर्मफलाभावः कर्तृवादिनां सिद्धः; न चैवम्; तस्मात् कर्ता न कश्चिद् ईशोऽशुभशुभफलद: प्राणिनां कर्म मुक्त्वेति स्वकर्म20 फलोपभोगः सिद्धः कर्ता[२] विना / इदानीं स्वतन्त्रस्य कर्तुः परापेक्षिकत्वमुच्यते पृथ्वोत्यादि- . पृथ्वीतोयाग्निवातार्णव इह यदि खे कर्तुरादौ न सन्ति द्रव्याभावे न विश्व विषयविरहितः सर्वकर्ता करोति / न प्रत्यक्षं परोक्षं विषयविरहितस्यास्य कर्तुः प्रमाणं संयोगादेव सर्वं भवति नरपते नेच्छया कर्मरूपम् // 169 // इह यदि खे आकाशे पृथिव्यादिपरमाणवो न सन्ति कर्तुरादौ, तदा द्रव्याभावे न विश्वं करोति / विषयविरहितो निष्कलः, सर्वकर्ता कथम् ? अस्य विषयविरहितस्य कर्तुः साधकं न प्रत्यक्षं परोक्षं प्रमाणं यस्मात्, तस्माद् द्रव्यसंयोगादेव सर्व विश्वं चराचरं भवति, नेच्छया कर्तुः कर्मरूपमिति न्यायः; इतीच्छाप्रतिषेधः कर्तुः। 1. ग. शुक्र० / 2. ख. प्रणिधान / 3-4. भो, Byed Pa Po Med Par (कर्तारं विना) / 25 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] . स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 263 इदानीं प्रतीत्योत्पाद उच्यते संयोगादित्यादिसंयोगादिन्दुकान्तेर्भवति च सलिलं दर्पणे वस्तुबिम्ब जिह्वाश्रा(स्रा)वोऽम्लहेतोः स्वरवत इतरः शुद्धबोजाङ्करः स्यात् / कान्ताच्चायःशलाकाभ्रमणमपि भवेन्नेच्छया किञ्चिदेषां वस्तूनां शक्तिरेषा त्रिभुवननिलये निर्मिता केनचिन्न / / 170 // इह सर्ववस्तूनां संयोगादुत्पादः-इदं प्राप्य इदमुत्पद्यते / संयोगादिति चन्द्रकिरणसंयोगाच्चन्द्रकान्तेर्भवति च सलिलम्, चकारात् सूर्यकान्तेरग्निर्भवति / दर्पणे वस्तुसंयोगात् वस्तुप्रतिबिम्बो भवति / अन्यस्याम्लभक्षणसंयोगादन्यस्य जिह्वाधा(ना)वो भवति, अम्लहेतोः सकाशादिति / कूपादौ स्वरवसंयोगात् प्रतिरवो भवति / शुद्धबीजेऽङ कुरः स्यात्, पृथ्वोतोयादिसंयोगादिति / कान्ताविति कान्तपाषाणात् अयःस(श)लाकाभ्रमणं 10 भवति, संयोगादिति / नेच्छया किञ्चिदेषां वस्तूनां वस्तु भवति, किन्तु वस्तूनां शक्तिरेषा / त्रिभुवननिलये निमिता केनचिन्नेति प्रतोत्योत्पादः सिद्धः / ___आह-इह कारणेन विना कार्य न भवति यस्मात् तस्मात् कारणमस्तीति, अत ईश्वरादिकं सिद्धमिति / - आह-इह कारणे कार्य यद् भवति, तत् किं सत्कार्यम्, असद् वा ? कारणे 15 सत्कार्य न भवति, विद्यमानस्य घटस्य मृदादयः कारणभूता न भवन्ति, सत्त्वात्। असत्कार्य न असत्त्वात्, कूर्मरोमवत् , तथा पटस्य [तन्तुति]रीवेमादयः कारणभूता न भवन्ति / उभयात्मकं कार्य न भवति, परस्य(परस्पर)विरोधात् / यत् सत् तदसन्न भवति, यदसत् तत् सन्न भवति, विरोधात् / अतो न सत्कार्यम्, नासत्कार्यम्, न सदसत्कार्य' कारणे भवतीति सिद्धम् / आह-इह कारणस्य प्रतिषेधेन कार्यस्यापि प्रतिषेधो भवतिः उभयप्रतिषेधात् सर्वाभाव इति सिद्धम् / आह-इह सर्वाभावो न, परापेक्षिकत्वादिति / इह कारणे यत् कारणत्वं तत् कार्यमपेक्ष्य परिकल्प्यते, कार्यं च कारणमपेक्ष्य; एवं परापेक्षिकत्वादुभयोरपि कारणत्व- T334 प्रसङ्गः। उभयस्य कारणत्वात् कार्याभावः, तदभावे कारणाभावः, कारणस्य[156b] 25 कार्यापेक्षिकत्वाद् अनियतत्वप्रसङ्गः / तस्माद् अनियतत्वाद् अकारणत्वप्रसङ्गः। एवं सर्वेषामीश्वरादीनां कारणानाम् अनियतत्वम् अकारणत्वं सिद्धम् / ___आह.-नापेक्षिका सिद्धिः कारणस्य च; यत् कारणं तत् कारणमेव, यत् कार्य तत् कार्यमिति सिद्धम् / 1. ग. पुस्तके नास्ति / 2. ख. परोक्षिकत्वात् / 3. क. ख. ग. अनित्यत्वप्रसङ्गः; भो. Nes Pa Med PaNid (अनियतत्व)। 4. क. ख. ग. अनित्यत्वाद् / 5. क. ख. ग. अनित्यत्वम् / 20 Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 विमलप्रभायां अध्यात्म ___ आह--इह तवेच्छातः सिद्धिर्न ममेति वैषमिकत्वम् / यदीच्छातः सिद्धं भवति, तदा ममापीच्छातः / यत् तव' सत् तद् ममासत् सिद्धम्, युक्तिविवर्जितत्वात् / / . ___आह-आप्तागमादस्माकं समय एषः / समयोऽसिद्धः / समय इति वक्तं न लभ्यते, उक्तं शास्त्रविद्भिरिति / आह-कदाचिद् युक्तिरुच्यते / इह उपादानकारणात् सर्वसम्भवाभावात् शक्तस्य शक्यकरणात् सत्कार्यसिद्धिरिति / __ आह-इह युष्माकं हेतुर्वृथा / कथम् ? यदि तव पक्षस्य (पक्षः) साधकलक्षणप्राप्तः, तदा ममापि पक्षं साधयिष्यति / अथ दूषणलक्षणप्राप्तस्तव पक्षस्य (पक्षः), तदा ममापि पक्षं दूषयिष्यति, यथाग्निरुभयदाहको नासावेकस्येति / इह यथा शब्दवादिनां प्रतिज्ञा-नित्यः शब्दः; को हेतुः ? अमूर्तत्वादिति / को दृष्टान्तः ? आकाशवत्; यथा आकाशममूर्तत्वान्नित्यम्, तथा शब्दोऽपि यस्मात् तस्मात् शब्दो नित्यः सिद्ध इति / आह-नेयं प्रतिज्ञा, परोऽपि वक्ष्यति-अनित्यः शब्दः। को हेतुः? कृतकत्वादिति / को दृष्टान्तः ? घटवत्; यथा घटो मुद्दण्डचक्रसूत्रपुरुषहस्तव्यायामात् कृतकः, 15 तथा शब्दोऽपि कण्ठताल्वादिभिः प्रयत्नतो जनितो यस्मात् तस्मादनित्यः शब्दः सिद्धः / अतो हेतुव्यपदेशमात्रतः कार्यसिद्धिर्न भवति / यस्तु याथातथ्यं ब्रूयात् , तत् प्रमाणं स्यान्न हेतव्यपदेशत इति / एवं हेतुर्वथा। अन्यच्च : साध्यानां प्रतिज्ञाविरोधेन हेत: साधको न भवति / इह यस्मिन् काले प्रतिज्ञा तस्मिन् काले हेतुर्नास्ति; यस्मिन् काले हेतुस्तस्मिन् काले प्रतिज्ञा नास्ति / अथ कस्यासौ हेतुः प्रतिज्ञया विना अयुगपद्धर्मित्वात् / 20 यस्मिन् काले 'प्र'कारस्तस्मिन् काले न 'ति'कारो 'ज्ञा'कारश्च / एवं पकाररेफाकाराः, यथा 'प्र'कारस्याक्षराक्षरस्य / न ह्यजातेन मृतेन वा पुत्रेण पुत्रकार्य कर्तुं शक्यते, एवं हेतुनापि / तस्मात् कारणोपलम्भात् कार्य न भवति, अहेतुतः सिद्धत्वात् / अहेतुत इति हेतुः कारणमित्यनान्तरम् / एवं न कारणे कार्यम्, नाप्यहेतुतः कार्य भवति; अतः कार्य स्वतो न भवति, परतो न भवति, उभयतो न भवति, अहेत[157a]कं न भवतीति सिद्धं 25 कर्तृकारणनित्यदूषणमिति / इदानीमात्मनो दूषणमुच्यते यदोत्यादियद्यात्मा सर्वगः स्यादनुभवति कथं बन्धुविश्लेषदुःखं नित्यश्चायं यदि स्यान्मदनशरहतोऽवस्थतां किं प्रयाति / यद्यासीत् सक्रियश्च व्रजति कथमिमां मूढतां सुप्तकाले एवं वै सर्वगः स्याद् विभुरपि च पुरा सक्रियोऽयं न चात्मा // 171 // 1-2. ख. यत् तदसत् / Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 265 इह यद्यात्मा सर्वगः स्यादनुभवति कथं बन्धुविश्लेषदुःखमिति / इह य आत्मा सर्वगः स एको भवति, तस्य बन्धुविश्लेषदुःखं न भवतीति / एकसत्त्वस्य दुःखेन सर्वसत्त्वानां दुःखं भवति, आत्मनः सर्वगत्वादिति / अथानेकात्मानः, तदा अनेकात्मनां सर्वगत्वाभाव इति / नित्यश्चायं यदि स्याद 'मदनशरहतोऽवस्थतां कि प्रयातीति / इह यो नित्यस्तस्यावस्थान्तरं नास्ति, विकाररहितत्वादिति, तत् कथमिमां कामावस्थां दश- 5 विधां मदनशरहतो गच्छतोति; तस्मादात्मनाऽनित्येन भवितव्यम्, विकारसंयोगादिति / यद्यासीत् सक्रियश्च वजति कथमिमां मूढतां सुप्तकाले इति / इह यद्यासीत् काले जाग्रदवस्थालक्षणो सक्रियः, चकारान्नित्यश्च, तदा सुप्तकाले मूढतां क्रियारहितः(ततां) कथं व्रजतीति / एवं वै एकान्तं विचार्यमाणः सर्वगः स्यान्न विभुरपि च स्वामी नित्यो न सक्रियो यन्न चात्मा इति सिद्धम् / इदानीं बुद्धभगवतः प्रवचनमुच्यते नास्त्यात्मेत्यादिनास्त्यात्मा सम्भवो वास्त्यशुभशुभफलं चास्ति कळ विहीनं गन्ता नास्त्यस्ति मोक्षाय गमनमखिलं चास्ति बन्धो न बध्यः / भावोऽभावोऽपि चास्ति क्षणिकविरहितो निःस्वभावो भवोऽस्ति एतन्मे सत्यवाक्यं सुरफणिवचनैः संग्रहैर्हन्यते न // 172 // 15 इह प्रतीत्यसमुत्पन्नधर्माणां निरोधादुत्पाद उत्पादान्निरोधः / एवं निरोधधर्माणामात्मा नास्ति, आत्मी[157b]याभावात् / उत्पादधर्माणां सम्भवोऽस्ति, पुनर्जन्मग्रहणात् / स्वाध्यायादिदृष्टान्तरेषां सिद्धिरिति वक्ष्यमाणे वक्तव्या। अशुभशुभफलं चास्तीति उत्पादधर्माणां शुभाशुभफलमस्ति, निरोधधर्माणामभावेन / क; विहीनं क; विनेत्यर्थः / गन्ता नास्ति निरोधधर्मसमूहः, मोक्षाय च गमनमस्ति, "अन्येषामन्यत् तद्रूपम्" 20 इत्यादिवचनात्; अखिलं समस्तम् / अस्ति बन्धो न बध्य इति, इहोत्पादधर्माणां बन्धोऽस्ति, बध्यो निरोधधर्मो(धर्माणां) 3 नास्ति / भावोऽभावोऽपि चास्ति क्षणिकविरहितो निःस्वभावो भवोऽस्तीति / इह भावाभावैकलोलीभूतो निःस्वभावो द्रव्यविकल्परहितः प्रतिसेनातुल्यः क्षणिकविरहित उत्पादव्ययरहितो भावो बुद्धानां धर्मचक्रप्रवर्तनायास्तीति / एतन्मे सर्वग्रहविनिमुक्तं वचनं यत् तत् सुरफणिवचनेः संग्रहहन्यतेन / इह 25 यथा ग्रहग्रस्तो मल्लो ग्रहमुक्तमल्लं हन्तुं न शक्नोति, तथा विकल्पग्रहग्रस्तो(स्ता) विकल्पग्रहमुक्तं हन्तुं न शक्नुवन्तोति नैरात्म्यादिसिद्धिः संक्षेपेणात्रोक्का, विस्तरो विस्तरागमेन ज्ञेय इति नियमः। इदानीं वैभाषिक-सौत्रान्तिक-योगाचार-मतदूषणमुच्यते यस्तत्वमित्यादियस्तत्त्वं पुद्गलाख्यं वदति तनुगतं तत्स्वभावात् स नष्टः संवृत्या चार्थवादी त्वविदितपरमार्थो ह्यसन्मन्यमानः / 1. क. ख. मदनसर० / 2. भो. Sad Pa (जाग्रत) 3. भो. Gog Pahi Chos rNam La (निरोधधर्माणाम्) / Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 विमलप्रभाया [अध्यात्मविज्ञानं मन्यमानस्त्रिभुवनसकलं चैव विज्ञानवादी योऽनष्टो नष्टपक्षः स भवति करुणाशून्यताद्वैतवादी // 173 / / इह तोथिकबौद्धानामेषां पक्षग्रहः, तेन स्वपक्षग्रहेण परपक्षस्यापि ग्रहणं भवति, तद्धर्मेण तद्वधर्मेण वा तेषां बालमतीनाम् / इह वैभाषिको यस्तत्त्वं पुद्गलाख्यं वदति 5 तनुगतं तत्स्वभावात् स नष्ट इति / इह यदि पुद्गलान्तर्वर्ती उपपत्त्यङ्गिकः पुद्गलोऽस्ति, तदा स्वभावो वाच्यः, किं ज्ञानस्वभावोऽज्ञानस्वभावो वा ? यदि ज्ञानस्वभावस्तदाऽनित्यः, T335 इह घटज्ञाने निरुद्ध पटज्ञानमुत्पद्यते, अतोऽनित्यः। अथ ज्ञानस्वभावस्तदाऽज्ञानस्य सुख[158a]दुःखाभावः / अतस्तत्स्वभावाद् विचार्यमाणः स नष्टो वैभाषिक इति / इहास्ति पुद्गलो भारवाहो ‘ण गिव्वं (च्च) भणामि, णाणिव्वं (च्चं) भणामो' 10 ति / यद् भगवतो वचनं तद् ज्ञानपटले विस्तरेण वक्तव्यमिति / संवृत्या चार्थवादी त्वविदितपरमार्थो ह्यसन्मन्यमान इति / इह संवृत्या नोलाद्यर्थग्रहार्थवादी नष्टः / कथम् ? अविदितपरमार्थो ज्ञानकायो हि असन् वन्ध्यापुत्रवद् मन्यमानः; तथाह "आकाशं द्वौ निरोधौ च नित्यं त्रयमसंस्कृतम् / / संस्कृतं क्षणिकं सर्वमात्मशून्यमकर्तृकम् // अक्षजा धीरनाकारा साक्षाद् वेत्त्यणु'सञ्चयम् / स्यात् काश्मीरमताम्भोधिवैभाषिकमतं मतम् / / इति / स्वा(सा)कारज्ञानजनका दृश्या ते(ने)न्द्रियगोचराः।। वन्ध्यासुतसमं व्योमनिरोधौ व्योमसन्निभौ // संस्कारा न जडाः सन्ति त्रैकाल्यानुगमो न च / असदप्रतिघं रूपमिति सौत्रान्तिका विदुः / / " इति / 15 अतोऽप्रतिघं रूपं काल्यवेदकम् / यदि प्रदीपनिर्वाणसमम्, तदा अप्रतिघरूपे असति सर्वज्ञो न भवति; चतुर्भिः कार्यविना प्रादेसि(शि)ककायेन बुद्धत्वं न भवति / इहाप्रतिघकायेन विना बुद्धस्य सर्वाकारऋद्धिदर्शनं न स्यात्, सर्वरुतवचनं न भवति, 25 परचित्तज्ञानं च न प्रवर्तते, दिव्यचक्षुरादिकं सर्वं निष्फलं भवतीति सौत्रान्तिकग्रहदोषः / इदानीं योगाचाराणां ग्रहदोष उच्यतेविज्ञानं मन्यमानस्त्रिभुवनसकलं चैव विज्ञानवादीति; आह "न सन्नवयवी नाम न सन्तः परमाणवः / प्रतिभासो निरालम्बः स्वप्नानुभवसन्निभः // ग्राह्यग्राहकवैधुर्यात् विज्ञानं परमार्थसत् / योगाचारमताम्भोधिपारगैरिति गीयते // " 1. क. ख. साक्षाद्वेदाणु०; भो. Phra Rab....Rig (वेत्त्यण०) / Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटले] स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 267 ____ अतो विज्ञानविचारेणेकानेकस्वभावेन विज्ञानवादिनो नष्टा वियोगत इति / इह विज्ञानमात्र त्रैधातुकम् / यदि ज्ञानादन्यद् बाह्यवस्तुरूपं' नास्ति, तदा चक्षुर्विज्ञानस्य ग्राहकस्य बाह्यरूपं कथं ग्राह्यस्वभावेन प्रतिभासत इति ? आह–अविद्यावासनावसे (शे)नेति / आह-किमियमविद्याऽपगमो नास्ति विज्ञानस्य ? अविद्या धातुकलक्षणा न 5 भवति ? यद्यविद्या धातुकलक्षणा न भवति, तदा संसारातीतलक्षणा भवति, एवं प्रज्ञापारमितेयम् / न चैवम्; तस्मादियमविद्या संसारवासना, संसारोऽपि त्रिभुवनलक्षणः, त्रिभवं त्रैधातुकम्, त्रेधातुकं च विज्ञानमात्रम् / एवमविद्या विज्ञानमात्रा, विज्ञानमात्र तदात्मकत्वम, तदात्मि(त्मकत्वादविद्याऽपगमो नास्ति, विज्ञानस्याविद्यामात्रतः। अथ विज्ञानमात्र त्रेधातुकं न भवति,तदा प्रतिज्ञाहानिरिति त्रैधा[158b]तकमात्रत्वमसिद्धम् / 10 इदानी क्षणभङ्गोत्पाददोष उच्यते इह यो धर्माणामेकक्षणाद् भङ्गोत्पादो भवति, स किं स्थित्या विना ? यदि स्थित्या विना भङ्गोत्पादश्च भवति, तदा शशविषाणस्यापि भविष्यति / अथ उत्पादात् स्थितिः, स्थितेर्भङ्गो भङ्गादुत्पादः, एवं स्थितिभङ्गोत्पादानामेकत्वं नास्ति, भिन्नलक्षणेन भवितव्यम् / इह यस्मिन् काले स्थितिस्तस्मिन् काले नोत्पादभङ्गो, यस्मिन् काले 15 भङ्गस्तस्मिन् काले नोत्पादस्थिती, यस्मिन् काले उत्पादस्तस्मिन् काले न स्थितिर्न भङ्गः / काल इति क्षणः, सत्येककाले जातिजरामरणानामैक्यमिति / किञ्चान्यत् / इह य एकक्षणे भङ्गोत्पादो धर्मस्य, स कि पूर्वधर्मनिरुद्धादपरधर्मोत्पादः, अथानिरुद्धधर्मात् ? यदि निरुद्धधर्मादुत्पादस्तदा निरुद्धप्रदीपादपरप्रदीपोत्पादः, अथानिरुद्धादुत्पादस्तदा अनिरुद्धात् प्रदीपात्५ प्रदीपोत्पादवत् तस्मादपरोत्पादः; 20 एवमुत्पादांदुत्पादेन प्रदीपमाला इव विज्ञानमाला भवति / अतः पूर्वविज्ञानस्य निरोधादपरस्योत्पादो वक्तुं न शक्यतेऽनिरुद्धादपि, न मिश्रात्, परस्परविरोधेन 'तयोरेकत्वाभाव इति / अतो माध्यमिक आह "नेष्टं तदपि धीराणां विज्ञानं परमार्थसत् / एकानेकस्वभावेन वियोगाद् गगनाम्जवत् / / [159a] न सन्नासन्न सदसन्न चाप्यनुभयात्मकम् / चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदुः // " इति / योऽनष्टो नष्टपक्षः स भवति / कोऽसौ ? करुणाशून्यताद्वैतवादी यः / इह यस्य करुणा निरालम्बा विकल्प ता सर्वाकारवरोपेता व्यध्वतिनी व्यध्वपरिज्ञानाय इति बौद्धसिद्धान्तनियमः। 1. क. ख. बाह्यरूपं / 2-3. क. ख. भो. पुस्तकेषु 'अपगमो""अविद्या' इत्यंशो नास्ति / 4. क. ख. भो. पुस्तकेषु नास्ति / 5. ग. पुस्तके नास्ति / 6. क. ख. तत्पा / 30 Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 विमलप्रभायां [अध्यात्म इदानी पूर्वकर्मोपभोगवर्तमानकर्मसञ्चयप्रतिषेध उच्यते जन्तुरित्यादिजन्तुः पूर्वाणि कर्माण्यनुभवति कृतान्यहिकान्यन्यजात्या यद्येवं कर्मनाशो न हि भवति नृणां जातिजात्यन्तरेण / .. संसारान्निर्गमः स्यादपरिमितभवै व मोक्षप्रवेश एतद् वै तायिनां तु प्रभवति हि मतं चान्यजातिप्रहीणम् / / 174 // इह येषां' मतं जन्तुः पूर्वकृतानि कर्माणि भुङ्क्ते इह जन्मनि कृतान्यन्यजात्यामिति; यद्येवं तदा कर्मनाशो न हि भवति नृणां जातिजात्यन्तरेण, कर्मफलोपभोगत इति / एवं न संसारान्निर्गम: स्यादपरिमितभवै व मोक्षे प्रवेशो भवतीति / एतद् वै तायि(जि) नां प्रभवति हि मतम्, किन्तु अन्यजातिप्रहोणमिति तायि(ज़ि)नां म्लेच्छानां 10 मतम् / मनुष्यो मृतः स्वर्गे वा नरके वा अनया मनुष्यमूर्त्या सुखं वा दुःखं वा भुङ्क्ते रह्मणो नियमेनेति / अतोऽन्यजातिप्रहोणमिति नियमः / इदानी चार्वाकमतदूषणमुच्यते भूतैरित्यादिभूतैयंोकभूतैः प्रभवति मदिराशक्तिवत् साक्षिचित्तं वृक्षाणां किन्न हि स्यात् क्षितिजलहुतभुगमारुताकाशयोगात् / 15 नास्त्येषां जन्तुशक्तिस्त्वथ परममृषा भूतसंयोगशक्ति रेतच्चार्वाकवाक्यं न हि सुखफलदं मार्गनष्टं नराणाम् // 175 / / इह पूर्वोक्तैर्भूतैः पृथ्व्यादिभिरेकीभूतैर्यदि हरीतकोगुडधातकोसंयोगेन मदिराशक्तिवत् सेन्द्रियं चित्तं नराणामिति सिद्धम्, तदा वृक्षाणां पृथ्व्यादिभिरेकीभूतानां किन्न भवति सेन्द्रियं चित्तमिति भूतसंयोगात् / अथैषां स्थावराणां जन्तुशक्तिर्नास्तीति, 20 तदा परममृषा भूतसंयोगशक्तिरिति; तस्मादेतच्चार्वाकवाक्यं न हि सुखफलदं मार्गनष्टं नराणामिति लोकायतमतदूषणनियमः। [159b] इदानी क्षपणकमतदूषणमुच्यते जीव इत्यादिजीवः कायप्रमाणो यदि करचरणच्छेदनान्नस्य(श्य)ते किं . नित्यः कायप्रभावादणुरपि च भवेत् स्थूलतां किं प्रयाति / संसारात् कर्ममुक्तो व्रजति सुखपदं यत् स्थितं लोकमूनि त्रैलोक्यं चाणुभिर्यद् रचितमपि सदा शाश्वतं तन्न कालात् // 176 / / 1. क. ख. एषां / 2. ख. भोग / 3. क. पुस्तके नास्ति / 4. भो. sTag gZig (तग जिग्) / 5. क. रवनणो; भो. Rahma Na (रह्मण)। Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7336 स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः 269 इह क्षपणकसिद्धान्ते जीवो नित्यः, स च कायप्रमाण इति सिद्धम्, इति चेत्, तदा कायावयवे करचरणादो छिन्ते सति किं विनस्य (श्यते. छिन्नावयवमर्तेरभावा दिति / नित्यः कायप्रभावावणुरपि च भवेत्, सूक्ष्मकायग्रहणात्, स्थूलकायग्रहणात्', स्थूलता किं प्रयातीति ? इह यो नित्यः सोऽविकारी, यो विकारी सोऽनित्यः सिद्ध इति / आह-द्रव्यपर्यायाभ्यां नित्यानित्यमिति स्याद्वादः / आह-इह यथा सुवर्णं कुण्डलाभ्यां नित्यानित्यम्, तथा द्रव्यपर्यायाभ्यां जीवद्रव्यं नित्यं विकारोऽनित्य इति, तथा च स्याद्वादः / "कथेइ जीवो होइ वलिओ कथेइ कम्माइ भोन्ति वलिआइ / जीवस्य(स्स)अ कम्मस्य(स्स)अ पूर्व(पुब्ब)णिब (णिबद्धा)इ वै(वे)राइ // इति। 10 अस्या गाथाया अर्थमाह-कुत्रचिदिति। मोक्षविषये जीवो बलवान्, कैवल्यज्ञानबलेन / कुत्रचिच्चतुर्गतिसंसारविषये कर्म बलवत्, अज्ञानबलेन; एवं जीवस्यापि कर्मणश्च पूर्वाऽनादिकालनिबद्धानि वैराणोति सिद्धम् / एवं द्रव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इति नान्यथा सिद्धिरिति सिद्धान्तः। आह-द्रव्यपर्याययोरेकत्वमन्यत्वं वा? इह योकत्वम, तदा द्रव्यपर्याययोर्भेदो 15 नास्ति; अथान्यत्वम्, तदा द्रव्यविना पर्यायो भवति, न चैवं दृश्यते सूत्रैविना पटः / एवं जातिव्यक्त्योरपि नित्यानित्यसंयोगदोष इति / नित्यानित्ययोरेकत्वं नास्ति, परस्परविरोधात्, असदृशसदृशयोर्यथा / अतो जीवजात्यादिद्रव्यमनित्यमिति सिद्धम् / तथा संसारात् कर्ममुक्तो व्रजति सुखपदं यत् स्थितं लोकमूर्नीति / इह क्षपणकसिद्धान्ते एकमेव त्रिभुवनम्, द्वितीयं नास्ति; तेनेदं त्रिभुवनम् अनादिनिधन- 20 मुत्पादव्ययरहितं सर्व वज्रमयं न कदाचित् क्षयं यास्यतीति / यद्यस्य भुवनस्य क्षयो भवति, तदाऽन्यत्रिभुवनाभावात् सर्वे प्राणिनः कुत्र स्थास्यन्ति / तेन कारणेनेदं नित्यम्; जीवोऽपि नित्यः संसारात् कर्ममुक्तः सन् व्रजति मोक्षं पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षं सुखपदम्, पुद्गलरहितमिति सिद्धम् / ____ आह-इह त्रैलोक्यम् अणुभिर्जातम्, नाणुभिविना, चकारान्मोक्षोऽपि, तत् कथं 25 नित्यं भवति, यवणुभो रचितमपि शाश्वतमपि नित्यं सदा सर्वकालं न भवति, संहारकालवशात् क्षयं यास्यतीति / तत्क्षयात् सिद्धान्तानामपि क्ष[160a]यो भविष्यतीति सिद्धमिति न्यायात् / किञ्चान्यत् / इह पूर्वोक्तानां षड्जीवकायलेश्यानां मध्ये वनस्पतीनां जीवः; स किं प्रत्येकवनस्पतिकाय एकः सुखं दुःखं वा कर्मवशेनानुभवति, अथानेक इत्याह 1. क. ख. पुस्तकयो स्ति / 2. क. ख. क्षत्रविदितः / 3. क. ख. जीवकापरेशानां / Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 विमलप्रमायाः [अध्यात्मएको जीव एकं पुद्गलं गृह्णाति यस्य प्रभावेन वनस्पतीनां साशोस्योदोमांः जीवितसंज्ञा / यदि जीवो नास्ति, तदा पादप इति कथं सिद्धम् / न चाजीवाः काष्ठा उदकं पीत्वा पुष्पादि ऋतु प्रकुर्वन्तीति सिद्धम् / आह-यदि इह प्रत्येकपुद्गले प्रत्येकम् एकैको जीवः, तदा इक्षुदण्डे खण्डे खण्डे 5 कृतेऽनेकखण्डानि भवन्ति; तेषां मध्ये एकस्मिन् खण्डे स जीवो नित्यः कर्मवशात् सङ्कुचन प्रविष्टः / कानि तेन परित्यक्तानि न चैवं युक्त्या घटते / विचार्यमाणः कुतो यतस्तेषां पुनर्भूम्यामारोपितानामङकुरादिकं प्रत्येकखण्डे दृश्यते / तस्माद् वस्तुस्वभावो वनस्पतीनाम्' अकुरादिशक्तिरिति सिद्धम् / इति क्षपणकमतदूषणनियमः। विस्तरोऽनेकोऽनेकप्रमाणशास्त्रेण मध्यमकेन निराकरणीयस्तीथिकानां सिद्धान्तः।। 10 यः संवृत्या विवृत्या वा सम्बुद्धवचनसमः, स न दूषणीय इति कालचक्र आदिबुद्धभगवतो नियमः* | तद्यथा इत्यादिज्ञानहेतोः प्रकटयति महौ देशनां कालचक्र: पुंसां चित्तानुसारां मृदुकठिनपरां वासनाया बलेन / चित्तं वै भावरागैः स्फटिकवदुपधाद् रागतां याति यस्मात् 15 तस्माद् धर्मो न कश्चित् स्वपरकुलगतो योगिना दूषणीयः // 17 // 1-2. क. वनस्पतीनाम् अकुरादिकं प्रत्येकखण्डे दृश्यते, तस्माद् वस्तु स्वशक्तिरिति सिद्धम् / कालचक्रतन्त्रस्य तट्टीकाया विमलप्रभायोः किमभिप्रायकमिदं वचनद्वयम्, यथा 'यः संवृत्या विवृत्या वा सम्बुद्धवचनसमः, स न दूषणीय इति कालचक्र आदिबुद्धभगवतो नियमः' इति / 'तस्माद् धर्मो न कश्चित् स्वपरंकुलगतो योगिना दूषणीयः' (मूले 2.166) इति च / वचनाम्यामेताभ्याम् आपाततः परमतं नैव कालचक्रिणा दूषणीयमित्याभाति / एवं सति प्रर्वतमानेऽस्मिन् स्वपरविचारन्यायमहोद्देशे कथमिह परमतखण्डनं कृतं मूले टोकायां च, कथं चोक्तम् एतम्महोद्देशावसाने टीकायाम्-'मध्यमकेन निराकरणीयस्तीथिकानां सिद्धान्तः' इति / आपाततः प्रतीयमानस्यैतद्विरोधस्य. निराकरणं भवति खेस् ड्रब जे महाभागानां स्वाभिप्रायाविष्करणेन / तैरुक्तम् "Mu sTegs Pa dGag Pa rGya Chen Po rNam Pa Du Mar Tshad Mahi bsTan bCos Du Ma Dan dBu Ma Pas gSun Lugs Du Mar bsTan Pa Dag Gis Mu stegs Pa rNams Kyi Grub Pahi mThah Sun dByun Bar Bya sTe. Mu sTegs Las gSan Pa Gan Sig Kun rdZob Bam Don Dam Pa Sans rGyas Kyi gSun Dan mTshun Pa Mra Ba De Ni Sun dByun Bar Mi Byaho". (\Grel Chen Dri Med Hod \Grel bSad, 'Ga', page 208B).. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 271 'भेटले स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः धर्मः सत्त्वोपकारो विषयविरहितश्चापकारोऽप्यधर्मः हिंसा वेदप्रमाणा न हि सुखफलदा दुःखदा सर्वकालम् / सन्मत्रो मूर्खवाक्यात् परमसुखकरा सर्वसत्त्वानुरक्ता तस्मात् सत्त्वार्थमेकं कुरु नृप मनसा भावनां निःस्वभाव()म् // 178 / / इन्द्रोऽहं स्वर्गलोके त्रिदशनरगुरुभूतले चक्रवर्ती पा[160b] ताले नागराजः फणिकुलनमितः सर्वगश्चोत्तमोऽहम् / ज्ञानं बुद्धो मुनीन्द्रोऽक्षरपरमविभुर्योगिनां वज्रयोगो वेदोऽङ्कारः पवित्रो व्रज मम शरणं सर्वभावेन राजन् // 179 // इति शरणनियमः। इदानीं* सूर्यरथस्य नमस्कार:त्वं माता त्वं पिता त्वं जगति गुरुरपि त्वं च बन्धुः सुमित्रं त्वं नाथस्त्वं विधाता हित(हि त्व)मघहरण त्वं पदं सम्पदां च / त्वं कैवल्यं पदं त्वं वरगुणनिलयो ध्वस्तदोषस्त्वमेव त्वं दोनानाथ चिन्तामणिरपि शरणं त्वां गतोऽहं जिनेन्द्र* // 180 // ___ इति श्रीमदादिबुद्धोद्धृते श्रीमहाकालचक्रे' 15 अध्यात्मनिर्णयो द्वितीयपटलः // 2 // इति सूर्यरथो गुरुनमस्कारेण मश्रियं भगवन्तं स्तुत्वा पादद्वयं शिरसि कृत्वा पुनः स्वकीयासने निषन्नः(ण्णः)। इति श्रीमूलतन्त्रानुसारिण्यां' लघुकालचक्रतन्त्रराजटीकायां द्वादशसाहसिकायां विमलप्रभायां 20 स्वपरदर्शनन्यायविचारमहोद्देशः सप्तमः // 7 // समाप्तेयं टोका अध्यात्मपटलस्येति // 2 // उपरिलिखितभोटांशस्य संस्कृतानुवादः__ "प्रमाणशास्त्रेषु माध्यमिकशास्त्रेषु वा निर्दिष्टैविस्तृतदूषणप्रकारैस्तैर्थिकाः दूषणीयाः / तैथिकेतरे ये संवृति वा परमार्थ वा अङ्गीकृत्य बुद्धवचनानुसारेणैव स्वपक्षं स्थापयन्ति, ते नैव दूषणीयाः" / १.क. श्रीमहाकालचकतन्त्रराजे / 2. क. द्वितीयः पटलः / / Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 272 विमलप्रभायां [अध्यात्म श्रीमत्तन्त्र प्रथमपटले भाजनीभूतलोकः स्पष्टोद्दिष्टाः] प्रभवलयसंस्थानमानादिभेदाः (दः)। तैस्तैस्तुल्या स्वतनुरतुला स्पष्टदृष्टार्थतत्त्वेईया कैश्चिद् यदिह पटले मुद्रया मुद्रितेव / / अध्यात्मनिर्णयकरं पटलं विले(लि)ख्य श्रीआवुकेन कुशलं यदिहाप्तमुच्चम् / तेनास्तु सेकसुखनिर्णयकल्पराजबोधिप्रतिष्ठितमतिः सकलोऽपि लोक:* // // // शुभम् // // *-*. 'इदानीं सूर्यरथस्य नमस्कारः' इत्यारभ्य 'त्वं माता त्वं पिते'त्यादिसम्पूर्णः श्लोकः प्रवर्तमानविषयसन्दर्भाद् बहिर्गत इव प्रतोयते, अथापि द्वितीयपटलस्य अन्तिमश्लोकत्वेन १८०तमसंख्यापूरकत्वेन पुस्तकेषु कथं गृहीत इति जिज्ञासासमाधानान्वेषणे आचार्यखेस-5 ब जे महाभागोऽपि बहिर्गतमेव स्वीकरोतीति ज्ञात्वाऽत्र तदुपन्यस्यते भोटभाषया; उक्तं हि तैः "De La Ye Ses Lehuhi Tshigs bCad Nis brGya Na bCu rTsa gis Pa Man Chad bCu Dan. Nan Lehi Tshigs bCad Tha Ma Te bCu gCig Pa De Ni Grags Pa Dan Ni Mahi Sin rTahi gSun Yin Gyi rТsa Bahi rGyud Las bTus Pa Ma Yin Pas". (Grel Chen Dri Med Hod Grel bSad, Kha' page 35). उपरिलिखितभोटांशस्य संस्कृतानुवाद: "तत्र ज्ञानपट लस्य द्विपञ्चाशदुत्तरद्विशततमकारिकातः समाप्तिपर्यन्तं दशकारिकाः, अध्यात्मपटलस्य अन्तिमा कारिका च, इमा एकादशकारिका यशसः सूर्यरथस्य वा वचनानि सन्ति, न तु ता मूलतन्त्राद् उद्धृताः" / 1. क. मूलतन्त्रा० / 2. क. समाप्तः / द्वितीयपटलस्य पुष्पिकानन्तरं 'श्रीमत्तन्त्रे प्रथमपटले' इत्यारम्य 'बोधिप्रतिष्ठितमतिः सकलोऽपि लोकः' इति पर्यन्तं श्लोकद्वयमन्यसंस्कृतप्रतिषु नोपलभ्यते, केवलं क. पुस्तके एव उपलभ्यते / मन्ये, लिपिकारेण स्वरचितं श्रद्धयाऽत्र निवेशितमिति / Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ LIST OF PUBLICATIONS CENTRAL INSTITUTE OF HIGHER TIBETAN STUDIES SARNATH, VARANASI 1987 by Aca 1. BIBLIOTHECA INDO-TIBETICA SERIES 1. Tibetan Reader by Tulku Dhondup Rs. 15.00 HB Rs, 10.00 PB 2. Abhisamayalankaravsttih Sphutartha by Acarya Haribhadra (Tibetan Text, Sanskrit restoration ) Rs. 85.00 HB Rs. 75.00 HB 3. Vajracchedika Prajnaparamtaisatra (in Sanskrit, Hindi and Tibetan) with Commentary of Acarya Asanga (Sanskrit text, Hindi Translation ) Rs. 60.00 HB Rs. 45.00 PB 4. The Biography of Eightyfour Saints by Acarya Abhayadattasri (Tibetan Text, Hindi translation ) Rs. 150.00 HB Rs. 130.00 PB 5. Vimalakirtinirdesasutra (Tibetan Text, Sanskrit restoration and Hindi Translation ) Rs. 200.00 6. Nyaya Pravesa of Dinnaga with Haribhadrasuri's Commentary ( in Tibetan and Sanskrit ) Rs. 140.00 HB Rs. 100.00 PB 7. Bodhipathapradipah of Acarya Dipankarasrijnana. (Tibetan Text, Hindi, Sanskrit, English translation ) Rs. 70.00 HB Rs. 50.00 PB 8. Sunyatasaptati of Nagarjuna with Auto-Commentary (Tibetan Text, Sanskrit restoration and Hindi translation ) Rs. 90.00 HB Rs. 65.00 PB 9. Bhavanakrama of Acarya Kamalasila (Tibetan text, Sanskrit restoration and Hindi translation ) Rs. 75.00 HB Por Rs. 55.00 PB Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. Bodhipathapradipah of Acarya Dipankarasrijnana and Bodhipathakramapindartha of Acarya TsongKha-pa (Hindi translation ) Rs. 1.71 11. Vimalaprabhatika of Kalki Sri Pundarika on Sri Laghukalacakratantraraja by Sri Manjusriyasa (Vol. 1) Rs.......... II. THE DALAI LAMA TIBETO-INDOLOGICAL SERIES 1. The Social Philosophy of Buddhism (in English) Rs. 2.00 2. Buddha Samaja Darsana (in Hindi ) Rs. 1,00 3. Pratityasamutpadastutisubhasitahrdayam of Acarya Tsonkhapa (Tibetan Text, Sanskrit, Hindi and English translation ) Rs. 60.00 HB Rs. 45.00 PB 4. Dhammapada (Pali text, Sanskrit, Hindi, English and Tibetan transalation ) Rs. 75.00 HB Rs. 55.00 PB 5. Bauddha Vijnanavada : Cintana Evam Yogadana Rs. 45.00 HB Rs. 35.00 PB 6. Vimsati, Bhota Upasarga Prakriya by K. Angrup Lahuli (Stanzas of main Text in Tibetan Rs. 55.00 HB and Auto-commentary in Hindi ) Rs. 45.00 PB 7. gTam-rGyud-gSer-Gye-Than-Ma of dGe-hDun-Chos-hPhel Rs. 26,00 HB Rs. 45.00 PB III. SAMYAG-VAK SERIES: 1. Pratityasamutpada (Collection of Essays ) Rs. 80.00 HB Rs. 65.00 PB 2. Madhyamika Dialectic and the Philosophy of Nagarjuna Collection of Essays ) Rs. 60.00 HB Rs. 45.00 PB Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (3). IV. PROF. LAL MANI JOSHI : COMMEMORIAL LECTURE SERIES : 1. Naihsreyasa Dharma Rs. 5.00 V. THE RARE BUDDHIST TEXTS SERIES : 1. Dhih (I): A Review of rare Buddhist text Rs. 65.00 RS........ 2. Dhih (II): A Review of rare Buddhist text Manjusri : an illustrated catalogue of rare thankas is also available. Rs. 160.00 All communications may please be addressed to : THE EDITOR Central Institute of Higher Tibetan Studies, Sarnath, Varanasi-221007 (INDIA) Page #319 -------------------------------------------------------------------------- _ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- _