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जयधवलासहितं
क सा य पा हु डं
भाग ५
(अणुभागविहची)
भारतीय दिगम्बर जैन संघ
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भा०दि जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य पञ्चमो दलः
श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणधराचार्यप्रणीतम् कसा य पा हु डं
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टाका
[पंचमोऽधिकारः अणुभागविहत्ती ]
पं० फूलचन्द्रः
सिद्धान्तशास्त्री सम्पादक महाबन्ध, सहसम्पादक
धवला
पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधान अध्यापक स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
. प्रकाशक मंत्री साहित्य विभाग भा० दि. जैन संघ, चौरासी मथुरा
वि० सं० २०१३ ]
वीरनिर्वाणाब्द २४८३
[ ई० सं० १९५६
मूल्यं रूप्यकद्वादशकम्
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भा० दि. जैनसंघ-ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमालाका उद्देश्य प्राकृत संस्कृत आदि में निबद्ध दि० जैनागम, दर्शन,
साहित्य, पुराण आदिका यथासम्भव हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन करना
ECEIOSe+
सञ्चालक
भा० दि० जनसंघ
ग्रन्थाङ्क १-५
प्रासिस्थान
मैनेजर भा० दि० जैन संघ
चौरासी, मथुरा
मुद्रक-शिवनारायण उपाध्याय, नया संसार प्रेस, बाराणसी।
स्थापनाब्द ]
प्रति ८००
[वी०नि० सं० २४६८
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Sri Dig. Jain Sangha Granthamala No. 1-V KASAYA-PĀHUDAM
V (ANUBHAG VIHATTI)
BY
GUNADHARACHARYA
WITH
CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHACHARYA
AND THE JAYADHAVALA COMMENTARY OF VIRASENACHARYA THERE-UPON
EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri,
EDITEOR MAHABANDHA
JOINT EDITOR DHAVALA, Pandit Kailashachandra Siddhantashastri
Nyayatirtha, Sidhantaratna,
Pradhanadhya pak, Syadvada Digambara Jain
Vidyalaya, Banaras,
PUBLISHED BY THE SECRETARY PUBLICATION DEPARTMENT. THE ALL-INDIA DIGMBAR JAIN SANGHA
CHAURASI, MATHURA.
VIRA-SAMVAT 2483] VIKRAMA S. 2013
[ 1956 A. C.
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Sri Dig. Jain Sangha Granthamala
Foundation year]
Vira Niravan Samvat 2468
Aim of the Series:Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya and other Works in Prakrit, Samskrit etc. Possibly with Hindi
Commentary and Translation.
DIRECTOR :
SBI BHARATAVARSIYA DIGAMBARA JAIN SANGHA
NO. 1. VOL. V.
To be had from :
THE MANAGER SRI DIG. JAIN SANGHA. CHAURASI, MATHURA,
U. P. (INDIA)
Printed by ---S. N. UPADHYAYA,
AT THE NAYA SANSAR PRESS, BANARAS.
800 Copies,
Price Rs. Twelve only
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प्रकाशक की ओरसे
कसायपाहुड़के पाँचवें भाग अनुभाग विभक्तिको एक वर्ष पश्चात् ही प्रकाशित करते हुए हमें हर्ष होना स्वाभाविक है। यह भाग भी डोंगरगढ़के उदारमना दानवीर सेठ भागचन्द्र जी के द्वारा दिये गये द्रव्यसे ही प्रकाशित हुआ है और आगेके भाग भी उन्हींके द्रव्यसे प्रकाशित हो रहे हैं इसके लिये सेठ जी व उनकी धर्मपत्नी सेठानी नर्वदाबाई जी दोनों धन्यवादके पात्र हैं।
सम्पादन आदिका भार पूर्ववत् पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री और हम दोनोंने वहन किया है । प्रेस सम्बन्धी सब झझंटोंको पं० फूलचन्द्रजी ने उठाया है। एतदर्थ मैं पंडितजीका भी आभारी हूँ।
काशीमें गङ्गा तट पर स्थित स्व. बाबू छेदीलाल जी के जिन मन्दिरके नीचे के भागमें जयधवला कार्यालय अपने जन्म कालसे ही स्थित है और यह स्व० बाबूसाहबके सुपुत्र बाबू गणेशदास जी और पौत्र बा० सालिगराम जी तथा बा० ऋषभचन्दजीके सौजन्य और धर्मप्रेमका परिचायक है, अत: मैं उनका भी आभारी हूँ।
नया संसार प्रेसके स्वामी पं० शिवनारायण जी उपाध्याय तथा उनके कर्मचारियोंने इस भागका मुद्रण बहुत शीघ्र करके दिया, एतदर्थ वे भी धन्यवादके पात्र हैं।
जयधवला कार्यालय )
भदैनी,काशी दीपावली-२४८३
कैलाशचन्द्र शास्त्री मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैनसंघ
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विषय-परिचय
प्रस्तुत अधिकारका नाम अनुभागविभक्ति है। अनुभाग फलदानशक्तिको कहते हैं। यह दो प्रकारका है-बन्धके समय जो अनुभाग प्राप्त होता है एक वह और बन्धके बाद द्वितीयादि समयोंमें जो अनुभाग रहता है एक वह । बन्धके समय प्राप्त होनेवाले अनुभागका विचार महाबन्धमें किया है। मात्र उसका यहाँ अधिकार नहीं है। यहाँ तो ऐसे अनुभागका विचार किया गया है जो सत्ताके रूपमें बन्ध समयसे लेकर अवस्थित रहता है। वह बन्धकालमें जितना प्राप्त हुआ है उतना भी हो सकता है और क्रियाविशेषके कारण अन्यप्रकार भी हो सकता है। मोहनीय कर्मको उत्तर प्रकृतियाँ अट्ठाईस हैं । एकबार उत्तर भेदोंका आश्रय लिए बिना और दूसरी बार इनका श्राश्रय लेकर प्रस्तुत अधिकारमें अनुभागका सांगोपांग विचार किया गया है, इसलिए इसका अनुभागविभक्ति नाम सार्थक है। तदनुसार इस अधिकारके दो भेद हैं-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति । उसमें भी चूर्णिकार प्राचार्य यतिवृषभने मूलप्रकृति अनुभागविभक्तिकी सूचनामात्र की है । वीरसेनस्वामीने उसका विशेष व्याख्यान उच्चारणावृत्तिके अनुसार तेईस अनुयोगद्वारोंका आलम्बन लेकर किया है। वे तेईस अनुयोगद्वार ये हैं-संज्ञा, सर्वानुभागविभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्टानुभागविभक्ति, अनुत्कृष्टानुभागविभक्ति, जघन्यानुभागविभक्ति, अजघन्यानुभागविभक्ति, सादिअनुभागविभक्ति, अनादिअनुभागविभक्ति, ध्रुवानुभागविभक्ति, अभ्र वानुभागविभक्ति, एक जीवको अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविच्य, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति एक है, इसलिए उसका विचार करते समय सन्निकर्ष अनुयोगद्वार सम्भव नहीं है ।
___ संज्ञा--धातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । जीवके अनुजीवी गुणोंका घात करनेवाला होनेसे मोहनीयकर्मकी घातिसंज्ञा है। उसमें भी यह दो प्रकारकी है--सर्वघाति और देशघाति । अपनेसे सम्बन्ध रखनेवाले जीवगुणका जो पूरी तरहसे घात करता है उसे सर्वघाति कहते हैं और जो पूरी तरहसे घात करने में समर्थ न होकर एकदेश घात करता है उसे देशवाति कहते हैं। यहाँ मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग सर्वघाति ही होता है, क्योंकि उसका उत्कृष्ट संक्निष्ट परिणामोंसे संज्ञी पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव बन्ध करता है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है. क्योंकि उसमें जघन्य अनुभाग भी सम्मिलित है। जघन्य अनुभाग देशघाति होता है. क्योंकि इसमें एकस्थानिक श्रनुभागकी उपलब्धि होती है और अजघन्य अनुभाग देशघाति और सर्वघाति दोनों प्रकारका होता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिकसे लेकर चतुःस्थानिक पर्यन्त चारों प्रकारका अनुभाग उपलब्ध होता है।
कुल अनुभाग चार प्रकारका होता है - एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । जहाँ केवल लतारूप अनुभाग होता है उसकी एकस्थानिक संज्ञा है। जहाँ लता और दारुरूप अनुभाग होता है उसकी विस्थानिक संज्ञा है । जहाँ लता, दारु और अस्थिरूप अनुभाग होता है उसकी त्रिस्थानिक संज्ञा है और जहाँ लता, दारु, अस्थि और शैलरूप अनुभाग होता है उसकी चतुःस्थानिक संज्ञा है। इस प्रकार स्थानसंज्ञाके चार भेद हैं। यहां इतना विशेष समझ लेना चाहिए कि उत्तर अनुभागमें पूर्व अनुभाग गर्भित मान कर भी ये द्विस्थानिक श्रादि संज्ञाएं व्यवहृत होती हैं। यद्यपि लता, दारु, अस्थि और शैल ये उपमाएँ मानकषायके लिए दी जाती हैं, क्योंकि उत्तरोत्तर इस प्रकारकी कठोरताका भाव उसमें सम्भव है फिर भी यहाँ अनुभागकी उत्तरोत्तर तीव्रताको देखकर ये संज्ञाएँ अारोपित की गई हैं। इनमेंसे लतारूप अनभाग और दारुरूप अनुभागका अनन्तवाँ भाग देशघाति माना गया है और शेष अनुभाग सर्वघाति माना गया है। मोहनीय कर्म चातियोंमें पठित है, इसलिए संज्ञाके ये भेद शेष घातिकर्मों में भी सम्भव
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( ७ ) हैं । श्रघाति कमोंमें स्थानसंज्ञाके चार भेद तो किये जाते हैं पर उनके नाम अपने अवान्तर भेदोंके साथ पुण्यकर्म और पापकर्मके भेदसे अन्य हैं ।
मोहनीय कर्मके कुल भेद अट्ठाईस हैं । उनकी अपेक्षा संज्ञाका विचार इस प्रकार है- सम्यक्त्व प्रकृतिके जितने देशघाति स्पर्धक हैं वे सब सम्भव हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम सर्वधाति स्पर्धकसे लेकर दारु समान स्पर्धकोंके अनन्तवें भागतक ही स्पर्धक उपलब्ध होते हैं । मिध्यात्वके जहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम स्पर्धक समाप्त होता है वहाँ से लेकर श्रागेके सब सर्वधाति स्पर्धक पाये जाते हैं। चार संज्वलनों को छोड़कर शेष बारह कषायोंके द्विस्थानिक सर्वधाति स्पर्धकसे लेकर श्रागेके सब स्पर्धक होते हैं । चार संज्वलन और नौ नोकपायोंके देशघाति और सर्वघाति सब स्पर्धक होते हैं । यहाँ मिथ्यात्वादि कर्मोंके अनुभागस्पर्धक यद्यपि श्रागे अन्ततकके कहे हैं फिर भी उनमें तारतम्य है जिसका विशेष ज्ञान महाबन्धके अल्पबहुत्वसे कर लेना चाहिए। इस प्रकार इन प्रकृतियोंकी स्पर्धक रचनाका परिज्ञान करके इनमें घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका ऊहापोह कर लेना चाहिए । खुलासा इस प्रकार है -- मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य चारों प्रकारका अनुभाग सर्वघाति ही होता है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग भी सर्वधाति होता है। यहां छह नोकषाथों atra और अनुस्कृष्ट अनुभाग भी चूर्णिसूत्रकारने विवक्षाभेदसे सर्वधाति स्वीकार किया है। शेष रहीं चार संज्वलन और तीन वेद ये सात प्रकृतियाँ सो इनका उत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति ही होता है, क्योंकि वह चतुःस्थानिक होता है । अनुत्कृष्ट अनुभाग सर्वधाति और देशघाति दोनों प्रकारका होता है, क्योंकि इसमें एकस्थानिक जघन्य श्रनुभाग भी सम्मिलित है। तथा इनका जघन्य अनुभाग देशघाति होता है, क्योंकि area में अपने अपने योग्य स्थानमें वह एकस्थानिक ही उपलब्ध होता है । तथा इनका अजघन्य अनुभाग सर्ववाति और देशवाति दोनों प्रकारका होता । कारणका विचार कर कथन कर लेना चाहिए। स्थान संज्ञाकी दृष्टिसे विचार करनेपर कहाँ किस स्थानरूप अनुभाग प्राप्त होता है इसका परिज्ञान कोष्ठकद्वारा कराया जाता है
प्रकृति
मिथ्यात्व, बारहकषाय छह नोकषाय
सम्यक्त्व
सम्यग्मिथ्यात्व
चार संज्वलन, पुरुषवेद
स्त्रीवेद, नपुंसक
वेद
उत्कृष्ट
चतुःस्था ०
द्विस्था०
द्विस्था०
चतुः
अनुत्कृष्ट
चतुः
चतुः,
त्रि०, द्वि०
द्वि०, एक०
द्विस्था०
च०, त्रि०, द्वि०,
एक०
च०,
एक०
त्रि, द्वि०,
जघन्य
द्विस्था०
एकस्था ०
द्विस्था ०
एकस्था०
द्वि०, त्रि०, चतुः
arat और नपुंसकवेदी जीवोंके स्वोदयसे क्षपक देखि पर चढ़ने पर अन्तिम निषेकके उदय समयमें एकस्थानिक जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए इन दोनों वेदोंका अजघन्य अनुभाग एकस्थानिक नही कहा है ।
एकस्था०
अजघन्य
द्वि०. त्रि०, च०,
एक०, द्वि०
द्विस्था०
एक०, द्वि०, त्रि०, चतुः
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सर्वविभक्ति-नोसर्बविभक्ति-सर्वविभक्तिमें सब अनुभाग और नोसर्वविभक्तिमें उससे कम अनुभाग विवक्षित है। मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे यह यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए।
उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टविभक्ति-- सर्वोत्कृष्ट अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका अनुभाग उस्कृष्टविभक्ति कहलाता है और उससे न्यून अनुभाग अनुत्कृष्ट विभक्ति कहा जाता है। यह भी अपने अपने अनुभागका विचार कर घटित कर लेना चाहिए ।
जघन्य-अजघन्यविभक्ति- सबसे जघन्य स्थानकी अन्तिम वर्गणाका अनुभाग या अन्तिम कृष्टिका अनभाग जघन्यविभक्ति है और इससे अधिक अनुभाग अजघन्यविभक्ति है जो मूल और उत्तर प्रकृतियों में यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए।
सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवविभक्ति-मूल प्रकृतिकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके होता है, अतः जघन्य अनुभाग सादि और अध्रुव कहा है। इसके पूर्व सब अनुभाग अजघन्यरूप रहता है, इसलिए अजघन्य अनुभाग अनादि तो है ही साथ ही वह भव्यकी अपेक्षा अध्र व और अभव्यकी अपेक्षा ध्र वरूप होनेसे सादिविकल्पके सिवा तीन प्रकारका कहा है। उत्कृष्ट अनभाग और अनत्कृष्टअनभाग कदाचित् होते हैं, इसलिये इनमें सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प बनते हैं। उत्तरप्रकृतियों की अपेक्षा विचार करनेपर चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका अजघन्य अनुभाग तो अनादि, ध्रव और अध्र वके भेदसे तीन प्रकारका है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग आपकोणिमें प्राप्त होनेसे अजवन्य अनभागमें सादि विकल्पके सिवा शेष तीन विकल्प बन जाते हैं। तथा इन १३ प्रकृतियोंका शेष तीन प्रकारका अनभाग और इनके सिवा शेष प्रकृतियोंका चारों प्रकारका अनुभाग कादाचित्क होनेसे सादि और अध्रुव है।
स्वामित्व-स्वामित्व दो प्रकारका है-उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामित्व और जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व । मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त जीव करता है, इसलिए वह तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामी है ही। साथ ही उसका घात हुए बिना ऐसे जीवके एकेन्द्रिय श्रादि अन्य पर्यायोंमें मरकर उत्पन्न होने पर एकेन्द्रिय अादि अन्य जीव भी मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिके स्वामी हैं। मात्र भोगभूमिके तिर्यञ्च और मनुष्य तथा श्रानतादिकके देव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिके स्वामी नहीं होते, क्योंकि एक तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंकी इनमें उत्पत्ति नहीं होती। दूसरे इन जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध नहीं होता। सामान्यसे मोहनीयका जघन्य अनभाग क्षपकश्रेणिमें प्राप्त होता है, इसलिए अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्पराय क्षपक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी है। मोहनीयके अवान्तर भेदोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनभाग, विभक्तिका स्वामी मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा जो स्वामित्व कहा है उसके ही समान है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका स्वामी उनकी सत्तावाले सब जीव हैं । मात्र दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका घात करनेके बाद उसका स्वामी नहीं है। तथा मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव होता है, क्योंकि मिथ्यात्वके अनुभागका बात होकर सबसे जघन्य अनुभाग इसीके शेष रहता है, और वह घात किये गये उक्त अनुभागके साथ अन्य एकेन्द्रियोंमें व द्वीन्द्रिय आदिमें उत्पन्न होकर जब तक उसे नहीं बढ़ाता है तब तक ये जीव भी मिथ्यात्वकी जघन्य अनभागविभक्तिके स्वामी होते हैं। देव, नारकी और असंख्यातवर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य जवन्य अनभागविभक्तिके स्वामी नहीं होते, क्योंकि इनमें सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवोंकी मरकर उत्पत्ति सम्भव नहीं है। इसी प्रकार मध्यकी अाठ कषायोंकी जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व जानना चाहिए। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करनेवाला अन्तिम समयवर्ती क्षपक जीव होता है। सम्यग्मिथ्यात्वको जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय अपने अन्तिम
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अनुभागकाण्डकका पतन करनेवाला जीव होता है । अनन्तानुबन्धीकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी विसंयोजनाके बाद उससे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें होता है । यद्यपि इस समय शेष कषायोंका अनुभाग अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रात होता है फिर भी वह उस समय बँधनेवाले अनुभागरूप परिणम जाता है, इसलिए वह अनुभाग सूचम निगोद अपर्याप्तके अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है। यही कारण है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका स्वामित्व सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीवको न देकर अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाके बाद पुनः संयोजना होनेवाले जीवको संयोजना होनेके प्रथम समयमें दिया है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और तीन वेदोंका जघन्य अनुभाग स्वोदयसे क्षपकणि पर चढ़े हुए जीवके अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें प्राप्त होता है, इसलिए उस उस अवस्था विशिष्ट जीव इनकी जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामी है तथा छह नोकपायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामी भी उनकी अन्तिम फालिका पतन करनेवाला क्षपक जीव होता है। यह स्वामित्वका विचार गति आदि मार्गणाओंका आश्रय लिए बिना किया है। गति आदि मार्गणाओंमें जहाँ श्रोधप्ररूपणा सम्भव है वहाँ श्रोधके समान जानना चाहिए । अन्यत्र अन्य विशेषताओंको जानकर घटित कर लेना चाहिए। उदाहरणार्थ नरकमें और देवों में असंजी जीव मरकर उत्पन्न होते हैं इसलिए वहाँ उत्पन्न हए हतसमुत्पत्तिक कर्भवाले ऐसे जीवके मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागविभक्तिका स्वामित्व कहा है। सम्यक्त्वको जघन्य अनभागविभक्तिका स्वामित्व पूर्ववत् है । सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य स्वामित्व वहाँ सम्भव नहीं, क्योंकि क्षपणाको छोड़कर अन्यत्र उसका अनभागकाण्डकघात नहीं होता । अनन्तानुबन्धीका जघन्य स्वामित्व भी पूर्ववत् है । अपनी अपनी विशेषताको जानकर इसीप्रकार अन्यत्र भी स्वामित्व घटित कर लेना चाहिए।
__काल-सामान्यसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इसके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध होनेके बाद उसका अन्तर्मुहूर्तमें नियमसे घात हो जाता है । इसके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि अनुभागके अनुत्कृष्ट होने पर बन्धद्वारा उसके उत्कृष्ट होनेमें कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि एकेन्द्रियोंमें उक्तकाल तक परिभ्रमण करने पर वहाँ उत्कृष्ट अनुभागकी प्राप्ति सम्भव नहीं है । इसी प्रकार मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नो नोकषायोंका काल पूर्वोक्त प्रकारसे घटित कर लेना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्ता होनेपर अन्तमुहूर्त कालके भीतर उनकी क्षपणा सम्भव है और उत्कृष्ट काल साधिक दो छयासठ सागर है, क्योंकि इतने काल तक इनकी सत्ता बनी रहने में कोई बाधा नहीं आती। यहाँ साधिकसे कितना काल लिया जाय इस विषयमें प्राचार्यों में मतभेद है । इसके लिए मूलप्रन्थ पृ० १८८ देखिए । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनकी क्षपणाके समय प्रथम काण्डक घातसे लेकर इनकी क्षपणामें इतना काल अवश्य लगता है। मोहनीयके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें इसकी प्राप्ति होती है । तथा इसके पहले वह अजघन्य होता है, इसलिए अजघन्य अनुभागको अभव्योंकी अपेक्षा अनादि-अनन्त और भव्योंकी अपेक्षा अनादि-सान्त इस तरह दो प्रकारका कहा है। उत्तर प्रकतियों की अपेक्षा मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मके अवस्थानका इतना काल है । इसके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाला जीव अजघन्य अनुभागको प्राप्त होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक इस अनुभागके साथ अवश्य ही रहता है। तथा उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है, क्योंकि अनभागबन्धाध्यवसान परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण बतलाए हैं । मिथ्यात्वके समान ही सम्यग्मिथ्यात्व, पाठ कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिए । मान
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सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यातवें भाग अधिक दो छयासठ सागरप्रमाण है । सम्यक्त्वके अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ठ काल भी सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। मात्र सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि इसकी क्षपणाके अन्तिम समयमें इसका जघन्य अनुभाग उपलब्ध होता है । इसी प्रकार अपने अपने स्वामित्वके अनुसार अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और तीन वेदोंके जघन्य अनुभागका काल एक समय घटित कर लेना चाहिए । इनमेंसे अनन्तानुबन्धीके अजघन्य अनुभागके अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि-सान्त ये तीन भङ्ग प्राप्त होते हैं। सादि-सान्तका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है। कारण स्पष्ठ है। चार संज्वलन, तीन वेद और छह नोकषायोंके अजघन्य अनुभागके दो भङ्ग होते हैं -अनादि-अनन्त और अनादि सान्त । तथा पाठ कषायोंके अजघन्य अनुभागका काल मिथ्यात्वके समान है। इस प्रकार यह सामान्यसे कालका विचार किया है। गति आदि मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर काल ले आना चाहिए।
अन्तर-सामान्यसे मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि उत्कृष्ठ अनुभागका घात होकर अन्तमुहूर्तमें पुनः उसकी प्राप्ति सम्भव है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल प्रमाण है, क्योंकि पञ्चेन्द्रियके एकेन्द्रियादि पर्यायमें इतने काल तक रहने पर उत्कृष्ट अनुभागका इतना अन्तर देखा जाता है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नौ नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है, क्योंकि घात द्वारा अनत्कृष्ट अनुभाग होकर कमसे कम अन्तर्मुहूर्त कालमें पुनः उसकी प्राप्ति सम्भव है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि कोई पञ्चेन्द्रिय उत्कृष्ट अनुभागका घात कर अधिक से अधिक इतने काल तक एकेन्द्रियों में परिभ्रमण करनेके बाद संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त होकर पुनः उसका बन्ध करता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कको छोड़ कर इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। अनन्तानबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागर प्रमाण है, क्योंकि इसकी विसंयोजना होकर इतने काल तक इसका प्रभाव रहता है। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण है, क्योंकि इनकी उद्वेलना होकर कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तन प्रमाण काल तक उनका अभाव देखा जाता है । इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर सम्भव नहीं है, क्योंकि उसकी प्राप्ति इनकी क्षपणाके समय होती है । सामान्यसे मोहनीयके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं होता, क्योंकि मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपक सूचमसाम्पराय के अन्तिम समयमें होता है, इसलिए इसका तो अन्तर हो ही नहीं सकता और इसके पहले अजघन्य अनुभाग रहता है, इसलिए उसका भी अन्तर सम्भव नहीं है। अलग अलग प्रकृतियोंकी अपेक्षा विचार करने पर सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन कषाय और नौ नोकषायोंके जघन्य अनुभागका तो अन्तर सम्भव नहींहै, क्योंकि क्षपणाके पूर्व इनकी सत्ता नियमसे बनी रहती है । हाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है, क्योंकि उद्वेलना होकर इनका उक्त काल तक अन्तर देखा जाता है। मिथ्यात्व और पाठ कषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है, क्योंकि जघन्य अनुभागकी सत्तावाला सूक्ष्म निगोद अपर्याप्त जीव अजघन्य अनुभागका बन्धकर अन्तर्मुहूर्तमें घात द्वारा पुनः उसे जघन्य कर सकता है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है, क्योंकि जघन्य अनुभागकी सत्तावाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव अजघन्य अनुभागका बन्धकर असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान परिणामोंमें उतने ही काल तक परिभ्रमण
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करके यदि अन्तमें जघन्य अनुभागको प्राप्त होता है तो इनके जघन्य अनुभागका उक्त कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर देखा जाता है । इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनके जवन्य अनुभागका जवन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त बतला आये है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्तप्रमाण है, क्योंकि इनके संयुक्त होनेके प्रथम समयसे लेकर पुनः विसंयोजनाकर संयुक्त होनेमें कमसे कम अन्तमुहूर्त काल लगता है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमोण है, क्योंकि जो अनादि मिथ्यादृष्टि जीव उपशम सम्यक्त्व पूर्वक इनकी विसंयोजना करके मिथ्यात्वमें जाकर इनसे संयुक्त होता है उसके पुनः उपार्धपुद्गल परिवर्तनमें कुछ काल शेष रहने पर इस क्रियाके करने पर उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण देखा जाता है। इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त प्रमाण और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम दो छयासठ सागरप्रमाण है, क्योंकि इन प्रकृतियोंका कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक कुछकम दो छियासठ सागर काल तक अभाव रहकर मिथ्यास्वके प्राप्त होनेपर द्वितीय समयमें पुनः इनका अजघन्य अनुभाग देखा जाता है। इसप्रकार यह सामान्यसे अन्तरका विचार किया है। गति आदिकी अपेक्षा अपने अपने स्वामित्वको देखकर अन्तर ले आना चाहिए।
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय-मोहनीयसामान्यको अपेक्षा कदाचित् एक भी जीव उत्कृष्ट अनुभागवाला नहीं होता, कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट अनुभागवाला होता है और कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं इसलिए उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा तीन भङ्ग होते हैं । यथा- कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं, २ कदाचित् बहुत जीव उस्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं और एक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त होता है तथा ३ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं
और नाना जीव उस्कृष्ट अनुभागसे युक्त होते हैं। किन्तु अनुस्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा इन तीन भङ्गोंसे विपरीत भङ्ग जानने चाहिए। यथा--१ कदाचित् सब जीव अनुस्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं, २ कदाचित् नाना जीव अनुत्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं और एक जीव अनुस्कृष्ट अनुभागसे रहित होता है तथा ३ कदाचित् बहुत जीव अनुस्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं और बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं । कारण स्पष्ट है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष मिथ्यात्व आदि छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार भङ्ग जानने चाहिए । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा १ कदाचित् सव जीव उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त होते हैं, २ कदाचित् नाना जीव उत्कृष्ट अनुभागसे युक्त होते हैं और एक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होता है तथा ३ कदाचित् नाना जीव उस्कृष्ट अनुभागसे युक्त होते हैं और नाना जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा १ कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं, २ कदाचित् नाना जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे युक्त होता है तथा ३ कदाचित् नाना जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं और नाना जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे युक्त होते हैं इस प्रकार ये तीन भङ्ग होते हैं। जघन्य अनुभागकी अपेक्षा मोहनीय सामान्यका विचार करने पर १ कदाचित् सब जीव जवन्य अनुभागले रहित होते हैं, २ कदाचित् नाना जीव जघन्य अनुभागसे रहित होते हैं और एक जीव जवन्य अनुभागसे युक्त होता है तथा ३ कदाचित् नाना जीव जघन्य अनुभागसे रहित होते हैं और नाना जीव जघन्य अनुभागसे युक्त होते हैं । अजघन्यकी अपेक्षा १ कदाचित् सब जीव अजघन्य अनुभागसे युक्त होते हैं। कदाचित् अनेक जीव अजघन्य अनुभागसे युक्त होते हैं और एक जीव अजघन्य अनुभागसे रहित होता है तथा ३ कदाचित् अनेक जीव अजघन्य अनुभागसे युक्त होते हैं और अनेक जीव अजघन्य अनुभागसे रहित होते हैं । उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा विचार करने पर मिथ्यात्व और पाठ कषायोंकी अपेक्षा तो जघन्य अनुभागवाले भी बहुत जीव होते हैं और अजघन्य अनुभागवाले भी बहुत जीव होते हैं। किन्तु शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग और अजघन्य अनुभागवालोंके मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा जो तीन तीन भङ्ग
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कहे हैं वे ही यहाँपर कहने चाहिए । इस प्रकार यह सामान्यसे विचार किया है। गति श्रादि मार्गणाओं में अपनी अपनी विशेषता व स्वामित्वको जानकर भङ्ग ले आना चाहिए।
भाग-मोह सामान्यका उत्कृष्ट अनभाग संज्ञी पञ्चन्द्रिय जीव करते हैं, इसलिए इनके और ये इस अनुभागके साथ अन्य एकेन्द्रियादिमें जाते हैं उनके मात्र उस्कृष्ट अनुभाग सम्भव है, अतः मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले सब जीवोंके अनन्त बहभाग प्रमाण होते हैं। मोहनीयकी छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका यही भागाभाग जानना चाहिए, क्योंकि स्वामित्वकी अपेक्षा मोहनीय सामान्यसे यहाँ कोई भेद नहीं है । मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले कुल जीव ही असंख्यात होते हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात एक भागप्रमाण होते हैं यह भागाभाग वटित होता है। कारण इनका अनुत्कृष्ट अनुभाग क्षपणाके समय ही सम्भव है, इसलिए वे संख्यात ही होते हैं। शेष असंख्यात जीव उत्कृष्ट अनुभागवाले होते हैं । जघन्य अनुभागकी अपेक्षा मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण होते हैं, क्योंकि मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपकणिमें प्राप्त होता है। और अजघन्य अनुभागवाले अनन्त बहुभागप्रमाण होते हैं। उत्तर प्रकृतियोंका विचार करने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका भागाभाग इसी प्रकार जानना चाहिए। तथा शेष प्रकृतियोंकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं । कारणका ज्ञान स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए । मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार स्वामित्वको देखकर भागाभाग ले आना चाहिए।
परिमाण-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अभुभागवाले जीव अनन्त हैं। छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा यही परिमाण जानना चाहिए। मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव संख्यात हैं । जघन्यको अपेक्षा मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्त हैं। चार संज्वलन और नौ नोकषायों की अपेक्षा इसी प्रकार परिमाण जानना चाहिए। मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी अपेक्षा जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले दोनों प्रकारके जीव अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले जीव संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जघन्य अनुभागवाले जीव असंख्यात हैं और अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्त हैं। कारणका ज्ञान स्वामित्वको देखकर कर लेना चाहिए। तथा भागाभागमें भी हम कारणका उल्लेख कर आये हैं, इसलिए वहाँसे जान लेना चाहिए । मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषताको जानकर परिमाण ले आना चाहिए।
त्र-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि ये स्वल्प होते हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाणसे अधिक नहीं हो सकता और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका सर्व लोक क्षेत्र है। कारण स्पष्ट है। उत्तर छब्बीस प्रकृतियोंकी अपेक्षा इनका इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागदालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि इनकी सत्ता जो सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिथ्यादृष्टि हो गये हैं, जो वर्तमानमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना होनेके पूर्व सम्यक्त्वको प्राप्त कर रहे हैं या जो उपशम तथा वेदकसम्यक्त्व सहित हैं उनके ही होती है। उसमें भी जिन्हें मिथ्यादृष्टि हुए पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक काल नहीं हुआ है उनके ही उनकी सत्ता होती है। मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य
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( १३ ) अनुभागविभक्तिवालोंका क्षेत्र सर्व लोक है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार क्षेत्र जानना चाहिए। मिध्यात्व और पाठ कषायवालोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका सर्व लोक क्षेत्र है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्यिथ्यात्ववालोंमें जघन्य और अजघन्य दोनों अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सर्वत्र कारण स्पष्ट है। मार्गणाओं में भी इसी प्रकार क्षेत्र ले आना चाहिए।
स्पर्शन--मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंने वर्तमानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागका, विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा सनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकम आठ भागका और मारणान्तिक तथा उपपादपदकी अपेक्षा सर्वलोकका स्पर्शन किया है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है । मोहनीयकी छब्बीस उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्पर्शन जानना चा और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका भी मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंके समान स्पर्शन बन जाता है पर अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण हो प्राप्त होता है, क्योंकि क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय ही यह अनुभाग सम्भव है। जयन्यकी अपेक्षा मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपकणिमें होता है, इसलिए उससे युक्त जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है और अजघन्य अनुभागवालोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है, क्योंकि ये सर्व लोकमें पाये जाते हैं। चार संज्वलन और नौ नोकषायोंकी अपेक्षा इसी प्रकार स्पर्शन है । कारण पूर्वोक्त ही है। मिथ्यात्व और पाठ कषायोंके जवन्य और अजघन्य अनुभागवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। कारण सुगम है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है, क्योंकि क्षायिकसम्यग्दर्शनकी प्राप्तिके समय यह अनुभाग होता है। इनके अजघन्य अनुभागवालोंने वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागका, विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछकम आठ भागका तथा मारणान्तिक और उपपादपदकी अपेक्षा सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागवालोंने वर्तमान कालको अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागका और विहारवत्स्वस्थानको अपेक्षा सनालीके चौदह भागों में से कुछकम पाठ भागका स्पर्शन किया है। तथा अजघन्य अनुभागवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषताको जानकर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
काल - मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि नाना जीव अन्तमुहूर्त काल तक उत्कृष्ट अनुभागके साथ रहें और उसके बाद अन्तर पड़ जाय यह सम्भब है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर यदि नाना जीव उत्कृष्ट अनुभागको प्रात होते रहे तो इतने काल तक ही वे उत्कृष्ट अनुभागको प्राप्त होते हैं। उसके बाद उत्कृष्ट अनुभागवालोंका नियमसे
र हो जाता है। मोहनीयके अनत्क्रष्ट अनभागवालोंका सर्वदा काल है यह स्पष्ट ही है। मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका भी यही काल जानना चाहिए । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका सर्वदा काल है, क्योंकि ये जीव सर्वदा पाये जाते हैं। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका अन्तमुहर्त काल है, क्योंकि अनुत्कृष्ट अनुभागकी प्राप्ति क्षायिक सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय ही सम्भव है । मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि यह सम्भव है कि नाना जीव एक साथ आपकणिमें इसके जघन्य अनुभागको प्राप्त हों और बादमें अन्तर पड़ जाय तथा उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि लगातार नाना जीव यदि मोहनीयके जघन्य अनुभागको प्राप्त होते हैं तो संख्यात समय तक ही प्राप्त हो सकते हैं। कारण स्पष्ट है। मोहनीयके अजघन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन वेदोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका इसी प्रकार काल ले आना चाहिए। मिथ्यात्व और पाठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उक्त
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अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इसके अन्तिम काण्डकके पतनमें अन्तर्मुहूर्त काल लगता है और अजघन्य अनुभागवालोंका सर्वदा काल है, क्योंकि इसके इस अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। छह नोकषायोंके जवन्य और अजवन्य अनुभागवालोंका काल सम्यग्मिथ्यात्वके समान ही है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि इनकी संयोजनाके प्रथम समयमें ही इनका जवन्य अनुभाग प्राप्त होता है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि निरन्तर यदि नाना जीव इनके जवन्य अनुभागको प्राप्त होते हैं तो इतने काल तक ही प्राप्त होते हैं । तथा इनके अजवन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है । नाना जीवोंकी अपेक्षा मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार काल अपने अपने स्वामित्वके अनुसार घटित कर लेना चाहिए।
अन्तर-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि नाना जीवोंकी अपेक्षा एक समयके अन्तरसे उत्कृष्ट अनुभागकी प्राति सम्भव है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है. क्योंकि कोई भी जीव इतने काल तक उत्कृष्ट अनुभागको न प्राप्त हो यह सम्भव है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल नहीं है, क्योंकि इस अनुभागके साथ जीव सदा उपलब्ध होते रहते हैं। मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीवोंका इसी प्रकार अन्तरकाल जानना चाहिए। किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं उपलब्ध होता. क्योंकि इन प्रकृतियोंकी क्षपणाके सिवा अन्यत्र इनका उत्कृष्ट अनुभाग ही उपलब्ध होता है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, क्योंकि इनकी कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकले अधिक छह महीनाके अन्तरसे क्षपणा सम्भव है । जघन्यकी अपेक्षा मोहनीयके जवन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महोना है, क्योंकि कमसे कम एक समयके अन्तरसे और अधिकसे अधिक छह महीनाके अन्तरसे आपकोणिकी प्राप्ति सम्भव है। मोहनीयके अजघन्य अनुभागवालोंका अन्तर नहीं होता, क्योंकि अजघन्य अनुभागवाले जीव सदा पाये जाते हैं । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, लोभसंज्वलन
और छह नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभानवालोंका इसी प्रकार अन्तर काल जानना चाहिए। मिथ्यात्व और आठ कपायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि इनके दोनों प्रकारके अनुभागवाले जीव सदा उपलब्ध होते रहते हैं । अनन्तानुवन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि जिन्होंने अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना की है ऐसे नाना जीव एक समयके अन्तरसे उससे पुनः संयुक्त हों यह सम्भव है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके कारणभूत परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं, इसलिए यह सम्भव है कि जिस परिणामसे जघन्य अनुभाग प्राप्त होता है वह इतने काल बाद होवे । अनन्तानुबन्धीके अजधन्य अनुभागवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि इसके अजघन्य अनुभागवाले जीव सदा पाये जाते हैं । स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, क्योंकि इन वेदवाले जीवोंका एक समयके अन्तरसे भी आपकोणि पर आरोहण करना सम्भव है और वर्षपृथक्त्वके अन्तरसे भी क्षपकोणी पर प्रारोहण करना सम्भव है। इनके अजघन्य अनुभागवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है। कारण स्पष्ट है। तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जवन्य अनुभागवाले जीवोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके उदयसे एक समयके अन्तरसे भी जीव क्षपकश्रोणि पर प्रारोहण कर सकते हैं और अधिकसे अधिक साधिक एक वर्षके अन्तरसे श्रारोहण करते हैं। इनके अजघन्य अनुभागवाले जीवोंका अन्तरकाल नहीं है यह स्पष्ट ही है। गति अादि मार्गणाओंमें अपने अपने स्वामित्वको जानकर यह अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए।
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(१५) भाव-मोहनीय सामान्य और उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका सर्वत्र औदायिक भाव है, क्योंकि मोहनीय कर्मके उदयमें ही इनका बन्ध आदि सम्भव है। यद्यपि उपशान्तमोहमें मोहनीयके उदयके बिना भी इनका सस्व देखा जाता है पर वहां पर नवीन बन्ध होकर इनकी सत्ता नहीं होती, इसलिए सर्वत्र औदयिकभाव कहनेमें कोई दोष नहीं है।
सन्निकर्ष-मोहनीयसामान्यकी अपेक्षा सन्निकर्ष सम्भव नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा जो मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागवाला जीव है उसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व होता.भी है और नहीं भी होता, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टिके और जिसने इनकी उद्वेलना कर दी है उसके इनका सत्त्व नहीं होता, अन्यके होता है। यदि सत्त्व होता है तो नियमसे इनके उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्ववाला होता है, क्योंकि यह ससिकर्ष मिथ्यादृष्टिके ही सम्भव है और मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका मात्र उत्कृष्ट अनुभाग होता है। मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवके सोलह कषाय और नौ नोकषायोंका नियमसे सत्व होता है। किन्तु उसके इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छह हानियोंमेंसे किसी एक हानिको लिए हुए होता है । कारण स्पष्ट है । सोलह कषाय और नौ नोकषायोंमेंसे एक एकको मुख्यकर इसीप्रकार सन्निकर्ष घटित कर लेना चाहिए। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है। मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है हो वह छह प्रकारकी हानिको लिए हुए होता है। इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका सस्व होता भी है और नहीं भी होता है । यदि सत्त्व होता है तो उत्कृष्ट अनुभाग भी होता है और अनुत्कृष्ट अनुभाग भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है तो वह छह प्रकारकी हानिको लिए हुए होता है। सम्यग्मिथ्यात्वको मुख्यकर सम्यक्त्वके समान ही सन्निकर्ष जानना चाहिए। मात्र सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालेके सम्यक्त्वका सत्व होनेका कोई नियम नहीं है। कारण कि सम्यक्त्वकी उद्वेलना सम्यग्मिथ्यात्वसे पहले हो जाती है। पर यदि उद्वेलना नहीं हुई है तो नियमसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभाग ही पाया जाता है।
मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागवालेके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्व होता भी है और नहीं भी होता । यदि सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तमें उत्पन्न होकर सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्वात्वकी उद्वेलनाके पूर्व मिथ्यात्वके जवन्य अनुभागको प्राप्त होता है तो उनका सत्त्व होता है अन्यथा नहीं होता। यदि सत्व होता है तो नियमसे अजवन्य अनुभागका ही सत्त्व होता है जो अपने जघन्यसे अनन्तगुणा अधिक होता है। इसके अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नौ नोकषायोंका नियमसे सत्व होता है जो अजघन्य अनन्तगुणा अधिक होता है। कारण कि इनका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तके सम्भव नहीं है । अाठ कषायोंका सत्व होता है जो जघन्य भी होता है
और अजवन्य भी होता है। यदि अजवन्य होता है तो नियमसे छह वृद्धियोंको लिए हए होता है। मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जवन्य अनुभागका स्वामी एक है, इसलिए यहाँ ऐसा सम्भव है। श्राठ कषायों से प्रत्येक कषायको मुख्यकर सन्निकर्षका कथन मिथ्यात्वके समान ही करना चाहिए । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागवालेके बारह कषाय और नौ नोकषायोंका अपने सत्त्वके साथ अजघन्य अनुभाग होता है जो अपने जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणा अधिक होता है। इसके अन्य प्रकृतियोंका सत्त्व नहीं होता, क्योंकि सम्यक्त्वकी क्षपणाके अन्तिम समयमें उसका जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए उसके उक्त इक्कीस प्रकृतियोंका ही सत्त्व पाया जाता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि इसके सम्यक्त्वका भी सत्व होता है जो सम्यक्त्वका सत्त्व अजघन्य अनन्तगुणे अनुभागको लिए हुए होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागवालेके
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( १६ ) मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय नियमसे अजवन्य अनन्तगुणे अनुभागवाले होते हैं, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी संयोजनाके समय इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग सम्भव नहीं है । इसके अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका सत्व तो अवश्य होता है पर उनका अनुभाग उस समय जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है क्योंकि संयोजनाके प्रथम समयमें जिस प्रकृतिके जवन्य अनुभागके योग्य परिणाम होते हैं उसका जवन्य अनुभाग होता है और शेषका अजघन्य अनुभाग होता है। यदि उस समय इन तीनका अजघन्य अनुभाग होता है तो वह छह वृद्धियोंको लिए हुए होता है। जिस प्रकार अनन्तानुबन्धी क्रोधके जघन्य अनुभागकी मुख्यतासे सन्निकर्ष कहा है उसी प्रकार अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभके जघन्य अनुभागकी मुख्यतासे भी सन्निकर्ष कहना चाहिए। क्रोध संज्वलनके जघन्य अनुभागवालेके तीन संज्वलन कषायोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है, क्योंकि आपणाके समय जब संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभाग होता है उस समय अन्य तीन संज्वलन प्रकृतियां अजघन्य अनुभागवाली होती हैं। संज्वलन मानके जघन्य अनुभागवालेके संज्वलन माया और लोभका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है, क्योंकि इनकी क्षपणा संज्वलन मानके बाद होती है । संज्वलन मायाके जघन्य अनुभागवालेके संज्वलन लोभका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। यहां संज्वलन क्रोध आदि के जघन्य अनुभागके समय अन्य प्रकृतियां नहीं होती, इसलिए उनका सन्निकर्ष नहीं कहा है। संज्वलन लोभके जवन्य अनुभागवालेके एक भी प्रकृतिकी सत्ता नहीं होती, इसलिए यहाँ अन्य प्रकृतियोंके साथ सन्निकर्षका अभाव है। स्त्रीवेदवालेके चार संज्वलन और सात नोकषायोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी मुख्यतासे सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदके जघन्य अनुभागवालेके चार संज्वलनोंका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागवालेके पुरुषवेद और चार संज्वलनका अजघन्य अनन्तगुणा अनुभाग होता है। किन्तु उस समय छह नोकषायोंका परस्पर नियमसे जघन्य अनुभाग होता है। यहां स्त्रीवेद आदि के जघन्य अनुभागवालेके जिन प्रकृतियोंका सत्व होता है उन्हींका सन्निकर्ष कहा है, शेषका सत्त्व नहीं होता, क्योंकि उनकी पूर्वमें ही क्षपणा हो जाती है ।
अल्पबहुत्व-मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव अनन्तगुणे हैं । इसी प्रकार मोहनीयके जघन्य अनुभागवाले जीव सबसे थोड़े हैं तथा इनसे अजघन्य अनुभागवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षा चूर्णिकारने जीव अल्पबहुत्वका निर्देश न करके स्थिति अल्पबहुत्वका निर्देश किया है । उच्चारणाकी अपेक्षा भी वीरसेन स्वामीने चूर्णिसूत्रके अनुसार जानने की सूचना की है। यहां इतना निर्देश कर देना श्रावश्यक प्रतीत होता है कि उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा अल्पबहत्व कहते समय चूर्णिकारने यह सूचना की है कि जिस प्रकार बन्धमें प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका अल्पबहुत्व है उसी प्रकार जानना चाहिए । तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व ये दोनों बन्ध प्रकृतियां न होनेसे इनके उत्कृष्ट अनुभागका पूर्व अनुभागके अल्पबहुत्वसे तारतम्य बिठलाते हुए स्वतन्त्ररूपसे अन्तमें अल्पबहुत्व कहा है ।।
भुजगारविभक्ति
भुजगारविभक्तिके चार पद हैं-भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य । पिछले समयमें जितना अनुभाग हो उससे वर्तमान समयमें अधिक अनुभागका होना भुजगार अनुभाग विभक्ति है। पिछले समयमें जितना अनुभाग हो उससे वर्तमान समयमें हीन अनुभागका होना अल्पतर अनुभागविभक्ति है । पिछले समयमें जितना अनुभाग हो, वर्तमान समयमें उतना ही अनुभागका होना अवस्थित विभक्ति है। और सत्ता प्राप्त होनेके प्रथम समयमें जो अनुभाग प्राप्त हो उसका नाम श्रवक्तव्य अनुभाग
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( १७ ) विभक्ति है। यहाँ इस अनुयोगद्वारका समुत्कीर्तना, स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन तेरह अधिकारोंके द्वारा प्रतिपादन किया गया है। इन सब अधिकारोंकी जानकारीके लिए तो मूल ग्रन्थके स्वाध्यायकी आवश्यकता है। मात्र यहाँ इतना निर्देश कर देना उचित प्रतीत होता है कि मोहनीय सामान्यकी अपेक्षा भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन ही पद होते हैं, प्रवक्तव्यपद नहीं होता, क्योंकि जिसने मोहनीय कर्मका नाश कर लिया है उसके पुनः उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। उत्तर प्रकृतियोंकी अपेक्षा मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंके भी मोहनीय सामान्यके समान तीन ही पद होते हैं । कारण पूर्वोक्त ही है। सम्यक्त्व. और सम्यग्मिथ्यात्वके अल्पतर. अवस्थित और प्रवक्तव्य ये तीन पद होते हैं। इनके
रम्भके दो पद होते हैं यह तो स्पष्ट ही है। तथा इनकी एक तो प्रथमबार सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय सत्ता होती है। दूसरे उद्वेलना होकर पुनः सम्यक्त्वकी प्राप्तिके समय सत्ता प्राप्त होती है इसलिए इनका अवक्तव्यपद भी बन जाता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भुजगारपद न होनेका कारण यह है कि सत्तासे इनका उत्कृष्ट अनुभाग ही प्राप्त होता है, इसलिए उसमें वृद्धि सम्भव नहीं है । अनन्तानुबन्धीके चार पद होते हैं । प्रवक्तव्यपद होनेका कारण यह है कि इसकी विसंयोजना होकर पुनः संयोजना हो सकती है।
Timrittirit
u iriesnainassa..'
पदनिक्षेप पदनिक्षेपमें भुजगारविभक्तिके अवान्तर भेदोंका विशेष रूपसे विचार किया जाता है। यथा-जो भुजगारविभक्ति होती है वह उत्कृष्ट वृद्धिरूप होती है या जघन्य वृद्धिरूप होती है। जो अल्पतरविभक्ति होती है वह उत्कृष्ट हानिरूप होती है या जघन्य हानिरूप होती है । तथा इन उत्कृष्ट वृद्धि प्रादिके बाद जो अवस्थान होता है वह भी उत्कृष्ट और जघन्यके भेदसे दो प्रकारका होता है। यदि उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानिके बाद अवस्थान होता है तो वह उस्कृष्ट अवस्थान कहलाता है और जघन्य वृद्धि और जघन्य हानिके बाद अवस्थान होता है तो वह जघन्य अवस्थान कहलाता है। इसके तीन अनुयोगद्वार हैं-समुस्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनाको अपेक्षा मोहनीय सामान्यकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और अवस्थानपद होते हैं। तथा जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और श्रवस्थान ये तीन पद भी होते है। इसी प्रकार मोहनीयकी अवान्तर प्रकृतियोंमें भी जान लेना चाहिए । मात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें भुजगारविभक्ति सम्भव न होनेसे यहाँ इनकी उत्कृष्ट वृद्धि और जघन्य वृद्धिका निर्देश नहीं किया है। अर्थात् इन दोनों प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि, जघन्य हानि और इनके अवस्थान ये पद ही होते हैं । यद्यपि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्यपद भी होता है पर इसका निर्देश भुजगार विभक्तिमें कर आये हैं। यहाँ इस पदकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं पाती है, पदनिक्षेपमें इसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। स्वामित्व और अल्पबहुत्वका विचार मूल ग्रन्थको
ना चाहिए। यहाँ काल आदि अन्य अनयोगदारोंका पाश्रय लेकर विचार नहीं किया गया है। मालूम पड़ता है कि पदनिशेषके कथनकी तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर ही प्रवृत्ति रही है, अतः काल आदिका श्राश्रय लेकर प्ररूपणा नहीं की गई है।
वृदि
पदनिक्षेपमें जो उत्कृष्ट वृद्धि प्रादिका और उत्कृष्ट हानि आदिका निर्देश किया है वे कितने प्रकारको होती हैं इत्यादिका श्राश्रय लेकर यह अनुयोगद्वार प्रवृत्त होता है, इसलिए इस अनुयोगद्वारमें छह वृद्धि, बह हानि और अवस्थानका विचार किया जाता है । अनुभाग जघन्य भी और उत्कृष्ट भी अनन्त अविभागप्रतिच्छेदोंको लिए हुए होता है, इसलिए इसमें सभी वृद्धियाँ और सभी हानियाँ सम्भव हैं। तथा उनके
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( १८ ) बाद अवस्थान भी सम्भव है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इसके तेरह अनुयोगद्वार हैं । नाम वे ही हैं जिनका निर्देश भुजगारविभक्तिके समय कर आये हैं। उनमेंसे समुत्कीर्तनाकी अपेक्षा मोहनीय सामान्यकी छह वृद्धियाँ, छह हानियाँ और अवस्थान ये पद होते हैं। इसीप्रकार छब्बीस उत्तरप्रकृतियोंकी अपेक्षासे भी जानना चाहिए । मात्र यहाँ अनन्तानुबन्धीचतुष्कका प्रवक्तब्य पद भी जानना चाहिए। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनन्तगुणहानि, अवस्थान और प्रवक्तव्य ये तीन पद ही जानने चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय ही हानि होती है। वह भी केवल अनन्तगुणहानिरूप ही होती है, इसलिए इसकी हानि एक प्रकारकी ही बतलाई है। शेष अनुयोगद्वारोंका विचार मूलको देखकर कर लेना चाहिए।
स्थानमरूपणा कर्मके अनुभागका विचार अविभागप्रतिच्छेद, वर्ग, वर्गणा, स्पर्धक और स्थान इन पाँच विशेषताओंके साथ किया जाता है। इन पाँचों विशेषताओंकी चरचा मूलमें पृष्ठ ३४१ के विशेषार्थमें की गई है, इसलिए इसे वहांसे जान लेनी चाहिए। यहां मुख्यरूपसे जो विचार करना है वह यह है कि अलग अलग कर्मोंकी अलग अलग फलदानशक्ति और एक ही कर्मकी हीनाधिक फलदानशक्ति क्यों होती है। एक उदाहरण यह दिया जाता है कि जिस प्रकार एक ही प्रकारका भोजन पाककालमें अनेक प्रकारके रस मज्जा श्रादि धातु उपघातु रूपसे परिणमन करता है उसीप्रकार कर्मका बन्ध होने पर वह भी पाककालमें अनेक प्रकारके फलोंको जन्म देता है। पर इस समाधानसे मूल बात पर बहुत ही कम प्रकाश पढ़ता है, क्योंकि कर्मका बन्ध होने पर उसमें जो स्थिति और अनुभाग प्राप्त होता है उसोके अनुसार उसका पाक (फल) देखा जाता है। वन्धके बाद उसमें अन्य पाचनक्रिया नहीं होती। यह कहा जा सकता है कि बन्धके बाद भी उसमें संक्रमण, उत्कर्षण व अपकर्षण क्रिया होती ही है, इसलिए बन्धके बाद अन्य पाचनक्रिया नहीं होती यह मानना ठीक नहीं है । पर इस प्रश्नका समाधान यह है कि यह संक्रमण प्रादिरूप क्रिया भी बन्धका ही एक भेद है। जिस प्रकार कषाय आदि परिणामोंसे नवीन कर्मका बन्ध होता है उसी प्रकार वे परिणाम बंधे हुए कर्ममें भी अपनी जातिके भीतर परिवर्तन, रसोत्कर्ष व रसहानि करते हैं । उसे कर्मका पाक नहीं कहा जा सकता । पाक शब्दका प्रयोग दो अर्थों में होता है-एक
आत्मसात करने अर्थमें और दूसरा भोग अर्थमें। भोजनको ग्रहण करते समय उसका सात्मीकरण नहीं होता । उसके उदरस्थ होने पर ही पाचन क्रिया व्यापारके द्वारा सात्मीकरण होता है। किन्तु कर्मके विषयमें ऐसी बात नहीं है। उसे जिस समय जीव ग्रहण करता है उसी समय सात्मीकरण हो जाता है। यह सम्भव है कि जिस रूपमें उसे ग्रहण किया है उसी रूपमें वह फल दे। यह बात अन्य है कि एक बार सात्मीकरण हो जानेके बाद भी जीव कालान्तरमें नवीन कर्मके समान पुनः पुनः उसका सात्मीकरण करता रहता है। जीवके द्वारा की गई इस क्रियाका नाम ही संक्रमण और उत्कर्षण आदि है। इसलिए हमें यह जानना श्रावश्यक है कि कर्ममें यह विविध प्रकारकी फलदानशक्ति क्यों और किस प्रकार उत्पन्न होती है ? यह तो प्रत्येक विचारक जानता है कि जीव श्रमूर्तिक है और कर्म मूर्तिक । अमूर्तिक और मूर्तिकका बन्ध नहीं होना चाहिए, क्योंकि दो द्रव्योंके परस्पर अनुप्रविष्ट होकर स्पर्श विशेषका नाम बन्ध है, अतः बन्ध उन्हीं दो द्रव्योंका हो सकता है जिनमें स्पर्शगुण हो । आत्मामें स्पर्शगुण तो होता नहीं फिर उसका कर्मके साथ बन्ध कैसा ? प्रश्न मार्मिक है। शास्त्रकारोंने इस प्रश्नका यह समाधान किया है कि जीव अनादिसे कर्मबद्ध है। कर्मको वह अपने परिणामोंसे ही ग्रहण करता है, इसलिए दोनों मिलकर एकक्षेत्रागाही हो कर रहते हैं और दोनोंकी क्रिया प्रतिक्रियाका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है। तथा इस क्रिया प्रतिक्कियाके अनुसार प्रति समय नये नये कारणकूट मिलते रहते हैं । जहां तक हलन चलन रूप क्रियाका सम्बन्ध है वहां
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तक उस द्वारा नये नये कर्मोका ग्रहण होता है। हमारे सामने यह प्रश्न बहुत दिनसे था कि योग क्रिया द्वारा कर्मका ग्रहण हो यह तो ठीक है पर उसका ज्ञानावरणादि रूपसे विभाजन होकर क्यों ग्रहण होता है, क्योंकि यह कर्म ज्ञानका प्रावरण करे और यह दर्शनका आवरण करे यह विभाग योग क्रियासे सम्भव नहीं हो सकता है। यदि इसे भी कषायका कार्य माना जाय तो प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्धका कारण योग है इस अागम वचनमें बाधा आती है। किन्तु हमारे इस प्रश्नका समाधान धवला वर्गणाखण्डसे हो जाता है। वहां वर्गणाओंका विशेषरूपसे ऊहापोह किया गया है । इस सम्बन्धमें वहां लिखा है कि प्रत्येक कर्मकी वर्गणाऐं ही अलग अलग हैं। प्रारम्भमें जो भी इस बातको सुनेगा उसे आश्चर्य अवश्य होगा पर समीचीन बात यही प्रतीत होती है । कारण कि जिसप्रकार हम अलग अलग पुद्गल स्कन्धोंमें अलग अलग प्रकारके कार्य करनेकी क्षमता देखते हैं। कोई पुद्गल स्कन्ध मारक होता है, कोई पुद्गल स्कन्ध मादकता उत्पन्न करता है और कोई पुद्गलस्कन्ध संजीवनीका कार्य करता है। यह उस पुद्गलस्कन्धके अमुक प्रकारके स्पर्श रस प्रादि युक्त हो कर बन्धनविशेषका ही कार्य होता है। इसी प्रकार कर्मवर्गणाऐं भी अपने अपने बन्धन विशेषके कारण ऐसी बनती हैं जिनमें से कोई बन्ध होने पर प्रावरणका कार्य करने में सहायक होती हैं, कोई मोहनका कार्य करनेमें सहायक होती हैं और कोई सुख-दुखका वेदन कराने में सहायक होती हैं । जीवके कषाय आदि परिणामोंका यह कार्य नहीं कि कौन वर्गणाएँ उससे सम्बद्ध हो कर किस प्रकारका कार्य करें। वर्गणाएँ नियत हैं और वे सम्बद्ध हो कर नियत कार्य ही करती हैं। यहां नियत कार्यसे तात्पर्य कार्य सामान्यसे है। यही कारण है कि बद्ध कर्ममें ज्ञानावरणका दर्शनावरण आदि रूपसे और दर्शनावरणका ज्ञानावरण अादिरूपसे संक्रमण नहीं हो सकता । आत्माके रागादि परिणामोंका कार्य इससे आगेका है। आत्माके रागादि परिणाम क्या कार्य करते हैं इसके लिए यह दृष्टान्त उपयुक्त होगा। मान लीजिए किसीको प्रातिसवाजीके निर्माण करनेका ज्ञान है, अतः वह उसकी सामग्रीको प्रास कर किसीसे फुलझड़ी बनाता है और किसीसे अन्य खेलकी सामग्री तैयार करता है। विस्फोट करनेके स्वभाव वाली एक प्रकारकी इस सामग्रीसे वह अपने परिणामोंके अनुसार उसका तदनुरूप विविध प्रकारके कार्य रूपसे निर्माण करता है उसी प्रकार जब जीव योगक्रिया द्वारा कोको ग्रहण करता है तब उनका परिणाम विशेषके कारण स्पर्शके तारतम्य और विशिष्ट प्रकारके आकार को लिए हुए उसी प्रकारका बन्धन होता है जिससे उस बन्धनके अलग होते समय अपनी विस्फोट क्रिया (उदय) द्वारा वह प्रात्मामें उन संस्कारोंको उबुद्ध करता है जिन कार्योंके करनेसे उसके कर्ममें वैसे संस्कार पड़े थे। उदाहरणार्थ एक श्रादमीने किसी दूसरे आदमी की हत्या की, इसलिए हत्या करनेवालेके उस समय मोहनीय कर्मके उपयुक्त वर्गणाओंका ऐसा बन्धनविशेष होगा जो यदि तदनुरूप बना रहा । अर्थात् अपनी जातिके भीतर अन्य कार्यरूपसे नहीं बदला तो अपने वियोगके समय उन संस्कारोंको उबुद्ध करता है जिससे वह भी दूसरेके द्वारा हननक्रियाका पात्र होता है। प्रश्न यह है कि उसने हननक्रिया विवक्षित समयमें की थी किन्तु उस क्रियासे सम्पन्न संस्कारवाले कर्मों का विस्कोट (उदय) किसी एक समयमें तो होता नहीं किन्तु दीर्घ कालतक होता रहता है, इसलिए उसके वे हननक्रियाके योग्य संस्कार कब उबुद्ध होंगे । समाधान यह है कि जब तदनुरूप निमित्त मिलेगा तब उन संस्कारोंके योग्य कर्मका विशेष रूपसे (उदय) विस्फोट होगा । उदीरणाका रहस्य भी यही है। विवक्षित विषयको स्पष्ट करनेके लिए हमने एक दृष्टान्तमात्र दिया है। कर्मप्रक्रियाको देखकर इसको संगति विठला लेनी चाहिए। इस प्रकार इतने विवेचनसे हमें कर्मों की अलग अलग फलदान शक्तिका और एक ही कर्मकी न्यूनाधिक फलदान शक्तिका ज्ञान हो जाता है। तात्पर्य यह है कि योगसे उस उस प्रकृतिवाले कर्मों का ही ग्रहण होता है। ज्ञानको जो वर्गणाएँ प्रावृत्त करती हैं वे अजग हैं और दर्शनको आवरण करनेवाली वर्गणाएं अलग हैं। योगद्वारा वे श्रात्माके साथ बन्धनके लिए सन्मुख कर दी जाती हैं। इसी प्रकार अन्य कर्मों के विषयमें भी समझ लेना चाहिए। योगद्वारा मूलमें ऐसे स्वभाववाली वर्गणाओंका ग्रहण होता है पर उनका ग्रहण
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होनेपर वे आत्माके साथ किस प्रकारके स्पर्शको ( बन्धको ) प्राप्त हों यह कार्य कषायका है। कषायके कारण ही उनके स्पर्शकी हीनाधिकता और स्पर्शमें तारतम्य व आकार निश्चित होता है जिसे क्रमसे स्थिति और अनुभाग कहा जाता है। इस प्रकार अनुभागका ज्ञान हो जानेषर वह किस क्रमसे रहता है इस
को बतलानेके लिए स्थानोंका निरूपण किया गया है। स्थान तीन प्रकारके हैं -बन्धसमुत्पत्तिकस्थान, हतसमुत्पत्तिकस्थान और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान । बन्धके समय जो अनुभागको क्रमिक रचना होती है उस सबको बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। तथा सत्तामें स्थित अनुभागका घात होकर जो स्थान उत्पन्न होते हैं वे यदि बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंके समान होते हैं तो उन्हें भी बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं। किन्तु जो स्थान वातसे उत्पन्न होकर बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे भिन्न होते हैं उन्हें हतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं । तथा इन हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका भी घात होकर जो अन्य स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। इनमें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं। हतसमुत्पत्तिकस्थान इनसे असंख्यातगुणे हैं
और हतहतसमुत्पत्तिकस्थान इनसे भी असंख्यातगुणे हैं। इनका विशेष ऊहापोह मूलमें किया ही है, इसलिए वहांसे जान लेना चाहिए।
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विषय-सूची
विषय
पृष्ठ
३०-४३ ४३-५२ ४३-४९ ४६-५२ ५३-५६ ५३-५४
५६-५६ ५६-५८ ५८-५६ ५९-६१
६०-६१ ६२-६५ ६२-६३
विषय वीर जिनको नमस्कार कर अनुभाग
विभक्तिके कहनेकी प्रतिज्ञा अनुभागविभक्ति के दो भेद अनुभागका स्वरूप विभक्ति शब्दका अर्थ मूलप्रकृति अनुभाग विभक्तिका अर्थ उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्तिका अर्थ मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति मूलप्रकृति अनुभागविभक्तिके २३ अनुयोद्वारोंके नाम मूलप्रकृति अनुभागविभक्तिमें सन्निकर्ष अनुयोगद्वारके न होनेका निषेध मूलप्रकृति अनुभागविभक्ति के अन्य अनुयोगद्वार संज्ञाके दो भेद और उनका विचार घातिसंज्ञाके दो भेद उत्कृष्ट घातिसंज्ञा सर्वघाति पदका अर्थ जघन्य घातिसंज्ञा स्थान संज्ञाके दो भेद और उनका विचार उत्कृष्ट स्थान संज्ञा जघन्य स्थान संज्ञा सर्व-नोसानुगम उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टानुगम जघन्य-अजघन्यानुगम सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवानुगम स्वामित्वानुगम उत्कृष्ट स्वामित्व जघन्य स्वामित्व कालानुगम . उत्कृष्ट काल
जघन्य काल अन्तरानुगम उत्कृष्ट अन्तर जघन्य अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय उत्कृष्ट भंगविचय
जघन्य भंगविचय २-१२०
भागाभागानुगम उत्कृष्ट भागाभागानुगम जघन्य भागाभागानुगम परिमाणानुगम उत्कृष्ट परिमाणानुगम जघन्य परिमाणानुगम क्षेत्रानुगम
उत्कृष्ट क्षेत्रानुगम ३-६
जघन्य क्षेत्रानुगम स्पर्शनानुगम उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम जघन्य स्पर्शनानुगम कालानुगम उत्कृष्ट कालानुगम जघन्य कालानुगम अन्तरानुगम उत्कृष्ट अन्तरानुगम जघन्य अन्तरानुगम भावानुगम अल्पबहुत्वानुगम
उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम ११-१९ | जघन्य अल्पबहुत्वानुगम ११-१५ भुजगार विभक्ति १५-१६ | भुजगार विभक्तिके १३ २०-४३ | अनुयोगद्वारों के नाम २०-३० । समुत्कीर्तना
६५-७७ ६५-७१ ७२-७७ ७७-८४ ७७-८१ ८१-८४
८५-८७
W
وداعا
६१
CS
६१ ९२-१०७
१२
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( २ ) विषय
पृष्ठ | विषय स्वामित्व ९२-९३ | स्वामित्वानुगम
११३-११४ कालानुगम ६३-६६] कालानुगम
११४-११५ नारकियों में प्रति समय अनुभाग का
अन्तरानुगम
११६-११८ अपवर्तन नहीं होता इस बातका
नानाजीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ११८-११९ निर्देश ९४] भागाभागानुगम
१२० अनुभागसत्त्वका अपवर्तनाके विना
१२०-१२१
परिमाणानुगम अल्पतर पद नहीं होता इस । क्षेत्रनुगम
१२१ बातका निर्देश
१२१-१२२ स्पर्शनानुगम
१२२-१२३ चारित्रमोहकी क्षपणाके विना
कालानुगम
१२३-१२४ मोहनीयके अनुभागका प्रति समय
अन्तरानुगम घात नहीं होता इस बातका निर्देश
१२४ भावानुगम ९४
१२४-१२५ अन्तरानुगम
९७-६८
अल्पबहुत्वानुगम नानाजीवोंकी अपेक्षा भंगविचय
१२५-१२८ स्थान ६-१०० |
प्ररूपणा १०१-१०२
१२५-१०६ भागाभागानगम परिमाणानुगम
१०२ प्रमाण
१२७ क्षेत्रानुगम
१०३ अल्पबहुत्व
१२७-१२८ स्पर्शनानुगम २०३-१०४
१२६-३९७ उत्तर प्रकृतिअनुभागविभक्ति
उत्तर प्रकृतियोंकी स्पर्धकरचना कालानुगम
१०४-१०५ विचार
१२६-१३५ अन्तरानुगम
सम्यक्त्व प्रक्रतिका अनुभाग देशघाति । भावानुगम
है इसकी सिद्धि
१३० अल्पबहुत्वानुगम
१०७
सम्यक्त्व प्रकृति सम्यग्दर्शनके किस पदनिक्षेप
१०७-११२
. भागका घात करता है इसका विचार १३० पदनिक्षेपके ३ अनुयोगद्वार
१०७
संज्ञाके दो भेद और उनका पदनिक्षेप पदका अर्थ
_ विचार
१३५-१५५ समुत्कीर्तनानुगम
१०८
विस्थानिक अनुभागमें लता और उत्कृष्ट समुत्कीर्तनानुगम
१०८
दारुरूप अनुभाग लिया गया जघन्य समुत्कीर्तनानुगम
१०८
है इसकी सिद्धि . १३७-१३८ स्वामित्वानुगम
१०८-११०
लता अदि संज्ञाएं मान कषायके उत्कृष्ट स्वामित्वानुगम
१०८-११०
अनुभागमें आती हैं फिर भी जघन्य स्वामित्वानुगम
११०
उनका मिथ्यात्व आदिके अल्पबहुत्व
१११-११२
अनुभागमें ग्रहण होता है उत्कृष्ट अल्पबहुत्व
१११ इसकी सिद्धि
१३९ जघन्य अल्पबहुत्व
११२
मिथ्यात्व सर्वघाति क्यों है इसका वृद्धि विभक्ति ११२-१२५ विचार .
१३९ वृद्धिविभक्तिके १३ अनुयोगद्वार ११२ सम्यक्त्वका अनुभाग देशघाति तथा वृद्धि पदका अर्थ
एकस्थानिक और विस्थानिक समुत्कीर्तनानुगम
११३ | है ऐसा कहनेका कारण
११२
१४३
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पृष्ठ
१५७ / अर्थपद
विषय
• पृष्ठ | विषय उच्चारणाके अनुसार संज्ञाके दोनों उचारणाके अनुसार उत्कृष्ट भेदोंका विचार १५१-१५५ । अन्तरानुगम
२०२-२०५ घातिसंज्ञा विचार १५१-१५३ | जघन्य अन्तरानुगम
२०६-२१० स्थानसंज्ञा विचार
१५३-१५५ | अनन्तानुबन्धीकी क्षपणाके बाद उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्तिके
पुन: उत्पत्तिके समान अन्य ____ अनुयोगद्वारोंका नामनिर्देश १५५-१५६ प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति क्यों सर्व-नोसर्वविभक्त्यनुगम
नहीं होती इसका विचार
२०७ उत्कृष्ट-अनुत्कृष्टविभक्त्यनुगम. १५६
अनन्तानुबन्धीके समान मिथ्यात्व जघन्य-अजधन्यविभक्त्यनुगम १५६
आदिको विसंयोजना प्रकृति सादि-अनादि-ध्रुव-अध्रुवानुगम १५६-१५७
न माननेका कारण
२०८ स्वामित्वानुगम
१५७-१८५ यतिवृषभप्राचार्य द्वारा सर्वविभक्ति
उच्चारणाके अनुसार जघन्य आदि अधिकार न कह कर
अन्तरानुगम
२१०-२१३ स्वामित्व अधिकार कहनेका
| नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय २१३-२२१ कारण
२१४ उत्कृष्ट स्वामित्व
१५७-१६१ । उत्कृष्ट भङ्गविचय
२१५-२१८ जघन्य स्वामित्व
१६१-१७५ | उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट चूर्णिसूत्रमें आये हुए सूक्ष्म पदकी
भङ्गविचय
२१९-२२० विशेष व्याख्या
१६१-१६२ | उच्चारणाके अनुसार जघन्य मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग
भङ्गविचय
२२०-२२१ सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके
भागाभाग
२२१-२२३ होता है इसका कारण
१६२ उत्कृष्ट भागाभाग
२२१-२२२ अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग
जघन्य भागाभाग
२२२-२२३ सूक्ष्म एकेन्द्रियके क्यों नहीं
परिमाण
२२४-२२६ होता इसका विचार उत्कृष्ट परिमाण
२२४ नरकगतिमें उत्तर प्रकृतियोंके जघन्य
जघन्य परिमाण
२२४-२२६ अनुभागसत्कर्मका निर्देश १७५-१७६
क्षेत्र
२२६-२२७ उच्चारणाके अनुसार स्वामित्वानुगम १७६-१८५
उत्कृष्ट क्षेत्र
२२६ उत्कृष्ट स्वामित्व
१७९-१८१ जघन्य क्षेत्र
२२६-२२७ जघन्य स्वामित्व
१८१-१८५ स्पर्शन
२२७-२३२ कालानुगम
१८५-२०० उत्कृष्ट स्पर्शन
२२७-२२९ उत्कृष्ट काल
१८५-१८९ जघन्य स्पशन
२२६-२३२ उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट काल १८९-१६१
कालानुगम
२३३-२३८ जघन्य काल
१६२-१६५ उत्कृष्ट कालानुगम
२३३-२३४ उच्चारणाके अनुसार जघन्य काल १९६-२००
| उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट अन्तरानुगम २०१-२१३ कालानुगम
२३४-२३६ उत्कृष्ट अन्तनुगम २०१-२०२। जघन्य कालानुगम
२३६-२३८
१६७
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क्षेत्र
विषय
पृष्ठ | विषय उच्चारणाके अनुसार जघन्य
भाव
२६७ कालानुगम २३८-२४० अल्पबहुत्व
२६७-२६६ अन्तरानुगम २४१-२४६ पदनिक्षेप
२६६-३०७ उत्कृष्ट अन्तरानुगम २४१-२४२ पदनिक्षेपके ३ अनुयोगद्वार
२६६ उच्चारणाके अनुसार उत्कृष्ट
समुत्कीर्तना उत्कृष्ट व जघन्य २६९-३०० अन्तरानुगम २४२-२४३ स्वामित्व , "
३००-३०५ जघन्य अन्तरानुगम
२४४-२४७ ! अल्पबहुत्व , , ३८५-३०७ उच्चारणाके अनुसार जघन्य
वृद्धिविभक्ति
३०७-३३० अन्तरानुगम
२४७-२४६ वृद्धिविभक्तिके १३ अनुयोगद्वार उच्चारणाके अनुसार सन्निकर्ष २४९-२५६ | समुत्कीर्तना
३०७-३०८ उत्कृष्ट सन्निकर्ष २४६-२५२ स्वामित्व
३०८-३०६ जघन्य सन्निकर्ष २५२-२५६ ।
३०४-२१२ भावानुगम
अन्तर
३१२-३१६ अल्पबहुत्वानुगम
२५६-२७३ नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय ३१६-३१८ उत्कृष्ट अल्पबहुत्व
२५६-२५९ भागाभाग
३१८-३२० जघन्य अल्पबहुत्व २५९-२६९ परिमाण
३२०-३२१ नरकगतिमें जघन्य अल्पबहुत्व २६९-२७१
३२१ उच्चारणाके अनुसार जघन्य
स्पशन
३२१-३२४ अल्पबहुत्व २७२-२७३ काल
३२४-३२६
अन्तर भुजगार विभक्ति २७३-२९४
३२६-३२८
भाव चूर्णिसूत्रमें बन्धके अनुसार भुजगार, पद,
३२८ अल्पबहुत्व
३२८-३३० निक्षेप और वृद्धिविभक्तिके जानने मात्र की सूचना
३३०-३६७ स्थानप्ररूपणा
२७३ भुजगारविभक्तिके १३ अनुयोग
चूर्णिसूत्र में सत्कर्मस्थानोंके तीन द्वारोंकी सूचना
२७३ | भेदोंका निर्देश समुत्कीर्तना
२७३-२७४ | बन्धसमुत्पत्तिक आदि तीनों स्वामित्व २७५-२७६ | भेदोंका निरुक्त्यर्थ
३३१ काल
२७६-२८० | स्थानप्ररूपणा कहने की सार्थकता अन्तर
२८०-२८६ | चूर्णिसूत्रमें बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सबसे नानाजीवोंकी अपंक्षा भंगविचय २८६-२८८ स्तोक हैं इस बातका निर्देश ३३२ भागाभाग
२८८-२८९ | सबसे जघन्य बन्धसमुत्पत्तिकस्थान परिमाण
२८९-२९०
किसके होता है इस बातका निर्देश क्षेत्र २९०-२६१ व उसकी सिद्धि
३३२ स्पर्शन
२६१-२६३ | किस अवस्थामें घातस्थान बन्धसमुत्पत्तिक काल
२६३-२६५ स्थान कहा जाता है इस बातका निर्देश ३३३ अन्तर
२६५-२६७ | अष्टांक किसे कहते हैं इस बातका विचार ३३३
___३३०
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३३३
३६८
विषय
पृष्ठ | विषय जघन्य अनुभागस्थान अनन्तगुण
सूक्ष्म जीवके जघन्य स्थानके परमाणुओं । वृद्धिरूप है इसकी सिद्धि
____ की छह अधिकारोंके द्वारा प्ररूपणा ३५२ काण्डकका प्रमाण निर्देश ३३४ प्ररूपणा
३५२ जघन्य अनुभागस्थान सत्कर्मरूप
प्रमाण
३५२ होकर भी बन्धस्थानके समान है श्रेणि
३५२ इसकी सप्रमाण सिद्धि
अवहारकाल उत्कर्षण अनुभागवृद्धिका कारण नहीं है भागाभाग
३६४ इस बातकी सिद्धि ३३५ अल्पबहुत्व
३६३ अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका द्वितीय श्रादि अनुभागस्थानका विचार ३६५ एक परमाणु अनुभागस्थान क्यों है
एक कर्मपरमाणुके अविभागप्रतिच्छेदों में इस बातकी सिद्धि
अनुभागस्थान, वर्ग, वर्गणा और योगस्थानके समान अनुभागस्थानके
स्पर्धक ये चा संकाय बन जाती हैं कथन न करनेका कारण
इस बातका निर्देश प्रदेशोंके गलनेसे स्थितिघातके समान
| एक कर्मपरमाणुके अविभागप्रतिअनुभागघात नहीं होता ३३७
च्छेदोंकी स्थान सा मानने संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती
पर एक स्थानमें अनन्त स्थान मिथ्यादृष्टिके अनुभागबन्ध जघन्य
नहीं प्राप्त होते इस बातका क्यों नहीं होता इस बातका विचार ३३८ |
विशेष उहापोह
३६६ संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समययर्ती - मिथ्यादृष्टिका अनुभागसत्कर्म जघन्य अनुभागस्थानके बन्ध और उत्कर्षणसे क्यों नहीं है इस बातका विचार ३३८
निष्पन्न होने पर वह बन्धसे अनुभागकी वृद्धि या हानिमें योग कारण ।
निष्पन्न हुआ क्यों कहा जाता है
३७२ नहीं है इस बातका निर्देश
इस बातका विचार ३३६ |
असंख्यातभागवृद्धि आदि किस प्रकार समुद्घातगत केवलीके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ता कैसे सम्भव है इस बातकी सिद्धि३४१
उत्पन्न होती हैं आदिका विशेष ऊहापोह
३७४ जघन्यस्थानकी स्वरूपसिद्धि
३४४ जघन्य स्थानकी चार प्रकारसे प्ररूपणा ३४७
बन्धस्थानोंके कारणभूत कषाय उदय अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा
३४७
स्थानोंके अवस्थान क्रमका निर्देश ३८० वर्गणाप्ररूपणा
३४८ हतसमुत्पत्तिकस्थान विचार ३८०-३९० स्पर्धकप्ररूपणा ३४९ विशुद्धिस्थानका लक्षण
३८० अन्तरप्ररूपणा
३५० | हतहतसमुत्पत्तिकस्थानविचार ३९१-३९७
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कसायपाहुडस्स अणु भा ग वि ह त्ती
चउत्थो अत्याहियारो
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Se
सिरि- जइव सहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुण हर भडार अवहट्ठ
कसाय पाहु डं
तस्स
सिरि- वीरसेाइरिय विरइया टीका
जयधवला
तत्थ
अणुभागविहत्ती णाम उत्थो अत्थाहियारो
(Praanagari वीरं णमिण पत्तसव्वड' | अणुभागस्स विहतिं जहोवएस परूवेमो ॥ १ ॥2
जिन्होंने आठों कर्मोंका नाश कर दिया है और समस्त अर्थोंको प्राप्त कर लिया है उन श्री वीर जिनदेवको नमस्कार करके शास्त्रानुसार अनुभागविभक्तिको कहते हैं ॥ १ ॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * एत्तो अणुभागविहत्ती दुविहा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती चेव उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेव ।
१. को अणुभागो ? कम्माणं सगकज्जफरणसत्ती अणुभागो णाम । तस्से विहत्ती भेदो पवंचो जम्हि अहियारे परूविज्जदि सा अणुभागविहत्ती णाम । तिस्से दुवे अहियारा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेदि । मूलपयडिअणुभागस्स जत्थ विहत्ती परूविजदि सा मूलपय डिअणुभागविहत्ती । उत्तरपयडीणमणुभागस्स जत्थ विहत्ती परूविज्जदि सा उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती। एवमेत्थ वे चेव अत्थाहियारा; तदियस्स णिव्विसयत्तेण अभावादो। ण दोण्हमहियाराणं समूहो विसओ; समूहिवदिरित्तसमूहाभावादो तेहिंतो चेव तदवगमादो वा ।
* एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदव्वा ।
$ २. एदम्हादो णिबंधणादो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदूर्ण गेहदव्वा । संपहि एदस्स सुत्तस्स उच्चारणाइरियकयवक्खाणं वत्तइस्सामो। तत्थ इमाणि तेवीसं
* यहाँ से अनुभागविभक्ति का कथन प्रारम्भ होता है। उसके दो भेद हैंमूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति ।
६१. शा-अनुभाग किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्मों के अपना कार्य करनेकी शक्तिको अनुभाग कहते हैं, अर्थात् कर्मों में अपना अपना फल देनेकी जो शक्ति रहती है उसे ही अनुभाग कहा जाता है ।
उस अनुभागकी विभक्ति अर्थात् भेद या विस्तार जिस अधिकारमें कहा जाता है उसका नाम अनुभागविभक्ति है। उसके दो अधिकार हैं-मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्ति । जिस अधिकारमें मूल प्रकृतियोंके अनुभागका विभाग कहा जाता है वह मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति है और जिसमें उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागके विस्तारको कहा जाता है वह उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति है। इस प्रकार यहाँ दो ही अधिकार हैं। तीसरे अधिकारका अभाव है; क्योंकि उसका कोई विषय नहीं है। शायद कहा जाय कि दोनों अधिकारोंका समूह उसका विषय है अर्थात् तीसरे अधिकारमें मूल प्रकृतिअनुभागविभक्ति और उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति का कथन रह सकता है सो भी ठीक नहीं है; क्योंकि समूहवालोंसे अतिरिक्त समूहका अभाव है और समूहवालोंका ज्ञान हो जानेसे ही उनके समूहका भी ज्ञान हो जाता है । सारांश यह है कि जब पहले अधिकारमें मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका और दूसरे में उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन हो ही चुकता है तो उनका ज्ञान हो जाने से उनके समूहका भी ज्ञान हो ही जाता है, क्योंकि दोनों विभक्तियोंका समूह उनसे कोई पृथक् वस्तु नहीं है, अतः तीसरे अधिकार में कथन करनेके लिये कोई विषय ही नहीं है इसलिये यहाँ तीसरे अधिकारका अभाव है।
* यहाँसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन कराना चाहिये ।
२. इस सूत्रसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन कराके उसे ग्रहण करना चाहिये । अब इस सूत्रके उच्चारणाचार्यकृत व्याख्यानको कहेंगे। मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति के विषयमें ये
१. भा० प्रतौ अणुभागो । तस्स इति पाठः । २. ता. प्रती भणि दूण इति पाठः ।
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गा० २३ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा अणियोगदाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-सण्णा सव्वाणुभागविहत्ती णोसव्वाणुभागविहली उक्कस्साणुभागविहत्ती अणुक्कस्साणुभागविहत्ती जहण्णाणुभागविहली अजहण्णाणुभागविहत्ती सादियअणुभागविहत्ती अणादियअणुभागविहत्ती धुवाणुभागविहत्ती अधुवाणुभागविहत्ती एग जीवेण सामित्वं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचनो भागभागो परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहुअं चेदि । सणियासों णत्थि; एकिस्से पयडीए तदसंभवादो । भुजगार-पदणिक्खेव-वडिविहत्ति-हाणाणि चेदि अण्णे चत्तारि अत्थाहियारा होति ।
३. तत्थ एदेहि कमेण मूलपयडिअणुभागविहत्तीए परूवणं कस्सामो । तं जहा-सण्णा दुविहा-घादिसण्णा हाणसण्णा चेदि। घादिसण्णा दुविहा-जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्सअणुभागविहत्ती सव्वघादी। सव्वघादि ति किं ? सगपडिबद्धं जीवगुणं सव्वं णिरवसेसं घाइउं विणासिद्ध सीलं जस्स अणुभागस्स सो अणुभागो सव्वघादी'। अणुक्कस्सअणुभागविहत्ती सव्वघादी देवघादी वा । एवं मणुसतिण्णितेईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं-संज्ञा, सर्वानुभागविभक्ति, नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्टानुभागविभक्ति, अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति, जघन्य अनुभागविभक्ति, अजघन्य अनुभागविभक्ति, सादिअनुभागविभक्ति, अनादिअनुभागविभक्ति, ध्रुवअनुभागविभाक्ति, अध्रुवअनुभागविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । यहाँ सन्निकर्ष अनुयोगद्वार नहीं है, क्योंकि एक प्रकृतिमें सन्निकर्ष संभव नहीं है। यहाँ भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धिविभक्ति और स्थान ये चार अधिकार और होते हैं।
६३. अब इनके द्वारा क्रमसे मूलप्रकृतिअनुभागविभक्तिका कथन करेंगे। वह इस प्रकार है-संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा। घातिसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे पहले उत्कृष्ट घातिसंज्ञाका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-आंघ निर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति सर्वघाती है।
शंका-सर्वघाति इस पदका क्या अर्थ है ?
समाधान-अपने से प्रतिबद्ध जीवके गुणको पूरी तरह से घातनेका जिस अनुभागका स्वभाव है उस अनुभागको सर्वघाती कहते हैं।
मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती भी है और देशघाती भी है। इसी
१. जो पाएह सविसयं सयलं सो होइ सम्वघाइरसो ।
सो निच्छिहो निद्धो तणुप्रो फलिहब्भहरविमलो ॥ १५८॥ श्वेताम्बर पंचसंग्रहद्वार ३ व्याख्या-'यो घातयति स्वविषयं संकलं स भवति सर्वघातिरसः । सर्व स्वघात्यं केवलज्ञानादिलक्षणं गुणं घातयतीति सर्वघातीति ।
कर्मप्रकृतिग्रन्थ संक्रमकरणे गाथा टीका ४४ स्वविषयं कास्न्येन धनन्ति यास्ताः सर्वधातिन्यः । कर्मप्रकृतिग्रन्थ टीका १०१
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ पंचिंदिय-पंचिंदियपज०-तस-तसपज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि-ओरालियकाय०चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि०-आहारि त्ति ।
४. आदेसेण णेरइएसु उक्क० अणुक्क० सव्वघादी । एवं सव्वणिरय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज-सव्वदेव-सव्वेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-सव्वपंचकाय--तसअपज्ज०--ओरालियमिस्स०--वेउव्विय०--वेउ० मिस्स०--कम्मइय०--आहार०आहारमिस्स०-तिण्णिवेद-तिण्णिअण्णाण-परिहार०-संजदासंजद०-असंजद०--पंचले०अभवसि०-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति ।
awwarrrrrrner
प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, जसपर्याप्त, पांचों मनोयागी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक में जानना चाहिये।
विशेषार्थ मोहनीय कर्मके अनुभागका वर्णन करनेके लिये जो तेईस अनुयोगद्वार बतलाये हैं उनमेंसे पहले संज्ञाके द्वारा अनुभागका वर्णन किया है । संज्ञाके दो भेद कहे हैं-एक घाती दूसरा स्थान । मोहनीय कर्म घाती है, क्योंकि वह आत्माके गुणोंको घातता है । इसलिये उसके अनु. भागकी घाति संज्ञा है। वह अनुभागकी हीनाधिकताको लिए हुए अनेक प्रकारका होता है। सबसे अधिक फलदानकी शक्तिको उत्कृष्ट अनुभाग कहते हैं और उसके सिवा शेषको अनुत्कृष्ट कहते हैं। हीन फलदानकी शक्तिको जघन्य अनुभाग कहते हैं और उसके सिवा शेषको अजघन्य कहते हैं । इस प्रकार घाती मोहनीय कर्मके अनुभागके चार प्रकार हो जाते हैं-उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य
और अजघन्य । इन चार भेदों में से उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती ही होती है परन्तु अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिमें जघन्य भी सम्मिलित है, इस लिए वह सर्वघाति और देशघाति दोनों प्रकार की होती है। जो अनुभागविभक्ति आत्माके गुणोंको पूरी तरहसे घातती है वह सर्वघाती है और जो उन्हें एकदेशसे घातती है वह देशघाती है।
अनुभागके भेद प्रभेदोंको सर्वघाती और देशघातीकी तरह एक दूसरे प्रकारसे भी विभाजित किया जाता है और वह प्रकार है स्थानसंज्ञाका । मोहनीय कर्मके अनुभागस्थानों को चार हिस्सोंमें बाटा जाता है—एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक । एकस्थानिक स्पर्धक देशघाती ही होते हैं और विस्थानिक स्पर्धक देशघाती भी होते हैं और सर्वघाती भी होते हैं । किन्तु शेष अनुभाग स्पर्धक सर्वघाति ही होते हैं।
४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्तक, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजकायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिक काययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, तीनों वेदी, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धसंयमी, संयतासंयत, असंयत, शुक्लके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्याष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-उक्त सब मार्गणाओंमें मोहनीयकर्मका एक स्थानिक अनुभाग नहीं रहता है १. ता. प्रतौ पाहारि त्ति इति पाठः ।
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गा० २३ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णां $ ५. अवगद० उक्क० सव्वघादी । अणुक्क० सव्वघादी देसघादी वा । एवमाभिणि-सुद--ओहि०--मणपज्ज०--संजम०--सामाइय--छेदो०--सुहुम०--अोहिदंस०सुक्कले०-सम्मादिहि०-खइयसम्मादिहि. त्ति । अकसाइ० उक्क० अणुक० सव्वघादी० । एवं जहाक्खाद०संजदे त्ति ।
एवमुक्कस्ससण्णाणुगमो समत्तो। ६. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-अोघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेणं मोह० जहण्णाणुभागविहत्ती देसघादी । अजहण्णाणु० देसघादी सव्वघादी वा । एवं मणुसतिय--पंचिंदिय--पंचिंदियपज्ज --तस--तसपज्ज-पंचमण०-पंचवचि०-काययोगि०ओरालियकाय०--अवगदवेद० -चत्तारिकसाय--आभिणि० --सुद० -ओहि०--मणपज्ज.संजद०-सामाइय--छेदो०--सुहुम०सांपराइय--चक्खु०--अचक्खु०--ओहिदंसण-सुक्कले०भवसि०-सम्मादि०-खइय०-सण्णि-आहारि त्ति । जैसा कि आगेके स्थानसंज्ञा अनुयोगद्वारसे स्पष्ट है । तथा विस्थानिक अनुभागका भी वही अंश रहता है जो सर्वघाती है अतः इनमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती होती है।
६५. वेद रहित जीवकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती अथवा देशघाती है। इसीप्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, संयमी, सामायिकसंयमी, छेदोपस्थापनासंयमी, सूक्ष्मसाम्परायसंयमी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके जानना चाहिये। अकषायिक जीवकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार यथाख्यातचारित्रसंयतमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मूलमें कही गई क्षायिकसम्यग्दृष्टि पर्यन्त मार्गणाओंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति तो सर्वघाती ही होती है किन्तु अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वघाती भी होती है और देशघाती भी होती है। इसका कारण यह है कि इनके क्षपकरणीमें एकस्थानिक अनुभागकी भी सत्ता रहती है । अकषायिक और यथाख्यातसंयत जीवोंके मोहनीयके सर्वघाती अनुभागकी ही सत्ता रहती है, क्योंकि उपशमश्रणीकी अपेक्षा ही इन मार्गणाओंमें मोहनीयका सत्त्व सम्भव है । अतः उनके दोनों ही अनुभाग सर्वघाती होते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्ट संज्ञानुगम समाप्त हुआ। ६६. अब जघन्य अनुभागविभक्तिका प्रकरण है। निर्दोश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। उनमेंसे ओघनिर्देशकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति देशघाती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति देशघाती अथवा सर्वघाती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, पंचेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचो मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, चारों कषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयमी, छेदोपस्थापना संयमी, सूक्ष्मसांपरायसंयमी, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारकोंमें समझना चाहिये ।
१. ता० प्रतौ य । प्रोघेण इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ मणुसतिय पंचिंदियपज० इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ७. आदेसेण रइएसु जहण्ण. अजहण्ण० सव्वघादी। एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्व-मणुसअपज्ज०--सव्वदेव--सव्वएइंदिय--सव्वविगलिंदिय--पंचेंदियअपजं. सव्वपंचकाय०--तसअपज्ज.--ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउब्वियमिस्स०-कम्मइय०आहार०-आहारमिस्स०-तिण्णिवेद०-अकसा०-तिण्णिअण्णा०--परिहार०-जहाक्खाद०संजमासंजम--असंजम---पंचले०--अभवसि०--वेदग०--उवसम०--सासण-सम्मामि - मिच्छादि०--असण्णि०-अणाहारि ति।।
. एवं जहण्णसण्णाणुगमो समत्तो। ८. टाणसण्णा दुविहा—जहण्णिया उक्कस्सिया चेदि । उक्कस्सियाए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागहाणं चदुहाणियं । अणुक्क० चदुहाणियं तिहाणियं विहाणियं एगहाणियं वा । एवं मणुसतिण्णिपंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालियकाय०
७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति सर्वघाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्यअपर्याप्त, सब देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथ्वीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, त्रसअपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, तीनों वेदवाले, अकषायिक, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयमी, यथाख्यातचारित्रसंयमी, संयमासंयमी, असंयमी, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पांचों लेश्यावाले, अभव्य, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यामिथ्यादृष्टि, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकमें समझना चाहिये ।
विशेषार्थ-मूलमें कही गई आहारक पर्यन्त मार्गणाओं में क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा एक स्थानिक अनुभाग का भी सत्त्व पाया जाता है। अतः उनमें जघन्य अनुभाग देशघाती और घन्य अ
अनुभाग देशघाती तथा सर्वघाती होता है। तथा शेष अनाहारक पर्यन्त मार्गणाओं में सर्वघाती अनुभागका ही सत्त्व पाया जाता है अतः उनमें जघन्य और अजघन्य दोनों अनुभाग सर्वघाती ही होते हैं। यहां यह स्मरण रखनेकी बात है कि अनुभागके ये उत्कृष्ट आदि भेद ओघ
और आदेश दो प्रकारसे किये हैं। इसलिए जहाँ जो सम्भव हों उस अपेक्षा से उन्हें घटित कर लेना चाहिए।
इस प्रकार जघन्य संज्ञानुगम समाप्त हुआ। ६८. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे यहां उत्कृष्ट का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय कमका उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान चतु:स्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक होता है। इसी प्रकार तीनों प्रकारके मनुष्य, पञ्चन्द्रिय, पञ्च न्द्रिय पर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाय
१. श्रा. प्रतौ सन्धविगलिंदिय अपज० इति पाठः। २. ता० प्रतौ श्रोरालियमिस्स० वेउब्धिय मिस्स. इति पाठः।
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गा० २३ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा चत्तारिकसाय-चक्खु०-अचक्खु०-भवसि०-सण्णि-आहारि ति ।
६. आदेसेण णेरइएसु उक्स्स ० चउहाण । अणुक० वेडा० तिहा० चदुहाणियं वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज्ज०-देव भवणादि जाव सहस्सार सव्वेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०--सव्वपंचकाय-तसअपज्ज०-ओरालयमिस्स०-वेउब्विय०-वेउव्वियमिस्स०--कम्मइय०--तिण्णिवेद--तिण्णिअण्णाण--असंजद-पंचले०-अभवसि०-मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति । आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति उक्क० अणुक्क० वेहाणियं । एवमाहार०-आहारमिस्स०-अकसाय-परिहार०जहाक्खाद०-संजदासंजद-वेदगसम्माइहि-उवसम०-सासण-सम्मामि०दिहि त्ति । अवगदवेदेसु मोह० उक्क० वेढाणियं । अणुक्क० वेढाणियमेगहाणियं वा । एवमाभिणि०सुद०-ओहि ०--मणपज्जव०--संजद०--सामाइय-च्छेदो०--मुहुमसांपराइय०--अोहिदंस०योगी, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारकमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-घातिकर्मोंकी अनुभागशक्ति लता, दारु, अस्थि और शैल इस प्रकार चार प्रकारकी मानी गई है। जिसमें यह चारों प्रकारकी शक्ति होती है उसे चतुःस्थानिक अनुभाग कहते हैं। जिसमें शैलरूप शक्तिके सिवा तीन प्रकारकी शक्ति होती है उसे त्रिस्थानिक अनुभाग कहते हैं। जिसमें लता और दारुरूप शक्ति होती है उसे द्विस्थानिक अनुभाग कहते हैं और जिसमें केवल लतारूप शक्ति होती है उसे एकस्थानिक अनुभाग कहते हैं। उत्कृष्ट अनुभागशक्ति चतुःस्थानिक होती है यह स्पष्ट ही है और उससे हीन सब अनुभाग शक्ति अनुत्कृष्ट कहलाती है, इसलिए अनुत्कृष्ट अनुभागशक्तिको चतुःस्थानिक आदि चारों प्रकारका कहा है। यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि एकस्थानिक अनुभागशक्ति क्षपकश्रेणिके सिवा अन्यत्र नहीं उपलब्ध होती। यही कारण है कि यहाँ जिन मार्गणाओंमें क्षपकश्रेणि सम्भव है उनका कथन ओघके समान जाननेकी सूचना की है।
६६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होता है। इसी प्रकार सब नारकियों, सब तिर्यञ्चों, मनुष्य अपर्याप्तक, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रियअपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहरकमें जानना चाहिये । अर्थात् उनमें उत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा विस्थानिक होता है। नतस्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक ही होता है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें जानना चाहिये। अर्थात् उनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक ही होता है। अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक अथवा एकस्थानिक होता है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रु तज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत,
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८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
सुक्कले ० - सम्मादिडि - खइय० दिट्ठिति ।
एव उक्कसिया द्वाणसण्णा समत्ता ।
१०. जहण्णियाए पयदं । दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेणमोह • जहण्णाणुभागविहत्ती एगहाणिया । अज० एगडा० विद्वा० तिद्वा० चहाणिया वा । एवं मणुसतिग-पंचिंदिय पंचिं ० पज्ज० तस-तसपज्ज० पंचमण ० - पंचवचि०कायजोगि०--ओरालिय० - चत्तारिकसाय - चक्खु ० - अचक्खु०-- भवसि ० - सणि० - हारि त्ति । $ ११. देसेण रइएस ज० वेढाणियं । अज० वेडा० तिट्ठा० चउद्वाणियं वा । एवं सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्ख मणुस अपज्ज० देव भवणादि जाव सहस्सार सव्वछेदोपस्थापनासंयत, सूक्ष्मसांपरायसंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सामान्य सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में जानना चाहिये । अर्थात् उनमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागस्थान स्थानिक होता है और अनुत्कृष्ट अनुभागस्थान द्विस्थानिक अथवा एकस्थानिक होता है ।
1
विशेषार्थ - आदेश से प्ररूपणा करते समय यहाँ निर्दिष्ट सब मार्गणाओंको तीन भागों में विभक्त कर दिया है। प्रथम प्रकार में वे मार्गणाएँ आती हैं जिनमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सम्भव है । या उसका घात किये बिना जिनमें ऐसे जीवों की उत्पत्ति सम्भव है । दूसरे प्रकार में वे मार्गणाएँ आती हैं जिनमें क्षपकश्रेणि तो सम्भव नहीं पर अन्तरङ्ग विशुद्धिके कारण न तो द्विस्थानिक अनुभागसे ऊपरके या नीचके अनुभागका बन्ध ही होता है और न इससे आगेके या नीचे के अनुभागकी सत्ता ही रहती है । तथा तीसरे प्रकार में वे मार्गणाऐं आतीं हैं जिनमें परिणामों की विशुद्धिके कारण द्विस्थानिक अनुभागसे आगे के अनुभागका न तो बन्ध ही होता है और न सत्ता ही रहती है । परन्तु इन मार्गणाओं में क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होने से यहाँ एकस्थानिक अनुभाग भी बन जाता है । मागंणाओंका नामनिर्देश मूलमें किया ही है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्थानसंज्ञा समाप्त हुई ।
[ अणुभागविहत्ती ४
$ १०. अब जघन्य स्थानसंज्ञाका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघनिर्देश और आदेश निर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्तक, मनुष्यिनी, पचेन्द्रिय, पंचेन्द्रियपर्याप्तक, त्रस, सपर्याप्तक, पाँच मनोयोगी, पाँच वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, चारों कषायवाले, चक्षुदर्शनी, अचतुदर्शनी, भव्य, संज्ञी और आहारक में जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - एक स्थानिक में भी जो सबसे हीन अनुभागशक्ति होती है वह जघन्य अनुभागशक्ति है और इसके सिवा शेष सब अजघन्य अनुभागशक्ति है । इनमें से मोहनीयकी जघन्य अनुभागशक्ति क्षपकसूक्ष्म साम्पराय के अन्तिम समयमें होती है। इसके सिवा अन्यत्र जघन्य होती है । घसे तो यह सम्भव है ही । पर जिन मार्गणाओं में मिथ्यात्वादि क्षपक सूक्ष्मसापराय तक गुणस्थान सम्भव हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, अतः मूलमें निर्दिष्ट मार्गेणाओंका कथन ओघके समान जानने की सूचना की है ।
११. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनियकर्मका जघन्य अनुभागस्थान द्विस्थानिक होता हैं और अजघन्य अनुभागस्थान द्विस्यानिक, त्रिस्थानिक अथवा चतुःस्थानिक होता है । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्रार
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सव्वणोसव्वविहत्ती एइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज०-सव्वपंचकाय-तसअपज्ज०-ओरालियमिस्स०वेउन्विय०-वेवियमिस्स०--कम्मइय०-तिण्णिवेद-तिण्णिअण्णाण-असंजद-पंचलेस्साअभवसि०-मिच्छादि०-असण्णि-अणाहारि ति । आणदादि जाव सव्वसिद्धि ति जहण्णाजहण्णअणुभागविहत्ती वेढाणिया। एवं आहार०-आहारमि०-अकसा०-परिहार०जहाक्खाद०-संजदासंजद-वेदग०-उवसम०-सासण-सम्मामि०दिहि त्ति । अवगदवेदेसु मोह० ज० एगहाणिया। अज० एगहाणिया विहाणिया वा । एवमाभिणि-सुद०
ओहि०-मणपज्ज०--संजद०--सामाइय-छेदो०--सुहुमसांपराय--अोहिदंस०--मुक्कले०सम्मादि०-खइय०दिहि ति।
एवं जहणिया हाणसण्णा समत्ता। १२. सव्वविहत्ति-णोसव्वविहत्तियाणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघे० मोह० सव्वफद्दयाणि सव्वविहत्ती। तदूर्ण पोसव्वविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । स्वर्ग तक देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभङ्गज्ञानी, असंयत, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहरकमें जानना चाहिये । प्रानत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति द्विस्थानिक ही होती है। इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अकषायी, परिहारविशुद्धिसंयत, यथाख्यात. संयत, संयतासंयत, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टिमें जानना चाहिये। अपगतवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और द्विस्थानिक होती है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनापर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और क्षायिक सम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिये । अर्थात् इनमें मोहनीयकमकी जघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक होती है और अजघन्य अनुभागविभक्ति एकस्थानिक और द्विस्थानिक होती है ।
इस प्रकार जघन्य स्थानसंज्ञा समाप्त हुई। ६ १२. सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्तिकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके सब स्पर्धक सर्वविभक्ति हैं और उनसे न्यून स्पर्धक नोसर्वविभक्ति हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ-सर्वविभक्तिसे आशय है सब भेद-प्रभेद । अर्थात् सब भेद-प्रभेदोंके समूहको सर्वविभक्ति कहते हैं और उस समूहमेंसे यदि एक भी भेद कम हो तो उसे नोसर्वविभक्ति कहते हैं। अतः मोहनीयकर्मके जितने स्पर्धक हैं उनका समूह सर्वविभक्ति कहा जाता है और उस समूहमेंसे यदि एक भी स्पर्धक कम हो तो उसे नोसर्वविभक्ति कहते हैं। सारांश यह है कि सर्वविभक्ति केवल सब स्पर्धकोंका समूह ही है और उस समूहसे कम स्पर्धक नोसर्वविभक्ति हैं। सब मार्गणाओंमें सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्तिका यही क्रम समझना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १३. उक्स्साणुक्कस्साणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह. सव्वुक्कस्सओ अणुभागो उक्कस्सविहत्ती। तदणमणुक्कस्सविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति; आदेसुक्कस्सस्स सव्वत्थ संभवादो।
१४. जहण्णाजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह. सव्वजहण्णो अणुभागो जहण्णविहत्ती। तदुवरिमा अजहण्णविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारए ति; आदेसजहण्णस्स सव्वत्थ संभवादो। .
१५. सादि-अणादि-धुव-अद्धवाणुगमेण दुविहो जिद्द सो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मोह० उक्कस्स-अणुकस्स-जहण्णअणुभागविहत्ती किं सादिया किमणादिया कि धुवा किधुवा वा ? सादि-अधुवा। अज० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किम वा वा ? अणादिया धुवा अधुवा वा । आदेसेण णेरइय० मोह० उक्क० अणुक्क० ज० अज० [किं सादि०] किमणादि० किं धुवा किम वा ? सादि-अधुवा ।
१३. उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है ओघ निर्देश और आदेश निर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सर्वोत्कृष्ट अनुभाग उत्कृष्टविभक्ति है और उससे न्यून अनुभाग अनुत्कृष्टविभक्ति है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणां तक ले जाना चाहिये, क्योंकि आदेश उत्कृष्ट अनुभाग सब जगह सम्भव है।
१४. जघन्य अनुभागविभक्ति और अजघन्य अनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका सबसे जघन्य अनुभाग जघन्यविभक्ति है और उससे ऊपरके अनुभाग अजघन्य विभक्ति हैं। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये, क्योंकि आदेश जघन्य अनुभाग सब जगह संभव है।
विशेषार्थ-यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका विचार करते समय आदेश उत्कृष्ट की और जघन्य-अजघन्य अनुभाग विभक्तिका विचार करते समय आदेश जघन्यकी सम्भावना प्रकट की है सो उसका यही अभिप्राय है कि जिन मार्गणाओंमें ओघ उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और ओघ जघन्य अनुभागविभक्ति सम्भव नहीं है वहां जो सबसे उत्कृष्ट अनुभाग हो उसे आदेश उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और जो सबसे कम अनुभाग हो उसे आदेश जघन्य अनुभाग विभक्ति जानना चाहिए। उदाहरणस्वरूप आभिनिबोधिक ज्ञानमें एकस्थानिक और द्विस्थानिक यह दो प्रकारकी अनुभागविभक्ति ही सम्भव है, इसलिए यहां उत्कृष्ट से आदेश उत्कृष्ट द्विस्थानिक अनभागविभक्ति ली गई है। तथा सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य अनुभागविभक्ति भी द्विस्थानिक सम्भव है, इसलिए वहां जघन्यसे आदेश जघन्य अनुभागविभक्ति ली गई है। इसी प्रकार सर्वत्र जहाँ जो सम्भव हो उसे घटित कर लेना चाहिए।
६ १५. सादि अनुभागविभक्ति, अनादि अनुभागविभक्ति, ध्रुवअनुभागविभक्ति और अध्रुवअनुभागविभक्ति की अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-अोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघ की अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि अध्रुव है। अजघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है । आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्ति क्या सादि है, क्या अनादि है क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रव है, क्योंकि
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्ती सामित्तं
११
पदपरिवत्तणेण णिग्गमणपवेसेहि य तदुवलंभादो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारमग्गणा चि ।
१६. सामित्तं दुविहं – जहण्णमुकस्सं च । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सोओघे० आदेसे ० | ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स उक्कस्साणुभागं बंधिदू जाव ण हदि ताव सो एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चउरिंदि वा असणिपंचिंदिश्रो वा अण्णदरस्स जीवस्स अण्णदरगदीए वट्टमाणस्सं । असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु मणुसोववादियदेवेसु च णत्थि । अणुक्कस्साणुभागो
कस्स ? अण्णदरस्स ।
I
पदपरिवर्तनकी अपेक्षा और नरकसे निकलने और नरक में प्रवेश करनेका अपेक्षा उत्कृष्ट आदि चारोंका सादि और अध्रुवभाव बन जाता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिये । विशेषार्थ - घसे मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में होता है, अतः वह सादि और अध्रुव है । उससे पहले अजघन्य अनुभाग होता है अतः जो सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक नहीं हुए उनके अजघन्य अनुभाग अनादि है । भव्य की अपेक्षा वह अध्रुव है और भव्य की अपेक्षा ध्रुव है । तथा उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध उत्कृष्ट संक्लेश परिणामी मिध्यादृष्टि होता है और तब तक ही उसका सत्त्व रहता है जब तक उसका घात नहीं करता, अतः वह सादि और अध्रुव है । उत्कृष्ट अनुभागबन्ध के पश्चात् जो बन्ध होता है उसे अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध कहते हैं, अतः अनुत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी सादि और अध्रुव ही होता है । मार्गणाओंमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रुव ही होते हैं, क्यों कि एक तो मार्गणाऐं बदलती रहती हैं और दूसरे कोई मार्गणा नहीं भी बदलती है जैसे अभव्य तो उनमें उत्कृष्ट आदि पद बदलते रहते हैं, अतः मार्गणाओं में उत्कृष्ट आदि चारोंके सादि और अध्रुव ये दो पद ही सम्भव हैं। $ १६. स्वामित्व दो प्रकारका है- - जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ उत्कृष्ट स्वामित्व से प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— प्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जो जीव उसका जब तक घात नहीं करता है तब तक वह एकेन्द्रिय हो या दोइन्द्रिय हो या तेइन्द्रिय हो या चौइन्द्रिय हो अथवा असं पच ेन्द्रिय हो किसी भी गतिमें वर्तमान किसी भी जीवके उत्कृष्ट अनुभाग होता है । किन्तु असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्यों में तथा मनुष्यों में ही जिनकी उत्पत्ति होती है उन देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता है । अनुत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? किसो भी जीवके होता है।
१. उक्कोसगँ पबंधिय श्रावलियमइच्छिण उक्कस्सं । जाव ण घाएह तयं संकामइ श्रमुहुरांता ॥१२॥ मिथ्यादृष्टिरुत्कृष्टमनुभागं बद्ध्वा तत श्रावलिकामतिक्रम्य बन्धावलिकायाः परत इत्यर्थः । तमुत्कृष्टमनुभागं संक्रमयति तावद्यावन्न विनाशयति । कियन्तं कालं यावत् पुनर्न विनाशयतीति चेत् उच्यते - मुहूर्तान्तः - श्रन्तमुहूतं यावदित्यर्थः । परतो मिथ्यादृष्टिः शुभ प्रकतीनामनुभागं संक्लेशेन श्रशुभप्रकृतीनां तु विशुद्धयाऽवश्यं विनाशयति ॥ ५२ ॥ कर्मप्र० संक्र० ।
“मिच्छतस्स उक्कस्लाणुभाग संतकम्मं कस्स ? उक्कस्सारणुभागं बंधिदूण जाव ण हादि ताव सो होज्ज एइंदिश्रो वा बेइंदिओ वा तेइंदिश्रो वा चउरिंदिओ वा असरणी वा सरणी वा । श्रसंखेज्जवरसाउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च णत्थि ।” चू० सू०
२. " श्रसंखेज्जवस्सा उएस इति वुत्ते भोगभूमियतिरिक्खमगुस्साएं गहणं । ............. वादियदेवे शिवुरो श्राणदादि उवरिमसव्वदेवाणं गृहणं मणुस्सेसु चेव तेसिमुपती दो ।'
'मनुस्सोव"एदेसु
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१२
aadiwarrr
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ १७. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्कस्साणु० कस्स ? अण्णदर० उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव सो ण हणदि ताव । अणुक्क० कस्स ? अण्णद० । एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्व-सव्वमणुस्स-देव. भवणादि जाव सहस्सार० पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि०--ओरालिय०-वेउव्विय०-तिण्णिवेद०चत्तारिक०-तिण्णिअण्णाण-असंजद०-चक्खु०-अचक्खु०-पंचले०-भवसि०--अभवसि०मिच्छादिहि-सण्णि--आहारि ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. मोह० उक्कस्साणुभागविहत्ती कस्स ? अण्णद० मणुस्सो वा मणुस्सिणी वा [पंचिंदियतिरिक्ख
विशेषार्थ-मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध चारों गतिके उत्कृष्ट संक्लेशपरिणामी संज्ञी पश्चन्द्रिय पर्याप्तक जीव करते हैं। करने पर जब तक उसका घात नहीं किया जाता तब तक वह जीव मरकर जहां भी उत्पन्न होगा वहीं उसके उत्कृष्ट अनुभागका सत्व पाया जायेगा। इसी कारणसे एकेन्द्रियादिकमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध न होने पर भी उसका सत्त्व कहा है। किन्तु भोगभूमियां जावोंके मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागसत्त्व नहीं होता, क्योंकि न तो वहाँ मोहनीय का उत्कृष्ट अनुभागबन्ध ही होता है और न उसकी सत्तावाला जीव वहां जन्म ही लेता है। इसी प्रकार आनतादि स्वर्गके देवोंके भी मोहनीय के उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व नहीं होता, उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला कोई जीव यदि भोगभूमि या आनतादि स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाला होता है तो उत्कृष्ट अनुभागका घात करके ही उत्पन्न हो सकता है। उत्कृष्ट अनुभागसे अतिरिक्त अनुत्कृष्ट अनुभाग कहते हैं और ऐसा अनुभाग प्रायः सभी मोही जीवों के पाया जाता है।
१७. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीककर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक किसी भी जीवके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग होता है। अनुत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? किसी भी जीवके होता है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग तकके देव, पंचेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय पर्याप्त, स, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, तीनों वेदी, चारों कषायवाले, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्ललेश्याके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, सज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिये। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्टानुभागविभक्ति किसके होती है ? जो मनुष्य, मनुष्यिनी, उक्कस्साणुभागसंतकम्मं णस्थि तं घादिय विट्ठाणियं करिय पच्छा एदेसुप्पीदो । ण च.तस्थ उक्कस्साणुभागबंधो वि अस्थि, तेउपम्मसुक्कलेस्साहि तिरिक्ख-मणुस्सेसु सुक्कलेस्सियाए देवेसु च उक्कस्साणुभागबंधभावादो।" ज० ध० अनु० वि० । " तथा चोक्तं पञ्चसंग्रहमुलटीकायाम्-'सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयश्च सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वयो!त्कृष्टमनुभागं विनाशयन्ति अपि तु क्षपकः सम्यग्दृष्टिविनाशयति उभयोरपि दृष्टयोरिति । मिथ्यादृष्टिः पुनः सर्वासामपि शुभप्रकृतीनां संक्लेशेनाशुभप्रकृतीनां तु विशुद्धया अन्तर्मुहूर्तात्परतः उत्कृष्टमनुभागमवश्यं विनाशयति ॥५६॥ कर्मप्र. संक्र० - अणुभागं अन्नयरो सुहुमअपज्जतगाइ मिच्छो उ। वज्जिय असंखवासाउए च मणुप्रोववाए य ॥५३॥ केवलमसंख्येयवर्षायुषो मनुष्यतिर्यञ्चो ये च देवाः स्वभवाच्च्युत्वा मनुष्येषु उत्पद्यन्ते तांश्च मनुष्योपपाताः अानतप्रमुखान् देवान् वर्जयित्वा । एते हि मिथ्यादृष्टयोऽपि नाशुभप्रकृतीनामुक्तस्वरूपणामुत्कृष्टमनुभागं 'बध्नन्ति, संक्लेशाभावात् ॥ कमप्र० संक्र० ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सामित्त जोणियो वा] पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीओ वा उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव ण हणदि ताव जो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स उक्कस्साणुभागविहत्ती । एवं मणुसअपज्ज०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०-सव्वपंचकाय-तसअपज्ज. ओरालियमिस्स०-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-असण्णि-अणाहारि ति ।।
१८. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति मोह० उक्कस्स० कस्स ? अण्णदरस्स जो तप्पाओग्गउक्कस्सअणुभागसंतकम्मिओ दव्वलिंगी मदो अप्पप्पणो देवेमु उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव तस्स उकसाणुभागविहत्ती । हदे अणुकस्सा । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति उक्कस्साणुभागविहत्ती कस्स ? अण्णदरस्स जो तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ वेदगसम्मादिही अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव उक्कस्साणुभागविहत्ती। हदे अणुक्कस्साणुभागविहत्ती ।
६ १६. आहार-आहारमिस्स० उक्कस्साणुभाग० कस्स ? जो संजदो वेदगसम्माइही अहावीससंतकम्मिओ तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मेण उहाविदाहारसरीरो तस्स उक्कस्सिया अणुभागविहत्ती । अण्णस्स अणुक्कस्सिया । अवगद० उक्क० पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अथवा पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके उसका घात किये बिना हो यदि पंचेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में उत्पन्न होता है तो उस पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। इसी प्रकार मनुष्यअपर्याप्त, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पश्चन्द्रिय अपर्याप्त, सब पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्तक, औदारिकमिश्रयोगी, वैक्रियिक मिश्रयोगी, कार्मणकाययोगी, असंज्ञो और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-मूलमें नारकीसे लेकर आहारक पर्यन्त जो मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है, अतः उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं किया जाता तब तक उक्त मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। तथा पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपयोप्तकमें और मूलमें गिनाई गई मनुष्य अपर्याप्तकसे लेकर अनाहार मार्गणापर्यन्त मार्गणाओंमें यद्यपि मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध तो नहीं होता है, किन्तु कोई मनुष्य आदि यदि उसका बन्ध करके उक्त मार्गणाओंमें आजाते हैं तो उनमें भी उत्कृष्ट अनुभागका सत्त्व पाया जाता है।
६१८. आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जिसके आनतादि स्वर्गके योग्य मोहनीयकर्मके उत्कष्ट अनुभागकी सत्ता है ऐसा जो द्रव्यलिङ्गी मरकर अपने योग्य उक्त देवोंमें उत्पन्न होता है वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है और उत्कृष्ट अनुभागका घात कर देने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक उत्कृष्टानुभागविभत्ति किसके हीती है ? अनुदिश आदिके योग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि अपने योग्य उक्त देवोंमें उत्पन्न होता है वह जब तक उत्कृष्ट अनुभागका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्टानुभागविभक्ति होती है, और उत्कृष्ट अनुभागका घात करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है ।
६१६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति किसके होती है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो वेदकसम्यग्दृष्टि संयमी तत्प्रयोग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ताके रहते हुए आहारकशरीरको उत्पन्न करता है उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है,
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१४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ कस्म ? जो अवगदवेदअणियट्टिउवसामओ पढमाणुभागकंडए वट्टमाणओ तस्स उक्कस्साणुभागविहत्ती । हदे अणुक्कस्सा । एवमकसाय-जहाक्खादसंजदाणं । णवरि उवसंतकसायपढमादिसमए तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मेण वट्टमाणस्स वत्तव्वं; तत्थ अणुभागस्स घादाभावादो।
२०. णाणाणु० आभिणि०-सुद०-ओहि. मोह० उक्क कस्स ? जेण मिच्छादिहिणा अहावीससंतकम्मिएण तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागेण सह वेदगसम्मत्तं पडिवण्णं जाव तं ण हणदि ताव तस्स उक्कस्साणुभागविहत्ती। तम्मि हदे अणुक्कस्सा । एवं संजद संजद०-ओहिदंस०-सम्मादि०-वेदग०-सम्मामि०दिहि ति। मणपज्जव० आहार०भंगो। एवं संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०संजदा ति। सुहुमसांपराय० उक० कस्स ? मुहुमसापराइयउवसामयस्स सगउक्कस्साणुभागेण सह वट्टमाणस्स । तम्हि हदे अणुक्कस्सो। सुक्कले० आभिणिभंगो। उवसमसम्मा० मोह० उक्क० कस्स ? जो मोहतप्पाओग्गउक्कस्ससंत्तकम्मेण सह वट्टमाणो उवसमसम्मादिही जाव पढमाणुभागखंडयं ण हणदि ताव तस्स उक्कस्साणुभागविहत्ती। तम्मि हदे अणुक्कस्सा। खइयसम्मा० अन्यके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। अपगतवेदमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति किसके होती है जो अनिवृत्तिकरण गुणस्थानके अवेद भागवर्ती उपशमश्रेणिवाला जीव प्रथम अनुभागकाण्डक में विद्यमान है उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है । तथा उसका घात करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। इसीप्रकार अकषाय और यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानके प्रथम आदि समयमें उसके योग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तासे युक्त जीवके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति कहनी चाहिये, क्योंकि वहां अनुभागका घात नहीं होता है।
२०. ज्ञानकी अपेक्षा आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानीमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाले जिस मिथ्यादृष्टिने तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागके साथ वेदकसम्यक्त्व प्राप्त किया है, जब तक वह उस अनुभागका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। तथा उत्कृष्ट अनुभागका घात करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। इसी प्रकार संयतासंयत, अवधिदर्शनी, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंके जानना चाहिये । मनःपर्ययज्ञानमें आहारककाययोगी के समान जानना चाहिये । इसी प्रकार संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत और परिहारविशुद्धिसंयतोंके जानना चाहिये । सूक्ष्मसाम्परायसंयतमें उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जो सूक्ष्मसाम्परायसंयत उपशामक जीव अपने उत्कृष्ट अनुभागके साथ विद्यमान है उसके उत्कृष्ट अनुभाग होता है और उसका घात होने पर अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है। शुक्ललेश्यावालेके आभिनिबोधिकज्ञानी की तरह भंग होता है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जो उपशमसम्यग्दृष्टि मोहनीयकर्मके अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागको सत्तासे युक्त होता हुआ जब तक प्रथम अनुभागकाण्डकका घात नहीं करता है, तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। और उसका घात करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीय
१. अ० प्रती मोहतप्पाश्रोग्गसंतकम्मेण इति पाठः ।
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीय सामित्तं
१५.
मोह० ० उक्क० कस्स ? जेण दंसणमोहणीयं खवेंतेण अनंताणुबंधिचउक्कं विसंजोए तेण सव्वजहण्णो अणुभागो घादिदो अणुवसामिदचारित्तमोहणीयो तस्स उकस्सओ अणुभागो । [ अण्णस्स अणुक्कस्सो ] | सासण० मोह ० उक्क० कस्स ? जो उवसमसम्मादिsी उकस्साणुभागेण सह सासणं पडिवण्णो तस्स उक्कस्सा । अवरस्स अणुक्कस्सा | एवमुक्कस्ससामित्ताणुगमो समत्तो ।
२१. जहण पदं । दुविहो णिद्देसो - श्रघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० ज० अणुभागो कस्स ० अण्णदर० खवगस्सं चरिमसमय सकसायस्स । एवं मणुसतिय-- पंचिंदिय --- पंचिं० पज्ज०--तस तसपज्ज०- पंचमण - पंचवचि ० --- काय जोगिओरालिय० -- अवगदवेद ० - लोभक० -- आभिणि० --- मुद - ओहि 0-- १०- मणपज्ज०-०--संजद ०सुहुमसांपराय ० -- चक्खु ० - अचक्खु ० - ओहिदंस ० - सुक्कले ० - भवसि ० - सम्मादिहि ० खइय०सणि० - आहारिति ।
0
कर्मका उत्कृष्ट अनुभाग जिसके होता है ? दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करते समय जिस क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवने सबसे जघन्य अनुभागका घात किया है तथा चारित्रमोहनीयका उपशम नहीं किया है उसके उत्कृष्ट अनुभाग होता है और इसके सिवा अन्य क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीवके अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है । सासादन सम्यग्दृष्टियों में मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग किसके होता है ? जो उपशमसम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट अनुभाग के साथ सासादनगुणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके उत्कृष्ट अनुभाग होता है और अन्यके अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है ।
विशेषार्थ - यहां आभिनिबोधिकज्ञान आदि जिन मार्गणाओं में मिध्यात्व गुणस्थान से जाना सम्भव है उनमें मिथ्यात्व गुणस्थानसे ले जाकर उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति प्राप्त करनी चाहिए । और आहारक काययोग आदि जिन मार्गणाओं में मिथ्यात्व गुणस्थानसे जाना सम्भव नहीं है उनमें ऐसे जीवको ले जाना चाहिए जिसके तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागके साथ उस मार्गणा में जाना सम्भव हो। इसी प्रकार सर्वत्र उत्कृष्ट स्वामित्वका विचार करना चाहिए ।
इसप्रकार उत्कृष्ट स्वामित्व समाप्त हुआ ।
२१. अब जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेश निर्देश । ओघ की अपेक्षा मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? सकषाय क्षपकके अन्तिम समय में अर्थात् दसवें गुणस्थानके अन्त में मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग होता है । इस प्रकार तीनों मनुष्य, पंचेन्द्रिय, पञ्च ेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रस पर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, अपगतवेदी, लोभकषायवाले, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सूक्ष्मसाम्परायसंगत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और हारक जीवों में जानना चाहिये ।
१. लोभसंजलस्स जहरणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयसकसायिस्स ।' चू० सू० ज० ध०, अनु० वि० ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ २२. आदेसेण णेरइएस मोह० ज० अणुभागो कस्स ? अण्णद. जो हदसमुप्पत्तियअणुभागसंतकम्मसिओ असण्णिपच्छायदों णेरइएसु उववण्णो पुणो जाव सो बंधेण ण वडदि ताव तस्स जहणिया अणुभागविहत्ती। एवं पढमाए पुढवीए । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स उक्कस्सपरिणामेहि अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदसम्माइहिस्स। एवं जोदिसियदेवाणं पि वत्तव्वं ।
$ २३ तिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णद० जो "सुहुमेइंदिओ अपज्जत्तो कदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मो जाव जहण्णाणुभागसंतकम्मस्सुवरि बंधेण ण
विशेषार्थ अनुभागकाण्डकघात आदि क्रियाविशेषके कारण क्षपक सूक्ष्मसाम्यरायके अन्तिम समयमें मोहनीयका सबसे जघन्य अनुभाग उपलब्ध होता है, इसलिए अन्तिम समयवर्ती क्षपक सूक्ष्मसाम्यरायिक जीवको जघन्य अनुभागका स्वामी कहा है। मूलमें गिनाई गई अन्य मार्गणाओंमें यह अवस्था सम्भव है, अतः उनका कथन ओघके समान किया है।
६२२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक अनुभाग सत्कर्मवाला जीव असंज्ञी पर्यायसे आकर नारक पर्यायमें उत्पन्न हुआ है वह जब तक पुनः बन्धके द्वारा अनुभागको नहीं बढ़ा लेता है तब तक उसके जघन्य अनुभागविभक्ति होती है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो सम्यग्दृष्टि उत्कृष्ट परिणामोंसे अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर चुका है उसके होता है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें भी कथन करना चाहिये।
विशेषार्थ-सत्तामें स्थित अनुभागका घात करनेके बाद जो अनुभाग शेष बचता है उसे हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्म कहते हैं। ऐसे अनुभागवाले असंज्ञीके नरकमें उत्पन्न होने पर उस नारकीके शरीर ग्रहणके पूर्व तक मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है। इसलिए सामान्यसे नरकमें ऐसे जीवको जघन्य अनुभागका स्वामी कहा है। प्रथम नरकमें ऐसा जीव उत्पन्न होता है, इसलिए उसका कथन सामान्य नारकियोंके समान किया है। किन्तु द्वितीयादि नरकोंमें संज्ञीके योग्य अनुभाग ही सम्भव है, इसलिए वहाँ जघन्य अनुभागका स्वामित्व जिसने उत्कृष्ट परिणामोंसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसे जीवको दिया है। ज्योतिषी देवोंमें इसी प्रकार जघन्य स्वामित्व प्राप्त किया जा सकता है, इसलिए उनका कथन द्वितीयादि नरकोंके नारकियोंके समान किया है।
६२३. तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीव जब तक जघन्य अनुभाग सत्कर्मके ऊपर बन्धके
१. 'हते घातिते समुत्पत्तिस्य तद् हतसमुत्पत्तिकं कर्म । अणुभागसंतकम्में धादिदे जमुवरिद जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा ति भणिदं होदि । ज० ध० अनु० वि० । ""हतं विनाशितं प्रभूतमनुभागसत्कर्म येन स हतसत्कर्मा ॥५३॥ कर्मप्र० सं०
२. "णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ? असएिणस्स हदसमुष्पत्तियकम्मेण पागदस्स ।” चू० सू०, ज० ध०, अनु० वि०। ३. श्रा० प्रतौ वट्टदि इति पाठः ।
४. "मिच्छत्तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? सुहुमस्स । हदसमुप्पत्तियकम्मेण अएणदरो एइंदिश्रो वा वेइंदिनो वा तेइंदिओ वा चउरिंदिनो वा असएणी वा सरणी वा सुहुमो वा बादरो वा पजतो वा अपज्जतो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मिश्रो होदि ।” चू० सू०, ज० ध०, अनु० वि० ।
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीए सामि
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दि ताव तस जहणओ अणुभागो । एवमेइंदिय-मुहुमेई दिय-मुहुमेई दिय अपज्जत वणष्फदि-णिगोद-मुहुमवणप्फदि- सुहुमणिगोद तेसिं चेव अपज्जत० ओरालियमिस्स ० दोणि अण्णाण संजद ० - तिणिले ० - अभव०-मिच्छादिहि असण्णि त्ति ।
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१ २४. पंचिदियतिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अण्णदरस्स जो पंचिंदियतिरिक्खो कदहदसमुप्पत्तियमुहुमेइंदियचरो जाव जहण्णसंतकम्मस्सुवरि
ण ण बंध ताव तस्स जहण्णओ अणुभागो । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तापज्जत-पंचिं० तिरि० जोणिणि मणुस अपज्ज०-- सव्वबादरेइंदिय- मुहुमेइं दियपज्ज०- सव्वविगलिंदिय-- पंचिंदियअपज्ज०-- सव्वचत्तारिकाय - सव्वबादरवणफदिकाइय--सव्वबादरणिगोद- सुहुमवणफदि --मुहुमणिगोदपज्ज० - तस अपज्ज० कम्मइय० - अणाहारि ति ।
$ २५. देव भवण० -- वाण० - वेडव्वियमिस्सं० णेरइयभंगो | सोहम्मादि जाव सव्वसिद्धि त्ति मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? अएणद० जो एक्कम्हि भवे दोवार -
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द्वारा अनुभागको नहीं बढ़ा लेता है तबतक उसके जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक, वनस्पतिकायिक, निगादिया, सूक्ष्म वनस्पति, सूक्ष्म निगोदिया और उनके अपर्याप्त, औदारिकमिश्रकाययोगी, कुमतिज्ञानी, कुश्रुतज्ञानी, असंयत, तीनों अशुभ लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञीमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके ये सब मार्गणाऐं सम्भव हैं इसलिए इनमें जघन्य अनुभागका स्वामित्व तिर्यञ्चों के समान कहा है ।
२४. पचेन्द्रिय तिर्यवों में मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जिसने अनुभाग हतसमुत्पत्तिक किया है तथा जो सूक्ष्म एकेन्द्रियसे आकर पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याय में उत्पन्न हुआ है ऐसा जो पंचेन्द्रिय तिर्यंच जघन्य सत्कर्मके ऊपर जब तक अनुभाग बढ़ा कर नहीं बाँधता है तब तक उसके जघन्य अनुभाग होता है। इसी प्रकार पच ेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय तिर्यन पर्याप्त, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, मनुष्य अपर्याप्तक, सब बादर एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, सब विकलेन्द्रिय, पञ्च ेन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब बादर वनस्पतिकायिक, सब बादर निगोद, सूक्ष्म वनस्पति, पर्याप्त, सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक, त्रस अपर्याप्तक, कार्मरणकाययोगी और अनाहारकमें जानना चाहिये । विशेषार्थ - इन सब मार्गणाओं में पच ेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकों की उत्पत्ति सम्भव है और यथासम्भव शरीर ग्रहणके पूर्व तक उनके वह अनुभाग बना रहता है, इसलिए इनका कथन पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान किया है ।
२५. सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर और वैक्रियिकमिश्रकाययोगीमें नारकियोंकी तरह भंग होता है । अर्थात् जैसे पहले नरकमें मोहनीयका जघन्य अनुभाग बतलाया है वैसे ही इनमें भी होता है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी जीव इनमें भी जन्म ले सकता है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो
१. भा० प्रतौ वहृदि इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ वढिदूण बंधदि इति पाठः । वाण० वेठ० वेउब्वियमिस्स ० इति पाठः ।
३
३. श्र• प्रतौ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मुवसमसेढिमारुहिय पच्छा दंसणमोहणीयं खविय पुणो अप्पिददेवेसु उववण्णस्स । एवं वेउव्वियकायजोगीणं ।।
$ २६. आहार०-आहारमिस्स० मोह० जहएणाणुभागो कस्स ? जेण दोवारमुवसमसेढिमारुहिय हेढा ओदरिय दंसणमोहणीयं खविय पच्छा आहारसरीरमुहाविदं तस्स जहएणओ अणुभागो । एवं परिहार०-संजदासंजदाणं ।
$ २७. इत्थिवेदेसु मोह० जहएणाणुभागो कस्स ? चरिमसमयसवेदस्स खवयस्स । एवं पुरिसं०-णस०वेदाणं० । तिण्हं कसायाणमेवं चेव । णवरि अप्पप्पणो चरिमसमयसकसायस्स जहएणाणुभागो।
$ २८. अकसाईसु जहण्णाणुभागो कस्स ? एगवारमुवसमसेढिमारुहिय ओयरिदण पुणो उवसमसेटिं चडिय उवसंतकसायत्तमावणस्स । एवं जहाक्खादसंजदाणं। विहंग मोह. जहएणाणुभागो कस्स ? अण्णद० दोवारमुवसमसेटिं चडिय एक भवमें दोबार उपशमश्रेणिपर चढ़कर, पश्चात् दर्शनमोहनीयका क्षपण करके पुन: विवक्षित देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार वैक्रियिककाययोगियों में जानना चाहिये।
६२६. आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगीमें मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जिसने दो बार उपशमणि पर चढ़कर नीचे उतरकर दर्शनमोहनीय का क्षपण करके पीछे आहारकशरीर उत्पन्न किया है उसके जघन्य अनुभाग होता है। इसी प्रकार परिहारविशुद्धिसंयत और संयतासंयतमें जानना चाहिये।
२७. स्त्रीवेदी जीवोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है । क्षपकणि वाले सवेदी जीवके अन्तिम समयमें होता है। इसी प्रकार पुरुषवेदी और नपुंसकवेदीके जानना चाहिये। तीनों कषायोंमें भी इसी प्रकार जघन्य अनुभाग होता है। इतनी विशेषता है कि सकषाय जीवके अपने अपने कषायके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है। अर्थात् जैसे वेदकी अपेक्षा क्षपकरणिवाले सवेदीके अन्त समयमें मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग होता है वैसे ही क्रोधकषायकी अपेक्षा क्षपकणिवाले सकषाय जीवके क्रोधकषायके अन्तिम समयमें मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग होता है, मान कषायकी अपेक्षा मान कषायके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है आदि।
२८. अकषाय जीवोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? एक बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर उतरकर पुन: उपशमश्रेणि पर चढ़कर जो जीव उपशान्तकषाय गुणस्थानको प्राप्त हुआ है उसके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतोंके जानना चाहिये । विभंगज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो
१. 'इस्थिवेदस्स जहएणयमणुभागसंतकम्म कस्स ! खवयस्स चरिमसमयइस्थिवेदस्स ।' "पुरिसवेदस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? पुरिसवेदेण उवट्टियस्स चरिमसमयसंकामयस्स ।"
चू० सू० ज० ध०, अनु. वि०। ....... २. "णqसयवेदस्स जहएणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयणqसयवेदयस्स ।”
चू० सू०, ज० ५०, अनु० वि०।
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गा० २२]
अणुभागवित्तीय सामित्तं
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ट्ठा दरिण समयाविरोहेण विहंगणाणं पडिवण्णस्स । सामाइय-छेदो० मोह० जहण्णाणुभागो कस्स ? चरिमसमयणियट्टिस्स खवगस्स । तेउ०- पम्म० सोहम्मभंगो | वेदग० मोह ज० कस्स ? दोवारमुवसमसेटिं चडिय ओदरिदूण दंसणमोहणीयं खविय पढमसमयकदकरणिज्जभावं गदस्स । एवमुवसम० । णवरि उक्संतकसायद्धाए हेडा वा ओरियमाण उवसमसम्मादिहिस्स । एवं सासण० - सम्मामिच्छादिट्ठीणं । एवं जहण्णसामित्ताणुगमो समत्तो ।
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दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर उससे नीचे उतरकर आगमके अनुसार विभंगज्ञानको प्राप्त करता है अर्थात मरकर उपरिम ग्रैवेयकमें उत्पन्न होकर मिध्यात्वको प्राप्त करके विभंगज्ञानी हो जाता है उसके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । सामायिकसंयत और छेदोपस्थापनासंयतों में मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? क्षपक अनिवृत्तिकरणगुणस्थानके अन्तिम समयवर्ती जीवकं होता है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्या में सौधर्म स्वर्गकी तरह भंग जानन चाहिये । अर्थात जो दो बार उपशमश्रेणि पर चढ़कर पीछे दर्शनमोहनीयका क्षय करके देवों में उत्पन्न हो और वहाँ उसके तेज या पद्मलेश्या हो तो तेजोलेश्या या पद्मलेश्या की अपेक्षा उस जीवके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में मोहनीय कर्मका जघन्य अनुभाग किसके होता है ? जो दो बार उपशमश्रेणिपर चढ़कर, उतरकर, दर्शन मोहनीयका क्षय करके कृतकृत्यपनेको प्राप्त हुआ है उसके प्रथम समय में मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टि के जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि उपशान्तकषाय गुणस्थानके कालमें विद्यमान अथवा नीचे उतरकर विद्यमान उपशमसम्यग्दृष्टि जीवके माहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । अर्थात् वह उपशमसम्यग्दृष्टि ग्यारहवें गुणस्थानमें हो या उससे नीचे उतर गया हो उसके मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग होता है । इसी प्रकार सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियों के जानना चाहिये ।
विशेषार्थ - ऊपर सौधर्म स्वर्गसे लेकर जिन मार्गणात्रों में मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभाग का स्वामित्व बतलाया है उनमें यदि क्षपकश्रेणि संभव है तो क्षपकश्रेणिमें अपने अपने क्षयकाल के अन्तिम समयमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका स्वामित्व जानना चाहिये । जैसे स्त्रीवेदी आदिमें | किन्तु जिनमें क्षपकश्रेणि संभव नहीं है उनमें यदि उपशमश्र णि हो सकती है तो दूसरी बार उपशमश्रेण पर चढ़े हुए जीव ययायोग्य जघन्य अनुभागके स्वामी होते हैं । किन्तु जिनमें उपशमश्र णि भी संभव नहीं है उन मार्गणाओं में दूसरी बार उपशम शि पर चढ़कर नीचे गिरकर दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाला जीव विवक्षित मार्गणावाला होने पर जघन्य अनुभागका स्वामी होता है । किन्तु दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जिन मार्गणाओं में जाना शक्य नहीं है जैसे विभंगज्ञान, उपशमसम्यग्दर्शन आदि तो उनमें दूसरी बार उपशमश्र णि पर चढ़कर नीचे गिरनेवाला जीव ही दर्शनमोहनीयका क्षपण किये बिना विवक्षित मार्गणावाला होने पर जघन्य अनुभागका स्वामी होता है । सारांश यह है कि जिस मार्गणा में जिस प्रकारसे जिस जीवके जघन्य अनुभागकी सत्ता रह सकती है उस मार्गणा में उस प्रकारसे उस जीवके जघन्य अनुभागका स्वामित्व जानना चाहिये। उससे अतिरिक्त प्रकारके जीवोंके उसी मार्गणा में अजघन्य अनुभाग होता है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिये कि जिस मार्गणा में मोहनीयका जो सबसे कम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $ २६. कालो दुविहो-जहएणओ उक्कस्सो चेदि । उकस्सए पयदं । दविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहत्ती केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । एवं तिरिक्ख-एइंदिय-वणप्फदि--कायजोगि-णवंसयवेदमदि--सुदअण्णाण-असंजद--अचक्खु०--भवसि०--मिच्छादि०--असण्णि त्ति । णवरि तिरिक्ख०-कायजोगि०--णसयवेदेसु उक्क. अणुक्क० जह० एयसमओ। एइंदियवणप्फदि-असरणीसु उक्क० जह० एगसमओ । अनुभाग पाया जाता है उस मार्गणामें वही जघन्य अनुभाग है, उससे अतिरिक्त शेष अनुभाग अजघन्य अनुभाग है।
इस प्रकार जघन्य स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६२६. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकार का है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनन्त काल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तन है। इसी प्रकार तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक, काययोगी, नपुंसकवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनी, भव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञी जीवोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च, काययोगी और नपुंसकवेदी जीवों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और एकेन्द्रिय, वनस्पतिकायिक और असंज्ञी जीवोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त ही है; क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके काण्डकघातके बिना बहुत कालतक रहने पर भी अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक रहना संभव नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल तो अन्तमुहर्त ही है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अन्तमुहूर्त कालके बाद पुनः उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर सकता है। परन्तु उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तन है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ पञ्च द्रियपर्यायमें अपने योग्य उत्कृष्ट काल तक रहकर पुनः एकेन्द्रियपर्यायमें चला जाने पर और वहाँ असंख्यात पुद्गल परिवर्तन विताकर पुनः पञ्चन्द्रिय होकर उत्कृष्ट अनुभाग करने पर उतना काल बन जायेगा। इसी प्रकार तिर्यञ्चसे लेकर असंही पर्यन्त जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि तिर्यञ्च, काययोगी और नपुंसकवेदीमें दोनों विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागका अवस्थान काल एक समय प्रमाण शेष रहने पर यदि कोई अन्य गतिका जीव मरकर तियश्च हो या अन्य वेदवाला जीव मरकर नपुंसकवेदी हो तो तिर्यश्च और नपुंसकवेदीके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल एक समय होता है। इसीप्रकार वचनयोग या मनोयोगमें स्थित उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ताके एक समय प्रमाण शेष रहने पर काययोगी हुआ या काययोगमें वर्तमान कोई मिथ्यादृष्टि एक समय तक उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें वचनयोगी या मनोयोगी हो गया तो उसके काययोगमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल एक समय होता है इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनु
१. प्रा० प्रतौ जह० उवसम० एइंदिय इति पाठः ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए कालो ३०. आदेसेण णेरइएमु मोह० उक्कस्साणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०--सव्वमणुस०-देव० -भवणादि जाव सहस्सार० सव्वबादरेइंदिय-सव्वमुहमेइंदिय-सव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज.. सव्वचत्तारिकाय०--सव्वबादरमुहुमवणप्फदि-सव्वणिगोद--तसअपज्ज०---पंचमण०-- पंचवचि०-ओरालिय०--ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०चत्तारिकसाय-विभंगणाण-किण्ह-णील-काउलेस्सिया ति ।।
३१. संपहि जहाकममेदेसिमणुक्कस्सकालाणुगमं कस्सामो। तं जहा–णेरड्य. अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि भागविभक्तिका भी जघन्य काल एक समय बनता है। एकेन्द्रिय, वनस्पति और असंज्ञीमें भी उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल इसी प्रकार एक समय होता है, किन्तु इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय नहीं है, क्योंकि इनमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता है।
६३०. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, सब मनुष्य,सामान्य देव,भवनवासीसे लेकर सहस्रार पर्यन्त तकके देव, सन बादर एकेन्दिय,सब सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय अपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजकायिक, सब वायुकायिक, सब बादर सूक्ष्म वनस्पति, सब निगोदिया, त्रस अपर्याप्तक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लाभी, विभंगज्ञानी, कृष्णलेश्यावाले, नील लेश्यावाले और कापोतलेश्यावालोंमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ कोई मनुष्य या संज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च मिथ्यादृष्टि उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके और उत्कृष्ट अनुभागके कालमें एक समय शेष रहने पर यदि नारक आदिमें जन्म लेता है तो उनमें उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय पाया जाता है। इसी प्रकार सपर्याप्तक तक जानना। मनोयोग, वचनयोग या औदारिककाययोगमें स्थित कोई जीव अपने अपने योगका काल एक समय शेष रहने पर उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके दूसरे समयमें अन्य योगवाला हो गया तो उसके उस उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकाजघन्य काल एक समय पाया जाता है। या उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला कोई जीव मनोयोगसे वचनयोग या औदारिककाययोगमें या वचनयोगसे किसी दूसरे योगमें
आ जाता है और वहाँ एक समय बाद उत्कृष्ट अनुभागका परिघात कर देता है तो उस उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय बन जाता है। इसी प्रकार कोई मनुष्य या संज्ञी पञ्चन्द्रियपर्याप्त तियश्च उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके मरकर औदारिकमिश्रकाययोगी या वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ और एक समय तक उस योगमें उत्कृष्ट अनुभागके साथ रहकर दूसरे समय उत्कृष्ट
अनुभागका घात कर दिया तो उन योगोंमें उत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय बन जाता है। शेष 'विवक्षित मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय बन जाता है। इन सब मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है यह स्पष्ट ही है।
६३१. अब क्रमानुसार इनके अनुत्कृष्ट कालका अनुगम करते हैं, जो इस प्रकार हैनारकियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रत्येक नरकमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । पंचि०तिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज-पंचि०तिरि०जोगिणीसु अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं । पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज० अणुक्क० ज० उक्क० अंतोमु०। एवं मणुसअपज्ज०-पंचिंदियअपज्ज०--सव्वविगलिंदियअपज्जा--तसअपज्जत्ताणं । देवभवणादि जाव सहस्सार त्ति अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अप्पप्पणो उक्कस्सहिदी। आणदादि जाव सव्वसिदि ति उक्कस्स-अणुक्कस्सअणुभागाणं जहण्णेण अंतोमु०, उक्क. सगसगुक्कस्सहिदी।
अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहना चाहिये। अर्थात् पहले नरकमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल एक सागर है, दूसरेमें तीन सागर है. तीसरेमें सात सागर है, चौथेमें दस सागर है, पाँचवेंमें सत्रह सागर है, छठेमें बाईस सागर है और सातवमें तेतीस सागर है। पञ्चन्द्रियतियश्च, पञ्चन्द्रियतिर्यश्च पर्याप्तक और पञ्चन्द्रियतिर्यश्चयोनिनी जीवोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य प्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्तक और मनुष्यनीके कहना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्त, पश्चन्द्रिय अपर्याप्त सब विकलेन्द्रिय अपर्याप्त और त्रसअपर्याप्तकोंके जानना चाहिये। सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्गपर्यन्तके देवोंके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-जिन पर्यायोंमें मोहनीय कर्मका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है, उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय बन जाता है। किन्तु यदि उन पर्यायोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध न हुआ हो और पिछले भवसे भी उत्कष्ट अनुभागको न लाया गया हो तो जीवनभर अनुत्कृष्ट अनुभागकी ही सत्ता रह सकती है। इसीसे नरकगतिमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहा है । पञ्चन्द्रिय तियंञ्च आदिमें तथा तीन प्रकारके मनुष्योंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है अतः उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय बन जाता है। तथा इन मार्गणाओंकी कायस्थिति तीन पल्य अधिक पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है, अतः इन मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट अनुभाग का उत्कृष्ट काल भी इतना ही कहा है । पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्काप्तक आदिमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता है, तथा एक जीवकी अपेक्षा इन मार्गणाओंका काल भी अन्तमुहर्त ही है, अतः इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही कहा है। भवनवासीसे लेकर सहस्त्रार स्वर्ग पर्यन्तके देवोंमें भी यदि उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हुआ तो अनुत्कृष्ट अनुभागका काल एक समय अन्यथा अपनी अपनी स्थिति प्रमाण होता है। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट अनुभागका घात न होने पर वह जीवन भर रह सकता है और घात होने पर उसका अन्तमुहूर्त काल उपलब्ध होता है। तथा जीवनके अन्तमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहने पर उत्कृष्ट अनुभागका घात होने पर अन्तिम अन्तमुहूर्तमें अनुत्कृष्ट अनुभाग पाया
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो
२३ ३२. इंदियाणुवादेण बादरेइदिएमु अणुक्क० जह० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तूणं, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो असंखेजासंखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । बादरेइंदियपज्जत्तएस अणुक्क० जह० उक्कस्साणुभागेकालेणूणमंतोमुहुत्तं, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियअपज्जत्तएसु अणुक्क० ज० उक्कस्साणुभागकालेणणं खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अंतोमु० । सुहुमेइंदिएमु अणुक्क० जह• उक्कस्साणुभागकालेणूणं खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा । मुहुमेइंदियपज्जत्तएसु अणुक्क० ज० उक्कस्साणुभागकालेणूणमंतोमुहुत्तं, उक्क० सयलमंतोमु० । मुहुमेइंदियअपज्जत्ताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो। विगलिंदिय-विगलिंदियपज्जत्ताणं अणुक्क० ज० उक्कस्साणुभागकालेणणं खुद्दाभवग्गहणमंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण संखेज्जाणि वाससहस्साणि । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु उक्कस्साणुभागो जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं । जाता है और जो अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ इन देवोंमें उत्पन्न होता है उनके जीवन भर अनुत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। इसीसे यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों प्रकारके अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है।
६ ३२. इन्द्रियकी अपेक्षा बादर एकेन्द्रियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण है जो कि असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी प्रमाण होता है। बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभाग कालसे कम अन्तमुहूर्त प्रमाण है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवा जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे कम क्षुद्र भवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकों में अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे कम अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण अन्तमुहूर्त प्रमाण है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तके समान भंग है। विकलेन्द्रिय तथा विकलेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे हीन क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। पञ्चन्द्रिय, और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक एक हजार सागर और सौ पृथक्त्व सागर है। ... विशेषार्थ बादर एकेन्द्रियका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है, जो जीव उत्कृष्ट अनुभागको लेकर बादर एकेन्द्रियमें उत्पन्न होता है वह एक अन्तमुहूर्तमें उसका घात कर देता है, अतः उसके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कम क्षुद्रभवप्रमाण बतलाया है तथा उत्कृष्ट काल बादर एकेन्द्रियकी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बतलाया है। आगे भी विकलेन्द्रिय पर्याप्तक
१. ता. प्रतौ अणुक्क जहरणुक्कस्सागुभाग- इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ३३. कायाणुवादेण पुढवि० आउ०-तेउ०-बाउक्काइएसु मोह० अणुक्क० जह० उक्कस्साणुभागकालेणणं खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवमेदेसि बादराणं । णवरि उक्क० कम्महिदी । बादरपुढवि०-बादराउ०--बादरतेउ०-बादरवाउ०पज्जत्तएसु अणुक्क जह० अंतोमु०,उक्क० संखेजाणि वाससहस्साणि । एदेसिमपज्जताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो । सुहुमपुढवि०--सुहुमआउ०-सुहुमतेउ०-सुहुमवाउक्काइएसु मोह० अणुक्क० ज० देसूणं खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एदेसिं पज्जत्ताणमपज्जत्ताणं च सुहमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । बादरवणप्फदिकाइयाणं तेसिं पज्जत्तापजत्ताणं च बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जतापज्जताण भंगो । सुहुमवणप्फदिकाइय० तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं सुहुमेइंदिय०सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । बादरवणप्फदिकाइयपत्ते यसरीराणं बादरपुढविभंगो.। तेसिं पजत्तापज्जत्ताणं बादरपुढविपज्जत्तापज्जत्तभंगो। णिगोदेसु मोह. अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० अड्डाइज्जपोग्गलपरियट्टा। बादरणिगोदाणं पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। अर्थात अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल तो उत्कृष्ट अनुभागके कालसे रहित अपनी अपनी जघन्य भवस्थिति प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है । पश्चन्द्रिय सामान्य और पश्चन्द्रिय पयोप्तकमें उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल पूर्ववत् एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहू त है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि इनके उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकता है। तथा उत्कृष्ट काल पञ्चन्द्रिय सामान्य और पञ्चन्द्रियपर्याप्तकको कायस्थिति प्रमाण है।
३३. कायकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिकोंमें मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे हीन क्षुद्रभव ग्रहण प्रमाण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लाक है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक, बादर जलकायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वायुकायिकोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें उत्कृष्ट काल कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तक, बादर जलकायिक पर्याप्तक, बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक और बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है । तथा इन्हीं अपर्याप्तकोंमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तक के समान भंग है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक
और सूक्ष्म वायुकायिकोंमें मोहनीय कमकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम ज्ञद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। इनके पर्याप्तक और अपप्तिकोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग है। बादर वनस्पतिकायिकोंमें बादर एकेन्द्रियके समान, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकोंमें बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके समान और बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकोंमें बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक तथा उनके पर्याप्तक और अपर्याप्तकोंमें क्रमसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भङ्ग है । बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरी जीवोंमें बादर पृथिवीकायके समान भंग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीरी पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंमें बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकके समान भङ्ग है। निगोदिया जीवोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है। और उत्कृष्ट काल ढाई पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। बादर निगोदिया
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो बादरपुढविभंगो। तेसिं पज्जत्तापज्जत्ताणं बादरपुढविपज्जत्तापज्जत्तभंगो। मुहुमणिगोदाणं सुहुमपुढविभंगो। तसकाइय-तसकाइयपज्जतएमु मोह० उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणभहियाणि [ वेसागरोवमसहस्साणि ]
३४. जोगाणुवादेणं पंचमण-पंचवचिजोगीसु मोह० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु । ओरालियकायजोगीसु मोह. अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० वावीस वस्ससहस्साणि देसूणाणि । ओरालियमिस्सकायजोगीसु मोह० अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० अंतोमुहुत्तं । वेउव्वियकायजोगीसु मोह० अणुक० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । वेउव्वियमिस्स० मोह० अणुक० जहण्णुक्क० अंतोमु० । कम्मइय० मोह० उक्क० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० तिणि समया। आहार-आहारमिस्स० मोह० उक्क० अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि आहारकायजोगीसु जह० एगस । जीवोंमें बादर पृथिवीकायिकके समान भङ्ग है और बादर निगोदिया पर्याप्तक तथा अपर्याप्तकोंमें बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तक और अपर्याप्तकके समान भङ्ग है। सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमें सूक्ष्मपृथिवीकायिकके समान भङ्ग है। त्रसकायिक तथा त्रसकायिकपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूत है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमसे पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर और दो हजार सागर है।
विशेषार्थ-ऊपर कही गई स्थावरकायसम्बन्धी मार्गणाओंमें भी पहलेके समान ही अनुत्कृष्ट अनुभाग का जघन्य काल उत्कृष्ट अनुभागके कालसे हीन अपनी अपनी भवस्थिति प्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है। सामान्य त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल पूर्ववत् जानना चाहिए। तथा इनमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध हो सकनेके कारण अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है, इसलिए इन सबमें उक्त प्रमाण काल कहा है।
$३४. योगकी अपेक्षा पांचों मनोयोगी और पांचों वचनयोगियोंमें मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। औदारिककाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। वैक्रियिककाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीय कर्म की अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । कार्मणकाययोगियोंमें मोहनीय कमकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है । आहारकका ययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । इतनी विशेषता है कि
१. ता. प्रतौ उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्त पब्भहियाणि च जोगाणुवादेण, प्रा. प्रतौ उक्क० सागरोवमसहस्साणि जोगाणुवादेण इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ३५. वेदाणुवादेण इत्थि०--पुरिस० मोह० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० परिवाडीए पलिदोवमसदपुधत्तं सागरोवमसदपुधत्तं । अवगदवेदएसु मोह० उक्क० जह. एगसमओ, मरणेणुवलंभादो। उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । कसायाणुवादेण कोधकसाई० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं माण-माया-लोहाणं । अकसाय० मोह० उक० अणुक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। एवं जहाक्रवाद०-मुहुमसांपरायसंजदाणं । आहारककाययोगियोंमें जघन्य काल एक समय है।
विशेषार्थ-कोई एक मनोयोगी या वचनयोगी उत्कृष्ट अनुभागका विनाश करके उस समय अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हुआ जब उसके मनोयोग या वचनयोगका काल एक समय शेष रहा । इस प्रकार एक समय तक विवक्षित योगके साथ अनुत्कृष्ट अनुभागमें रहा और दूसरे समयमें योग बदल गया तो विवक्षित वचनयोग या मनोयोगमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है। अथवा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला कोई जीव मनोयोगी या वचनयोगी हुआ। एक समय तक विवक्षित योगमें रहकर उसने दूसरे समयमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर लिया अथवा दूसरे समयमें मरकर अन्य काययोगी हो गया तो भी एक समय काल बन जाता है। उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त इसलिये है कि मनोयोग और वचनयोगका उत्कृष्ट काल इतना ही है । औदारिककाययोगका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष एकेन्द्रिय जीवोंमें सबसे अधिक स्थिति वाले खरपृथिवीकायिक जीवके होता है। अतः उनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल कुछ कम बाईस हजार वर्ष कहा है । जो जीव उत्कृष्ट अनुभागके साथ वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ और उत्कृष्ट अनुभागका काल बीतने पर वह अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया उसके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और जो अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ ही वैक्रियिकमिश्रकाययोगी हुआ उसके उत्कृष्ट काल भी अन्तमुहूर्त होता है। कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय है, अतः उसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल भी उतना ही होता है। आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है तथा आहारकमिश्रका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः उनमें रहनेवाले उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका भी उतना ही काल जानना चाहिये।
३५. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदी और पुरुषवेदियोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल क्रमशः स्त्रोवेदियोंमें सौ पृथक्त्वपल्य और पुरुषवेदियोंमें सौ पृथक्त्वसागरप्रमाण है। अपगतवेदी जीवोंमें माहनीय कमकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि यह मरणकी अपेक्षा उपलब्ध होता है। और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । कषायकी अपेक्षा क्रोध कषायवालोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मान, माया और लोभमें जानना चाहिये । कषायरहित जीवोंमें मोहनीय कमकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयत और सूक्ष्म साम्परायसंयतोंके जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जो स्त्रीवेद और पुरुषवेदमें उत्कृष्टका बन्ध करके क्रमशः आयुके अन्तमें एक समय तक अनुत्कृष्ट अनुभागके साथ रहकर अन्य वेदके साथ उत्पन्न हो गया उसके अनुत्कृष्ट अनु
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो ३६. णाणाणु० विहंगणाणी मोह० अणुक० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । आभिणि-सुद०-ओहि० मोह० उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० छावहिसोगरोवमाणि सादिरेयाणि । मणपज्ज० मोह० उक० ज० अंतोमु०, उक्क० पुवकोडी देसूणा । एवमणुक्कस्सं पि ।
.. ३७. संजमाणुवादेण संजदेसु मोह० उक्क० जह• अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा, किरियाए विणा अणुभागघादाभावादो । अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वभागका जघन्य काल एक समय होता है। तथा उत्कृष्ट काल दोनों वेदोंकी अपनी अपनी कायस्थिति प्रमाण है यह स्पष्ट ही है। क्रोधादि कषायोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूते कहा है। कषायोंके समान ही अकषायी: सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत और यथाख्यातसंयत जीवोंके घटित कर लेना चाहिए।
३६. ज्ञानकी अपेक्षा विभंगज्ञानियों में मोहनीय कर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छियासठ सागर है। मनःपर्ययज्ञानियों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्लमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का भी काल होता है।
विशेषार्थ जो नारकी विभङ्गज्ञानी होनेके दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला हो जाता है उसके विभङ्गज्ञानमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होनसे वह उक्त प्रमाण कहा है । तथा सातवें नरकमें विभङ्गज्ञानका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर होनेसे अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर कहा है। आभिनिबोधिकज्ञान आदि तीनों ज्ञानोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक छयासठ सागर है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। इन तीनों ज्ञानोंमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है यह तो स्पष्ट ही है । मात्र इसका जघन्य काल जो एक समय कहा है सो उसका यह कारण है कि जो जीव उत्कृष्ट अनुभागमे एक समय रहने पर आभिनिबोधिकज्ञानी आदि होते हैं उनके यह एक समय काल देखा जाता है। मनःपर्ययज्ञानका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनोंका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है । यहां उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय सम्भव नहीं। कारण कि जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागके साथ मनापर्ययज्ञानको उत्पन्न करता है उसका वह उत्कृष्ट अनुभाग कमसे कम अन्तमुहूर्त काल तक अवश्य रहता है । तथा उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल जो कुछ कम एक पूर्वकोटि कहा है उसका कारण यह है कि क्रियाके बिना उत्कृष्ट अनुभागका घात न होकर उसका इतने काल तक अवस्थान सम्भव है।
३७. संयमकी अपेक्षा संयतोंमें मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है, क्योंकि क्रियाके बिना अनुभागका घात नहीं होता। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ कोडी देसूणा । एवं सामाइय--छेदो०-परिहार०--संजदासंजदाणं । णवरि सामाइयछेदो० अणुक्क० ज० एगस० ।
३८. दंसणाणुवादेण चक्खुदंसणीसु मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज० एगस०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि । ओहिदंसणी० ओहिणाणिभंगो।
६ ३६. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० मोह० अणुक० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० सादिरेयाणि । तेउ०-पम्म० मोह० उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० वे-अहारससागरोवमाणि सादिरेयाणि । सुक्कलेस्साए मोह० उक्क० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज. अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि ।
पूर्वकोटि है। इसी प्रकार सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत और संयता संयतोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सामायिक और छेदोपस्थानासंयतोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है।।
विशेषार्थ-यहाँ सब कालका स्पष्टीकरण मनःपर्ययज्ञानके समान कर लेना चाहिए । मात्र सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयमका जघन्य काल एक समय होनेसे इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय कहा है।
६३८. दर्शनकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है । अवधिदर्शनियोंमें अवधिज्ञानीके समान भङ्ग है।
विशेषार्थ-जो चक्षुदर्शनी भवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभाग करके मरकर द्वितीय समयमें अचक्षुदर्शनी हो जाता है उस चक्षुदर्शनीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६३६. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक तेतीस सागर, कुछ अधिक सतरह सागर और कुछ अधिक सात सागर है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्याम मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-जो कृष्णादि पाँच लेश्यावाला जीव अपने अपने लेश्याके प्रारम्भमें एक समय तक अनुत्कृष्टविभक्तिवाला होता है उसके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है। इसी प्रकार पीत आदि तीन लेश्याओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय घटित कर लेना चाहिए। मात्र शुक्ललेश्याम अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इस लेश्याम अनुत्कृष्टके बाद पुनः उत्कृष्टकी प्राप्ति सम्भव नहीं है। शेष कथन
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गा० २२ ]
अणुभागविती कालो
२६
४० सम्मत्ताणु० सम्पादि० मोह० उक० अणुक्क० आभिणि० भंगो | वेदग० एवं चेव । णवरि अणुक्क० सगहिदी । खइय० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० सादिरेयाणि । एवमणुक्कस्सं पि । उवसम० मोह० उक्क० जहण्णुक्क तोमु० । एवमणुक्कस्सं पि । सासण० मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० छ आवलियाओ । एवमणुकस्सं पि सम्मामि० मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० जहण्णुक तोमुहुत्तं ।
O
स्पष्ट ही है।
४०. सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टियों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल अभिनिबोधिकज्ञानियों के समान है । वेदकसम्यग्दृष्टियों में भी इसी प्रकार होता है। इतनी विशेषता है कि अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल वेदकसम्यक्त्वकी स्थितिप्रमाण अर्थात् छियासठ सागर होता है । क्षायिकसम्यग्दृष्टियों में मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका भी काल होता है । उपशमसम्यग्दृष्टियों में मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका भी काल होता है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छ आवली है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका भी काल होता है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट
अन्तर्मुहूर्त है।
1
विशेषार्थ - जो तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभागके साथ क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है करके पूर्व कमसे कम एक अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिक से अधिक साधिक तेतीस सागर काल तक अवश्य ही अवस्थान रहता है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है। इसी प्रकार जो अनुत्कृष्ट अनुभाग के साथ क्षायिकसम्यक्त्वको प्राप्त होता है या क्रिया द्वारा उत्कृष्ट अनुभागका घातकर अनुत्कृष्ट अनुभाग कर लेता है उसे उसका अभाव करने में कमसे कम अन्तमुहूर्त काल और अधिक से अधिक साधिक तेतीस सागर काल लगता है इसलिए यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागका भी जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल साधिक तेतीस सागर कहा है । उपशमसम्यक्त्वका जघन्य और उत्कृष्ट मुहूर्त है और इतने काल तक दोनों प्रकार के अनुभागका अवस्थान सम्भव है तथा यहाँ भी क्रियान्तर अन्तर्मुहूर्त कालके पूर्व सम्भव नहीं, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट दोनों प्रकारका काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सासादनसम्यक्त्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छह आवलि होनेसे इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है । जिस मिध्यादृष्टि जीवके • तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभाग में एक समय शेष रहने पर सम्यग् मिध्यात्व गुणस्थान होता है उस • सम्य मिध्यादृष्टि के उत्कृष्ट अनुभाग एक समय तक देखा जाता है और जो मिध्यादृष्टि तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट अनुभाग के साथ सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होकर वहाँ उसके साथ ही रहता है उस सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तर्मुहूर्त काल तक उत्कृष्ट अनुभाग देखा जाता है । यही कारण है कि सम्यमिध्यादृष्टि के उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
$ ४१. सणि० मोह० उक्क० जह० एगस०, उक्क० तोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं ।
४२. आहारणुवादेण मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० उक० अंगुलस्स असंखे० भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि। अणाहरी कम्मइयभंगो |
एवमुकस्सकालानुगमो समत्तो ।
३०
ज० एस ०, उस्सप्पिणी
४३. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द े सो- ओघे० आदेसे ० | तत्थ ओघे० ' मोह० जहण्णाणुभागविहत्तिया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । अज० अादि पज्जवसिदो अणादि सपज्जवसिदो वा ।
यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है यह स्पष्ट ही है । शेष कथन सुगम 1
§ ४१. संज्ञियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है।
विशेषार्थ - जो संज्ञी भवके अन्त में एक समय तक उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभाग के साथ रहकर दूसरे समयमै असंज्ञी हो जाता है उस संज्ञीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय उपलब्ध होता है । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
$ ४२. आहारककी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल गुलके असंख्यातवें भाग है जो कि असंख्याता संख्यात अवसर्पिणी- उत्सर्पिणीप्रमाण है । अनाहारकों में कार्मण काययोगियोंके समान भङ्ग है ।
विशेषार्थ - यहाँ आहारकोंमें संज्ञियोंके समान कालका स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । मात्र इनकी काय स्थिति अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है। कार्मणुकाययोगी अनाहारक ही होते हैं, इसलिए अनाहारकों में कार्मण काययोगियों के समान काल कहा है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ ।
६ ४३. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका काल अनादि - अनन्त और अनादि- सान्त है ।
विशेषार्थ - मोहनी की जघन्य अनुभागविभक्ति क्षपक सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समय में होती है, इसलिए इसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । अजघन्य अनुभागविभक्ति भव्यों के अनादिसे अनन्त काल तक और भव्यों के अनादिसे सान्तकाल तक होती है, क्योंकि जघन्य १. प्रा० प्रतौ श्रादे० श्रघे० इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो
३१ ४४. आदेसेण रइएसु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अजहण्णाणु० ज० दस वाससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं पढमाए । णवरि अजहण्णाणु०' सगहिदी। एवं देव०--भवण०--वाणवेंतर० । णवरि अजहण्णाणु०' सगहिदी। विदियादि जाव सत्तमि ति मोह० जह० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अन० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी संपुण्णा । एवं जोदिसिया० । णवरि सगहिदी वत्तव्वा । अनुभागविभक्तिके प्राप्त होनेके पूर्वतक वह अजघन्य होती है, इसलिए उसका काल उक्तप्रमाण कहा है।
६४४. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजवन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागर है। इसी प्रकार पहलो पृथिवीमें जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण होता है। इसी प्रकार सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें होता है किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल अपनी स्थिति प्रमाण होता है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें कहना चाहिये । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिए।
विशेषार्थ जो हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च मरकर नरकमें जन्म लेता है उसके तब तक जघन्य अनुभाग रहता है जब तक वह सत्तामें स्थित अनुभागसे अधिक अनुभागबन्ध नहीं करता है। अतः यदि वह दूसरे समयमें ही अनुभागको बढ़ा लेता है तो उसके जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। अन्तमुहूर्तके बाद हुआ अजघन्य अनुभागका सत्त्व आयुके अन्त समय तक रहता है, अतः अजघन्य अनुभाग का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष होता है। और यदि अजघन्य अनुभागके साथ नरकमें जन्म लिया गया तो उसका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर होता है, क्योंकि नरकमें इतनी ही उत्कृष्ट स्थिति है। पहले नरक, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मवाला असंज्ञी उनमें जन्म ले सकता है। अन्तर केवल इतना है कि इनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण लेना चाहिये । जैसे पहले नरकमें एक सागर । दूसरे आदि नरकोंमें तथा ज्योतिषी देवोंमें असंज्ञी तो जन्म ले नहीं सकता। अत: अजघन्य अनुभागवाला जो जीव उक्त स्थानोंमें जन्म लेकर अन्तमुहूर्तके बाद सम्यक्त्वको ग्रहण करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। यदि वह जीव विसंयोजना करके अन्तर्मुहूर्त के बाद सम्यक्त्वसे च्युत हो जाता है या मर जाता है तो उसके जघन्य अनुभागका काल अन्तमुहूर्त होता है, अन्यथा कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण होता है। किन्तु सातवें नरकमें सम्यग्दृष्टि अवस्थामें मरण नहीं होता, अतः और अधिक कम कर लेना चाहिये। अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल स्पष्ट ही है। . .. ता• प्रतौ प्रजहरणक० इति पाठः । .
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३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४५. तिरिक्खगईए तिरिक्खेमु मोह. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुसअपज्ज० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगसगुक्कस्सहिदी । मणुसतियम्मि मोह० जहण्णाणु० अोघं । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क. सगसगहिदी। सोधम्मादि जाव सव्वसिद्धि ति मोह. जहण्णाजहण्णाणुभागाणं जहण्णुकस्सेण सगसगजहण्णुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । ..
६४५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्यानुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है । सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्यानभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्यानुभागविभक्तिका काल ओघके समान है और अजघन्यानुभागविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्यके क्षद्रभवग्रहणप्रमाण है और शेष दो के अन्तमुहूर्त है, उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण कहना चाहिये।
विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें जो सूक्ष्म निगोदिया एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव अजघन्य अनुभागका घात कर देता है उसके तब तक जघन्य अनुभागकी सत्ता रहती है जब तक वह बन्धद्वारा उसे बढ़ा नहीं लेता । यदि एक समयमें ही उसने जघन्य अनुभागसे अधिकका बन्ध कर लिया तो जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है, अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। इसी प्रकार जिस तिर्यश्चने एक समयके लिए अजघन्य अनुभाग प्राप्त किया और दूसरे समयमें मर कर वह मनुष्य हो गया तो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है, अन्यथा अनुत्कृष्ट अनुभागकी तरह असंख्यात लोक होता है । यहाँ पर अनन्त काल न कहनेका कारण यह है कि एक तो सूक्ष्म एकेन्द्रियों में निरन्तर रहनेका काल असंख्यात लोकप्रमाण है, इसलिए जिसने सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायके प्रारम्भ में और अन्तमें जघन्य अनुभाग करके मध्यमें वह अजघन्य अनुभागका स्वामी रहा तो अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक देखा जाता है। दूसरे पृथिवीकायादिमें निरन्तर रहनेका काल भी असंख्यात लोक है, इसलिए किसी सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकने जघन्य अनुभाग किया और दूसरे समयमें वह अन्य कायवाला होकर असंख्यात लोकप्रमाण काल तक अजघन्य अनुभागका स्वामी बना रहा । पुनः इतने कालके बाद वह सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त होकर जघन्य अनुभागका स्वामी हुआ तो भी अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण देखा जाता है। हतसमुत्पत्तिकर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागके साथ जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें बढ़ा लेता है तो जघन्य अनुभागका काल एक समय होता है. अन्यथा अन्तमुहूर्त होता है। इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि इनकी जघन्य भवस्थिति ही इतनी है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। मनुष्यत्रिकमें क्षपकश्रेणि सम्भव होनेसे इनमें जघन्य अनुभागका काल ओघके समान बन जाता है । तथा सामान्य मनुष्योंकी भव
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए कालो ४६. इंदियाणुवादेण एइंदिएसु मोह० जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरेइंदिएमु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स असंखे०भागो असंखेज्जासंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । एवं बादरेइंदियपज्जत्ताणं । णवरि अजहण्णाणु० उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरेइंदियश्रपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० अंतोमु०। मुहुमेइंदिएस मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज. एगस०, उक० असंखेज्जा लोगा। मुहुमेइंदियपज्ज० मोह० जहण्णाणुभाग० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० उक० अंतोमु० । मुहुमेइंदिए अपज्ज० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । वेइंदियतेइंदिय-चरिंदियाणं तेसिं चेव पज्जताणं च मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणमंतोमुहुत्तं देसूर्ण, उक्क० संखेज्जाणि वस्सस्थिति क्षुल्लक भवग्रहणप्रमाण और शेषकी अन्तमुहूर्तप्रमाण होनेसे इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल उक्तप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण कहा है। सौधर्मादिक देवोंमेंसे उन्हीं देवोंके जघन्य अनुभाग होता है जो पिछले भवमें क्रिया द्वारा सबसे जघन्य अनुभाग कर चुके हैं और शेषके अजघन्य अनुभाग होता है। यही कारण है कि सौधर्मादि सब देवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अपनी अपनी जघन्य भवस्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट भवस्थितिप्रमाण कहा है।
६४६. इन्द्रियकी अपेक्षा एकेन्द्रियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। बादर एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अंगुलके असंख्यातवें भाग है जो कि असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल प्रमाण है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंके जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्यानुभागका उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्यानुभागका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है
और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। सामान्य दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चौइन्द्रिय तथा उन्हींके पर्याप्तकोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सहस्साणि । एदेसिमपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्ताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो ।
४७. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाणु० ज० उक्क० एगस० । अज० ज० खुदाभवग्गहणं अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुत्तेणन्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं ।।
४८. कायाणुवादेण पुढवि०-आउ०-तेउ०-वाउ० जहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। बादरपुढवि-बादरआउ०-बादरतेउ०-बादरवाउ० जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० कम्महिदी । एदेसिं चेव पज्जत्ताणं जहण्णाणु० सामान्य दोइन्द्रियादिकके अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण
और पर्याप्तक दोइन्द्रियादिकके कुछ कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है और सबके उत्कृष्ट काल संख्यात हजार वर्ष है। दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय अपर्याप्तकोंके पश्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकके समान भङ्ग होता है।
विशेषार्थ-सब प्रकारके एकेन्द्रियों और विकलेन्द्रियोंमें जघन्य अनुभागवाले सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति सम्भव होनेसे उनमें जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तम हूतं कहा है, इसलिए वह तिर्यञ्चोंके समान यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। पूर्वोक्त अन्य जीवोंमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम अपनी अपनी भवस्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण बतलाया है यह तो ठीक है परन्तु एकेन्द्रिय, सूक्ष्स एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवों में जो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय बतलाया है उसका कारण यह है कि ये भवके अन्तमें एक समयके लिए अजघन्य अनुभागवाले होकर दूसरे समयमें यदि अन्य कायवाले हो जाते हैं तो इनके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है। . ६४७. सामान्य पञ्चन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा सामान्य पञ्चन्द्रियोंके अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागर है। और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंके जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है।
विशेषार्थ–पञ्चन्द्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें क्षपकश्रेणिकी प्राप्ति सम्भव होनेसे यहाँ जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा इनकी भवस्थिति और कायस्थितिको ध्यानमें रखकर इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है।
६४८. कायकी अपेक्षा पृथिवीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकायिकमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है। बादर पृथिवीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर तेजस्कायिक और बादर वायुकायिक जीवके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है । तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल कमेस्थिति प्रमाण है। इन्हीं पर्याप्तकोंके जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त
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गा० २२]
- अणुभागविहत्तीए कालो ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । एदेसिमपज्जताणं बादरेइंदियअपज्जत्तभंगो । सुहुमपुढवि०-सुहुमआउ०-सुहुमतेउ०-सुहुमवाउ० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एदेसिं चेव पज्जत्तापज्जत्तएमु जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु० देसूर्ण खुद्दा० देसूणं, उक्क० अंतोमु० । वणप्फदिकाइयाणं एइंदियभंगो । बादरवणप्फदिकाइय-बादरवणप्फदिकाइयपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं भंगो। सुहुमवणप्फदिकाइय-मुहुमवणप्फदिकाइयपज्जत्तापज्जत्ताणं सुहुमेइंदिय--सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्तभंगो । सव्वणिगोदाणं सव्वेइंदियभंगो। बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरेसु मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० खुदाभवग्गहणं देसूणं, उक्क० कम्महिदी। बादरवणप्फदिपत्तेयपज्जत्तएसु मोह० ज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० देसूणमंतोमु०, उक्क० संखेज्जाणि वाससहस्साणि । बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्जत्ताणं पंचिंदियअपज्जत्तभंगो।। तस-तसपज्जत्तएमु मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक० एगस०, अ० ज० खुद्दाभवग्गहणं है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात हजार वर्ष है। इन्हीं अपर्याप्तकोंके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग होता है। सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म तेजस्कायिक और सूक्ष्म वायुकायिक जीवोंके जघन्य अनुभागविभक्तिका जयन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। तथा अजघन्यानुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है। इन्हीं जीवोंके पर्याप्तक और अपर्याप्तक अवस्थामें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। तथा उक्त पर्याप्तकोंके अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम अन्तमुहूर्त है और अपर्याप्तकोंके कुछ कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण है और दोनोंके उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । वनस्पतिकायिकोंके एकेन्द्रियके समान भंग है। सामान्य बादर वनस्पति कायिकके बादर एकेन्द्रियके समान, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकके बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकके समान और बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकके बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग होता है । सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक और सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तकोंके क्रमसे सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तककी तरह भंग होता है। सब निगोदिया जीवोंके सब एकेन्द्रियोंके समान भंग होता है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीरी जीवोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण
और उत्कृष्ट कर्मस्थितिप्रमाण है। बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर पर्याप्तक जीवोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल कुछ कम अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यात. हजार वर्ष है। बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्तकोंके पञ्चन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग होता है। अस और "सपर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य व उत्कृष्टः काल एक समय
.... प्रा. प्रतौ जहएणुक अज० इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
अंतोमु०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्ते णन्भहियाणि वेसागरोवमसहस्साणि । तसकाइयअपज्जत्ताणं पंचिंदिय अपज्जत्तभंगो ।
४६. जोगाणुवादेण पंचमण०-- पंचवचि० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क ० एगसमओ | अज० जह० एस ०, उक्क० अंतोमु० । कायजोगि० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । ओरालियकाय ० मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एगस०, उक्क० बावीसवास सहस्साणि देणाणि । ओरालियमिस्स० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । वेडव्वियकाय ० मोह० जहण्णाणु० ज० एस ०, तोमु० । अज० ज० एस ०, उक्क० तो० । वेडव्वियमि० मोह० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जहण्णुक्क० तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल त्रसोंमें क्षुद्रभवग्रहण और त्रस पर्याप्तकों में अन्तर्मुहूर्त है । और उत्कृष्ट नसोंमें पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर और त्रस पर्याप्तकों में केवल दो हजार सागर है । त्रसकायिक अपर्याप्तकों में पच ेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग होता है।
उक्क०
O
विशेषार्थ - पृथिवी आदि चारों कार्योंके भेद-प्रभेदोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल पूर्ववत् एकेन्द्रियोंके समान घटित कर लेना चाहिये । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । जिनमें जघन्य काल कुछ कम कहा है उनमें जघन्य अनुभाग के कालको दृष्टिमें रखकर कहा है । अर्थात् जघन्य अनुभागवाला उनमें जन्म लेकर यदि अनुभागको बढ़ा ले तो अजघन्य अनुभागका जघन्य काल कुछ कम अपनीअपनी जघन्य स्थितिप्रमाण होता है । इसी प्रकार वनस्पतिकायिकमें जानना चाहिए। त्रस और
स पर्याप्तकके क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय के अन्तिम समय में जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है ।
$ ४६. योगकी अपेक्षा पांचों मनोयोग और पांचों वचनयोगों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । काययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभाग विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। श्रदारिककाययोगियोंमें मोहनीयकर्म की जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम वाईस हजार वर्ष है । औदारिक मिश्रकाययोगियों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा श्रजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । वैक्रियिककाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । वैक्रियिकमिश्र - काययोगियों में मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए कालो अंतोमु० । कम्मइय० मोह० जहण्णाणु० जह० एगसमो, उक्क० तिण्णिसमया। एवमजहण्णं पि । आहारकायजोगी. मोह. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज०ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। आहारमिस्स० मोह० जहण्णाजहण्ण. जहण्णुक्क० अंतोमु०।
५०. वेदाणु० इत्थिवेदएसु मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एगस० । अज. ज० एगस०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । पुरिस० मोह० ज० जहण्णुक० एगस० । काल अन्तमुहूर्त है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। कार्मणकाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और र उत्कृष्ट काल तीन समय है। इसी प्रकार अजघन्य का भी है। आहारककाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। आहारकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी जीवोंके क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान सम्भव है, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा पाँचों मनोयोग और पाँचों वचनयोगोंका मरण और व्याघातकी अपेक्षा तथा औदारिककाययोगका मरणकी अपेक्षा एक समय काल होता है, इसलिए इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय कहा है । जो दसवें क्षपक गुणस्थानमें जघन्य अनुभागको प्राप्त करनेके एक समय पूर्व काययोगी होता है उसके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है. अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। सूक्ष्म अपर्याप्त एकेन्द्रियोंके जिस प्रकार काल घटित करके बतला आये उसी प्रकार औदारिकमिश्रकाययोगमें घटित कर लेना चाहिए। वैक्रियिककाययोग और आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय होनेसे इनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा इन दोनों योगोंका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। जो वैक्रियिकमिश्रकाययोगी प्रथम समयमें जघन्य अनुभागके साथ रहता है और दूसरे समयमें उसे बढ़ा लेता है उसके जघन्य अनुभागका एक समय काल उपलब्ध होनेसे वह एक समय कहा है। इसमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है यह स्पष्ट ही है। साथ ही जो असंज्ञी मर कर वैक्रियिकमिश्रकाययोगी होता है उसीके जघन्य अनुभाग होता है, अन्यके नहीं, इस लिए अजघन्य अनुभागका भी जघन्य काल अन्तमुहूर्त प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है । आहा. रकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इसमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। कार्मणकाययोगका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल तीन समय होनेसे इसमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल तीन समय कहा है । यहाँ जिन योगोंमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल घटित नहीं किया है वह उन योगोंके उत्कृष्ट काल प्रमाण जानना चाहिए।
६५०. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्वपल्योपम है। पुरुषवेदियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । णवंसयवेद० जहण्णाणु० जहण्णुक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियह । अवगद० मोह. जहण्णाणु० जहण्णुक्क. एसगसमओ। अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०।
५१. कसायाणुवादेण कोधकसाएमु मोह० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं माण-माया-लोभाणं । अकसाएसु मोह. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमजहएणं पि ।
५२. णाणाणुवादेण मदि-सुदअण्णाणीसु मोह० जहएणाणु० ज० उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। विहंगणाणीसु मोह.
और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्वसागर है। नपुंसकवेदियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्त काल है। वह अनन्त काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अपगतवेदियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ तीनों वेदोंमें मोहका जघन्य अनुभाग अपने अपने सवेदभागके अन्तिम समयमें होता है, अतः इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य काल एक समय और पुरुषवेदका जघन्य काल अन्तमुहूर्त होने से इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल उक्त प्रमाण कहा है । तथा इनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण होता है यह स्पष्ट ही है। अपगतवेदमें सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होनेसे इसमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । मोहकी सत्तावाले अपगतवेदीका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है।
६५१. कषायकी अपेक्षा क्रोधकषायवालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। इसी प्रकार मान, माया और लोभमें भी जानना चाहिये। कषायरहित जीवोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका भी काल जानना चाहिये।
विशेषार्थ-चारों कषायोंमें मोहका जघन्य अनुभाग अपने अपने क्षयके अन्तिम समयमें होता है, अतः इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा प्रत्येक कषायका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त होनेसे इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तम हर्त कहा है। उपशान्तकषायका भी जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, अतः अकषायी जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है.।। ....६५२. ज्ञानकी अपेक्षा मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियों में मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त
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गा०-२२] . अणुभागविहत्तीए कालो जहएणाणु० जह० एगस०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। आभिणि०--सुद--ओहि. मोह० जहएणाणु० जहएणुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० छासहिसागरो. सादिरेयाणि । मणपज्जव० मोह० जहएणाणु० जहएणक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा ।
५३. संजमाणु० संजदेसु मोह० ज० जहएणुक्क० एगस० । अज० ज. अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा। एवं सामाइय-छेदो०संजदाणं । णवरि अज० जह० एगस०। परिहार० मोह. जहएणाणु० ज० अंतोमु०, उक्क. पुवकोडी
और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है। विभंगज्ञानियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम इकतीस सागर है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। आभिनिबोधिक ज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक छियासठ सागर है। मनःपर्ययज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तम हूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ-दोनों अज्ञानोंमें एक बार जघन्य या अजघन्य अनुभाग होने पर वह कमसे कम अन्तमुहूर्त अवश्य रहता है। इसीसे मत्यज्ञानी और श्रुताज्ञानी जीवोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है। इनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण जिस प्रकार एकेन्द्रियोंमें घटित करके बतला आये हैं वैसे ही यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए। जो मनुष्य जघन्य अनुभागको करके अनन्तर नीचे उतर कर यथाविधि एक समय तक विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभागके साथ रह कर अजघन्य अनुभाग कर लेता है उसके विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभाग एक समय तक उपलब्ध होता है, इसलिए विभङ्गज्ञानमें जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा जो जघन्य अनुभागके साथ उपरिम-उपरिम नवग्रेवयकमें उत्पन्न होता है उसके विभङ्गज्ञानमें कुछ कम इकतीस सागर काल तक जघन्य अनुभाग देखा जाता है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है। इसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है यह स्पष्ट ही है । मात्र अजघन्य अनुभागका यह एक समय काल यथाशास्त्र घटित करना
भिनिबोधिक आदि चारों ज्ञानोंमें क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान सम्भव होनेसे इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । तथा इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
५३. संयमकी अपेक्षा संयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि है। इसी प्रकार सामायिक और छेदोपस्थापना संयतोंमें जानना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है। परिहारविशुद्धिसंयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ देसूणा । एवमजहणणं पि। मुहुमसांपरायि० मोह० जहएणाण. जहएणक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। जहाक्खाद० अकसायभंगो। संजदासंजद. मोह० जहएणाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पुन्चकोडी देसूणा । एवमजहएणं पि । असंजद० मोह० जहण्णाणु० जहएणुक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा।
___५४. दसणाणु० चक्खु० मोह० जहणणाणु० जहएणुक्क० एगस० । अज. ज० खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि। अचक्खु० मोह० ज० जहएणक्क० एगस० । अर्ज० ज० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो। ओहिदंसणी. ओहिणाणिभंगो। काल कुछ कम पूर्वकोटी है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल भी जानना चाहिये। सूक्ष्मसाम्परायिक संयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। यथाख्यातसंयतोंमें कषायरहित जीवोंके समान भंग होता है। संयतासंयतोंमें मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम एक पूर्वकोटि है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका भी काल जानना चाहिए । असंयतोंमें मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त तथा उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है।
विशेषार्थ यहाँ जिन संयमोंमें क्षपकश्रेणी सम्भव है उनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। कारण कि उस उस संयमके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है। मात्र संयतोंके सूक्ष्मसाम्यरायके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है। सूक्ष्मसाम्यरायसंयम, सामायिकसंयम और छेदोपस्थापनासंयमका जघन्य काल एक समय होनेसे इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय कहा है। इन सबमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यथाख्यातसंयम अकषायी जीवोंके होता है, इसलिए इसमें कालका विचार अकषायी जीवोंके समान जाननेकी सूचना की है। अब
न रहे परिहारविशुद्धिसंयम, संयमासंयम और असंयम सो इनमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है, क्योंकि इनका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है। तथा इनका उत्कृष्ट काल प्रारम्भके दोका कुछ कम पूर्वकोटि होनेसे उनमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कहा है और असंयतोंमें अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल जिस प्रकार मत्यज्ञानियोंमें असंख्यात लोकप्रमाण घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी घटित कर लेना चाहिए।
६ ५४. दर्शनकी अपेक्षा चक्षुदर्शनियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण
और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है । अचक्षुदर्शनियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अनादि अनन्त और अनादि सान्त है। अवधिदर्शनवालोंमें अवधिज्ञानियोंके समान भङ्ग होता है।
१. प्रा० प्रतौ एगस० उक्क अंतोमु० अज० इति पाठः ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो ५५. लेस्साणु० किण्ह--णील-काउ० मोह० ज० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरोवमाणि सादिरेयाणि । तेउ०-पम्म० मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० वे--अहारससागरो. सादिरेयाणि । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० वे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । सुक्क० मोह. ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि।
५६. भवियाणु० भवसि० ओघ । अभवसि० मोह० ज० जहण्णुक० अंतोमु०। अज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा।
विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्परायमें भी चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन होते हैं, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है । चक्षुदर्शनका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और उत्कृष्ट काल दो हजार सागर है, अत: इसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल उक्तप्रमाण कहा है । अचक्षुदर्शन भव्य और अभव्य दोनोंके होनेसे उसमें अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अभव्योंके अनादि-अनन्त और भव्योंके अनादिसान्त कहा है। अवधिदर्शनवालोंका भङ्ग अवधिज्ञानी जीवोंके समान है यह स्पष्ट ही है।
६५५. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक तेतीस सागर, कुछ अधिक सतरह सागर और कुछ अधिक सात सागर है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमश: कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल क्रमशः कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। शुक्ललेश्यावालोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है।
विशेषार्थ-कृष्णादि तीन लेश्याओंमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एकेन्द्रिय की तरह घटित कर लेना चाहिए। तथा अजघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल प्रत्येक लेश्याके उत्कृष्ट काल की तरह है यह स्पष्ट ही है । एक जीव की अपेक्षा तेजोलेश्या और पद्मलेश्याका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल है उतना ही उनमें जघन्य
और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। शुक्ललेश्यामें क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल शुक्ललेश्याके एक जीव की अपेक्षा काल को ध्यानमें रखकर कहा है।
५६. भव्यकी अपेक्षा भव्यों में ओघके समान भङ्ग है। अभव्योंमें मोहनीयकर्म की जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है।...
विशेषार्थ-ओघसे जिस प्रकार कालको घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार भव्योंमें १. ता. प्रतौ सादिरेयाणि....."तेउ० इति पाठः । ..
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५७. सम्मत्ताणु० सम्मादिही. मोह. ज. जहण्णुक्क० एगस । अज. ज० अंतोमु०, उक्क० णवणउइसागरो० सादिरेयाणि छासहिसागरो० सादिरेयाणि वा। खइय. मोह. जह० जहण्णुक्क० एगस । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० सादिरेयाणि । वेदग० मोह० जह० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० छासहिसागरोवमाणि । उवसम० मोह० जहण्णाणु० जहण्ण० उक्क० अंतोमु० । अज. जहण्णुक्क. अंतोमु० । सासण. मोह० ज० ज० एगस०, उक्क० छ आवलियाओ । एवमजहण्णं पि। सम्मामि० मोह० ज० जहण्णुक० अंतोमु० । एवमजहण्णं पि । मिच्छादिही. मोह० ज. ज. उक्क० अंतोमु० । अज. ज. अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। घटित कर लेना चाहिए। एकेन्द्रियोंमें जघन्य अनुभाग होनेके बाद वह अन्तमुहूर्त काल तक अवश्य रहता है, इसलिए इसका अभव्योंमें जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। इनमें अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक प्रमाण है यह स्पष्ट ही है।
६५७. सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक निन्यानवे सागर है । अथवा कुछ अधिक छियासठ सागर है। क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तेतीस सागर है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ठ काल अन्तर्मुहूर्त है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल छियासठ सागर है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल छ प्रावलिका है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल भी है। सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागविभक्तिका भी काल है। मिथ्यादृष्टियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात लोक है।
विशेषार्थ-सम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टिके क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल मोटे तौरपर दोनोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी तरह जानना चाहिए। वेदकसम्यक्त्वमें दोबार उपशमश्रेणीपर चढ़कर, उससे उतरकर दर्शनमोहनीयका क्षय करके कृतकृत्यभावको प्राप्त हुए जीवके प्रथम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उपशमसम्यक्त्वमें दुबारा उपशम श्रेणीपर चढ़कर ग्यारहवें गुणस्थानमें वर्तमान जीवके जघन्य अनुभाग होता है, अत: उसका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं ५८. सण्णियाणुवादेण सण्णीम मोह० ज० जहण्णुक० एगस०। अज० ज. खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । असण्णि. मोह० ज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा।
$ ५६. आहारीसु मोह० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं तिसमयूणं, उक्क० अंगुलस्स असंखे० भागो असंखेज्जाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ। अणाहारि० कम्मइयभंगो।
___ एवं जहण्णो कालाणुगमो समत्तो। ६०. अंतराणुगमेण दुविहमंतरं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघे० आदेसे । ओघे० मोह ० उक्कस्साणुभागमंतरं केवचिरं? ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । मोटे तौरपर दोनों सम्यक्त्वोंके जघन्य और उत्कृष्ट कालकी तरह जानना चाहिए।सासादनसम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जितना जघन्य और उत्कृष्ट काल है उतना ही उनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल होता है । जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे मिथ्यादृष्टिके उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा मिथ्यात्वमें अजघन्य अनुभाग कमसे कम अन्तर्मुहूर्त काल तक और अधिकसे अधिक असंख्यात लोकप्रमाण काल तक रहता है यह देखकर यहाँ वह उक्त प्रमाण कहा है।
५८. संज्ञित्वकी अपेक्षा संज्ञियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट काल सौ पृथक्त्व सागर है। असंज्ञियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है।
विशेषार्थ-संज्ञीके क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थान सम्भव होनेसे इसमें जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा संज्ञियोंका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल सौ सागर पृथक्त्व होनेसे इसमें अजघन्य अनुभागका उक्त प्रमाण काल कहा है। असंज्ञियोंमें जिस प्रकार एकेन्द्रियोंमें काल घटित करके बतला आये हैं इस प्रकार घटित कर लेना चाहिए।
५९. आहारकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल तीन समय कम क्षुद्रभवग्रहण और उत्कृष्ट काल अंगुलका असंख्यातवां भाग है जो कि असंख्यात उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी कालप्रमाण है। अनाहारकोंमें कार्मणकायके समान भंग होता है।
इस प्रकार जघन्य कालानुगम समाप्त हुआ। ६०, अन्तरानुगमकी अपेक्षा अन्तर दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ उत्कृष्टका प्रकरण है। उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघकी अपेक्षा मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल है । वह अनन्त काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनु
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ एवं तिरिक्खोघं।
___ ६१. आदेसेण णेरइएमु मोह० उक्कस्साणुभागमंतरं केव० १ ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीससागरो० देसूणाणि । अणुक्क० ओघं । एवं सव्वणेरइयाणं। गवरि सगसगहिदी देसूणा । पंचिंदियतिरिक्खतिएम मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० ओघं । मणुस्सतियस्स पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं मणुस्सअपज्ज. आणदादि जाव सव्वहसिदि त्ति । देवेसु मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अहारससागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क० ओघं । एवं भवणादि जाव सहस्सार त्ति । णवरि सग-सगहिदी वत्तव्वा । भागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-इस प्रकरणमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकालका विचार किया गया है। जैसे एक संज्ञी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टिने उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उसका घात कर दिया। तथा पुन: अन्तर्मुहूर्तमे उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किया। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त होता है। और यदि वह एकेन्द्रिय पर्यायमें उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनन्त कालतक एकेन्द्रिय ही रहा आवे और उसके बाद संज्ञी पञ्चन्द्रिय होकर उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाय तो उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन होता है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं उपलब्ध होता।
६६१. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें अन्तर काल होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, पंचेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी इन तीनोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघकी तरह है। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भङ्ग है। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों और आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें भी समझ लेना चाहिए। सामान्य नवोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठाहर सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि प्रत्येकमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये।
' विशेषार्थ ओघसे जो अन्तर काल घटित करके बतलाया है उसी प्रकार सामान्य नारकी, सातों पृथिवियोंके नारकी, पञ्चन्द्रियतियंञ्चत्रिक और मनुष्यत्रिकमें घटित कर लेना चाहिए। मात्र उत्कृष्ट अनुभागके उत्कृष्ट अन्तरमे विशेषता है। बात यह है कि इन सब मार्गणाओंकी स्थिति भिन्न भिन्न है, इसलिए जहाँ जो स्थिति हो उससे कुछ कम वहाँ उत्कृष्ट
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं ६२. इंदियाणु० एइंदिय-बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तएमु सव्वविगलिंदियपज्जत्तापज्जत्तएसुच मोह० उक्कस्साणुक्कस्साणुभागंतरंणत्थि। पंचिंदिय-पंचिं०पज्जत्तएसु मोह० उक० ज० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसहस्साणि पुव्वकोडिपुधत्तेणब्भहियाणि सागरोवमसदपुधत्तं । अणुक्क० ओघं । पंचिंदियअपज्ज० मोह० उक्कस्साणुक्कस्स० णत्थि अंतरं ।
६ ६३. कायाणु० पंचण्हं कायाणमेइंदियभंगो । तस -- तसपज्जत्तएमु मोह. उक्क० केव० १ जहण्णेण अंतोमु०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि पुवकोडिपुधत्तेणभहियाणि वेसागरोवमसहस्साणि । अणुक्क० ओघं । तसअपज्ज. पंचिंदियअपज्जत्तभंगो।
६४. जोगाणु० पंचमण-पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालि०-ओरालियमिस्स०वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-आहार०--आहारमिस्स० उक्क० अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि कायजोगीसु अणुक्क० ओघभंगो। अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्त आदि मार्गणाओंमें अन्य पर्यायसे उत्कृष्ट अनुभाग लेकर आता है, वहाँ उसकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए इनमे उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरका निषेध किया है। देवोंमें और सहस्रार कल्प तकके देवोंमे नारकियोंके समान स्पष्टीकरण है।
६२. इन्द्रियकी अपेक्षा एकेन्द्रिय, उनके सभी बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त एकेन्द्रियोंमें तथा विकलेन्द्रियोंमे और उनके सभी पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों में मोहनीयकर्म के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है । पंचेन्द्रिय और पञ्चन्द्रियपर्याप्तकोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्टसे पञ्चेन्द्रियोंमे पूर्वकाटिपृथक्त्वसे अधिक एक हजार सागर है और पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंमें सौ पृथक्त्वसागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समानहै । पञ्चेन्द्रियपर्याप्तकोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय और उनके भेद-प्रभेदोंमे तथा पञ्चन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें उसी पर्यायमे उत्कष्ट अनुभागकी प्राप्ति सम्भव नहीं है, इसलिए यहाँ भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरका निषेध किया है। पञ्चन्द्रियद्विकमें नारकियोंके समान स्पष्टीकरण कर लेना चाहिए । मात्र इनकी कायस्थिति भिन्न होनेसे इनमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी कायस्थितिप्रमाण कहना चाहिए। इसी प्रकार आगे भी मार्गणाओंमे यथासम्भव अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए । जहाँ विशेषता होगी उसका स्पष्टीकरण करेंगे।
६३. कायकी अपेक्षा पाँचों स्थावरकायोंमे एकेन्द्रियके समान भङ्ग होता है। त्रस और सपर्याप्तकोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर बसोंमें पूर्वकोटिपृथक्त्वसे अधिक दो हजार सागर और त्रसपर्याप्तकोंमें केवल दो हजार सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघके समान है। त्रस अपर्याप्तकोंमे पञ्चेन्द्रिय अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग होता है।
६४. योगकी अपेक्षा पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययगी और आहारकमिश्रकाययोगीमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इतनी विशेषता है कि काययोगियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
$ ६५. वेदाणु ० इत्थिवेदएस मोह० उक्क० केव० ? ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदोवमसदपुधत्तं । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । पुरिसवेद० मोह० उक० केव० १ जह० अंतोमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अणुक० जहण्णुक्क० ओघं । णवुंस० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । अवगदवेदे • उक्क० अणुक्क० अणुभागविहत्तियाणं णत्थि अंतरं ।
४६
९ ६६. कसायाणुवादेण कोध-माण- माया - लोहकसाईसु मोह० उक्कस्साणुक्कस्स० अंतरं । एवमकसाईणं ।
६७. णाणाणु० मदिअण्णाणि - सुदण्णाणीसु मोह० उक्क० केव० १ ज० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क ० जहण्णुक्क० ओघं ।
के समान है ।
विशेषार्थ - एक योगके रहते हुए दो बार उत्कृष्ट या अनुत्कृष्ट अनुभाग सम्भव नहीं है, इसलिए इनमें अन्तरका निषेध किया है । मात्र काययोगमें अनुत्कृष्ट अनुभागकी प्राप्ति दो बार सम्भव होनेसे इसमें अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघ के समान बन जाता है ।
६ ६५. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदियों में मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पृथक्त्वपल्य है । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओधके समान है । पुरुषवेदियों में मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पृथक्त्व सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर धके समान है । नपुंसकवेदियोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो कि असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर के समान है । अवगतवेदियों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है ।
1
विशेषार्थ - उपशमश्रेणि पर चढ़ते समय अपगतवेद अवस्थामे प्रथम अनुभागकाण्डक के रहते हुए उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति होती है । यतः अपगतवेदी जीवके इस अवस्थाकी प्राप्ति दो बार सम्भव नहीं है, इसलिए अपगतवेदी जीवके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग के अन्तरका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है ।
$ ६६. कषायकी अपेक्षा, क्रोध, मान, माया और लोभ कषायवाले जीवोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार कषायरहित जीवांमें भी जानना चाहिये ।
६७. ज्ञानकी अपेक्षा मतिज्ञानी और श्रुत ज्ञानियोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है । वह अनन्तकाल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट
१. श्रा० प्रतौ - परियट्टा । श्रवगदवेदे इति पाठः ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं विहंगणाणीसु मोह० उक्क० केव० ? ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणुक० जहण्णुक० ओघं । आभिणि-सुद०-ओहि०--मणपज्ज० उक्कस्साणुकस्स. णत्थि अंतरं।
६८. संजमाणु० संजद--सामाइय०-छेदो०--परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-संजदासंजद. मोह० उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । असंजद० मोह० उक्क० जह० अंतोमुहु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहणुक्क० ओघं ।
६६. दसणाणु० चक्खु० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० वेसागरोवमसहस्साणि देसूणाणि । अणुक्क० जहणुक्क० ओघं । अचक्खु० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक० जहण्णुक्क० ओघं । ओहिंदसणी. ओहिणाणिभंगो । अन्तर ओघकी तरह है। विभंगज्ञानियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अ.तर कितना है? जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघकी तरह है। आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्ययज्ञानियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जो मिथ्यादृष्टि वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करता है उसके आभिनिबोधिक श्रादि तीन ज्ञानोंमें उत्कृष्ट अनुभाग होता है। तथा जो वेदकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयत मन:पर्ययज्ञानको प्राप्त करता है उसके मनःपर्ययज्ञानमें उत्कृष्ट अनुभाग होता है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर सम्भव न होनेसे उसका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है।
६८. संयमकी अपेक्षा संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत और संयतासंयतोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। असंयतोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो कि असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है।
विशेषार्थ-संयत आदि जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागके स्वामित्वका जो निर्देश किया है उसे देखनेसे विदित होता है कि इनमें भी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर सम्भव नहीं है, इसलिए उसका निषेध किया है। मात्र असंयत जीवोंके वह बन जाता है जिसका निर्देश मूलमें किया ही है।
६९. दर्शनकी अपेक्षा चक्षुदर्शनवाले जीवोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अतिर कुछ कम दो हजार सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अचक्षुदर्शनवाले जीवोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है जो कि असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अवधिदर्शनवालोंमें अवधिज्ञानियोंके समान भंग होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ७०. लेस्साणुवादेण किण्ह-णील-काउ० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस-सत्तारस-सत्तसागरो० देसूणाणि । अणुक० जहण्णुक्क० ओघं । तेउ०-पम्म० मोह० उक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० वे-अहारससागरो० सादिरेयाणि । अणुक० जहण्णुक० ओघं । सुक्क० मोह० उक्कस्साणुक्कस्सा. पत्थि अंतरं ।
७१. भवियाणु० भवसि० मोह० उक्क० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क० अोघं । अभवसि०-भवसिद्धियाणमोघंभंगो।
६ ७२. सम्मत्ताणु० सम्मादिहि-खइय०-वेदय०-उवसम०-सासण-सम्मामि० मोह० उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । मिच्छादिहीसु भवसिद्धियभंगो ।
६७३. सण्णियाणु० सण्णीसु मोह० उक्क० ज० अंतीमु०, उक्क० सागरोवमसदपुधत्तं । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । असण्णीसु मोह० उक्कस्साणुकस्स० गत्थि अंतरं ।
७४. आहाराणु० आहारीसु मोह० उक० ज० अंतोमु०, उक्क० अंगुलस्स
६७. लेश्याकी अपेक्षा कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावालोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ कम तेतीस सागर, कुछ कम सतरह सागर और कुछ कम सात सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघले समान है। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: कुछ अधिक दो सागर और कुछ अधिक अठारह सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। शुक्ललेश्यावालोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है।
९ ७१. भव्यत्वकी अपेक्षा भव्योंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अनन्तकाल है जो असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अभव्यों में भव्योंके समान भंग होता है।
७२. सम्यक्त्वकी अपेक्षा सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है । मिथ्यादृष्टियोंमे भव्योंके समान भंग होता है ।
७३ संज्ञित्वकी अपेक्षा संज्ञियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर सौ पृथक्त्वसागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। असंज्ञी जीवोंमे मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है।
७४. आहारकी अपेक्षा आहारकोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर १. प्रा. प्रतौ भवसि० भंगो इति पाठः ।
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سے بی جے عر حر م م م سے بے ےہ وج ميمر مر .
गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं असंखे०भागो असंखेजासंखेजाओ ओसप्पिणि-उस्सप्पिणीओ । अणुक्क० जहण्णुक्क० ओघं । अणाहारि० मोह० उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । ।
व एवमुक्कस्साणुभागंतराणुगमो समतो । ६ ७५. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० [जहण्णा-] जहण्णाणुभागविहतियाणं णत्थि अंतरं । एवं णिरयओघं पढमपुढवि-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस० देवोघं भवण०-वाण. सोहम्मादि जाव० सव्वदृसिद्धि त्ति।
७६. आदेसेण रइएसु विदियादि जाच सत्तमि ति मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सग-सगुक्कस्सहिदी देसूणा। अज० ज० अंतोमु०,उक्क० सग-सगुक्कस्सअन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अंगुलके असंख्यातवें भाग है, जो असंख्यातासंख्यात अवसर्पिणी और उत्सर्पिणीकालके बराबर है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है। अनाहारियोंमें मोहनीय कर्मके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागको लेकर अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-शुक्ललेश्या, सबसम्यक्त्व, असंज्ञी और अनाहारक मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिए इनमें अन्तरका निषेध किया है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ७५. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और श्रादेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य नारकी, पहली पृथिवीके नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तियंञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासी, व्यन्तर तथा सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मोहनीयकर्मका जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें होता है। उससे दूसरे समयमे उस जीवके मोहनीयका सर्वथा अभाव हो जाता है, अतः ओघसे जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं कहा है। आगे आदेशकी अपेक्षासे भी जिन जिन मागेणाओंमे उक्त अवस्थामें जघन्य अनुभाग होता है उनमे अन्तरकालका अभाव जानना चाहिये। जैसे कि तीन प्रकारके मनुष्योंमे । सामान्य नारकी, पहले नरक नारकी, सामान्य देव, नवनवासी और व्यन्तरोंमे जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय जन्म लेता है उसके तब तक जघन्य अनुभागकी सत्ता रहती है जब तक वह उसे बढ़ाता नहीं है। इसी प्रकार जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाला एकेन्द्रिय जीव पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च और मनुष्य अपर्याप्तमे' जन्म लेता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। इस जघन्य अनुभागमे वृद्धि होने पर पुनः इन पर्यायोंमे उसी जीवके जघन्य अनुभाग नहीं हो सकता अत: इनमें दोनों प्रकारके अनुभागका अन्तर नहीं कहा है । तथा दुबारा उपशमश्रेणि पर चढ़कर वहांसे गिरकर पीछे दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जो मनुष्य सौधर्मादिकमे उत्पन्न होता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। वह जघन्य अनुभाग यावज्जीवन रहता है, अतः सौधर्मादिकमें भी अन्तरकाल नहीं कहा है।
६ ७६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक तक मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ हिदी देमूणा । एवं जोदिसिय० । तिरिक्खेसु मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा' लोगा । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । ___ ७७. इंदियाणु० एइंदिय०-सुहुमेइंदिय-सुहुमेइंदियअपज्जत्तएस मोह० जहण्णाणु० जह० अंतोमु०, उक्क. असंखेजा लोगा। णवरि अपज्जत्तएसु अंतोमु० । अज. जहण्णुक्क० अंतोमु० । सुहमेइंदियपज्ज०-बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्तसव्वविगलिंदिय-पज्जतापज्जत्त-पंचिंदियअपज्जत्तएमु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० पत्थि अंतरं । पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएमु मोह. जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं ।
७८. कायाणु० पुढवि० आउ०-तेउ० [वाउ०-] बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तउत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये। तिर्यञ्चोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है।
विशषार्थ-दूसरे आदि नरकमें जन्म लेकर जो जीव सम्यग्दृष्टि होकर अनन्तानुबन्धी चतुष्कका क्षपण कर लेता है उसके जघन्य अनुभाग होता है। अन्तमुहूर्तके पश्चात् सम्यक्त्वसे च्युत होकर यदि वह जीव पुन: मिथ्यादृष्टि हो जाता है तो अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। और अन्तमुहूर्त तक अजघन्य अनुभागवाला रहकर सम्यग्दृष्टि होकर यदि पुनः अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके जघन्य अनुभागवाला हो जाता है तो जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त होता है। इसी प्रकार उत्कृष्ट अन्तर भी घटा लेना चाहिये। तिर्यञ्चोंमें कोई सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अजघन्य अनुभागका घात करके जघन्य अनुभागवाला हुआ। यतः उसके यह जघन्य अनुभाग अन्तमुहूर्तसे अधिक काल तक नहीं रहता, अतः अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। और यदि अन्तमुहूर्तके बाद उस अजघन्य अनुभागका घात करके पुन: जघन्य अनुभागवाला होजाता है तो जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोक कालका अन्तर प्राप्त होनेसे उत्कृष्ट अन्तर उक्त प्रमाण कहा है।
६ ७७. इन्द्रियकी अपेक्षा एजेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमे मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि अपर्याप्तकोंमे उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा इन सबके अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तक, बादर एजेन्द्रिय अपयाप्तक, समस्त विकलेन्द्रिय, समस्त विकलेन्द्रिय पर्याप्तक, समस्त विकलेन्द्रिय अपर्याप्तक और पंचेन्द्रिय अपयोप्तकोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। पंचेन्द्रिय और पंचेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है।
६७८. कायकी अपेक्षा पृथिवीकाय, जलकाय, तेजकाय, वायुकाय तथा इनके बादर,
१. ता० प्रतौ संखेजा इति पाठः । २. ता. प्रतो तेउ० [वाउ०] बादर, श्रा० प्रतौ तेउ० बादर० हइति पाठः।
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गा०२२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं मुहुमवणप्फदिकाइयपज्ज०-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्त-बादरणिगोदपज्जत्तापज्ज०-सुहुमणिगोदपज्जत्तएमु मोह० जहण्णाजहण्ण. पत्थि अंतरं । वणप्फदिकाइय-मुहुमवणप्फदिकाइय०-मुहमणिगोदेसु मोह० ज० अज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमेदेसिमपज्जत्तएम वि । णवरि जहण्णुक्क० अंतोमु०। तस-तसपज्जतापज्जत्तएसु'० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं।
$ ७६. जोगाणु० पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०--वेउव्विय०वेउव्वियमिस्स-कम्मइय०-आहा-आहारमिस्स० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । ओरालियमिस्स० सुहुमेइंदियअपज्जत्तभंगो।
८०. वेदाणुवादेण इत्थि०-पुरिस०-णqसय० मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । एवमवगद०-चत्तारिकसाय-अकसाय-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणसूक्ष्म, पर्याप्तक, और अपर्याप्तक, सूक्ष्म वनस्पतिकाय पर्याप्तक, बादर वनस्पतिकाय प्रत्येकशरीर तथा इनके पर्याप्तक, और अपर्याप्तक, बादर निगोद तथा इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक और सूक्ष्म निगोद पर्याप्तकोंमें मोहनीयकमके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्मनिगोदया जीवों में मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार इनके अपर्याप्तकोंमें भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि इनमें दोनों प्रकारका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । त्रस, त्रसपर्याप्तक और त्रस अपर्याप्तकोंमें मोहनीय. कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में और सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें तिर्यञ्चों के समान स्पष्टीकरण है। किन्तु सूक्ष्म अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर भी अन्तर्मुहूर्त ही है, क्योंकि बार बार जन्म लेने पर भी कोई जीव अपर्याप्तकोंमें अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक लगातार जन्म नहीं ले सकता । शेष सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्तक आदिमे अन्तर नहीं है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिककर्म द्वारा जघन्य अनुभाग करनेवाला जीव उनमें जन्म तो ले सकता है किन्तु उन मार्गणाओंमे जघन्य अनुभाग करना सम्भव नहीं है। इसी प्रकार पृथिवीकायादिकमे भी अन्तरका अभाव जानना चाहिए। केवल वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमे अन्तर होता है जो सूक्ष्म एकोन्द्रियकी तरह समझ लेना चाहिए।
६७९. योगकी अपेक्षा पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, आहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके समान भंग है।
८०. वेदकी अपेक्षा स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी और नपुंसकवेदियोंमे मोहनीय कर्मके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार अपगतवेदी चारों कषायवाले, कषायरहित जीव, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिक
१. ता. प्रतौ तस तसपजसएसु इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ पज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०-संजदासंजद०चक्षु०-अचक्षु०--ओहिदंस०-सुक्कले०--भवसि०--सम्मादिहि-वेदग०-खइय०-उवसम०सासण-सम्मामि०-सण्णि-आहारि-अणाहारि त्ति ।
$ ८१. मदि-सुदअण्णाणीसु मोह० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । विहंगणाणीसु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । असंजद० मोह० ज० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । किण्ह-णील-काउ०-तेउ०-पम्म० मोह० जहएणाजहएणाणु० णत्थि अंतरं। अभवसि० मोह० ज. ज. अंतोमु०, उक्क० असंखेजा लोगा। अज० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं मिच्छादिहि-असण्णीणं ।
एवं जहण्णाणुभागअंतराणुगमों' समत्तो । संयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, आहारी और अनाहारी जीवोंमें जानना चाहिये।
८१. मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानियोंमें मोहनीय कर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। विभंगज्ञानियोंमे मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभाग विभक्तिका अन्तर नहीं है असंयतोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । कृष्ण, नील, कापोत, तेज और पद्मलेश्याम मोहनीयकर्मकी जघन्य
और अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। अभव्योंमे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभाग विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभाग विभक्तिवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि और असज्ञियोंमें भी जानना चाहिये।
विशेषार्थ-योगकी अपेक्षा मनोयोग, वचनयोग, काययोग और औदारिककाययोगवालोंके क्षपक दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमे जघन्य अनुभाग होता है अतः अन्तर नहीं कहा है। वैक्रियिककाययोगमे सौधर्मादिककी तरह अन्तर नहीं है । वैक्रियिकमिश्रमे नरकमें जन्म लेने वाले हतसमुत्पतिककर्मा असंज्ञी पञ्चेन्द्रियकी अपेक्षा जघन्य अनुभाग होता है अत: उसमें भी अन्तर नहीं है । आहारक और आहारकमिश्रमे दुवारा उपशमश्रेणि पर चढ़कर, उससे उतर कर दर्शनमोहनीयका क्षपण करके जो आहारककी उत्पादना करता है उसके जघन्य अनुभाग होता है अत: उनमे भी अन्तर नहीं प्राप्त होता। कार्मणका काल थोड़ा है, अत: उसमें भी अन्तरकी संभावना नहीं है। अपने अपने योग्य इसी प्रकारके कारणोंसे शेष मार्गणाओंमें अन्तरका अभाव लगा लेना चाहिये। केवल औदारिकमिश्र, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयमी, अभव्य, मिथ्यादृष्टि और असंज्ञीमे अन्तरकाल होता है जो एकेन्द्रियकी तरह लगा लेना चाहिये।
__ इस प्रकार जघन्य अनुभागका अन्तरानुगम समाप्त हुआ। १. ता० प्रतौ जहण्णाजहएणाणुभागअंतराणुगमो इति पाठः ।
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गा०२२ ]
अणुभागविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ $ ८२. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सो चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहत्तीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया १। सिया अविहत्तिया च विहत्तिो च २। सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च ३। एवमणुक्कस्सं पि । णवरि विहत्तिपुव्वं भाणिदव्वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुसतिय-देव०-भवणादि जाव सहस्सार त्ति । मणुसअपज्ज० उकस्साणुक्कस्साणुभागविहत्तियाणमह भंगा। आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति उक्कस्साणुक्कस्स० णियमा अत्थि।
८३. इंदियाणु० एइंदिय-बादर--सुहुम-पज्जत्तापज्जत्त-सव्वक्गिलिंदिय-सव्वपंचिंदिएम सिया सव्वे अणुकस्सविहत्तिया १। सिया अणुक्कस्सविहत्तिया च उक्कस्सविहत्तियो च २। सिया अणुक्कस्सविहत्तिया च उक्कस्सविहत्तिया च ३। एवं छकाय-पंचमण-पंचवचि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-कम्मइय०-तिण्णिवेद०-चत्तारिकसाय०-तिण्णिअण्णाण-आभिणि-सुद०-ओहि०- असंजद०-चक्खु०अचक्खु०-ओहिदंस०-पंचले०-भवसि०-अभवसि०-सम्मादिहि-वेदग०-मिच्छादिहिसण्णि-असण्णि-आहारि-अणाहारि ति ।
६८२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दा प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-प्रोघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमे से ओघकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव मोहनीयकमका उत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २ । कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले होते हैं ३ । इसी प्रकार अनुत्कृष्ट में भी जानना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि विभक्तिको पहले रखकर कथन करना चाहिये । अर्थात् कदाचित् सब जीव मोहनीयकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं १। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्टविभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्टविभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले हैं ३। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य, मनुष्यिनी, देव, और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिबालोंके आठ भंग होते हैं। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं। .
६८३. इन्द्रियकी अपेक्षा सामान्य एकेन्द्रिय और उनके बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्त सब भेदोंमें तथा सब विकलेन्द्रियों और सब पञ्चन्द्रियोंमें कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं १ । कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाला है २ । कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले और अनेक जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाले हैं ३ । इसी प्रकार छहों काय, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, कार्मणकाययोगी, तीनों वेदवाले, चार कषायवाले, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी. अवधिज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्याके सिवाय शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी आहारी और अनाहारी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ८४. वेउव्वियमिस्स०-आहार-आहारमिस्स०-अवगद०--अकसा०-सुहुमसांपराय०--जहाक्खाद०--उवसम०--सासण-सम्मामिच्छादिहीणं मणुसअपज भंगो । संजद-सामइय-छेदो०-परिहार०-संजदासंजद-मणपज्ज-मुक्कले०-खइय०सम्मादिहीणमाणदभगो।
एवं णाणाजीवेहि उक्स्सभंगविचयाणुगमो समत्तो।
जीवोंमें जानना चाहिए।
८४. वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि
और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें अपर्याप्त मनुष्यके समान भंग है। संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, मनःपर्ययज्ञानी, शुक्ललेश्यावाले और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें आनत कल्पके समान भंग है।
विशेषार्थ-इस अनुयोगद्वारमे नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयका विचार किया है। ओघसे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके तीन तीन भंग ही घटित होते हैं । यत: उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ताका काल और जीव बहुत कम हैं, इसलिये कदाचित् ऐसा समय आता है जब उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला कोई जीव न हो और सब जीव अनुत्कृष्ट अनुभागवाले हों। कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित और एक जीव सहित हो। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागसे सहित और एक जीव उससे रहित हो। कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे सहित और अनेक जीव उससे रहित हों। इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके रहने न रहने की अपेक्षासे ६ भंग होते हैं। आदेशसे भी चारों गतियोंमें यही ६ भंग बनते हैं। केवल मनुष्य अपर्याप्तके आठ भंग होते हैं जो इस प्रकार हैं-कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होते हैं। कदाचित् सब जीब उत्कृष्ट अनुभागसे सहित होते हैं। कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित होता है । कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे सहित होता है। कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे सहित और अनेक जीव उससे रहित होते हैं । कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे सहित और एक जीव उससे रहित होता है। कदाचित् एक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे सहित और एक जीव उससे रहित होता है। कदाचित अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागसे रहित और एक जीव उससे सहित होता है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागके भी आठ भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्तमे ये आठ भंग होनेका कारण यह है कि यह सान्तर मार्गणा है। इसमे कदाचित् एक भी जीव नहीं पाया जाता और कदाचित् एक या अनेक जीव पाये जाते हैं, अतः उक्त आठ आठ भंग बन जाते हैं। अन्य भी वैक्रियिकमिश्र आदि सान्तर मार्गणाओंमें इसी प्रकार आठ आठ भंग होते हैं। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक तथा संयत आदिमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सदा पाये जाते हैं। कारण कि इनमें यदि अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जन्म लेते है तो उनके तो नियमसे अनुत्कृष्ट अनुभाग ही बना रहता है और यदि उत्कट अनुभागवाले जन्म लेते हैं तो उनके जब तक क्रियान्तरके द्वारा उसका घात नहीं होता तब तक वही बना रहता है । संयत, सामायिक संयत आदिके आनतादिकके समान ही जानना चाहिए । तथा शेषमे ओघके समान घटित कर लेना चाहिए।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्टभंगविचयानुगम समाप्त हुआ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ F८५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जहण्णाणुभागस्स सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया १। सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २। सिया० अविहत्तिया च विहत्तिया च ३। अजहएणस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया १ । सिया विहत्तिया च अविहत्तिो च २। सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च १ । एवं णिरयओघं पढमपुढवि--सञ्चपंचिंदियतिरिक्ख--मणुसतियदेवोघं भवण-वाण-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि०पज्ज०-बादरआउ०पज्ज०--बादरतेउ०पज्ज०--बादरवाउ०पज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज०-तसतसपज्जत्तापज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०--काययोगि०ओरालि०--तिएिणवेद०-चत्तारिक०आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्जव०-संजद०-सामाइय-छेदो०-चक्खु०-अचक्खु०-प्रोहिदंस०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादिहि-खइयसम्मादिहि-वेदगसम्मा०-सरिण-आहारि त्ति ।
८६. विदियादि जाव सत्तमि त्ति जहएणाजहणणं णियमा अस्थि । एवं तिरिक्ख-जोदिसियादि जाव सव्वसिदि-एइंदिय-बादरेइंदिय-[बादरेइंदियअपज०] सुहुमेइंदिय--पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि०--बादरपुढवि०--बादरपुढवि० अपज्ज०--हुमपुढवि०
६८५. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है --ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागअविभक्ति वाले हैं १ । कदाचित् अनेक जीव मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं और एक जीव मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं और अनेक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं ३। कदाचित् सब जीव मोहनीयकर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं १। कदाचित अनेक जीव मोहनीयकर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं और एक जीव अजघन्य अनुभाग विभक्तिसे रहित है २ । कदाचित् अनेक जीव मोहनीय कर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं और अनेक जीव अजघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं ३ । इसी प्रकार सामान्य नारकी, पहली पृथिवीके नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्तक, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीपर्याप्तक, बादर अप्कायपर्याप्तक, बादर तेजकायपर्याप्तक,बादर वायुकायपयोप्तक, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीरपर्याप्तक. त्रस, त्रसपर्याप्तक, त्रसअपर्याप्तक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनवाल, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यकदृष्टि, संज्ञी और आहारी जीवोंमे जानना चाहिये।
६८६. दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जघन्य अनुभागविभक्तिवाले और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले नियमसे होते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियअपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और उसके पर्याप्त अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर
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जयभवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
सुहुम पुढवि० पज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज० -- मुहुमआउ०--सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त -- तेउ० - बादरतेउ०- बादर ते अपज्ज० - सुहुमतेउ०- सुहुमतेड ० पज्जत्तापज्जत्त ०-- वाउ०- बादरवाङ ० -- बादरवाङ • अपज्जत्त--सुहुमवाउ ० -सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तसव्ववणफदि -- सव्वणिगोद--ओरालियमिस्स ० -- वेउब्विय० कम्मइय० --मदिअण्णाणिसुदअण्णाणि विहंग०- परिहार० - संजदासंजद ० - असंजद ० किएह-णील-काउ -- तेउ पम्म ०अभवसि ० -मिच्छादिहि असण्णणाहारिति ।
८७. मणुस पज्ज० जहण्णाजहण्ण० अभंगा । एवं वेडव्वियमिस्स ०. आहार० - आहारमिस्स ० -- अव गद्०-- अकसाय ० - सुहुमसांपराय ० - जहाक्खाद ० -उवसम०सासण - सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
--
एवं णाणा जीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो ।
अकायिक, बादर,
८८. भागाभागानुगमो दुविहो – जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । तत्थ उकस्से पदं । दुविहो णिद्दसो - ओघे० आदेसे० । श्रघे० मोह० उक्कस्साणुभागविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतिमभागो । अणुक्कस्स ० विहत्तिया सव्वजीणं केवडिओ भागो ? अनंता भागा । एवं तिरिक्खोघं सव्व एइंदिय - सव्ववणप्फदिकाइयकायिक, अपर्याप्तक सूक्ष्म अष्कायिक, सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म कायिक अपर्याप्तक, तेजकायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकाथिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सब वनस्पति, सब निगोदिया, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कपोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारी जीवों में जानना चाहिए ।
९८७ मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य विभक्तिके आठ आठ भंग होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी आहारकमिश्रकाययोगी, अपरानवेडी अकपायी. सूक्ष्मसाम्परायसंवत. यथाख्यातसंगत. उपरामसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टिमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकी अपेक्षा ओघ और आदेश से जिस प्रकार स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। मात्र जिन मार्गणाओंमें विशेषता है उनमें जघन्य स्वामित्वको ध्यान में रख कर वह घटित कर लेनी चाहिए । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ ।
८८. भागाभागानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है— ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण । अर्थात् सब जीवोंमें अनन्तका भाग देने पर एक भागप्रमाण उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ
५७ सव्वणिगोद-कायजोगि--ओरालि०-ओरालिमिस्स०--कम्मइय०--णवंस०-चत्तारिक०दोअण्णाण०-असंजद०--अचक्खु०-किण्ह-णील-काउ०-भवसि०--अभवसि०-मिच्छादिहि-असएिण-आहारि-अणाहारि ति । ___ ८६. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्कस्साणुभाग० सव्वजीवाणं केव० १ असंखे०भागो । अणुक्क विहत्ति० सव्वजी० केव० ? असंखे० भागा । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदि तिरिक्व-मणुस-मणुसअपज्ज०-देव०-भवणादि जाव अवराइद०-सव्ववियलिंदिय-सव्वपंचिंदिय--सव्वचत्तारिकाय-बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापजत्तसव्वतसकाइय-पंचमण०-पंचवचि०-वेउन्वि०-वेउव्वियमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-विहंग०आभिणि-सुद०-ओहि०-संजदासंजद०-चक्खु०-अोहिदंस०-तेउ-पम्प-सुक्क०-सम्मादि०वेदग०-खइय०-उवसम-सासण-सम्मामि०-सणिण त्ति ।
६०. मणुसपज्ज ०-मणुसिणी० उक्कस्साणुभाग० सव्वजी० केव० ?संखे०भागो। अणुक्क० संखेज्जा भागा। एवं सव्वह०-आहार०-आहारमिस्स०-अवगद-अकसा०और शेष बहु भागप्रमाण अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी,नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारी और अनाहारी जीवोंमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले अनन्त होते हैं। इसीसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले अनन्तवेंभाग और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले अनन्त बहुभाग कहे हैं। यहाँ मूलमें अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह व्यवस्था बन जानेसे उनकी प्ररूपणा ओघके समान जाननेकी सूचना की है।
८९. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित अनुत्तर तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तेजस्कायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिकप्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त अपर्याप्त, सब त्रसकायिक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों बचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिध्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए।
६९०. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी आहारकमिश्रकाययोगी,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मणपज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०संजदे ति ।
$ ६१. जहएणए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघे० आदेसे० । ओघे० मोह. जहएणाणु० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो। अज. सव्वजी० केव० ? अणंता भागा। एवं कायजोगि० ओरालि०-णqस०-चत्तारिकसाय०-अचक्खु०भवसि०-आहारि ति ।
$ ६२. आदेसेण णेरइएस मोह० जहणणाणु० सव्वजीव० केव० ? असंखे०भागो । अज० असंखेजा भागा । एवं सवणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-मणुसअपज्जादेव०-भवणादि जाव अवराइद० सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय-सव्यपंचिंदिय-सव्वछक्काय-पंचमण०-पंचवचि०-ओरालि मिस्स०-वेविय०-वेवि०मिस्स०-कम्मइय०इत्थि-पुरिस-मदि०-मुद०-विहंग०-आभिणि०-मुद०-ओहि०-संजदासंजद०-असंजद०चक्खु०-ओहिदंस०--छलेस्सा०--अभवसि०-छसम्मत्त०-सण्णि-असएिण-अणाहारि अपगतवेदी, कषायरहित, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-नारकी आदि मार्गणाओंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले यद्यपि असंख्यात हैं फिर भी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्या भाग ही हैं। इसीसे इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं। मनुष्यपर्याप्त आदिमें दोनों विभक्तिवाले संख्यात हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले संख्यातवें भागप्रमाण और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण कहे हैं।
६९१. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवेंभाग हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवों के कितने भाग हैं ?अनन्तहुभाग ब हैं। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारकों में जानना चाहिए।
विशेषार्थ ओघसे और उक्त मार्गणाओंमें जघन्य अनुभागविभक्तिवाले संख्यात हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले अनन्त हैं, अतः उक्त प्रकारसे भागाभाग बन जाता है। आगे भी इसी प्रकार संख्या जान कर भागाभाग घटित कर लेना चाहिए।
६९२. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, मनुष्य, मनुष्यअपयाप्त,सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब अण्कायिक, सब तैजस्कायिक, सब वायुकायिक, सब वनस्पतिकायिक, सब त्रसकायिक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, असंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, छहों लेश्यावाले, अभव्य, छहों सम्यग्दृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी,
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए परिमाण त्ति । मणुसपज्जत्तादिसंखेजरासीसु जहण्णाणु० सव्वजी० केव० १ संखे भागो। अज० संखेज्जा भागा।
एवं जहएणओ भागाभागाणुगमो समत्तो । ६३. परिमाणाणुगमो दुविहो-जहएणओ उकस्सओ चेदि । उक्स्सए पयदं । विहो णि सो-ओघे० आदेसे०। ओघेण उक्कस्साणुभागविहत्तिया केवडिया ? असंखेजा । अणुक्क० दव्वपमाणेण के० ? अणंता। एवं तिरिक्वोघं सव्वेइंदिय-सव्ववणफदिकाइय०-सव्वणिगोद०-कायजोगि०--ओरालिय०-ओरालियमिस्स०कम्मइय०-णस०-चत्तारिकसाय-दोषिणअण्णाणि--असंजद०-अचक्खु०-किएह-णीलकाउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि०-असणिण-आहारि-अणाहारि ति ।
४. गाभण मल-अणुक्रम्याशुभागविनिया जीवा दअपमापण .. असंखेज्जा । एवं सध्यणरइय-सव्यपाँचंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज्ज.देव-भवणादि जाव अवराइद. सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-सव्वचत्तारिकाय-बादरवणप्फदिकाइयपत्ते यसरीर-पज्जत्तापज्जत्त-सव्वतसकाइय-पंचमण०-पंचवचि०-वेव्विय०वेउब्वियमिस्स०-इत्थि० --पुरिस०-विहंग०--आभिणि-सुद०--अोहि०--संजदासजद०और अनाहारक जीवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यपर्याप्त आदि संख्यात राशियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं।
___ इस प्रकार जघन्य भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ९३. परिमाणानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट। प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश। ओघकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च तथा सब एकेन्द्रिय, सब,वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्लावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारकोंमें जानना चाहिए।
६ ९४. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चन्द्रिय, सब पृथिवीकायिक, सब जलकायिक, सब तैजस्कायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, सब उसकायिक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधि
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६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागवत्ती ४
चक्खु ० - ओ हिंदंस ० -- तेउ पम्म सुक्क० -- सम्मादिहि-वेदय ० -- खइय० - उवसम ०-- सासण ०सम्मामि० सण त्ति । मणुसपज्ज० -- मणुसिणी० उजस्साणुक्कस्साणुभाग० केव० १ संखेज्जा । एवं सव्वद्व० - आहार० - आहार मिस्स ० - अवगद ० - अकसा०--मणपज्ज०--संजदसामाइय०-छेदो०- परिहार० - सुहुमसां पराय ० - जहाक्खाद ० संजदेति ।
एवमुक्कस्साणुभागपरिमाणाणुगमो समत्तो ।
६५. जहण्णए पदं । दुविहो णिदे सो- ओघे० आदेसे ० । तत्थ ओघेण मोह० जहण्णाणुभागविहत्तिया केत्तिया ? संखेज्जा । [ अजहरा ० ] दव्वपमाणेण केव० ? अनंता । एवं कायजोगि० - ओरालिय० णवुंस ० -- चत्तारिकसाय ०-अचक्खु०भवसि ० - आहारि त्ति ।
दर्शनवाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्याबाले, शुकुलेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदगसम्यग्यदृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देव, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, कषायरहित, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, और यथाख्यातसंयत जीवोंमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ- पहले अनुयोगद्वार में यह बतलाया है कि ओघ और आदेश से अमुक अनुभागवाले जीव समस्त जीवों के कितने भागप्रमाण हैं और इस अनुयोगद्वार में उनका परि माग बतलाया है । श्रघसे मोहनीयकर्मके अनुभागसे युक्त जीवराशि अनन्त है । किन्तु उसमें उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव केवल असंख्यात ही हैं, क्योंकि एक तो मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्धसंज्ञी पन्द्रिय जीव करते हैं। दूसरे अन्य इन्द्रियवालों में मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभाग उन्हीं के पाया जाता है जो संज्ञी पञ्च ेन्द्रिय इसका घात नहीं करके उनमें उत्पन्न होते हैं, इसलिए इनका प्रमाण असंख्यात कहा है। शेष सब मोहनीयकी सत्तावालोंके अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है अत: उनका प्रमाण अनन्त कहा है। सामान्य तिर्यञ्च से लेकर अनाहारक पर्यन्त जिन मार्गणा में जीवराशिका प्रमाण अनन्त है उनमें ओघ की तरह ही परिमाण होता है । नरकगति से लेकर संज्ञी पर्यन्त असंख्यात राशिवाली मार्गणाओं में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही विभक्तिवाले जीव असंख्यात होते हैं । तथा मनुष्य पर्याप्त से लेकर यथाख्यातसंयत पर्यन्त संख्यात राशिवाली मार्गणाओं में दोनों विभक्तिवालों का परिमाण संख्यात ही होता है । किन्तु उनमें भी एक भागप्रमाण उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव होते हैं और बहु भागप्रमाण अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव होते हैं जैसा कि भागाभाग अनुयोगद्वार में बतलाया है ।
इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभाग परिमाणानुगम समाप्त हुआ ।
$ ९५. प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - श्रघनिर्देश और देशनिर्देश। उनमेंसे ओधकी अपेक्षा मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । द्रव्यप्रमाणसे अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसक वेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारकों में जानना चाहिए ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए परिमाणं ६६. आदेसेण णेरइएमु जहण्णाजहण्णाणुभाग० केव० ? असंखेज्जा । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख--मणुसअपज्ज०-देव० भवणादि जाव अवराइद० सव्वविगलिंदिय--पंचिंदियअपज्ज०--सव्व पुढवि०--सव्वआउ०--सव्वतेउ०--सव्ववाउ०-- बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्त--तसअपज्ज०--उब्विय०--वेउव्वियमिस्सविहंग-तेउ-पम्मलेस्सिया ति । तिरिक्खगईए तिरिक्खेमु जहण्णाजहण्णाणुभाग० केव० ? अणंता। एवं सव्वएइंदिय-सव्ववणप्फदिकाइय-सव्वणिगोद-ओरालियमिस्स०कम्मइय०-मदिअण्णाणि-सुदअण्णाणि-असंजद-किएह-णील-काउ०-अभव०-मिच्छादिहि-असएिण-अणाहारि ति ।
६७. मणुसगईए मणुस्सेसु जहण्णाणुभाग० केव० ? संखेज्जा । अज० असंखेज्जा । एवं पंचिंदिय--पंचिंदियपज्ज०--तस-तसपज्ज०--पंचमण०--पंचवचि०-इत्थि०पुरिस०--आभिणि०--सुद--ओहि०--संजदासंजद०-चक्खु०--ओहिदंस०-सुक्क०-सम्मादिहि०-खइय०-वेदग०-उवसम०-सासण०सम्मामि०-सरिण ति । मणुस्सपज्ज०-मणुसिणीसु जहण्णाजहण्णाणु० केव० ? संखेज्जा । एवं सव्वह०-आहार-आहारमिस्स०अवगद०-अकसा०-मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०--सुहुमसांपराय०-जहाक्वादसंजदे त्ति ।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो ।
९९६. आदेशकी अपेक्षा नारकियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव,भवनवासीसे लेकर अपराजित नामक अनुत्तर तकके देव, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियअपर्याप्त, सब पृथिवीकायिक, सब अप्कायिक, सब तैजसकायिक, सब वायुकायिक, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्त, बस अपर्याप्त,वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, विभंगज्ञानी, तेजोलेश्यावाले और पद्मलेश्यावालोंमें जानना चाहिए । तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सब एकेन्द्रिय, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए।
६ ९७. मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी. पुरुषवेदी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि,वेदकसम्यग्दृष्टि,उपशमसम्यग्दृष्टि,सासादनसम्यग्दृष्टि,सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६८. खेत्ताणुगमो दुविहो-जहएणओ उक्कस्सओ चेदि । उक्स्स ए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघे० आदेसे०। ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहतिया केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे० भागे । अणुक० सव्वलोगे। एवं तिरिक्रवोघं एइंदिय-बादरेइंदिय[बादरेइंदियपज्जत्तापज्ज-सुहुमेइं दिय-] सुहुमेइंदियपज्जतपज्जत्त-पुढवि० बादरपुढवि०बादरपुढविअपज ०--सुहुमपुढवि०-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-बादरआउ०--बादरआउअपज्ज ०-सुहुमआउ०-सुहुमाउपजत्तापजत्त०-तेउ०-बादरतेउ०-बादरतेउअपज०सुहुमतेउ०--मुहुमतेउपज्जत्तापज्ज०--वाउ०--बादरवाउ०--बादरवाउअपज्ज०--सुहुमवाउ०मुहुमवाउ०पज्जत्तापज्जत्त-वणप्फदि-बादरवणप्फदि--बादरवणप्फदिपज्जत्तापज्जत्त-मुहुमहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ ओघसे क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग रहना है, और एस जीवों की संख्या संख्यात है. अत: श्रावस जघन्य असमागवाल जीवांका परिमाण संख्यात कहा है और शेष अनन्त जीव अजघन्य अनुभागवाल होते है । काययोगी आदि जिन मार्गणाओंमें विवक्षित जीवराशिका प्रमाण अनन्त है और क्षपकश्रेणिके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहका जघन्य अनुभाग होता है, उनमें जघन्य और अजधन्य अनुभागवालों का परिमाण ओघके समान ही जानना चाहिये। तिर्यञ्चगति आदि जिन मार्गणाओंमें जीवराशिका प्रमाण अनन्त है और जघन्य अनुभाग हतसमुत्पत्तिककर्मा सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवोंके होता है उनमें दोनों ही अनुभागवालोंका परिमाण अनन्त कहा है । तथा नरकगतिसे लेकर पद्मलेश्यापर्यन्तकी असंख्यात राशिवाली मार्गणाओंमें दोनों अनुभागवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। सामान्य मनुष्य आदि संज्ञी मार्गणा पर्यन्त जिन मार्गणाओंमें जीवराशिका प्रमाण तो असंख्यात ही है, किन्तु जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिमें या उपशमश्रेणिसे गिरे हुए जीवोंके होता है, उनमें जघन्य अनुभागवालोंका परिमाण संख्यात कहा है और अजघन्य अनुभागवालोंका परिमाण असंख्यात कहा है। तथा मनुष्यपर्याप्त आदि संख्यात जीवराशिवाली मार्गणाओंमें दोनों अनुभागवालोंका परिमाण संख्यात कहा है। विशेष इतना है कि इन सब मार्गणाओंमें अलग अलग स्वामित्वका विचार कर यह परिमाण ले आना चाहिए। यहाँ अलग अलग स्वामित्वका उल्लेख न कर सूचनामात्र की है।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। १९८. क्षेत्रानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । श्रीघसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयाप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपयाप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर अप्कायिक, बादर अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तेजस्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म लैजस्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सुक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिकपर्याप्त, सूक्ष्मवायुकायिक अपर्याप्त,
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए खेत्तं वणप्फदि--सुहुमवणप्फदिपज्जत्तापज्जत--बादरवणप्फदिपत्तेय-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरअपज्ज०-णिगोद०-बादरणिगोद०-बादरणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमणिगोद-मुहमणिगोदपज्जत्तापज्जत्त-कायजोगि०-ओरालिय०-ओरालियमिस्स०-कम्मइय०--णवूस०-चत्तारिकसाय-मदिअण्णाण.--सुदअण्णा०--असंजद-अचक्खु०--किण्ह-णील-काउ०-भवसि०अभवसि०-मिच्छादिहि०-असएिण-आहारि०-अणाहारि त्ति ।
६६. सेसमग्गणासु उकस्साणुक्कस्सअणुभागविहत्तिया जीवा लोग० असंखे०भागे। णवरि बादरवा उपज्जत्तएसु उक्कस्साणुभागविहत्तिया जीवा लोगस्स असंखे० भागे । अणुक्क अणुभाग. जीवा लोग० संखे०भागे।।
एवमुक्कस्साणुभागखेत्ताणुगमो समत्तो। $ १००. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह० जहणणाणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। अज० सव्ववनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक, बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर, बादर वनस्पति प्रत्येकशरीर अपर्याप्त, निगोदिया, बादर निगोदिया, बादर निगोदिया पर्याप्त, बादर निगोदिया अपर्याप्त, सूक्ष्म निगोदिया, सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त, सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त, काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्ण, नील और कापोत लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारी और अनाहारियोंमें जानना चाहिए।
९ ९९. शेष मार्गणाओंमे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इतनी विशेषता है कि बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवां भाग है।
विशेषार्थ-वर्तमानमें उत्कृष्ट अनुभागवाले जीव लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रमें ही पाये जाते हैं, क्योंकि संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टि जीव ही मोहका उत्कृष्ट अनभागबन्ध करते हैं। और घात किये बिना इनके अन्य इन्द्रियवालोंमें उत्पन्न होने पर वहाँ उत्कृष्ट अनुभाग देखा जाता है, इसलिये ओघसे इनका क्षेत्र लोकका असंख्यातवां भाग है और अनत्कृष्ट
वालोंका क्षेत्र सर्वलोक है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार आदेशसे जिन जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है उनमें ओघकी ही तरह क्षेत्र होता है। शेष मार्गणाओंमें दोनों ही अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है। केवल बादर वायुकायिकपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका संख्यातवाँ भाग है, क्योंकि ये जीव लोकके संख्यातवें भाग क्षेत्रमें रहते हैं।
इस प्रकार उत्कृष्टानुभाग क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। 5 १००. अब प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ लोगे । एवं कायजोगि०--ओरालिय०--णqस०--चत्तारिकसाय-अचक्खु०--भवसि०-- आहारि ति।
$ १०१. आदेसेण गैरइएसु मोह० जहण्णाजहएणाणुभाग० केव० खेत्ते ? लोग० असंखे०भागे । एवं सब्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेव-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढविपज्ज०--बादरआउपज्ज०--बादरतेउपज्ज०-बादर-- वणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज --सव्वतसकाय०--पंचमण. --पंचवचि०-वेउव्विय०-वेउव्वियमिस्स-आहार-आहारमिस्स०-इत्थि०-पुरिस०-अवगद-अकसा०-विहंग०-आभिणि०सुद०-ओहि०-मणपज्ज०-संजद-सामाइय-छेदो०-परिहार०--सुहुमसांपराय-जहाक्खाद०संजदासंजद-चक्खु०-ओहिदंस०-तेउ०-पम्म०-सुक्क०--सम्मादिहि-वेदग०-खइय०-उवसम०-सासण०-सम्मामि०-सरिण ति ।
१०२. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मोह० जहण्णाजहण्णाणुभागविहत्तिया केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । एवमेइंदिय-बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमेइंदिय-हुमेइदियपजत्तापज्जत्त--पुढवि०-- बादरपुढवि०-- बादरपुढविअपज्ज०--सुहुमपुढवि०--सुहुमपुढविपज्जतापज्जत्त-आउ०--बादरआउ०-बादराउअपज्ज०--मुहुमआउ०--सुहुमाउतवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनवाले, भव्य और आहारकोंमें जानना चाहिए।
१०१. श्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमे मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, सब मनुष्य, सब देव, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्च न्द्रिय, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त, सब त्रसकायिक, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी, आहारकमिश्रकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, अपगतवेदी, अकषायी, विभंगज्ञानी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनः पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, यथाख्यातसंयत, संयतासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, तेजोलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, सम्यमिथ्यादृष्टि और संज्ञी जीवोंमे जानना चाहिए।
१०२. तिर्यञ्चगतिमे तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर अकायिक, बादर अकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म अकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म अप्का
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monsornAname
गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए पोसणं पज्जत्तापज्जत्त--तेउ०--बादर०--तेउवादरतेउअपज्ज०--सुहुमतेउ०--मुहुमतेउपजत्तापज्जत्तवाउ०-बादरवाउ०--बादरवाउअपज्ज-सुहुमवाउ-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्त--सव्ववणप्फदिसव्वणिगोद-ओरालियमिस्स-कम्मइय०-मदि-मुदअण्णाणि०--असंजद०--किएह-णीलकाउ०-अभवसि०-मिच्छादिहि-असरिण-अणाहारि त्ति। बादरवाउपज्ज० ज० अज० लोगस्स संखे०भागो।
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। ६१०३. पोसणाणुगमो दुविहो—जहएणओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कसे पयदं । दुविहो णि सो-ओघे० आदेसे०। ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागविहत्तिएहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो अहचोदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । अणुक्क० सव्वलोगो। यिक अपर्याप्त, तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पयोप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्मवायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके संख्यातवें भाग प्रमाण है।
विशेषार्थ-ओघसे जघन्य अनुभागका सत्त्व क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समय में होता है, अत: ओघसे जघन्य अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग और अजघन्य अनुभागवालोंका क्षेत्र सर्वलोक कहा है। जिन मार्गणाओंमें जीवोंका क्षेत्र सब लोक है तथा जघन्य अनुभाग भी ओघकी तरह होता है उनमें ओघकी तरह क्षेत्र कहा है। जैसे काययोगी आदि। आदेशसे नरकगतिसे लेकर संज्ञी पर्यन्त जिन मार्गणाओंमें जीवोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग है उनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका क्षेत्र लोकका असंख्यातवाँ भाग कहा है । तथा सामान्य तिर्यञ्चोंमें और एकेन्द्रियसे लेकर अनाहारक पर्यन्त जिन मार्गणाओं में जीवोंका क्षेत्र सर्व लोक है तथा जघन्य अनुभाग हतसमुत्पतिककर्मा एकेन्द्रिय जीवके पाया जाता है उनमें जघन्य और अजघन्य अनभागवालोंका क्षेत्र सर्व लोक कहा है। केवल बादर वायुकायिकपर्याप्तक जीवोंमें दोनों विभक्तियोंका लोकका संख्यातवाँ भाग क्षेत्र कहा है, क्योंकि इस मार्गणाका क्षेत्र ही इतना है।
___ इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। ११०३. स्पर्शनानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । ओघसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका, लोकके चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट अनुभागवालोंने मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा सर्व लोक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $१०४. आदेसेण णेरइएसु उकस्साणुकस्साणुभाग. केव० १ लोग० असंखे०भागो छचोदसभागा वा देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो। विदियादि जाव ससमि त्ति मोह० उक्क० अणुक्क० लोग० असंखे०भागो एग०--वे--तिरिण--चत्तारि--पंच-छचोइस० देसूणा ।
$ १०५. तिरिक्खेसु मोह. उक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। अणुक्क० अोघं । सव्वपंचिंदियतिरिक्व०-सव्वमणुस्स० उकस्साणुकस्स० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि पंचिंदियतिरिक्व-मणुस्सअपज्जत्ताणमुक्क० खेत्तभंगो । देव० उक्कस्साणुक्कस्साणुभाग. केव० ? लोग० असंखे०भागो अह-णव चोदसभागा देसूणा पोसिदा । एवं सव्वदेवाणं । णवरि सग-सगपोसणं जाणिय वत्तव्वं । क्षेत्रका स्पर्शन किया है, तथा वेदना, कषाय, विहारवत्स्वस्थान और वैक्रियिकसमुद्घातकी अपेक्षा वर्तमान कालमे लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है और अतीत कालमे कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागवाले चूँकि सर्व लोकमें पाये जाते हैं, अतः उन्होंने सम्भव पदोंके द्वारा सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
___ १०४. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकके चौदह भागोंमे से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और लोकके चौदह भागोंमेंसे क्रमसे कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पाँच और छह भागोंका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-सामान्यसे नारकियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें वर्तमान स्पर्शन तो इतना ही है और अतीत स्पर्शन क्रमसे कुछ कम एक बटे चौदह राजुप्रमाण आदि है । यत: इन दोनों प्रकारके स्पर्शनके समय मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, अतः इनका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान ही है, अत: इसमें दोनों प्रकारकी विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है।
६१०५. तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन ओघके समान है। उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च
और सब मनुष्योंने लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले पञ्चन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले देवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंमें स्पशन कहना चाहिये। इतनी विशेषता है कि अपने अपने स्पर्शनको जानकर कथन करना चानिये ।
विशेषार्थ-तिर्यञ्चोंमें मारणान्तिक समुद्घात और उपपाद पदके समय भी मोहनीयकी
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए पोसणं १०६ एइंदिएमु मोह० उक्कस्साणु० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक्कस्साणु० सव्वलोगो । एवं बादरेइंदिय-बादरेइंदियपज्जत्तापज्जत्त-सुहुमेइंदिय--सुहुमेइंदियपज्जत्तापज्जत्ताणं । सव्वविगलिंदिय--पंचिंदियअपज्ज०तसअपज्जताणं च पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभंगो। पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज. उक्कस्साणुकस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे भागो अह० चोदस० सव्वलोगो वा । एवं तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०-चक्खु०-सणिण त्ति । उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहकर भी सब लोक कहा है। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन ओघके समान सब लोकप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें दोनों प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण स्पर्शन इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए। मात्र पञ्चन्द्रियतियञ्चअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें ऐसे जीवोंके ही उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है जो अनुभागका घात किये बिना इन पर्यायोंमें उत्पन्न हुए हैं। यतः ऐसे जीवोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक सम्भव नहीं है, अतः इन दोनों मार्गणाओंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। देवोंमें और उनके अवान्तर भेदोंमें जो उनका अपना स्पर्शन है वह यहाँ दोनों विभक्तियोंकी अपेक्षा बन जाता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है।
६१०६. एकेन्द्रियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त और सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपयाप्तकोंके जानना चाहिये । सब विकलेन्द्रिय, पञ्चन्द्रियअपर्याप्त और त्रसअपर्याप्तकोंमे पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंके समान भंग है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले पञ्चन्द्रियों
और पञ्चन्द्रियपर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग, चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, चक्षुदशनवाले और संज्ञी जीवों में स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो मनुष्य या तिर्यञ्च उत्कृष्ट अनुभागका बन्धकर तथा उसका घात किये बिना उक्त एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं उन्हींके उत्कृष्ट अनुभाग सम्भव है। ऐसे जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। किन्तु ऐसे एकेन्द्रियोंका अतीत स्पर्शन सब लोक है, इसलिए वह उक्तप्रमाण कहा है। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभाग के बन्धक जीवोंका सब लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। विकलत्रय और त्रस अपर्याप्तकों काभङ्गपञ्च न्द्रियतियेञ्चअपयोप्तकोंके समान है यह भी स्पष्ट है। यों तो पञ्चेन्द्रिय और पञ्चल्टिय पर्याप्तकोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, किन्तु विहारादिकी अपेक्षा इनका अतीत स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा सब लोकप्रमाण बन जाता है, इसलिए इनमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके बन्धक जीवोंका स्पशन उक्त तीन प्रकारका कहा है। इसी प्रकार त्रस आदि जो शेष मार्गणाएं मूलमें गिनाई हैं उनमें भी यह स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। इन पञ्चन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें मोहनीयके अनकल
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जयधवलासहिदे
६८
[अणुभागविहत्ती ४ १०७. कायाणुवादेण पुढवि० उक्कस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक० सव्वलोगो। एवं सुहुमपुढवि-सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त-आउ०-सुहुमआउ०--सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त--तेउ०--मुहुमतेउ०--मुहुमतेउपज्जत्तापज्जत्त--वाउ०--सुहुमवाउ०-सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्ता ति । बादरपुढवि०बादर-पुढविअपज्ज० मोह० उक्कस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे०भागो तेरहचोदसभागा वा देरणा पोसिदा । अणुक० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं बादरपुढविपज्जत्ताणं । बादराउ.--बादरभाउपज्जत्तापज्जत्ताणं उक्कस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवमणुकस्साणुभागस्स वि वत्तव्वं । बादरतेउ-बादरतेउअपज्जत्ताणं बादरपुढविभंगो । बादरतेउपज्ज० उक्कस्साणुभाग० के० खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे भागो। सव्वपुढवीसु अत्थित्तं भणंताणं अहिप्पाएण तेरहचोदसभागा । बादरवाउ-बादरवाड़अपज्ज० बादरआउभंगो । बादरवाउ०पज्ज० उक्क० के० खे० पो० ? लोग० असंखेभागो सव्वलोगो वा । अणुक्क० लोगस्स संखे०भागो सव्वलोगो वा। सव्ववणप्फदिअनुभागके बन्धक जीवोंका यह स्पर्शन उत्कृष्टके समान ही घटित कर लेना चाहिये।
१०७. कायकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले पृथिवीकायिक जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिकपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिकअपर्याप्त, अप्कायिक, सूक्ष्म अकायिक, सूक्ष्म अप्कायिकपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिकअपर्याप्त,तैजसकायिक,सूक्ष्म तैजसकायिक, सूक्ष्म तैजसकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तैजसकायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त
और सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बादर पृथिवीकायिक और बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पशन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बादर अप्कायिक और बादर अप्कायिक पयाप्तक तथा बादर अप्कायिक अपर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका भी स्पर्शन कहना चाहिये। बादर तैजसकायिक और बादर तैजसकायिक अपर्याप्तकोंमे बादर पृथिवीकायिकोंके समान भंग है। उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बादर तैजस्कायिक पर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। जो सब पृथिवियोंमे उनका अस्तित्व मानते हैं उनके मतसे चौदह भागों मेंसे तेरह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। बादर वायुकाय और बादर वायुकाय अपर्याप्तकों में बादर अप्कायके समान भंग है । उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बादर वायुकायिक पर्याप्तकोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके संख्यातवें भाग और सब लोकका
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए पोसणं काइय-सव्वणिगोदाणमेइंदियभंगी । बादरवणप्फदिकाइयपत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ताणं बादरपुढविकाइयभंगो।
१०८. जोगाणु० कायजोगि० उक्क० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० सव्वलोगो वा । अणुक्क० सव्वलोगो। एवमोरालियकायजोगिणवरि अहचोदसभागाणत्थि। ओरालियमिस्स० उकस्साणु० के० खे. पो० १ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। अणुक्कस्साणु० सव्वलोगो । एवं कम्मइय०-णवूस-चत्तारिकसाय--मदि-सुदअण्णाण०असंजद०-अचक्खु०-किएह-णील-काउ०-भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि--असरिण०
आहारि-अणाहारि त्ति । वेउव्विय० उकस्साणुक्कस्साणु० के० खे० पो० ? लोग० स्पर्शन किया है। सब वनस्पतिकायिक और सब निगोदियोंमे एकेन्द्रियके समान भंग है। बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर तथा उनके पर्याप्त और अपर्याप्तोंमें बादर पृथिवीकायिकके समान भंग है।
विशेषार्थ-एकेन्द्रियों में मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके बन्धकोंका जिस प्रकार स्पर्शन घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिकोंमें तथा इन चारोंके सूक्ष्मोंमें और सूक्ष्मोंके पर्याप्त और अपर्याप्तकोंमें घटित कर लेना चाहिये। उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिसे युक्त बादर पृथिवीकायिक और इनके पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन नीचे कुछ कम छह और ऊपर कुछ कम सात राजु कुल कुछ कम तेरह बटे चौदह राजु सम्भव होनेसे यह उक्तप्रमाण कहा है। इनके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालों का स्पर्शन लोकके असंख्ातवें भागप्रमाण और सब लोकप्रमाण है, यह स्पष्ट ही है। यहाँ तक जो स्पर्शन घटित करके बतलाया है उसे ध्यानमें लेकर स्थावरकायिक जीवोंके शेष भेदोंमें भी स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीवोंका स्पर्शन दो प्रकारसे बतलाया है। प्रथम तो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण स्पर्शन बतलाया है। सो यह स्पर्शन बतलाते समय बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीव सब पृथिवियोंमें उपलब्ध होते हैं यह दृष्टि मुख्य नहीं है तथा दूसरी अपेक्षासे जो कुछ कम तेरह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन कहा है सो ऐसा कहते समय उन आचार्योका अभिप्राय मुख्य रहा है जो यह मानते हैं कि बादर अग्निकायिक पर्याप्त जीव सब पृथिवियोंमें उपलब्ध होते हैं । शेष कथन सुगम है ।
६१०८. योगकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले काययोगियोंने लोकके असंख्यातवें भागका, चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागका और सर्वलोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार औदारिककाययोगियोंमे जानना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि उनमें चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण स्पर्शन नहीं है । उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले औदारिकमिश्रकाययोगियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभिक्तिवालोंने सर्व लोकका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार कार्मणकाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी. मायावी, लोभी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, अचक्षुदर्शनवाले, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी, आहारक और अनाहारकोंमे जानना चाहिए । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले वैक्रियिककाययोगियोंने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडें
[ अणुभागविहत्ती ४
असंखे०भागो अह-तेरहचोद्दस ० देणा । वेडव्वियमिस्स ० उक्कस्साणुक्कस्साणु० के० खे० पो० लोग० असंखे ० भागो । एवमाहार० - आहारमिस्स ० - अवगद ० - अकसा०मणपज्ज०-संजद ०-सामाइय-छेदो ० - परिहार - सुहुमसांपराय ० - जहाक्खाद ० संजदे त्ति |
n
. ७०
१०६. विहंगणाणि० उकस्साणुकस्साणुभाग ० के ० खे० पो०१ लोग० असंखे ० भागो अट्ठचोदस० सव्वलोगो वा । आभिणि० सुद० - ओहि० उक्क० अणुक्क० के० खे०
कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके श्रसंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम तेरह और कुछ कम आठ भागका स्पर्शन किया है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले वैक्रियिकमिश्रकाय योगियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार आहारककाययोगी, आहारक मिश्रकाय योगी, अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थानासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए ।
1
I
विशेषार्थ - मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु है और ऐसे जीव एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होते हैं, अतः इस अपेक्षासे सब लोकप्रमाण स्पर्शन सम्भव है, इसलिए योगकी अपेक्षा सामान्य काययोगियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका उक्त प्रमाण स्पर्शन कहा है । इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है । औदारिककाययोगियों में इसी प्रकार स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए। मात्र कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन देवोंके विहारवत्स्वस्थान आदिकी मुख्यतासे कहा है पर देवोंके औदारिककाययोग नहीं होता, इसलिए औदारिककाययोगवालों में इस स्पर्शनका निषेध किया है । उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले औदारिक मिश्रकाययोगियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिये इनमें यह उक्त प्रमाण कहा है । तथा औदारिकमिश्रकाययोगका स्पर्शन सर्वलोक है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । कार्मरणकाययोगी आदि मूलमें गिनाई गई अन्य मार्गणावाले जीवों में औदारिकमिश्रकाययोगी जीवोंके समान ही स्पर्शन प्राप्त होता है, इसलिए इनमें दारिक मिश्रकाययोगी जीवोंके समान स्पर्शन कहा है। वैक्रियिककाययोगियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम तेरह बटे चौदह राजुप्रमाण है । इनके इन सब स्पर्शनोंके समय उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंका सब प्रकारका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालों का स्पर्शन उक्त प्रमारण कहा है। आगे मूलमें जो आहारककाययोगी आदि मार्गणाऐं गिनाई हैं उनका स्पर्शन भी लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, अतः उनका कथन वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों के समान जानने की सूचना की है ।
$ १०९. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले विभंगज्ञानियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका, चौदह भागोंमे से कुछ कम आठ भागका और सव लोकका स्पर्शन किया है । उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले श्रभिनिबोधिकज्ञानी,
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए पोसणं पो० ? लो० असंखे०भागो अहचोइस० देसूणा। एवमोहिदस०-सम्मादिहि-वेदय०खइय०-उवसम०-सम्मामिच्छादिहि ति ।
११०. संजदासंजद० उक्कस्साणुकस्साणु० के० खे० पो० ? लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा । एवं सुक्कले। तेउ०-पम्म० सोहम्म-सण्णकुमारभंगो। सासण. मोह० उक्कस्साणुक्कस्साणु० के० खे० पो० ? लोग० असंखे भागो अह-बारहचोदसभागा देसूणो ।
एवमुक्कस्सओ पोसणाणुगमो समत्तो। श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ भागका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनवाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-विभङ्गज्ञानियोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका, विहारवत्स्वस्थानकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुका और मारणान्तिक पदकी अपेक्षा सब लोकका स्पर्शन किया है। इनके इन सब स्पर्शनोंके समय दोनों विभक्तियाँ सम्भव हैं, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। आभिनिबोधिकज्ञानी आदि जीवोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भागका और विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुका स्पर्शन किया है। इनके इन दोनों प्रकारके स्पर्शनके समय उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सम्भव है, इसलिए इनमें दोनों विभक्तियोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यद्यपि इन मार्गणाओंमें उपपाद पदकी अपेक्षा कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन भी उपलब्ध होता है, पर इसका अन्तर्भाव कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शनमें हो जाता है, इसलिए इसका अलगसे निर्देश नहीं किया है। यहाँ मूलमें अवधिदर्शनवाले आदि जो अन्य मागणाऐं कहीं हैं उनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन आभिनिबोधिकज्ञानी जीवोंके समान प्राप्त होनेसे यह उनके समान कहा है।
६ ११०. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले संयतासंयतोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार शुक्ललेश्यावालोंमें जानना चाहिए। तेजोलेश्या और पद्मलेश्यावाले जीवोंके सौधर्म और सनत्कुमार कल्पके समान भंग होता है । मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले सासादनसम्यग्दृष्टियोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग और कुछ कम बारह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-संयतासंयतोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है। इनके इन दोनों प्रकारके स्पर्शनके समय दोनों विभक्तियाँ सम्भव है,इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। शुक्ललेश्यावालोंमे इसी प्रकार घाटित कर लेना चाहिए। पीतलेश्या सौधर्म और ऐशान कल्पवालोंके तथा पद्मलेश्या सनत्कुमार आदि कल्पवालोंके होती है, इसलिए इन दोनों लेश्यावालोंमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्रमसे सौधर्म और सनत्कुमारके देवोंके समान कहा है। सासादनसम्यग्दृष्टियों
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १११. जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो-ओघे० आदेसे०। ओघेण मोह. जहण्णाणुभाग० केव० खे० पो• ? लोग० असंखे०भागो। अज० सव्वलोगो। एवं कायजोगि०-ओरालिय०-णस० चत्तारिकसाय-अचक्खु०-भवसि०--आहारि त्ति ।
११२. आदेसेण णेरइएमु जह० खेत्तभंगो। अज० लोग० असंखे० भागो छच्चोदस० देसूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि जाव सतमि त्ति जह० खेत्तभंगो। अज. सगपोसणं । का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारवत्स्वस्थान आदिकी अपेक्षा कुछ कम आट बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम बारह बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। इनके इन सब स्पर्शनों के समय दोनों विभक्तियाँ सम्भव हैं, इसलिए इनमें दोनों विभक्तिवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ । ६१११. अब प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्वलोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार काययोगी, औदारिककाययोगी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, अचक्षुदर्शनी, भव्य और आहारकोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ ओघसे मोहनीयका जघन्य अनुभाग क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिकसंयत जीवोंके होता है, इसलिए इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और अजघन्य अनुभाग अन्य सब मोहकी सत्तावाले जीवोंके होता है, इसलिए इनका स्पर्शन सब लोक कहा है।
5 ११२. प्रादेशकी अपेक्षा नारकियोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका भङ्ग क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमे' से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है पहिली पृथ्वीमें क्षेत्रके समान भङ्ग है। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए।
विशेषार्थ जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीव नरकमें उत्पन्न होते हैं इनके मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है। यत: ऐसे जीव प्रथम नरकमें ही उत्पन्न होते हैं,अतः सामान्यसे नारकियोंमें मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा सामान्यसे नारकियोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन कुछ कम छह बटे चौदह राजुप्रमाण है, अतः इनमें अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। प्रथम नरकमें दोनों प्रकारके अनुभागवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। दूसरे आदि नरकोंमें जो जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करते हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है। यत: ऐसे जीवोंका मारणान्तिक पदकी अपेक्षा भी स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता, अत: द्वितीयादि नरकोंमें जघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है और जिस नरकका जो स्पर्शन है वह वहाँ अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है।
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीय पोस
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$ ११३. तिरिक्खेषु जह० अज० सव्वलोगो । एवमेइंदिय- बादरेइं दिय- बादरेइं दियपज्जतापज्जत - मुहुमेइं दिय- सुहुमेइ दियपज्जत्तापज्जत पुढवि० - बादरपुढवि०-- बादरपुढविअपज्ज० -- सुहुम पुढवि०-- सुहुमपुढविपज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज०-- सुहुम आउ० · सुहुम आ उपज्जत्तापज्जत्त - तेज ०-- वादरतेड - बादरतेउअपज्ज ०. सुहुमते उ० -- मुहुमते उपज्जता पज्जत - वाउ०- बादरवाड० - बादरवाउअपज्ज० -- सुहुमवाउ०मुहुमवा उपज्जतापज्जत्त-- सव्ववणफदि -- सव्वणिगोद ० --ओरालियमिस्स ०- कम्मइय ०मदिअण्णा०-- सुद अण्णा०-- असंजद० -- किण्ह - णील - काउ० - अभवसि ०--मिच्छादिहिसण- अणाहारिति ।
0-
३ ११४. सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मणुस अपज्ज० ज० अज० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । एवं सव्वविगलिंदिय-पंचिदिय अपज्ज० -- बादर पुढविपज्ज० -- बादरआउपज्ज० - बादर ते उपज्ज० - बादरवणफदिपत्तेयसरीरपज्ज० तस अपज्जत्ताणं ।
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$ ११३. तिर्योंमे जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सब लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय पर्याप्त, बादर एकेन्द्रिय अपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवी कायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक, सूक्ष्म पृथिवीकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक अपर्याप्त, जलकायिक, बादर जलकायिक, बादर जलकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक, सूक्ष्म जलकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म जलकायिक अपर्याप्त, तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्त, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकायिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त, सब वनस्पतिकायिक, सब निगोदिया, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, असंयत, कृष्ण लेश्यावाले, नील लेश्यावाले, कापोत लेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। विशेषार्थ-तियंवों में जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव हतसमुत्पत्तिककर्मवाले होते हैं उनके मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है और ये जिनमें इस अनुभागके साथ उत्पन्न होते हैं उनमें भी जघन्य अनुभाग होता है । यतः ऐसे जीवो का स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण सम्भव है, अत: तिर्यों में जघन्य अनुभागवालों का सर्व लोकप्रमाण स्पर्शन कहा है । तथा तिर्यञ्च सर्व लोकमें पाये जाते हैं, अत: इनमें अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन भी सब लोकप्रमाण कहा है। यहाँ तिर्यों के समान अन्य जिन मार्गणाओं में मोहनीयके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंके स्पर्शनके जानने की सूचना की है वहाँ इसी प्रकार घटित कर लेना चाहिए ।
$ ११४. जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले सब पञ्च ेन्द्रियतिर्यश्व और मनुष्य अपर्याप्तकोंने लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब विकलेन्द्रिय, पजेन्द्रिय अपर्याप्त, बादर पृथ्वीकायिक पर्याप्त, बादर जलकायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों के जानना चाहिए ।
विशेषार्थ - जो हतसमुत्पत्तिकर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में और मनुष्य अपर्याप्तको में उत्पन्न होते हैं और यदि उन्होंने अनुभागको नहीं बढ़ाया है तो उनके जघन्य अनुभाग होता है। ऐसे जीवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ११५. मणुसतियम्मि ज० खेत्तभंगो। अज० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । एवं पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज०-तस-तसपज्ज०-पंचमण०-पंचवचि०-इत्थि०-पुरिस०चक्खु०-सण्णि त्ति । णवरि विहारेण अहचोदसभागा वत्तव्वा । ।
११६. देवेसु ज० खेत्तं । अज. लोग० असंखे०भागो अह--णवचोदसभागा देसूणा । एवं भवण०-वाण०। णवरि अज० सगपोसणं । जोदिसि० ज० खेतं अधुढअडचोदसभागा देसूणा । अज) खेत्तं अधु-अह-णवचोदसभागा देसूणा । सोहम्मीसाणे मोह० ज० लोग० असंखे०भागो अहचोइस० देसूणा । अज० लोग० असंखे०अतीत स्पर्शन सब लोकप्रमाण सम्भव है, अत: इनमें जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है । तथा इन मार्गणाओ का स्पर्शन भी इतना ही है, अत: इनमें अजघन्य अनुभागवालो का भी स्पर्शन उक्त प्रमाण कहा है। यहाँ सब विकलेन्द्रिय आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह दोनों प्रकारका स्पर्शन बन जाता है, अत: इनका कथन पूर्वोक्त प्रकारसे जाननेकी सूचना की है।
११५. जघन्य अनुभागविभक्तिवाले सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमे क्षेत्रके समान भंग है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय,पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त,त्रस,त्रस पर्याप्त,पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी,स्त्रीवेदी पुरुषवेदी,चक्षुदर्शनी और संज्ञी जीवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमे विहारकी अपेक्षा चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भाग स्पर्शन कहना चाहिये।
विशेषार्थ-मनुष्यत्रिकमें क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवों के ही जघन्य अनुभाग होता है। यतः इनका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रगाण है, अत: मनुष्यत्रिकमें जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। तथा मनुष्यत्रिकका वर्तमान स्पशेन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और अतीत स्पर्शन सर्व लोकप्रमाण है, इसलिए इनमें अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ पञ्चेन्द्रिय आदि जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें मनुष्यत्रि कके समान स्पर्शन घटित हो जाता है, अत: उनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन मनुष्यत्रि कके समान कहा है। मात्र पञ्चन्द्रिय आदि मार्गणाओंमें विहारपदकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन भी सम्भव है, इसलिए इन मार्गणाओं में अजघन्य अनुभागवाले जीवोंका स्पर्शन कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण भी जानना चाहिए।
११६. देवोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमे से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंमे जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंमे अपना अपना स्पर्शन लेना चाहिए। ज्योतिषी देवोंमे जघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है तथा इन्होंने चौदह राजुमे से कुछ कम साढेतीन और कुछ कम आठ राजुप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभाग विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है तथा इन्होंने चौदह भागोंमें से कुछ कम साढ़ेतीन, कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सौधर्म और ईशानमें मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए पोसणं भागो अह-णवचोदसभागा देमूणा । सणक्कुमारादि जाव आरणच्चुदे ति उक्कस्सभंगो। उवरि खेत्तभंगो।
११७. कायाणुवादेण बादरवाउकाइयपज्जत्तएसु मोह० जहण्णाजहण्णाणु० लोग० संखे०भागो सव्वलोगो वा। प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सनत्कुमारसे लेकर आरण-अच्युत तकके देवोंमें उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवालोंके समान स्पर्शन है। आगेके देवोंमे क्षेत्रके समान स्पर्शन है।
विशेषार्थ-सामान्यसे देवोंमे जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीव मरकर उत्पन्न होते हैं उनके जघन्य अनुभाग उपलब्ध होता है। अत: ऐसे जीवोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान लोकके असंख्यातवें भागसे अधिक उपलब्ध नहीं होता, अत: यह क्षेत्र के समान कहा है। तथा देवोंका वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण बतलाया है। यत: इस सब प्रकारके स्पर्शनके समय मोहनीयकी अजघन्य अनुभागविभक्ति सम्भव है, अत: इनमे अजघन्य अनुभागवालोंका स्पर्शन उक्तप्रमाण कहा है। भवनवासी और व्यन्तर देवोंमे यह स्पर्शन इसी प्रकार प्राप्त होता है, अत: इनका भङ्ग सामान्य देवोंके समान कहा है। यहाँ इतनी विशेषता अवश्य है कि इन दोनों प्रकारके देवोंमे वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें. भागप्रमाण, स्वप्रत्यय विहारकी अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजु, परप्रत्यय विहार तथा वेदना, कषाय और वैक्रियिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु
और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन जानना चाहिए । ज्योतिषी देवों में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालो के मोहनीयका जघन्य अनुभाग होता है । यतः ऐसे देवों का वर्तमान स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, स्वप्रत्यय विहारकी अपेक्षा कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह राजु और परप्रत्ययविहार आदिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन सम्भव है, अतः इनमे जघन्य अनुभागवालो का उक्तप्रमाण स्पर्शन कहा है। तथा अजघन्य अनुभागवालो का यह स्पर्शन तो होता ही है। साथ ही इनके मारणान्तिक समुद्घातके समय कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन भी सम्भव है, अत: इनका स्पर्शन इसको मिलाकर कहा है । सौधर्म और ऐशान कल्पमे वर्तमानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, विहारादिकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा कुछ कम नौ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन होता है। इनमेंसे जघन्य अनुभागविभक्ति के समय कुछ कम नौ बटे चौदह राजप्रमाण स्पर्शन सम्भव नहीं है, क्योंकि जो देव एकेन्द्रियोंमें मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं हो सकती, अतः इस अन्तरको ध्यानमें रखकर यहाँ दोनो अनुभागवालो का स्पर्शन कहा है।
आगे भी इसी प्रकार स्वामित्वको ध्यानमें रखकर जघन्य और अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
$ ११७. कायकी अपेक्षा बादर वायुकायिकपर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका संख्यातवां भाग और सर्वलोक है।
विशेषार्थ-बादर वायुकायिक पर्याप्त जीवो ने लोकके संख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और सब लोकका स्पर्शन किया है, इसलिए इनमें दोनों प्रकारके अनुभागवालो का स्पर्शन उक्तप्रमाण बन जाता है, अतः वह उक्तप्रमाण कहा है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [ अणुभागविहत्ती ४ ११८. वेउव्विय० जह. सोहम्मभंगो। अज. अणुक्कस्सभंगो० । वेउव्वियमिस्स०-आहार०--आहारमिस्स० जहण्णाजह० खेत्तभंगो । एवमवगद०--अकसा०मणपज्ज०-संजद०-सामाइय-छेदो०-परिहार०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद०संजदे ति ।
११६. णाणाणु० विहंग० मोह० ज० लो० असंखे० भागो अहचोइसभागा वा देसूणा । अज० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० सव्वलोगो वा । आभिणि०सुद०-अोहि० मोह० ज० लोग० असंखे०भागो। अज. लोग. असंखे० भागो अहचोदस० देसूणा । एवमोहिदंस०-सुकले० सम्मादि०-खइय०-वेदग०-उवसम०-सम्मामिच्छादिहि ति । णवरि सुक्कलेस्साए छचोदसभागा ।
६११८. वैक्रियिककाययोगियोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन सौधर्मस्वर्गके समान है तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन अनुत्कृष्टविभक्तिके समान है। वैक्रियिक मिश्रकाययोगी, आहारकाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगियों में जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतों में जानना चाहिए।
विशेषार्थ-सौधर्मादिक कल्पो में जघन्य अनुभागका जो जीव स्वामी होता है वही वैक्रियिककाययोगमे भी उसका स्वामी होता है, अतः वैक्रियिककाययोगवालो में जघन्य अनुभागवालो का स्पशन सौधर्म कल्पके समान कहा है। वैक्रियिककाययोगियों मे अजघन्य अनभागवालों का स्पर्शन अनुत्कृष्टके समान है यह स्पष्ट ही है। वैक्रायकमिश्रकाययोगी आदि जीवो का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है। इनका स्पर्शन भी इतना ही है. अतः इनमे दोनो अनुभागवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान कहा है। मूलमे कही गई अपगतवदी आदि अन्य मार्गणाओ में भी यही स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
६ ११९. ज्ञानकी अपेक्षा विभंगज्ञानियों में मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागो मे से कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागा, चौदह भागो मेंसे कुछ कम आठ भागका और सर्व लोकका स्पर्शन किया है। श्राभिनिबोधिकज्ञानी, श्र तज्ञानी और अवधिज्ञानियो मे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघ य अनुभागविभक्तिवालो ने लोक असंख्यातवें भाग
और चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, उपशमसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्याष्टिया में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि शुक्ललेश्यामें चौदह भागोंमे से कुछ कम छह भागप्रमाण स्पर्शन होता है।
विशेषार्य-जो विभङ्गज्ञानी एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं उनके जघन्य अनुभाग सम्भव नहीं है, अत: इनमे जघन्य अनुभागवाले जीवों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण कहा है। तथा अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और सब लोकप्रमाण कहा है । आभिनिबोधिकज्ञानी आदिमे क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके जघन्य अनुभाग होता
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गा० २२ ]
अणुभागवित्तीए कालो
१२०, संजदासंजद० ज० लोग० असंखे ० भागो । अजह० लोग० असंखे० भागो चोदस० देसूणा । तेउ ०- पम्म० सोहम्म० - सहस्सोरभंगो । सासण० जह० खेत्तं । अजह० अणुक्कस्सभंगो |
एवं पोसणाणुगमो समत्तो ।
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१२१. कोलाणुगमो दुवि हो - जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयदं । दुत्रिहो णिद्द सो – ओघे० आदेसे ० । तत्थ ओघेण मोह० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो ० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा ।
७७
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है, इसलिये इनमें जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है तथा आभिनिबोधिकज्ञानी आदिका जो स्पर्शन है वही यहाँ अजघन्य अनुभाग वालो का प्राप्त होनेसे वह उक्तप्रमाण कहा है। यहाँ अवधिदर्शनी आदि अन्य जो मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह स्पर्शन बन जाता है, अत: उनका भङ्ग अभिनिबोधिकज्ञानी आदिके समान कहा है । मात्र शुक्ललेश्यामे कुछ कम आठ बटे चौदह राजुप्रमाण स्पर्शन नहीं प्राप्त होता, अतः उसका निर्देश विशेष रूपसे किया है ।
$ १२०. संयतासंयतो मे' जघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य विभक्तिवालों ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मे से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। तेजोलेश्यामे' सौधर्म स्वर्गके समान और पद्मलेश्या सहस्रार के समान भङ्ग है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिवालों का स्पर्शन अनुसृष्ट विभक्तिवालोंके समान है ।
विशेषार्थ - संयतासंयतो 'मे' जो दो बार उपशमश्रेण पर चढ़कर और उत्तर कर संयतासंयत हुए हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए इनके जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन लोके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा संयतासंयतो का जो स्पर्शन है वह यहाँ जघन्य अनुभावालो का बन जाता है, अतः वह उक्तप्रमाण कहा है। पीत और पद्मलेश्या में सौधर्म और सहस्रार कल्पके समान स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है । सासादनसम्यग्दृष्टियों में दो बार उपशम श्रेणि पर चढ़कर उतरे हुए जीवके जघन्य अनुभाग होता है, अतः यह क्षेत्रके समान कहा है और अनुत्कृष्टके समान इनके जघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन बन जाता है अतः वह अनुत्कृष्ट के समान कहा है।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ ।
६ १२१. कालानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । यहाँ उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ निर्देश और आदेशनिर्देश । उनमें से ओघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके असंख्यातवें भाग है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का काल सर्वदा है ।
विशेषार्थ- पहले मोहनीयकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाये हैं । यह सम्भव है कि कभी कुछ ही जीव एक साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हो और कभी मध्य में अन्तर पड़े बिना अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभाग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १२२. आदेसेण णेरइएमु उक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अणुक्क० सव्वद्धा। एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-देव-भवणादि जावे सहस्सारे ति सव्व एइंदिय-सव्व विगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज--पंचकाय०-तसअपज्ज०पंचमण-पंचवचि०--कायजोगि--ओरालि०-ओरालियमिस्स०-वेउन्विय०--तिण्णिवेदचत्तारिकसाय-तिण्णिअण्णाण-असंजद-पंचले -सण्णि-असएिण-आहारि ति । णवरि मदि-सुदअण्णाणि-असंजद, उक्क० जह• अंतोमु० । विभक्तिवाले हों। यह देख कर यहाँ नाना जीवो की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालों का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है, क्योंकि एकके बाद दारा इस प्रकार निरन्तर उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात जीव भी होगे तो उन सबके कालका योग पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही होगा। मोहनीयकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो का काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है।
१२२. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंञ्च, मनुष्य, सामान्य देव, भवनवासियोंसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देव, सब एकन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय अपर्याप्त, पाँचों स्थावरकाय, त्रस अपर्याप्त, पांचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी औदारिककाययोगी औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी,लोभी, तीनों अज्ञानी, असंयत, शुक्लके सिवा शेष पाँचो' लेश्यावाले, संज्ञी, असंज्ञी और आहारकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और असंयतोमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले अन्य गतिके जीवो के उत्कृष्ट अनुभागके कालमे एक समय शेष रहने पर नारकियों में उत्पन्न होने पर नरकमे नाना जीवों की अपेक्षा भी मोहनीयकै उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय देखा जाता है, इसलिए यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालो का जघन्य काल एक समय कहा है। तथा यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालो का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ओघके अनुसार घटित कर लेना चाहिए, क्योकि जितनी भी असंख्यात और अनन्त संख्यावाली मार्गणाएं हैं उनमें उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण बन जाता है। क रण कि ऐसी सब मार्गणाओं में लगातार उत्कृष्ट अनुभागवाले असंख्यात जीव ही होते हैं और असंख्यात अन्तर्मुहूर्तों का योग पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक नहीं होता। इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए उनका काल सर्वदा कहा है। यहाँ मूलमें सब नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिए उनके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का काल सामान्य नारकियो के समान जाननेकी सूचना की है। मात्र उत्कृष्ट अनुभाग मिथ्यादृष्टिके होता है और इसका एक जीवकी अपेक्षा भी जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है, अत: यहाँ मत्यज्ञानी, श्रताज्ञानी और असंयतो मे नाना जीवों की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागवालो का जघन्य काल अन्तमुहूर्त कहा है, क्योकि मिथ्याष्टिके जिस प्रकार अन्य मार्गणाऐं बदल सकती हैं उस प्रकार ये मागणाएं नहीं बदलतीं।
१. श्रा० प्रतौ देव जाव इति पाठः।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो ६.१२३. मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु उक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक्क० सव्वद्धा । मणुसअपज. उक्क० अणुक्क० ज० एयस० अंतोमुहुत्, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं वेउव्वियमिस्स० ।
__१२४. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति उक्कस्साणुकस्स० सव्वद्धा। एकमाभिणि०--सुद०--ओहि०-मणपज्ज०--संजद--सामाइय-छेदो०-परिहार-संजदासंजदओहिदं०-मुक्कले०-सम्मादि०-वेदग०-खइय०दिहि त्ति । णवरि--आभिणि-सुद०-ओहि०ओहिदंस०--सुक्कले०-सम्मादिहि-वेदयसम्मादिट्टीसु उक्क० जह० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असं०भागो।
१२३. मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। मनुष्य अपर्याप्तकों में उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगियों में जानना चाहिए।
विशेषार्थ-मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियो मे जघन्य काल एक समय नारकियो के समान घटित कर लेना चाहिए। तथा इन दोनों मार्गणावालो का प्रमाण संख्यात होता है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभागवालों का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है, क्योकि यहाँ संख्यात अन्तर्मुहूर्ताका योग अन्तर्मुहूर्त ही होगा। यह दोनो निरन्तर मार्गणाएं हैं, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का काल सर्वदा कहा है। यह तो सम्भव है कि जिनके उत्कृष्टमें एक समय काल शेष है ऐसे जीव मनुष्य अपर्याप्तको में उत्पन्न हो पर उत्कृष्ट अनुभागका घात होने पर मनुष्य अपर्याप्तको का जो काल शेष रहता है उस कालमें उनके अनुत्कृष्ट अनुभाग नियमसे पाया जाता है, इसलिए मनुष्य अपर्याप्तको में उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। यहाँ इतना अवश्य समझना चाहिए कि मनुष्य अपरलप्त अन्तर्मुहूर्त काल तक रहें और बादमें उनका अभाव हो जाय इस अपेक्षा यह अन्तमहर्त काल कहा है। तथा नाना जीवो की अपेक्षा मनष्य अपर्याप्तको का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगी यह भी सान्तर मार्गणा है, इसलिए इसमे उक्त सब काल घटित हो जानेसे उसकी प्ररूपणा मनुष्य अपयोप्तकों के समान की है।
१२४. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त तकके देवों में उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वदा पाई जाती है। इसी प्रकार आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, अवधिदर्शनवाले शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियों में उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है।
विशेषार्थ-आनत आदिमे उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालो का निरन्तर सद्भाव बना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १२५. पंचिंदिय-पंचिंदियपज्जत्तएसु मोह० उक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे भागो । अणुक्क. सव्वद्धा । एव तस-तसपज्जत-चक्खुदंसणि ति ।
$ १२६. आहार० मोह० उक्कस्साणुक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवमवगद०-अकसा०--सुहुमसापराय०--जहाक्वादसंजद त्ति । आहारमिस्स० मोह. उक्कस्साणुक्कस्स० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अचक्खु० मोह० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं भवसि०-अभवसि०-मिच्छादिहि ति। रहता है, क्योकि यहाँ यह सम्भव है कि किसी उत्कृष्ट अनुभागका घात न हो और यहाँ अनुत्कृष्ट अनुभागमे वृद्धि भी सम्भव नहीं है, अतः यहाँ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनभागवालो का काल सर्वदा कहा है। यहाँ आभिनिबोधिकज्ञानी आदि अन्य जो मार्गणाऐं बतलाई हैं उनमें इसी प्रकार काल घटित कर लेना चाहिए। मात्र आभिनिबोधिकज्ञानी आदि कुछ मार्गणाऐं इसकी अपवाद हैं। बात यह है कि इन मार्गणाओ मे यथासम्भव उत्कृष्ट अनुभागवाले मिथ्यादृष्टि भी आते हैं, अतः इनमे उत्कृष्ट अनुभागवालों का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। यदि जिनके उत्कृष्ट अनुभागमे एक समय काल शेष है ऐसे मिथ्यादृष्टि इन मार्गणाा में आते हैं और दूसरे समयमे उत्कृष्ट अनुभागवाले मिथ्यादृष्टि नहीं आते हैं तो इन आभिनिबोधिकज्ञानी आदिमे उत्कृष्ट अनुभागवालों का एक समय काल उपलब्ध होता है, और जिनके उत्कृष्ट अनुभागका काल अन्तर्मुहूर्त है ऐसे जीव निरन्तर आते रहते हैं तो यहाँ उत्कृट अनुभागवालो का उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। यह देखकर श्राभिनिबोधिकज्ञानी आदि सात मार्गणाओं में उत्कृष्ट अनुभागवालो का जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है।
६ १२५. पञ्चद्रिय और पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्या असंख्यातवें भाग है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त और चक्षुदर्शनवालेके जानना चाहिए।
विशेषार्थ-यद्यपि पञ्चन्द्रिय जीव ही मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करते हैं, परन्तु कदाचित् ऐसा सम्भव है कि कोई पञ्चेन्द्रिय जीव मोहनीयका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध न करें और जिनके मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागके कालमें एक समय शेष हो ऐसे जीव ही शेष रहें, अत: यहाँ पञ्चेन्द्रियद्विकमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय कहा है। तथा इनमें उत्कृष्ट अनुभागवालोंका उत्कृष्ट काल पल्य असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार त्रस, त्रसपर्याप्त और चक्षुदर्शनी जीवोंमें उक्त काल घटित कर लेना चाहिए । इन सब मार्गणाओं में अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका काल सर्वदा है। यह स्पष्ट ही है।
६ १२६. आहारककाययागियों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतामें जानना चाहिए । आहारकमिश्रकाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अनुत्कृष्ट का काल सर्वदा है। इसी प्रकार
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मा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए कालो १२७. उवसम० उक्कस्साणुक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं सम्मामिच्छादिहीणं । सासण. उक्कस्साणुक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणाहारीसु उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो । अणुक्क० सव्वद्धा । एवं कम्मइय० ।
एवमुक्कस्सओ कालाणुगमो समत्तो। 5 १२८. जहएणए पयदं। दुविहो णिसो–ोघे० आदेसे० । ओघे० मोह. भव्य, अभव्य और मिथ्यादृष्टियोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-आहारककाययोगका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होनेसे इस योगवाले जीवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अपगतवेदी आदि अन्य मार्गणाओंमें अपने अपने स्वामित्वको ध्यानमें रखकर इसी प्रकार उक्त काल घटित कर लेना चाहिए। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अतः इस योगवाले जीवोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त कहा है। अचक्षुदर्शनवालोंमें मोहनीयके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहनेका कारण यह है कि यह मार्गणा बराबर बनी रहती है, अन्य मार्गणाओंके समान यह बदलती नहीं। शेष कथन सुगम है।
१२७. उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियों में जानना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। अनाहारियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल श्रावलीका असंख्यातवाँ भाग है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति सर्वदा रहती है। इसी प्रकार कार्मणकाय योगमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा उपशमसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें भी घटित कर लेना चाहिए। नाना जीवोंकी अपेक्षा सासादनसम्यक्त्वका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए इसमें उत्कृष्ट और अनुष्ट अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। अनाहारक और कार्मणकाययोगियोंमें उर ष्ट अनुभागवाले कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक होते हैं, कारण कि निरन्तर यदि असंख्यात अनाहारक जीव भी उत्कृष्ट अनभागवाले हों तो उस सब कालका योग श्रावलिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट अनुभाग वालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। तथा अनाहारक सर्वदा पाये जाते हैं, अत: इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका काल सर्वदा कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट कालानुगम समाप्त हुआ। ६ १२८. अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघसे और आदेशसे।
नकहा
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ती
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे जहरणाणभाग० ज० एगस०, उक्क. संखेजा समया। अज० सव्वद्धा । एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज-तस--तसपज्ज०-पंचमण०--पंचवचि०--कायजोगि०
ओरालिय०--तिषिणवेद-चत्तारिकसाय--आभिणि०--सुद०--ओहि०-मणपज्ज-संजद०सामाइय-छेदो०-चक्खु०-अचक्खु०-ओहिदंस-मुक्कले०--भवसि०-सम्मादिहि-खइय०वेदग०-सरिण-आहारि ति । णवरि वेदग० जह० जहण्णेण अंतोमु०।।
६ १२६. आदेसेण णेरइएसु ज. ज. एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० सव्वद्धा । एवं पढमपुढवि--सव्वपंचिंदियतिरिक्ख०-देव०-भवण०-वाणसव्वविगलिंदिय-पंचिंदियअपज्ज०--बादरपुढविपज्जत्त--बादरआउपज्ज०-बादरतेउपज्ज०बादरवाउपज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्जत्त-तसअपज्जत्ता ति । विदियादि जाव सत्तमि ति जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा। एवं तिरिक्खोघं जोइसियादि जाव सव्वहसिदि०--सव्वएइंदिय--सव्वपंचकाय--ओरालियमिस्स०--कम्मइय०--वेउव्विय०--मदिओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी, पञ्चन्द्रिय, पञ्चन्द्रिय पर्याप्त, त्रस, त्रसपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनवाले, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यग्दृष्टि, संज्ञी और आहारकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे अन्तर्मुहुर्त है।
विशेषार्थ यह सम्भव है कि क्षपकश्रेणि पर नाना जीव एक साथ चढ़े और दूसरे समय में अन्तर पड़ जाय और यह भी सम्भव है कि संख्यात समय तक निरन्तर जीव क्षपकश्रेणि पर आरोहण करें। यह सब देखकर यहाँ ओघसे जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा है। तथा अजघन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है, क्योंकि मोहनीयकी सत्तावाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं। मनुष्यत्रिक आदिमें यह व्यवस्था बन जाती है इसलिए उनमें ओघके समान काल कहा है। मात्र वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें दो बार उपशमश्रेणिसे उतरे हुए कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जघन्य अनुभाग होता है, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है।
१२६. आदेशसे नारकियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सब पञ्चद्रियतिर्यञ्च, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सब विकलन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय अपयोप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अप्कायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बादर वायुकायिक पर्याप्त, बादरवनस्पति प्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रसअपर्याप्तोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथ्वी पर्यत जघ य और अजघ य अनभागविभक्तिका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोमें तथा ज्योतिषीदेवोंसे लेकर साथसिद्धितकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब पाँचोंस्थावरकाय, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी
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गा. २२ ] .
अणुभागविहत्तीए कालो अण्णाणि-सुदअण्णाणि-विहंगणाणि-परिहार०-संजदासंजद-असंजद-पंचले०-अभवसि०मिच्छादिहि-असण्णि-अणाहारि ति ।
१३०. मणुसअपज. जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगस० अंतोमुहु, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं वेउव्वियमिस्स० । आहार. मोह० जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । आहारमिस्स० जहएणाजहएणाण. जह०.अंतोमु०, उक्क० अंतोमु० । अवगद० जहण्णाणुभाग० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अजह० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवमकसा०-सुहुमसांपराय०-जहाक्खाद० । णवरि अकसा०--जहाक्खाद० जह० उक्क० अंतोमु । उवसमसम्मादिहि-सासण. जहण्णाणु० ज० अंतोमु० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अजह० जह० अंतोमु० एगस०,
वैक्रियिककाययोगी, मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, शुकुके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, असंज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए।
विशेषार्थ-जो हतसमुत्पत्तिककर्मवाले असंज्ञी मर कर नरकमें उत्पन्न होते हैं उनके जघन्य अनुभाग होता है। यह सम्भव है कि इस अनुभागका सद्भाव एक समय तक ही हो और निरन्तर ऐसे जीव उत्पन्न हों और अन्तमुहूर्त तक वही अनुभाग रखें तो वहाँ जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है, इसलिए नरकमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है । यहाँ अजघन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा है यह स्पष्ट ही है। प्रथम पृथिवीके नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणारे मूल में गिनाई हैं उनमें यह काल अविकल बन जाता है, इसलिए उनको प्ररूपणा सामान्य नारकियां के समान जानने की सूचना की है। द्वितीयादि पृथिवियोंमें अनन्तानुबन्धो की जिन्होंने विसंयोजना करके जघन्य अनुभाग किया है ऐसे जीव और अजघन्य अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनमें जघन्य और अजवन्य अनुभागवालोंका काल सर्वदा कहा है। सामान्य तिर्यश्च आदिमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालों का यह काल इसी प्रकार प्राप्त होता है. अत: इनमें द्वितीयादि नरकों के समान जानने की सुचना की है।
१३०. मनुष्य अपर्यापोंमें जघन्य अनुभागविभक्ति का जघन्य काल एक समय और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य कान अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगीमें जानना चाहिए। आहारककाययोगियोंमें मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघ यसे एक समय है और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है। श्राहारकमिश्रकाययोगियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे भी अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहू है। अपगत वेदियोंमे जघन्य अनुभागविभक्तिका काल. जघन्यसे एक समय है और उत्कृष्टसे संख्यान समय है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे एक समय है और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अकषायी और यथाख्यातसंयतोंमें जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागविभक्तिका काल जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है और सासादनसम्यग्दृष्टयोंमें
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هم میر میر عی میعی عی
بینی به
عرعر عر شعر شیمی عربی کی شرعی مرمر مرمر کی هے جی بی بی بی بی حرم می
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० जहण्णाजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । णवरि जहण्णाणु० अंतोमुहुत्तं ।
एवं कालाणुगमो समत्तो । एक समय है। तथा दोनों में उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तथा अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें अन्तर्मुहूर्त है और सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें एक समय है। उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ-जिनके जघन्य अनुभागके कालमें एक समय शेष है ऐसे जीवोंके मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होने पर वहाँ जघन्य अनुभागका एक समय काल उपलब्ध होता है और मनुष्य अपर्याप्तमें जघन्य अनुभागके कालके सिवा शेष अन्तर्मुहूर्त काल अजघन्य अनुभागका जघन्य काल है। तथा मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त जीव यदि निरन्तर उत्पन्न हों तो पल्यका असंख्यातवाँ भाग काल उपलब्ध होता है, इतने काल तक इस मार्गणामें जघन्य और अजघन्य दोनों अनुभागविभक्तियाँ सम्भव हैं, इसलिए इनमें जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका क्रमशः जघन्य काल एक समय और अन्तर्मुहूर्त तथा दोनोंका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोग भी सान्तर मार्गणा है और इसमें काल सम्बन्धी प्ररूपणा मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान बन जाती है, अत: वैक्रियिकभिश्रकाययोगवालोंमें मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान जाननेकी सूचना की है। श्राहारककाययोगका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अत: आहारककाययोगवालोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभाग वालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। आहारकमिश्रकाययोगका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, अत: आहारकमिश्रकाययोगवालोंमे जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका दोनों प्रकारका काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अपगतवेदमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ओघके समान घटित कर लेना चाहिए। तथा अपगतयेदका मोहसत्त्वकी अपेक्षा जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, इसलिए अपगतवेदियोंमें मोहनीयके अजघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायिक संयत और यथाख्यातसंयतोंमें अपगतवेदियों के समान काल घटित कर लेना चाहिए। पर अकषायी और यथाख्यातसंयत मोहसत्त्वकी अपेक्षा उपशान्तकषायगुणस्थानवाले होते हैं, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागवालोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय न प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। उपशमसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त और सासादनका जघन्य काल एक समय है, अत: इनमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य काल क्रमसे अन्तर्मुहूर्त और एक समय कहा है। तथा स्वामित्वको देखते हुए इन दोनों मार्गणाओंमे जघन्य अनुभागवालोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, अतः वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा इन मार्गणाओंके जघन्य और उत्कृष्ट कालको ध्यानमे रख कर इनमे अजघन्य अनुभागवालोंका अघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। सम्यग्मिथ्यादृष्टिके जघन्य और उत्कृष्ट कालको व स्वामित्वसम्बन्धी विशेषताको ध्यानमें रखकर वहाँ भी जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल कहा है। मात्र इनमें भी जघन्य अनुभागवालोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं ___ १३१. अंतराणुगमो दुविहो-जहएणो उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-अोघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्कस्साणुभागंतरं केवचिरं कालादो होदि ? ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणुक० णत्थि अंतरं । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-देव-भवणादि जाव सहस्सार०-सव्वएइंदिय-सव्वविगलिंदिय--सव्वपंचिंदिय-सव्वछक्काय--पंचमण०--पंचवचि०-कायजोगि०-ओरालिय०
ओरालियमिस्स०-वेउव्विय०-वेउव्विय मिस्स-कम्मइय-तिएिणवेद-चत्तारिकसाय-तिरिणअण्णाण--असंजद०--चक्खु०--अचक्खु०--पंचले०--भवसि०--अभवसि०-मिच्छादिहि-- सरिण-असएिण-आहारि-अणाहारि त्ति । णवरि मणुसअपज्ज०-वेउव्वियमिस्स० अणुक० जह० एगस, उक० पलिदो० असंखे०भागो बारस मुहुत्ता।
१३२. आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति उक्कस्साणुकस्स० णत्थि अंतरं । उपशमसम्यग्दृष्टियोंके समान घटित कर लेना चाहिए ।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। $ १३१. अन्तरानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकर्मके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, देव, भवनवासीसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देव, सब एकेन्द्रिय, सब विकलेन्द्रिय, सब पञ्चेन्द्रिय, सब छहों काय, पाँचों मनोयागी, पाँचों वचनयोगी, सामान्य काययोगी, औदारिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, कार्मणकाययोगी, स्त्रीवेदी, पुरुषवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, तीनों अज्ञानी, असंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, शुक्लके सिवा शेष पाँचों लेश्यावाले, भव्य, अभव्य, मिथ्यादृष्टि, संज्ञी, असंज्ञी, आहारक और अनाहारकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्य अपर्याप्तकों और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है तथा उत्कृष्ट अन्तर मनुष्य अपर्याप्तकोंमे पल्यके असंख्यातवें भाग और वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमे बारह
विशेषार्थ-आंघसे एक समयके अन्तरसे और परिणामोंके अनुसार असंख्यात लोकप्रमाण काल के अन्तरसे उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ता सम्भव है, अत: यहाँ उत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। तथा अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सर्वदा पाये जाते हैं, अतः उनके अन्तर कालका निषेध किया है। यहाँ मलमें अन्य जितनी मार्गणाएं गिनाई हैं उनमें यह ओघप्ररूपणा अविकल घटित हो जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा है। मात्र मनुष्यअपर्याप्त और वैक्रियिकमिश्रकाययोगका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर क्रमश: पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण और बारह मुहूर्त है, अतः इनमें अनु कृष्ट अनुभागवालोंका जघग्य और उत्कृष्ट अन्तर अपने अपने जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालके समान कहा है। .............
६ १३२. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ एवं मणपज्ज०-संजद--सामाइय-छेदो०--परिहार०--संजदासंजद-खइयसम्मादिहि त्ति । आहार० उक्कस्साणु० जह० एगसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । एवमणुकस्सं पि वत्तव्वं । एवमाहारमिस्स०-अवगद०--अकसा०- सुहुमसांपराय०- जहाक्खादसंजदे ति । णवरि अवगदवेद-मुहुमसांपराय० अणुक्क० उक्कं० छम्मासा।
१३३. आभिणि-सुद-ओहि उक्कस्साणु० जह० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवमोहिदंस-मुक्कलेस्सि०-सम्मादिहि-वेदग०दिहि ति। उवसमसम्मा० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० सत्तरादिदियाणि । सासण. उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अधवा उहयत्य उक्कस्संतरमसंखेज्जा लोगा त्ति ण सम्ममवगम्मदे, तदो जाणिय वत्तव्वं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। सम्मामि० का अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत और क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिए। आहारककाययोगमे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका भी अन्तर कहना चाहिए। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी, अपगतवेदी, अकषायी, सूक्ष्मसाम्परायसंयत, और यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयतोंमें अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल छ माह है।
विशेषार्थ-अानतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सर्वदा उपलब्ध होते हैं, अत: यहाँ दोनों प्रकारके अनुभागवालोंके अन्तरकालका निषेध किया है। इसी प्रकार मनःपर्ययज्ञानी आदि मार्गणाओंमें जानना चाहिए। आहारककाययोगका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी आदि मार्गणाओंमें घटित कर लेना चाहिए। मात्र क्षपकश्रेणिकी अपेक्षा अपगतवेदी और सूक्ष्मसाम्परायसंयत जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए इनमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। - १३३. आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, सम्यग्दृष्टि और वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें जानना चाहिए। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात. लोक है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। सासादनसम्य' ग्दृष्टियों में उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अ.तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। अथवा उपशमसम्यग्दृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टिमें उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है यह बात भली प्रकार अवगत नहीं है, इसलिये उनका यह अन्तर जानकर कहना चाहिए। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें
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بی تو عین تنهایی هم برای حسین عینی ای او بی بر سر می
حججی در بر می گرمی می می میوه ای جی تی مجری بی بی سی ایم جی
गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं उक्क० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो ।
एवमुक्कस्सओ अंतराणुगमो समत्तो। $ १३४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघे० आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह. जहण्णाणुभागस्स अंतरं केवचिरं कालादो होदि। जह० एगस०, उक्क० छम्मासा | अज० णत्थि अंतरं। एवं मणुसतिय-पंचिंदिय-पंचिं०पज्ज.-तस-तसपज्ज.. पंचमण०-पंचवचि०-कायजोगि--ओरालिय०-लोभकसा०-आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज०--संजद०--सामाइय--छेदो०--चक्खु०--अचक्खु०-ओहिदंस०--सुक्कले०--भवसि०सम्मादि०-खइय०-सण्णि-आहारि ति । णवरि मणुस्सिणि०-ओहि०-मणपज्जव०-ओहिदंसणीसु जहण्णाणु० उक्कस्संतरं वासपुधत्तं । भाग है। सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग है ।
विशेषार्थ आभिनिबोधिकज्ञानी आदि मार्गणाओंमें अन्तर कालका खुलासा ओघके समान कर लेना चाहिए। आगेकी शेष मार्गणाओंमें भी इसी प्रकार अन्तर काल घटित कर लेना चाहिए। मात्र इन सब उपशमसम्यग्दृष्टि आदि मार्गणाओंमें अनुत्कृष्ट अनुभागवालोंका जो जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहा है वह उस उस मार्गणाके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालको ध्यानमें रखकर कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६ १३४. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छ मास है। अजघन्य अनुभागविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी, पञ्चन्द्रिय, पञ्चेन्द्रियपर्याप्त, त्रस, सपर्याप्त, पाँचों मनोयोगी, पाँचों वचनयोगी, काययोगी,औदारिककाययोगी, लोभी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनी, अचक्षुदर्शनी, अवधिदर्शनी, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिकसम्यग्दृष्टि, सज्ञी और आहारक जीवोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि मनुष्यनी, अवधिज्ञानी, मन:पर्ययज्ञानी और अवधिदर्शनी जीवोंमे जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है।
विशेषार्थ-क्षपक सूक्ष्मसाम्परायका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए ओघसे मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। ओघसे अजघन्य अनुभागवालोंका अन्तर काल नहीं है यह स्पष्ट ही है। यहाँ मनुष्यत्रिक आदि जितनी मार्गणाओंका निर्देश किया है उन सबमें क्षपकश्रेणि सम्भव है, इसलिए इनकी प्ररूपणा ओघके समान जाननेकी सूचना की है। परन्तु मनुध्यिनी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी और अवधिदर्शनी ये चार मार्गणाएं ऐसी हैं जिनमें
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
३ १३५. आदेसेण णेरइएस मोह० जहण्णाणुभागंतरं जहरण एगसमत्रो, उक्क • असंखेज्जा लोगा । अज० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि - सव्वपंचिंदियतिरिक्खदेव-भवण० वाण० - सव्व विगलिंदिय-पंचिंदिय अपज्ज० - बादर पुढविपज्ज० बादरआउपज्ज०बादरतेउपज्ज०-बादरवा उपज्ज० वादरवणफदिकाइयपत्ते यसरीरपज्ज० - तसपज्जतेति । विदयादि जाव सत्तमि त्ति जहण्णाजहण्णाणुभाग० णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं जोदिसियादि जाव सव्ववसिद्धि-सव्वेई दिय-सव्वपंचकाय वेडव्विय०-१ -ओरालियमिस्स ०कम्मइय०-मदि- सुद अण्णाणि विहंग० असंजद ० - किएह-णील- काउ०-३ ०-अभवसि ०-मिच्छादिडि सरि- अणाहारिति ।
.८८
$ १३६. मणुस अपज्ज० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज० ज० एगस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे ० भागो । एवं वेडव्वियमिस्स ० - सासण० 1
दिहि
क्षपकश्रेणि कमसे कम एक समय के अन्तरसे और अधिक से अधिक वर्षपृथक्त्वके अन्तर से सम्भव है, अत: इन मार्गणाओं में जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण कहा I
$ १३५. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीय कर्म के जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सब विकलेन्द्रिय, पञ्चेन्द्रिय, अपर्याप्त, बादर पृथिवीकायिक पर्याप्त, बादर अष्कायिक पर्याप्त, बादर तैजस्कायिक पर्याप्त, बाद वायुकायिक पर्याप्त, बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येकशरीर पर्याप्त और त्रस अपर्याप्तकों जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त जघन्य और अजघ य अनुभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्च, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त, सब एकेद्रिय, सब पाँचों स्थावर काय, वैक्रियिककाययोगी, औदारिकमिश्रकाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कापोतलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारकोंमें जानना चाहिए ।
I
विशेषार्थ - य - यह सम्भव है कि नरकमे' जघन्य अनुभागवाले असंज्ञी एक समय के अतरसे उत्पन्न हों और असंख्यात लोकके अ तरसे उत्पन्न हों, अतः इनमें जघ य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण कहा है। इनमें अजघ य अनुभागवालोंका अस्तर काल नहीं है यह स्पष्ट ही है । यहाँ प्रथम पृथिवीके नारकी आदि अन्य जितनी मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें यह अन्तर बन जाता है, अत: उनकी प्ररूपणा सामान्य नारकियों के समान जानने की सूचना की है । द्वितीयादि नरकोंम' जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले सर्वदा उपलब्ध होते हैं, अतः वहाँ जघन्य और अजघन्य अनुभागवालों के अन्तरकालका निषेध किया है ।
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$ १३६. मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है । अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है । इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी और सासादन
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं त्ति । णवरि वेउव्वियमिस्स० अजहण्णाण. बारस मुहुत्ता। अधवा सासण. जह० उक्कस्संतरं पलिदो० असंखे०भागो। आहार० मोह. जहणाण० ज० एगस०, उक. वासपुधत्तं । एवमजहएणं पि । एवमाहारमिस्स० । इत्थि०-णवूस. जहएणाणु० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । पुरिस० जह० ज० एगस०, उक्क० वासं सादिरेयं । अज. पत्थि अंतरं । अवगद० जह० ज० एगस०, उक्क० छमासा । अज० ज० एगस०, उक्क० छमासा ।
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सम्यग्दृष्टियोंमें जाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि वैक्रियिकमिश्रकाययोगियोंमे अजघन्य अनभागका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहर्त है। अथवा सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनभागका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है। आहारककाययोगियों में मोहनीयकर्मके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागका भी अन्तर जानना चाहिए। इसी प्रकार आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें जानना चाहिए। स्त्रीवेदी, और नपुंसकवेदीमे जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। पुरुष वेदियोंमें जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष है। अजधाय अनुभागका अन्तर नहीं है। अपगतवेदियोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है।
विशेषार्थ-मनुष्य अपर्याप्तकोंमे सामान्य नारकियोंके समान जघन्य अनुभागवालोंके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालको घटित कर लेना चाहिए। तथा इस मार्गणाके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कालको देखकर इसमे अजघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। वैक्रियिकमिश्रकाययोगका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त है, इसलिए इसमें अजघन्य अनुभागवालोंका उत्कृष्ट अन्तर बारह मुहूर्त कहा है। शेष सब अन्तर काल मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान बन जानेसे वह उनके समान कहा है। सासादनमम्यग्दृष्टियोंमे मनुष्य अपर्याप्तकोंके समान अन्तर काल प्राप्त होता है यह स्पष्ट ही है । यहाँ विकल्परूपसे सासादनसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागवालोंका जो उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है सो इसको विचारकर जान लेना चाहिए। आहारकद्विकका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमें दोनों अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। स्त्रीवेदी और नपुंसकवेदी जीवोंमे क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है, इसलिए इनमे जघन्य अनुभागवालोंका जघय अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण कहा है। तथा इनमे अजघन्य अनुभागवालोंका अन्तर नहीं है यह स्पष्ट ही है। पुरुषवेदियोंमें क्षपकणिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, इसलिए इनमें जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष कहा है। तथा यह निरन्तर मार्गणा है इसलिए इसमें अजघन्य अनुभागवालोंके अ.तरकालका निषेध किया है । मोहयुक्त अपगतवेदीका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना है, इसलिए इसमे जघन्य और अजघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर छह महीना कहा है। .........
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ $ १३७. कसायाणुवादेण कोध-माण-माया. जहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० वासं सादिरेयं । अज० णत्थि अंतरं । अकसाय० जहण्णाजहण्णाणु० ज० एगसमओ, उक्क० वासपुधत्तं । एवं जहाक्खाद० । परिहार० जहण्णाजहएगाण. पत्थि अंतरं । एवं संजदासंजद० । मुहुमसांपराय० जहएगाणु० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । एवमजहएणं पि । तेउ-पम्म० जहण्णाजहएण. पत्थि अंतरं । वेदग० जहणणाणु० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । उवसम० जह० ज० एगसमओ, उक्क. वासपुधत्तं । अज० ज० एगस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । सम्मामि० जह. अजह० जह० एगस, उक्क० दोण्हं पि पलिदो० असंखे० भागो ।
एवमंतराणुगमो समत्तो। ६ १३८. भाव० सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
१३७. कषायकी अपेक्षा क्रोध, मान और मायामें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष है। अजय य अनुभागका अन्तर नहीं है। अकषायी जीवोंमें जघन्य और अजघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। इसी प्रकार यथाख्यातसंयतोंमें जानना चाहिए। परिहारविशुद्धिसंयतोंमे' जघन्य और अजघन्य अणभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार संयतासंयतोंमें जानना चाहिये। सूक्ष्मसाम्परायसंयतोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है । इसी प्रकार अजघन्य अनुभागका भी अन्तर जानना चाहिए। तेजालेश्या और पद्मलेश्यावालोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। वेदकसम्यग्दृष्टियोंमे जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अ.तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। उपशमसम्यग्दृष्टियोंमें जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। सम्यग्मिध्यादृष्टियोंमें जघन्य और अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर दोनोंका ही पल्य के असंख्यातवें भाग है।।
विशेषार्थ यहाँ क्रोध कषायसे लेकर जितनी मार्गणाओंमें अन्तर कालका विचार किया है वह सुगम है, इसलिए उसका पृथर पृथ- स्पष्टीकरण नहीं किया है। मात्र क्रोध, मान
और माया कषायमें क्षपकश्रेणिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है, इसलिए इनमें मोहनीयके जघन्य अनुभागवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्षे कहा है। शेष सब स्पष्ट ही है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६१३८. भावसे सर्वत्र औदायिक भाव है।
विशेषार्थ-औदयिक भावके सद्भावमें मुख्य रूपसे मोदनीयकर्मका बन्ध होता है जो उसकी सचाका कारण है, इसलिए यहाँ औदयिक भाव कहा है।
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गा० २२ ]
भागवत्ती अपाबहुश्र
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$ १३६. अप्पाबहुअ० जीवे अस्सिदूण वुच्चदे । तं दुविहं - जह० उक्क० । उक्कस्से पदं । दुविहो णिद्द सो--ओघे० आदेसे० । श्रघे० सव्वत्थोवा मोह० उकस्साणुभागविहत्तिया जीवा । अणुक्क० विहत्तिया जीवा अनंतगुणा । एवं तिरिक्खोघम्म । आदेसेण रइएस सव्वत्थोवा उक्कस्साणु ० विहत्तिया जीवा । अणुक्क० असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुस अपज्ज० - देव० भवणादि जाव वराइद ति । मणुसपज्ज० - मणुसिणी- सव्वहसिद्धिदेवेषु सव्वत्थोवा मोह० उक्कस्साणु० 1 विहत्तिया जीवा । अणुक० संखे० गुणा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति |
१४०. जहणए पयदं । दुविहो णिद्द े सो-- ओघे० आदेसे० । ओघेण सव्वत्थोवा मोह • जहण्णापु० विहत्तिया जीवा । अज० अनंतगुणा । आदेसेण णेरइए सव्वत्थोवा मोह० जहण्णाणु ० विहत्तिया जीवा । अज० असंखे० गुणा । एवं सव्वरइय--तिरिक्ख - सव्वपं चिंदियतिरिक्ख- मणुस्स ० मणुस्स अपज्ज० - देव० भवणादि जाव अवराइदं ति । मणुसपज्ज० -- मणुसिणी ० -- सव्वहसिद्धिदेवेषु सव्वत्थोवा मोह० जहणा० जीवा । अज० संखे० गुणा । एवं जाणिदूण दव्वं जाव अणाहारिति ।
एवं तेवीस णियोगद्दाराणि समत्ताणि ।
$ १३९. अब जीवा आश्रय लेकर अल्पबहुत्व कहते हैं । वह दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव उनसे अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यथ्वों में जानना चाहिए। आदेश से नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले उनसे असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार जानकर इस अल्प बहुत्वको नाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
$ १४०. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओसे मोहनोयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। आदेश से नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, सब पञ्चेन्द्रियतियंञ्च सामान्य मनुष्य, मनुष्यअपर्याप्त, देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकर्मकी जधन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार जानकर इस अल्पबहुत्वको नाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
इस प्रकार तेईस अनुयोगद्वार समाप्त हुए ।
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जयथवलासहिदे कसायपाहुदे [अणुभागविहत्ती ४
- भुजगारविहत्ती ___ १४१. भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादवाणि भवंति-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए ति। तत्थ समुक्त्तिणाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण अस्थि मोह. भुजगार०-अप्पदर०-अवहिद०विहत्तिया जीवा । एवं सवणेरड्य-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवे ति । णवरि आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति अत्थि अप्पदर०-अवहिद विहत्तिया जीवा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।।
5 १४२. सामित्ताणु० दुविहो०णिद्दे सो-ओघे० आदेसे०। तत्थ ओघेण मोह० भुजगार० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स । अप्पदर०-अवहिद० कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुसदेव०-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज० भुज०-अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स। आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णद. सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मोह० अप्प०-अवहि० कस्स ? अण्णद० सम्मा
भुजगारविभक्ति । ६१४१. भुजकार विभक्तिमें ये तेरह अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त । उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीव हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। ....... विशेषार्थ-जो जीव सत्तामे स्थित मोहनीयके अनुभागको बढ़ाते हैं व भुजगारविभक्तिवाले कहे जाते हैं, जो घटाते हैं वे अल्पतर विभक्तिवाले कहे जाते हैं, और जिनके मोहका अनुभाग तदवस्थ रहता है, न घटता है न बढ़ता है, वे अवस्थितविभक्तिवाले जीव कहे जाते हैं। ओघसे और आदेशसे तीनों ही विभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं, किन्तु आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विभान पर्यन्त भुजगार विभक्तिवाले देव नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि वहाँ मोहके जिस अनुभागको लेकर जीव उत्पन्न होते हैं, उसमें वृद्धि नहीं होती है।
६१४२. स्वामित्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे अोघसे मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवके हाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजकार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती.है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होती हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मोहनीयकर्मकी अल्पतर और अवस्थितविभक्ति
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अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो दिहिस्स । एवं जाणिदूग णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६. १४३. कालाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह. भुज०- अप्प० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । अवहि० केवचिरं कालादो होदि ? ज. एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे० भागेण सादिरेयं ।
$ १४४. आदेसेण णेरइएसु भुजगार० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अंतोमुहुत्तकालो रइ एमु किण्ण द्धो ? ण, णेरइएसु
maane.in
किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होती है। इस प्रकार जानकर इन विभक्तियोंके स्वामित्वको अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघसे मोहकी भुजगारविभक्तिका स्वामी तो मिथ्यादृष्टि ही होता है। किन्तु अल्पतर और अवस्थितविभक्तिके स्वामी मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्दृष्टि भी होते हैं अर्थात् प्रोघसे मोहके सत्तामें स्थित अनुभागकी वृद्धि तो मिथ्यादृष्टि ही करता है किन्तु हानि
और अवस्थान दोनोंके हो सकते हैं। इसी प्रकार आदेशसे भी जानना चाहिए। विशेष यह है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्यअपर्याप्तकमें तीनों ही विभक्तियाँ मिथ्यादृष्टिके ही होती हैं, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व नहीं होता है। तथा अानतसे लेकर नौ ग्रैधेयक तकके देवोंमे वृद्धि सम्भव न होनेसे वहाँ अल्पतर और अवस्थित पदका स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंको कहा है। अनुदिश और अनुत्तरोंमें सब सम्यक्त्वी ही होते हैं, अंतः दोनों विभक्तियाँ सम्यक्त्वीके ही होती हैं । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें जान लेना चाहिये।
१४३. कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। आपसे मोहनीयकर्मकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है।
विशेषार्थ- सत्तामें स्थित अनुभागको आगेके समयमें बढ़कर या घटाकर पुनः तदवस्थ रह जानेसे भुजाकार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है और लगातार प्रति समय बढ़ाते या घट.ते जाने पर उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। इससे अधिक काल तक न भुजगारविभक्ति होती है और न अल्पतरविभक्ति। किन्तु अवस्थितविभक्ति लगातार पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर तक रह सकती है, क्योंकि किसी भोगभूमिया मनुष्य या तिर्यञ्चने पल्योपमके असंख्यातवें भाग आयुके शेष रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके अल्पतर किया फिर मिथ्यात्वको प्राप्त होगया और अवस्थितअनुभागविभक्तिवाला होगया। आयुके अन्तमें वेदकसम्यग्दृष्टि होकर दो छयासठ सागर तक वेदकसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहकर अन्तमें उपरिम प्रैवेयकमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होगया। वहाँसे चय कर मनुष्य हुआ। इस प्रकार अवस्थित अनुभागविभक्तिका पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक १६३ सागर काल प्राप्त होता है।
६१४४. आदेशसे नारकियोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है. और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। .. ,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणुभागकंडएण विणा ओघमिव अणुसमयओवट्टणाए अप्पदरस्स असंभवादो। ण च एगसमएण अणुभागकंडओ णिवददि अणुभागकंडयस्स जहण्णुकीरणदाए वि अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो । बंधेण अप्पदरस्स णिरंतरो अंतोमुहुत्तकालो किण्ण लब्भदे ? ण, अणुभागसंतस्स अणुसमयघादमंतरेण अप्पदराणुववत्तीदो। ण च एत्थ अणुसमयघादो अत्थि, चारित्तमोहक्खवणाए चेव तस्स संभवादो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । संपुण्णाणि किण्ण लब्भंति ? ण, णेरइएसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्तकालमगमिय सम्मत्तग्गहणासंभवादो। मिच्छादिहिम्मि अवडिदस्स कालो तेत्तीससागरोवममेत्तो किण्ण गहिदो ? ण, मिच्छादिहीसु अंतोमुहुत्तत्तादो उवरि णियमेण भुजगार-अप्पदराणं संभवादो । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा ।
शंका-नारकियोंमें अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि नारकियोंमें अनुभागकाण्डकके बिना ओघके समान प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा अल्पतरविभक्ति संभव नहीं है। और एक समयमें अनुभागकाण्डकका घात होता नहीं है, क्योंकि अनुभागकाण्डककी उत्कीरणाका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है।
शंका-बन्धकी अपेक्षा अल्पतरविभक्तिका निरन्तर काल अन्तर्मुहूर्त क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागकी सत्ताका प्रति समय घात हुए बिना अल्पतर नहीं बन सकता है। और नरकमें प्रति समय घात होता नहीं है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में ही प्रति समय घात संभव है।
... अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है।
शंका-अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर क्यों नहीं है ?
समाधान नहीं, क्योंकि नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल गये विना सम्यक्त्वका ग्रहण संभव नहीं है।
शंका-मिथ्यादृष्टिमें अवस्थितविभक्तिका काल तेतीस सागर प्रमाण क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टियोंमें अवस्थितविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त है । वहां अन्तर्मुहूर्तसे ऊपर उनमें नियमसे भुजगार या अल्पतरविभक्तिका होना संभव है, अत: नरकमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर नहीं कहा है। . इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
विशेषार्थ-आदेशसे नारकियोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल भी एक समय है और उत्कृष्ट काल भी एक समय है, भुजगारके समान अन्तर्मुहूर्त नहीं है। इसका कारण यह है कि जब
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अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो $ १४५. तिरिक्खेसु भुज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु भुज०-अवहि० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक० एगस०। एवं मणुसअपजताणं । मणुसतियम्मि भुज०-अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागगेण सादिरेयाणि । णवरि मणुसिणीसु अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । तक सत्तामें स्थित अनुभागका प्रति समय घात न हो तब तक अल्पतरविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त नहीं बन सकता । और वहाँ अनुभागका प्रतिसमय घात संभव नहीं है, क्योंकि अनुभागका प्रति समय घात चारित्रमोहकी क्षपणामें ही होता है। सारांश यह है कि कांके अनुभागको लेकर स्पर्धक रचना होती है। उसमें जो स्पर्धक बहुत अनुभागवाले होते हैं उन सब स्पर्धकोंमें अनन्तका भाग देकर बहुभागप्रमाण स्पर्धक आते हैं उनमेंसे कुछ स्पर्धकोंको छोड़कर शेष स्पर्धकोंके परमाणुओंका एक भाग मात्र नीचेके स्पर्धकोंमें परिणमाया जाता है। अर्थात् कुछ परमाणुओंको पहले समयमें परिणमाते हैं, कुछको दूसरे समयमें परिणमाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सब परमाणुओको परिणमा कर उन ऊपरके स्पर्धकोंका अभाव कर दिया जाता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो कार्य किया जाता है उसका नाम काण्डकघात है। इस प्रकार यद्यपि काण्डकघातमें प्रति समय अनुभागका घात होता है पर वह फालिरूपसे ही होता है, इसलिए काण्डकघातके काल में अल्पतरविभक्ति सम्भव नहीं है। वह यहाँ अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें ही होती है। अत: न केवल नारकियोमें, किन्तु जिन मागणाओंमें चारित्रमोहकी क्षपणा नहीं होती उन सबमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही होता है । नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है किन्तु उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक अवस्थितपना सम्यग्दृष्टिके ही बन सकता है और नरकमें सम्यग्दृष्टिका काल अधिकसे अधिक आदि
और अन्तके तीन तीन अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर होता है । इस प्रकार प्रत्येक नरकमें जानना चाहिए, अन्तर केवल इतना है कि प्रत्येक नरकमें अ य विभक्तियोंका काल तो सामान्य नारकीके समान ही होता है, केवल अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है।
६१४५. तिर्यञ्चोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार
और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है।
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जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १४६. देवेसु भुज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक० एगस०। अवहि० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । आणदादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु०, उक. सगहिदी । एवं चिंतिय णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।।
एवं कालाणुगमो समत्तो । विशेषार्थ-कोई मिथ्यादृष्टि तिर्यश्च देवकुरु-उत्तरकुरुमें जन्म लेकर और तीन पल्य तक रहकर मरकर देव होगया। उसके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य होता है, क्योंकि भोगभूमिमें उत्पन्न होनेवाले जीवके जन्म लेनेके कुछ समय पहलेसे उत्कृष्ट अनुभागका घात होकर अवस्थितपना सम्भव है। अपर्याप्तकके सिवा तीनों प्रकारके मनुष्योंमें अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यहाँ क्षपकश्रेणि होनेसे अनुभागका प्रतिसमय घात होना संभव है । तथा अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई मिथ्यादृष्टि मनुष्य एक पूर्वकोटिका त्रिभाग शेष रहने पर मनुष्यायुका बन्ध करके, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, दर्शनमोहनीयका क्षपण करके, सम्यक्त्वके साथ पूर्वको टका देशोन त्रिभाग विताकर उत्तरकुरुमें मरकर मनुष्य हुआ और वहाँ तीन पल्य तक रहकर मरकर देव होगया, तो उस मनुष्यके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त होता है। किन्तु मनुष्यिनीके अन्तुर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य काल होता है जैसा कि तिर्यञ्चमें बतलाया है। शेष कथन सुगम है।
१४६. देवोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण कहना चाहिये। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। इस प्रकार विचार करके इस कालको अनाहारी पर्यन्त ले जाना चहिये।
विशेषार्थ-सामान्य देवोंमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर होता है, क्योंकि सर्वार्थसिद्धिकी उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागर है। आनतादिकमें तथा ऊपरके विमानोंमें भुजगारविभक्ति नहीं होती। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय होता है तथा अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण होता है। यहाँ आनतादिकमें काण्डकघात करने पर उसके अन्तमें अल्पतरविभक्ति प्राप्त होती है, इसलिए उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। तथा काण्डकघातके समय अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त प्राप्त होता है, इसलिए इसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। और देवोंके जीवन भर क्रिया रहित होने पर अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल प्राप्त होता है, इसलिए इसका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण कहा है। अन्य मार्गणाओंमें इसी प्रकार अर्थात् गतिमार्गणाके अनुसार विचार कर काल घटित कर लेना चाहिए।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। .. . .
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए भुजगारअंतरं $ १४७. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० भुजगारविहत्तियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अप्पद० ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरो. वमसदं० पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सादिरेयं । अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु०।
१४८. आदेसेण णेरइएसु मोह० भुज०-अप्प० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० दोण्हं पि तेत्तीसं सागरोवमाणि देमृणाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा ।
$ १४६. तिरिक्खेसु मोह० भुज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०
६ १४७. अन्तरानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघ से मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्तिका अन्तर काल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ बेसठ सागर है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ ओघसे मोहनीयकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि भुजगारके बाद एक समयके लिये अवस्थित या अल्पतरविभक्तिके हो जाने पर पुनः भुजगार. विभक्तिके होने पर जघन्य अन्तर एक समय होता है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक १६३ सागर है, क्योंकि कोई मनुष्य भुजगारविभक्तिको करके पुन: अल्पतरविभक्तिको करके मरकर देवकुरुमें उत्पन्न हुआ, वहाँ भुजगारविभक्ति नहीं होती। अन्त समयमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छयासठ सागर तक सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वके साथ भ्रमण कर अन्तमें उपरिम ग्रेवेयकमें ।३१ सागरकी स्थिति लेकर जन्मा और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् मिथ्यादृष्टि हो गया। मिथ्यादृष्टि हो जाने पर भुजगारविभक्ति नहीं हुई, क्योंकि अच्युतादिकमें उसका निषेध है। इस प्रकार भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर होता है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। अर्थात् जिस प्रकार भुजगारविभक्ति और अवस्थितविभक्ति एक समयके बाद भी हो जाती है उस तरह अल्पतरविभक्ति नहीं होती। तथा उत्कृष्ट अन्तर पहले अवस्थितविभक्तिका जो उत्कृष्ट काल एक सौ त्रेसठ सागर और पल्यका असंख्यातवाँ भाग बतलाया है उतना ही है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है; क्योंकि पहले भुजगार और अल्पतरविभक्तिका ओघसे इतना ही काल बतलाया है । वह यहाँ अवस्थितका अन्तरकाल जानना चाहिए ।
६१४८. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंके जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण लेना चाहिए।
१४९. तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागवित्त ४
भागो । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तिष्णि पलिदोवमाणि तो मुहुत्तेण सादिरेयाणि । अवडि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं पंचिदियतिरिक्खतियस्स ।
वरि मोह • भुज० ज० एगसमओ, उक्क० पुव्वको डिपुधत्तं । पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज •
०
भुज ० - अवद्वि० ज० एस ०, अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमंतोमुहुत्तं । एवं मणुस अपज्ज० । मणुसतियस्स पंचिंदिय० तिरिक्खभंगो । णवरि भुज० उक्क० goaकोटी देणां ।
$ १५०. देवेषु मोह० भुज० अंतर केव० १ ज० एस ०, उक्क० अहारससोगरो० सादिरेयाणि । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० एकतीसं सागरो० देणाणि । अवडि० ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । एवं भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि भुज० - अप्प ० उक्क० सगहिदी देसूणा । श्राणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अप्पदर० ज० तोमु०, उक्क० सगहिदी देणा । अवद्वि० जहण्णुक्क० एस० । अणुद्दिसादि जाव सव्वसिद्धि ति अप्पदर० जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवद्वि० जहण्णुक्क० एगसमओ । एवं जाव अणोहारि ति चिंतिय दव्वं ।
एवमं तराणुगमो समत्तो ।
उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यावें भाग है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्च ेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मोहनीयकी भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्तकों में भुजगार और अवस्थितविभक्तिका ! जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और सब विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्त
है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भंग है । इतनी विशेषता है कि भुजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है ।
$ १५०. देवों में मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्तिका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अट्ठारह सागर है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य तर मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इस प्रकार भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वगपर्यन्त जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनमें भुजगार और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तक के देवोंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है । इस प्रकार अनाहारक मार्गणापर्यन्त विचार करके इस अन्तरको ले जाना चाहिये ।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारे णाणाजीवेहि भंगविचओ
$ १५१. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मोह. भुज०-अप्पदर०-अवहि० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघं ।
विशेषार्थ-आदेशसे सभी मार्गणाओंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय
और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, जैसा कि ओघसे बतलाया है। विशेषता केवल भुजगार और अल्पतरविभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरकालमें है, जो कि इस प्रकार है-सामान्य नारकियोंमें दोनों विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि सातवें नरकका एक मिथ्यादृष्टि नारकी भुजगारविभक्तिको करके पुनः अल्पतरविभक्ति करके सम्यग्दृष्टि हुआ और थोड़ी आयु शेष रहने पर सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुन: मिथ्यादृष्टि हो गया और वहाँ उसने भुजगारविभक्ति की तो उसका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर होता है। इसी प्रकार अल्पतरविभक्तिका भी लगा लेना चाहिये। प्रत्येक नरकमें इसी प्रकार कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। तिर्यञ्चोंमें भजगारविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि पञ्चन्द्रियोंमें भजगारको करके पुनः एकेन्द्रियोंमें जन्म लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक भुजगारके विना अनुभागसत्कर्मको करके पुन: भुजगार करने पर भुजगारविभक्ति का अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भाग होता है और अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई तिर्यश्च अल्पतर करके भोगभूमिमें उत्पन्न हो गया और तीन पल्यकी आयुके अन्तमें काण्डकघात किया तो यह अन्तरकाल प्राप्त होता है। पञ्चन्द्रिय तियञ्च, पञ्चन्द्रियपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतियंञ्चयोनिमतियोंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व है, क्योंकि इनमेंसे कोई तिर्यञ्च संज्ञी दशामें भुजगारको करके मरकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च हो गया और वहाँ पूर्वकोटिपृथक्त्व काल तक समान अनुभाग सत्कर्मको करके मरकर पुनः संज्ञी पञ्चन्द्रिय हुआ और वहाँ उसने भुजगारविभक्ति की तो उतना अन्तरकाल होता है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम पूर्वकोटि है, क्योंकि किसी मनुष्य ने आठ वर्षकी अवस्थामें भुजगारको करके पश्चात् सम्यक्त्वको प्राप्त किया और मृत्युसे कुछ काल पहले सम्यक्त्वसे च्युत होकर पुनः भुजगारविभक्तिको किया तो भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटि होता है। यहाँ शेष कथन पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। देवोंमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अट्ठारह सागर है, क्योंकि कोई संज्ञी मिथ्यादृष्टि तिर्यञ्च या मनुष्य शतार सहस्रारमें जन्म लेकर भुजगारको करके पश्चात् सम्यग्दृष्टि हो गया, मरनेके पहले सम्यक्त्वसे च्युत होकर उसने पुनः भुजगारविभक्ति की तो भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अट्ठारह सागर होता है, इससे अधिक इसलिये नहीं हो सकता कि अच्युतादिकमें भुजगार नहीं होता। तथा अल्पतरका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर उपरिम प्रैवेयककी अपेक्षासे जानना चाहिए। प्रैवेयकसे ऊपरके देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अत: उनमें अल्पतरका अन्तर अन्तर्मुहुर्तसे अधिक नहीं होता, क्योंकि एक अनुभागकाडककी अन्तिम फालिके पतनके समय अल्पतरविभक्ति होती है। उसके बाद दूसरे अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिके पतन होने में एक अन्तर्मुहूर्त काल लगता है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। ६ १५१. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघसे मोहनीय कर्मकी भुजाकार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे - [अणुभागविहत्ती ४ आदेसेण णेरइएमु मोह० भुज०-अवहि० णियमा अत्थि । अप्पदर० भजिदव्वा । सिया एदे च अप्पदरविहत्तिो च १ । सिया एदे च अप्पदरविहत्तिया च २ । धुवे पक्खित्ते तिण्णि भंगा ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । मणुसअपज्ज० मोह० सव्वपदा भयणिज्जा । भंगा छव्वीस २६ । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति मोह० अवहि० णियमा अस्थि । अप्पदर० भजियव्वा । सिया एदे च अप्पदरविहत्तिो च १। सिया एदे च अप्पदरविहत्तिया च २। एत्थ धुवे पक्खिते तिण्णि भंगा ३ । एवं जाणिदूणे णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___ एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे है। अल्पतरविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित इन विभक्तिवालोंके साथ एक अल्पतरविभक्तिवाला जीव होता है। कदाचित् इन विभक्तिवालोंके साथ अनेक अल्पतरविभक्तिवाले जीव होते हैं। इस प्रकार इन दोनों भंगोंमें एक ध्रव भंगके मिलानेसे तीन भंग होते हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके सब पद भजनीय हैं। भङ्ग छब्बीस होते हैं। श्रानतसे लेकर सवार्थसिद्धिपर्यन्त मोहनीयकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे होते है। अल्पतरविभक्तिवाले जीव भजनीय हैं। कदाचित् इस विभक्तिवालोंके साथ एक अल्पतरविभक्तिवाला जीव हाता है १ । कदाचित् इस विभक्तिवालोंके साथ अनेक अल्पतरविभक्तिवाले जीव होते हैं २। इस प्रकार इन दोनों भङ्गोंमें ध्रुव भङ्गके मिलानेसे तीन भङ्ग होते हैं ३ । इस प्रकार भङ्गविचयको जानकर उसे अनाहारकमार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-अोघसे तीनों ही विभक्तिवाले जीव नियमसे पाये जाते हैं, उनका कभी अभाव नहीं होता। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले तो नियमसे पाये जाते हैं और अल्पतरविभक्तिवाले विकल्पसे पाये जाते हैं। अत: तीन भंग होते हैं-भुजगार
और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं, यह एक ध्रुव भंग है तथा दो अध्रुव भंग हैं-- कदाचित् भुजगार और अवस्थितविभक्तिवालोंके साथ एक अल्पतरविभक्तिवाला जीव पाया जाता है और कदाचित् इन दोनों विभक्तिवालोंके साथ अल्पतरविभक्तिवाले अनेक जीव पाये जाते हैं । सब नारकियों, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों, सब मनुष्यों, सामान्य देवों और भवनवासीसे लेकर सहस्रारपर्यन्त तकके देवोंमें तीन भंग होते हैं। किन्तु मनुष्य अपर्याप्तक सान्तर मार्गणा है, अत: उसमें सभी पद विकल्पसे होते हैं और भंग छब्बीस होते हैं-१ कदाचित् भुजगारविभक्तिवाला एक जीव होता है । २ कदाचित् भुजगारविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं। ३ कदाचित् अल्पतर विभक्तिवाला एक जीव होता है। ४ कदाचित् अल्पतरविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं । ५ कदाचित् अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव होता है। ६ कदाचित् अवस्थितविभक्तिवाले अनेक जीव होते हैं। ७ कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है। ८ कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं । ९ कदाचित् भुजगारवाला
...... आ. प्रतौ अवट्टि रिणयमा अस्थि, सिया इति पाठः। २. ता. प्रतौ एवं सचणेरइयसव्व जाणिदूण इति पाठः ।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारे भागाभागाणुगमो
१०१ $ १५२. भागाभागाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघे० मोह० भुज० सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? संखे०भागो। अप्पदर० केव० ? असंखे०भागो। अवहि० केव० ? संखेज्जा भागा। एवमसंखे०--अणंतजीवरासीणं वत्तव्वं । मणुसपज्ज०-मणुसिणी. भुज०--अप्पदर० सव्वजीव० केव० ? संखे० भागो। अवहि. संखेज्जा भागा। आणदादि जाव अवराइद त्ति अप्पदर० सव्वजी० केव० ? असंखे०भागो । अवहि. असंखेज्जा भागा। सव्वदृसिद्धिदेवेसु अप्पदर० सव्वजीव० केव० ? एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। १० कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं। ११ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है। १२ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं । १३ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। १४ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं। १५ कदाचित् अल्पतर वाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। १६ कदाचित् अल्पतरवाला एक जीव
और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं । १७ कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थित वाला एक जीव होता है। १८ कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं। १९ कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। २० कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और
ले अनेक जीव होते हैं। २१ कदाचित भजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है । २२ कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं । २३ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरव
क जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। २४ कदाचित भजगारवाले अनेक जीव अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं। २५ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है। २६ कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे पाये जाते हैं। अतः यह एक ध्रुव भंग होता है और अल्पतरको लेकर दो अध्रुव भंग होते हैं। इस प्रकार तीन भंग होते हैं। यहाँ चार गतियोंकी अपेक्षा ही भङ्गविचयका विचार किया है। शेष मार्गणाओंमें इसे ध्यानमें रखकर जान लेना चाहिए।
__ इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ।
१५२. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यात बहुभाग हैं। इसी प्रकार असंख्यात और अनन्त जीवराशियोंका कथन करना चाहिये। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अल्पतरविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाल जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभाग हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें अल्पतरविभक्तिवाले
अवस्थि
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१०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ संखे०भागो । अवहि० संखेज्जा भागा । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___ एवं भागाभागाणुगमो समत्तो। $ १५३. परिमाणाणुगमेण दुविहो णि सो—ोघेण आदेसेण । ओघेण मोह. भुज०-अप्पदर०-अवहि० दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता । एवं तिरिक्खोघम्मि ।
$ १५४. आदेसेण रइएमु सव्वपदवि० असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय--सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुसअपज्ज०-देव०--भवणादि जाव अवराइदं ति । मणुसपज्जत्त-मणुस्सिणि-सव्वदृसिद्धिदेवेसु सव्वपदवि० संखेज्जा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो।
जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवों के संख्यात बहुभाग हैं। इस प्रकार भागाभागानुगमको जानकर अनाहारकमार्गणा पर्यन्त ले जाना जाहिये।
विशेषार्थ ओघसे भुजगारविभक्तिवाले सब जीवोंके संख्यातवें भाग होते हैं, अल्पतरविभक्तिवाले असंख्यातवें भाग होते हैं और अवस्थितविभिक्तिवाले संख्यात बहुभाग होते हैं। इसका कारण यह है कि अवस्थितविभक्तिका काल बहुत अधिक है। तथा भुजगारविभक्ति और अल्पतरविभक्तिका काल यद्यपि ओघसे समान है फिर भी अल्पतरविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल केवल क्रियाविशेषके समय ही होता है। अत: काल समान होने पर भी अल्पतरविभक्तिवाले कम हैं और भुजगारविभक्तिवाले अधिक हैं। जिन मार्गणाओंमें जीवराशि असंख्यात या अनन्त है उनमें इसी प्रकार भागाभाग जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंका प्रमाण संख्यात है, अत: उनमें संख्यातेकभाग तो भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले होते हैं और संख्यात बहुभाग अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। प्रानतसे लेकर अपराजित विमान पर्यन्त प्रत्येकमें जीवराशि यद्यपि असंख्यात है, किन्तु उनमें भुजगारविभक्ति नहीं होती, अत: असंख्यातेकभागप्रमाण जीव अल्पतरविभक्तिवाले होते हैं और असंख्यात बहुभागप्रमाण जीव अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। सर्वार्थसिद्धिके देवोंका प्रमाण संख्यात है, अत: उनमें संख्यातेक भाग जीव अल्पतरवाले और संख्यात बहुभाग अवस्थितवाले होते हैं ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ। ६१५३, परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले द्रव्यप्रमाणसे अर्थात् गणनाकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए।
१५४. श्रादेशसे नारकियोंमें सब विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यपर्याप्त, मनुयिनी और साथसिद्धिके देवोंमें सब विभक्तिवाले संख्यात हैं। इस प्रकार परिमाणानुगमको जानकर उसे अनाहारक मार्गणापयन्त ले जाना चाहिये।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारे पोसणं
१०३ १५५. खेताणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण। ओघेण मोह. भुज०-अप्प०-अवहि विहत्तिया केव० खेत्ते ? सव्वलोगे। एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु मोह० सव्वपदा लोगस्स असंखे०भागे। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। १५६. पोसणाणु० दुविहो० णिसो-ओघेण आदेसेण। ओघेण मोह० तिण्णिपदविहत्तिएहि केवडियं खेचं पोसिदं ? सव्वलोगो । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण गेरइएमु सव्वपदविहत्तिएहि केवडियं खेत्तं पोसदं ? लोगस्स असंखे०भागो छचोदसभागा देमूणा । पढमपुढवि० खेत्तभंगो। विदियादि जाव सत्तमि ति तिण्हं पदाणं सगपोसणं वत्तव्वं । सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्साणं भुज०-अप्प०-अवहि.
विशेषार्थ भागाभागानुगममें तो यह बतलाया गया था कि अमुक विभक्तिवाले अपनी अपनी जीवराशिके कितने भाग प्रमाण हैं। परिमाणानुगममें उनका परिमाण बतलाया गया है। ओघसे तीनों ही विभक्तिवालोंका परिमाण अनन्त है। आदेशसे जिन मार्गणाओंमें जीवराशि असंख्यात है उनमें प्रत्येक विभक्तिवालोंका परिमाण असंख्यात है, जिनमें जीवराशि संख्यात है उनमें प्रत्येक विभक्तिवालोंका परिमाण संख्यात है और जिनमें जीवराशि अनन्त है उनमें प्रत्येक विभक्तिवालोंका परिमाण अनन्त है। .
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६१५५. क्षेत्रानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीय कर्मकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें पाये जाते हैं ? सर्व लोकमें । इसी प्रकार सामान्य तिर्यंचोंमें जानना चाहिए। शेष मार्गणाओंमें मोहनीयकी सब विभक्तिवाले जीव लोकके असंख्यानवें भागमें रहते हैं। इस प्रकार क्षेत्रानुगमको जानकर उसे अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
_ विशेषार्थ-ओघसे तीनों पदवालोंका सर्वलोक क्षेत्र सम्भव है इसलिए वह उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें भी घटित कर लेना चाहिए। शेष गतियोंमें वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह देखकर उनमें वह अपने अपने सम्भव पदोंकी अपेक्षा उक्त प्रमाण कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा पर्यन्त शेष मार्गणाओंमें क्षेत्र जानना चाहिए।
इस प्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। १५६. स्पर्शनानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीय कर्मकी तीनों विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? समस्त लोकका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें सब विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और त्रसनालीके चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त तीनों विभक्तियोंका अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
लोग • असंखे० भागो सव्वलोगो वा । देवेसु भुज ० - अप्प ० - अवहि ० के ० १ लोग० असंखे० भागो अट्ठ-णवचोदस० देसूणा । एवं सव्वदेवारणं । णवरि सगसगपोसणं वत्तव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । एवं पोसणाणुगमो समत्तो ।
- श्रघेण आदेसेण य । श्रघेण मोह ०
१५७. कालानुगमेण दुविहो णिद्द े सोतिण्णिपद०वि० ० सव्वद्धा । एवं तिरिक्खोघं ।
वालों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सर्व लोक है । देवोंमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागों में से कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । इस प्रकार स्पर्शनानुगमको जानकर उसे अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ - आदेश से नरकगतिमें सब विभक्तिवाले नारकियोंने मारणान्तिक और उपपाद के द्वारा अतीत कालमें कुछ कम छह बटे चौदह राजु प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है और शेष संभव पदोंके द्वारा अतीतकाल में तथा संभव सभी पदोंके द्वारा वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहले नरकमें सम्भव सभी पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्शन किया है । दूसरे से सातवें नरक तक सभी विभक्तिवाले नारकियोंने मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा अतीत कालमें दूसरे नरकमें कुछ कम एक बटे चौदह, तीसरे में कुछ कम दो बटे चौदह, चौथेमें कुछ कम तीन बटे चौदह, पाँचवें में कुछ कम चार बटे चौदह, छटेमें कुछ कम पाँच बटे चौदह और सातवें में कुछ कम छै बटे चौदह भाग प्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है तथा संभव शेष पदोंके द्वारा अतीत कालमें और संभव सभी पदोंके द्वारा वर्तमान काल में लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और सब मनुष्यों में तीनों विभक्तिवाले जीवोंने मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा अतीत कालमें सर्वलोकका स्पर्शन किया है और संभव शेष पदोंके द्वारा अतीतकाल में तथा संभव सभी पदोंके द्वारा वर्तमान काल में लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है । सामान्य देवोंमें तीनों विभक्तिवाले जीवोंने विहार वत्स्वस्थान, वेदना, कषाय, और विक्रियापदके द्वारा अतीत कालमें कुछ कम आठ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है और मारणान्तिक पदके द्वारा अतीत कालमें कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है । तथा संभव पदोंके द्वारा वर्तमान काल में और स्वस्थानस्वस्थान पदके द्वारा अतीत काल में लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र का स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवों में अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । ओघसे सब लोकप्रमाण स्पर्शन है यह स्पष्ट ही है। इस प्रकार इस स्पर्शनको ध्यान में रखकर भुजगार आदि पदोंकी अपेक्षा ओघसे व चारों गतियोंमें स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए । अन्य मार्गणाओं में भी अपना अपना स्पर्शन जानकर जिस पदकी अपेक्षा जो स्पर्शन सम्भव हो उसे जान लेना चाहिए ।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ ।
$ १५७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मोहनीयकी तीनों विभक्तियोंका काल सर्वदा है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो __१५८. आदेसेण णेरइएसु भुज०-अवहि० सव्वद्धा । अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख--मणुस्सदेव०-भवणादि जाव सहस्सारा ति । णवरि मणुस्सेसु अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणी० । मणुसअपज्ज० मोह. भुज०-अवहि. ज० एगसमओ, उक्क० पलिदो० असंखे भागो। अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। आणदादि जाव अवराइद ति अप्पदर०-अवहि० णेरइयभंगो। सव्वहे अप्पदर० ज० एगस०, उक० संखेज्जा समया । अवहि. सव्वद्धा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं णाणाजीवेहि कालाणुगमो समत्तो।
६ १५८. आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वलीके असंख्यातवें भाग है । इसीप्रकार सत्र नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मनुष्योंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असख्यातवें भाग है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग है। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भंग नारकियोंके समान है। सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अवस्थितविभक्तिका काल सर्वदा है। इसप्रकार कालानुगमको जानकर उसे अनाहारक मार्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे सभी गतियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तो सर्वदा पाये जाते हैं, केवल मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इन दोनों विभक्तिवाले नाना जीवोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग है. क्योंकि यह सान्तर मार्गणा है और इसका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। परन्तु अल्पतरविभक्तिवाले नाना जीवोंका काल जघन्यसे एक समय और उत्कृष्टसे आवलिका असंख्यातवाँ भाग होता है। अर्थात् किसी भी गतिमें अल्पतरविभक्तिवाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग काल तक ही पाये जा सकते हैं उसके पश्चात् कुछ काल ऐसा आजाता है जिसमें एक भी अल्पतरविभक्तिवाला जीव नहीं होता। मात्र आनतसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें भुजगारविभक्ति नहीं होती। शेष दो होती हैं, इसलिए उनमें भुजगारके सिवा शेष दोका काल कहा है । तथा सर्वार्थसिद्धिमें अल्पतरविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें अल्पतर विभक्तवाले भी सर्वदा पाये जाते हैं, इसलिए इनमें तीनांका काल सर्वदा कहा हैं और इसी अपेक्षासे ओघकी अपेक्षा भी तीनोंका काल सर्वदा कहा है।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगम समाप्त हुआ।
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१०६
“जयधषलासहिदे कसायपाहुडे - [अणुभागविहत्ती ४ .. १५६. अंतराणुगमेण दुविहो णिद्दे सो--ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० तिण्णिपदविहित्तियाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण रइएसु भुज०अवहि० णत्थि अंतरं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-देव भवणादि जाव सहस्सार त्ति । मणुसअपज्ज० तिण्णिपदवि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अप्प० ज० एगस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । अवहि णत्थि अंतरं । अणुदिसादि जाव सवसिद्धि ति अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो। अवहि० णत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवमंतराणुगमो समत्तो। १५९. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी तीनों विभक्तियोंका अन्तरकाल नहीं है। इसीप्रकार सामान्य तिर्यञ्चामें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्च न्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवों में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तीनों विभक्तिस्थानोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर नव ग्रेवेयक तकके देवोंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात-दिन है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपराजित तक वर्षपथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। इसप्रकार अन्तरानुगमको जानकर उसे अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। - विशेषार्थ-ओघसे व आदेशसे सामान्य तिर्यञ्चोंमें तो तीनों ही विभक्तिवाले सर्वदा पाये जाते हैं, अत: अन्तर नहीं है। शेष गतियोंमें भुजगार और अवस्थितवाले सर्वदा पाये जाते हैं, अत: उनका अन्तर नहीं है। किन्तु मनुष्य अपर्याप्तकोंमें तीनों विभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है, क्योंकि यह सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। अल्पतरविभक्तिका अन्तर सब नारकियों सब पञ्चन्द्रियतिर्यश्चों, तीन प्रकारके मनुष्यों, सामान्य देवों और भवनवासीसे लेकर सहस्रारपर्यन्त तकके देवोंमें जघन्य से एक समय और उत्कृष्टसे अन्तर्मुहूर्त होता है । आनतसे लेकर सब वेयक तकके देवोंमें अल्पतरका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन होता है, क्योंकि उनमें प्रथमोपशमसम्यक्त्वके अभिमुख हुए जीवके उत्कृष्ट हानि बतलाई है और प्रथम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तर सात रात-दिन बतलाया है तथा अनुदिशादिकमेंसे अपराजित तकके देवोंमें अल्पतरअनुभागविभक्तिका . उत्कृष्ट अन्तरकाल वर्ष पृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है। शेष कथन सुगम है।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवो १६०. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो।..
एवं भावाणुगमो समतो।। १६१. अप्पाबहुगाणु० दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया जीका। भुजविहत्ति० असंखे गुणा । अवहि वि० संखे०गुणा । एवं चदुसु वि गदीसु । णवरि मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु संखेजगुणं कायव्वं । आणदादि जाव अवराइदं ति सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया । अवहि० असंखे गुणा । सव्व सव्वत्थोवा मोह० अप्पदरविहत्तिया। अवहिदवि० संखे गुणा । एवं जाणिद्ण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं भुजगाराणुगमो समत्तो। .
पदणिक्खेवो .. १६२. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि [ तिण्णि ] अणिओगद्दाराणिसमुक्तित्तणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । को पदणिक्खेदो ? भुजगारविसेसो। ण च पुणरुत्तदा, जहण्णुक्कस्सवड्डि-हाणि-अवहाणेसु पडिबद्धत्तादो।। १६०. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है।
. इस प्रकार भावानुगम समाप्त हुआ। ६१६१. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश । उनमेंसे ओघसे अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े है। भुजगारविभक्तिवाले उनसे असंख्यातगुणे हैं। अवस्थितविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इसीप्रकार चारों ही गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें असंख्यातगुणे के स्थानमें संख्यातगुणा करना चाहिये । आनतसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अल्पतरविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। उनसेअवस्थितविभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं। सर्वार्थसिद्धिमें मोहनीयके अल्पतरविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। अवस्थितविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इसप्रकार अल्पबहुत्वको जानकर उसे अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
इस प्रकार भुजगारानुगम समाप्त हुआ।
पदनिक्षेप ६.१६२. अब पदनिक्षेपका कथन करते हैं। उसमें ये अनुयोगद्वार हैं-समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व।
शंका-पदनिक्षेप किसे कहते हैं ? समाधान-भुजगार विशेषको पदनिक्षेप कहते हैं।
यदि कहा जाय कि जब पदनिक्षेप भुजगारका ही एक विशेष है तो उसके कथन करनेसे पुनरुक्त दोष आता है, क्योंकि भुजगारका कथन पीछे कर आये हैं। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पदनिक्षेपमें जघन्य और उत्कृष्ट वृद्धि, हानि और अवस्थानका कथन किया जाता है, अतः पुनरुक्त दोष नहीं है।...
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२०४
अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ १६३. समुक्त्तिणाणुगमो दुविहो-जहण्णो उक्स्सओ चेदि । तत्थ उक्कस्सए पयदं । दुविहो गिद्दे सो—ोघेण आदेसेण । ओघेण अस्थि मोह० उक्कस्सिया वड्डी उक्क० हाणी अवहाणं च । एवं चदुसु गदीसु । णवरि आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति अत्थि उक्क० हाणी अवहाणं च । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवमुक्कस्सिया समुक्त्तिणा समत्ता । . १६४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण अस्थि जहणिया वड्डी हाणी अवहाण च । एवं चदुसु वि गदीसु। णवरि आणदादि जाव सव्वद्या ति अत्थि जहणिया हाणी अवहाणं च । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं समुक्त्तिणाणुगमो समत्तो। १६५. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कसं च । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णि सोओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० उक्कस्सिया वड्री कस्स ? अण्णदरो जो तप्पाअोग्ग
विशेषार्थ-यद्यपि पदनिक्षेप भुजगार अनुगमका ही एक भेद है फिर भी इसमें उससे अन्तर है। भुजगार अनुगममें तो भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियोंका वर्णन है और पदनिक्षेपमें उन विभक्तियों के कारण वृद्धि, हानि और अवस्थानका वर्णन है।
६१६३. समुत्कीर्तनानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उनमेंसे यहाँ उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है, अर्थात् मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट वृद्धि भी होती है, उत्कृष्ट हानि भी होती है और उत्कृष्ट अवस्थान भी होता है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होता है, उत्कृष्ट वृद्धि नहीं होती। इसप्रकार उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थानको जानकर उसे अनाहारी तक ले जाना चाहिये।
इस प्रकार उत्कृष्ट समुत्कीर्तना समाप्त हुई। १६४. अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और श्रादेश। ओघसे जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होता है। इसप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान होता है, वृद्धि नहीं होती। इसप्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिए।
विशेषार्थ-ओघकी तरह आदेशसे भी चारों गतियोंमें उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि, हानि और अवस्थान होते हैं, किन्तु अानतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें न उत्कृष्ट वृद्धि होती है और न जघन्य वृद्धि, क्योंकि उनमें भुजगारका अभाव है। ..
..'' इस प्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ। १६५. स्वामित्व दो प्रकारका है -जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो
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गां० २२.] अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्त जहण्णाणुभागसंतकम्मादो उक्कस्साणुभागं बंधमाणओ तस्स उक्कस्सिया वड्डी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं। उकस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरेण उक्कस्साणुभागसंतकम्मिएण उक्कस्साणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्खचउक्क०-मणुस्सतिय-देव-भवणादि जाव सहस्सारकप्पो त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णदरो जो तप्पाओग्गजहण्णाणुभागसंतकम्मादो तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागबंध गदो तस्स उक्कस्सिया वड्डी। उक्क. हाणी कस्स ? अण्णदरो जो मणुस्सो मणुसिणी वा पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तजोणिओं' वा उक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ उकस्साणुभागकंडयं घादयमाणो पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तेण उक्कस्साणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाण । एवं मणुसअपज्जत्ताणं । आणदादि जाव णवगेवज्जा ति उक्कस्सिया हाणी कस्स? अण्णदरस्स जेण उकस्साणुभागसंतकम्मिएण पढमसम्मत्ताहिमुहेण पढमाणुभागकंडयं हदं तस्स उक्क. हाणी । तस्सेव से काले उकस्समवहाणं । अणुदिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति मोह० उक्कस्सिया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स जेण तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागसंतकम्मियवेदगसम्मादिहिणा अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएमाणेण पढममणुभागकंडयं हदं तस्स उक्क. हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । एवं जाणिदूण अपने योग्य जघन्य अनुभागवाले सत्कर्मसे उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके अनन्तर समयमे उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके हाती है ? जिस जीवके उत्कृष्ट अनुभागवाले कर्माकी सत्ता है वह जीव जब उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात करता है तो उसके उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुज्यिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिसके अपने योग्य जघन्य अनुभागकी सत्तावाले कर्मोका अस्तित्व है वह जब अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है तो उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिस मनुष्य, मनुष्यिनी अथवा पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले कर्मोंका अस्तित्व है वह उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात करता हुआ पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। उसके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर उसके उत्कृष्ट हानि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसीप्रकार अपर्याप्त मनुष्योंके जानना चाहिए । आनत स्वर्गसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख जो देव पहले अनुभागकाण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले जिस वेदकसम्यग्दृष्टिने अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करते हुए प्रथम अनुभागकण्डकका घात कर किया है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर
१. प्रा० प्रतौ पंचिंदियतिरिक्खजोणिश्रो इति पाठः ।
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुरे [अणुभागविहत्ती ४ णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवमुक्कस्सवड्डिसामित्ताणुगमो समत्तो । ६ १६६. जहएणए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसैण। ओघेण मोह० जहरिणया वड्डी हाणी अवहाणं च कस्स ? अण्णदरस्स अणंतभागेण वडिदूण बंधे जहरिणया वड्डी । तम्मि चेव कंडयघादेण हदे जहएिणया हाणी। एगदरत्थ अवहाणं । एवं चदुसु गदीसु । वरि आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति जहरिणया हाणी कस्स । अएणदरस्स अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोएमाणवेदगसम्मादिहिस्स चरिमअणुभागकंडए हदे तस्स जहरिणया हाणी । तस्सेव से काले जहएणमवहाणं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणहारित्ति।
एवं सामित्ताणुगमो समतो। समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इस प्रकार जानकर उत्कृष्ट वृद्धि आदिको अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघसे अपने योग्य जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर उत्कृष्ट हानि होती है। नारकियों, चार प्रकारके तिर्यञ्चों, तीन प्रकारके मनुष्यों, सामान्य देवों और भवनवासीसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें कुछ अन्तर है जो मूलमें बतलाया ही है। विशेष बात यह है कि उनमें उत्कृष्ट हानिवालेके उत्कृष्ट अवस्थान बतलाया है। इसका कारण यह है कि उनके उत्कृष्ट वृद्धिसे उत्कृष्ट हानिका प्रमाण अधिक है और वृद्धि तथा हानिमेंसे जिसका प्रमाण अधिक होता है उसीको लेकर उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। उनमें वृद्धि तो होती ही नहीं, हानि ही होती है और उत्कृष्ट हानिवालेके ही उत्कृष्ट अवस्थान होता है।
इस प्रकार उत्कृष्ट वृद्धिका स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। ६१६६. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जो अन्यतर जीव अनन्तवें भाग अधिक अनुभागका बन्ध करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है और क.ण्डकघात के द्वारा उसी अनन्तवें भाग अनुभागका घात कर दिये जाने पर जघन्य हानि होती है । तथा इन दोनों वृद्धि-हानियों में से किसी एक स्थानमें जघन्य अवस्थान होता है। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । कुछ विशेषता इस प्रकार है-आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जघन्य हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करनेवाला अन्यतर वेदकसम्यग्दृष्टि देव जब अन्तिम अनुभागकाण्डकका घात कर देता है तब उसके जघन्य हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। .
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारे अप्पाबहुअं _ १६७. अप्पाबहुगं दुविहं—जहण्णमुक्कस्सं च। उक्कस्से पयदं। दुविहो जिद्द सोओघेण आदेसेण । ओघेण सव्वत्थोवा मोह० उक्कस्सिया हाणी । वड्डी अवहाणं चं दो वि सरिसाणि विसेसाहियाणि । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्व-सव्वमणस्स-देव. भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज० सव्वत्थोवा उक्कस्सिया वड्डी । हाणी अवहाणं च दो वि सरिसा अणंतगुणा । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति हाणी अवहाणं च दो वि सरिसाणि । एवं जाणिदूण जेवव्वं जाव अणाहारि ति।
एवमुक्कस्सओ अप्पाबहुगाणुगमो समत्तो ।
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विशेषार्थ-ओघसे जघन्य वृद्धि और जघन्य हानिका प्रमाण समान है, अत: जघन्य वृद्धिवालेका भी जघन्य अवस्थान होता है और जघन्य हानिवालेका भी जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। किन्तु नतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें हानि ही होती है, अत: जघन्य हानिवालेके ही जघन्य अवस्थान होता है। तथा उत्कृष्ट स्वामित्वके कथनमें अनुदिशादिकमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर उत्कृष्ट हानि बतलाई थी, और यहाँ चरम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर जघन्य हानि बतलाई है, इसका कारण यह है कि चरम अनुभागकाण्डकसे प्रथम अनुभागकाण्डकमें बहुत अधिक अनुभागकी सत्ता होती है। .
___इस प्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। १६७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है -जघन्य और उत्कुष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट हानि सब सबसे थोड़ी है। उससे वृद्धि और अवस्थान दोनों समान होकर कुछ अधिक हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव, और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धि सबसे थोड़ी है । उससे हानि और अवस्थान दोनों समान होकर अनन्तगुणे हैं। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त हानि और अवस्थान दोनों समान हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघसे जीवके जो उत्कृष्ट हानि होती है उसका प्रमाण सबसे कम है, उसके उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानका प्रमाण अधिक है, किन्तु परस्परमें दोनोंका बरावर है, क्योंकि स्वामित्वानुगममें जिसके उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई है उसीके उत्कृष्ट अवस्थान भी बतलाया है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्त और मनुष्य अपयोप्तकोंमें उत्कृष्ट वृद्धिका परिमाण कम है और उत्कृष्ट हानिका प्रमाण वृद्धिसे अधिक है। तथा आनतादिकमें वृद्धि तो होती ही नहीं, अत: उत्कृष्ट हानिवालेके ही उत्कृष्ट अवस्थान होनेसे दोनोंका परिमाण समान कहा है।
इस प्रकार उत्कृष्ट अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ।
. सा. प्रतौ उक्कस्सिया घड्ढी । हाणी अवट्ठाणं च इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहन्ती ४
$ १६८. जहणए पदं । दुविहो णिद्द सो— श्रघेण आदेसेण । श्रघेण मोह० जहण्णिया वडी हाणी अवद्वाणं च तिष्णि वि सरिसाणि । एवं चदुसु गदीसु । णवरि आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति जहणिया हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि । एवं जाणिदूण दव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं पदणिक्खेवोत्ति समत्तमणिओगद्दारं ।
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वित्ती
$ १६६. वडिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि - समुत्तिणादि जाव अप्पा हुए ति । का बढी नाम ? पदणिक्खेवविसेसो | ण पुणरुत्तदा, सामण्णादो विसेसस्स सव्वत्थ पुधत्तुवलंभादो' ।
$ १६८. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनी की जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों समान हैं । इसी प्रकार चारों गतियों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जघन्य हानि और अवस्थान दोनों समान हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ-ओघसे जीवके जितनी जघन्य वृद्धि होती है उतनी ही जघन्य हानि भी होती है अतः तीनोंका परिमारण समान कहा है, कमती बढ़ती नहीं कहा है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें भी जानना चाहिए । किन्तु आनतादिकमें वृद्धि नहीं होती, अतः वहां हानि और अवस्थानका प्रमाण समान कहा
है
इस प्रकार पदनिक्षेप अनुयोगद्वार समाप्त हुआ ।
1
वृद्धिविभक्ति
$ १६९. अब वृद्धिविभक्तिका कथन करते हैं । उसमें समु कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। शङ्का - वृद्धि किसे कहते हैं ।
समाधान-पदनिक्षेप विशेषको वृद्धि कहते हैं । ऐसा होने पर भी वृद्धिका कथन करनेमें पुनरुक्त दोषकी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि सर्वत्र सामान्य कथनसे विशेष कथन पृथक् उपलब्ध होता है।
विशेषार्थ - जैसे भुजगारविभक्तिका ही एक विशेष पदनिक्षेप है, वैसे ही पदनिक्षेपका एक विशेष वृद्धिविभक्ति है । पदनिक्षेपमें मोहनीय के अनुभागसत्त्वमें उत्कृष्ट और जघन्य वृद्धि, उत्कृष्ट और जघन्य हानि तथा उत्कृष्ट और जघन्य अवस्थानका कथन किया है । किन्तु वृद्धिविभक्ति में छ प्रकारकी वृद्धि, छ प्रकारकी हानि और अवस्थानका कथन किया है । सारांश यह है कि पद निक्षेपमें वृद्धि आदिका सामान्य रूपसे कथन है और वृद्धिविभक्तिमें वृद्धि और हानिके छ छ भेदों
१. प्रा० प्रतौ सम्वस्थ पुव्युत्त वलंभादो इति पाठः ।
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गा० २२ ]
भागविती वड्डीए सामित्तं
११३
-
मोहणीय
$ १७०. तत्थ समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णिद्द े सो- - ओघेण आदेसेण । श्रघेण विडीओ छहाणीओ अवद्विदं च । एवं चदुसु गदीसु । णवरि आणदादि जाव सव्वसिद्धि ति अत्थि अनंतगुणहाणी अवद्विदं च । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं समुत्तिणाणुगमो समतो ।
$ १७१. सामित्ताणु० दुविहो णिद ेसो- ओघेण आदेसेण । ओघेण मोहणीयस्स छवडीओ' पंचहाणी' कस्स ? अण्णद० मिच्छादिडिस्स । अनंतगुणहाणी अवद्विदं च कस्स १ अण्णदरस्स सम्मादिडिस्स मिच्छाइडिस्स वा । एवं चदुसु गदी । वरि पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० - मणुस अपज्ज० छवडीओ छहाणीओ अवद्विदं च कस्स ? अण्णद० मिच्छाइहिस्स | आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अतगुणहाणी अवहिंदं च कस्स ? अण्ाद० सम्माइट्ठिस्स मिच्छाइ हिस्स वा । अणुद्दिसादि जाव सव्वहसिद्धि ति अनंतगुणहाणी अवद्वाणं च कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइहिस्स । एवं जाणि
को लेकर कथन किया है। वे भेद हैं- अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि । इसीप्रकार हानिके भी छह भेद होते हैं । तथा इनके बाद होनेवाले अवस्थानका भी इसमें विचार किया गया है।
$ १७०. उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगम से निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीयकर्मकी छ वृद्धियाँ. छ हानियाँ और अवस्थान होते हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए | इतनी विशेषता है कि नत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में अनन्तगुणहानि और स्थान होता है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ - ओघ की तरह चारों गतियों में भी मोहनीयके अनुभागकी छहों वृद्धियां, छहों हानियां और अवस्थान होते हैं । किन्तु आनतादिकमें केवल अनन्तगुणहानि और स्थानी होते हैं।
इसप्रकार समुत्कीर्तनानुगम समाप्त हुआ ।
$ १७९. स्वामित्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी छ वृद्धियाँ और पाँच हानियाँ किसके होती हैं ? किसी एक मिध्यादृष्टि जीवके होती हैं । अनन्तगुणहानि और अवस्थिति किसके होती है ? अन्यतर सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होती हैं। इसीप्रकार चारों गतियोंमें कथन करना चाहिए । किन्तु कुछ विशेषता है जो इसप्रकार हैपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमे छ वृद्धियाँ छ हानियाँ और अवस्थिति किसके होती हैं ? किसी भी मिध्यादृष्टिके होती हैं। नतसे लेकर नवत्रैत्रेयक पर्यन्त अनन्तहानि और अवस्थिति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिध्यादृष्टिके होती है । अनुदिशसे लेकर सत्रार्थसिद्धि तक के देवों अनन्तगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ?
२. ता० प्रा० प्रत्योः छहाणोश्रो
१. ता० प्रती मोहणीयस्स अस्थि छवड्डीश्रो इति पाठः ।
इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ दूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं सामित्ताणुगमो समत्तो । ६ १७२. कालाणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० पंचवड्डी. केवचिरं कालादो होति ? जह० एगसमओ, उक्क० श्रावलि० असंखे०भागो। अणंतगुणवडि-हाणिओ केव० ? ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । पंचहाणिकालो जहण्णुकस्सेण एगसमओ। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं ।
६ १७३. आदेसेण गेरइएमु मोह० पंचवड्डी केवचिरं कालादो होति ? ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणंतगुणवडी ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। छहाणी० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा । एवं तिरिक्खेसु । णवरि किसी भी सम्यग्दृष्टिके होते हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए। .
विशेषार्थ-ओघसे मोहनीयके अनुभागसत्कर्ममें छहों वृद्धियाँ और पाँचों हानियाँ मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं किन्तु अनन्तगुणहानि और अवस्थान सम्यग्दृष्टिके भी होते हैं और मिथ्यादृष्टिके भी होते हैं। आदेशसे चारों गतियोंमें भी यही व्यवस्था है। किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्त कि मिथ्या दृष्टि ही होते हैं, अत: उनमे मिथ्यादृष्टिक ही सब वृद्धियाँ, सब हानियाँ और अवस्थान होते हैं । तथा आनतादिकमे अनन्तगुणहानि और अवस्थान ही होते हैं और आनतसे लेकर नववेयक पर्यन्त मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्दृष्टि भी होते हैं, अतः अनन्तगुणहानि और अवस्थान दोनोंके ही होते हैं। किन्तु अनुदिशादिकमे' सव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अत: अनन्तगुणहानि और अवस्थान सम्यग्दृष्टिके ही होते हैं।
इसप्रकार स्वामित्वानुगम समाप्त हुआ। १७२. कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और श्रादेश। ओघसे एक जीवकं मोहनीयकी पाँचों वृद्धियांका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। पाँच हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एकसौ त्रेसठ सागर है।
। १७३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी पाँचों वृद्धियोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमे जानना चाहिए ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए वड्डीए कालो अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णिपलिदो० सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खचउक्कस्स ? णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहु । मणुसतिएसु ओघभंगो । णवरि अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णिपलिदो० पुव्वकोडितिभागेण सादिरेयाणि । मणुस्सिणीसु अंतोमुहत्तेण सादिरेयाणि । मणुसअपज्ज. पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तभंगो। देव. भवणादि जाव सहस्सारो त्ति णेरइयभंगो। णवरि अवहि. सगसगुक्कस्सहिदी। भवण-वाण०-जोदिसि० देसूणा । आणदादि जाव सव्वहसिदि त्ति अणंतगुणहाणी जहण्णुक० एगस० । अवहि० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगसगुक्कस्सदिही । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___ एवं कालाणुगमो समतो।
APNA
इतनी विशेषता है कि अवस्थानका जघन्य काल एक समय है और उत्कष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें ओघके समान भंग है । किन्तु इतनी विशेषता है कि अवस्थितिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है। तथा मनुष्यिनियोंमें अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है। सामान्य देव व भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अवस्थानका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। किन्तु भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमे अवस्थानका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थानका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे एक जीवके पाँचों वृद्धियाँ कमसे कम एक समय तक होती हैं और .. अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग कालतक होती हैं। तथा अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानि कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक होती हैं। शेष पाँच हानियाँ एक समय तक ही होती हैं । अवस्थानका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल एक सौ त्रेसठ सागर और पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। इसके सम्बन्धमे भुजगार विभक्तिमें एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हुए लिख आये हैं। आदेशसे भी चारों गतियोंमें छहों वृद्धियों और छहों हानियोंका काल अोधके समान है। किन्तु नरकगति, तिर्यञ्चगति और देवगतिमें अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अन्तमुहूर्त काल तक अनन्तगुणहानि केवल चारित्रमोहकी क्षपणामे ही संभव है और उसका इन गतियोंमे अभाव है। अवस्थानका जघन्य काल तो आनतादिकके सिवा सर्वत्र एक ही समय है, केवल उत्कृष्ट काल पृथक पृथक है और उसका स्पष्टीकरण भुजगारविभक्तिके कालानुगममें कर दिया गया है । इस प्रकार मूलमें कही गई विशेषताको ध्यानमें रखकर चारों गतियोंमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $ १७४. अंतराणु० दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० पंचवडि-पंचहाणीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० असं
खेज्जा लोगा। अणंतगुणवडीए अंतरं ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अणंतगुणहाणीए अंतरं केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०।
१७५. आदेसेण णेरइएसु छवडि-हाणीणमंतर केव० ? ज० एगसमओ अतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा । तिरिक्खेसु पंचवडि-पंचहाणीणमंतरं काल जान लेना चाहिए। आगे अनाहारक मार्गणा तक इसी प्रकार कालका विचार कर लेना चाहिए।
इस प्रकार कालानुगम समाप्त हुआ। 5 १७४. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी पाँचों वृद्धियों और पाँचों हानियोंका अन्तरकाल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अनन्तगुणहानिका अन्तरकाल कितना है। जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है । अवस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है।
विशेषार्थ ओघसे पाचो वृद्धियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और पाचों हानियों का अन्तमुहूर्त है, क्योकि अनुभागकी हानि जिन परिणामोंसे होती है वे परिणाम तुरन्त ही नहीं होजाते। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोक है; क्योंकि इतने कालके लिये सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायमें चले जाने पर उक्त वृद्धियाँ हानियाँ वहाँ नहीं होती। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तरकाल एक समय होता है और उत्कृष्ट अन्तरकाल तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है, क्योंकि तीन पल्यके लिये भोगभूमिमे, बीचमे सम्यमिथ्यात्वके साथ रहकर छियासठ छियासठ सागर तक दो बार वेदकसम्यक्त्वमें और अन्तमे ३१ सागरके लिये ग्रैवेयकमें चले जाने पर उतने काल तक अनन्तगुणवृद्धि नहीं हो यह सम्भव है । अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर होता है। अधिकसे अधिक उतने काल तक अवस्थितविभक्तिके हो जानेसे अनन्तगुणहानिमें अन्तर पड़ जाता है। अवस्थितका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर पूर्ववत् जानना चाहिए।
१७५. आदेशसे नारकियोंमें छ वृद्धियों और छ हानियोंका अन्तर काल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय तथा हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थानका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चोंमें पाँच वृद्धियों और
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PuruNIIMa
गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं
११७ केव० १ ज० एगस० अतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अणंतगुणवड्डीए अंतरं केव० १ ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणंतगुणहाणीए अंतरं केव० ? जह० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । अवढि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि छवड्डि-पंचहाणीणमंतरं केव० चिरं० ? ज० एगस० अंतो०, उक्क० पुव्वकोडि० पुधत्तं । अणंतगुणहाणीए अंतरं केव० ? ज. अंतोमु०, उक्क० तिएिण पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०--मणुसअपज्ज. छवढि०-अवढि० ज० एगस०, छहाणीणमंतरं ज० अतोमु०, उक्क० सव्वेसि अंतोमुहुत्तं । मणुस्सतियाणं पंचिं०तिरिक्खतियभंगो । णवरि अणंतगुणवड्डीए अंतरं ज. एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा ।
$ १७६. देवेसु छवडि-पंचहाणीणमंतरं केव० ? ज. एगस० अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरोवमाणि सादिरेयाणि । अणंतगुणहाणीए अंतरं केव० ? ज० अंतोमु०, पाँव हानियोंका अन्तर काल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनन्तगुणहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थानका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्यात और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी जीवोंमें छह वृद्धियों और पाँच हानियों का अन्तरकाल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनन्तगुणहानिका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकोंमें छह वृद्धियों और अवस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, छह हानियोंका जघन्य अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहर्त है। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियोंके समान भंग जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है।
विशेषार्थ आदेशसे गतिमार्गणामें वृद्धि, हानि और अवस्थानका अन्तर भुजगार विभक्तिमं कहे गये भुजगार, अल्पतर और अवस्थानविभक्तिके अन्तरकालकी ही तरह विचारकर जान लेना चाहिये । विशेष इतना है कि तिर्यञ्चोंमें पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है जैसा कि पहले ओघसे बतलाया है।
६ १७६. देवोंमे छह वृद्धियों और पाँच हानियोंका अन्तरकाल कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अट्ठारह सागर है। अनन्तगुणहानिका अन्तर कितना है ? जघन्य
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धवलास हिदे कसा पाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४ उक्क० एकतीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अवद्वि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । भवणादि जाव सहस्सारो त्ति छवड्डि-छहाणीणमंतर केव० ? ज० एस० अंतोमु०, उक्क० afrat सूणा | अवडि० ज० एस ०, उक्क० अंतोमु० । आणदादि जाव णववज्जातिगुणहाणि० जह० तोमु०, उक० सगहिदी देसुणा । अवद्वि० जहएक० एस० । अणुद्दिस्सादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति अनंतगुणहाणि० जहएणुक० तोमु० | अवद्वि० जहरपुक्क० एस० । एवं जाणिण णेदव्वं जाव अणाहारिति । एवमंतराणुगमो समत्तो ।
$ १७७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण । ओघेण छवडि-दहाणि -- अवहिदाणि णियमा अत्थि । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएस्रु अनंतगुणवड्डि- - अवडि० णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा । भंगा १७७१४७ एत्तिया वत्तव्वा । एवं सव्वणेरइय- सव्वपंचिंदियतिरिक्ख मणुस्सतियदेव० भवणादि जाव सहस्सारो ति । मणुस्स पज्ज० सव्वपदा भयणिज्जा । भंगा एत्थ एत्तिया होंति १५६४३२२ | आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति अवधि ० णियमा
अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । अवस्थानका जघन्य अन्तर काल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । भवनवासीसे लेकर सहस्रार कल्पपर्यन्त छ वृद्धियों और छहानियोंका अन्तर कितना है ? वृद्धियोंका जघन्य अन्तर एक समय और हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्थानका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तमुहूर्त है । स्वर्गसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । अवस्था जघन्य जौर उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवों में अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ - पहले जो ओघ और आदेशसे खुलासा किया है और स्वामित्व बतलाया है उसे देखकर यहाँ अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिए ।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ ।
१७७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे छ वृद्धियाँ, छ हानियाँ और अवस्थिति नियमसे होती हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यभ्वोंमें जानना चाहिए । आदेरासे नारकियों में अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थिति नियमसे होती हैं। शेष वृद्धियाँ और हानियाँ भजनीय हैं। उनके भंग १७७१४७ इतने कहने चाहिए । इसीप्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, सामान्य देव .और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना जाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकों में सभी पद भजनीय हैं। यहाँ उनके भंग १५९४३२२ होते हैं। नत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए णाणाजीवेहि भंगविचओ अस्थि । अणंतगुणहाणि भयणिज्जा । सियो एदे च अणंतगुणहाणिविहत्ति यो च । सिया एदे च अणंतगुणहाणिविहत्तिया च । धुवभंगे पक्वित्ते तिरिण भंगा। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो । देवोंमें अवस्थिति नियमसे होती है। अनन्तगुणहानि भजनीय है। कदाचित् अनेक जीव अवस्थितवाले और एक जीव अनन्तगुणहानि विभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव अवस्थितवाले और अनेक जीव अनन्तगुणहानिविभक्तिवाले होते हैं। इसप्रकार इन दो भागोंमें ध्रुवभङ्गके मिलानेसे तीन भङ्ग होते हैं । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-ओघसे सब वृद्धि, सब हानि और अवस्थितविभक्तिवाले नाना जीव हैं। इसलिए वहाँ कोई पद भजनीय नहीं कहा है । इसी प्रकार आदेशसे सामान्य तिर्यञ्चोंमें ६ वृद्धिवाले, ६ हानिवाले और अवस्थानवाले जीव नियमसे पाये जाते हैं। नारकियोंमें अनन्तगुणवृद्धिवाले और अवस्थानवाले जीव तो नियमसे रहते हैं, शेष पदवाले जीव कदाचित् पाये जाते हैं और कदाचित् नहीं पाये जाते। उनके भंग १७७१४७ होते हैं जो इस प्रकार हैं- यहाँ पर ध्रुवपद एक है और अध्रुवपद ग्यारह हैं, क्योकि पाँच वृद्धिवाले और छह हानिवाले जीव विकल्पसे पाये जाते हैं। इन ग्यारह अध्रुवपदोंके विकल्प निकालनेके लिये ११,
,१८,९,८, ७,
लय १, २, ३, ४, ५, ६, ५, ४, ३, २. .१, इस प्रकार स्थापन करके नीचे स्थित १ अंक से ऊपर स्थित ११ के अंकमें ६, ७, ८, ९, १०, ११, २० भाग देने पर एक संयोगी ग्यारह प्रस्तार शलाकाएँ आती हैं। इसी प्रकार ऊपरके ग्यारह और दस अंकको परस्परमें गुणित करनेसे जो लब्ध आये उसमें नीचेके एक और दो अङ्कोंके गुणनफलसे भाग देने पर दो संयोगी प्रस्तार शलाकाएँ आती हैं। इसी प्रकार करते जाने पर प्रस्तार शलाकाओंका प्रमाण क्रमसे ११, ५५, १६५, ३३०, ४६२, ४६२, ३३०, १६५, ५५, ११, १ होता है। इनमें एक संयोगी विकल्पोंको २ से गुणा करना चाहिये, क्योंकि एक संयोगमेंकदाचित् अमुक हानि या वद्धिवाला एक जीव पाया जाता है और कदाचित् अनेक जीव पाये जाते हैं-ये दो ही भंग होते हैं। दो संयोगी प्रस्तार विकल्पोंको ४ से गुणा करना चाहिये, क्योंकि आगे आगे गुणकारका प्रमाण दुगना दुगुना होता जाता है। अत: पूर्वोक्त प्रस्तार विकल्पोंके २, ४, ८, १६, ३२, ६४, १२८, २५६, ५१२ १०२४, २०४८ गुणकार होते हैं। अपने अपने गण्य से अपने अपने गुणकारको गुणा करके जोड़ देने पर सब भंगोंका प्रमाण १७७१४६ होता है। इसमें एक ध्रुवभंगके जोड़ देनेसे कुल भंगोंकी संख्या १७७१४७ होती है। मनुष्य पिसीको
१३, १२, ११, १०, ९, ८,७, ६, ५, ४, ३, है। पद विपत होत अस. १, २, ३, ४, ५, ६, ७, ८, ९, १०, ११, इस प्रकार संदृष्टि स्थापित करके ऊपर लिखे क्रमानुसार प्रस्तार शलाकाओंको उत्पन्न करके और फिर उन्हें २, ४ आदि दुगुने दुगुने गुणकारोंसे गुणा करके सबको जोड़ देने पर १५९४३२२ भंग होते हैं। श्रानत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक अवस्थितवाले जीव नियमसे होते हैं और अनन्तगुणहानिवाले जीव विकल्पसे होते हैं, अत: २ अध्रुव भंग और एक ध्रुव भंग इस तरह कुल तीन भंग होते हैं।
इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयानुगम समाप्त हुआ। १. प्रा. प्रतौ णियमा अस्थि सिया इति पाठः।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
$ १७८. भागाभागाणु० दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० पंचवड हा णिविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखे० भागो । अनंतगुणवड्डिविहत्ति ० संखे० भागो । अबडि ० संखेज्जा भागा। एवं सव्वणेरइय--सव्वतिरिक्ख-मणुस्स मणुस अपज्ज०-देव-भवणादि जाव सहस्सारो ति । मणुस्सपज्जत्त- मणुस्सिणिसु छवट्टि - कहाणिविहत्ति० सव्वजीवाणं केव० ? संखे० भागो । अवहि० संखेज्जा भागा । दादि जाव वराइदं ति अनंतगुणहाणि० सव्वजी० के० असंखे ० भागों । अवट्टि • असंखेज्जा भागा। सव्व अनंतगुणहाणि सव्वजी० संखे० भागो । अवद्वि० संखेज्जा भागा । एवं जाणिदूण दव्वं जाव णाहारिति ।
०
एवं भागाभागागमो समत्तो ।
१२०
$ १७६. परिमाणाणु० दुविहो गिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह ० छवडि-छहाणि-अवद्विदविहत्तिया दव्वपमाणेण केवडिया ? अनंता । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण रइसु सव्वपदा असंखेज्जा । एवं सव्वणेरइय- सव्वपंचिदियतिरिक्ख-मनुस्समणुस्स अपज्ज० -देव-भवणादि० जाव सहस्सारो ति । मणुसपज्ज० - मणुस्सिणीसु सव्वपदा संखेज्जा | आणदादि जाव वराइदं ति दोपदा असंखेज्जा । सव्वह दोपदा संखेज्जा ।
६ १७८. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | घसे मोहनीय कर्म की पाँच वृद्धि और छह हानिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग हैं। अनन्तगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके संख्यातवें भाग हैं । अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभाग हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव, और भवनवासीसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तक के देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्त और मनुष्यिनियों में छह वृद्धि और छह हानिविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भाग हैं ? संख्यातवें भाग हैं । अवस्थितविभक्तिव ले जीव सब जीवोंके संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में अनन्तगुरणाहानिविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? असंख्यातवें भाग है । अवस्थितविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सर्वार्थसिद्धि में अनन्तगुणहानिविभक्तिले जीव सब जीवोंके संख्यातवें भाग हैं । अवस्थितविभक्तिवाले संख्यात बहुभागप्रमारण हैं । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
इस प्रकार भागाभागानुगम समाप्त हुआ ।
$ १७९. परिमाणानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-- ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीयकी छह वृद्धि, छह हानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव द्रव्य प्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्वों में जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें सब विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तक के देवोंमें जानाना चाहिए। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियों में सब विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । नत स्वर्ग से लेकर अपराजित विमान तक के देवोंमें अनन्तगुणहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए वड्डीए पोसणं एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं परिमाणाणुगमो समत्तो । $ १८०. खेताणुगमेण दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० सव्वपदविहत्तिया केवडि० खेले ? सव्वलोगे। एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण रइयादि जाव सबसिद्धि ति मोहणीयस्स अप्पप्पणो सव्वपदा केव० ? लोगस्स असंखे०भागे। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं खेत्ताणुगमो समत्तो। १८१. पोसणाणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह. सवपदाणं खेत्तभंगो । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएमु सव्वपदेहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे भागो छचोदसभागा वा देणा। पढमपुढवि० खेत्तभंगो । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सगपोसणं कायव्वं । सव्वपंचिंदियतिरिक्रव-सव्वमणुस्साणं सव्वपदविहत्तिएहि केव० खे० पो० १ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । देवेसु सव्वपदवि० केव० खेत्तं पोसिदं ? लोग. असंखे भागो अह-णवचोदसभागा वा देसूणा । एवं सव्वदेवाणं । गवरि सगपोसणं जाणिदूण णेयव्वं । एवं णेदव्वं जाव सर्वार्थसिद्धिमें अनन्तगुणहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
इस प्रकार परिमाणानुगम समाप्त हुआ। ६ १८०. क्षेत्रानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे माहनीयकी सब पद विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्र में हैं ? सर्वलोकमें हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंके जानना चाहिए। आदेशसे नारकीसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मोहनीयकी अपनी अपनी सब विभक्तिवाले जीव कितने क्षेत्रमें हैं ? लोकके असंख्यातवें भाग क्षेत्र में हैं। इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
__इसप्रकार क्षेत्रानुगम समाप्त हुआ। १८१. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश। ओघसे मोहनीयकी सब पद विभक्तियोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । आदेशसे नारकियोंमें सब पद विभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्र के समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त अपने अपने स्पर्शनके समान कथन करना चाहिये। सब पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें सब पद विभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और सर्वलोकका स्पर्शन किया है। देवोंमें सब पद विभक्तिवालोंने कितने क्षेत्र का स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह भागोंमें से कुछ कम पाठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। किन्तु अपने अपने स्पर्शन का
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ अणाहारए ति।
एवं पोसणाणुगमो समतो। $ १८२. कालाणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० सव्वपदवि. केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण रइएसु अणंतगुणवडि०--अवहि विहत्ति० केव० ? सव्वद्धा । सेसपदवि० ज० एगस०, उक०
आवलि. असंखे०भागो । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि मणुस्सेसु अणंतगुणहाणिविहत्तियाणं ज० एगस०, उक्क० अतोमु० । मणुसपज्ज०-मणुसिणी. पंचवडि० जह० एगस०, उक्क. आवलि असंखे०जानकर उसे घटित करना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघ से छहों हानि, छहों वृद्धि और अवस्थानवाले जीवोंने सर्वलोकका स्पशन किया है। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। सामान्य नारकियोंमें सब विभक्तिवाले जीवोंने संभव पदोंके द्वारा वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है और अतीत कालमें मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पशन किया है और संभव शेष पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है। पहले नरकके नारकियोंने लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है तथा दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंने वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भागका और अतीत कालमें मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा क्रमसे कुछ कम एक बटे चौदह, कुछ कम दो बटे चौदह, कुछ कम तीन बटे चौदह, कुछ कम चार बटे चौदह, कुछ कम पाँच बटे चौदह और कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। संभव शेष पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है । सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंमें सब विभक्तिवाले जीवोंने अतीत कालमें मारणान
और उपपादके द्वारा सर्व लोकका स्पर्शन किया है और संभव शेष पदोंके द्वारा अतीत कालमें तथा वर्तमान कालमें लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है। देवोंमें सब विभक्तिवाले जीवोंने वर्तमानमें लोकके असंख्यातवें भागका तथा अतीत कालमें विहारवत्स्वथान, वेदना, कषाय और विक्रिया पदके द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह और मारणान्तिक पदके द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इस प्रकार इस स्पर्शनको जानकर यहाँ स्पर्शन यथायोग्य घटित कर लेना चाहिए । तथा अन्य मार्गणाओंमें भी वह जान लेना चाहिए ।
इस प्रकार स्पर्शनानुगम समाप्त हुआ। ६ १८२. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। आपसे मोहनीयकी सब पद विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सब काल है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है। शेष पद विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है
और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी.सब पञ्चेन्द्रिय. तिर्यञ्च, मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतनी विशेषता है कि मनुष्योंमें अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें पांचों वृद्धि विभक्तिवालोंका जघन्य
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं
१२३ भागो। पंचहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया। अणंतगुणवडि०--अवहि. सव्वद्धा । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अतोमुहुत्तं । मणुसअपज्ज० णारयभंगो । णवरि अणंतगुणवडि०-अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आणदादि जाव अवराइदो ति अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक० आवलि० असंखे०भागो। अवहि० सव्वद्धा। सव्व अर्णतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अवहि० सव्वद्धा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए त्ति ।
एवं कालाणुगमो समत्तो । १८३. अंतराणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघे० मोह० तेरसपदाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण गेरइएमु पंचवड्डि-पंचहाणी० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणंतगुणवडि--अवहि० णत्थि अंतरं । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक० अंतोमु० । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुस्सतिय--देव-भवणादि जाव सहस्सारो ति । मणुसअपज्ज. मणुस्सोघं । णवरि अणंतगुणवडि-अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। आणदादि [जाव] काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। पांच हानिविभक्तिवालो का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अनन्तगुणवद्धि और अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें नारकियों के समान भंग जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्तिवालो का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। सर्वार्थसिद्धिमें अनन्तगुणहानिविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थितविभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
इस प्रकार नाना जीवों की अपेक्षा कालानुगम समाप्त हुआ। ( १८३. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके तेरह पदोंका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्ति का अन्तर काल नहीं है । अनन्तगुणहानिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च,सामान्य मनुष्य,मनुष्यपर्याप्त,मनुष्यिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवो में जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सामान्य मनुष्यों के समान भंग है। इतनी विशेषता है कि अनन्तगुणवृद्धिविभक्ति और अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग
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१२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ गवगेवजा त्ति अणंतगुणहाणी० ज० एगस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । अवहि० णत्थि अंतरं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अणंतगुणहाणी० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो। अवहि० णत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
एवमंतराणुगमो समत्तो। १८४. भाव० सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
६ १८५. अप्पाबहुआणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण सव्वत्थोवा मोह० अणंतभागहाणिविहत्तिया जीवा । असंखेज्जभागहाणि० जीवा असंखेगुणा । संखेज्जभागहाणि जीवा संखे०गुणा। संखे० गुणहाणि० जीवा संखे०गुणा । असंखे०गुणहाणि. जीवा असंखे०गुणा । अणंतभागवड्डि. जीवा असंखे० गुणा०। असंखे०भागवडि. जीवा असंखे०गुणा। संखे०भागवडि. जीवा संखेगुणा। संखेज्जगुणवडि. जीवा संखे०गुणा । असंखे-गुणवडि०जीवा असंखेगुणा । अणंतगुणहाणिवि० जीवा असंखे०गुणा। अणंतगुणवडिवि० जीवा असंखे०गुणा । अवहिदवि० प्रमाण है। अानतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवों में अनन्तगुणहानिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रातदिन है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अनन्तगुणहानिविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अनुदिशसे अपराजित तकके देवोंमें वर्षपृथक्त्व और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-नाना जीवोंकी अपेक्षा काल बतलाते हुए जिन विभक्तिवालोंका काल सर्वदा बतलाया है उनमें अन्तरकाल नहीं है, क्योंकि वे सदा पाये जाते हैं, शेषमें अन्तर है । अपर्याप्त मनुष्योंमें अनन्तगुणवद्धि और अवस्थानका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उतना ही बतलाया है जितना मनुष्य अपर्याप्तक मार्गणाका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहा है। इसी प्रकार अन्यमें भी समझ लेना चाहिये।
इस प्रकार अन्तरानुगम समाप्त हुआ। 8 १८४. भावानुगम की अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव होता है।
६१८५. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - आंघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अनन्तभागहानिविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । असंख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । संख्यातभागहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। संख्यातगुणहानिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणहानिवाले जीव असं. ख्यातगुणे हैं । अनन्तभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । असंख्यातभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुण हैं । संख्यातभागवृद्धिविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। असंख्यातगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तगुणहानिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तगुणवृद्धिविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अवस्थितविभक्तिवाले
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अप्पाबहुअं
१२५ जीवा संखे०गुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज्ज०--देव जाव सहस्सारो त्ति । मणुस्सपज्ज०-मणुस्सिणीसु एवं चेव । णवरि जम्हि असंखेज्जगुणं तम्हि संखेज्जगुणं कायव्वं । आणदादि जाव अवराइदो त्ति सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिवि. जीवा । अवद्विदवि० जीवा असंखे०गुणा । एवं सव्व । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवं वढिविहत्ती समत्ता। १८६. ठाणपरूवणाए तिण्णि अणियोगद्दाराणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि। तत्थ परूवणावुच्चदे। तं जहा-एत्थ अणुभागहाणाणि बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तियहदहदसमुप्पत्तियअणुभागहाणभेदेण तिविहाणि होति। तेसिं तिविहाणं पिअणुभागहाणाणं जं लक्षणपदुप्पायणं सा परूवणा णाम । तत्थ हदसमुप्पत्तियं कादूणच्छिदसुहमणिगोदजहण्णाणुभागसंतहाणसमाणबंधहाणमादि कादण जाव सण्णिपंचिंदियपज्जत्तसव्वुक्कस्साणुभागबंधहाणे त्ति ताव एदाणि असंखे०लोगमेत्तछहाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणाणि ति भण्णंति, बंधेण समुप्पण्णतादो । अणुभागसंतहाणघादेण जमुप्पण्णमणुभागसंतहाणं तं पि एत्थ बंधहाणमिदि घेत्तव्वं, बंधहाणसमाणत्तादो ! पुणो एदेसिमसंखे०लोगमेत्तछट्टाणाणं मज्झे अणंतगुणवडि-अणंतगुणहाणिअकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे०लोगजीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पयाप्त और मनुष्यनियोंम इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि जिस विभक्तिमें असंख्यातगुणा कहा है उसमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । आनतसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें अनन्त गुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार सार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उसमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
इस प्रकार वृद्धिविभक्ति समाप्त हुई। 5 १८६. स्थान प्ररूपणामें तीन अनुयोगद्वार हैं- प्ररूपणा, प्रमाण और अल्प बहुत्व । उनमेंसे प्ररूपणाको कहते हैं। वह इस प्रकार है-इस प्रकरणमें बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिकके भेदसे अनुभागस्थान तीन प्रकारके होते हैं। इन तीनों ही प्रकारके अनुभागस्थानोंका जो लक्षण कहना सो प्ररूपणा है। उनमेंसे हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मको करके स्थित हुए सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य अनुभागसत्त्वस्थानके समान बन्धस्थानसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान पर्यन्त जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं, क्योंकि वे स्थान बन्ध से उत्पन्न होते हैं । अनुभागसत्त्वस्थानके घातसे जो अनुभागसत्त्वस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें भी यहां बन्धस्थान ही मानना चाहिये, क्योंकि वे बन्धस्थानके समान हैं। आशय यह है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवसे लेकर संज्ञी पञ्चन्द्रिय पयाप्त जीव पर्यन्त छ प्रकार की हानि-वृद्धियों को लिये हुए जो अनुभागबन्धस्थान होते हैं वे बन्धसमुत्पतिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मेत छहाणाणि हदसमुप्पत्तियसंतकम्मछटाणाणि भण्णंति । बंधहाणघादेण बंधहाणाणं विच्चालेसु जच्चंतरभावेण उप्पण्णत्तादो। पुणो एदेसिमसंखे०लोगमेत्ताणं हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमणंतगुणवड्डि-हाणिअदृकुव्वंकाणं विच्चालेसु असंखे०लोगमेच्छहाणाणि हदहदसमुप्पत्तियत्तिकम्महाणाणि वुच्चंति, घादेणुप्पण्णअणुभागहाणाणि बंधाणुभागहाणेहिंतो विसरिसाणि घादिय बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पचियअणुभागहाणेहितो विसरिसभावेण उप्पाइदत्तादो। कमेक्कादो जीवदव्वादो अणेयाणमणुभागहाणकजाणं समुब्भवो ? ण, अणुभागबंध-घाद-घादघादहेदुपरिणामसंजोएण णाणाकजाणमुष्पचीए विरोहाभावादो। एदेसि तिविहाणमवि अणुभागहाणाणं जहा वेयणभावविहाणे परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा ।
एवं परूवणा समत्ता।
NARAN
स्थान कहलाते हैं, क्योंकि जो स्थान बन्धसे उत्पन्न हो वह बन्धसमुत्पत्तिक है। किन्तु पहले बँधे हुए कुछ अनुभागस्थानोंमें रसघात आदि होनेसे भी नवीनता आ जाती है किन्तु वे बन्धस्थानके समान होते हैं, अत: उन स्थानोंको भी बन्धस्थानमें ही सम्मिलित किया जाता है । सारांश यह है कि बंधनेवाले स्थानों को ही बन्धसमुत्पतिकस्थान नहीं कहते किन्तु पूर्वबद्ध अनुभागस्थानोंमें भी रसघात होनेसे परिवर्तन होकर समानता रहती है तो वे स्थान भी बन्ध स्थान ही कहे जाते हैं। इन असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंके मध्यमें अष्टांक और उर्वक रूप जो अनन्तगुणवृद्धियाँ और अनन्तगुणहानियां हैं उनके मध्यमें जो असंख्यातलोकप्रमाण षट्स्थान हैं उन्हें हतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं, क्योंकि बन्धस्थान का घात होनेसे बन्धस्थानोंके बीचमें ये जात्यन्तररूपसे उत्पन्न होते हैं। इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पतिक सत्कर्मस्थानोंके, जो कि अष्टांक और उर्वकरूप अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगणहानि रूप हैं, बीचमें जो असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थान है उ हे हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं । बन्धस्थानोंसे विलक्षण जो अनुभागस्थान रसघातसे उत्पन्न हुए हैं उनका घात करके उत्पन्न हुए ये स्थान बन्धसमुत्पत्तिक और हतसमुत्पत्तिक अनुभागस्थानोंसे विलक्षणरूपसे ही वे उत्पन्न किये जाते हैं।
शंका-एक जीवद्रव्यसे अनेक अनुभागस्थानरूप कार्यो की उत्पत्ति कैसे होती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागबन्ध, अनुभागका घात और उस घातितके भी पुन: घातके कारण भूत परिणामोंके संयोगसे एक जीवद्रव्यसे नाना कार्यों की उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है।
इन तीनों ही प्रकारके अनुभागस्थानोंका जैसा कथन वेदनाभावविधानमें किया है वैसा यहां भी कर लेना चाहिये ।
विशेषार्थ-स्थान प्ररूपणामें तीन अनुयोगोंके द्वारा अनुभागस्थानका कथन किया है। अनुभागस्थान तीन हैं -बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक । जो अनुभागस्थान बन्धसे होते हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिक कहते हैं। सूक्ष्म निगोदिया जीवके जो जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है उसके समान जो बन्धस्थान होता है वह जघन्य बन्धसमुत्पत्तिक
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुगाणुगमो $ १८७. संपहि पमाणं वुच्चदे। तं जहा–बंधसमुप्पत्तिय-हदसमुप्पत्तिय-हदहदसमुप्पत्तियहाणाणं तिण्हं पि पमाणमसंखेज्जा लोगा। कुदो ? तक्करणपरिणामाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तादो।
___ एवं पमाणाणुगमो समत्तो। * अप्पाबहुगाणुगमं वत्तहस्सामो ।
( १८८ तं जहा-सव्वत्थोवाणि मोहबंधसमुप्पत्तियहाणाणि । हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणि असंखे० गुणाणि । कुदो ? असंखेज्जलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियछटाणाणमहकुव्वंकाणं विच्चालेसु पुध पुध असंखे लोगमेतहदसमुप्पत्तियसंतकम्मछटाणाणमुप्पस्थान कहलाता है और संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके जो सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान होता है वह उत्कृष्ट बन्धसमुत्पत्तिक स्थान होता है। जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट पर्यन्त इन बन्धसमुत्पत्तिक स्थानों की संख्या असंख्यात लोकप्रमाण है। सत्तामें स्थित अनुभागका घात कर देनेसे जो अनुभागस्थान होते हैं उनमेंसे भी कुछ स्थान बन्धस्थान ही कहे जाते हैं, क्योंकि उन स्थानोंमें जो अनुभाग पाया जाता है वह अनुभाग बध्यमान अनुभागस्थानके समान होता है। किन्तु जो अनुभाग स्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं-बन्धसे नहीं होते, और जिनका अनुभाग बन्धसमुत्पत्तिकस्थानों से भिन्न होता है उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं। ये हतसमुत्पत्तिकस्थान अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिरूप बन्धसमुत्पत्तिक असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंमें ऊर्वक और अष्टांकके बीचमें उत्पन्न होते हैं और इनका प्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे असंख्यातगुणा होकर भी असंख्यात लोकप्रमाण ही है। अनन्तगुणवृद्धि और अनन्तगुणहानिरूप इन असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंमें ऊर्वंक और अष्टांकके बीचमें अनुभागका पुन: पुन: घात करनेसे जो अनुभागस्थान होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं। पूर्ववत् इनका प्रमाण हतसमुत्पत्तिक स्थानोंसे असंख्यातगुणा होकर भी असंख्यात लोकप्रमाण ही है। षट्खण्डागमके वेदनाखण्ड में वेदनाभावविधान नामका एक प्रकरण है उसमें इन अनुभागस्थानोंका विस्तारसे वर्णन किया है। तथा इस ग्रन्थके इस अनुभागविभक्ति नामक प्रकरणके अन्तमें भी वही वर्णन अक्षरशः किया गया है, अत: इसका विशेष स्पष्टीकरण वहाँसे जान लेना चाहिए।
इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई। १८७. अब प्रमाणको कहते हैं। वह इस प्रकार है-बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक इन तीनों ही स्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोक है, क्योंकि उनके कारणभूत परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं ।
इस प्रकार प्रमाणानुगम समाप्त हुआ। * अब अल्पबहुत्वानुगमको कहेंगे।
६१८८. वह इस प्रकार है-मोहनीयके बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं । इनसे हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं क्योंकि अष्टांक और उर्वकरूप असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक षट्स्थानों के बीचमें पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है।
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१२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
तदो । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । हदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणाणि असंखेज्ज - गुणाणि । कुदो ? असंखेज्जलोग मेत्त हदसमुप्पत्ति यळवाणाणमह कुव्वंकाणं विचालेसु पुध पुध असंखेज्जलोगमेत्तहद हदसमुप्पत्तियसंतकम्महाणाणमुप्पत्तदो । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । एवं तदिय - चउत्थ-पंचमादिवारसमुप्पण्णहद हदसमुप्पत्तियसंतकम्मगाणं पितरमिहदहदसमुप्पत्तियसंतकम्मट्ठाणेहिंतो अनंतरउवरिमाणमसंखेज्जगुणतं वत्तव्वं ।
एवं मूलपय डिअणुभागविहत्ती समत्ता ।
-१०:
शङ्का–यहाँ पर गुणकारका प्रमाण कितना है ?
समाधान - असंख्यात लोक । अर्थात् बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंसे हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातलोकगुणे हैं |
इनसे हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि अष्टांकसे लेकर उर्वकरूप असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पतिक षट्स्थानों के बीच में पृथक् पृथक् असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानों की उत्पत्ति होती है । यहाँ पर भी गुणकार असंख्यात लोक है । इस प्रकार तीसरे, चौथे, पाँचवें आदि वार उत्पन्न हतहत समुत्पत्तिकसत्कर्मस्थानोंमें भीतर पूर्व हतहतसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थानोंसे अनन्तर उत्तरवर्ती हतहतसमुत्पत्तिकसत्कर्म स्थान श्रसंख्यातगुणे कहने चाहिये ।
विशेषार्थ - मोहनीयकर्म के बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे हतसमुत्पत्तिक अनुभागसत्कर्मस्थान असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक एक बन्धस्थानके मध्य में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान उत्पन्न होते हैं, अत: जब बन्धस्थान असंख्यात लोकप्रमाण है और एक एक बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी षट्स्थानके अष्टांक और उर्वकके बीच में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं तो बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे घातस्थान या हतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणे सिद्ध होते हैं । इसीप्रकार असंख्यात लोकप्रमाण हृतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी षट्स्थानोंके अष्टांक और उर्वकों के अन्तरालोंमें से प्रत्येक अन्तराल में असंख्यात लोकप्रमाण हृतहृतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं, अतः हतसमुत्पत्तिकस्थान से हुतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका प्रमाण असंख्यात लोकगुणा होता है, इसलिये वे सबसे अधिक होते हैं ।
इस प्रकार मूलप्रकृतिअनुभागविभक्ति समाप्त हुई ।
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गा. २२]
अणुभागविहत्तीए फहयपरूवणा
उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती उत्तरपयडिअणुभागविहत्तिं वत्तइस्सामो। $ १८६. मोहणीयमूलपयडीए अवयवभूदमोहपयडीणमुत्तरपयडि ति ववएसो । तासिमुत्तरपयडीणमणुभागस्स विहत्तिं भेदं वत्तइस्सामो त्ति जइवसहाइरियपइज्जासुत्तमेदं । संपहि सव्वमोहुत्तरपयडीणमणुभागफद्दयाणं रयणाए अणवगयाए उवरिमअहियारा ण णव्वंति नि काउण फद्दयरयणपरूवणह-मुत्तरसु भणदि ।
ॐ पुव्वं गणिज्जा इमा परूवणा।
$ १६०. इमा भणिस्समाणफद्दयपरूवणा पढमं चेव णायव्वा, अण्णहा सव्वघादिदेसघादिएगहाण-विहाण-तिद्वाण-चउहाणादिअणुभागवियप्पाणं जाणावणोवायाभावादो।
* सम्मेत्तस्स पढमं देसघादिफद्दयमादि कादूण जाव चरिमदेसघादिफदगं त्ति एदाणि फयाणि ।
१६१. सम्मत्तस्स जं पढमं फद्दयं सव्वजहण्णं तं देसघादि चि जाणावण 'पढमं देसघादिफद्दयं इदि णिदिङ । समत्तस्स जं चरिमफद्दयं सव्वुकस्सं लदासमाणहाणं समुल्लंघिय दारुअसमाणहाणावहिदं तं पि देसघादि चि जाणावण 'चरिमदेसघादिफद्दयं त्ति' ति भणिदं । पढमदेसघादिफद्दयमादि कादण जाव चरिमदेसघादि
उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्ति * अब उत्तरप्रकृतिअनुभागविभक्तिको कहते हैं।
६१८९. मूल मोहनीयकमकी अवयवभूत मोहप्रकृतियोंकी उत्तरप्रकृति संज्ञा है। उन उत्तरप्रकृतियोंके अनुभागकी विभक्ति अर्थात् भेदोंको कहते हैं । इस प्रकार यह आचार्य यतिवृषभका प्रतिज्ञारूप सूत्र है। अर्थात् इस सूत्र के द्वारा आचार्य ने उत्तरप्रकृतिके भेदो को कहनेकी प्रतिज्ञा की है। अब मोहनीयकी सब उत्तर प्रकृतियों के अनुभागस्पर्धककोंकी रचनाके जाने बिना आगेके अधिकार नहीं जाने जा सकते ऐसा विचार करके स्पर्धकरचनाका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* पहले इस प्ररूपणाको जानना चाहिये।
१९८. अागे कही जानेवाली इस स्पर्धकप्ररूपणाको पहले ही जान लेना चाहिए, क्योंकि उसके जाने बिना अनुभागके सर्वघाती, देशघाती, एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक, चतु:स्थानिक आदि भेदोंके जाननेका कोई उपाय नहीं है।
* सम्यक्त्वप्रकृतिके प्रथम देशघातिस्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघातिस्पर्धक पर्यन्त ये स्पर्धक होते हैं।
$ १९१. सम्यक्त्वप्रकृतिका सबसे जघन्य जो पहला स्पर्धक है वह देशघाती है यह बतलानेके लिये प्रथम देशघातिस्पर्धक' ऐसा कहा है। सम्यक्त्वका सबसे उत्कृष्ट जो अन्तिम स्पर्धक है जो कि लताके समान स्थानका उल्लघन करके दारुसमान स्थानमें स्थित है। अर्थात् जा लतारूप न होकर दारुरूप है वह भी देशघाती है यह बतलानेके लिये 'अन्तिम देशघातिस्पर्धक ऐसा कहा है। प्रथम देशघाती स्पर्धकसे लेकर अन्तिम देशघाती स्पर्धक पर्यन्त ये सब सम्यक्त्वक
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عمر بھر میں بھی میری امی نے نی
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ फदगं ति एदागि सम्मत्तस्स फहयाणि होति त्ति घेत्तव्वं । लदासमाणजहण्णफद्दयमादि कादूण जाव देसघादिदारुअसमाणुकस्सफदयं ति हिदसम्मत्ताणुभागस्स कदो देसघादित्तं ? ण, सम्मत्तस्स एगदेसं घादेंताणं तदविरोहादो। को भागो सम्मत्तस्से तेण घाइज्जदि १ थिरत्तं णिक्कंक्वत्तं ।
* सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादिश्रादिफद्दयमादि कादूण दारुअसमापस्स अणंतभागे णिहिदं।
: १६२. सम्मत्तुकस्सफदयस्स अणंतरउवरिमफद्दयं तं सव्वघादि सम्मत्तुक्कस्सफदयादो अणंतगुणं, तप्पाओग्गछहाणगुणगारेसु पविठेसु उप्पण्णत्तादो । एवं फद्दयमादि काण जाव दारुसमाणस्स अणंतिमभागो त्ति एदम्हि अंतरे अवहिदं सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं । सम्मामिच्छत्तफहयाणं कुदो सव्वघादितं ? णिस्सेससम्मत्तघायणादो । ण च सम्मामिच्छत्ते सम्मत्तस्स गंधो वि अस्थि, मिच्छत्तस्पर्धक होते हैं ऐसा अर्थ यहाँ ग्रहण करना चाहिये।
शंका-लत रूप जघन्य स्पर्धकसे लेकर देशघाती दारुरूप उत्कृष्टस्पर्धक पर्यन्त स्थित सम्यक्त्वका अनुभाग देशघाती कैसे है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वप्रकृतिका अनुभाग सम्यग्दर्शनके एकदेशको घातता है. अत: उसके देशघाती होनेमें कोई विरोध नहीं है।
शंका-सम्यक्त्वके कौनसे भागका सम्यकप्रकृति द्वारा घात होता है ?
समाधान-उसकी स्थिरता और निष्कांक्षताका घात होता है। अर्थात् उसके द्वारा घाते जानेसे सम्यग्दर्शनका मूलसे विनाश तो नहीं होता किन्तु उसमें चल मलादिक दोष आ जाते हैं ।
विशेषार्थ-शक्तिकी अपेक्षासे कर्मोके अनुभागस्थानके चार विकल्प किये जाते हैं-- लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप। लताभाग और दारुका अनन्तवाँ भाग देशघाती कहलाता है और दारुका शेष बहुभाग तथा अस्थि और शैलरूप अनुभाग सर्वघाती कहा जाता है । सम्यक्त्व प्रकृतिके स्पर्धक लता भागसे लेकर दारुक अनन्तवें भाग तक होते हैं, क्योंकि यह देशघाती है और इसके देशघाती होनेका सबूत यह है कि यह सम्यक्त्वको नहीं घातती. क्योंकि इसके उदयमें वेदकसम्यक्त्व होता है।
सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका अनुभागसत्कर्म प्रथम सर्वघाती स्पर्धकसे लेकर दारुके अनन्तवेंभाग तक होता है।
$ १९२. सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे अनन्तरवर्ती जो आगेका स्पर्धक है वह सर्वघाती है जो कि सम्यक्त्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे अनन्तगुणी शक्तिवाला है क्योंकि उसके योग्य षट्स्थान गुणकारोंके होने पर उसकी उत्पति हुई है। अर्थात् अपने पूर्व के स्थानसे यह स्थान अपने योग्य षट्स्थान द्धियोंको लिये हुए है। इस स्पर्धकसे लेकर दारुभागके अनन्तवेंभाग पर्यन्त इस बीचमें जो स्पर्धक अवस्थित हैं वह सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुभाग सत्कर्म है। .
शङ्का-सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धक सर्वघाती कैसे हैं ?
१. श्रा० प्रती 'को पडिभागो सम्मतस्स' इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ अणंतरउवरिमफड़यं इति पारः। तत्राग्रेऽप्येषमेव पाठ उपलभ्यते बहुआतया । ३. ता. प्रा. प्रत्योः 'एवं' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
भागविहत्तीए फय परूवणा
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सम्पत्तेर्हितो जंच्चंतरभावेणुप्पण्णे सम्मामिच्छत्ते सम्मत्त-मिच्छत्ताणमत्थित्त विरोहादो । * मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सिद्धिदं तदो अतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध ।
१६३. जम्मि उह से दारुअसमाणस्स अनंतिमभागे सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं णिहिदं तत्थ सम्मामिच्छत्तस्स सव्वघादिकस्सफद्दयं होदि । तदो अनंतरमुवरिममिच्छत्तजहण्णफद्दयं सम्मामिच्छत्तुकस्सफद्दयादो अनंतगुणं तमादत्ता तमादि काण उवरि अप्पडिसिद्ध मिच्छत्ताणुभागसंतकम्मं होदि । सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सफद्दयादो अनंतगुणमिच्छत्तजहण्णफद्दयमादि काढूण उवरि पडिसेहेण विणा दारुअसमाणाणुभागस्स अणंते भागे अडिसमाण- सेलसमाणद्वाणाणं सयलफद्दयाणि च गंतूण मिच्छत्ताणुभागसंतकम्ममवहिदं ति भणिदं होदि ।
समाधान-क्योंकि वे सम्पूर्ण सम्यक्त्वका घात करते हैं । सम्यग्मिध्यात्वके उदय में सम्यक्त्वकी गंध भी नहीं रहती, क्योंकि मिध्यात्व और सम्यक्त्वकी अपेक्षा जात्यन्तर रूप से उत्पन्न हुए सम्यग्मिथ्यात्व में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के अस्तित्वका विरोध है । अर्थात् उस समय न सम्यक्त्व ही रहता है और न मिध्यात्व ही रहता है, किन्तु मिला हुआ दही-गुड़के समान एक विचित्र ही मिश्रभाव रहता है ।
विशेषार्थ - सम्यक्त्वप्रकृतिके उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक के अन्तरवर्ती जघन्य सर्वघाती स्पर्धक से लेकर दारुके अनन्तवें भाग तक सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके स्पर्धक होते हैं, क्योंकि यह प्रकृति जात्यन्तर सर्वघाती है। इसका उदय रहते हुए न तो सम्यक्त्वरूप ही परिणाम होते हैं और न मिध्यात्वरूप ही परिणाम होते हैं, किन्तु मिश्ररूप परिणाम होते हैं ।
* जिस स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग सत्कर्म समाप्त हुआ उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगे विना प्रतिषेधके मिथ्यात्वसत्कर्म होता है
$ १९३. दारुरूप अनुभाग के अनन्तवें भागरूप जिस स्थान में सम्यग्मिध्यात्वका अनुभाग सत्कर्म समाप्त हुआ है उस स्थानमें सम्यग्मिथ्यात्वका सर्वघाती उत्कृष्ट स्पर्धक होता है और उससे ऊपर आगेका अनन्तरवर्ती स्पर्धक मिध्यात्वका जघन्य स्पर्धक है जो सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धक अनन्तगुणी शक्तिवाला है। उससे लेकर आगे बिना किसी रुकावटके मिध्यात्वका अनुभागसत्कर्म होता है। आशय यह है कि सन्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्द्धक अनन्तगुणा है । उस स्पर्धकसे लेकर आगे बिना किसी रुकावटके अर्थात् दारु समान अनुभागका अनन्त बहुभाग तथा अस्थिरूप और शैलरुप स्थानोंके समस्त स्पर्धकोंको व्याप्त करके मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म स्थित है । अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट स्पर्धकसे लेकर शैल समान अनुभागके चरम स्पर्धक पर्यन्त सब स्पर्धक मिध्यात्वके हैं ।
विशेषार्थ - दारुके जिस भाग तक सम्यग्मिध्यात्त्र प्रकृतिके स्पर्धक बतलाये हैं उससे अन्नन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगे सब स्पर्धक मिध्यात्व प्रकृतिके होते हैं । अर्थात् दारुका वशिष्ट सब भाग, अस्थिरूप और शैलरूप सब स्पर्धक मिध्यात्वप्रकृतिके होते हैं ।
१. श्रा प्रतौ जच्चंतरभाणुवेप्पणो इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ 8 बारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादीणं दुट्ठाणियमादिफद्दयमादिकादूर्ण उवरिमप्पडिसिद्ध।
१६४. वारसकसायाणं ति वुत्ते अणंताणुबंधि--अपञ्चक्खाण-पञ्चकखाणकोह-माण-माया-लोहाणं गहणं । कुदो ? अण्णासिं बारसपयडीणं सव्वघादीणमभावादो। सव्वघादीणं दुहाणियमणुभागमादि कादणे ति भणिदे सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयसरिसफद्दयमादि कादणे चि घेत्तव्बं । एदं कुदो णव्वदे ? सव्वघादीण दुढाणियमादिफद्दयं इदि सुतवयणादो। मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयमादि कादूणे चि किण्ण वुच्चदे ?ण, मिच्छत्तजहएणफदयस्स दुहाणियसव्वघादिफदएसु जहण्णचाभावादो। एदमादि कादूण उवरिं अप्पडिसिद्धमिदि वुचे दारुअसमाणफद्दयाणमणते भागे अहिसेलसमाणफदयाणि च संपुण्णाणि गंतूण बारसकसायाणमणुभागसंतकम्ममवहिदं ति घेत्तव्वं ।
* चदुसंजलण--णवणोकसायाणमणुभागसंतकम्मं देसघादीणमादिफद्दयमादि कादूण उवरि सब्वघादि त्ति अप्पडिसिद्ध ।
* वारह कषायोंका अनुभागसत्कर्म सर्वघातियोंके विस्थानिक प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके होता है।
६ १९४. बारह कषाय ऐसा कहने पर अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान और क्रोध, मान, माया लोभका ग्रहण होता है, क्योंकि अन्य कोई बारह प्रकृतियाँ सवघाती नहीं है । सर्वघातियोंके द्विस्थानिक स्पर्धकसे लेकर ऐसा कहने पर उससे सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकके समान स्पर्धकसे लेकर ऐसा लेना चाहिये।
शंका-यह कैसे जाना जाता है कि उक्त वाक्यसे ऐसा आशय लेना चाहिये।
समाधान-सर्वघातियोंके द्विस्थानिक स्पर्धकसे लेकर ऐसा जो सूत्रका वचन है उससे जाना जाता है कि उसका ऐसा आशय लेना चाहिये।
शंका-उसका मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकके समान स्पर्धकसे लेकर ऐसा अर्थ क्यों नहीं कहते हो ? - समाधान-नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक द्विस्थानिक सर्वघाती स्पर्धकोंमें जघन्य नहीं है।
- इस स्पर्धक से लेकर आगे विना प्रतिषेधके होता है, ऐसा कहने पर दारुरूप स्पर्धकों के अनन्त बहुभाग तथा सम्पूर्ण अस्थिरूप और शैलरूप स्पर्धकों के अन्त तक सब स्पर्धक मिलकर बारह कषायोंका अनुभागसत्वकर्म अवस्थित है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये।
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया और लोभ; अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ तथा प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोभ इन बारह कषायोंके सब स्पर्धक सर्वघाती हैं। तथा दारुके जिस भागसे सर्वघाती स्पर्धक प्रारम्भ होते हैं उस भागसे लेकर शैल पर्यन्त उनक स्पर्धक होते हैं।
* चार संज्वलनो और नव नोकषायोंका अनुभागसत्वकर्म देशघातियोंके प्रथम
१. श्रा० प्रतौ 'संतकम्मघादीणं दुट्टाणियमादिफद्दय कादण' इति पाठः । १. प्रा० प्रतौ-माकिफहयसरिसफयमादि इति पाठः।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए फय परूवणा
१६५. देसघादीणमादिफद्दयं इदि वुत्ते सम्मत्तस्स आदिफद्दयसरिसफद्दयस्स गहणं । जदि एवं तो 'देसघादीणं' इदि बहुवयणणिद्देसो ण घडदे १ तेरस - पयडी एकिस्से पयडीए अणुभागे निरुद्धे सेसतेरसपयडीओ पेक्खिदूण पयडीणमिदि बहुत्रयणत्ववत्तदो । एदं फदममादि काढूण उवरि सव्वघादि चि अप्पडिसिद्धं इदि बुसे लदासमाण-जहण्णफद्दयमादि काढूण उवरि लदा-दारु-अहि-सेलसमाणफद्दयाणि सव्वाणि गंतॄण एदासि तेरसपयडीणमणुभागसंतकम्मं होदि चि घेत्तव्वं ? उवरि सव्वधादि देसघादिदारुसमाणं मोत्तूण सव्वघादिदारुसमाणफदएहि सह अद्विसेलसमाणफद्दयाणि वि घेष्पति ति कुदो णव्वदे ? उवरिं द्वाणसण्णापरूवणाए चदुसंजलणाणुभागसंतकम्मं एगहाणियं वा दुहारिणयं वा तिट्टाणियं वा चदुहाणियं वाति सुत्तादो णव्वदे | संपहि मिच्छनादीरणं सव्वकम्मारणं जदि वि फद्दयाणि उवरि अपडिसिद्धाणि चि वृत्तं तो वि ण तेसिं सव्वेसि पि चरिमफद्दयाणि सरिसाणि । तं कुदो णव्वदे ? महाबंध सुत्तसिद्धप्पाबहुआदो । तं जहा - मिच्छत्तुकस्सgreat मफद्दयादो सेलसमाणादो अर्णताणुबंधिलोभचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । स्पर्धकसे लेकर आगे विना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त हैं
$ १९५ देशघातियोंका प्रथम स्पर्धक ऐसा कहनेपर उससे सम्यक्त्व प्रकृति के प्रथम स्पर्धकके समान स्पर्धकका ग्रहण करना चाहिये ।
शंका- यदि 'देशघातियोंके इस पदसे केवल एक सम्यक्त्वप्रकृतिका ग्रहण करते हो तो 'देशघातियों के' ऐसा बहुबचनका निर्देश नहीं बनता है ।
समाधान-नहीं, क्योंकि तेरह प्रकृतियों में से एक प्रकृति के अनुभाग के विवक्षित होनेपर शेष तेरह प्रकृतियो को देखते हुए 'प्रकृतियों के' इस प्रकार बहुबचन निर्देश बन जाता है ।
इस स्पर्धकसे लेकर आगे बिना प्रतिषेधके सर्वघाती पर्यन्त है ऐसा कहनेपर उससे लतारूप जघन्य स्पर्धकसे लेकर आगे लतारूप, दारूप, अस्थिरूप और शैलरूप सब स्पर्धकोंका व्याप्त करके इन तेरह प्रकृतियोंका अनुभागसत्कर्म है ऐसा लेना चाहिये ।
शंका- आगे सर्वघाती है ऐसा कहनेसे दारुरूप देशघाती स्पर्धकों को छोड़कर, सर्वघाती दारुरूप स्पर्धा कोंके साथ अस्थिरूप और शैलरूप स्पर्धकोंका भी ग्रहण करते हैं यह कैसे जाना जाता है ?
समाधान- आगे स्थानसंज्ञाका कथन करते समय 'चार संज्वलनोंका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुः स्थानिक होता है', इस सूत्र से जाना जाता है कि यहाँ सर्वघाती दारूसमान स्पर्धकोंके साथ अस्थि और शैलसमान स्पर्धकोंका भी ग्रहण किया है । यहाँ यद्यपि ऐसा कहा है कि मिध्यात्व आदि सब कर्मोंके स्पर्धक आगे बिना प्रतिषेधके हैं तो भी उन सबके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं ।
शंका- यह कैसे जाना जाता है कि मिध्यात्व आदि सब कर्मो के अन्तिम स्पर्धक समान
नहीं हैं ?
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समाधान - महाबन्ध नामक सूत्रग्रन्थसे सिद्ध अल्पबहुत्वसे जाना जाता है । यथामिध्यात्वके उत्कृष्टस्थान शैलसमान अन्तिम स्पर्धकसे अनन्तानुबन्धी लोभका अन्तिम अनुभाग
.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुड [ अणुभागविहत्ती ४ लोभचरिमाणुभागफद्दयादो मायाए चरिमाणुभागफद्दयं विसेसहीणं । तत्तो कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं । कोधचरिमफद्दयादो माणचरिमफद्दयं विसंसहीणं' । अणंताणुबंधिमाणचरिमफद्दयादो लोभसंजलणचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । ततो तस्सेव मायाचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव माणचरिमफद्दयं विसेसहीणं । माणसंजलणचरिमफद्दयादो पञ्चक्खाणावरणलोभचरिमफद्दयमणंतगुणहीणं । तदो तस्सेव मायाचरिमफदयं विसेसहीणं, तदो तस्सेव कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव माणचरिमफदयं विसेसहीणं । पञ्चक्रवाणावरणमाणचरिमफदयादो अपञ्चक्रवावरणलोभचरिमफद्दयमणंतगुणहीणं। तदो तस्सेव मायाचरिफद्दयं विसेसहीणं । तदो तस्सेव कोधचरिमफद्दयं विसेसहीणं तदो तस्सव माणचरिमफदयं विसेसहीणं । अपचक्खाणावरणमाणचरिमफद्दयादो णवू. सयवेदचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । अरदिचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । सोगचरिमाणुभागफद्द्यमणंतगुणहीणं । भयचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं। दुगुंछाचरिमाणुभागफद्द्यमणंतगुणहीणं । इत्थिवेदचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । पुरिसवेदचरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । रदीए चरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणं । हस्सचरिमाणुभागफद्दमणंतगुणहीणं सम्मामिच्छत्तचरिमाणुभागफयणंतगुणहीणं । सम्मचस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है । लोभके अन्तिम अनुभागस्पर्धकसे मायाका अन्तिम अनुभागस्पर्धक विशेषहीन है। उससे क्रोधका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। क्रोधके अन्तिम स्पर्धकसे मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। अनन्तानुबन्धी मानके अन्तिम स्पर्धकसे संज्वलनलोभका अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसीकी मायाका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसीके क्रोधका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसी मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। संज्वलनमानके अन्तिम स्पर्धकसे प्रत्याख्यानावरण लोभका अन्तिम स्पर्धक अनन्तगणा हीन है। उससे उसीकी मायाका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसीके क्रोधका अन्तिम स्पधेक विशेषहीन है। उससे उसीके मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। प्रत्याख्यानावरण मानके अन्तिम स्पर्धकसे अप्रत्याख्यानावरण लोभका अन्तिम स्पर्धक अनन्तगुणाहीन है। उससे उसोको मायाका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसीके क्रोधका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। उससे उसोके मानका अन्तिम स्पर्धक विशेषहीन है। अप्रत्याख्यानावरण मानके अन्तिम स्पर्ध कसे नपुंसकवेदका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे अरतिका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे शोकका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगणा हीन है। उससे भयका अन्तिम अनुभाग स्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे जुगुण्साका अन्तिम अनुभागस्पधक अनन्तगुणा हीन है। उससे स्त्रीवेदका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे पुरुषवेदका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगणा हीन है। उससे रतिका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे हास्यका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है। उससे सम्यक्त्वका अन्तिम अनुभागस्पर्धक अनन्तगुणा हीन है।
१. प्रा० प्रती माणचरिमफद्दयाए विसेसहीणं इति पाठः ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सण्णा चरिमाणुभागफद्दयमणंतगुणहीणमिदि। एदं मोहणीयपडिबद्धत्तादो महाबंधप्पाबहुअं ण होदि ति णासंकणिज्ज, महाबंधचउसद्विवदियअप्पाबहुअगम्भविणिग्गयस्स ततो विणिग्गय पडि अविरोहादो।
___एवं फद्दयपरूवणा समता। ॐ तत्थ दुविधा सरणा घादिसण्णा ठाणसण्णा च ।
३१६६. तत्थेत्ति बुत्ते अणेण बिहाणेण वुत्ताणुभागफदएमु चि घेचव्वं । सण्णा णाम अहिहाणमिदि एयहो । सा दुविहा-घादिसण्णा ठाणसण्णा चेदि । एदेसि मोहाणुभागफदयाणं घादि चि सण्णा जीवगुणघायणसीलचादो। एदेसिं चेव फयाणं हाणमिदि च सपणा लद-दारु-अहि-सेलाणं सहावम्मि अवहाणादो। जा सा घादि
शंका-यह अल्पबहुत्व केवल मोहनीयकर्मसे सम्बद्ध है. अतः यह महाबन्धका अल्पबहुत्व नहीं हो सकता। .
समाधान-ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिये, क्योंकि यह अल्पबहुत्व महाबन्धके चौसठ पदिक अल्पबहुत्वके भीतरसे निकला है. अत: इसे महाबन्धसे निकला हुए माननेमें कोई विरोध नहीं आता है।
विशेषार्थ-संज्वलन क्रोध, मान, माया, और लोभ तथा नव नोकषायों के स्पर्धक देशघातीसे लेकर सर्वघाती पर्यन्त होते हैं। अर्थात् लता समान जघन्य स्पर्धकसे लेकर लतारूप, दारुरूप. अस्थिरूप और शैलरूप अनुभाग सत्कर्म इन तेरहो प्रकृतियोंके होते हैं। चूर्णिसूत्रमें केवल इतना कहा गया है कि इन तेरह प्रकृतियोंके अनुभागसत्कर्म देशघातीके प्रथम स्पर्धकसे लेकर आगे सर्वघातीपर्यन्त होते हैं । उस परसे यह शंका होती है कि सर्वघातीसे शैलपर्यन्तका ग्रहण क्यों किया गया ? सर्वघातीसे दारुके सर्वघाती स्पर्धकके समान स्पर्धकका भी तो ग्रहण हो सकता है। इसका उत्तर यह दिया गया है कि आगे स्थानसंज्ञाके प्रकरणमें 'चार संज्वलन कषायोंका अनुभाग सत्कर्म एक स्थानिक, दा स्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुस्थानिक होता है। ऐसा कहा है उससे यह निष्कर्ष निकलता है कि 'सर्वघाती' से शैलपर्यन्तका ही ग्रहण इष्ट है। यहाँ इतना विशेष ज्ञातव्य है कि यद्यपि मिथ्यात्व, बारह कषाय, चार संज्वलन और नौ नकषायोंका अनभाग सत्कर्म शैलपर्यन्त कहा है फिर भी उन सबके अन्तिम स्पर्धक समान नहीं हैं, उनके अनुभाग सत्कर्ममें अन्तर है जैसा कि आगे दिये गये महाबन्ध नामक सिद्धान्तग्रन्थके अल्पबहुत्वसे स्पष्ट होता है। इस परसे यह शंका की गई है कि महाबंध नामक सिद्धान्तग्रन्थमें सभी कर्मोंका निरूपण है और यह अल्पबहुत्व केवल मोहनीयकर्मका है, अतः इसे महाबन्धका अल्पबहत्व नहीं कहा जा सकता। तो इसका यह समाधान किया गया कि ६४ स्थानों के भीतरसे केवल मोहनीयका यह अल्पबहुत्व निकाला है, अत: इसे महाबन्धका ही जानना चाहिए।
इस प्रकार स्पर्धक प्ररूपणा समाप्त हुई। * उनमें संज्ञा दो प्रकार की है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा ।
६ १९६. उनमें ऐसा कहने से इस विधिसे कहे गये अनुभागस्पर्धकोंमें ऐसा अर्थ लेना चाहिये । संज्ञा, नाम और अभिधान ये शब्द एकार्थक हैं । वह संज्ञा दो प्रकारकी है-धाति संज्ञा और स्थानसंज्ञा । इन मोहनीयके अनुभागस्पर्धकोंकी घाती यह संज्ञा है, क्योंकि जीवके गुणोंको घातना उनका स्वभाव है। तथा इन्हीं स्पर्धको की स्थान यह संज्ञा भी है, क्योंकि वे लतारूप, दारुरूप, अस्थिरूप और शैलरूप स्वभावमें अवस्थित हैं। वह घातिसंज्ञा भी सर्वघाती और
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अयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सण्णा सा दुविहा-सव्वघादि-देसघादिभेएण । ठाणसण्णा चउव्विहा लदा-दारु अहिसेलभेएण।
* ताओ दो वि एक्कदो णिज्जंति ।
६ १६७. जाओ दो वि सण्णाओ पुव्वं परूविदाओ ताओ एकदो एकवारं चेव णिज्जति कहिज्जंति परूविज्जति ति घेत्तव्वं ।।
मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहएणयं सव्वघादि दुट्ठाणियं ।
१६८. सेसकम्मपडिसेहफलो मिच्छत्तणि सो । हिदि-पदेससंतकम्मादिपडिसंहफलोअणुभागासंतकम्मणिद्देसो। उक्कस्सपडिसेहफलो जहण्णयं ति णिद्देसो। देसधादिपडिसेहफलो सव्वघादिणिद्देसो । मिच्छत्ताणुभागफद्दयरयणाए मिच्छत्तस्स जहण्णफद्दयं सव्वघादि ति पुव्वं परूविदं चेव । कुदो ? सव्वघादित्तणेण सक्खा [संखा] परूविदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफदयं पेक्खिदण अणंतगुणतादो। तदो मिच्छत्तजहण्णाणुमागसंतकम्मं सव्वघादि ति ण वत्तव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-फद्दयरयणा णाम सव्वघादित्तमसव्वघादित्तं च ण परूवेदि किंतु केवलं फद्दयरयणं चेव परूवेदि, देशघातीके भेदसे दो प्रकारकी है। तथा स्थानसंज्ञा लता, दारु, अस्थि और शैलके भेदसे चार प्रकारकी है।
* आगे उन दोनों संज्ञाओंको एक साथ कहते हैं ।
१९७. जो दो संज्ञाएँ पहले कही हैं, उन्हें एक साथ ही बतलाते हैं अर्थात् कहते हैं प्ररूपणा करते हैं ऐसा अर्थ यहाँ लेना चाहिये। अर्थात् आगे उन दोनों संज्ञाओंका एक साथ
विशेषार्थ-मोहनीयकर्मके अनुभागस्पर्धको की दो संज्ञाएँ हैं-घाती और स्थान । यत: वे अनुभागस्पर्धक जीवके गुणों का घात करते हैं, अत: उन्हें घाती कहते हैं और यत: वे लता, दारु, अस्थि और शैलका जैसा स्वभाव है वैसे स्वभावको लिए हुए हैं, अतः इन्हें स्थान कहते हैं। घातीसंज्ञाके दो भेद हैं-सर्वघाती और देशघाती। तथा स्थानसंज्ञाके चार भेद हैं-लता. दारु, अस्थि और शैल । आगे इन दोनों संज्ञाओ का एकसाथ कथन करते हैं।
* मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक है।
६ १९८. शेष काँका प्रतिषेध करनेके लिये मिथ्यात्व पदका निर्देश किया है। स्थिति सत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म आदिका प्रतिषेध करनेके लिये अनुभागसत्कर्म पदका निर्देश किया है। उत्कृष्टका प्रतिषेध करनेके लिये जघन्यपदका निर्देश किया है । देशघातीका प्रतिषेध करनेके लिये सर्वघाती पदका निर्देश किया है।
शंका-मिथ्यात्वके अनुभागस्पर्धकोंकी रचनामें मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक सर्वघाती है ऐसा पहले कहा ही है, क्योंकि पहले सर्वघातिरूपसे कहे गये सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा इसका अनुभाग अनन्तगुणा है, अत: यहाँ मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है ऐसा नहीं कहना चाहिए ? ...समाधान-यहाँ परिहार करते हैं-स्पर्धकरचना सर्वघातित्व और असर्वघातित्वको नहीं बतलाती है, किन्तु केवल स्पर्धकरचनाका ही कथन करती है, क्योंकि उसीमें उसका व्यापार
कथन करते हैं।
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गा० २२ अणुभागविहत्तीए सण्णा
१३७ तिस्से तत्थ वावारादो । जदि वि जुत्तीए सव्वघादित्तमवगयं तो वि सा एत्थ ण पहाणा, अहेउवायम्मि तण्णिहसिस्साणं तत्थ अणुग्गहकारित्ताभावादो। तदो मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंतकम्म सव्वघादि ति वत्तव्वं चेव । किं च जहा चारित्तमोहक्खवणाए चदुण्हं संजलणाणं पुव्वफदयाणि ओहट्टिय तेसिं जहण्णफयादो अणंतगुणहीणाणि अपुव्वफद्दयाणि काऊण पुणो ताणि वि घाइय सगजहण्णफद्दयादो अणंतगुणहीणाओ किट्टिओ कदाओ, तहा एत्थ दंसणमोहणीयक्खवणाए मिच्छत्ताणुभागस्स अपुव्वफद्दयादिकिरियाओ काऊण देसघाइविहाणं णत्थि त्ति जाणावण वा सव्वघादिणिद्देसो कदो। सुहमणिगोदस्स मिच्छत्तजहण्णाणुभागसंतकम्मादो अणंतगुणेण अणुभागसंतकम्मेण दंसणमोहक्खवणाए किट्टीकरणादिविहाणेण विणा मिच्छत्तं खविजदि त्ति जाणाक्ण वा। दारुसमाणाणुभागफद्दयाणमणंतिमभागे सुहुमणिगोदेसु जेण मिच्छत्ताणुभागसंतकम्म जहण्णं जादं तेण तं दुहाणियं । एदेण एगहाण-तिहाण-चउहाणाणं पडिसेहो कदो । मिच्छताणुभागस्स दारु--अहि-सेलसमाणाणि ति तिण्णि चेव हाणाणि लतासमाणफद्दयाणि उल्लंघिय दारुसमाणम्मि अवहिदसम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयादो अणंतगुणभावेण मिच्छत्तजहण्णफद्दयस्स अवहाणादो। तदो मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं दुहाणियमिदि बुत्ते दारु-अहि-समाणफयाणं गहणं कायव्बं, अण्णहा है। यद्यपि युक्तिसे उसका सर्वघातित्व जान लिया गया है तो भी यहाँ युक्ति प्रधान नहीं है, क्योंकि अहेतुवाद रूप आगममें श्रद्धा रखनेवाले शिष्योंका युक्ति कोई उपकार नहीं कर सकती। अत: 'मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। ऐसा यहाँ कहना ही चाहिये। दूसरे, जैसे चारित्रमोहकी क्षपणामें चारों संज्वलनकषायोंके पूर्वस्पर्धकोंका अपकर्षण करके उनके जघन्य स्पर्धकसे भी अनन्तगुणे हीन अपूर्वस्पर्धक किये जाते हैं और फिर अपूर्व स्पर्धकोंका भी घात करके अपूर्वस्पर्धकके जघन्य स्पर्धकसे भी अनन्तगुणी हीन कृष्टियां की जाती हैं, उसी प्रकार यहाँ दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें अपूर्वस्पर्धक आदि क्रियाओंको करके मिथ्यात्वके अनुभागका देशघातिविधान नहीं है । अर्थात् मिथ्यात्वके अनुभागको क्रियाद्वारा देशघातीरूप नहीं किया जा सकता है, वह सर्वधाती ही रहता है, यह बतलानेके लिये सूत्रमें सर्वघाती पदका निर्देश किया है। अथवा, दर्शनमोहके क्षपण कालमें सूक्ष्म निगोदिया जीवके मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे अनन्तगुणे अनुभागसत्कर्मके रहते हुए कृष्टिकरण आदि क्रियाके बिना ही मिथ्यात्वका क्षपण करता है यह बतलानेके लिये सूत्र में सर्पघाती पद दिया है। यत: सूक्ष्मनिगोदिया जीवों में मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म जघन्य है और वह दारुसमान अनुभागस्पर्धकोके अनन्तवें भागमें स्थित है अत: वह द्विस्थानिक है। इससे वह एक स्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है इस बातका निषेध कर दिया है।
शंका-मिथ्यात्वके अनुभागके दारुके समान, अस्थिके समान और शैलके समान इस प्रकार तीन ही स्थान हैं, क्योंकि लतासमान स्पर्धको का उल्लंघन करके दारुसमान अनुभागमें स्थित सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकसे मिथ्यात्वका जघन्य स्पर्धक अनन्तगुणा है। अत: मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है ऐसा कहने पर दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धको का ग्रहण करना चाहिये. अन्यथा वह द्विस्थानिक नहीं बन सकता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहन्ती ४ तस्स दुढाणियत्ताणुववत्तीदो ? ण एस दोसो, ववएसिवन्भावेण दारुसमाणफयाणं केवलाणं पि दुहाणियत्तुववत्तीदो । कुतो व्यपदेशिवद्भावः ? लता-दारुसमानस्थानाभ्यां केनचिदंशान्तरेण समानतया एकत्वमापन्नस्य दारुसमानस्थानस्य तद्वयपदेशोपपत्तेः । समुदाये वृत्तस्य शब्दस्य तदवयवेऽपि प्रवृत्युपलम्भावा ।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है; क्यो कि व्यपदेशिवद्भावसे केवल दारुसमान स्पर्धकोंका भी द्विस्थानिकपना बन जाता है।
शंका-व्यपदेशिवद्भाव से है ?
समाधान-किसी अंशान्तरकी अपेक्षा समान होनेके कारण लतासमान और दारुसमान स्थानोंसे दारुसमान स्थान अभिन्न है, अत: उसमें द्विस्थानिक व्यपदेश हो सकता है। अथवा जो शब्द समुदायमें प्रत्त होता है उसके अवयवमें भी उसकी प्रवृत्ति देखी जाती है, अत: केवल दारुसमान स्थानको भी द्विस्थानिक कहा जा सकता है।
विशेषार्थ-चूर्गिसूत्रमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मको सर्वघाती और द्विस्थानिक कहा है । इस पर यह शंका की गई कि मिथ्यात्वके अनुभागस्पर्धको की रचनाका कथन करते हुए सम्यग्मिथ्यात्व प्रति अनुभागस्पर्धको को स्पष्टरूपसे सर्वघाती बतलाकर उससे आगेके सूत्रमें सम्यग्मिथ पात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धक.के अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे लेकर आगेक सब सधैंक मिथ्यात्वक बतलाये हैं। इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, अत: उक्त सूत्रमें पुन: उसका सर्वघाती बतलाना व्यर्थ है। इसका समाधान तीन प्रकारसे किया गया है। पहला- स्पर्धक रचनाका उद्देश केवल स्पर्धकरचनाको बतलाना है. सर्वघातित्व और असर्वघातित्वको बतलाना उसका उद्देश्य नहीं है । यद्यपि युक्ति से यह मालूम होजाता है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागस्पर्धक सर्वघाती है किन्तु इस आगमिक ग्रन्थमें युक्ति प्रधान नहीं है, किन्तु कंठोक्तरूपसे जो कहा जाय वही प्रधान है, अत: मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है यह वचन कहना ही चाहिये। दूसरे, जैसे चारित्रमोहकी क्षपणाम संज्वलनकषायोंका पूर्वस्पर्धक, अपूर्वस्पर्धक और कृष्टीकरण के द्वारा देशवातिविधान बतलाया है वैसे दरोनमोहकी क्षपणामें मिथ्यात्वके अनुभागका देशघातिविधान नहीं होता यह बतलानेके लिये मिथ्यात्व जघन्य अनुभागसत्कर्मको सर्वघाती बतलाया है। तीसरे, सूक्ष्मनिगोदिया जीवके मिथ्यात्वका जो जघन्य अनुभागसत्कर्म रहता है उससे अनन्तगुण अनुभागसत्कर्मके रहते हुए मिथ्यात्वका क्षरण होता है यह बतलानेके लिये मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती होता है यह बतलाया है । तथा मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्भ विस्थानिक हाता है क्योकि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दारुरूप होता है और उसके अनन्तरवर्ती स्पर्धकसे मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म प्रारम्भ होता है अत: वह भी द्विस्थानिक है। इस पर यह शंका की गई कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म दारुप है और यत: उसे विस्थानिक कहा है अत: दो स्थानों से दारु और अस्थिका ग्रहण करना चाहिये, लताका ता ग्रहण हो ही नहीं सकता, क्योंकि मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म लतारूप नहीं बतलाया है। इसका यह समाधान किया गया है कि जो स्पधक केवल दारुसमान हैं उन्हें भी द्विस्थानिक कह सकते है, क्योंकि द्विस्थानिक संज्ञा लतासमान और दारुसमान स्पर्धकोंकी है। किन्तु जो स्पर्धक केवल दारुसमान हैं वे दारुरूपसे लता-दारु स्थानके समान हैं। अर्थात् उनकी परस्परमें दारुरूपसे समानता है अत: लता-दारु समान स्पध कके लिये व्यवहृतकी जानेवाली विस्थानिक संज्ञा केवल
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गा०२२ अणुभागविहत्तीए सण्णा
१३९ १६६. लदा-दारु--अहि--सेलसण्णाओ माणाणुभागफहयाणं लयाओ, कधं मिच्छत्तम्मि पयट्टति ? ण, माणम्मि अवहिदचदुण्हं सण्णाणमणुभागाविभागपलिच्छेदेहि समाणत्तं पेक्विदृण पयडि विरुद्धमिच्छत्तादिफद्दएसु वि पबुत्तीए विरोहाभावादो।
8 उक्कस्सयमणुभागसंतकम्मं सब्वघादिचदुट्ठाणियं ।।
. २००. उक्कस्सणिद्द सो जहण्णपडिसेहफलो । अणुभागसतकम्मणिद्दे सो डिठिपदेसपडिसेहफलो । सव्वघादिणि सो देसघादिपडिसेहफलो। चदुहाणियणिद्दे सो तिहाणादिपडिसेहफलो। मिच्छत्तस्से त्ति अइक्कंतसुत्तादो अणुवट्टदे। कुदो सव्वघादित्तं ? सम्मत्तासेसावयवविणासणेण । अमुत्तस्स सम्मत्तपज्जायस्स कथं सावयवत्तं ? ण, सायारसावयवजीवदव्वं सव्वप्पणा पडिग्गहिय अवडिदस्स णिरवयवणिरायारत्तविरोहादो। लदासमाणफद्दएहि विणा कधं मिच्छत्ताणुभागस्स चदुहाणियत्तं ? ण, पुव्वं व दारुरूप स्पर्धकके लिये भी व्यवहृत हो सकती है। अथवा लता और दारुके समुदायमें व्यवहृत होनेवाली द्विस्थानिक संज्ञाका व्यवहार उसके एक अंश दारुमें भी हो सकता है।
१९९. शंका-लता, दारु, अस्थि और शैल संज्ञाए मानकषायके अनुभागस्पर्धकोंमें की गई हैं, ऐसी दशामें वे संज्ञाएँ मिथ्यात्व में कैसे प्रत्त हो सकती हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि मानकषाय और मिथ्यात्वके अनुभागके अविभागीप्रतिच्छेदो' की परस्पर में समानता देखकर मानकषायमें हाने वाली चारो संज्ञाओं की मानकषायसे विरुद्ध प्रकृतिवाले मिथ्यात्वादिके स्पर्ध का में भी प्रत्ति होने में कोई विरोध नहीं है।
विशेषार्थ--यद्यपि कठोरता यह मानकषायका गुण है, अन्य प्रकृतियों में यह धर्म नहीं पाया जाता, तथापि मानकषायक समान शक्तिवाले अन्य प्रकृतियों के स्पर्धक होते हैं, यह देखकर यहाँ मिथ्यात्व आदि कर्मों के स्पर्धकों की लतासमान आदि संज्ञाएँ रखी हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
* मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक है।
२००. जघन्यका प्रतिषेध करनेके लिये उत्कृष्ट पदका निर्देश किया है। स्थिति और प्रदेशका प्रतिषेध करनेके लिये अनुभागसत्कर्म पदका निर्देश किया है। देशघातीका प्रतिषेध करनेके लिये सर्ववाती पदका निर्देश किया है। त्रिस्थानिक आदिका प्रतिषेध करनेके लिये चतु:स्थानिक पदका निर्देश किया है। मिथ्यात्व इस पदकी पिछले सूत्र से अनुत्ति होती है।
शंका-यह सर्वघाती क्यों है ? समाधान-क्योंकि यह सम्यक्त्वके सब अवयवोंका विनाश करता है, अतः सर्वघाती है शंका-सम्यक्त्व पर्याय अमूर्त है, अतः उसके अवयव कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसी शंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि जो सम्यक्त्व साकार और सावयव जीव द्रव्यको सर्वात्मना पकड़ कर बैठा हुआ है उसके निरवयव और निराकार होनेमें विरोध है। अर्थात् जीव द्रव्य साकार और सावयव है, अत: उससे अभिन्न या तत्स्वरूप सम्यक्त्व सर्वथा निरवयव और निराकार नहीं हो सकता।
शंका-जब मिथ्यात्व स्पर्धक लतासमान नहीं होते तो उसका अनुभाग चतुःस्थानिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ दोहि पयारेहि चदुढाणियतसिद्धीदो। अधवा मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयम्मि लदा-दारु--अहिसेलसमागहाणाणि चत्तारि वि अत्थि, तेसि फद्दयाविभागपलिच्छेदाणं संखाए एत्थुवलंभादो । ण च बहुएसु अविभागपलिच्छेदेसु थोवाविभागपलिच्छेदाणमसंभवो, एगादिसंखाए विणा तस्स बहुताणुववत्तीदों। तम्हा मिच्छत्तुकस्सफद्दयम्मि चत्तारि वि हाणाणि अस्थि त्ति तस्स चदुट्टाणियत्तं ण विरुज्झदे। मिच्छत्तकस्साणुभागसंतकम्म चदुढाणियमिदि वुत्ते मिच्छत्तेगुक्कस्सफदयस्सेव कथं गहणं ? ण, मिच्छत्तुक्कस्सफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुणा धरिद अणंताविभागपलिच्छेदणिप्पण्णअणतफयाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मववएसादो। ण च तत्थ अवहिदाविभागपलिच्छेदेसु फद्द्याणि णत्थि अविभागपलिच्छेदुत्तरकमेण वडिविरहियाणमणंताविभागपलिच्छेद अंतरिय अणंतवारवडियाणं फद्दयभावविरोहादो। एसो अत्थो उवरि सव्वत्थ जहावसरं संभरिय वत्तव्यो।
समाधान-जिस प्रकार पहले दो तरीकेसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मको द्विस्थानिक सिद्ध किया है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म भी चतुः स्थानिक सिद्ध होता है। अथवा, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लतासमान, दारुसमान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों ही स्थान हैं. क्योंकि उनके स्पर्धाकोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्या यहाँ पाई जाती है और बहुत अविभागप्रतिच्छेदोंमें स्तोक अविभागप्रतिच्छे दोंका होना असंभव नहीं है, क्योंकि एक आदि संख्याके बिना अविभागीप्रतिछेदोंकी संख्या बहुत नहीं हो सकती है। अर्थात् बहुत संख्यामें थोड़ी संख्या होती ही है, अन्यथा वह बहुत ही नहीं हो सकती अतः, मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें चारों हो स्थान होते हैं, इसलिये उसके चतुःस्थानिक होनेमें कोई विरोध नहीं आता।
शंका-मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है ऐसा कहने पर मिथ्यात्वके एक उत्कृष्ट स्पर्धकका ही ग्रहण कैसे होता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पधोककी अन्तिम वर्गरणामें एक परमाणुके द्वारा धारण किये गये अनन्त अविभागी प्रतिच्छेदोंसे निष्पन्न अनन्त स्पधकोंकी उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म यह संज्ञा है। यदि कहा जाय कि उत्कृष्ट स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाम जो अविभागी प्रतिच्छेद हैं उनमें स्पर्शक नहीं हैं, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त अविमागी प्रतिच्छेदोंका अन्तर दे दे कर उत्तरोत्तर अविभागीप्रतिच्छेदके क्रमसे अनन्तबार जिनमें वृद्धि महीं होती उनके स्पर्धक होने में विरोध है। ऊपर सर्वत्र प्रसंगानुसार इस अर्थका स्मरण करके कथन कर लेना चाहिये।
विशेषार्थ-चूर्णिसूत्र में कहा है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है । इसपर जब यह शंका की गई कि मिथ्यात्वके अनुभागमें लता समान स्पर्धक तो पाये नहीं जाते तब वह चतुःस्थानिक कैसे है ? तो कहा गया कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्पर्धकमें लतासमान, दारुसमान, अस्थिसमान और शैलसमान चारों स्पर्धक पाये जाते हैं। इस समाधान परसे यह शंका की गई कि सूत्रमें तो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको चतुःस्थानिक कहा है और समाधानमें कहा गया है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्पर्धक चतुःस्थानिक है तो उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मसे एक उत्कृष्ट स्पर्धकका ही ग्रहण क्यों किया गया है ? इसका जो
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गा० २२ 1
अगुभागविहत्तीए सण्णा
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समाधान किया गया है उसे समझने के लिये स्पर्धकका स्वरूप जानना आवश्यक है जो इस प्रकार है -एक अनुभागस्थानके सब परमाणुओंको एक जगह स्थापित करके उनमेंसे सबसे जघन्य अनुभागवाले परमाणुको लो । उस परमाणुमें पाये जानेवाले रूप, रस और गंधको छाड़कर स्पर्शगुणके बुद्धिके द्वारा छेद करो । छेद करते करते जो अन्तिम अछेद्य खण्ड अवशेष रहे उसकी अविभागीप्रतिच्छेद संज्ञा है। उस अविभागी प्रतिच्छेदरूपसे स्पर्शगुणका छेदन करने पर एक परमाणुमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। उन सबको वर्ग कहते हैं । यद्यपि एक वर्गमें अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद होते हैं तथापि समझनेके लिये उनकी संख्या ८ कल्पना कर लेनी चाहिये । पुन: उन परमाणुओंमेंसे उस एक परमाणुके समान दूसरे परमाणुको लो। उसके स्पर्शगुणके भी पहले के समान बुद्धिके द्वारा छेद करने पर उसमें भी उतने ही अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं। इस दूसरे वर्गकी सहनानी भी ८ समझना चाहिये। इस क्रमसे उन परमाणुओं से पहले परमाणु के समान एक एक परमाणुको लेकर उनमेंसे प्रत्येकके अविभागीप्रतिच्छेद करने पर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है, उनकी संदृष्टि इस प्रकार समझनी चाहिये ८, ८, ८,८। अर्थात् अविभागीप्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं और चूकि एक एक परमाणुमें अनन्त अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाये हैं, अत: प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । इन वर्गों के समूह को वर्गणा कहते हैं। इस वर्गणाको एक ओर स्थापित करके उन परमाणुओंमेसे पुन: एक परमाणु को लो और बुद्धि के द्वारा पहलेकी तरह उसके छेद करो। छेद करने पर इस परमाणुमेंसे पहले परमाणुओंसे एक अधिक अविभागीप्रतिच्छेद पाये जाते हैं जिसकी सहनानी ९ है। इस एक वर्ग को अलग स्थापित करो । इस क्रमसे इस एक परमाणुके समान जितने परमाणु उन परमाणुओं मेंसे पाये जायें उन्हें लेकर और बुद्धिके द्वारा प्रत्येकका छेदन करके वर्गोंकी उत्पत्ति कर लेनी चाहिये । उनका प्रमाण इस प्रकार है-९, ९, ९। यह दूसरी वर्गणा हुई। इस प्रकार एक एक अधिक अविभागीप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंसे तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि वर्गणाएँ उत्पन्न कर लेनी चाहियें। इसप्रकार उत्पन्न की गई अभव्यराशिसे अनन्तगुनी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है। इस स्पर्धकको पृथक स्थापित करके पूर्वोक्त परमागुओंमेंसे पुनः एक परमाणुको लो। बुद्धिके द्वारा उसके छेद करनेपर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागीप्रतिच्छेदोंका अन्तर देकर दूसरे स्पर्धकका प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है। संदृष्टिरूपमें उसका प्रमाण १६ समझना चाहिये। इस क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्वराशिके अनन्तवं भागप्रमाण अविभागीप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंको ग्रहण करके परमाणुमात्र वर्गों के उत्पन्न करने पर दूसरे स्पर्धककी प्रथम वर्गणा होती है। इसे प्रथम स्पर्धककी अन्तिमवर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिये। इस क्रमसे वर्ग वर्गणा और स्पधेकको जानकर तब तक स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिये जब तक पूर्वोक्त परमाणु समाप्त न हो जाँय । इसप्रकार स्पर्धक रचना के करनेपर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक और वर्गणाएँ उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसीको अनुभागस्थान कहते हैं। इस परसे यह शंका हो सकती है कि अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग, वर्गाके समूहको वर्गणा, वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक और स्पर्धकोंके समूहको अनुभागस्थान करते हैं, किन्तु ऊपर अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसे ही अनुभागस्थान क्यों कहा है। इसका समाधान यह है कि प्रथमवर्गसे लेकर क्रमसे बढ़ते हुए सब अविभागीप्रतिच्छेद उस एक परणाणु में पाये जाते हैं, अत: सब अनुभागका स्थान होनेसे अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका एक परमाणु अनुभागस्थान कहा जाता है। जैसे मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट स्थिति ७, कोटी कोटी सागर होती है। यह उत्कृष्टस्थिति
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___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ॐ एवं बारसकसायछण्णोकसायाणं ।
२०१. कुदो ? जहण्णाणुभागसंतकम्मं सव्वघादिदुढाणियं उक्कस्साणुभागसंतकम्म सबघादिचदुहाणियमिच्चेदेण एदासिमणुभागस्स मिच्छत्ताणुभागादो भेदाभावा । वारसकसायजहण्णाणुभागस्स सव्वघादित्तं होदु णाम, तेसिं जहण्णफ द्दयप्पहुडि जाव उक्कस्सफद्दयं ति सव्वघादित्तं मोत्तूण तेसु देसघादित्ताणुवलंभादो। किंतु छण्णोकसायफद्दयाणं सव्वयादित्तं | जुज्जदे ? सम्मत्तजहण्णफद्दयसमाणफद्दयाणुभागप्पहुडि उवरि दारुसमागफद्दयाणमणंतिमभागो ति णिरंतरं तत्थ देसघादिफद्दयाणं पि उवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, अणियट्टिक्ववएण घादिदावसिहछण्णोकसायचरिमफालीए चरिमफद्दयचरिमवग्गणेगपरमाणुणी धरिदाविभागपलिच्छेदाणं संगहिदासेसफद्दयभावेण दुहाणियत्तमुवगयाणमहियाविभागपलिच्छेदसंबंधेण सव्वघादित्तं सब निषेकोंकी नहीं होती कि तु अन्तिम निषेककी होती है फिर भी वह सब निषेकोकी स्थिति कही जाती है क्योंकि उसमें सब निषेकोंकी स्थिति गर्मित है, वैसे ही अन्तिमपटककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुके अविभागीप्रतिच्छेद में शेष सब परमाणुओंके अविभागीप्रतिच्छेद गर्भित हैं, अतः वही अनुभागस्थान है और उसमें द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा वर्ग-वर्गणा और सर्वक सभी बन जाते हैं। इसपर पुनः यह शङ्का हो सकती है कि जब अन्तिमस्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुम जो अनुभाग है उसीको अनुभागस्थान कहते हैं तो इसप्रकार पृथक पृथ. स्पर्धक रचना क्यों की जाती है ? इसका समाधन यह है कि इस एक परमाणुमं जो अनुभागस्पर्धक पाये जाते हैं उसीके अविभागी प्रतिच्छेदोंका कथन उक्तप्रकारसे किया जाता है। इसी कारणसे चूर्णिसूत्रमें आये उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मपदसे एक उत्कृष्टस्पर्धकका ही ग्रहण किया है। आगे भी जहाँ कहीं इसप्रकारका कथन आये वहाँ उसका यही अर्थ समझना चाहिये।
* इसीप्रकार बारह कषाय और छ नोकपायोंका अनुभागसत्कर्म है ।
२०१. क्योंकि उनका जघन्य अनुभामसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक है तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्ववाती और चतुःस्थानिक है, इस दृष्टिसे उन अनुभागका मिथ्यात्वके अनुभागसे कोई भेद नहीं है।
शंका-बारह कषायोंका जघन्य अनुभाग सर्वघाती होओ, क्योंकि जघन्य पधेकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त सर्वघातीपने सिवाय उनमें देशघातिपना नहीं पाया जाता है। किन्तु छह नोकषायों स्पर्धकोंका सर्वघातीपना नहीं बनता है, क्योंकि सम्यक्त्व जघन्य स्पर्धको समान स्पर्धकके अनुभागसे लेकर आगे दारुसमान स्पर्धकोंके अनन्तवें भाग पर्यन्त उनमें निरन्तर देशघाती स्पर्धक भी पाये जाते हैं।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नौवें गुणस्थानवती क्षपकके द्वारा घात किये जानेसे अवशिष्ट रहे छह नोकषायोंकी अन्तिम फालीमें अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणु के सम्बन्धसे जिनमें अविभागप्रतिच्छेद स्वीकार किये गये हैं, अशेष स्पर्धकरने का संग्रह होनेसे जो द्विस्थानिकरने का प्राप्त हैं और अधिक अविभागप्रतिच्छेदोंके सम्बन्धसे जो सर्वघाति
1. प्रा. प्रतौ चरिमफइप्रचरिमवग्गणेण परमाणुमा इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए सण्णा
१४३ पत्तजहण्णफदयाणं जहण्णहाणत्तब्भुवगमादो।
® सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादि एगट्ठाणियं वा दुट्ठाणियं वा।
२०२. दंसणमोहणीयक्खवणाए मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणि खइय पुणो सम्मतं पि विणासिय कदकरणिज्जो होदूण तस्स कदकरणिज्जस्स चरिमसमए सम्मतस्स जहण्णमणुभागसंतकम्मं तं च देसघादि एगठाणियं उक्कस्सं पुण देसघादि विहाणियं । दारुसमाणसम्मत्तचरिमफद्दयचरिमवग्गणेगपरमाणुम्मि अविभागपलिच्छेदसंवाए लदासमाणफयाणं पि संभवादो दुहाणियत्तं ण विरुज्झदे । 'सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं देसघादि एगहाणियं। उक्कस्साणुभागसंतकम्म देसघादि वेहाणियं' ति एवमणिदण सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादि एगहाणियं वा दुहाणियं वा ति किमिदि वुत्तं ? सम्मत्ताणुभागसंतकम्मस्स अजहण्णस्स अवत्थाविसेसपदुप्पायण। तं जहा-जं सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं कदकरणिज्जस्स अपच्छिमउदयणिसेगहिदमणुसमयमोवट्टणाए वादिदावसिह तं देसघादि एगहाणियं । जं पुण अजहण्णं तं देसघादि एगहाणियं पि अत्थि, अहवस्सहिदिसंतकम्मे सम्मत्तम्मि सेसे तदणुभागसंतपनेको प्राप्त हुए है ऐसे जघन्य स्पर्शकोंका यहाँ जघन्य स्थान स्वीकार किया गया है। * सम्यक्त्वका अनुभागसत्कर्म देशघाती है और एक स्थानिक तथा द्विस्थानिक है।
२०२. दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके समय मिथ्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वका क्षय करके पुन: सम्यक्त्व प्रकृतिका भी नाश करके, कृतकृत्य हाकर, उस कृतकृत्यके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म होता है। वह जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म देशघाती और द्विस्थानिक होता है। सम्यक्त्वक दारुसमान अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अविभागी प्रतिच्छेदोंकी
समें लतासमान स्पर्धक भी संभव है अतः उसके द्विस्थानिक होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कम देशघाती और एकस्थानिक है और उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म देशघाती और द्विस्थानिक है ऐसा न कहकर 'सम्यक्त्वका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक तथा विस्थानिक है' ऐसा क्यों कहा है ?
समाधान-सम्यक्त्वके अजघन्य अनुभागसत्कर्मकी अवस्था विशेष बतलानेके लिये उस प्रकार नहीं कहा है। वह अवस्था विशेष इस प्रकार है--कृतकृत्य जीवके सम्यक्त्वका जो जघन्य अनुभागसत्कर्म उदयप्राप्त अन्तिम निषेकमें स्थित है जो कि प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा घात होते होते अवशिष्ट रहा है, वह देशघाती और एकस्थानिक है। किन्तु जो अजघन्य अनुभाग सत्कर्म है वह देशघाती और एकस्थानिक भी है, क्योंकि सम्यक्त्वमें आठ वर्ष प्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रह जाने पर उसका अनुभागसत्कर्म लतासमान स्पधेकोंमें ही स्थित पाया जाता है, किन्तु उससे ऊपरके स्थिति सत्कर्मों में सम्यक्त्वका अनुभागसत्कम है तो देशघाती ही किन्तु द्विस्थानिक है । सारांश यह है कि सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म तो देशघाती और एक स्थानिक ही है किन्तु अजघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती होने पर भी एकस्थानिक भी है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
कम्मस्स लदासमाणफएस चेत्र अवहाणुवलंभादो । तदुवरिमडिदिसंतकम्मे सम्म - ताणुभागसंतकम्मं देसवादि चेव किंतु वेद्याणियं । एवंविहविसेस जाणावणह ण कदं जहण्णुक सविसेसणं ।
* सम्मामिच्छुत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वधादि दुहाणियं । ३ २०३ एत्थ जहण्णुक्कस्साणुभागसंतकम्मविसेसणं किण्ण कयं ? ण, तस्स फलाभावादो | सम्मामिच्छते खविज्जमाणे चरिमाणुभागकंदए सम्मामिच्छत्तस्स जहमणुभाग-संतकम्मं तं पि सव्वधादि दुहाणियं चेत्र । तदणुभागफ द्दएस अक्खवणावत्थाए खवणावत्थाए वा देसघादीणं फट्ट्याणमभावादो । उक्कस्साणुभागसंतकम्मं पि सव्वादि दुहाणियं चैव, तेण जहण्णुक्कस्साणुभागाणं दुट्टाणियसव्त्रघादित्तणेहि विसेसो स्थिति कयं जहण्णुक्क सविसेसणं |
* एक्कं चेव ठाणं सम्मामिच्छत्ताणुभागस्स ।
२०४. एक्कं दारुसमाणाणुभागहाणं चैव होदि, लढा -अहि-- सेलसमाणाणु-भागफद्दयाणं तत्थ अभावादो । एगद्वाणमिदि वृत्ते सव्वत्थ लदासमाणफद्रयाणं चेत्र जेण गहणं तेणेत्थ वि 'एक्कं चैव द्वाणं' इदि वृत्ते लदासमाणफयाणं गहणं किरण कीरदे ? ण, तराइक्कंतसुत्तेण 'सम्मामिच्छत्ताणुभागसंतकम्मं सव्वघादि दुट्ठाणियं'
और स्थानिक भी है। सम्यक्त्वकी आठ वर्षं प्रमाण स्थिति शेष रहनेपर एकस्थानिक होता है, और उससे अधिक स्थिति शेष रहने पर द्विस्थानिक होता है । यह विशेष बतलानेके लिये जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण नहीं लगाये ।
* सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक है ।
२०३. शंका- यहाँ अनुभागसत्कर्मके साथ जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण क्यों नहीं लगाये ? समाधान- नहीं, क्योंकि उसका कुछ फल नहीं है ।
$ २०३. सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण करने पर अन्तिम अनुभागकाण्डकमें सम्यग्मिथ्यात्वका जो जघन्य अनुभागसत्कर्म है वह भी सर्वघाती और द्विस्थानिक ही है। उसके अनुभागस्पर्धकों में अक्षपरणवस्था में अथवा क्षपणावस्था में देशघाती स्पर्धककोंका अभाव है । तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म भी सर्वाती और द्विस्थानिक ही है । अतः जघन्य और उत्कृष्ट अनुभागों में द्विस्थानिकपने और सर्वघातिपनेकी अपेक्षा कोई अन्तर नहीं है अर्थात् दोनों ही अनुभाग सर्वघाती और द्विस्थानिक हैं, इसलिये जघन्य और उत्कृष्ट विशेषरण नहीं लगाये ।
* सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका एक ही स्थान होता है ।
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२०४. सम्यग्मिथ्यात्वका एक दारुसमान अनुभागस्थान ही होता है क्योंकि लतासमान, अस्थिसमान और शैलसमान अनुभाग स्पर्धकों का उसमें अभाव है ।
शंका- 'एकस्थान' ऐसा कहने पर उससे सब जगह लतासमान स्पर्धकों का ही ग्रहण होता है अतः यहाँ पर भी 'एकही स्थान' ऐसा कहनेसे लतासमान स्पर्धकों का ग्रहण क्यों नहीं किया जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा अर्थ ग्रहण करने पर पहले कहे गये 'सम्यग्मिथ्यात्वका
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा इच्चेदेण सह विरोहादो । ण च लदासमाणफद्दएमु सव्वघादित्तमत्थि, तहाणुलंभादो। तेण 'एक्कं चेव हाणं' इदि वुत्ते दारुसमाणफद्दयाणं चेव गहणं कायव्वं । अहिसमाणफयाणं सेलसमाणफयाणं वा गहणं किरण कीरदे ? ण, अणंतरादीदसुत्तम्मि समुद्दिदुढाणियणिद्देसेण सह विरोहादो। जदि अद्विसमाणमेक्कटाणमिदि घेप्पदि तो सम्मामिच्छत्ताणुभागसंतकम्मं तिहाणियं होज्ज, लदा--दारु--अद्विसमाणफद्दयाणु-- भागाविभागपलिच्छेदसंखाए वडिसत्तिं पडुच्च फद्दयभावमुवगयाणं तत्थुवलंभादो। जदि सेलसमाणहाणमेक्कं हाणमिदि घेप्पदि तो वि तेण सह विरोहो, चदुढाणियस्स दुढाणियत्तविरोहादो। जदि सम्मामिच्छताणुभागसंतकम्मं दुढाणियं चेव तो 'एक्कं चेव हाणं' इदि किमह भण्णदे ? सम्मामिच्छतफद्दएसु लदासमाणफद्दयाणं पडिसेहह । जदि एवं तो मिच्छत्तजहण्णाणुभागसतकम्मस्स सव्वघादिदुहाणियस्स वि एक्कं हाणमिदि वत्तव्वं ? ण, एदम्हादो चेव मिच्छत्त-बारसकसायाणं जहएणाणभागस्स एगहाणत्तं णव्वदि त्ति तत्थ तदणुवदेसादो ।
अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती और द्विस्थानिक होता है। इस सूत्रके साथ विरोध पाता है। यदि कहा जाय कि लतासमान स्पर्धाकों में भी सर्वघातीपना है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि लतासमान स्पर्धकोंमें सर्वघातीपना नहीं पाया जाता है। अत: एक ही स्थान' होता है ऐसा कहने पर दारुसमान स्पधेकोंका ही ग्रहण करना चाहिये।
शंका-'एक स्थान' से अस्थिसमान स्पर्धकोंका अथवा शैलसमान स्पर्धकोंका ग्रहण क्यों नहीं किया जाता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इस कथनका अनन्तर अतीत सूत्रमें कहे गये द्विस्थानिक निर्देश के साथ विरोध आता है। उसीको स्पष्ट करते हैं-यदि एक स्थानसे अस्थिसमानका ग्रहण किया जाता है तो सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म त्रिस्थानिक हो जायगा, क्योंकि लतासमान दारुसमान और अस्थिसमान स्पर्धकोंके अनुभागके अविभागीप्रतिच्छेदोंकी संख्यामें बढ़ी हुई शक्तिकी अपेक्षा स्पर्धकभावको प्राप्त हुए निषेक वहां पाये जाते हैं। यदि एक स्थानसे शैलसमान स्थानका ग्रहण किया जाता है तो भी पूर्व सूत्रवचनके साथ इसका विरोध आता है, क्योंकि चतुः स्थानिकके द्विस्थानिक होनेमें विरोध है।
शंका-यदि सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक ही है तो सूत्र में एक ही स्थान' ऐसा क्यों कहा है ?
समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वके स्पर्धकोंमें लतासमान स्पर्धकोंका प्रतिषेध करनेके लिये ऐसा कहा है।
है, अत: उसको भी 'एकस्थाननिक' ऐसा कहना चाहिये।
___ समाधान-नहीं, क्योंकि इसीसे मिथ्यात्व और बारह कषायोंका जघन्य अनुभाग एक स्थानिक है, यह जान लिया जाता है अत: उसका कथन करते समय इस बातका निर्देश नहीं किया है।
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१४॥
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ॐ पदुसंजलणाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी वा देसघादी था एगद्वाणियं वा दुट्ठाणियं वा तिढाणियं वा चउट्ठाणियं वा ।
२०५. एत्थ जहण्णुकस्सविसेसणमणुभागसंतकम्मस्स काऊण परूवणा किण्ण कदा ? ण, अणुभागसंतस्स विसेसपदुप्पायण तदकरणादो । खवणाए किट्टीकरणादो हेहा सव्वत्थ संसारावत्थाए चदुसंजलणाणुभागसंतकम्म सव्वघादी चेव, संतकम्मचरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुधरिदाविभागपलिच्छेदोणं गहणादो। तेण चदुसंजलणाणुभागसंतकम्मं सव्वघादि त्ति सुत्तवयणं सुसमंजसं । खवगसेढीए किट्टिकरणे णिहिदे मोहणीयमुवरि सव्वत्थ जेण देसघादी तेणं चदुसंजलणाणुभागसंतकम्मं देसघादि ति मुत्तम्मि परूविदं । खवगसेढीए पुव्वापुव्वफदएमु णवकबंधवज्जेसु किट्टिसरूवेण परिणदेस तत्तो प्पहुडि लदासमाणाणुभागसंतकम्म चेव जेणुवलब्भदि तेण एगहाणियमिदि चदुसंजलणसंतकम्मं परूविदं । हेहा अणुभागसंतकम्मघादवसेण एगहाणियं मोत्तूण सेसहाणाणि लब्भंति ति दुढाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा त्ति भणिदं । सव्वे 'वा' सहा 'च' सहत्थे दहव्वा ।
छ इत्थिवेदस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादी दुहाणियं वा तिढाणियं
* चार संज्वलन कषायोंका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और देशघाती तथा एकस्थानिक, द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है।
$२०५. शंका-यहाँ अनुभागसत्कर्मके साथ जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण लगाकर कथन क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं,क्योंकि अनुभागसत्कर्मका विशेष बतलानेके लिये उसके साथ जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण नहीं लगाये हैं।
__क्षपणावस्थामें कृष्टिकरणक्रिया करनेके पूर्व सर्वत्र संसार अवस्थामें चार संज्वलन कषायोंका अनुभागसत्कर्म सर्ववाती ही होता है, क्योंकि यहाँ सत्कर्मके अन्तिम स्पर्भककी अन्तिम वर्गण के एक परमाणु में स्थित अविभागीप्रतिच्छेदोंका ग्रहण किया है। अतः चार संज्वलन कषायोंका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है यह सत्र वचन बिल्कुल ठीक है। तथा क्षपकश्रेणीमें कृष्टिकरणक्रियाके निष्पन्न हो जाने पर आगे सर्वत्र मोहनीयकर्म देशघाती ही होता है, अतः चार संज्वलन कषायोंका अनुभागसत्कर्म देशघाती है ऐसा सूत्र में कहा है। क्षपकश्रेणीमें नवकबंधको छोड़कर शेष पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंका कृष्टिरूपसे परिणमन हो जाने पर वहाँसे लेकर उनमें लता समान अनभाग सत्कर्म ही पाया जाता है. अतः चार संज्वलन कषायोंक अनुभागसत्कर्मको एकस्थानिक कहा है। तथा इससे पूर्व अनुभागसत्कर्मका घात हो जानेके कारण जो एकस्थानिक अनुभाग होता है उसे छोड़कर शेष स्थान पाये जाते हैं, इसलिये उसे द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक कहा है। सूत्र में आये हुए सब 'वा' शब्द 'च' शब्दके अर्थमें जानने चाहिये।
* स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और ३. ता० प्रतौ जेण सव्वधादी तेण इति पाठः ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सण्णा वा चउट्ठाणियं वा।
२०६. इत्थिवेदस्साणुभागसंतकम्मं सव्वत्थ सव्वघादी चेव । कुदो ? अणियष्टिखवगस्स इत्थिवेदचरिमाणुभागकंडयप्पहुडि हेट्टा सव्वावत्थासु द्विदजीवस्स इत्थिवेदाणुभागम्मि घादिज्जतम्मि वि देसघादित्ताणुवलंभादो । किम घादिज्जमाणं पि इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मं देसघादिफहयाणमुद्देसं ण पावेदि? सहावदो। ण सहावो पडिजोयणारुहो, सहावोण तक्कगोयरोत्ति आरिसादो। सव्वे 'वा' सहा 'च' सहत्था त्ति । तं सव्वघादी इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मं दुहाणियं च तिहाणियं च चदुहाणियं चेदि संबंधो कायव्यो । एगहाणियं किण्ण होदि ? ण, तत्थ सव्वघादित्ताभावादो । इत्थिवेदाणुभागेणं जहण्णेण वि सव्वघादिणा होदव्वं, अणंतरमित्थिवेदाणुभागो सव्वघादी चेवे त्ति णिरूविदत्तादो । इत्थिवेदाणुभागसंतकम्म सव्वघादी चदुहाणियमिदि सुत्तंकायव्वं, चदुहाणियसंतकम्मम्मि एगढाणिय-दुहाणिय-तिहाणियाणुभागसंतकम्माणमुवलंभादो ति ? ण, एवं मुत्ते संते इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मस्स सव्वकालं चदुहाणियत्तप्पसंगादो। ण च एवं, संसारावत्थाए इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मस्स कया वि दुढाणियस्स कया वि तिहाणियस्स चदुहाणियस्स वा उवलंभादो । एदस्स मुत्तस्स विसयपरूवण उत्तरमुत्तं भणदिचतुःस्थानिक होता है।
२०६. स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वत्र सर्वघाती ही है; क्योंकि अनिवृत्तिकरण क्षपकके स्त्रीवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डकसे लेकर पूर्वकी सब अवस्थाओंमें स्थित जीवके स्त्रीवेदके अनुभागका घात होनेपर भी देशघातीपना नहीं पाया जाता है।
शंका- घात होने पर भी स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म देशघातिस्पर्धकोंके स्थानको क्यों नहीं पाता है ?
समाधान- उसका ऐसा स्वभाव ही है। और स्वभावके विषयमें प्रश्न नहीं किया जा सकता, क्योंकि 'स्वभाव तर्कका विषय नहीं है' ऐसा आर्षवचन है।
सूत्रमें आये हुए सब वा शब्दोंका अर्थ और है। अत: स्त्रीवेदका वह सर्वघाती अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है ऐसा सम्बन्ध लगाना चाहिये। .
शंका- एकस्थानिक क्यों नहीं है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एकस्थानिकमें सर्वघातीपनेका अभाव है। तथा स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग भी सर्वघाती होना चाहिये; क्यों कि अनन्तर ही 'स्त्रीवेदका अनुभागसर्वघाती ही है। ऐसा कह आये हैं।
शंका- 'स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है। ऐसा सूत्र बनाना चाहिये, क्योंकि चतुःस्थानिक अनुभागसत्कर्ममें एकस्थानिक, द्विस्थानिक और त्रिस्थानिक अनुभागसत्कर्म पाये ही जाते हैं।
समाधान- नहीं; क्योंकि ऐसा सूत्र होनेपर स्त्रीवेदके अनुभागसत्कर्मको सदा चतुःस्थानिक होनेका प्रसंग आता है। किन्तु वह सदा चतुःस्थानिक नहीं होता, क्योंकि संसार अवस्था में स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म कभी द्विस्थानिक, कभी त्रिस्थानिक और कभी चतुःस्थानिक पाया
१. ता० प्रती ण (इ) स्थिवेदाणुभागेण, प्रा. प्रतौ णस्थि वेदाणुभागेण इति पाठः ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* मोत्तण खवगचरिमसमयइत्थिवेदयं उदयणिसेगं ।
$ २०७, मोत्तूण सव्वमित्थिवेद पदेस संतकम्मं परसरूवेण संकामिय अवदो चरिमसमयइत्थवेदओ णाम तं मोत्तूण हेट्ठा इत्थिवेदाणुभागसंतकम्मं सव्वत्थ सव्वघादी दुहाणियं तिद्वाणियं चदुट्ठाणियं वा होदि । चरिमसमयइत्थिवेदियस्स अणुभागसंतकम्म सरूवपरूवणद्वमुत्तरमुत्तं भणदि
१४८
―――
* तस्स देसघादी एगट्ठाणियं ।
९ २०८ तस्स चरिमसमयसवेदयस्स इत्थवेदाणुभागसंतकम्मं देसवादी एगट्ठाणियं च होदि, उदयसरूवत्तादो । उदयणिसेगाणुभागसंतकम्मं देसघादि ति कुदो णव्वदे ण, संजदासंजदप्पहूडि उवरिमगुणद्वाणेसु चदुसंजलण-णवणोकसायाणुभागसंतकम्मस्स देसघादिफद्दयाणमुदयाभावे तत्थ अणुव्वय-महव्वयाणमत्थित्तविरोहादो । एगहाणियमिदि कुदो गव्वदे ? अंतरकरणकदपढमसमए मोहणीयस्स एगहाणियो irt गहाणओ उदओ ति सुतणि सादो |
[ अणुभाग विद्दत्ती ४
जाता है। अब इस सूत्रका विषय कहनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* मात्र अन्तिम समयवर्त्ती क्षपक स्त्रीवेदीके उदयगत निषेकको छोड़कर शेष अनुभाग सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक होता है ।
२०७. छोड़कर, अर्थात क्षपकश्रेणिमें स्त्रीवेदका जो प्रदेशसत्कर्म पररूपसे संक्रामित होकर स्थित है उसे अन्तिमसमयवर्ती स्त्रीवेद कहते हैं, उसे छोड़कर इससे पूर्व स्त्रीवेदका जो अनुभागसत्कर्म है वह सर्वत्र सर्वघाती तथा द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक होता है। अब अन्तिम समयवर्ती स्त्रीवेदके अनुभागसत्कर्मका स्वरूप बतलाने के लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु उसका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है ।
६२०८, उसका अर्थात् अन्तिम समयवर्ती सवेदकका स्त्रीवेदसम्बन्धी अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है; क्योंकि वह उदयस्वरूप है ।
शंका-उदयप्राप्त निषेकका अनुभागसत्कर्म देशघाती होता है यह किस प्रमाणसे जाना
जाता है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि संयतासंयत से लेकर आगे गुणस्थानोंमें चार संज्वलन और नव नोकषायों के अनुभाग सत्कर्मके देशघाती स्पर्धकोंके उदयके अभाव में अणुव्रत और महाव्रतका अस्तित्व नहीं हो सकता । अर्थात् यदि इन गुणस्थानोंमें संज्वलन और नौ नोकषायोंके देशघाती स्पर्धकोंका उदय न होता तो उनमें अणुव्रत और महाव्रत भी न होते। इससे जाना जाता है कि अन्तिम समयवर्ती सवेदकके स्त्रीवेदके उदयगत निषेक देशघाती होते हैं ।
शंका- वह अनुभाग सत्कर्म एकस्थानिक होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-अन्तरकरण कर चुकनेके प्रथम समय में मोहनीय कर्मका एकस्थानिक बन्ध स्थानिक उदय होता है इस सूत्र वचनके निर्देशसे जाना जाता है कि अन्तिम समयवर्ती सवेदक स्त्रीवेदका उदयगत निषेक एकस्थानिक होता है ।
१. ता० प्रतौ उदयणिसेगं इति पाठः सूर्याशत्वेन नोपलभ्यते ।
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गा० २२] . अणुभागविहत्तीए सण्णा
१४९ ॐ पुरिसवेदस्स अणुभागसंतकम्मं जहएणयं देसघादी एगट्ठाणियं ।
२०६. कुदो ? पुरिसवेदोदएण खवगसेढिमारूढेण चरिमसमयसवेदेण वर्द्धअणुभागसंतकम्मम्मि पुरिसवेदस्स जहण्णत्तग्गहणादो। दुचरिमादिसमएसु बद्धाणुभागसंतकम्मं जहण्णमिदि किण्ण गहिदं ? ण, चरिमसमयबद्ध अणुभागादो दुचरिमादिसमएसु बद्धाणुभागाणमणंतगुणत्तादो । तं कुदो णव्वदे ? चरिमसमयबद्धाणुभागादो तत्थेव उदयगदगोवुच्छाए अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं, तत्तो सवेदयस्स दुचरिमाणुभागबंधो अणंतगुणो, तत्थेव उदयगदगोउच्छाए अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । एवं हेहा कमेण अोदारेदव्वं जाव पढमसमयअपुव्वकरणो त्ति एदम्हादो अप्पाबहुअसुत्तादो। पुरिसवेदचरिमाणुभागकंडयचरिमफालीए जहण्णमणुभागसंतकम्ममिदि किण्ण घेप्पदि ? ण, तत्थतणाणुभागस्स सव्वघादिवेढाणियस्स जहण्णत्ताणुववचीदो । पुरिसवेदचरिमबंयो देसघादी एगहाणिओ त्ति कदो णव्वदे ? अंतरकरणकदपढमसमयप्पहुडि मोहणीयस्स बंधो उदओ च देसघादी एगहाणिओ चि मुत्तादो ।
* पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है।
६२८९ क्योंकि पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती सवेदकके द्वारा बाँधा गया जो अनुभागसत्कर्म है उसमें पुरुषवेदका जघन्यपना उपलब्ध होता है।
शंका-उपान्त्य आदि समयोंमें बांधा गया जो अनुभागसत्कर्म है वह जघन्य है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्तिम समयमें बद्ध अनुभागसे द्विचरम आदि समयोंमें बन्धको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा होता है, अतः उसका ग्रहण नहीं किया।
शंका-यह कैसे जाना कि अन्तिम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे उपान्त्य समयमें होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है ?
समाधान-“अन्तिम समयमें बद्ध अनुभागसे वहीं उदयगत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे द्विचरम समयमें होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे वहीं उदयगत गोपुच्छाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम समय पर्यन्त क्रमसे नीचे उतारना चाहिये । इस अल्पबहुत्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना कि अन्तिम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे उपान्त्य समयमें होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है।
शंका-पुरुषवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालीमें जो अनुभागसत्कर्म है वह जघन्य है ऐसा क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उसमें जो अनुभाग है वह सर्वघाती और द्विस्थानिक है, अत: वह जघन्य नहीं हो सकता।
शंका-पुरुषवेदका अन्तिम बन्ध देशघाती और एकस्थानिक है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-अन्तरकरण कर चुकनेके प्रथम समयसे लेकर मोहनीयका बन्ध और उदय देशघाती और एकस्थानिक होता है इस सूत्रसे जाना।
१. प्रा० प्रतौ चरिमसमयवेदगबद्ध इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ दुचरिमसमएसु इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * उक्कस्साणुभागसंतकम्मं सव्वधादी चदुट्ठाणियं ।
$ २१०. जहण्णुक्कस्सविसेणमकाऊण इत्थिवेदस्सेव किण्ण वुलं ? ण, एगहाणियाणुभागस्स संभवे संते दुहाण--तिहाण--चउहाणअणुभागसंतकम्माणं णियमेण संभवो अत्थि त्ति तहाविहपरूवणाए फलाभावादो । जदि एवं तो इत्थिवेद-चदुसंजलणाणं पि तहा परूवणा ण फायव्वा, एगहाणियाणुभागस्स अत्थित्तं पडि विसेसाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, तेहि सुत्तेहि अवसेसे जाणाविदे संते पुणो तहापरूवणाए फलाभावादो । सेसं सुगमं ।।
* णवंसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मंजहएणयं सव्वघादी दुट्ठाणियं।
$ २११. एदमोघजहण्णं' ण होदि किंतु आदेसजहण्णं, णqसयवेदोदएण खवगसेढिमारूढस्स चरिमसमयसवेदियस्स उदयगदेगगोवुच्छम्मि जहण्णाणुभागत्तादो। एदं जहण्णाणुभागसंतकम्म पुण कत्थ गहिदं? णव॒सयवेदचरिमाणुभागकंडयम्मि । एत्थेव गहिदमिदि कुदो णव्वदे ? देसघादी एगहाणियं ति अभणिदूण सबघादी दुहाणिय
* तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है।
S२१०. शंका-जघन्य और उत्कृष्ट विशेषण न लगाकर स्त्रीवेदके समान निर्देश क्यों नहीं . किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि पुरुषवेदमें एकस्थानिक अनुभागके संभव होने पर द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक अनुभागसत्कर्म नियमसे संभव है, इसलिए उसप्रकारसे कथन करने में कोई फल नहीं होनेसे वैसा निर्देश नहीं किया।
शंका-यदि ऐसा है तो स्त्रीवेद और चार संज्वलनकषायोंका भी उसप्रकारसे कथन नहीं करना चाहिए, क्योंकि एकस्थानिक अनुभाग उनमें भी संभव है, इसलिये एकस्थानिक अनुभागके अस्तित्वकी अपेक्षा उनमें और पुरुषवेदमें कोई अन्तर नहीं है। अर्थात् पुरुषवेदकी तरह स्त्रीवेद और संज्वलनकषायमें भी एकस्थानिक अनुभाग पाया जाता है और जिसमें एकस्थानिक अनुभाग संभव है उसमें द्विस्थानिक आदि अनुभाग नियमसे संभव हैं, अत: स्त्रीवेद और चार संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्मका कथन जिसप्रकार पिछले सूत्रोंमें कर आये हैं उसप्रकार नहीं करना चाहिए था।
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि उन सूत्रोंसे अवशेष बातोंका ज्ञान करा देनेपर पुनः उस प्रकारसे कथन करनेमें कोई फल नहीं है । शेष सुगम है।
* नपुसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और विस्थानिक होता है ।
६२११. यह ओघ जघन्य नहीं है किन्तु आदेश जघन्य है, क्योंकि ओघसे नपुंसक वेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके उदयगत एक गोपुच्छामें जघन्य अनुभाग होता है।
शंका-तो फिर यह सूत्रोक्त जघन्य अनुभागसत्कर्म कहां ग्रहण किया है।
समाधान-नपुंसकवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें यह जघन्य अनुभागसत्कर्म ग्रहण किया है।
शंका-उसे यहां ही ग्रहण किया है यह किस प्रमाणसे जाना ? १. प्रा० प्रती एदमोधभंगो जहएणं इति पाठः । २. ता. प्रतौ चरिमसमवेयस्स इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए सण्णा
१५१ मिदि भणिदत्तादो।
* उकस्सयमणुभागसंतकम्म सव्वघादी चउट्ठाणियं । $ २१२. सुगममेदं, असई परूविदत्तादो।
{ २१३. संपहि वुत्तदोमुत्ताणं विसयपरूवणदुवारेण अपवादपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
ॐ वरि खवगस्स चरिमसमयणqसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्म देसघादी एगट्ठाणियं ।।
६२१४. कुदो ? चरिमफालिं परसरूवेण संकामिय उदयगदएगगुणसेढिगोवुच्छाए हिदअणुभागसंतकम्मस्स ग्गहणादो ।
३ २१५ ( एवं जइवसहाइरियपरूविदजहण्णुक्कस्साणुभागविसयघादिसण्णाहाणसण्णाणं' परूवणं काऊण संपहि उच्चारणाइरियवक्वाणक्कम परूवेमो
६२१६. तत्थ सण्णा दुविहा-घादिसण्णा हाणसण्णा चेदि । घादिसण्णा दुविहा—जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । तत्थ ओघेण मिच्छत्त-सम्मामि०-बारसक०-छण्णोक० उक० अणक्क० सव्वघादी। सम्मत्त० उक्क० अणुक्क० देसघादी । चदुसंजलण-तिण्णिवेद० उक्क० सव्वघादी अणुक्क०
समाधान-क्योंकि सूत्र में देशघाती और एकस्थानिक न कह कर सर्वघाती और द्विकस्थानिक कहा है इससे जाना कि यह सूत्रोक्त जघन्य अनुभाग नपुंसकवेदके अन्तिम अनुभागकाण्डकमें ग्रहण किया है।
* तथा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और चतुःस्थानिक होता है।
२१२. इस सूत्रका अर्थ सुगम है, क्योंकि अनेक बार उसे कह चुके हैं। ६२१३. अब उक्त दो सूत्र के विषयकी प्ररूपणाके द्वारा अपवादका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* इतना विशेष है कि अन्तिम समयवर्ती नपुसकवेदी तपकका अनुभागसत्कर्म देशघाती और एकस्थानिक होता है ।
६२१४. क्योंकि अन्तिम फालीको पररूपसे संक्रमाकर उदयगत एक गुणश्रेणिगोपुच्छामें स्थित अनुभागसत्कर्मका यहाँ ग्रहण किया है।
२१५. इस प्रकार आचार्य यतिवृषभके द्वारा प्ररूपित जघन्य और उत्कृष्ट अनुभाग विषयक घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञाका कथन करके अब उच्चारणाचार्यके द्वारा किये गये व्याख्यानक्रमको कहते हैं
२१६. संज्ञा दो प्रकारकी है-घातिसंज्ञा और स्थानसंज्ञा । घातिसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंका उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म
१. श्रा० प्रतौ -सराणवाणसपणाणं इति पाठः। २. ता० प्रती -वक्खाणकर्म इति पाठः ।
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१५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ सव्वघादी वा देसघादी वा ।
$ २१७. आदेसेण णेरइएमु छव्वीसं पयडीणमुक्क० अणुक्क० सव्वघादी। सम्मत्त० उक्क० अणुक्क० देसघादी। सम्मामि० उक्क० सव्वघादी। अणुक्कस्साणुभागसंतकम्म पत्थि, दंसणमोहक्खवणं मोत्तूण अण्णत्थ सम्मत्त--सम्मामिच्छताणमणुभागकंडयघादाभावादो। एवं पढमपुढवि-तिरिक्व-पंचिंदियतिरिक्व-पंचिं०तिरि० पज्ज०-देव०-सोहम्मादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणुक्क० णत्थि, कदकरणिज्जाणं तत्थुववादाभावादो। एवं पंचिंदियतिरिक्वजोणिणीपंचिं०तिरि०अपज्ज०--मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिय त्ति । मणुसतियस्स ओघमंगो। णवरि मणुसपज्जत्तएम इत्थि० उक्क० अणुक्क० सव्वघादी। कदो? परोदएण खवगसेढीए णिल्लेविदत्तादो। मणुस्सिणीसु पुरिस०-णस० उक्क० अणुक्क० सव्वघादी। कदो ? खवगसेढीए परोदएण णहत्तादो। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
$ २१८. जहण्णए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । तत्थ ओघेण मिच्छत्त०सम्मामि०--बारसक०--छण्णोक० ज० अज० सव्वघादी। सम्मत्त० ज० अज० देसघादी। पुरिस०-चदुसंज० ज० देसघादी। अज० देसघादी सव्वघादी वा। चदुण्हं देशघाती है। चार संज्वलन कषाय और तीनों वेदोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती और देशघाती है।
१२१७. श्रादेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म देशघाती है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। किन्तु नरकमें उसका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं है; क्योंकि दर्शनमोहके क्षपणके सिवाय अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनभागकाण्डकघात नहीं होता। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक भी ऐसा ही समझना चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि यहां सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्भ नहीं होता; क्योंकि कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टियोंका वहां उत्पाद नहीं होता । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त; मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासा, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए । तीन प्रकारके मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, क्योंकि इनके क्षपकनेणीमें परोदयसे उसका विनाश होता है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है, क्योंकि इनके क्षपकश्रेणीमें परोदयसे उन दोनोंका विनाश होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए। ____ २१८, अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है--श्रोध और आदेश । उनमें से ओघसे मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्म सर्वघाती है। सम्यक्त्वका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती है।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सण्णा
१५३ संजलणाणं किट्टित्तमुवणमिय विणष्ठाणमजहण्णाणुभागस्स होदु णाम देसघादित्तं, ण पुरिसवेदस्स, फइयसरूवेण विणहत्तादो ? ण, पुरिसवेदस्स वि दुसमयणदोआवलियमेत्तकालं देसघादिअजहण्णाणुभागफहयाणमुवलंभादो । इत्विा-णवंस. जह० देसघादी । अजहण्णं सव्वघादी। एवं मणुसतियम्मि। णवरि मणुसपज्ज० इत्थि० जहण्णाजहण्ण. सव्वघादी मंणुसिणीसु पुरिस०-णस० जहण्णाजहण्ण० सव्वघादी।
$ २१६. आदेसेण णिरयादि जाव सव्वसिदि ति उक्कस्सभंगो । णवरि जहण्णाजहण्णं ति भाणिदव्यं । एवं जाणिदूण णेयव्वं जाव अणाहारि ति।
२२०. हाणसण्णा दुविहा-जहण्णा उक्कस्सा चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०--छण्णोक० उक्क० चउहाणियं । अणुक्क० चउहाणियं तिहाणियं वेढाणियं वा । सम्मत्त० उक्क वेढाणियं । अणुक्क० वेढाणियं एगहाणियं वा। सम्मामि० उकस्साणुक्कस्सं० वेढाणियं । चदुण्णं संजलणाणं तिण्हं वेदाणमुक्क० चदुहाणियं । अणुक्क० चदुहाणियं वा तिहाणियं वा विहाणियं वा एगहाणियं वा । एवं मणुसतिये। णवरि मणसपज्ज० इत्थिवेदस्स एगपुरुषवेद और चार संज्वलन कषायोंका जघन्य अनुभाग देशघाती है और अजघन्य अनुभाग देशघाती और सर्वघाती है।
शंका-चारों संज्वलन कषाय कृष्टिपनेको प्राप्त होकर नष्ट होती हैं, अत: उनका अजघन्य अनुमग देराघाती होओ, किन्तु पुरुषवेदका अजघन्य अनुभाग देशघाती नहीं हो सकता, क्योंकि पधकरूपसे उसका विनाश होता है।
समाधान नहीं क्योंकि पुरुषवेदके भी दो समय कम दो आवली मात्र काल तक देशघाती अजघन्य अनुभागस्पर्धक पाये जाते हैं।
स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म देशघाती है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है। इसी प्रकार मनुष्यके तीन भेदोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है और मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुं नकवेदका जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्म सर्वघाती है।
२१९ आदेशसे नरकसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके जीवोंमें उत्कृष्टके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६ २२०. स्थानसंज्ञा दो प्रकारकी है-जघन्य और उत्कृष्ट । यहां उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दा प्रकारका है-ओघ और आदेश ! ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायों का उत्कृष्ट अनुभागसत्कम चतुःस्थानिक है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक है । सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्म द्विस्थानिक और एकस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। चार संज्वलन कषाय और तीन वेदोंका उत्कृष्ट अनभागसत्कर्म चतुःस्थानिक है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक, द्विस्थानिक और एकस्थानिक है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिये। इतनी विशेषता है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ द्वाणियं णत्थि । मणुसिणीसु पुरिस०-णउसय० एगहाणिय पत्थि।
$ २२१. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक० चउहाणियं । अणुक्क० चउहाणियं तिहाणियं विटाणियं वा । सम्मत्त० उक्क० विद्याणियं । अणुक्क० एगहाणियं । सम्मामि० उक्कस्साणुक्कस्स० वेढाणियं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज०--देव-सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणुक्क० एगहाणं णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंतिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिए ति । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छन्वीसं पयडीणं उक्क० अणुक्क० वेहाणियं । सम्मत्तसम्मामिच्छताणं देवोघभंगो । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
२२२. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । अोघेण मिच्छत्तबारसक०-छण्णोक० जहण्णाणु० वेढाणियं । अज० वेढाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । सम्मत्त० ज० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विद्याणियं वा । सम्मामि० जहण्ण. अजहणणं पि विद्वाणियं । पुरिस०-चदुसंज० जह० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विहाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । इत्थि०-णवूस० ज० एगहागियं । अज० वेहाणियं स्त्रीवेदका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है। तथा मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है ।
६२२१. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतु स्थानिक है और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म चतुःस्थानिक, त्रिस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अणुभागसत्कम द्विस्थानिक है और अनुत्कृष्ट अनुभाग सत्कम एकस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका अनुस्कृष्ट अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक नहीं है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यच्चयोनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्वि पर्यन्त छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सामान्य देवोंके समान भंग है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
२२२. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म एकस्थानिक है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यग्मिध्यात्वका जघन्य और अजघन्य भी अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। पुरुषोद और चार संज्वलन कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है और अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक, विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए अणियोगदारणामाणि
१५५ तिहाणियं चउहाणियं वा । एवं मणुसतिय० । णवरि मणुसपज्जत्तेसु इत्थिवेद० जहण्ण. वेढाणियं । अजहण्ण. वेहाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा । मणुसिणीसु पुरिस०णवंस० ज० वेढाणियं । अज० वेढाणियं तिहाणियं चउहाणियं वा ।
६ २२३. आदेसेण गैरइएसु छव्वीसं पयडीणं ज. विहाणियं। अज० तिहाणियं चउहाणियं वा । सम्मत्त० ज० एगहाणियं । अज० एगहाणियं विहाणियं वा । सम्मामि० ओघं । णवरि जहण्णाजहण्णभेदो गत्थि। एवं पढमपुढवि-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज०-देव--सोहम्मादि जाव सहस्सारकप्पो ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । एवं जोणिणी-पंचि०तिरि०अपज्ज.-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिओ ति। आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति छव्वीसं पयडीणं ज० अज० वेढाणियं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघभंगो। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
हाणसण्णा समत्ता। २२४. उत्तरपयडिअणुभागविहत्तीए तत्थ इमाणि अणियोगद्दाराणि । तं जहा-- सव्वाणुभागविहत्ती णोसव्वाणुभागविहत्ती उकस्साणुभागविहत्ती अणुकस्साणुभागविहत्ती अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनिय में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म विस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। मनुष्यनियों पुरुषवेद और नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है । अजघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक, त्रिस्थानिक और चतु:स्थानिक है।
२२३. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म द्विस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म त्रिस्थानिक और चतुःस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक है। अजघन्य अनुभागसत्कर्म एकस्थानिक और द्विस्थानिक है। सम्यग्मिथ्यात्व का ओघके समान जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ उसमें जघन्य और अजघन्यका भेद नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य भेद नहीं है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपयोप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्यातिषियोंमे जानना चाहिए। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्म द्विस्थानिक है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भंग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
स्थानसंज्ञा समाप्त हुई। १२२४. उत्तरप्रकृति अनुभागविभक्तिमें ये अनुयोगद्वार होते हैं । यथा-सर्वानुभागविभक्ति नोसर्वानुभागविभक्ति, उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति, अनुस्कृष्ट अनुभागविभक्ति, जघन्य अनुभागविभक्ति,
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___जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जहण्णाणुभागविहत्ती अजहण्णाणुभागविहत्ती सादियअणुभागविहत्ती अणादियअणुभागविहत्ती धुवाणुभागविहत्ती अद्धवाणुभागविहत्ती एगजीवेण सामि कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागाणुगमो परिमाणाणुगमो खेताणुगमो पोसणाणुगमो कालो अंतरं सरिणयासो भावो अप्पाबहुअं चेदि। भुनगार-पदणिक्खेव-वड्डिविहत्तिहाणाणि ति।
___ २२५. तत्थ सव्वविहत्ति-णोसव्वविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अहावीसं पयडीणं सव्वाणि फहयाणि सव्वविहत्ती । तदाणि णोसव्वविहत्ती । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
२२६. उक्स्सवित्ति-अणुक्कस्सविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण अठ्ठावीसं पयडीणं सव्वुक्कस्सचरिमफद्दयचरिमवग्गणाणुभागो उकस्सविहत्ती । तदूणो अणुकस्सविहत्ती। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
$ २२७. जहण्णाजहण्णविहत्तियाणुगमेण दुविहो णिसो-ओघेण आदेसैण य। ओघेण सव्वासिं पयडीणं सव्वजहण्णहाणस्स चरिमवग्गणाणुभागो चरिमकिट्टिअणुभागो वा जहएणविहत्ती। तदुवरिमजहण्णविहती। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
२२८. सादि-अणादि-धुव--अर्द्धवाणुगमेण दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण । अोघेण मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०--अहक. उक्क० अणुक्क० ज० अज० कि अजघन्य अनुभागविभक्ति, सादि अनुभागविभक्ति, अनादि अनुभागविभक्ति, ध्रुव अनुभागविभक्ति, अध्रुव अनुभागविभक्ति, एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय, भागाभागानुगम, परिमाणानुगम, क्षेत्रान गम, स्पर्शनानु गम, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव और अल्पबदुत्व । तथा भुजगार, पदनिक्षेप, अद्धिविभक्ति और स्थान।।
..२२५. उनमेंसे सर्वविभक्ति और नासर्वविभक्तिक अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। आघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब स्पर्धक सर्वविभक्ति हैं। उनसे कम स्पर्धक नोसर्वविभक्ति हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
२२६. उत्कृष्टविभक्ति और अनुत्कृष्टविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। आघसे अट्ठाईस प्रकृतियोंके सबसे उत्कृष्ट अन्तिम स्पर्धकोंकी अन्तिम वर्गणाओंका अनुभाग उत्कृष्टविभक्ति है। उससे कम अनुभाग अनुत्कृष्टविभक्ति है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
२२७. जघन्य और अजघन्य विभक्तिअनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे सब प्रकृतियोंके सबसे जघन्य स्थानकी अन्तिम वर्गणाका अनुभाग अथवा अन्तिम कृष्टिका अनुभाग जघन्य विभक्ति है। उससे ऊपरका अनुभाग अजघन्यविभक्ति है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
२२८. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य अनुभाग क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है या
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१५७ सादिओ किमणादिओ किं धुवो किमडुवो वा ? सादी अधुवो । चदुसंजल०--णवणोकसाय० उक्क० अणुक० ज० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा ? सादि० अर्बुवा । अज० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा ? अणादिया धुवा अधुवा वा । अणताणु० चउक्क० उक्क० अणुक्क० ज० किं सादिया अणादिया धुवा अधुवा ? सादि-अधुवा । अज० किं सादि० अणादि० धुवा अधुवा ? सादि० अणादि० धुवा अधुवा वा। आदेसम्मि सव्वपयडीणं सव्वपदा० सादिअधुवा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
* एगजीवेण सामित्त ।
$ २२६. सव्वविहत्तियादिअहियारे अभणिदूण एगजीवेण सामित्तं चेव किमिदि जइवसहाइरियो भणदि ? ण, जहएणुकस्ससामित्तेसु पविदेसु तेसि पि अवगमो होदि सि तदपरूवणादो। ण च अवगयअत्थपरूवयं सुत्तं भवदि, अइप्पसंगादो।)
मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२३०. एदं पुच्छासु सव्वमग्गणाहि सव्वोगहणाहि विसेसिदजीवे उवेक्खदे । सेसं सुगमं । क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। चार संज्वलन और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट,अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभाग क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। अनन्तानुबन्धो चतुष्कका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य अनुभाग क्या सादि है, क्या अनादि है, क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य अनुभाग क्या सादि है, क्या अनादि है क्या ध्रुव है अथवा क्या अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रव और अध्रुव है। आदेशसे सब प्रकृतियोंके सब पद सादि और अध्रव हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
* एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका प्रकरण है।
६ २२९ शंका-सर्वविभक्ति आदि अधिकारोंको न कहकर आचार्य यतिवृषभ एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका ही क्यों कहते हैं ?.
समाधान नहीं, क्योंकि जघन्य और उत्कृष्ट स्वामित्व का कथन कर देने पर उनका भी ज्ञान होजाता है, इसलिये शेष अधिकारोंका प्ररूपण नहीं किया है। यदि कहा जाय कि स्वामित्व के प्ररूपणसे उनका ज्ञान होजाने पर भी उनका कथन कर देते तो क्या हानि थी। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि यह सूत्र ग्रन्थ है और जो जाने हुए अर्थ का कथन करता है वह सूत्र नहीं हो सकता, अन्यथा अतिप्रसंग दोष आयेगा, अर्थात् यदि जाने हुए अर्थ का कथन करनेवाला ग्रन्थ भी सूत्र कहा जा सकता है तो फिर कोई मयादा ही नहीं रहेगी।
* मिथ्यात्व का उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
६२३०. यह पृच्छासूत्र सब मार्गणाओं और सब अवगाहनाओं से युक्त जीव की उपेक्षा करता है । अर्थात् सामान्य जीव की अपेक्षा करता है । शेष अर्थ सुगम है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहची ४ * उकस्साणुभागं पंधिदूण जाव ण हणदि ।
२३१. उक्कस्ससंकिलेसेण उक्कस्समणुभागं बंधिदण जाव तं कंडयघादेण ण हणदि ताव तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं होदि । सो उकस्साणुभागबंधो कस्स होदि ? सण्णिपंचिंदियपज्जतसव्वुक्कस्ससंकिलेसमिच्छाइडिस्स । जदि एवं तो एवंविधो उक्कस्साणुभागबंधओ त्ति किण्ण परूविदं ? ण, अवुत्ते वि आइरिओवदेसादेव जाणिज्जदि त्ति तदपरूवणादो । सो जाव तमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कंडयघादेण ण हणदि ताव तेण कत्थ कत्थ उप्पज्जदि त्ति वुत्ते तण्णिण्णयत्थमुत्तरमुत्तं भणदि ।
8 ताव सो होज एइंदिनोवा वेइंदिनो वा तेइंदिनो वा चउरिदियो वा असरणी वा सरणी वा।
२३२. तेणुक्कस्ससंतकम्मेण सह कालं कादण एइंदिओ होज्ज, बीइंदिओ तीइंदिओ चउरिदियो असण्णिपंचिंदिओ सण्णिपंचिदिओ वा होज्ज; उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण सह एदेसि विरोहाभावादो । एइंदिया बहुविहा बादर-सुहुम-पज्जत्तापज्जत्तभेयेण । तत्थ केसिं गहणं ? सव्वेसि पि । कुदो ? मुत्तम्मि विसेसणिद्दे साभावादो। एवं वेइं दियादीणं पि वत्तव्वं । एदस्य सुत्तस्स अपवादहमुत्तरसुतं भणदि ।
* जो उत्कृष्ट अनुभागका बंध करके जब तक उसका घात नहीं करता है ।
२३१. उत्कृष्ट संक्ल शसे उत्कृष्ट अनुभागका बंध करके जब तक उसे काण्डकघातके द्वारा नहीं घातता है तब तक उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है।
शंका-वह उत्कृष्ट अनुभागबन्ध किसके होता है ? समाधान-सर्वोत्कृष्ट संक्लेशवाले संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्त मिथ्यादृष्टिके होता है।
शंका-यदि ऐसा है तो 'जो इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका बंधक है उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। इस प्रकार क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि नहीं कहने पर भी अचार्यके उपदेशसे ही यह बात ज्ञात हो जाती है, अतः उसका कथन नहीं किया है।
वह जीव जब तक उस उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको काण्डकघातके द्वारा नहीं घातता है तब तक वह कहाँ कहाँ उत्पन्न होता है ऐसा प्रश्न करने पर उसका निर्णय करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं -
* तब तक वह एकेन्द्रिय, दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी अथवा संज्ञी होता है, उसके मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है।
२३२. उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके साथ मरण करके वह जीव एकेन्द्रिय होता है,दोइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी पञ्चन्द्रिय अथवा संज्ञी पञ्चन्द्रिय होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मके साथ इन पर्यायोंका कोई विरोध नहीं है।
शंका-बादर, सूक्ष्म, पर्याप्त और अपर्याप्तके भेदसे एकेन्द्रिय जीव अनेक प्रकारके हैं। उनमेंसे किसका ग्रहण किया है ?
समाधान-सभीका ग्रहण किया है; क्योंकि सूत्रमें किसी विशेषका निर्देश नहीं है। इसी प्रकार दोइन्द्रियादिकके सम्बन्धमें भी कहना चाहिये। अब इस सूत्रके अपवादके
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीप सामित्तं
१५९ * असंखेजवस्साउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च पत्थि ।
२३३. असंखेजवस्साउएसु ति वुचे भोगभूमियतिरिक्ख-मणुस्साणं गहणं, ण देन-णेरइयाणं । कुदो १ रूढिवसादो । भोगभूर्म सु ओसप्पिणी-उसप्पिणीणमवसाणे आदीए च संखेजवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्साणं पि अदो चेव असंखेज्जवस्साउअत्तं । वुप्पत्तिणिरवेक्खो असंखेज्जवस्साउअसदो भोगभूमियतिरिक्ख-मणुस्सेसु संखेज्जवस्साउएसु असंखेज्जवस्साउएसु च वट्टदि ति भणिदं होदि ।
___$ २३४. मणुस्सोववादियदेवेसु त्ति वुत्ते आणदादिउवरिमसव्वदेवाणं गहणं, मणुस्सेसु चेव तेसिमुप्पत्तीदो। कुदोवहारणोवलद्धी? मणुस्सोववादियदेवेसु त्ति विसेसणादो। तं जहा-सव्वे देवा मणुस्सोववादिया, पडिसेहाभावादो । तदो फलाभावादोण विसेसणं लिये श्रागेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु वह असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें और केवल मनुष्योमें उत्पन्न होनेवाले देवोमें उत्पन्न नहीं होता है।
२३३. असंख्यात वर्ष की आयुवालोंमें ऐसा कहने पर उससे भोगभूमिया तिर्यञ्च और मनुष्योंका ग्रहण हाता है, देव और नारकियोंका नहीं क्योंकि रूढ़ि हो ऐसी है। भोगभूमियोंमें अवसर्पिणी कालके अन्तमें और उत्सर्पिणी कालके आदिमें हानेवाले सख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य भी इसी सूत्रके बलसे असंख्यातवर्षायु क कहे जाते हैं । तात्पर्य यह है कि व्युत्पत्तिकी अपेक्षा न करके यह असंख्यातवर्षायुष्क शब्द संख्यात वर्षकी आयुवाले और असंख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमिया तिर्यञ्च और मनुष्योंमें रहता है।
विशेषार्थ-'असंख्यातवर्षायुष्क' शब्दसे भोगभूमियोंका ग्रहण किया जाता है। किन्तु भरत और ऐरावतमें अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी कालका परिणमन सदा होता रहता है तथा अवसर्पिणी कालके प्रारम्भके तीन कालोंमें और उत्सर्पिणी कालके अन्तके तीन कालोंमें भोगभूमि रहती है, अतः जब अवसर्पिणी कालका तीसरा काल समाप्त होने लगता है तो उस समयके तिर्यश्च मनुष्योंकी आयु असंख्यात वर्षकी न होकर संख्यात वर्षकी होने लगती है। इसी प्रकार उत्सर्पिणी कालके चौथे कालके प्रारम्भमें भी जब कि भोगभूमि प्रारम्भ होती है भरत और ऐरावतके तिर्यञ्च और मनुष्योंकी आयु संख्यात वर्षकी होती है, अत: असंख्यातवर्षायुष्क शब्दका जा व्युत्पत्ति अर्थ असंख्यात वर्षकी आयुवाला किया है, यदि वह अर्थ लिया जाता है तो संख्यात वर्षकी आयुवाले भोगभूमियोंका ग्रहण नहीं होता है, अतः व्युत्पत्ति अर्थकी अपेक्षा न करके असंख्यातवर्षायुष्क शब्दसे भोगभूमिया मनुष्य और तिर्यञ्चोंका ग्रहण करना चाहिये चाहे वे संख्यात वर्षकी आयुवाले हों या असंख्यात वर्षकी आयुवाले हों। उनमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव जन्म नहीं लेता।
२३४. मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले देवोंमें ऐसा कहने पर आनत स्वर्गसे लेकर ऊपरके सब देवोंका ग्रहण होता है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति मनुष्योंमें ही होती है।
शंका-मनुष्योंमें ही उत्पन्न होनेवाले देवाका ग्रहण किया है, इस प्रकारका अवधारण कहाँसे लिया ?
समाधान- मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले देवोंमें इस विशेषणसे । इसका खुलासा इस प्रकार है-सभी देव मनुष्यों में उत्पन्न हो सकते हैं, क्योंकि मनुष्योंमें उनकी उत्पत्तिका निषेध नहीं है,
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
फलवंतमिदि । ण च णिष्फलं सुत्तं होदि, अव्ववत्थावत्तदो । तम्हा अवहारणस्स अत्थित्तमवगम्मदिति । एदेसु उक्कस्साणुभागसंतकम्मं णत्थि, तं घादिय विद्याणियं करिय पच्छा सुपत्तदो । ण च तत्थ उकस्साणुभागबंधो वि अस्थि, तेउ-पम्म - सुक्कलेस्साहि तिरिक्ख- मणुस्सेसु सुकलेस्साए देवेसु च उक्कस्साणुभागबंधाभावादो ।
* एवं सोलसकसाय- एवणोकसायाणं ।
२३५. जहा मिच्छत्त उकस्साणुभागस्स सामित्तं परूविदं तहा सोलसकसायणवणोकसायाणं पिपरूवेदव्वं, विसेसाभावादो। एत्थ 'च' सदो समुच्चयहो किण्ण परुविदो ? ण, तेण विणा वि तदट्ठोवलद्धीदो ।
* सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ? २३६. सुगममेदं ।
* दंसणमोहक्खवगं मोत्तण सव्वस्स उक्कस्सयं ।
९ २३७. कुदो ? दंसणमोहक्खवयं मोत्तूण अण्णत्य सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमणुभागखंडयघादाभावादो । पढमसम्मत्तप्पत्तीए अणंताणुबंधिविसंजोयणाए चारितमोह
अत: दूसरा कोई फल न होनेसे विशेषण निष्फल हो जायगा । और सूत्र निष्फल नहीं होता, क्योंकि इससे अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है, इसलिए इस सूत्र में अवधारणके अस्तित्वका ज्ञान होता है ।
इन जीवों में उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं है, क्योंकि उसका घात करके उसे द्विस्थानिक कर लेने के पश्चात् ही इनमें उत्पत्ति होती है । और उनमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध भी नहीं होता । इसका कारण यह है कि भोगभूमि में पर्याप्त अवस्थामें तीन शुभ लेश्याएं ही हैं और
नत स्वर्ग से लेकर ऊपरके देवों में केवल शुक्ल लेश्या ही है। तथा तेज, पद्म और शुक्ललेश्या के रहते हुए तिर्यञ्च मनुष्यों में और शुकुलेश्या के रहते हुए देवोंमें उत्कृष्ट अनुभागबन्ध नहीं हो सकता ।
* इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकपायोंके भी स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये ।
९ ३३५. जैसे मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग के स्वामीका कथन किया उसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंके स्वामित्वका भी कथन कर लेना चाहिये, उससे इसमें कोई भेद नहीं है।
शंका- इस सूत्र में समुच्चयार्थक 'च' शब्द क्यों नहीं कहा ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उसके बिना भी उसके अर्थका ज्ञान हो जाता है 1
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? $ २३६ यह सूत्र सरल है ।
* दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर शेष सबके उत्कर्ष अनुभागसत्कर्म होता है । ९ २३७. क्योंकि दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुभागका काण्डकघात नहीं होता है ।
शंका- प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना और चरित्रमोहकी
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एवमक
गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं उवसामणाए सव्वपयडीणं हिदि-अणुभागकंडएसु णिवदमाणेसु कथमेदासिं दोण्हं चेव पयडीणमणुभागघादो पत्थि ? ण, भिण्णजाइत्तादो। अपुव्व-अणियट्टिभावेण सरिसपरिणामेहिंतो कथं भिण्णाणं कज्जाणं समुप्पत्ती ? ण, कज्जभेदण्णहाणुववत्तीदो कारणाणं पि भेदसिद्धीए।
एवमुक्कस्साणुभागसामित्तं समत्तं । * मिच्छत्तस्स जहणणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२३८. सुगममेदं । * सुहमस्स?
$ २३६. एइंदियग्गहणमेत्थ किण्ण कयं ? ण, एइंदिए मोत्तूण अण्णत्थ मुहुमभावो पत्थि ति एइंदियविण्णाणुप्पत्तीदो। जदि एवं, तो णिगोदग्गहणं कायव्वं, अण्णत्थ जहण्णाणुभागसंतकम्माभावादो ? ण, सुहुमणिद्दे सादो चेव तदुवलंभादो । तं जहा-जो सुहुमेइंदिओ त्ति वुत्ते पासिंदियणाणेण मुहुमणामकम्मोदएण च जो मुहुमत्तं उपशामनामें जब सब प्रकृतियोंके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका घात होता है तो इन दो प्रकृतियोंके अनुभागका घात क्यों नहीं होता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्य प्रकृतियोंसे इनकी जाति भिन्न है ।
शंका-अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप सदृश परिणामोंसे भिन्न कार्योंकी उत्पति कैसे होती है। अर्थात् दर्शनमोहके क्षपणमें भी ये परिणाम होते हैं और प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदि के समय भी ये परिणाम होते हैं। किन्तु एक जगह तो वे परिणाम सभी प्रकृतियोंके स्थिति-अनुभागका घात करते हैं और दूसरी जगह नहीं करते ऐसा भेद क्यों है ?
समाधान दोनों जगहके कार्य में भेद है। इससे सिद्ध है कि कारणमें भी भेद अवश्य है, दोनों जगहके परिणामों में भेद न होता तो कार्यमें भेद न होता। अर्थात् दर्शनमोहके क्षपणकालमें जैसे परिणाम होते हैं वैसे परिणाम प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति आदिमें अन्यत्र नहीं होते।
___इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका स्वामित्व समाप्त हुआ। * मिथ्यात्वका जघन्य अनुभामसत्कर्म किसके होता है ? ३२३८. यह सूत्र सुगम है। * सूक्ष्म जीवके होता है। $ २३६. शंका-इस सूत्रमें एकेन्द्रिय पदका ग्रहण क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एकेन्द्रियको छोड़कर अन्यत्र सूक्ष्मपना नहीं है, इसलिये 'सूक्ष्म' पदसे ही एकेन्द्रियका ज्ञान हो जाता है, अत: एकेन्द्रिय पदका ग्रहण नहीं किया।
शंका-यदि ऐसा है तो निगोदका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि निगोदियाके सिवा अन्यत्र जघन्य अनुभागसत्कर्मका अभाव है।
__समाधान नहीं, क्योंकि 'सूक्ष्म' पदके निर्देशसे ही उनका ग्रहण हो जाता है । इसका खुलासा इस प्रकार है-यहाँ सूक्ष्म एकेन्द्रिय ऐसा कहनेसे स्पर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञानसे और सूक्ष्म नामकर्मके उदयसे जो सूक्ष्मपने को प्राप्त है अर्थात् जो ज्ञानसे भी सूक्ष्म है और पर्यायसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ पत्तो तस्स एत्थ ग्गहणं कदं। ण च मुहुमणिगोदं मोत्तूण अण्णत्थ दोण्हं पि सुहुमत्तं संभवदि, अणुवलंभादो । तम्हा सुहमणिगोदएइंदियस्से त्ति सिद्धं । तो क्खहि अपज्जतग्गहणं कायव्वं ? ण, तस्स वि मुहुमणि सादो चेव सिद्धीदो। जदि सव्वविसुदमुहुमेइ दियअपज्जत्तयस्स जहण्णाणुभागबंधो जहण्णाणुभागो ति घेप्पदि तो अपज्जत्तविसोहीदो पज्जत्तविसोही अणंतगुणा त्ति सुहुमेइंदियपज्जत्तजहण्णाणुभागबंधो किण्ण घेपदि ? ण, धादिदूण सेसअणुभागसंतकम्मस्स एत्थ ग्गहणादो। ण च एत्थ पञ्चग्गबंधस्स पहाणत्तं, जहण्णाणुभागसंतकम्मं पेक्खिदृण तस्स अणंतगुणहीणत्तादो । मुहुमेइंदियपज्जत्तयस्स अपज्जत्तविसोहीदो अणंतगुणविसोहिणा हदावसेसाणुभागो किण्ण घेप्पदि ? ण, जादिविसेसेण मुहमणिगोदअपज्जत्तयस्स थोवविसोहीए घादिदावसिहाणुभागस्स सुहुमपज्जत्तजहण्णाणुभागं पेक्खिदूण अणंतगुणहीणत्तादो। जादिविसेसेण थोवविसोहीए वि अणुभागघादेण थोवमणुभागसंतकम्मं कीरदि त्ति कदो णव्वदे ? दंसणमोहक्खवणाए मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मममणिदूण सुहमणिगोदेसु परूवियभी सूक्ष्म है उसका ग्रहण किया है। सूक्ष्म निगोदिया को छोड़कर अन्यत्र दोनों प्रकार की सूक्ष्मता संभव नहीं है, क्योंकि वह अन्य जीवमें नहीं पाई जाती। अतः सूक्ष्मका अर्थ सूक्ष्म निगोदिया एफेन्द्रिय जीव है ऐसा सिद्ध हुआ।
शंका-तो फिर यहां अपर्याप्त पदका ग्रहण करना चाहिये ? समाधान नहीं, क्योंकि सूक्ष्म पदके निर्देशसे ही उसके ग्रहणकी सिद्धि हो जाती है।
शंका-यदि सर्वविशुद्र सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीवके जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है उसे जघन्य अनुभाग स्वीकार करते हो तो अपर्याप्त जीवकी विशुद्धसे पर्याप्त जीवकी विशुद्धि अनन्तगुणी होती है, अत: सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है उसे क्यों नहीं स्वीकार करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि घाते गये अनुभागमे बचे हुए शेष अनुभागसत्कर्मका यहाँ ग्रहण किया है। यहाँ पर नवीन बंधकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभागसत्कर्मको देखते हुए वह अनन्तगुणा हीन है। ।
शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके अपयाप्त जीवकी विशुद्धिसे अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा घात करने से बचा हुआ जो शेष अनुभाग है उसका क्यों नहीं ग्रहण किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि जातिविशेषके कारण सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त जीवके थोड़ी विशुद्धिके हाने पर भी घात करनेसे जो अनुभाग शेष रहता है वह सूक्ष्म पर्याप्तके जघ य अनुभागको देखते हुए अनन्तगुणा हीन है, अतः यहाँ सूक्ष्म पर्याप्तके अनुभागका ग्रहण नहीं किया।
शंका-थोड़ी विशुद्धिके होते हुए भी जातिविशेषके कारण अपर्याप्त जीव अनुभाग घातके द्वारा अपना अनुभागसत्कर्म थोड़ा कर लेता है यह कैसे जाना ?
समाधान-सूत्रमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहकी क्षपणामें न बतलाकर जो सूक्ष्मनिगोदियाके बतलाया है उससे जाना जाता है कि अपर्याप्त निगोदिया जीव अनुभाग. घातके द्वारा थोड़ा अनुभाग कर लेता है।
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गा० २२ ] .
भणुभागविहत्तीए सामित्त मुत्तादो णव्वदे। संपहि एदेण जहण्णाणुभागसंतकम्मेण सह उप्पजमाणजीत्रविसेसपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणदि
___ हदसमुप्पत्तियकम्मेण अण्णदरो एइंदिओ वा वेइंदिरो वा तेइंदिओ वा चउरिंदिओ वा असरणी वा सरणी वा सुहुमो वा बादरोवा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मियो होदि।।
२४०. हते घातिते समुत्पत्तिर्यस्य तद्धतसमुत्पत्तिक' कर्म । अणुभागसंतकम्मे धादिदे जमुव्वरिदं जहण्णाणुभागसंतकम्मं तस्स हदसमुप्पत्तियकम्ममिदि सण्णा त्ति भणिदं होदि । तेण हदसमुप्पत्तियकम्मेण सह अण्णदरो एइंदिओ वा अण्णदरो वेइंदिओ वा अण्णदरो तेइंदिओ वा अण्णदरो चरिंदिओ वा अण्णदरो असण्णी वा अण्णदरो सण्णी वा अण्णदरो मुहुमो वा अण्णदरो बादरो वा अण्णदरो पज्जत्तो वा अण्णदरो अपजत्तो वा होदि । एवं जादे सो जीवो जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ जायदे। एदे सव्वे वि जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स सामिणो होति ति भणिदं होदि । देवा णेरइया
विशेषार्थ सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्त जीव जब मिथ्यात्वके अनुभागसत्कर्मका घात कर देता है तो उसके मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग पाया जाता है । यद्यपि उस जीवके जो अनुभागबन्ध होता है वह सत्तामें स्थित अनुभागसे अनन्तगुणा हीन होता है किन्तु इस अनुभागविभक्तिमें सत्तामें स्थित अनुभाग की ही विवक्षा है, अत: उसका ग्रहण नहीं किया है। तथा यद्यपि सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्याप्त जीवके अपर्याप्त जीवसे विशेष विशुद्धि होती है तथापि थोड़ी विशुद्धके होते हुए भी सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त जीव जातिविशेषके कारण पर्याप्त जीवकी अपेक्षा अनुभागका अधिक घात कर डालता है और यह बात इससे सिद्ध है कि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहके क्षपकके न बतलाकर सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तकके बतलाया है।
अब इस जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ उत्पन्न होनेवाले जीवके विषयमें विशेष कथन . करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* साथ ही जब वह हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ अन्यतर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय, असंज्ञी, अथवा संज्ञी, सूक्ष्म, अथवा बादर, पर्याप्त अथवा अपर्याप्त जीव होता है तब वह भी जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला होता है।
६२४७. हत अर्थात् घात किये जाने पर जिसकी उत्पत्ति होती है उस कर्मको हतसमुत्पत्तिककर्म कहते हैं। श्राशय यह है कि अनुभागसत्कर्मका घात होने पर जो जघन्य अनुभागसत्कर्म अवशिष्ट रहता है उसकी 'हतसमुत्पतिक कर्म' संज्ञा है। उस हतसमुत्पत्तिककर्मके साथ कोई भी एकेन्द्रिय, अथवा कोई भी दो इन्द्रिय, अथवा कोई भी तेइन्द्रिय, अथवा कोई भी चौइन्द्री, अथवा कोई भी असंज्ञी, अथवा कोई भी संज्ञी, कोई भी सूक्ष्म, अथवा कोई भी बादर, कोई भी पर्याप्त, अथवा कोई भी अपर्याप्त होता है। ऐसा होने पर वह जीव जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला होता है। सारांश यह है कि जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला सूक्ष्म निगोदिया जीव मरकर उक्त एकेद्रियादिकमें उत्पन्न हो सकता है, अतः ये सब जीव जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामी होते
१. ता०प्रतौ वरसमुत्पत्तिकं प्रा०प्रतौ तदुवसमुत्पत्तिकं हति पाठ ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहन्ती ४
असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख- मणुस्सा च मिच्छत्त जहण्णाणुभागस्स ण होंति सामिणो, तत्थ सुहुमेइंदियाणमुप्पत्तीए अभावादो ।
* एवमट्ठकसायाणं ।
६ २४१. जहा मिच्छत्त जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स परूवणा कदा तहा कसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स वि परूवणा कायव्वा, अविसेसादो । अकसायाणं खवणाए जहणसामित्तं किण्ण दिज्जदि ? ण, अंतरे अकदे जाणि कम्माणि विणद्वाणि तेसिमणुभागसंतकम्मं पेक्खिदूण मुहुमेई दियजहण्णाणुभागसंतकम्मस्स जादिविसेसेण अनंतभादो |
१६४
* सम्मत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २४२. सुगमं ।
* चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स ।
$ २४३. दंसणमोहक्खवणार अधापमत्तकरण - अपुव्वकरणाणि करिय अणियहिहैं। देव, नारकी और असंख्यातवर्ष की आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्य मिध्यात्वके जघन्य अनुभागके स्वामी नहीं होते, क्योंकि उनमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंकी उत्पत्ति नहीं होती ।
* इसी प्रकार आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिये । $ २४१. जैसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कथन किया है वैसे ही आठ कषायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मकी भी प्ररूपणा कर लेनी चाहिये, क्योंकि दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । शंका- आठ कषायोंकी क्षपणावस्था में उनके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया ? अर्थात् आठ कषायों का क्षपण करनेवाले जीव को जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि अन्तरकरण किये बिना जो कर्म नष्ट होते हैं उनके अनुभाग सत्कर्म को देखते हुए सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवका जघन्य अनुभागसत्कर्म जातिविशेषके कारण अनन्तगुणा हीन पाया जाता है ।
विशेषार्थ -- उदय प्राप्त प्रकृतिके नीचे और ऊपर के निषेकोंको छोड़कर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण बीके निषेकों को अपने स्थान से उठाकर नीचे और ऊपरके निषेकों में क्षेपण करनेके द्वारा उनके भाव कर देने को अन्तरकरण कहते हैं। इस अन्तरकरण कालमें हजारों अनुभागकाण्डक घात होते हैं, अत: यह अन्तरकरण हुए बिना ही जिन प्रकृतियों का विनाश होता है उनका क्षपणाकालमें जितना अनुभाग पाया जाता है उससे सूक्ष्म एकेन्द्रियमें अनुभागका घात कर चुकने पर कम अनुभाग पाया जाता है, अतः आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियको बतलाया है ।
* सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
९२४२. यह सूत्र सुगम है ।
* अन्तिम समयवर्ती क्षीणदर्शनमोही जीवके सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म होता है ।
$ २४३. दर्शनमोहके क्षय के लिये अधः प्रवृत्तकरण और अपूर्वकरणको करके अनिवृत्ति
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mai
गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं अद्धाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुभिय पुणो सम्मामिच्छत्तं पि अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तम्मि संछुहिय अवस्सियं हिदिसंतकम्मं काऊण अणुसमयओवट्टणाए सम्मत्ताणुभागसंतकम्म ताव घादेदि जाव चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीओ ति। तस्स उदयमागदएगगुणसेढिगोवुच्छाए अणुभागो जहण्णओ, सव्वुक्कस्सघादं पाविय हिदत्तादो।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्म कस्स ?
२४४. सुगमं । ॐ अवणिजमाणए अपच्छिमे अणुभागकंडए वदमाणस्स ।
२४५. अवणिज्जमाणए अपच्छिमे हिदिकंडए त्ति किण्ण वुत्तं ? ण, उब्वेलणचरिमडिदिखंडयचरिमफालीए वि वट्टमाणस्स जहण्णाणुभागत्तप्पसंगादो। ण च करणके कालमें संख्यात भाग बीतने पर मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर पुनः अन्तमुहूर्तमें सम्यग्मिथ्यात्वका भी सम्यक्त्वमें क्षेपण कर, सम्यक्त्व प्रकृतिके स्थितिसत्कर्मको आठ वर्ष प्रमाण करके, प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मको तब तक घातता है जब तक उस अक्षीणदर्शनमोहीके दर्शनमोहके क्षपणका अन्तिम समय आता है उस चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोहीके उदयको प्राप्त एक गणश्रेणिगोपुच्छाका अनुभाग जघन्य होता है, क्योंकि के सम्यक्त्वके अनुभागसत्कर्मका सर्वोत्कृष्ट घात होते होते वह अनुभाग अवशिष्ट रहता है।
विशेषार्थ--अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यात भाग बीत जाने पर जब दर्शनमोहकी क्षपण का प्रस्थापक जीव मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वप्रकृति में संक्रमण करके सम्यक्त्व प्रकृतिकी स्थितिको घटाकर आठ वर्ष प्रमाण कर लेता है तो सम्यक्त्व द्विस्थानिक अनुभागको एक स्थानिकरूप करनेके लिये प्रति समय अपवर्तनघात करता है। अर्थात् पहले तो अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा अनुभागका काण्डकघात करता था अब उसका उपसंहार करके सम्यक्त्वके अनुभागको प्रति समय अनन्तगुणा हीन अनन्तगुणा हीन करता है। जिसका यह आशय हुआ कि पिछले अनन्तरवर्ती समयमें जो अनुभागसत्कर्म था वर्तमान समयमें उदयावली बाह्य अनुभागसत्कर्मको उससे अनन्तगुणा हीन करता है। उदयावलि बाह्य अनुभागसत्कर्मसे उदयावली के भीतर प्रविष्ट अनुभागसत्कर्मको अनन्तगुणा हीन करता है और उससे उदयक्षणमें प्रविष्ट होनेवाले अनुभागसत्कर्मको अनन्तगुणा हीन करता है। ऐसा करते हुए जिस अन्तिम समयके पश्चात ही जीव क्षायिकसम्यग्दृष्टि हो जाता है उस समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिके जो निषेक उदयमें आते हैं उनमें सबसे कम अनुभाग होता है, क्योंकि वह अनुभाग सबसे अधिक घाता जाकर अवशिष्ट रहता है, अतः सम्यक्त्व प्रकृतिके जघन्य अनुभागका स्वामी चरम समयवर्ती अक्षीणदर्शनमोही जीव होता है। ... ___* सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ... . ६२४४. यह सूत्र सुगम है।
* अपनीयमान अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। . . . . .
६२४५. शंका-'अपनीयमान अन्तिम स्थितिकाण्डकमें' ऐसा क्यों नहीं कहा ? समाधान नहीं, क्योंकि ऐसा कहने पर उद्वेलनाको प्राप्त हुए अन्तिम स्थितिकाण्डक की
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ एवं, अणुभागखंडयघादाभावेण तत्थ उक्कस्साणुभागसंतकम्मियम्मि जहण्णत्तविरोहादो । तम्हा अवणिज्जमाणए अपच्छिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्से त्ति सुहासियं ।
६ अणंताणुबंधीणं जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २४६. सुगमं ।
* पढमसमयसंजुत्तस्स । अन्तिम फालीमें भी वर्तमान जीवके जघन्य अनुभागका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि अनुभागकाण्डकका घात न होनेसे वहां उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म पाया जाता है, अत: वह जघन्य नहीं हो सकता। इसलिये 'अपनीयमान अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान जीवके' यह सूत्रवचन ठीक है।
विशेषार्थ-स्थितिको घटानेके लिये स्थितिका काण्डकघात किया जाता है और अनुभागको घटानेके लिये अनुभागका काण्डकघात किया जाता है। काण्डकघातका विधान इस प्रकार हैकल्पना कीजिये कि उदयस्वरूप किसी कर्म की स्थिति ४८ समय की है और चूकि एक समयमें एक निषेकका उदय होता है, अतः उसके ४८ ही निषेक हैं। अब उसमेंसे समयकी स्थिति घटानी है तो ऊपरके ८ निषेकोंके परमाणुओंको लेकर शेष ४० निषेकोंमेंसे आठ निषेकोंके पासके दो निषेकोंको छोड़कर बाकीके ३८ निषेकोंमें मिलाना चाहिये। कुछ परमाणु पहले समयमें मिलाये,कुछ दूसरे समयमें मिलाये। इस तरह अन्तर्मुहूर्त काल तक ऊपरके आठ निषेकोंके परमाणुओंको नीचेके निषेकों में मिलाते मिलाते उनका अभाव कर देनेसे प्रकृत कर्म की स्थिति ४८ समयसे घटकर ४० समयकी रह जाती है। यह एक स्थितिकाण्डक घात हुआ। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। जैसे स्थितिकाण्डकके द्वारा स्थितिका घात किया जाता है वैसे ही ऊपरके अधिक अनुभागवाले स्पर्धकोंका नीचेके कम अनुभागवाले स्पर्धकोंमें क्षेपण करके अनुभागकाण्डकके द्वारा अनुभागका घात किया जाता है। तथा प्रथम समयमें जितने द्रव्यको अन्य निषेकोंमें मिलाया जाता है उसे प्रथम फाली कहते हैं और दूसरे समयमें जितने द्रव्यको अन्य निषेकोंमें मिलाया जाता है उसे द्वितीय फाली कहते हैं। इसी प्रकार अन्तिम समयमें जितने द्रव्यको अन्य निषेकोंमें मिलाया जाता है उसे चरम फाली कहते हैं। - मूलमें बतलाया है कि जब मिश्र प्रकृतिके अन्तिम अनुभागकाण्डकका अपनयन किया जाता है तो उस समयमें उसका जघन्य अनुभाग होता है, इस पर यह शंका की गई कि जब अन्तिम स्थितिकाण्डका घात किया जाता है तब मिश्र प्रकृतिका जघन्य अनुभाग क्यों नहीं होता तो इसका यह समाधान किया गया कि यदि ऐसा माना जायगा तो मिश्र प्रकृति की उद्वेलना करनेवाले मिथ्याष्टि जीवके भी जब वह मिश्र प्रकृतिके अन्तिम स्थितिकाण्डक की अन्तिम फालीमें वर्तमान रहता है तब मिश्र प्रकृतिका जघन्य अनुभाग हो जायगा, किन्तु ऐसा नहीं है, उसके स्थिति जरूर घट जाती है किन्तु अनुभाग नहीं घटता। अत: दर्शनमोहका क्षपण करनेवाला जीव जब मिश्रप्रकृतिके अन्तिम अपनीयमान अनुभागकाण्डकमें वर्तमान रहता है तब उसके मिश्र प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है।
* अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ६२४६. यह सूत्र सुगम है। * प्रथम समयवर्ती संयुक्त जीवके होता है।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं
२४७, सुहुमेईदिए जहरण सामित्तं किण्ण दिएां ? ण, पढमसमयसंजुत्तस्स पचग्गाणुभागबंधं पेक्खिद्रा सुहुमणिगोद जहरणाणुभागसंतकम्मस्स अनंतगुणत्तादो । पढमसमयसंजुत्तस्स पञ्चग्गाणुभागम्मि सेसकसायाणुभागफद्दएस संकंतरसु अनंताणुबंधी मणुभागो सुहुमेइंदियजहणणारण भागसंतकम्मादो अनंतगुणो किरण होदि १ ण, 'बंधे संकमदि ' त्ति बज्झमाणाणुभाग सरूवेण संकामिज्जमाणाणुभागस्स परिणामिज्जमाणत्तादो । संजुत्तविदियसमए जहण्णसामित्तं किण्ण दिज्जदि १ ण, पढमसमए बद्धाणुभागादो विदियसमए अनंतगुणसंकिलेसेण बज्झमाणाणुभागस्स अनंतगुणत्तादो ।
२४७. शंका- सूक्ष्म के न्द्रयों में जघन्य अनुभागका स्वामीपना क्यों नहीं बतलाया ? समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त हुए जीवके जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसे देखते हुए सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्त गुण है।
१६७
शंका--प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी से संयुक्त हुए जीवके नवीन अनुभाग में शेष कषायों के अनुभाग स्पर्धकों का संक्रमण होने पर अनन्तानुबन्धीका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रिय के जघन्य अनुभाग सत्कर्मसे अनन्तगुणा क्यों नहीं होता ?
समाधान -- नहीं, क्योंकि, 'बन्ध अवस्थामें ही संक्रमण होता है' इस नियम के अनुसार जिस अनुभागका संक्रमण होता है वह बध्यमान अनुभागरूपसे ही परिरणमा दिया जाता है, इसलिए उस समय अनन्तानुबन्धीका अनुभाग सूक्ष्म एकेन्द्रियके जघन्य अनुभाग सत्कर्म से अनन्तगुणा नहीं हो सकता ।
शंका- अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके दूसरे समय में अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभाग का स्वामीपना क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि प्रथम समयमें बँधनेवाले अनुभागसे दूसरे समय में अनन्तगुणे संक्लेशसे बँवनेत्राला अनुभाग अनन्तगुणा होता है ।
विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करनेके पश्चात् जो जीव मिध्यात्वको प्राप्त होता है उसके यद्यपि पहले समय से ही अनन्तानुबन्धीका बन्ध होने लगता है तथा अन्य कषायों के सत्त्वमें स्थित निषेक भी अनन्तानुबन्धीरूप से संक्रमित होने लगते हैं, फिर भी उसके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका जो अनुभागसत्कर्म होता है वह सबसे जघन्य होता है । मूलमें एकेन्द्रिय को लेकर जो शंका समाधान किया गया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि यद्यपि यह अनुभागबन्धका प्रकरण नहीं है किन्तु अनुभागकी सत्ताका प्रकरण है, फिरभी यहाँ जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्व को बतल ते हुये संयुक्त जीवके प्रथम समय में अनन्तानुबन्धीका जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसीकी मुख्यता है जो अन्य कषायोंके परमाणु अनन्तानुबन्धीरूप परिणमन करते हैं उनकी मुख्यता नहीं ली गई है, क्योंकि जब यह शंका की गई कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवको अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी क्यों नहीं कहा तो उसका समाधान किया गया कि संयुक्त जीवके प्रथम समयमें जो नवीन अनुभागबन्ध होता है उसको देखते हुए सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । तब पुनः यह शंका की गई कि संयुक्त जीवके जो नवीन अनुभागबन्ध पहले समय में होता है उसमें शेष कषायोंके अनुभागस्पर्धक भी तो संक्र मित होते हैं, अतः नवीन अनुभाग और संक्रमित अनुभाग मिलकर एकेन्द्रियके अनुभाग से अधिक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ 8 कोधसंजलणस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२४८. सुगम । * खवगस्स चरिमसमयअसंकामयस्स ।
$ २४६. कोधोदएण खवगसेटिं चढिय अस्सकण्णकरणद्धाए अपुव्वफद्दयाणि करिय पुणो किट्टीकरणद्धाए पुव्वापुव्वप्फद्दयाणि बारहसंगहकिट्टीओ काऊण पच्छा कोधपढम--विदिय-तदियकिट्टीओ वेदयमाणो समयं पडि अंतोमुहुत्तकालं बंध-संताणुभागाणमणंतगुणहाणि कादूण तदो तदियकिट्टिवेदयचरिमसमए जं बद्धमणुभागसंतकम्म तं समयणदोआवलियमेतद्धाणमुवरि गंतूण चरिमसमयपबद्धस्स चरिमाणुभागफालि धरेदण हिदखवगो चरिमसमयअसंकामओ णाम तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं । परोदएण खवगसेढिं चडिदस्स जहएणमणुभागसंतकम्म ण होदि, तत्थ चरिमाणुभागफालीए सव्वघादिफद्दयभावेण किट्टीहिंतो अणंतगुणाए जहण्णत्तविरोहादो। सुत्तम्मि सोदएण खवगसेढिं चडिदस्से ति [ किं] ण वुत्तमिदि णासंकणिज्ज, चरिमसमयहो जायेंगे तो उत्तर दिया गया कि शेष कषायोंका जो अनुभाग अनन्तानबन्धीरूप संक्रमण करता है उसका परिणमन बँधनेवाले अनुभागके अनुरूप ही होजाता है अर्थात् संक्रान्त अनुभाग उतना ही हो जाता है जितना बद्ध अनुभाग होता है, अत: अनुभाग बढ़ नहीं पाता। किन्तु बात ऐसी नहीं है, क्योंकि सत्ताके प्रकरणमें बन्धकी मुख्यता नहीं हो सकती। यथार्थमें तो जो अन्य कषायोंके परमाणु अनन्तानुबन्धीरूप संक्रान्त होते हैं उनमें जो अनुभाग होता है उसीकी मुख्यता है, किन्तु उसका अनुभाग उतना ही रहता है जितना उस समयमें बंधनेवाले परमाणुओंमें होता है, अतः अनुभागबन्धको लक्ष्यमें रखकर शंका-समाधान करना पड़ा है।
* क्रोधसंज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
२४८. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक तपकके होता है।
$ २४९क्रोधके उदयसे क्षपकश्रेणि चढ़कर, अश्वकर्णकरणके कालमें अपूर्वस्पर्धकोंको करके पुनः कृष्टिकरणके कालमें पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकोंकी बारह संग्रह कृष्टियाँ करके पश्चात् क्रोध की पहली, दूसरी और तीसरी कृष्टियोंका वेदन करता हुआ जीव प्रति समय अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभागबन्ध और अनुभागसत्त्व की अनन्तगुणी हानि करनेके पश्चात् तीसरी कृष्टिका वेदन करनेके अन्तिम समयमें जो बाँधा हुआ अनुभागसत्कर्म है उससे एक समयकम दो आवलीमात्र काल जाकर अन्तिम समयप्रबद्ध की अन्तिम अनुभागफाली को ग्रहण कर स्थित है उस क्षपक को अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक कहते हैं। उसके क्रोध संज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। जो क्रोधके सिवा किसी अन्य कषायके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है उसके क्रोध संज्वलनका जघन्य अनभागसत्कर्म नहीं होता, क्योंकि उसकी अन्तिम अनुभागफालीमें सर्वघातिस्पर्धक होनेसे वह कृष्टियों की अपेक्षा अनन्तगुणी होती है, अतः उसके जघन्य होनेमें विरोध आता है। .... शंका-चूर्णिसूत्रमें 'स्वोदयसे क्षपकोणि पर चढ़नेवालेके' ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि 'चरम समयवर्ती असंक्रामकके' इस
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१६९ असंकामयस्से ति सुत्तादो सोदएण जहएणं होदि त्ति अवगमुप्पसीदो। तं जहासो चरिमसमओ असंकामओ णाम जो सोदएण खवगसेढिं चडिदो, तत्तो उवरि संकामयाणमभावादो। परोदएण चडिदो पुण ण चरिमसमयसंकाममओ, तत्तो उवरिं पि संकामयाणमुवलंभादो। सोदय-परोदयकयभेदविवक्खाए विणा संकामयसामण्णमेव एत्थ विवक्खियमिदि कत्तो णव्वदे ? अण्णहा जहण्णताणुववत्तीदो। दुचरिमसमयसंकामियम्मि जहएणसामित्तं किण्ण दिजदि ? ण, चरिमसमयबंधाणुभागादो दुचरिमसमयबंधाणुभागस्स अणंतगुणस्स तत्थुवलंभादो। समयं पडि अणंतरहेहिमहेहिमअणुभागबंधाणमणंतगुणत्तं कुदो णव्वदे १ वट्टमाणबंधादो अणंतगुणवट्टमाणुदयं पेक्खिदूण अणंतरहेहिमबंधस्स अणंतगुणत्तादो । उदयाणमणंतगुणहीणतं कत्तो णव्वदे? समयं पडि विसोहीए अणंतगुणत्तएणहाणुववत्तीदो। सूत्रसे ही यह ज्ञात हो जाता है कि स्वोदयसे श्रेणि चढ़नेवालेके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। खुलासा इस प्रकार है-जो स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ता है वह चरमसमयवर्ती असंक्रामक कहलाता है, क्योंकि उससे आगे संक्रमण करनेवालोंका अभाव है। किन्तु जो परोदयसे श्रेणि पर चढ़ा है वह चरम समयवर्ती संक्रामक नहीं है, क्योंकि उसके ऊपर भी संक्रमण करनेवाले पाये जाते हैं।
शंका-स्वोदय और परोदयकृत भेदकी विवक्षाके विना यहाँ संक्रामक सामान्य की ही विवक्षा है यह कैसे जाना ?
समाधान-यदि ऐसा न होता तो उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं बन सकता था।
शंका-चरम समयसे पूर्व समयवर्ती संक्रामकको जघन्य अनुभागका स्वामी क्यों नहीं कहा?
समाधान नहीं, क्योंकि चरम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे द्विचरम समयमे होनेवाला अनुभागबन्ध वहाँ अनन्तगुणा पाया जाता है।
शंका-चरम समयसे लगातार पूर्व पूर्व प्रतिसमय होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा होता है यह कैसे जाना ?
समाधान-वर्तमान बन्धसे वर्तमान उदयको अनन्तगुणा देखकर अनन्तर पूर्व समयवर्ती बन्ध अनन्तगुणा होता है, यह जाना।
शंका-प्रति समय उदय अनन्तगुणा हीन होता है यह कैसे जाना ?
समाधान-यदि उदय अनन्तगुणा हीन न होता तो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि नहीं होती, इससे जाना कि प्रति समय उदय अनन्तगुणा हीन होता है।
विशेषार्थ जो जीव क्रोध कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा वह अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें नोकषायोंका क्षपण करके और अपगतवेदी होकर संज्वलन क्रोधका क्षपण करने के लिये सबसे प्रथम अश्वकर्ण नामका करण करता है। अर्थात् जैसे अश्व अर्थात् घोड़ेका कर्ण-कान मूलसे लेकर क्रमसे घटता हुआ देखा जाता है, उसी प्रकार यह करण भी क्रोध संज्वलनसे लेकर लोभसंज्वलन पर्यन्त अनुभागस्पर्धकों को क्रमसे अनन्तगुणा हीन करनेमें कारण है, इसलिये उसे अश्वकर्णकरण कहते हैं। इस करण के प्रथम समयसे ही अपूर्व स्पर्धकोंका होना प्रारम्भ हो जाता है। जो अनुभागस्पर्धक पहले कभी प्राप्त नहीं हुए, क्षपकश्रेणिमें अश्वकर्णकरण काल के द्वारा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[अणुभागविहत्ती४
ही जिनकी प्राप्ति होती है तथा पूर्व स्पर्धकोंसे जिनमें अनन्तगुणा हीन अनुभाग पाया जाता है उन्हें अपूर्व स्पर्धक कहते हैं। अश्वकर्णकरण कालके समाप्त होनेके अनन्तर समयसे ही कृष्टिकरण काल प्रारम्भ हो जाता है। कृष्टिकरणके प्रथम समयसे ही क्रोधकषायके पूर्व स्पर्धक और अपूर्व स्पर्धकोंमेंसे असंख्यातवें भाग प्रदेशों का अपकर्षण करके क्रोधकी कृष्टियां करता है। वे कृष्टियां अपूर्व स्पर्धककी प्रथम वर्गणासे अनन्तवें भाग हीन होती हैं। तथा एक एक कषायकी तीन तीन कृष्टियां होनेसे चारों कषायों की बारह संग्रहकृष्टियां होती हैं। जिस समय यह जीव कृष्टियोंको करता है उस समय पूर्वस्पर्धक और अपूर्वस्पर्धकोंका तो वेदन करता है किन्तु कृष्टियोंका वेदन नहीं करता है। कृष्टिकरणकालके अन्तिम समयमें वेद्यमान उदयस्थिति को छोड़कर उससे ऊपर क्रोध संज्वलनकी प्रथम स्थिति श्रावलिप्रमाण शेष रहने पर कृष्टिकरणकाल क्रमसे समाप्त हो जाता है। पीछे कृष्टियोंका वेदनकाल प्रारम्भ होता है । कृष्टिवेदनके प्रथम समयमें अनन्तगुणी विशुद्धिसे बढ़ता हुआ कृष्टिवेदक जीव बारहों संग्रह कृष्टियों में से उत्कृष्ट कृष्टिसे लेकर एक एक संग्रह कृष्टिके असंख्यातवें भाग अनन्त कृष्टियोंको अपवर्तन घातके द्वारा एक समय में नष्ट कर देता है, अर्थात् ऊपर की कृष्टियों का अपवर्तन घात करके उन्हें नीचे की कृष्टिरूपसे परिणत कर देता है। और इस प्रकार पहले की गई कृष्टियों के नीचे और उनके अन्तरालमें अन्य अपूर्व कृष्टियां करता है। ये कृष्टियां मान, माया और लोभकी प्रथम तीन संग्रहकृष्टियोंमें तो बंधनेवाले और संक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशोंसे बनती हैं और क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टिमें बध्यमान प्रदेशोंसे ही बनती हैं, क्योंकि उसमें सक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशों का अभाव है। तथा शेष संग्रहकृष्टियोंमें संक्रमित होकर आनेवाले प्रदेशोसे ही बनती हैं। इस प्रकार कृष्टियोंका वेदन करते हुए क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिने दो समय कम दो आवली मात्र नवक समयप्रबद्ध और उच्छिष्टावली छोड़कर शेष द्रव्य दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित हो जाता है। बादको नवकबन्ध तथा उच्छिष्टावलीका द्रव्य भी यथाक्रम दूसरी संग्रहकृष्टिमें संक्रमित हो जाता है। जिस विधिसे क्रोधकी प्रथम संग्रहकृष्टिका वेदन करता है उसी विधिसे दूसरी और तीसरी संग्रहकृष्टिका वेदन करता है। तीसरी कृष्टिके वेदनकालके अन्तिम समयमें जो अनुभागसत्कर्म बद्ध होता है, समय कम दो आवली मात्र कालके पश्चात् उसे अन्तिम अनुभाग फालीमें जब डाल देता है तो वह क्षपक अन्तिम समयवर्ती संक्रामक कहलाता है, क्योंकि उसके पश्चात् क्रोधका अन्त हो जाता है, उसके क्रोध संज्वलनका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। यहाँ जो क्रोध कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है उसीका ग्रहण किया है, जो अन्य कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसका ग्रहण नहीं किया है, क्योंकि अन्य कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जीव उसी स्थानमें चरिम समयवर्ती संक्रामक नहीं होता जिस स्थानमें स्वोदयसे चढ़नेवाला जीव चरिम समयवर्ती संक्रामक होता है, क्योंकि क्रोधकषायके उदयसे चढ़नेवाला जीव जिस स्थानमें अश्वकणकरण करता है मानकषायके उदयसे चढ़नेवाला जीव उस स्थानमें क्रोधका क्षपण करता है । क्रोधके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेका जो कृष्टिकरणकाल है मानकषाय के उदयसे चढ़नेवालेका वह अश्वकर्णकरणकाल है। क्रोधसे चढ़नेवालेका जो क्रोधका क्षपणकाल है, मानके उदयसे चढ़नेवालेका वह कृष्टिकरण काल है। इसी प्रकार क्रोधसे चढ़नेवाला जहाँ अश्वकर्णकरण करता है मायाके उदयसे चढ़नेवाला वहाँ क्रोधका क्षपण करता है । क्रोधसे चढ़ने वाला जहाँ कृष्टियां करता है मायासे चढ़नेवाला वहाँ मानका क्षपण करता है । अत: अन्य कषाय के उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाला चरिमसमयवर्ती संक्रामक आगे आगे होता है। तथा अन्य कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाले के क्रोधका स्पर्धकरूपसे ही विनाश होता है कृष्टिरूपसे विनाश नहीं होता, अत: अन्य कषायके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवालेके क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कम नहीं होता।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१७१ * एवं माण-मायासंजलणाणं ।
$ २५०. जहा कोहसंजलणस्स चरिमसमयअसंकामयम्मि जहएणसामित्तं वुत्तं तहा माण-मायासंजलणाणं पि वत्तव्वं । गवरि सोदएण हेडिमकसाओदएण च खवगसेटिं चढिदस्स जहएणसामित्तं वत्तव्वं ।
* लोभसंजलणस्स जहणणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२५१. सुगमं । छ खवगस्स चरिमसमयसकसायिस्स ?
६ २५२. कुदो ? बादरकिट्टीहितो अणंतगुणहीणसुहुमकिट्टीए अणुसमयओवट्टणाए अंतोमुहुत्तमेत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए पत्ताणंतभागघादाएं' मुहुमसांपराइयचरिमसमए वट्टमाणाए मुटु थोवत्तादो ।
___ * इसी प्रकार संज्वलनमान और संज्वलनमायाके जघन्य स्वामित्वका कथन कर लेना चाहिये।
२५०. जैसे संज्वलन क्रोधके जघन्य अनुभागका स्वामी अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक को बतलाया है, वैसे ही संज्वलन मान और संज्वलन मायाका भी कहना चाहिये। इतना विशेष है कि स्वोदयसे और पूर्व की कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवाले जीवके जघन्य स्वामित्व कहना चाहिये।
विशेषार्थ-जैसे संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभागसत्कर्म स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ने वाले चरिम समयवर्ती संक्रामकके बतलाया है वैसे ही मान और मायाका भी समझना चाहिए। विशेषता केवल इतनी है कि जो स्वोदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा है या पूर्वकी क्रोधादि कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ा है, दोनोंके जघन्य अनुभागसत्कम होता है, क्योंकि क्रोध कषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जिस कालमें मान, माया और लोभका क्षपण करता है, मान, माया और लोभके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला भी उसी कालमें मान, माया और लोभका क्षपण करता है, दोनोंमें कालका अन्तर नहीं पड़ता।
* संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ६२५१. यह सूत्रसुगम है। * अन्तिम समयवर्ती सकषाय तपकके होता है।
६२५२. क्योंकि, एक तो सूक्ष्म कृष्टि बादर कृष्टियोंसे अनन्तगुणी हीन होती है दूसरे उसमें प्रति समय अपवर्तनघात होता है और इस प्रकार अन्तमुहूर्त काल तक अनन्तगुणी हीन गुणणिरूपसे उसके अनन्तभाग अनुभागका घात हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें वर्तमान वह सबसे स्तोक है, इसलिये सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयमें संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म कहा है।
विशेषार्थ-जैसे अपूर्व स्पर्धकोंसे नीचे अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभाग लिये क्रोध की प्रथम संग्रहकृष्टि होती है वैसे ही बादर कृष्टिसे नीचे अनन्तगुणा घटता हुआ अनुभाग लिये सूक्ष्मकृष्टिकी रचना होती है। लोभ की द्वितीय कृष्टिका वेदन करते हुए जब उसकी प्रथम
१. ता० प्रतौ पत्तागंतधादाए इति पाठः ।
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१७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * इत्थिवेदस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २५३. सुगमं । * खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स ।
$ २५४. जो इत्थिवेदोदएण खवगसेडिं चढिदो अंतरकरणं काऊण अंतोमुहुत्तकालेण पुरिसवेदम्मि संकामिदणqसयवेदो सवेददुचरिमसमयम्मि इत्थिवेदविदियहिदि धरेदूण उवरिमसमए कयणिस्संतो इत्थिवेदस्स उदयगदगोवुच्छावसेसो तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं । कदो ? देसघादिएगहाणियत्तादो। ण चेदमसिद्धं, अंतरकरणे कदे मोहणीयस्स एगहाणिो बंधो एगहाणिओ उदो ति मुत्तादो। तस्स सिद्धीए दुचरिमसमयसवेदम्मि जहएणसामित्तं किरण दिण्णं ? ण, तत्थ सव्वधादिदुहाणियअणुभागस्स जहएणत्तविरोहादो।
ॐ पुरिसवेदस्स जहणणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? स्थितिमें समय अधिक आवली शेष रहती है तो लोभ की तीसरी कृष्टिका सब द्रव्य सूक्ष्मकृष्टिमें संक्रान्त हो जाता है तथा द्वितीय संग्रहकृष्टिका उच्छिष्टावली तथा समय कम दो श्रावली मात्र नवक समयप्रबद्धको छोड़कर शेष द्रव्य सूक्ष्म कृष्टियोंमें संक्रान्त हो जाता है । तब जीव सूक्ष्मसाम्परायगुणस्थानमें आता है। वहाँ सूक्ष्मकृष्टि सम्बन्धी द्रव्य को अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागकी गुणश्रेणि करता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। इस तरह करते करते जब सूक्ष्मसाम्परायका जितना काल शेष रहता है उतना ही लोभका स्थितिसत्त्व रहता है और वह प्रति समय अपवर्तनघातके द्वारा सूक्ष्मकृष्टिरूप अनुभागको प्राप्त होता है। उसके एक एक निषेक को एक एक समय भोगते भोगते जब वह जीव सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयको प्राप्त होता है तब उसके संज्वलनलोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है।
* स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
२५३. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम समयवर्ती क्षपक स्त्रीवेदी जीवके होता है ।
२५४. जो स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकोणि पर चढ़ा है और जिसने अन्तरकरण करके अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा पुरुषवेदमें नपुंसवेदका संक्रमण किया है तथा सवेद भागके उपान्त्य समय में स्त्रीवेदकी द्वितीय स्थितिको ग्रहण कर आगेके समयमें उसे निःसत्त्व कर दिया है और जिसके स्त्रीवेदका केवल उदय प्राप्त गोपुच्छ बाकी रहा है उसके स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है, क्योंकि उसके देशघाती एकस्थानिक स्पर्धक होते हैं। और यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि 'अन्तरकरण करने पर मोहनीयका एकस्थानिक बन्ध होता है और एकस्थानिक उदय होता है। इस सूत्रसे सिद्ध है।
शंका-जब यह बात सिद्ध है तो सवेदभागके द्विचरम समयमें स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं दिया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, द्विचरम समयमें सर्वघाती द्विस्थानिक अनुभागका सत्त्व है, अत: उसे जघन्य मानने में विरोध आता है।
* पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१७३ २५५. सुगमं । ® पुरिसवेदेण उवहिवस्स चरिमसमयअसंकामयस्स । ...
$ २५६. पुरिसवेदोदएण खवगसेढिं चढिय अढकसाए खविदूण अंतोमुहुत्तेण अंतरकरणं करिय पुणो अंतोमुहुत्तेण णqसयवेदं पुरिसवेदम्मि संछुहिय तदो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण इत्थिवेदं पि पुरिसवेदसरूवेण संकामिय तत्तो उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण छएणोकसाएहि सह पुरिसवेदचिराणसंतकम्मं कोधसंजलणे संकामिय समयूणदोआवलियमेत्तकालमुवरि चढिदूण हिदो चरिमसमयअसंकामओ णाम । तस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं । कुदो ? देसघादिएगहाणियत्तादो । दुचरिमसमयअसंकायम्मि किरण जहएणसामित्तं दिएणं ? ण, चरिमाणुभागबंधं पेक्खिदूण दुचरिमादिअणुभागबंधाणमणंतगुणत्तादो। परोदएण किरण दिएणं ? ण, तत्थ चरिमसमयसंकामयस्स सव्वघादिवेढाणियअणुभागस्स जहण्णत्तविरोहादो। एत्थ पुरिसवेदेण उवहिदस्से त्ति ण वत्तव्यं, कोधसंजलणस्सेव चरिमसमयअसंकायमस्से त्ति वत्तव्वं ? ण एस दोसो, विसेसालंबणाए सोदयग्गहमेण विणा जहण्णाणुभागसिद्धी चरिमसमयअसंकामयम्मि
$ २५५. यह सूत्र सुगम है।
* पुरुषवेदके उदयसे आपकश्रेणि पर चढ़े हुए अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके होता है।
२५६. पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़कर, आठ कषायोंका क्षपण करके, अन्तमुहूर्तमें अन्तरकरण करके, पुन: अन्तर्मुहूर्तमें नपुंसकवेदको पुरुषवेदमें क्षेपण करके, उसके बाद अन्तर्मुहून बिताकर स्त्रीवेदको भी पुरुषवेदरूपसे संक्रमाकर, उसके बाद अन्तर्मुहूर्त बिताकर छ नोकषायोंके साथ पुरुषवेदके प्राचीन सत्कर्मका संज्वलन क्रोधमें संक्रमण करके जो एक समय कम दो आवलीमात्र काल ऊपर चढ़कर स्थित है उसे अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक कहते हैं । उसके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है, क्योंकि वह देशघाती और एकस्थानिक होता है।
शंका-उपान्त्य समयवर्ती असंक्रामकको जघन्य अनुभागका स्वामित्व क्यों नहीं दिया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तिम अनुभागबन्धको देखते हुए उपान्त्य आदि समयमें होनेवाला अनुभागबन्ध अनन्तगुणा होता है।
शंका-परके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेको पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं दिया?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां चरमसमयवर्ती संक्रामकके सर्वघाती विस्थानिक अनुभाग रहता है, अतः उसके जघन्य अनभागके होनेमें विरोध आता है।
_ शंका-यहाँ 'पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवालेके' ऐसा नहीं कहना चाहिए, किन्तु संज्वलन क्रोधके समान 'अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके' ऐसा कहना चाहिये।
.. समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि विशेषकी विवक्षामें 'स्वोदयसे' ऐसा ग्रहण कये बिना अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकमें जघन्य अनुभागकी सिद्धि नहीं होती है अर्थात् जब तक वह स्वोदयसे श्रेणि पर नहीं चढ़ेगा तब तक उसके अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक अवस्थामें जघन्यअनभाग नहीं पाया जायेगा, यह बतलानेके लिए ही विशेष प्रकारका अवलम्बन लिया है।
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१७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ण होदि ति पदुप्पायणफलत्तादो ।
* पवुसयवेदयस्स जहरणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? $ २५७. सुगम । * खवगस्स चरिमसमयणवुसयवेदयस्स ?
$ २५८. एदस्स मुत्तस्स अत्थो जहा इत्थिवेदस्स परूविदो तहा परूवेदव्यो। णवरि णवंसयवेदोदएण खवगसेढिं चढिय चरिमसमयणqसयवेदस्स जहएणसामित्तं वत्तव्वं । अर्थात् 'अन्तिम समयवती असंक्रामकके' न कहकर 'पुरुषवेदके उदयसे श्रेणी पर चढ़नेवाले अन्तिम समयवर्ती असंक्रामकके' कहा है।
* नपुंसकवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? $ २५७. यह सूत्र सुगम है।
* अन्तिम समयवर्ती क्षपक नपुंसकवेदीके होता है।
६२५८. जैसे स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका कथन किया है वैसे ही इस सूत्रका अर्थ कहना चाहिये। इतना विशेष है कि नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेपर अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व कहना चाहिये।
विशेषार्थ तीनो मेंसे किसी भी वेदके उदयसे क्षपक श्रेणीपर जीव चढ़ सकता है। क्षपक श्रेणीपर चढ़नेपर अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण होते ही हैं। अनिवृत्तिकरणमें चार संज्वलन और नव नोकषायो का अन्तरकरण करता है। नीचे और ऊपरके निषेको को छोड़कर बीचके अन्तर्मुहर्तमात्र निषेको के अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं। अन्तरकरण जब तक नहीं करता तब तक तो तीनो मेंसे किसी भी वेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवाले जीवका सब कथन समान ही जानना चाहिए। अन्तरकरण करने पर जो जिस वेद और जिस संज्वलनकषायके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है उसकी प्रथम स्थिति अन्तर्मुहर्तमात्र स्थापित करके अन्तरकरण करता है। जैसे स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जीव स्त्रीवेदकी ही प्रथम स्थिति स्थापित करता है। उस प्रथम स्थितिका प्रमाण पुरुषवेदके उदय सहित श्रेणि पर चढ़नेवाले जीवके जितना नपुंसक वेदके क्षपणकाल सहित स्त्रीवेदका क्षपणकाल होता है उतना है। पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़ने वाला जीव तो पुरुषवेदके उदयसे युक्त होता हुआ ही सात नोकषायोंके क्षपण कालमें सात नोकषायोंका क्षपण करता है। बादको एक समय कम दो आवलिकालमें पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धोंको खपाता है। किन्तु स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणी पर चढ़नेवाला जीव वेदके उदयसे रहित होकर ही सात नोकषायोंका क्षपण करता है। अत: पुरुषवेदकी प्रथम स्थिति नपुंसकवेद, स्त्रीवेद और छ नोकषायोंका जितना क्षपणकाल है उतनी होती है। जो जीव स्त्रीवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़ता है वह जब स्त्रीवेदका अन्तरकरण करके सवेद भागके उपान्त्य समयमें स्त्रीवेदकी द्वितीय स्थितिको खपाकर अन्तिम समयमें पहुँचता है और उसके स्त्रीवेदका केवल उदयगत गोपुच्छ अवशेष रहता है तब उसके स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। किन्तु अन्त समयसे पहले समयमें उसके स्त्रीवेदके सर्वघाती विस्थानिक निषेक रहते हैं अतः उसमें जघन्य सत्व नहीं बतलाया। तथा पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला नपुंसकवेद; स्त्रीवेद, छ नोकषाय और पुरुषवेदका संक्रमण करके, पुरुषवेदके नवक समयप्रबद्धोंको खपानेके लिए जब एक समय कम दो आवलि कालके अन्तिम समयमें वर्तमान रहता है तब उसके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं * छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२५६. सुगम । * खवगस्स चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स ।
२६०. चरिमाणुभागकंडयस्स चरिमफालीए वट्टमाणस्से ति किण्ण वुत्तं ? ण, चरिमाणुभागखंडयसव्वफालीसु अणुभागस्स विसेसाभावादो । सव्वुक्कस्सविसोहिस्से ति किरण वुत्तं ? ण, अणियटिपरिणामाणं समाणसमयवट्टमाणसव्वजीवेसु समाणत्तादो ।
* णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहणणाणुभागसंतकम्म कस्स ?
२६१. सुगमं । ॐ असणिणस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स।
$ २६२. जाव हेहा संतकम्मस्स बंधदि तावे हदसमुप्पत्तियकम्मं विसोहीए यहाँ पुरुषवेदके उदयसे ही श्रेणि पर चढ़नेवालेके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म बतलानेका यह कारण है कि इतर वेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला अपने वेदका जब अन्तिम संक्रमण करता है तब पुरुषवेदका उसके सर्वघाती विस्थानिक अनुभाग रहता है और सर्वघाती द्विस्थानिक अनुभाग जघन्य हो नहीं सकता, अतः पुरुषवेदके उदयसे श्रेणि पर चढ़नेवाला जब पुरुषवेदका अन्तिम संक्रमण करनेको उद्यत होता है तब उसके पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है । स्त्रीवेदके समान ही नपुंसकवेदका भी समझना चाहिये ।
* छह नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? ६२५९. यह सूत्र सुगम है। * अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान क्षपकके होता है।
२६०. शंका-'अन्तिम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिमें वर्तमान क्षपकके होता है। ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं; क्योंकि अन्तिम अनुभागकाण्डककी सब फालियोंमें जो अनुभाग है उसमें कोई अन्तर नहीं है। जैसा एक फालीमें अनभाग है वैसा ही दूसरीमें है, इसलिए अन्तिम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिमें वर्तमान क्षपकके होता है ऐसा नहीं कहा।
शंका-'सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिवाले जीवके' जघन्य अनुभाग होता है ऐसा क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमे होनेवाले परिणाम समान समयवर्ती सब जीवो के समान ही होते हैं, अत: सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिवाले जीवके जघन्य अनुभाग होता है ऐसा नहीं कहा।
* नरकगतिमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? २६१. यह सूत्र सुगम है । * हतसमुत्पत्तिक कम के साथ जो असंज्ञी आकर नारकी हुआ है उसके होता है।
२६२. शंका-सत्तामें स्थिति कर्मोके अनुभागसे जब तक जीव कम अनुभागबंध करता है तबतक ही विशुद्ध परिणामोंसे हतसमुत्पत्तिककर्म उत्पन्न होता है। ऐसी अवस्थामें विशुद्ध होत
१. ता० प्रतौ जाव हेट्ठा संतकम्मस्स बंधदि ताव इत्येतत् सूत्रांशत्वेन निर्दिधम् ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ उप्पज्जदि। पुणो सो विमुद्धो संतो कथं गेरइएमु समुप्पज्जदे ?ण, पुव्वबद्धणिरयाउअस्स संकिलेस-विसोहिअद्धासु कमेण परियट्टतस्स विसोहिअद्धाए झीणाए तप्पाअोग्गसंकिलेसेणाणुभागबंधवुड्डीए विणा खीणभुजमाणाउअस्स णेरइएमु उप्पत्तिं पडि विरोहाभावादो। जदि एवं तो सएिणपंचिंदिओ सव्वविमुद्धो जहण्णाणुभागसंतकम्मित्रो मिच्छादिही किरण उप्पाइदो ?ण, सएिणमिच्छाइहिजहण्णाणभागसंतकम्मं पेक्खिदूण असएिणजहएणाणभागसंतकम्मस्स अणंतगुणहीणतादो। तं कुदो णव्वदे ? विसंजोइदअणंताणुबंधिचउक्कम्मि जेरइयसम्माइद्विम्मि मिच्छत्ताणुभागस्स जहएणसामित्तमदादृण असएिणपच्छायदमिच्छादिहिम्मि सामित्रं पदुप्पाययसुत्तादो। ण च हदसमुप्पचियकम्मो विसुद्धो चेव होदि ति णियमो, संकिलिहस्स वि सगजहण्णाणुभागसंतकम्मादो' हेहा बंधमाणस्स हदसमुप्पचियकम्म पडि विरोहाभावादो। जाव संतकम्मस्स हेट्टा बंधदि तावे त्ति किम कालणिद्दे सो कदो ? जहएणाणुभागसंतकम्मेण सह गेरइएम अंतोमुहुत्तमच्छदि ति जाणावण । हुआ वह हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जीव नरकमें कैसे उत्पन्न होता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि जिसने पहले नरकायुका बंध कर लिया है वह जीव क्रमसे संक्लेश और विशुद्धिके काल में परिभ्रमण करता हुआ अर्थात् संक्लेशसे विशुद्धिमें और विशुद्धिसे संक्लेशमें परिवर्तन करता हुआ विशुद्धिकालके क्षीण हो जाने पर तत्प्रायोग्य संक्लशवश अनुभागबन्धमें वृद्धि हुए बिना भुज्यमान आयुके क्षीण होने पर नरकगतिमें उत्पन्न होता है इसमें कोई विरोध नहीं है।
शंका-यदि ऐसा है तो सबसे विशुद्ध और जघन्य अनुभागसत्कर्मकी सत्तावाले संज्ञी पंञ्चेन्द्रिय मिथ्यादृष्टिको क्यों नहीं उत्पन्न कराया । अर्थात् असंज्ञीको नरकमें उत्पन्न कराकर जो उसे मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका स्वामी बतलाया है उसकी अपेक्षा संज्ञीको नरकमें उत्पन्न कराकर उसके जघन्य स्वामित्व क्यों नहीं बतलाया।
- समाधान-नहीं, क्योंकि संज्ञी मिथ्यादृष्टिके जघन्य अनुभागसत्कर्मकी अपेक्षा असंज्ञीका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ? ..
समाधान-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर चुकनेवाले नारक सम्यग्दृष्टिमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका स्वामित्व न बतलाकर असंज्ञी पर्यायसे आये हुए मारक मिथ्यादृष्टिमें स्वामित्व बतलानेवाले सूत्रसे जाना।
तथा हतसमुत्पत्तिककर्मवाला जीव विशुद्ध ही होता है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अपने जघन्य अनुभागसत्कर्मसे कम बाँधनेवाले संक्लिष्ट जीवके भी हतसमुत्पत्तिककर्म हो सकता है इसमें कोई विरोध नहीं है।
शंका-'जब तक सत्कर्मसे कम बाँधता है तभी तक' इस प्रकार कालका निर्देश क्यों किया है ?
समाधान-जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ जीव नारकियोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक
१ श्रा० प्रलौ सियमो संकिलेखस्स विसयजहएमाणुभागसंतकम्मादो इति पाठः ।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१७७ * एवं बारसकसाय-णवणोकसायाणं ।
$ २६३. जहा मिच्छत्तस्स असएिणपच्छायदहदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स जहएणसामित्तं परूविदं तहा एदासि पि पयडीणं परूवेदव्वं, अविसेसादो ।
* सम्मत्तस्स जहणणाणुभागसंतकम्मं कस्स ?
२६४. सुगमं । * चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स।
$ २६५. सुगममेदं सुत्तं, ओघम्मि परूविदत्तादो। णिरयगईए दंसणमोहणीयरहता है यह बतलानेके लिये किया है।
विशेषार्थ-जा असंज्ञी पञ्चद्रिय पहले नरकायुका बन्ध करके पीछे सत्तामें स्थित मिथ्यात्वके अनुभागका घात कर डालता है वह जब मरकर नरकमें जन्म लेता है तो उसके मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म तब तक होता है जब तक वह मिथ्यात्वके सत्तामें स्थित अनुभागसे अधिक अनुभागका बन्ध नहीं करता। जब वह अधिक अनुभागबन्ध करने लगता है तो फिर उसके जघन्य अनुभाग नहीं रहता। अत: नरकमें मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागकी सत्ता अन्तर्मुहूर्त काल तक ही रहती है । इस पर एक शङ्का यह की गई है कि सत्तामें स्थित अनुभागका घात विशुद्ध परिणामोंसे होता है, अत: विशुद्ध परिणामवाला मरकर नरकमें कैसे उत्पन्न हो सकता है ? इसका यह समाधान किय गया है कि पहले तो वह जीव नरक की आयु बांध चुकता है, अत: जब भुज्यमान आयु क्षीण होती है तो योग्य संक्लेश परिणमोंसे मरकर नरकमें जन्म लेता है। किन्तु इतना स्मरण रखना चाहिये कि उसके संक्लेश परिणम ऐसे नहीं होते जिनसे सत्तामें स्थित मिथ्यात्वके अनुभागसे अधिक अनुभागबन्ध हो। दूसरी शंका यह की गई है कि असैनी पञ्चन्द्रिय मिथ्यादृष्टिके परिणाम अधिक विशुद्ध होते हैं, अतः उससे उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म अधिक हीन होंगे, इसलिये सैनी मिथ्यादृष्टिको नरकम उत्पन्न क्यों नहीं कराया। सो इसका समाधान यह किया गया है कि संज्ञी मिथ्यादृष्टिके जघन्य अनुभाग सत्कर्मसे असंज्ञी पञ्चन्द्रियका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है और इसका सबूत यह है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क की विसंयोजना कर देनेवाले सम्यग्दृष्टि नारकीमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म न बतल्लाकर असंज्ञी पर्यायसे आकर नरकमें जन्म लेनेवाले मिथ्यादृष्टिके उसका जघन्य अनुभाग बतलाया है, अत: सिद्ध है कि संज्ञी मिथ्याष्टिसे असंज्ञी पञ्चेन्द्रियका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा हीन होता है।
* इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागके स्वामित्वका कथन करना चहिये ।।
२६३. जैसे हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले असंज्ञी जीवके नरकमें उत्पन्न होने पर उसके मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागको स्वामित्वका कथन किया है वैसे ही इन प्रकृतियोंका भी कथन कर लेना चाहिये, क्यों कि उससे इनमें कोई विशेषता नहीं है।
* सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ?
२६४. यह सूत्र सुगम है। * दर्शनमोहनीयका क्षय करनेवालेके अन्तिम समयमें होता है। २६५. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि ओघ प्ररूपणामें इसका कथन कर आये हैं। २३
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४ क्खवणाभावादो दं घडदि त्ति णासंकणिज्जं दंसणमोहणीयं मणुस्सेसु खविय कदकरणिजो होदूण रइएसुप्पराणस्स जहण्णाणुभागुवलंभादो । जहा सम्मत्तं पुव्वबद्धदीहाउदि छिंदि देखूणसागरोवममेत्तं संखेज्जवाससेचं वा करेदि तहा णिरआउस्स णिम्मूलविणासं किरण करेदि १ ण, तस्स तहाविहसत्तीए अभावादो । ण च सहाओ पडिबोहणारुहो, अइप्पसंगादो |
१७८
* सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं पत्थि ।
$ २६६. कुदो ? दंसणमोहक्खवणं मोत्तूण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमण्णत्थ अणुभागखंडयघादाभावादो । पढमसम्मत्तप्पत्तीए अणताणुबंधीणं विसंजोयणाए चारित्तमाहणीयस्स उवसामणाए च सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिखंडयघादे संते कधमणुभागखंडयस्सेव घादो णत्थि : ण, भिण्णजाइरणेण एगसहावत्तविरोहादो । अविरोहे वा अणुभाघादे संतेणियमेण द्विदिघादेण वि होदव्वं । ण च एवं खवणाए एगहिदि
शंका- नरकगति में दर्शनमोहनीयका क्षय नहीं होता है, अतः यह स्वामित्व नरक में घटित नहीं होता ?
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मनुष्योंमें दर्शनमोहनीयका क्षय करके, कृतकृत्य होकर जो नारकियों में उत्पन्न होता है उसके सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग पाया जाता है।
शंका- जैसे सम्यक्त्वकी पहले बांधी हुई लम्बी स्थितिका छेदन करके उसे कुछ कम सागर प्रमाण अथवा संख्यातवर्ष प्रमाण करता है वैसे ही बांधी हुई नरकायुका निर्मूल विनाश क्यों नहीं करता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उसमें इस प्रकारकी शक्ति नहीं है । यदि कोई कहे कि शक्ति क्यों नहीं है तो उसका यह प्रश्न ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिका होना न होना पदार्थों का स्वभाव सिद्ध धर्म है और स्वभाव प्रतिबोधनके अयोग्य है, उसमें इस प्रकारका तर्क नहीं किया जा सकता कि ऐसा क्यों है ? यदि स्वभाव के विषय में भी इस प्रकारका तर्क किया जाने लगे तो अतिप्रसंग दोष उपस्थित होगा । वस्तुमात्रके स्वभाव के विषय में इस प्रकारका तर्क किया जाने लगेगा । * सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं है ?
$ २६६. शंका - सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म क्यों नहीं है ?
समाधान- क्योंकि दर्शनमोहके क्षपणको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभागकाण्डकघात नहीं होता । और नरकगतिमें दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता । इसलिए वहां सम्यग्मिध्यात्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका निषेध किया है ।
शंका- प्रथम सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन और चरित्रमोहनीयकी उपमशन के समय जब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिकण्डकघात होता है तो वहां अनुभागकाण्डकघात ही क्यों नहीं होता ?
समाधान- नहीं, क्योंकि स्थिति और अनुभाग भिन्न जातीय हैं, श्रतः दोनोंका एक स्वभाव होने में विरोध है । यदि विरोध न हो तो अनुभागका घात होने पर नियमसे स्थितिका घात भी १. श्रा० प्रतौ खवणाए हिदि- इति पाठः ।
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ना० २२) अणुभागविहत्तीए सामित्तं
१७९ खंडयउकीरणकालभंतरे संखेजसहस्सअणुभागखंडयाणं पदणविरोहादो। अणुसमओवट्टणाए अणुभागस्सेव हिदीए वि होदव्वं, एगसहावत्तादो । ण च एवं, तहाणुवलंभादो।
* अणंताणुबंधीणमोघं ।
६२६७. जहा ओघम्मि संजुत्तपढमसमए अणंताणुबंधीणं जहएणसामित्तं वुत्तं तथा एत्थ वि वतव्वं ।
* एवं सव्वत्थ णेदव्वं ।
$ २६८. एदेण वयणेण जइवसहाइरिएण एदस्स सुत्तस्स देसामासियत्तं जाणाविदं । संपहि एत्थुद्दे से उच्चारणा बुच्चदे
६२६६. सामित्ताणुगमो दुविहो—जहण्णओ उकस्सो चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उकस्साहोना चाहिये। किन्तु ऐसा नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर क्षपणावस्थामें एक स्थितिकाण्डकके उत्कीरण कालके भीतर संख्यात हजार अनुभाग काण्डकोंकापतन होनेमें विरोध आता है। तथा यदि स्थिति और अनुभागका एक स्वभाव है तो जिस प्रकार प्रति समय अनुभागका अपवर्तन घात होता है उस तरह स्थितिका भी होना चाहिए; क्योंकि दोनों एकस्वभाव हैं। किन्तु ऐसा होता नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता।
विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनुभागकाण्डकघात हुए बिना नहीं होता। और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागका काण्डकघात दर्शनमोहके क्षपणके सिवा अन्यत्र होता नहीं तथा नरकगतिमें दर्शनमोहका क्षपण नहीं होता, अत: नरकमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इस पर यह शंका की गई कि सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिका काण्डकघात तो अन्य अवसरों पर भी होता है तब अनुभागका ही काण्डक घात क्यों केवल दर्शनमोहके क्षपणके समय ही होता है, अन्यत्र नहीं होता ? इसका समाधान किया गया कि स्थिति और अनुभाग दोनों दो जुदी चीजें हैं, अत: एकके होने पर दूसरेका होना अविनाभावी नहीं है। यहां इतना विशेष जानना चाहिये कि यद्यापि कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें जन्म ले सकता है किन्तु वह कृतकृत्य होनेसे पहले ही सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म कर लेता है, अत: नरकमें नहीं हो सकता।
ॐ अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व ओघके समान कहना चाहिये ।
६२६७. जैसे ओघमें अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागका स्वामित्व कहा है वैसा ही नरकमें भी कहना चाहिए।
* इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें मोहनीयकी प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागके स्वामित्वको कहना चाहिए ।
६ २६८. इस कथनसे आचार्य यतिवृषभने यह बतलाया है कि यह सूत्र देशामर्षक है। अब इस विषयमें उच्चारणाको कहते हैं।
२६९. स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका
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.१८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ णुभागसंतकम्मं कस्स ? अएणदरस्स जो तप्पाओग्गजहण्णाणुभागसंतकम्मिओ तेण उक्कस्साणुभागे बंधे जाव तं ण हणदि ताव सो होज्ज एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चरिंदिनो वा सरणी वा असएणी वा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा संखेजवस्साउो वा असंखेज्जवस्साउओ वा। असंखेज्जवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्से मणुस्सोववादियदेवे च मोत्तण । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० कस्स ? अण्णदरस्स संतकम्मियस्स दसणमोहवरखवयं मोत्तण।
२७०. आदेसेण गैरइएसु छब्बीसंपयडीणमुक्क० कस्स ? अण्णद. जेण उक्कस्साणुभागो पबद्धो सो जाव तएण हणदि ताव । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमोघं । एवं पढमाए तिरिक्व-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि तिरि०पज्ज०-देव सोहम्मीसाणादि जाव सहस्सारकप्पो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मामिच्छत्तस्सेव सम्मत्तस्स पत्थि अणुकस्ससंतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचितिरि०-- उत्कृष्ट अनुभागसत्कम किसके होता है ? ऐसे किसी भी जीवके होता है जो अपने योग्य जघन्य अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक वह एकेन्द्रिय हो, द्वीन्द्रिय हो, तेइन्द्रिय हो, चौइन्द्रिय हो, संज्ञी हो, असंज्ञी हो, पर्याप्त हो, अपर्याप्त हो, संख्यात वर्षकी आयुवाला हो या असंख्यात वर्षकी आयुवाला हो; उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। किन्तु असंख्यात वर्षकी आयुवाले निर्यञ्चों और मनुष्योंको तथा जहांके देव केवल मनुष्योंमें ही उत्पन्न होते हैं उन देवोंको छोड़कर अन्य सबके यह उत्कृष्ट अनु पागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर उनकी सत्तावाले किसी भी जीवके होता है।
विशेषार्थ-अपने अपने योग्य जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला जो जीव उत्कृष्ट अनुभागका बध करके जब तक उसका घात नहीं करता तब तक वह किसी भी पर्याचमं संख्यातवर्ष या असंख्यात वर्षकी आयुके साथ जन्म ले उसके मोहनीय कर्मकी उत्तर प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। किन्तु भोगमूमिज तिर्यञ्च और मनुष्य तथा आनतादिक कल्पके देवोंमें मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका सत्व नहीं होता, इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। पर यह कथन मोहनीयकी २६ प्रकृतियोंकी अपेक्षासे किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षासे कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन दोका बन्ध नहीं होता, अत: इनकी सत्तावालेके इनका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। केवल दर्शनमोहके क्षपकको छोड़ देना चाहिये, क्योंकि उसके इनका जघन्य अनुभाग भी होता है और बादको ये नष्ट हो जाती हैं। आंघ की ही तरह आदेश से भी जानना चाहिए । उसमें जो विशेषता है सो मूलमें बतलाई ही है।
२७०. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिसने उत्कृष्ट अनुभागका बंध किया वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उस जीवके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवो, सामान्य तिर्यञ्च,, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्च. न्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म-ईशान स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार स्वामित्व है। इतना विशेष है कि वहां सम्यग्मिथ्यात्वके समान सम्यक्त्वका भी अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इसी प्रकार
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सामित्तं अपज्ज०-मणुसअपज्ज०--भवण०--वाण--जोदिसिए त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्ख-- अपज्ज.--मणुसअपज्ज० उकस्साणुभागसंतकम्मिओ तिरिक्खो मणुस्सो वा अप्पिदअपज्जत्तएसु उप्पज्जिदूण जाव तं ण हणदि ताव सो उक्कस्साणुभागस्स सामिओ।
___२७१. मणुस-मणुसपज्ज०-मणुसिणी० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० कस्स ? अण्णद० उक्कस्साणुभागं बंधिदूण जाव ण हणदि ताव । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं उक्कस्साणुभाग. कस्स ? दसणमोहक्खवगं मोत्तण सव्वस्स संतकम्मियस्स । आणदादि जाव उवरिमगेवज्जे ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णदरो जो दव्वलिंगी तप्पाओग्गउकस्साणुभागसंतकम्मेण उववण्णो सो जाव ण हणदि ताव उक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि देवोघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मिच्छत्त--सोलसक० --णवणोक० उक्क० कस्स ? अण्णद० वेदयसम्माइहिस्स उकस्साणुभागसंतकम्मेण उववण्णल्लयस्स जाव ण हणदि ताव । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि० देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
२७२. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण। ओघेण मिच्छत्तअटक. जह० अणु० संतकम्म कस्स ? अण्णद० सुहुमेइंदियस्स कदहदसमुप्पत्तियपञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर
और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला तिर्यञ्च अथवा मनुष्य विवक्षित अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक वह उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामी है।
६ २७१. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यिनीमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो उत्कृष्ट अनुभागको बांधकर जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाले सब जीवोंके होता है। आनत स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो द्रव्यलिङ्गी मुनि अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको लेकर वहां उत्पन्न हुआ है वह जब तक उसका घात नहीं करता है तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामी ओघकी तरह समझना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ उत्पन्न हुआ जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव जब तक उसका घात नहीं करता तब तक उसके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व ओघकी तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके स्वामित्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
२७२. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिस सूक्ष्म एकेन्द्रिय
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [अणुभागविहत्ती ४ कम्मस्स, सो तेण जहण्णाणुभागसंतकम्मेण एइंदिरो वा बेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चरिदिओ वा सण्णी वा असण्णी वा सुहुमो वा बादरो वा पज्जत्तो वा अपज्जत्तो वा होदि जाव तण्ण वड्ढदि ताव तस्स विहत्तिओ। सम्मत्त० जहण्णाणु० कस्स ? अण्णद. चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामि० जहण्णाणु० कस्स ? अण्णद० दंसणमोहणीयक्खवयस्स अपच्छिमे अणुभागखंडए वट्टमाणस्स । अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० कस्स ? विसंजोएदूण पढमसमयसंजुत्तस्स तप्पाओग्गविमुद्धस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मं होदि । कोध-माण-मायासंजलण. जह० कस्स ? अण्णद० कोध-माणमायावेदयखवगस्स चरिमसमयअणुभागबंध पडि चरिमसमयअसंकामयस्स । लोभसंजल० जहण्णाणु० कस्स ? खवगस्स चरिमसमयसकसायिस्स । पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागसंतकम्म कस्स ? पुरिसवेदक्खवयस्सै चरिमसमयअणुभागबंधं पडि चरिमसमयअसंकामयस्स । इत्थि० ज० कस्स ? अण्णद० खवयस्स इत्थिवेदोदएण उवहिदस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स । णसयवेद० जह० कस्स ? अण्णद० गqसयवेदोदएण उवहिदस्स चरिमसमयणqसयवेदयस्स । छण्णोकसाय० ज० कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणस्स ।
२७३. आदेसेण रइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जह० कस्स ? जो जीवने अनुभागका घात करके जघन्य अनुभागसत्कर्म उत्पन्न किया है उसके होता है । तथा वह उस जघन्य अनुभागसत्कर्मके साथ मरकर एकेन्द्रिय अथवा दोइन्द्रिय, अथवा तेइन्द्रिय, अथवा चौइन्द्रिय, अथवा असंज्ञी, अथवा संज्ञी, सूक्ष्म अथवा बादर, पर्याप्त अथवा अपर्याप्त होकर जब तक उसे नहीं बढ़ाता है तब तक उसका स्वामी होता है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अक्षीणदर्शनमोहीके अन्तिम समयमें होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान दर्शनमोहके क्षपकके होता है। अनन्तानबन्धी चतुष्कका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः उससे संयुक्त हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले प्रथम समयवर्ती जीवके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। संज्वलन क्रोध, संज्वलन मान और संज्वलन मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? क्रोध, मान और मायाका वेदन करनेवाले तथा अन्तिम समयमें होनेवाले अनभागबन्धकी अपेक्षा अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक क्षपक जीवके होता है । संज्वलन लोभका जघन्य अनभागसत्कर्म किसके होता है ? अन्तिम समयवर्ती क्षपक सकषायिक जीवके होता है। पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अन्तिम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धकी अपेक्षा अन्तिम समयवर्ती असंक्रामक पुरुषवेदीके होता है । स्त्रीवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवाले अन्तिम समयवर्ती स्त्रीवेदी क्षपक जीवके होता है। नपुंसक वेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणी पर चढ़नेवाले अन्तिम समयवर्ती नपुंसकवेदी चपक जीवके होता है। छ नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अन्तिम अनुभागकण्ड कमें वर्तमान क्षपकके होता है।
3 २७३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य
१ श्रा० प्रती चरिमसमयं असंकामयस्स | लोभसंजल जहरणाणु० कस्स० पुरिसवेदक्खवयस्स इति पाठः।
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गा० २२ ]
अनुभागविहत्तीए सामित्तं
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असण्णी हदसमुत्पत्तियकम्मेण आगदो जाव संतकम्मादो हेडा बंधदि ताव तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं । सम्मत्त० जह० कस्स १ चरिमसमय अक्खीणदंसणमोहणीयस्स | सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो णत्थि । अनंताणु० ज० कस्स ? अण्णद० पढमसमयसंजुत्तस्स तप्पा ओग्गविसुद्धस्स । एवं पढमाए पुढवीए । विदियादि जाव सत्तमितिमिच्छत्त- बारसक० णवणोक० ज० कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स अनंताणुबंधिचक्कं विसंजोइदस्स । अनंताणु० चउक्क० ज० कस्स : अण्णद० पढमसमयसंजुत्तस्स तप्पाग्गविसुद्धस्स ।
$ २७४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त- बारसक ० णवणोक० ज० कस्स १ अणद० मुहुमेदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मियस्स जाव ण वढावेदि ताव | सम्पत्त० ओघं । सम्म मिच्छत्तस्स णत्थि जहण्णं । अनंताणु० चउक्क० ओघं । पंचिंदियतिरिक्खपंचि०तिरि०पज्ज० मिच्छत्त बारसक० णवणोक० जह० क० ? अण्णद० मुहुमेई दियपच्छायदस्स हदसमुप्पत्तियकम्मियस्स जाव ण वडूदि ताव । सम्मत्त--अनंताणु० चक्क तिरिक्खोघं । सम्मामिच्छत्त० जहणं णत्थि । एवं जोणिणी० । णवरि सम्मत्त ०
अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो श्रसंज्ञी जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ नरकमें जन्मा है वह जब तक सत्ता में स्थित अनुभागसे कम अनुभागका बन्ध करता है तब तक उसके जघन्य अनुभाग सत्कर्म होता है । सम्यवत्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? दर्शनमोहका चय करनेवाले जीवके अन्तिम समयमें होता है। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग कर्म नरकमें नहीं होता। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अनुभाग सत्कर्म किसके होता है ? अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः उससे संयुक्त हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले प्रथम समयवर्ती जीवके होता है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जिसने अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना की है ऐसे अन्यतर सम्यदृष्टि के होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके पुनः उससे संयुक्त हुए तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले प्रथम समयवर्ती जीवके होता है।
६२७४ तिर्यञ्चगतिमें तिर्यों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव जब तक जघन्य अनुभाग सत्कर्मको नहीं बढ़ाता है तब तक उसके होता है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी की तरह है । सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म तिर्यञ्चगतिमें नहीं होता । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी की तरह है । पन्द्रिय तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व पर्याप्तकों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जीव सूक्ष्म एकेन्द्रिय पर्यायसे मरकर आया है वह जब तक वर्तमान अनुभागको नहीं बढ़ाता है तब तक उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी सामान्य तिर्यश्व के समान है । सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सत्कर्म यहाँ नहीं होता । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ जहण्णं गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज मणुसअपज्ज० मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि अणंताणु०चउक्क० सुहुमेइंदियपच्छायदस्स हदसमुप्पत्तियकम्मियस्स जहण्णं वत्तव्वं ।।
२७५. मणुसगदीए मणुस्सेसु ओघं। णवरि मिच्छत्त-अहकसायाणं पंचिंदियतिरिक्वभंगो । मणुसपज्ज. एवं चेव । णवरि इत्थि० छण्णोकसायभंगो। मणुसिणीसु मणुस्सोघं । णवरि पुरिस-णqसयवेदाणं छण्णोकसायभंगो।।
२७६. देवदि० देवाणं पढमपुढविभंगो । एवं भवण०-वाण। णवरि सम्मत्त० जहण्णं पत्थि । जोदिसिय० विदियपुढविभंगो। सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजा त्ति मिच्छत्त० ज० कस्स ? अण्णद० जो चउवीससंतकम्मिओ दोवारं कसाए उवसामिदूण अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स जहण्णयं । बारसक०-णवणोक० ज० कस्स ? अण्णद० जो वेदयसम्माइट्टी दसणमोहणीयमुवसामिय दोवारमुवसमसेढिमारूढो पच्छा दसणमोहणीयं खवेदण अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स जहण्णमणुभागसंतकम्मं । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० देवाणं भंगो। अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि ति एवं चेव । णवरि अणंताणु० चउक्क० ज० कस्स ? अण्णद० अणंताणु० चउक्क० उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके समान होता है । इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका स्वामी सूक्ष्म एकेन्द्रियसे मरकर आये हुए हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले जीवके कहना चाहिये।
२७५ मनुष्यगतिमें मनुष्योंमें ओघके समान समझना चाहिए। इतना विशेष है कि मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कमका स्वामित्व पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चके समान है। मनुष्य पर्याप्तकोंमे इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें स्त्रीवेदका भङ्ग छह नोकषायोंके समान है। मनुष्यनियों में सामान्य मनुष्योंके समान स्वामित्व है। इतना विशेष है कि इनमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व छह नोकषायके समान है।
१२७६. देवगतिमें देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता। ज्योतिषीदेवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भंग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्कके सिवाय चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जो जीव दो बार कषायोंका उपशमन करके उन उन देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? जो वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दर्शनमोहनीयका उपशम करके दो बार उपशम श्रेणीपर चढ़ा, पीछे दर्शनमोहनीयका क्षय करके उन उन देवोंमें उत्पन्न हुआ है उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भंग सामान्य देवाके समान होता है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि पर्यन्त इसी प्रकार होता है। अनन्तानु
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गा० २२]
अणुभागबंधाहियारे कालो . १८५ विसंजोएंतस्स चरिमे अणुभागकंडए वट्टमाणस्स । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
* कालाणुगमेण ।
$ २७७. सामित्तं भणिय संपहि एगजीवपडिबद्धं कालपरूवणं कस्सामो ति पइज्जासुत्तमेदं ।
& मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मित्रो केवचिरं कालादो होदि ?
$ २७८. सुगम । बन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागके स्वामित्वके विषयमें इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्क का विसंयोजन करनेवाला जीव जब अन्तिम अनुभागकाण्डकमें वर्तमान होता है तब उसके जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ ओघसे मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंके अनुभागसत्कर्मका स्वामित्व जैसे पहले बतला आये हैं वैसे ही जानना चाहिये। और आदेशसे भी प्रायः उसी प्रकार है किन्तु हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चन्द्रिय पहले नरकके सिवा अन्य नरकोंमें जन्म नहीं लेता, अतः दूसरे आदि नरकोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवाला सम्यग्दृष्टि होता है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें सूक्ष्म एकेन्द्रिय हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला स्वामी होता है। शेष तिर्यञ्चोंमें मरकर जन्म लेनेवाला वही हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव स्वामी होता है। सामान्यसे चारों ही गतियों
नन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका स्वामी अनन्तानबन्धीका विसंयोजन करनेवाला जब पुनः अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होता है तब उसके प्रथम समयमें होता है। किन्तु तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तमें अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन नहीं होता, अत: जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव मरकर उनमें जन्म लेता है वही स्वामी होता है । तथा देवगतिमें अनुदिशादिक विमानों में अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाला जब अनन्तानुबन्धी के अन्तिम अनुभागकाण्डककी विसंयोजना करता है तब उसके अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है, क्योंकि वहाँ अनन्तानुबन्धीका पुन: संयोजन संभव नहीं है । सम्यग्मिथ्यात्व का जघन्य अनुभागसत्कर्म केवल मनुष्यगतिमें ही होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण मनुष्य ही करता है । सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभागसत्कर्म पहले नरकमें, सामान्य तियञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्चोंमें, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यिनियोंमें तथा भवनत्रिकको छोड़कर शेष देवोंमें होता है, क्योंकि इनमें या तो कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टी उत्पन्न हो सकता है। या इनमेंसे किन्हींमें होता है। वैमानिक देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायो के जघन्य अनभागसत्कर्मके स्वामित्वके विषयमें जो विशेषता वह मूलमे बतलाई ही है। __ * कालका प्ररूपण करते हैं।
२७७. स्वामित्वको कहकर अब एक जीवकी अपेक्षा कालका कथन करते हैं। यह प्रतिज्ञा सूत्र है अर्थात् इस सूत्रमें कालका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की गई है।
* मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? $ २७८. यह सूत्र सुगम है। २४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * जहणणुकस्सेण अंतोमुहुर्त ।
$ २७६, उक्कस्साणुभागं बंधिय सव्वजहण्णेण कालेण घादिदस्स जहण्णकालो सव्वुक्कस्सेण कालेण घादिदस्स सव्वुकस्सकालो त्ति घेतव्वं ।
* अणुकस्सअणुभागसंतकम्मं केवचिरं कालादो होदि ? $ २८०. सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुन् ।
$ २८१. कुदो ? उक्कस्साणुभागं घादिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तकालमच्छिय पुणो उक्कस्साणुभागे पबद्ध तदुवलंभादो।
8 उकस्सेण असंखेजा पोगलपरियट्टा ।
$ २८२. कुदो ? उक्कस्साणुभागसंतकम्मं घादिगणं अणुक्कस्सम्मि णिवदिय अणुकस्साणुभागसंतकम्मेण पंचिंदिएसु तप्पाओग्गुक्कस्सकालमच्छिय पुणो एइंदिएम मंतूण असंखे०पोग्गलपरियट्ट गमिय पच्छा पंचिंदियं गंतूण बद्धक्कस्साणुभागस्स तदुवलंभादो।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
$ २७९. उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके यदि उसका घात सबसे जघन्य कालमें अर्थात् अल्दी ही कर दिया जाता है तो जघन्य काल होता है और यदि उसका घात सबसे उत्कृष्ट काल में किया जाता है तो सबसे उत्कृष्ट काल होता है, ऐसा अर्थ लेना चाहिये।
* अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है । ६२८० यह सूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
२८१ शंका-मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त काल तक क्यों रहता है ?
समाधान-उत्कृष्ट अनुभागका घात करके सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर पुनः उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त पाया जाता है। __ * उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है।
६ २८२. शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल असंख्यातपुद्गल परावर्तनप्रमाण कैसे है ?
समाधान-उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात करके, अनुत्कृष्टम गिरकर अनुत्कृष्ट अनुभाग के साथ पञ्चेन्द्रियोंमे अधिकसे अधिक जितने काल तक रह सकते हैं उतने काल तक ठहरकर पुन: एकेन्द्रियोंमें जाकर असंख्यात पुद्गल परावर्तन काल बिताकर पीछे पञ्चेन्द्रिय होकर जो उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करता है उसके उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण पाया जाता है।
१. प्रा० प्रतौ धादियाण इति पाठः ।
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१८७
गा० २२] अणुभागबंधाहियारे कालो
१८७ * एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं ।
२८३. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णुकस्सकालपरूवणा कदा तहा एदेसिं पणुवीसकसायाणं कायव्वा, विसेसाभावादो।
8 सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिो केवचिरं कालादो होदि ?
६ २८४. सुगमं । * जहणणेण अंतोमुहुत्त ।
२८५. णिस्संतकम्मियमिच्छादिटिणा पढमे सम्मत्ते पडिवएणे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागस्स आदी जादा । पुणो अंतोमुहुत्तकालमच्छिय उवसमसम्मत्तकालभंतरे अणंताणुबंधिचउक्त विसंजोइय वेदगं गंतूण सव्वजहण्णकालेण दंसणमोहणीयं खतेण अपुव्वकरणद्धाए पढमे अणुभागखंडगे हदे सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमणुभागो जेण अणुक्कस्सो होदि तेण उकस्साणुभागकालो जहण्णेण अंतोमुहुत्तमेत्तो होदि। अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोए तस्स आउअवज्जाणं कम्माणं हिदिअणुभागखंडए णिवदमाणे सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं चेव किमिदि अणुभागखंडओ ण णिवददि १ ण,
* इसीप्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंका जानना चाहिये।
२८३. जैसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मक जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन किया है वैसे ही इन पच्चीस कषायोंका भी कर लेना चाहिये। दोनोंमे कोई विशेषता नहीं है।
___ * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना
5२८४. यह मूत्र सुगम है। * जघन्य काल अन्तमुहते है।।
$ २८५. जिस मिथ्यादृष्टिके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की सत्ता नहीं है उसके प्रथमोपशम सम्यक्त्वके प्राप्त करने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका प्रारम्भ हुआ । पुन: अन्तमुहूर्तकाल तक ठहरकर उपशमसम्यक्त्वके कालके अन्दर ही अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उस जीवने सबसे जघन्य कालमें अर्थात् जितना शीघ्र हो सकता था उतना शीघ्र दर्शनमोहनीयका क्षपण करते हुए अपूर्वकरणके कालमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किया । उस जीवके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है, अत: उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल अन्तमुहूर्त मात्र होता है।
शंका-अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेवालेके जब आयुकर्मको छोड़कर शेष कर्मोंके स्थितिकाण्डक और अनुभागकाण्डकका घात होता है तब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके ही अनुभागकाण्डकका घात क्यों नहीं होता ?
१. पा. प्रतौ अणुभागखंडो णिवददि इति पाठः ।
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१८८
साहावियादो ।
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
* उक्कस्सेण वेछावट्टिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ।
$ २८६. कुदो ? छब्बीससंतकम्मियमिच्छाइहिस्स पढमसम्मतं घेत्तूणुप्पादसम्मत्त सम्मामिच्छत्तसंतकम्मस्स तत्थ तोमुहुत्तमच्छिय वेदगसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावहिं गमिय पुणो सम्मामिच्छत्तं गंतॄण तत्थ तोमुहुत्तमच्छिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेतून विदयावहिं भमिय तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छतं गंतूण पलिदो० असंखे० भागमेत्तकालेण उव्वेल्लिदसम्मत्त सम्मामिच्छत्तस्स पलिदो० असंखे ० भागेण भहियdorasसागरोवममेत्ततदुक्कस्सकालुवलंभादो । अथवा तीहि पलिदोवमस्स असंखे ०भागेहि सादिरेयाणि वेळावद्विसागरोवमाणि त्ति के वि आइरिया भणति । तं जहाउवसमसम्मत्तं घेत्तूण पुणो मिच्छतं पडिवज्जिय एईदिएस सम्मत्तहिदिं पलिदो ० असंखे० भागमेत्तं विय पुणो असणिपंचिदिएसुप्पज्जिय तत्थ तोमुहुत्तेण देवाउ बंधिय कमेण कालं करिय दसवस्ससहस्सा उअदेवेसुप्पज्जिय पुणो पज्जत्तयदो होतॄण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावहिं भमिय मिच्छतं गंतूण पुणो दीहुव्वेल्लणका लेण सम्मत्तहिदिं चरिमफालिमेत्तं ठविय पुणो उवसमसम्मत्तं पडिवज्जिय विदियछावहिं भमिय मिच्छतं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मत-सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेल्लिदेती ह समाधान नहीं होता, क्योंकि ऐसा उसका स्वभाव है ।
[ अणुभागविहत्ती ४
* उत्कृष्ट काल कुछ अधिक दो छियाछठ सागर है ।
$ २८६. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका उत्कृष्ट काल उक्त प्रमाण कैसे है ?
समाधान - मोहनीय की छब्बीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला मिध्यादृष्टि जीव प्रथम सम्यक्त्व को ग्रहण करके, सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी सत्ताको उत्पन्न करके प्रथम सम्यक्त्वमें अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहर कर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर बिताता है । पुन: तीसरे गुणस्थानमें जाकर वहाँ अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर पुनः वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके दूसरे छियासठ सागरमे जब अन्तर्मुहूर्त काल बाकी रह जाता है तो मिथ्यात्वको प्राप्त करके पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कालमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी उद्वेलना कर देता है, अतः उसके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छियासठ सागर पाया जाता है । अथवा किन्हीं आचार्यों का कहना है कि पल्यके तीन असंख्यात भागों से अधिक दो छियासठ सागर प्रमाण उत्कृष्ट काल है । वह इस प्रकार है - उपशमसम्यक्त्व को ग्रहण करके पुन: मिथ्यात्वको प्राप्त करके एकेन्द्रियों में सम्यक्त्वप्रकृतिकी स्थितिको पल्यके असंख्यातवें भागमात्र काल प्रमाण करके पुनः असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ अन्तमुहूर्त में देवायुका बंध करके, क्रमसे काल पूरा करके दस हजार वर्ष की आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ पर्याप्त होकर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके प्रथम छियासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिध्यात्वमें जाकर पुनः दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व की स्थिति अन्तिम फाली प्रमाण करके, पुनः उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके दूसरे छियासठ सागर काल तक भ्रमण करके, मिध्यात्वमें जाकर दीर्घ उद्वेलना कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी
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गा० २२]
अणुभागबंधाहियारे कालो
१८९
पलिदो ० असंखे ० भागेहि सादिरेयाणि वेदावहिसागरोवमाणि । अधवा तो मुहुत्ते सादिरेयाणित्ति केवि भणति । एदं सव्वं पि जाणिय वत्तव्वं ।
* अणुक्कस्स अणुभागसंतकमित्र केवचिरं कालादो होदि ? $ २८७, सुगमं ।
* जहष्णुक्कस्से अंतोमुहुत्त ।
२८८. दंसणमोहणीयं खवेंतेण अपुव्वकरणदाए पढमे अणुभागखंडए घादिदे सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणुकस्समणुभागसंतकम्मं । तदो पहुडि अंतोमुहुत्तकालमणुक्कस्सं चेव अणुभागसंतकम्मं होदि जाव सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि णिल्लेविदाणि ति ।
$ २८६. संपहि उच्चारणमस्सिदृण कालानुगमं भणिस्सामो । कालाणुगमो दुविहो – जहण्णओ उक्कस्य चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो - श्रघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त- सोलसक० - णवणोक० उक्क० अणुभाग० केवचिरं ? जहoणुक० तो ० | अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० अनंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । सम्पत्त - सम्मामि० उकस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० वेळावहिसागरो० सादिरेयाणि । अणुक्क • जहण्णुक० अंतोमुहुत्तं ।
०
$ २६०. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणं उक्क० ज० एगस०, उक्क० उद्वेलना कर देने पर पल्यके तीन असंख्यातवें भागों से अधिक दो छियासठ सागर प्रमाण उत्कृष्ट काल होता है । अथवा किन्हींका कहना है कि अन्तर्मुहूर्त अधिक दो छियासठ सागर उत्कृष्ट । इस सबको जानकर कथन करना चाहिये ।
काल
* अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? ९ २८७, यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
२८८. दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीवके द्वारा अपूर्वकरणके काल में प्रथम अनुभाग काण्डका घात कर देने पर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म होता । और तबसे लेकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका विनाश होने तक अन्तमुहूर्त कालपर्यन्त अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म ही रहता है, अतः जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
२८९. अब उच्चारणावृत्तिका आश्रय लेकर कालानुगमको कहेंगे । कालानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिध्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद् गल परावर्तनप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक दो छियासठ सागर प्रमाण है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
$ २९०. आदेशसे नारकियोंमे छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य
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१९०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागवि त्ती ४ अंतोमु० । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । सम्मत्त. उक्क० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि सगलाणि । अणुक० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मामि० उक्क० मिच्छताणुक्कस्सभंगो। अणुकस्सं णत्थि । एवं पढमादि जाव सत्तमि त्ति । गवरि सगसगुक्कस्सहिदी वत्तव्वा । विदियादि जाव सत्तमि ति सम्मत्त० अणुक० णत्थि ।
२६१. तिरिक्खेसु छब्बीसं पयडीणमुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० ज० एगस०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा। सम्मत्त० उक्क० अणुभाग० ज० एगस०, उक्क० तिपिण पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । अणुक्क० जेरइयभंगो। सम्मामि० उक्क० अणुभाग० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि । अणुक्क० जेरइयभंगो । सम्मामि० उक्क० अणुभा० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण सादिरेयाणि । अणुक्कस्सं गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि छब्बीसंपयडीणं उक० तिरिक्खभंगो। अणुक० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० अणुभाग० जह० एगसमओ, उक्क. सगहिदी। सम्मत्त. अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । णवरि जोणिणीसु सम्मत० अणुक० णत्थि । काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागके कालकी तरह है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नरकमे नहीं होता। इस प्रकार पहली पृथिवीसे लेकर सातवीं तक होता है। इतना विशेष है कि प्रत्येक पृथिवीमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये । दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तक सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं रहता।
२९१. तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्टका नारकियोंके समान भंग है। सम्यग्भिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कमका काल सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चयोनिनियों में
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो
१९१ पंचिंदियतिरिक्ख० अपज्ज०-मणुस्सअपज्ज. अहावीसं पयडीणं उक्कस्साणुभाग० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अणुक० जहण्णुक० अंतोमु० । णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० अणक्क० णत्थि । मणसतिय. पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अणुक० ओघं । मणसपज्जतेसु सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभाग० ज० एगस०।
5२६२. देवाणं णेरइयभंगो। एवं भवणादि जाव सहस्सार ति। णवरि सगसगुकस्सहिदी वचव्या । भवण--वाण--जोदिसि० सम्मत्त० अणक. णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्जा ति मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० उक्कस्साणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्म० उकस्साणुभाग० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी। एवं सम्मामि० । सम्मत्त० अणक० देवोघं । अणंताणचउक्क० उक्क० जह. अंतोम० एगसमओ, उक्क. सगहिदी। अणदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणं उकस्ताणुक्कस्स० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी। सम्मत्त० उक्क० ज. जहण्णहिदी, उक्क. उकस्सद्विदी। अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । एवं सम्मामि० । णवरि अणुक्क० णत्थि । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्यअपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियोंमें पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीके समान भंग है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल ओघकी तरह है । मात्र मनुष्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय है।
६२९२. सामान्य देवोंमें नारकियोंके समान भंग है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति कहनी चाहिये। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। आनत स्वर्गसे लेकर नवयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति । सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका समझना चाहिए। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल सामान्य देवोंकी तरह जानना चाहिए । अनन्तानबन्धीचतुष्कके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्यूा काल अ.तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उसका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मिो केवचिरं कालादो होदि ? २६३. सुगमं ।
विशेषार्थ-छब्बीस प्रकृतियोंमें से किसी का भी उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके मरकर नरकमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें ही उसका घात कर देता है या नरकमें अन्तिम समय उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके दूसरे समयमें अन्य गतिमें चला जाता है तो नरकमें उक्त प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय होता है। और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक उनका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं ठहरता । तथा कोई नारकी उत्कृष्ट अनुभागका घात करके यदि आयुके क्षय हो जानेसे दूसरे समयमें मर जाता है तो उसके उक्त प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है तथा उत्कृष्ट काल सामान्य से सम्पूर्ण तेतीस सागर जानना चाहिए और विशेषसे प्रत्येक नरककी जितनी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है उतना जानना चाहिए। सम्यक्त्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षासे होता है और उत्कृष्ट काल नरकमें अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल जानना चाहिए । सम्यग्मिथ्यात्व तथा सम्यक्त्व प्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहके क्षपकके अपूर्वकरण कालमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर होता है, अतः कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें सम्यक्त्वका क्षपण कर देता है तो सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय होता है, अन्यथा अन्तर्मुहूर्त होता है, क्योंकि नरकमें भी कृतकृत्यवेदकका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म केवल मनुष्यगतिमें ही सम्भव है, क्योंकि कृतकृत्य होने पर ही मरण होता है और सम्यग्मिथ्यात्वका क्षपण इससे पहले हो चुकता है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियों के अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात करके, अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ पञ्चन्द्रियोंमें उनके योग्य उत्कृष्ट काल तक रहकर, पुनः एकेन्द्रियोंमें जाकर असंख्यात पुद्गल परावर्तन तक रह कर, पीछे पञ्चेन्द्रिय होकर, उत्कृष्ट अनुभागबन्ध कर लेने पर उतना काल होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य है, क्योंकि कोई तिर्यञ्च उपशम सम्यक्त्वको ग्रहण करके पुन: मिथ्यात्वमें आकर एकेन्द्रियों में कुछ कम पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक ठहर कर, पुन: पञ्चेन्द्रिय होकर उपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करके मिथ्यात्वमे जाकर तीन पल्यकी स्थिति लेकर भोगभूमिमें उत्पन्न हुआ और वहाँ पर वेदकसम्यग्दृष्टि होगया। फिर भोगभूमिसे निकलकर वह देव होगा, अतः तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभाग का उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चत्रिकमे मूलमे कहे अनुसार जानना चाहिए तथा उन्हींके समान मनुष्यत्रिकमे समझ लेना चाहिए । देवगतिमे भी पूर्वमे कही गई प्रक्रियाके अनुसार कालकी योजना कर लेनी चाहिए। अनुदिशादिकमे जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय न बतलाकर अपनी अपनी जघन्य स्थिति प्रमाण बतलाया है उसका कारण यह है कि वहाँ इन दोनों प्रकृतियोंकी उद्वेलना नहीं होती, क्योंकि इनकी उद्वेलना मिथ्यात्वमे ही होती है।
* मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका कितना काल है ? ६२९३. यह सूत्र सुगम है।
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गा० २२ ]
* जहरगुक्कस्से अंतोमुहुत्त । ३२६४. कुदो १ विसेसिदस्स गहणादो !
अणुभागवत्ती कालो....
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हुमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेणावहाणकालस्स जहण्णुकस्स
* एवं सम्मामिच्छत्त अकसाय छष्णोकसायाणं ।
$ २६५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागकालपरूवणा कदा तहा एदेसिं पि विसेसाभावादो |
कायव्वा,
* सम्मत्तप्रणताणु बंधि चदुसंजल -- तिरिणवेदाणं जहण्णाणुभागसंतकमित्र केवचिरं कालादो होदि ?
$ २६६. सुगमं ।
* जहणुक्कस्सेण एगसमझो ।
$ २६७. सम्मतस्स चरिमसमय अक्खीणदंसणमोहणीयम्मि कोध--माण -- माया संजलणाणं तेसिं चरिमसमयपबद्धस्स चरिमसंमयसंकामियम्मि लोभसंजलणस्स चरिमसमयसकसायमि इत्थि - णवुंसयवेदाणं चरिमसमयसवेदम्मि पुरिसवेदस्स चरिमसमयणवकबंधसं कामयम्मि जेण जरा भागसंतकम्मं जादं तेणेदेसिं जहण्णुक्कस्लेण एगसमओ ति जुज्जदे । णाणताणुबंधीणं, तेसिं विदियादिसमए संतविणासाभावादो त्ति ?ण एस
* जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ?
९ २६४. क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ रहनेके जघन्य और उत्कृष्ट काल का यहाँ ग्रहण किया है।
* इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व आठ कषाय और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका काल कहना चाहिये ।
$ २९५. जैसे मिध्यात्व के जघन्य अनुभाग सत्कर्मके कालका कथन किया है वैसे ही इनके भी कालका कथन करना चाहिये । उससे इनमें कोई विशेषता नहीं है ।
* सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धिचतुष्क, संज्वलनचतुष्क और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका कितना काल है ?
$ २९६. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
1
९ २६७. शंका- क्योंकि सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहका क्षय करने वाले अन्तिम समय में होता है, संज्वलन क्रोध, मान और मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म उनके अन्तिम समयबद्धका संक्रमण करनेवाले के अन्तिम समय में होता है, संज्वलन लोभका जघन्य अनुभागसत्कर्म सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समय में होता है । स्त्रीवेद और नपुंसक - वेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म उनका वेदन करनेवाले के अन्तिम समयम होता है और पुरुष - वेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म पुरुषवेद के नये समयप्रबद्धका संक्रमण करनेवाले के अन्तिम समयम होता है, अतः इनका जघन्य और उत्कृट काल एक समय युक्त है । किन्तु अनन्तानुबन्धीका एक समय काल युक्त नहीं है, क्योंकि एक समय के पश्चात् द्वितीय आदि समयोंमें उनकी सत्ताका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहाती ४ दोसो, समयं पडि अणंतगुणाए सेढीए तदणुभागबंधे वडमाणे संजुत्तविदियादिसमएसु जहण्णाणुभागाणुववत्तीदो । संजुत्तपढमसमए सेसकसाएहितो अणंताणुबंधीसु संकंताणुभागं' पेक्खिदण विदियादिसमएसु संकंताणुभागो सरिसो ति जहण्णाणुभागकालो अंतोमुत्तमेत्तो किरण जायदे ? ण, 'बंधे संकमदि' ति सेसकसायाणुभोगस्स अणंताणुबंधीणमणुभागसरूवेण परिणयस्स पहाणताभावादो। जहा बज्झमाणदहरहिदीए उवरि संकममाणमहल्लसंतहिदीए बंधहिदिसरूवेण परिणामो णत्थि तहा अणुभागसंतस्स वि बज्झमाणाणुभागसरूवेण परिणामो णत्थि त्ति किएण घेप्पदे ? ण, हिदिसंतादो अणुभागसंतस्स भिएणजादित्तादो। जं जाए जाईए पडिवण्णं तं ताए चेव जाईए होदि ति अब्भुवगंतु जुत्तं, ण अण्णत्थ, अइप्पसंगादो। अणुभागम्मि हिदिक्कमो णत्थि त्ति कदो णव्वदे ? पढमसमयसंजुत्तस्से ति सामित्तसुत्तादो णव्वदे। हिदिसंतोवणाए विणा अणुभागसंतस्स जदि बज्झमाणाणुभागसरूवेण संकममाणस्स अणंतगुणहीणविनाश नहीं होता है ?
समाधान-यह दोष उचित नहीं है, क्योंकि जब प्रति समय अनन्तगुणश्रेणीरूपसे अनन्तानुबन्धीका अनुभागबन्ध हो रहा है तो अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके दूसरे आदि समयोंमें उसका जघन्य अनुभाग नहीं बन सकता।
शंका-संयुक्त होनेके प्रथम समयमें शेष कषायोंसे अनन्तानुबन्धी कषायोंमें संक्रान्त हुए अनुभागको देखते हुए दूसरे आदि समयोंम जो अनुभाग संक्रान्त होता है वह पहलेके समान है, अत: अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागका काल अन्तर्मुहूर्त क्यों नहीं होता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि 'बन्ध अवस्थामे संक्रमण होता है। ऐसा कहा है। अतः शेष कषायोंका जो अनुभाग अनन्तानुबन्धीके अनुभागरूपसे परिणमन करता है उसकी यहाँ प्रधानता नहीं है। अर्थात् यद्यपि द्वितीयादि समयोंमे संक्रान्त होनेवाला अनुभाग भी प्रथम समय सम्बन्धी अनुभागके समान नहीं है किन्तु संक्रान्त हुए अनुभागकी वहाँ प्रधानता नहीं है, अपितु बंधनेवाले अनुभागकी प्रधानता है।
शंका-जैसे जघन्य स्थितिका बन्ध होते हुए, ऊपर संक्रमित होनेवाली सत्तामें विद्यमान उत्कृष्ट स्थितिका बंधनेवाली स्थितिके रूपमे परिणमन नहीं होता है उसीप्रकार सत्तामे विद्यमान अनुभागका भी बध्यमान अनुभागरूपसे परिणमन नहीं होता ऐसा क्यों नहीं मानते ?
समाधान नहीं, क्योंकि स्थितिसत्त्वसे अनुभागसत्त्वकी जाति भिन्न है। जो बात जिस जातिमें प्राप्त है वह उसी जातिमें होती है ऐसा मानना योग्य है, अन्यत्र नहीं, क्योंकि एक जाति की बात दूसरी जातिमे माननेपर अतिप्रसङ्ग दोष आता है।
शंका-अनुभागमें स्थितिका क्रम नहीं है यह कैसे जाना ?
समाधान-अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म संयुक्त जीवके प्रथम समयमे होता है, इस स्वामित्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना।
शंका-यदि सत्तामे विद्यमान स्थितिकी अपवर्तनाके विना सत्तामें विद्यमान अनुभाग १. ता० प्रतौ संकेतासु अणुभागं इति पाठः ।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए कालो
१९५ सणेण परिणामो होदि तो अणुभागसंतादो बज्झमाणाणुभागे अणंतगुणे संते संतहिदीए अणुभागेग अणंतगुणेण होदव्वमिदि सच्चं, इच्छिज्जमाणत्तादो। एवं होदि ति कुदो णव्वदे ? सजोगिकेवलिम्हि पुत्वकोडिविहरिदम्मि सादावेदणीयस्स उकस्साणुभागुवलंभादो । सुहुमसांपराइयस्स उक्कस्साणुभागेण सह बज्झमाणचरिमहिदिबंधो बारसमुहुत्तमेत्तो। तम्मि बारसमुहुत्तेसु अघहिदिगलणाए गलिदेसु उक्कस्साणुभागाभावेण वि होदव्वं, पदेसेहि विणा अणुभागस्स अत्थित्तविरोहादो। अत्थि च उक्कस्साणभागो सजोगिम्हेि, तदो गव्वदे जहा संतहिदिपदेसा बज्झमाणाणुभागसरूवेण उक्कड्डिजति त्ति तम्हा अणंताणुबंधीणं वि एगसमयत्तं जुज्जदि त्ति । एवं चुण्णिमुत्तमस्सिदूण ओघकालाणगमं परूविय संपहि उच्चारणमस्सिदण परूवेमो । बध्यमान अनुभागरूपसे संक्रमण करता है और इस तरह वह अनन्तगुणे हीन रूपसे परिणमन करता है अथोत् उसका अनुभाग अनन्तगुणा हीन हो जाता है तो सत्तामें विद्यमान अनुभागसे बध्यमान अनुभाग अनन्तगुणा होने पर सत्तामें स्थित अनुभाग अनन्तगुणा हो जाना चाहिये । अर्थात् जब बध्यमान अनुभागरूपसे परिणमन करनेर सत्तामे स्थित अनुभाग घट सकता है तो बढ़ना भी चाहिये ?
समाधान-आपका कहना सत्य है । यह तो इष्ट ही है। शंका-अनुभाग बढ़ भी जाता है यह कैसे जाना ?
समाधान-एक पूर्वकोटि तक विहार करनेवाले सयोगकेवलीमें सातावेदनीयका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। इसका खुलासा इसप्रकार है- सूक्ष्मसाम्पराय नामक दसवें गुणस्थानवी जीवके उत्कृष्ट अनुभागके साथ बंधनेवाला सातावेदनीयका अन्तिम स्थितिबन्ध बारह मुहर्त मात्र होता है। अधःस्थितिगलनाके द्वारा उन बारह मुहर्लोका क्षय हो जाने पर उत्कृष्ट अनुभागका भी अभाव होना चाहिये, क्योंकि प्रदेशोंके विना अनुभागकी सत्ता नहीं रह सकती। किन्तु सयोगवलीमें उत्कृष्ट अनुभाग रहता है, अत: जाना जाता है कि सत्तामे विद्यमान स्थितिसत्कर्म बध्यमान अनुभागरूपसे उत्कर्षको प्राप्त हो जाते हैं, अतः अनन्तानुबन्धीका भी एक समय काल युक्त है।
इस प्रकार चूर्णिसूत्रका आश्रय लेकर ओघसे कालानगमको कहकर अब उच्चारणाका श्राश्रय लेकर कालको कहते हैं
विशेषार्थ-अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके सम्यक्त्वसे च्युत होकर जो अनन्तानुबन्धीका बन्ध करता है उसके प्रथम समयम अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है। उसका काल एक समय है, क्योंकि दूसरे समयमें संक्लेशके बढ़ जानेसे अनुभागबन्ध तीव्र होने लगता है। इसपर शकांकारका कहना है कि प्रथम समयसे ही सत्तामस्थित अन्य कषायोंके परमाणु अनन्तानुबन्धीरूपसे संक्रमण करने लगते हैं सो जैसे प्रथम समयम संक्रमण करते हैं वैसे ही दूसरे समयम संक्रमण करते हैं, उनके अनुभागमें कोई अन्तर नहीं हैं, अतः जघन्य अनुभागकी सत्ताका काल अन्तर्मुहूर्त क्यो नहीं कहा तो उसका उत्तर दिया गया कि यहाँ संक्रमित अनुभागकी प्रधानता नहीं है किन्तु बध्यमान अनुभागकी प्रधानता है । अर्थात् संक्रान्त अनुभाग बध्यमान अनुभागरूपसे परिणमन करता है, बध्यमान अनुभाग सक्रान्त
१. ता. प्रतौ उकस्साणुभागो जोगिम्हि इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
३ २६८, जहण्णए पयदं । दुविहो णिदेसो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त - अट्ठक० जहण्णाणु० जहण्णुक० तोमु० । अजहण्णाणु ० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । सम्मत्त० जहण्णाणु जहण्णुक्क० एस० । अजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० वेळा द्विसागरोवमाणि तिष्णि पलिदोवमस्स श्रसंखेज्जदिभागेहि सादिरेयाणि । सम्मामि० जहरणपु० जहरणुक० अंतोमु० । अज० सम्मत्तभंगो । अनंताणु० चउक्क० जहण्णा' जहरयुक० एगसमओ । अज० तिरिण भंगा । तत्थ जो सो सादिओ सपज्जवसिदो तस्स ज० अंतोमु०, उक्क० उवडूपोग्गल परियट्ट । चदुसंज० - तिणिवेद० जहरणाणु० जहरणुक० एस० । अज० अणादिओ अपज्जवसिदो अणादिओ सपज्जवसिदो । छोक० जहणणारपु० जहण्णुक० अंतोमु० । ज० को संजलणभंगो ।
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अनुभागरूपसे नहीं परिणमन करता । आगे इसीके सम्बन्धमें जो शंका-समाधान किया गया है। अतः अनन्तानुबन्धीके जघन्य अनुभागसत्कर्मके जघन्य और उत्कृष्ट दोनो काल एक समय मात्र हैं.
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$ २९८. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोक है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यात भागों से अधिक दो छियासठ सागरप्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्म और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागस कर्मका भङ्ग सम्यक्त्व समान है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक है 1 अजघन्य अनुभागसत्कर्ममे तीन भङ्ग हाते हैं-- अनादि - अनन्त, अनादि- सान्त और सादि - सान्त । उनमें से जो सादि-सान्त भङ्ग है उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तनप्रमाण है । चार संज्वलन कषाय और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभाग सत्कर्म द अनन्त और अनादि - सान्त है । छ नोकषायोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका भङ्ग संज्वलनक्रोध के समान है ।
समय
विशेषार्थ - ओघ से मिथ्यात्व, आठ कषाय, अनन्तानुबन्धी, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभागका काल चूर्णिसूत्र में बतलाये गये काल के अनुसार समझ लेना चाहिये । तथा 'जघन्य अनुभागका काल उत्कृष्ट अनुभागके कालकी ही तरह जानना । अनन्तानुबन्धीक अजघन्य अनुभागसत्कर्मम तीनों विकल्प होते हैं, क्योंकि उसका विसंयोजन होकर भी पुनः बन्ध हो सकता है। किन्तु चारो' संज्वलन और तीनों वेदोंमें सादि-सान्त भंग नहीं होता, क्योंकि इनका विनाश क्षपक मि ही होता है । ६ नोकषायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मका काल भी "पूर्ववत् जानना ।
१. ता० प्रतौ [श्र] जहण्णा गु०, श्रा० प्रतौ प्रहरणा० इति पाठः ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए कालो २६६. आदेसेण णेरइएमु मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु०। अज० ज० दसवस्ससहस्साणि अंतोमुहुत्तूणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुरणाणि । सम्मत्त० जहण्णाण. जहएणक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० संपुषणाणि । एवमणंताणु० चउक०। सम्मामि० सम्मत्तभंगो । णवरि जहणणं णत्थि । एवं देवोघं । पढमपुढवि० एवं चेव । णवरि सगहिदी भाणिदव्वा । विदियादि जाव सत्तमि ति वावीसप्पयडीणं जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अज. ज. अंतोमु०, उक्क० सगहिदी संपुगणा । सम्मत्त०सम्मामि० उक्कस्सभंगो । अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० जहएणुक० ओघं । अज० ज० एगस०, सत्तमीए अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी।
३००. तिरिक्खेसु मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमुहुनं । अज० ज० एगसमओ, उक्क० असंखेज्जा लोगा। सम्मत्त० जहएणाणु० जहएणक० एगस० । अज० ज० एगस०, उक्क० तिरिण पलिदोवमाणि पलिदो० असंखे भागेण सादिरेयाणि । एवं सम्मामि० । णवरि जहएणं णत्थि । अणंताणु०चउक० जहणणाणु० जहएणक० एगस० । अज. ज० एगस०, उक्क० अणंत
६९९ आदेशसे नारकियोंमे मिथ्यात्व,बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर प्रमाण है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर प्रमाण है। इसीप्रकार अनन्तानबन्धीचतष्कका भङ्ग है। सम्यग्मिथ्यात्वमे सम्यक्त्वक सम इतना विशेष है कि नरकमे उनका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं रहता। सामान्य देवोंमें इसी प्रकार समझना चाहिए। पहली पृथिवीमें इसी प्रकार होता है। इतना विशेष है कि वहाँ जो अपनी स्थिति है वही कहनी चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त बाईस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागस कर्मका जघन्य काल अन्तमुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके समान भंग है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल ओघ की तरह जानना चाहिए। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और सातवीं पृथिवीमे अन्त. मुहूर्त है तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है।
३००. तिर्यञ्चोंमे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल असंख्यात लोकप्रमाण है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वमे जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमे उसका जघन्य अनुभाग नहीं होता। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट
ग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ कालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । पंचिंदियतिरिक्वतिय० णेरइयभंगो । णवरि मिच्छत्तबारसक-णवणोक० अज. ज. अंतोमु० । सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क. अज० ज० एगस०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० ज० णत्थि । सम्मामि० सम्मचभंगो। णवरि जहएणं णत्थि। पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज० मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० जहएणुक्क० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० उकस्सभंगो ।
३०१. मणुसतिय० मिच्छत्त-अहकसाय० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क तिरिण पलिदोवमाणि सगदालपुवकोडीहि सादिरेयाणि । णवरि मणुस ] पज्जत्त-मणुसिणीसु परणारस-सत्तपुव्वकोडीहि सादिरेयाणि । सम्मत्त० अणंताणु० चउक्क० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। सम्मामि० ज० जहएणुक० अंतोमु० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । चदुसंज०-तिएिणवेद० ज० जहण्णुक्क० एगस० । अज० ज० खुद्दाभवग्गहणं अंतोमुहुत्तं, उक्क० सगहिदी। छएणोक० जहण्णाणु० जहण्णुक. अंतीमु०। अज० ज० खुदाभवग्गहणं अंतोमु०,
काल एक समय है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल परावर्तनप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमे नारकियोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और सबका उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता। सम्यग्मिथ्यात्वमें सम्यक्त्वक समान भंग है। इतना विशेष है कि उसका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है। अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्टके समान भंग है।
___३०१. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनष्यिनियोंमे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल सेंतालीस पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें पन्द्रह पूर्वकोटी अधिक तीन पल्य है और मनु. यिनियोंमें सात पूर्वकोटि अधिक तीन पल्य है। सम्यक्त्व और अनन्तानबन्धीचतुष्कका पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चके समान भंग है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। चार संज्वलन और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल सामान्य मनुष्यमें क्षुद्रभव ग्रहणप्रमाण और मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। तथा उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । छ नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तमुहूर्त
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गाठ २२ ]
भागवितीए कालो
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उक्क० सगहिदी । णवरि मणुसपज्ज० इत्थि० हस्सभंगो | मणुसिणी० पुरिस० णवुंस ० हस्तभंगो |
$ ३०२. भवण० - वाण० पढमपुढविभंगो । णवरि सगहिदी । सम्मत० जहणणं णत्थि । जोदिसि० विदिय पुढविभंगो । सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्तिमिच्छत्त बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणुभाग० जहण्णुकस्सहिदी । सम्मत्त ०-३ - अनंताणु० चक्क० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० एस ०, उक्क० सगहिदी । सम्मामि० उक्कस्तभंगो | अणुद्दिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति मिच्छत्त०-- बारसक ०० -- णवणोक ० जहण्णाजहण्णाणु० जहएणुक० द्विदी । सम्मत्त० जहण्णाणु० जहरणुक० एस० । अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । अनंताणु० चउक० जहण्णाणु० ज० उक्क० तोमु० । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारिति ।
है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका सामान्य मनुष्यों में क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और मनुष्यपर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें अन्तर्मुहूर्त है । उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इतना विशेष है कि मनुष्यपयाप्तकों में स्त्रीवेद के अनुभागका काल हास्यकी तरह जानना चाहिए और मनुष्यिनियों में पुरुषवेद और नपुंसक वेद के अनुभागका काल हास्यकी तरह जानना चाहिए ।
३०२. भवनवासी और व्यन्तरों में पहले नरकके समान भङ्ग होता है । इतना विशेष है कि उनमें नरककी स्थितिके स्थान में अपनी स्थिति लेनी चाहिए। तथा सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । ज्योतिषी देवो में दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग होता है। सौधर्मसे नवग्रैवेयक तक के देवो में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका काल अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थिति प्रमाण है । सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्टके समान भङ्ग है । अनु दशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
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विशेषार्थ - आदेश से नारकियों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य अनुभाग सत्कर्म हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जो असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जन्म लेता है उसके होता है. अतः उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त पूर्ववत् जानना । अन्तर्मुहूर्त तक जघन्य अनुभाग रहकर पुनः अधिक अनुभागबन्ध करने पर अजघन्य अनुभाग होता है जो कि के अन्त तक रहता है, अतः अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष होता है और उत्कृष्ट काल नरककी पूरी आयु प्रमाण होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभाग दर्शनमोहके क्षपकके अन्तिम समय में होता है अतः उसका जघन्य और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[अणुभागविहत्ती ४
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उत्कृष्ट काल एक समय है तथा अजघन्य अनुभागका काल उत्कृष्ट अनुभागके कालकी तरह जानना। दूसरे नरकसे लेकर सातवें नरक पर्यन्त हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय तो उत्पन्न हो नहीं सकता अत: अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टिके बाईस प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग होता है। अत: उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका केवल अजघन्य अनुभाग ही होता है। उसका काल उत्कृष्ट अनुभागके काल की तरह जानना। अनन्तानुबन्धी कषायका जघ य अनुभाग विसंयोजन करके पुन: उसका बंध करनेवालेके प्रथम समयम होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनन्तानुबंधी ही विसंयोजनावाला आयुके दो समय शेष रहने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो गया वह संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य और दूसरे समयमें अजघन्य अनुभाग करके मरणको प्राप्त हो गया अतः अजघन्यका जघन्य काल एक समय होता है परन्तु सातवीं पृथिवीसे सासादनसे निर्गमन नहीं होता और मिथ्यात्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूत है अत: सातवीं पृथ्विीमें अनन्तनुबन्धीके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है । सामान्य तिर्यञ्चोंमें सभी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल पूर्ववत् विचार लेना चाहिये। पञ्चेन्द्रियतिर्यचत्रिकमें नारकियोंके समान काल होता है किन्तु उनकी जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्त होनेसे बाईस प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है । तिर्यञ्च योनिनियोंमें दर्शन. मोहका क्षपण नहीं होता और न कृतकृत्यवेदक उनमें उत्पन्न ही होता है, अतः सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग उनमें नहीं होता। हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला एकेन्द्रिय जीव पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त या मनुष्य अपर्याप्तमें जन्म लेकर यदि दूसरे समयमें अनुभागको बढ़ा लेता है तो जघ य अनुभागका जघन्य काल एक समय होता है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। अजघन्य अनुभागका भी जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है जितनी कि अपर्याप्तक की जघन्य या उत्कृष्ट स्थिति होती है। मनुष्यत्रिकमें अजघन्यानुभागका जो उत्कृष्ट काल कहा है सो सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनी मार्गणाका एक जीवकी अपेक्षा जितना काल होता है उतना ही कहा है, उतने काल तक मनुष्यके बराबर अजघन्य अनुभाग रह सकता है । जो सम्यग्मिथ्यात्वकी क्षपणा कर रहा है उस मनुष्यके अन्तिम अनुभागकाण्डक अनुभागकाण्डक का काल अन्तर्मुहूर्त होता है अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अजघन्य अनभागका जघन्य काल एक समय उद्वेलनाकी अपेक्षा होता है। चारों संज्वलन और तीनों वेदों का जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणिमें अपने अपने क्षपण कालके अन्तिम समयमें होता है अतः उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। छ नोकषायोंके जघन्य अनभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है सो सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागके कालकी तरह घटा लेना चाहिये। अजघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनो जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय भवनवासी और व्यन्तरोंमें ही जन्म लेता है, ज्योतिष्कोंमें जन्म नहीं लेता। अत: भवनवासी और व्यन्तरोंमें प्रथम नरकके समान काल कहा है और ज्योतिष्क देवोंमें दूसरे नरकके समान काल कहा है। सौधर्मसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त बाईस प्रकृतियोंके दोनों अनुभागोंका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है जो कि पहले बतलाये गये स्वामित्वसे स्पष्ट है। सम्यक्त्वप्रकृतिके दोनों अनुभागोंका काल पूर्ववत् जानना । सौधर्मसे लेकर नवप्रैबेयक पर्यन्त अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः उससे संयुक्त होनेवालेके प्रथम समयमें होता है, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय कहा है। किन्तु अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनन्तान बन्धीका विसंयोजन करनेवाला जब उसके अन्तिम अनुभाग
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए अंतरं
२०१ अंतरं।
३०३. कालाणियोगद्दार परूविय संपहि मंदमेहाविजणाणुग्गहहमंतरं परूवेमि त्ति भणिदं होदि।
* मिच्छत्त-सोलसकसाय--णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
३०४. सुगमं । • जहरणेण अंतोमुहुत्तं ।
३०५. उक्कस्साणुभागसंतकम्मिएण तमणुभागखंडयघादेण धादिय अणुक्कस्साणुभागेण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तकालमंतरिय संकिलेसमावूरिय उक्कस्साणुभागे पबद्धे सवजहण्णंतोमुत्तमेत्तअंतरकालुवलंभादो।
2 उकस्सेण असंखेजा पोग्गलपरियड़ा।
s ३०६. उक्कस्साणुभागसंतकम्मियस्स तं घादिय अणुक्कस्साणुभागसंतकम्ममुवणमिय एइंदिएमुप्पज्जिय आवलियाए असंखे० भागमेतपोग्गलपरिय? परियट्टिदूण काण्डकमें वर्तमान रहता है तब अनन्तानबन्धीका जघन्य अनुभाग होता है, क्योंकि यहाँ विसंयोजन करके पुन: संयोजन नहीं होता, अत: उसका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सौधर्मादिकमें अनन्तानुबन्धीके अजघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय मरणकी अपेक्षा है, क्योंकि संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनभाग होता है। दूसरे समयमें अजघन्य अनुभाग करके यदि मर जावे तो एक समय काल होता है। तथा अनुदिशादिकमें अन्तमुहूर्त काल कहा है, क्योंकि अजघन्य अनभागवाला देव पर्याप्त होकर यदि अनन्तानबन्धीका विसंयोजन कर डालता है तो जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त होता है।
* अब अन्तर कहते हैं।
$ ३०३. कालानियोगद्वारको कहकर अब मन्दबुद्धि जनोंके अनुग्रहके लिये अन्तर कहता हूँ ऐसा इस सूत्रका तात्पर्य है।
* मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ?
६३०४. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूत है।
६३०५. उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उस उत्कृष्टका अनुभागकाण्डकघातके द्वारा घात करके अनुत्कृष्ट अनुभाग करता है और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक उसका अन्तर देकर संक्लेश परिणाम करके पुन: उसके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर काल सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त प्रमाण पाया जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है ।
$३०६. उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाला जीव उत्कृष्ट अनुभागका घात करके उसे अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म बनाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ। वहां आवलीके असंख्यातवें भाग मात्र पुद्गल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ तत्तो णिप्फिडिय पंचिंदिएसु उप्पज्जिय संकिलेसमावरिय बद्धकस्साणुभागस्स असंखेज्जपोग्गलपरियट्टमेत्तुक्कस्संतरकालुवलंभादो ।
* सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहापयडि अंतरं ।
३०७. जहा पयडीणं पयडिविहत्तीए अंतरं परूविदं तहा एत्थ परूवेयव्वं । तं जहा—जहण्णेण एगसमो, उक्क० उवट्ठपोग्गलपरिय। एवं चुण्णिमुत्तमस्सिदूण अंतरपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदूण अंतरपरूवणं कस्सामो।। ___ ३०८. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० उक्कस्साणुभागंतरं के ? ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेजा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवमणंताणु०चउक्क० । गवरि अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० वेछावहिसाग० देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । परावर्तन काल तक भ्रमण करके, वहाँसे निकलकर पंचेन्द्रियोमें उत्पन्न होकर संक्लश परिणामोंको करके उसने उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया। इस प्रकार उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर काल असंख्यात पुद्गलपरावर्तन मात्र पाया जाता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर प्रकृतिके समान है।
३०७. जैसे प्रकृतिविभक्ति नामक अधिकारमें प्रकृतियोंका अन्तर कहा है वैसे ही यहाँ भी कहना चाहिये। यथा-जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण है। इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे सामान्य अन्तरका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे अन्तरका कथन करते हैं।
६३०८. अन्तर दो प्रकारका है-जधन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसीप्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अन्तरकाल कहना चाहिए। इतना विशेष है कि अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम दो छियासठ सागरप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है।
विशेषार्थ-बाईस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर जैसे चूर्णि सूत्रमें बतलाया है वैसे ही जानना चाहिए । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि किसी अनत्कृष्ट अनुभागवाले जीवने उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया और अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् उसका घात करके फिर अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया तो अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर अन्तर्मुहूर्त होता है। अनन्तानुबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है, क्योंकि कोई उपशमसम्यग्दृष्टि वेदकसम्यक्त्वी होकर छियासठ
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गा० २२ ]
अनुभागविहत्तीए अंतरं $ ३०६. आदेसैण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देमूणाणि । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक० ज० अंतोमु, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त-सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त० अणुक० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि० । णवरि सागरोवमं देसूणं । एवं छसु पुढवीसु । णवरि सगसगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभागो पत्थि ।।
३१०. तिरक्खेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक • उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० अणंतकालमसंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । अणुक्क० जहण्णुक्क. अंतोमु । णवरि सागर काल बिताकर, तीसरे गुणस्थानमें जाकर, अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर, पुनः वेदक सम्यक्त्व प्राप्त करके दूसरी बार छियासठ सागर काल बिताये। जब उसमें अन्तमुहूर्त काल शेष रहे तो मिथ्यादृष्टि होकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके दूसरे समयमें अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाये तो अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर होता है । सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है, क्योंकि इन दोनोंकी सत्तावाला कोई मिथ्यांदृष्टि इन दोनों प्रकृतियोंके उद्वेलन कालमें अन्तर्मुहूर्त बाकी रहने पर उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख होकर मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिके द्विचरिम समयमें सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना करके अन्तिम समयमें उनसे रहित होकर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके पनः दोनोंकी सत्ताको उत्पन्न करता है. अतः एक समय अन्तर पाया जाता है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्द्धपुद्गलपरावर्तन है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि अर्धपुद्गलपरावर्तन कालके प्रथम समयमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके इन दोनों प्रकृतियों की सत्ताको उत्पन्न करता है। उसके बाद सबसे जघन्य पल्योपमके असंख्यातवें भाग कालमें इनकी उद्वेलना करके इनका अभाव कर देता है, अर्धपुद्गलपरावर्तन तक भ्रमण करके जब संसारका अन्त होनेमें अन्तमुहूर्त काल बाकी रहे तो उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पुन: सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो जाता है। इस तरह उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन होता है। इन दोनों प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहके क्षपण कालमें होता है, अत: उसका अन्तर नहीं है।
३०९. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके अनत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अत्तर कुछकम एक सागर है। इसी प्रकार छ पृथिवियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है तथा सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म वहाँ नहीं है।
३१०. तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल अर्थात् असंख्यात पुद्गल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणंताणु चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तिणि पलिदो० देसूणाणि । सम्मत्तसम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसणं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णत्थि ।
$ ३११. पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । अणुक्क० जहण्णुक्क० अंतोमु० । णवरि अणंताणु०चउक्क. अणक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि । सम्मत्तसम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुत्तेणब्भहियाणि । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णत्थि । जोणीणीसु सम्मत्त० अणुक्कस्साणुभागो गत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० मिच्छत्तसोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणक्कस्साणुभागं णत्थि अंतरं । एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं पि । णवरि अणुक्क० णत्थि । मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खतिगभंगो। णवरि सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुक्क० पत्थि अंतरं।
___ ३१२. देवगदीए देवेसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणु० ज० परावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है । इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम तीन पल्य है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय है और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट तिर्यञ्चोमें नहीं होता।
$३११. पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तरकाल पूर्वकोटिपृथक्त्वप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य
और उत्कष्ट अन्तर अन्तर्महत है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतष्कके अनुत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। तथा तिर्यञ्च योनिनियोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग भी नहीं होता । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चअपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागको लेकर अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भी जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनका अनुत्कृष्ट अनुभाग इन जीवोंमें नहीं होता । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनष्यिनियोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनियों के समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरकाल एक समय और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुलकम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनत्कृष्टका अन्तर नहीं है।
३१२. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट अनुभाग
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए अंतरं
२०५ अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अणुक० जहण्णुक्क० अंतोमुहुत्तं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त--सम्मामि० उक्कस्साण. ज. एगस०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्सं णस्थि । एवं भवणादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी देसूणा। भवण-वाण-जोइसि० सम्मत्त० अणुक्क० णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्साणकस्साणुभाग० णत्थि अंतरं । णवरि अणंताणु० चउक्क० अणुक्क० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त०सम्मामि० उक्कस्साणु० ज० एगसमो, उक्क. सगहिदी देसूणा । अणुक्क० णत्थि अंतरं । णवरि सम्मामि० अणुक्क० गत्थि। अधवा सम्मामिच्छत्तअणुक्कस्साभावे सव्वत्थ उक्कस्सं पि णत्थि त्ति वत्तव्वं, ताणमण्णोण्णसव्वपेक्खत्तादो। एसो उच्चारणाइरियस्साहिप्पायो सव्वत्थ जोजेयव्वो। अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अहावीसं पयडीणं उक्कस्साणुक्कस्साणुभागं णत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है । अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहर्त है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तरे अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इतना विशेष है कि सामान्य देवोंमें सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म नहीं होता । नतसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका अनत्कृष्ट यहाँ नहीं होता। अथवा सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्टके अभावमें सर्वत्र उसका उत्कृष्ट भी नहीं होता ऐसा कहना चहिये, क्योंकि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों परस्पर सापेक्ष हैं, जहाँ एक नहीं होता वहाँ दूसरा भी नहीं होता। उच्चारणाचार्यका यह अभिप्राय सर्वत्र लगा लेना चाहिये । अन दिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अट्ठाईस प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मको लेकर अन्तरकाल नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागवाला कोई नारकी उत्कृष्ट अनुभागका घात करके अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हुआ और अन्तमें उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करके पुनः उत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया तो उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
३१३. सुगमं । * मिच्छत्त-अहकसाय-अणताणुवंधीणच मोत्तण सेसाणं णत्थि अंतरं।
३१४. कुदो ? सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-चदुसंजलण-णवणोकसायाणं खवणाए जहण्णाणुभागसंतकम्मस्स णिम्मूलं विणहस्स पुणरुप्पत्रिवज्जियस्स अंतरावणे उवायाउत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त तो स्पष्ट ही है । विशेष यह है कि अनन्तानुबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अनुत्कृष्ट अनुभागवाला जीव अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके वेदकसम्यक्त्वी हुआ, अन्तमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यादृष्टि होकर पुनः अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके अनुत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया। इसी प्रकार प्रत्येक नरकमें लगा लेना चाहिये। सामान्य तियञ्चोंमें भी इसी प्रकार घटा लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीके अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य उत्कृष्ट भोगभूमिमं विसंयोजनाकी अपेक्षा नरककी तरह घटा लेना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यचत्रिकमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है सो एक जीवकी अपेक्षा इन तीनों मार्गणाओं का जितना काल है उसमें तीन पल्य कम उतना ही अन्तर होता है, क्योंकि भोगभूमिमें उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अभाव है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्य है सो इन दोनों प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई जीव पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च आदिमें से किसी एकमें जन्म लेकर इनकी उद्वेलना कर दे और इस प्रकार इनसे रहित होकर कुछ कम उक्त काल पर्यन्त पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च आदिमें ही भ्रमण करता रहे । अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करके पुन: उक्त दोनों प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाला हो जाये। इस प्रकार उत्कृष्ट अन्तर आता है। मनुष्य अपर्याप्त और तिर्यश्च अपर्याप्त में अन्तर नहीं होता, क्योंकि इनमें उत्कृष्ट अनुभाग बन्ध नहीं होता। पूर्वभवसे उत्कृष्ट अनुभाग लाया जा सकता है मगर उसका घातकर देनेपर पुनः उसका सत्त्व संभव नहीं है। इसी प्रकार अनुत्कृष्ट अनुभागमें भी समझ लेना चाहिये। देवगतिमें देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है. क्योंकि देवगतिमें उत्कृष्ट अनभागका बन्ध और मत्त्व बारहवें स्वर्ग तक ही पाया जाता है और उसकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक अठारह सागर है. अतः उत्कृष्ट अनभागवाला: जीव बारहवें स्वगमें जन्म लेकर उत्कृष्ट अनभागका घात करके अनत्कृष्ट अनभागवाला हक जब थोड़ी आयु शेष रही तो पुन: उत्कृष्ट अनुभागबन्ध करके उत्कृष्ट अनुभागवाला हो गया। इस तरह उत्कृष्ट अनभागका उत्कृष्ट अन्तर साधिक अठारह सागर होता है। अनन्तानुबन्धीक अनुत्कृष्ट अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर नव ग्रेवेयककी अपेक्षासे कहा है, क्योंकि आगे तो सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं अतः वहाँ अन्तर होता ही नहीं है। इसी तरह सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका भी अन्तर जानना चाहिए ।
* जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ?
३१३. यह सूत्र सुगम है ।
* मिथ्याव, आठ कषाय और अनन्तानुबन्धीचतुष्कको छोड़कर शेष प्रकृतियों के जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है।
३१४. क्योंकि सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन कषाय और नव नोकषायोंका क्षपण होने पर जघन्य अनुभागसत्कर्म मूलसे ही नष्ट हो जाता है, उसकी पुन: उत्पत्ति नहीं
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अंतरं भावादो । णिस्संतकम्मियम्मि अंतरमुवलब्भदि त्ति ण पञ्चवहादु जुत्तं, पुव्वुत्तरजहण्णाणुभागाणं विच्चालमंतरं । ण च तमेत्थत्थि, खविदजहण्णाणुभागस्स पुणरुप्पत्तीए अभावादो । खविदाणमणंताणुबंधीणं व पुणरुप्पत्ती एदासिं पयडीणमणुभागस्स किण्ण जायदे ? ण, अणंताणुबंधीणं व संजलणादीणं विसंजोयणाभावेण पुणरुप्पत्तीए विरोहादो । ण खविदाणं पुणरुप्पत्ती, णिव्वुआणं पि पुणो संसारित्तप्पसंगादो । ण च एवं,णिरासवाणं संसारुप्पत्तिविरोहादो। अणंताणुबंधीणं पि खवणा चे ण विसंजोयणा, लक्खणभेदाणुवलंभादो। ण कम्मंतरभावेण कम्माणं परिणामो विसंजोयणा, संछोहणेण खविदासेसकम्माणं पि विसंजोयणप्पसंगादो । ण च एवं, तेसिमणंताणुबंधीणं व पुणरुप्पत्तिप्पसंगादो। ण च अकम्मसरूवेण परिणामो. विसंजोयणा, लोभसंजलणस्स वि विसंजोयणत्तप्पसंगादो त्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे-कम्मतरसरूवेण संकमिय अवहाणं
होती, अतः उसके अन्तरको प्राप्त करानेका कोई उपाय नहीं है। जिन प्रकृतियों की सत्ताका अभाव हो जाता है उनमें भी अत्तर पाया जाता है, ऐसा निश्चय करना युक्त नहीं है, क्योंकि पहलेके जघन्य अनुभाग और बादके जघन्य अनुभागके बीचका जो फरक होता है उसे अन्तर कहते हैं। अर्थात् पहले जघन्य अनुभाग हुआ वह नष्ट हो गया। पुनः कालान्तरमें जघन्य अनुभाग हुआ। इन दोनों के बीच में जघन्य अनुभाग रहित जो काल होता है उसे अन्तरकाल कहते हैं। वह अन्तर यहाँ नहीं है, क्योंकि इन प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका क्षय हो जाने पर उसकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती।
शंका-जैसे अनन्तानुबन्धीका क्षपण हो जाने पर उसकी पुन: उत्पत्ति हो जाती है वैसे इन प्रकृतियोंके अनुभाग की पुनः उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अनन्तानुबन्धी कषायों की तरह संज्वलन आदिके विसंयोजनका अभाव होकर उनकी पुन: उत्पत्ति होनेमें विरोध है। यदि कहा जाय कि नष्ट होने पर भी उनकी पुन: उत्पत्ति हो जाय तो क्या हानि है ? किन्तु ऐसा कहना योग्य नहीं है, क्योंकि क्षयको प्राप्त हुई प्रकृतियोंकी पुनः उत्पत्ति नहीं होती, यदि होने लगे तो मुक्त हुए जीवोंको पुन: संसारी होनेका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु मुक्त जीव पुनः संसारी नहीं होते, क्योंकि जिनके कर्मोंका आश्रव नहीं होता उनके संसार की उत्पत्ति माननेमें विरोध आता है।
शंका-अनन्तानुबन्धी कषायोंकी भी क्षपणा ही होती है, विसंयोजना नहीं होती, क्योंकि क्षपणा और विसंयोजनाके लक्षणोंमें भेद नहीं है। शायद कहा जाय कि कर्माका कर्मान्तर रूपसे जो परिणमन होता है उसे विसंयोजना कहते हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार तो एक प्रकृतिके प्रदेशोंका अन्य प्रकृतिमें क्षेपण करनेसे नष्ट हुए सभी कर्मों की विसंयोजनाका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु अन्य प्रकृतियों की विसंयोजना नहीं होती, यदि हो तो अनन्तानुबन्धी की तरह उनकी भी पुनः उत्पत्तिका प्रसंग आयेगा। शायद कहा जाय कि अकर्म रूपसे परिणमन होनेको विसंयोजना कहते हैं सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि विसंयोजनाका ऐसा लक्षण करनेसे संज्वलन लोभको भी विसंयोजनाका प्रसंग उपस्थित होगा।
समाधान-अब परिहार कहते हैं-किसी कर्मका दूसरे कर्मरूपमें संक्रमण करके ठहरे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ विसंजोयणा, णोकम्मसरूवेण परिणामो खवणा ति अत्थि दोण्हं पि लक्खणभेदो । ण च अणंताणुबंधीणं व संछोहणाए वि णहासेसकम्माणं विसंजोयणं पडि भेदाभावादो पुणरुप्पत्ती, आणुपुव्वीसंकमवसेण लोभभावं गंतूण अकम्मसरूवेण परिणमिय खवणभावमुवगयाणं पुणरुप्पत्तिविरोहादो। अणंताणुबंधीणं व मिच्छत्तादीणं विसंजोयणपयडिभावो आइरिएहि किण्ण इच्छिज्जदे ? ण, विसंजोयणभावं गंतूण पुणो णियमेण खवणभावमुवणमंति त्ति तत्थ तदणुब्भुवगमादो। ण च अणंताणुबंधीसु विसंजोइदासु अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे तासिमकम्मभावगमणणियमो अत्थि जेण तासि विसंजोयणाए खवणसण्णा होज्ज । तदो अणंताणुबंधीणं व सेसविसंजोइदपयडीणं ण पुणरुप्पत्ती अस्थि ति सिद्धं । _ मिच्छत्त-अट्ठकसायाणं जहण्णाणुभारासंतकम्मियंतरं केवचिरं
कालादो होदि?
रहना विसंयोजना है। और कर्मका नोकर्म अर्थात् कर्माभावरूपसे परिणमन होना क्षपणा है। इसप्रकार दोनोंके लक्षणों में भेद है। यदि कहा जाय कि प्रदेश क्षेपणसे नष्ट हुए अशेष कर्मोमें विसंयोजनाके प्रति कोई भेद नहीं है अतः अनन्तानुबन्धीकी तरह उन कर्माकी भी पुन: उत्पति हो जायेगी सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि आनुपूर्वीसंक्रमके कारण लोभपनेको प्राप्त होकर अकर्मरूपसे परिणमन करके नष्ट हुई उन प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति होने में विरोध है।
शंका-अनन्तानुबन्धीकी तरह मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंको भी प्राचार्योने विसंयोजना प्रकृति क्यों नहीं माना ?
समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यात्व आदि प्रकृतियाँ विसंयोजनपनेको प्राप्त होकर अनन्तर नियमसे क्षय अवस्थाको प्राप्त होती हैं, इसलिये उनमें विसंयोजनपना नहीं माना गया। किन्तु अनन्तानुबन्धी कषायोंका विसंयोजन होनेपर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उनके अकर्मपनेको प्राप्त होनेका नियम नहीं है जिससे उनकी विसंयोजनाकी क्षपणसंज्ञा हो जाय । अतः अनन्तानन्धीकी तरह शेष विसंयोजित प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती, यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन और नव नोकषायोंमें नहीं होता, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग क्षपणकालमें होता है अत: एक बार नष्ट होकर पुनः वह उत्पन्न नहीं हो सकता । इस पर यह शंका की गई कि अनन्तानुबन्धीकी तरह इन प्रकृतियोंका क्षपण हो जाने पर भी पुन: उत्पति हो जानी चाहिये । इसका उत्तर दिया गया कि अन तानुबन्धीकी क्षपणा नहीं होती, विसंयोजना होती है । तब पुन: शंका हुई कि दोनों में अन्तर क्या है तो उत्तर दिया गया कि एक कमके अन्य कर्मरूपसे संक्रमण करके अवस्थित रहनेको विसंयोजना कहते हैं, और कर्मका अभाव हो जानेको क्षपणा कहते हैं । यद्यपि संज्वलन क्रोध मानरूपसे, मान मायारूपसे और माया लोभ रूपसे संक्रमण करते हैं किन्तु संक्रमण करके वे अवस्थित नहीं रहते किन्तु उनका विनाश हो जाता है परन्तु अनन्तानुबन्धीमें यह बात नहीं है अत: अनन्तानुबन्धीकी तरह उक्त पन्द्रह प्रकृतियोंकी पुन: उत्पत्ति नहीं होती, इसलिये उनके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर भी नहीं होता।
* मिथ्यात्व, और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ?
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गा० २२] अणुभागबंधाहियारे अंतरं
. २०९ ३१५. सुगम । • जहणणेण अंतोमुहुत्त ।
$ ३१६. कुदो १ जहण्णाणुभागसंतकम्मिएण मुहुमणिगोदेण मिच्छत्तढकसायाणमजहण्णाणुभागं बंधिदूण अंतरिदेण अणुभागखंडयं घादिय पुणो जहण्णाणुभागसंतकम्मे कदे पुव्वुत्तरजहण्णाणुभागसंतकम्माणं विचाबस्स सव्वजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तस्स उवलंभादो।
* उक्कस्सेण असंखेजा लोगा।
$ ३१७. जहण्णाणुभागसंतकम्मियस्स मुहुमेइंदियस्स परिणामपञ्चएण बदमिच्छत्तट्टकसायअजहण्णाणुभागसंतकम्मस्स असंखेज्जलोगमेत्तघादहाणपरिणामेसु असंखेजलोगमेत्तकालं परिभमिय पुणो जहण्णाणुभागहाणपाओग्गघादपरिणामेहि अणुभागसंतकम्मं धादिय जहण्णाणुभागसंतकम्मसरूवेण परिणयस्स असंखेजलोगमेत्तअंतरकालुवलंभादो।
* अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो । होदि?
३१८. सुगमं । * जहरणेण अंतोमुहुत्त । 5 ३१५. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है ।
३१६. क्योंकि जघन्य अनुभागसत्कर्मसे युक्त सूक्ष्म निगोदिया जीवके मिथ्यात्व और आठ कषायोंका अजघन्य अनुभाग बाँधकर अनुभागका काण्डकघात करके पुन: जघन्य अनुभागसत्कर्म करने पर पूर्व जघन्य अनुभागसत्कर्म और उत्तर जघन्य अनुभागसत्कर्मके बीच में सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरकाल पाया जाता है।
विशेषार्थ-इन कर्माका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म निगोदिया जीव करता है। अनन्तर वह अजघन्य अनुभागका बन्ध कर और पुनः अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर उसका घात करके जघन्य अनुभाग कर सकता है, इसलिए इन नौ कर्मोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है।
६३१७. जघन्य अनुभागसत्कर्मवाला सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव परिणामोंके द्वारा मिथ्यात्व और पाठ कषायोंके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका बंध करके असंख्यात लोक मात्र घातस्थान रूप परिणामोंमें असंख्यात लोकमात्र कालतक भ्रमण करके पुन: जघन्य अनुभागस्थानके योग्य घातरूप परिणामोंसे अनुभागसत्कर्मका घात करके जघन्य अनुभागसत्कर्म रूपसे परिणत हुआ। उसके असंख्यात लोकमात्र अन्तरकाल पाया जाता है।
* अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल कितना है ? ६३१८. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागवित्ती ४ $ ३१६. कुदो ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए तेसिमणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंतकम्मं कादूण विदियसमए अंतरिय सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय सम्मत्तं घेत्तूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए बद्धजहण्णाणुभागस्स अंनोमुहुत्तमेत्तजहणणंतरकालुवलंभादो।
8 उकस्सेण उवड़पोग्गलपरियट्ट। ___३२०. कुदो ? अणादियमिच्छाइहिम्मि समयाविरोहेण पडिवण्णपढमसम्मतम्मि पढमसम्मत्तकालब्भंतरे अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइय संजुत्तपढमसमए अणंताणुबंधिचउकाणुभागं जहण्णं काऊण विदियसमए अंतरिय कमेण उवड्डपोग्गलपरिय परियट्टिय त्योवावसेसे संसारे पढमसम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय संजुत्तपढमसमए अंतरमुप्पाइय पुणो अंतोमुहुत्तेण णिव्वुअम्मि उवडपोग्गलपरियट्टमेत्तरकालुवलंभादो । एवं देसामासियचुण्णिमुत्तमवलंबिय जहण्णाणुभागंतरपरूवणं काऊण संपहि उच्चारणमस्सिदूण परूवेमो । - ३२१. जहएणए पयदं । दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-अहक० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। अज० जहपणुक० अंतोमु० । सम्मत्त-सम्मामि० जहण्णाणु० णत्थि अंतरं । अज० ज० एगस०, - ३१९. क्योंकि अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करके पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें उन अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मको करके, दूसरे समयमें अन्तर आरम्भ करके सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक ठहर कर, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, सम्यक्त्व दशामें अन्तर्मुहूर्त तक रहकर, अनन्तानबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभागबन्ध करनेपर अन्तर्मुहूर्तमात्र जघन्य अन्तरकाल पाया जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है ? ___ ३२०. क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीवके आगमके अविरुद्ध प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके, प्रथम सम्यक्त्वके कालके भीतर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, संयुक्त होनेके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य अनुभाग करके तथा दूसरे समयमें अन्तर प्रारम्भ करके क्रमसे कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तन कालतक परिभ्रमण करके, संसार भ्रमणका काल थोड़ा अवशेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्वको ग्रहण करके, अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके, पुनः संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनुभागके अन्तरकालको उत्पन्न करके पुनः अन्तमुहूते बाद मोक्ष चले जानेपर कुछकम अर्धपुद्गल परावर्तन मात्र अन्तरकाल पाया जाता है। इस प्रकार देशामर्षक चूर्णिसूत्रोंका अवलम्बन लेकर जघन्य अनुभागसत्कर्मके अन्तरका कथन किया। अब उच्चारणाका अवलम्बन लेकर कहते हैं।
. ३२१. प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्वे और आठ कषायोंके जघन्य अनभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल
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मा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूर्ण । अणंताणु० चउक० जहण्णा० ज० अंतोमु०, उक्क. उवडपोग्गलपरियट्ट । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । चदुसंजलण-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं ।
$ ३२२. आदेसैण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० पत्थि अंतरं । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त० जहएणाण. पत्थि अंतरं। सम्मत्त०-सम्मामि० अज० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. देसणाणि । एवं पढमाए। णवरि सगहिदी देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मिच्छत्त--सोलसक०--णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा।
६३२३. तिरिक्खगईए तिरिक्खेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाणु० जह• अंतोमु०, उक. असंखेज्जा लोगा । अज० जहण्णुक० अंतोमु० । सम्मत्त० ज० णत्थि अंतरं । सम्मत्त०--सम्मामि० अज० ज० एगस०, उक्क० अदपोग्गलपरिय देसूणं । अणंताणु०चउक्क. जह० ज. अंतोमु०, उक्क० अद्धपो०परियट्ट देसणं । नहीं है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम दो छियासठ सागर है। चारों संज्वलन कषायों और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है।
३२२. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी स्थितिप्रमाण है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्व; सोलह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है।
३२३. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गलपरावतनप्रमाण है। अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और
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जयधक्लासहिदे कषायपाहुडे
[ अणुभागविहन्ती ४
अज० ज० अंतोमु०, उक्क० तिरिण पलिदोवमाणि देणाणि । पंचिंदियतिरिक्खतिय० मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु णत्थि अंतरं । [सम्मत्त सम्मामि ० ] अज० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी | अताणु [० चउक० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी० । अज० ज० तोमुहुत्तं, उक्क० तिरिण पलिदो० देसूणाणि । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० जहण्णाणु० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खापज्ज० - मणुसापज्ज० मिच्छत - सोलसक० णवणोक० ज० अज० णत्थि अंतरं । मणुसतिय० पंचिंदियतिरिक्खतियभंगो | णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो |
१ ३२४. देवगदीए देवेसु मिच्छत - बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णा० रात्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मा मि० अ० ज० एगस०, उक्क० एक्कत्तीस सागरो० देसूणाणि । अनंताणु० चउक्क० जहण्णाजहण्णा पु० ज० अंतोमु०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देभ्रूणाणि । भवण० वाण ० णेरइयभंगो। णवरि सगहिदी । सम्मत्तस्स जहण्णं णत्थि । जोदिसि० विदिय पुढविभंगो। णवरि सगहिदी। सोहम्मादि जाव उवरिंमंगेवज्जा त्ति मिच्छत्त-- बारसक० णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु०
1
उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनी जीवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभाग सत्कर्म का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रियतिर्यभ्व योनिनियों में सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में मिध्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायों के जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। मनुष्य के शेष तीन भेदों में पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चत्रिकके समान भंग हैं । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भंग सम्यक्त्वके समान है ।
$ ३२४. देवगतिमें सामान्य देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय, और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग सत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क जघन्य और अजघन्य अनुभाग सत्कर्मका जधन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है । भवनवासी और व्यन्तरोंमें नारकियोंके समान भंग है । इतना विशेष है की उत्कृष्ट अन्तर अपनी स्थितिप्रमाण है । वहाँ सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म नहीं होता । ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर ज्योतिषी देवोंकी स्थितिप्रमाण हैं । सौधर्मसे लेकर उपरिमयैत्रेयक तकके देवोंमें मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कमका अन्तरकाल नहीं हैं ।
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गा० २२]
अणुभागबंधाहियारे भंगविचओ पत्थि अंतरं । अणंताणु चउक्क० जहण्णाजहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० जहण्णाण णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अज. ज. एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणुदिसादि जाव सव्वहसिद्धि ति सव्वपयडीणं जहरणाजहण्णाणु० पत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
* पाणाजीवेहि भंगविचओ।
३२५. अहियारसंभालणमुत्तमेदं । सुगमं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य और अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तरकाल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में सब प्रक्रतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तरकाल नहीं है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे सामान्य नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभाग जो असंज्ञी पश्चेन्द्रिय नरकमें जन्म लेता है उसके होता है अत: जब वह नरकमें जन्म लेकर उस अनुभागको बढ़ा लेता है तो पुनः जघन्य नहीं कर सकता, अतः अन्तर नहीं है। अनन्तानुबन्धीके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर उसीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह जानना चाहिए । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागका अन्तर उन्हींके उत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह जानना चाहिए । दूसरे आदि नरकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले सम्यग्दृष्टि नारकीके होता है, अत: जघन्य अनुभागवाला सम्यक्त्यसे च्युत होकर अजघन्य अनुभागवाला होकर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक ठहरकर पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करके अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके जघन्य अनुभागवाला हो गया तो जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हुआ। इसी प्रकार अजघन्य अनुभागका भी जघन्य अन्तर विचार लेना चाहिये। सामान्य तिर्यञ्चों में तो बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर होता है, क्योंकि उनमें इनका जघन्य अनुभाग हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके होता है, अत: छूटकर पुनः प्राप्त हो सकनेके कारण वहाँ अन्तराल संभव है किन्तु पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च आदि तीन भेदोंमें उन प्रकृतियों के उक्त अनुभागोंका अन्तर नहीं है, क्योंकि इनका जघन्य अनुभाग जो हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला एकन्द्रिय इनमें जन्म लेता है उसीके होता है, अत: इन पर्यायोंमें जघन्य अनुभागको बढ़ा लेने पर पुनः उसका जघन्य होना संभव नहीं है इसलिये अन्तर नहीं है। इसी प्रकार इनके अपर्याप्त तथा मनुष्योंमें भी घटा लेना चाहिये । देवगतिमें सामान्य देवोंमें तथा सौधर्मसे लेकर उपरिम प्रैवेयक पर्यन्त बाईस प्रकृतियों के तथा ऊपर सभी प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है, क्योंकि उनमें जघन्य अनुभागके नष्ट होनेपर पुनः उसकी उत्पति नहीं होती या प्रारम्भमें जो अनुभाग रहता है अन्ततक वही रहता है। अन्य प्रकृतियोंके अन्तरको पहले कहे गये उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह घटा लेना चाहिये ।
* नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयका अधिकार है। $ ३२५. अधिकारकी सम्हालके लिए यह सूत्र आया है। इसका अर्थ सुगम है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ॐ तत्थ अठ्ठपदं । ...
३२६. तत्थ णाणाजीवभंगविचए अट्ठपदं बुच्चदे। किमट्टपदं णाम ? जेण अवगएण भंगा अवगम्मति तमपदं । ।
* जे उक्कस्साणुभागविहत्तिया ते अणुकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया। $ ३२७. कुदो ? उक्कस्साणुक्कस्साणुभागाणं सहाणवहाणलक्खणविरोहादो ।
* जे अणुक्कस्सअणुभागस्स विहत्तिया ते उकस्सअणुभागस्स अविहत्तिया।
$ ३२८. अणुक्कस्साणुभागम्मि उक्कस्साणुभागस्स संभवविरोहादो ।
* जेसिं पयडी अस्थि तेसु पयद, अकम्मे अव्ववहारो। ___ ३२६. जेसि जीवाणं मोह उत्तरपयडीओ अत्थि तेसु जीवेसु पयदं अहियारो। अकम्मे मोहकम्मवज्जिए अव्यवहारो ववहारो णत्थि' खीणकसायादिउवरिमजीवेहि गत्थि ववहारो, मोहणीयकम्माभावादो त्ति भणिदं होदि ।
8 एदेण अट्ठपदेण । * उसमें यह अर्थपद है।
३२६. उसमें अर्थात् नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय नामके अधिकारमें अर्थपदको कहते हैं।
शंका-अर्थपद किसे कहते हैं। समाधान-जिसके जान लेने पर भंगोंका ज्ञान हो जाता है उसे अर्थपद कहते हैं।
* जो उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव हैं वे अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं होते।
३२७. क्योंकि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागोंमें सहानवस्थान रूप विरोध पाया जाता है। अर्थात् ये दोनों एक साथ नहीं रह सकते हैं।
* जो अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं है।
६ ३२८. क्योंकि अनुत्कृष्ट अनुभागके रहते हुए उत्कृष्ट अनुभागके होनेमें विरोध है।
* जिन जीवोंके मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियाँ पाई जाती हैं वे प्रकृत हैं। जो मोहसे रहित हैं उनमें व्यवहार नहीं होता।
३२९. जिन जीवोंके मोहनीय की उत्तर प्रकृतियाँ हैं उन जीवोंका प्रकरण है अर्थात् उनका अधिकार है। जो मोहकर्मसे रहित हैं उनका श्रव्यवहार है अर्थात् उनका व्यवहार नहीं है। तात्पर्य यह है कि बारहवें गुणस्थानसे लेकर ऊपरके जीवोंकी अपेक्षा व्यवहार नहीं है, क्योंकि उनके मोहनीयकर्मका अभाव है।
* इस अर्थपदके अनुसार
ता. प्रतौ अब्ववहारोणस्थि इति पाठ:1
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गा० २२]
अणुभागबंधाहियारे भंगविचओ ३३०. एदेण अणंतरं परूविदअट्टपदेण करणभूदेण णाणाजीवेहि भंगविचओ वुच्चदे। - सव्वे जीवा मिच्छत्तस्स उक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया ।
___ ३३१. मिच्छत्तस्से ति णिद्दे सेण सेसकम्मपडिसेहो कदो। उक्कस्सअणुभागस्से ति णिद्दे सो अणुक्कस्साणुभागादणं पडिसेहफलो। सिया कम्हि वि काले सचे जीवा मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागस्स अविहत्तिया होति, उक्कस्साणुभागसंतकम्मेण सह अवहाणकालादो तेण विणा अवहाणकालस्स बहुत्तवलंभादो । सव्वे जीवा सव्वे अविहत्तिया ति दोवारं सव्वणिद्दे सो ण कायव्वो, पउणरुत्तिदोसप्पसंगादो त्ति ? ण एस दोसो, दोण्हं सव्वसदाणं पुधभूदअत्थेसु वट्टमाणाणं पउणरुचियत्तविरोहादो'। तं जहा--पढमो सव्वसद्दो जीवाणं विसेसणं, विदिओ अविहत्तियाणं विसेसणं । ण च भिएणत्थाहारबहुत्ते वट्टमाणाणं दोएहं सव्वपदाणमेयत्थे वुत्ती, अइप्पसंगादो । ण च जीवाविहत्तियाणमेयत्तं, भिएणविसेसणविसिहाणमेयत्तविरोहादो । विसेसिज्जमाणमुभयत्थ एयमिदि पुणरुत्तदोसो किरण जायदे ? होदु णाम तहाविह
३३०. इस पहले कहे गये करणभूत अर्थपदके अनुसार नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयको कहते हैं।
* कदाचित् सब जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं।
९ ३३१. मिथ्यात्वपदके निर्देशसे शेष कर्मों का प्रतिषेध कर दिया। 'उत्कृष्ट अनुभाग' पदके निर्देशसे अनुत्कृष्ट अनुभागादिकका प्रतिषेध कर दिया। सिया' अर्थात् किसी भी समय सब जीव मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले होते है। क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मके साथ रहनेका जितना काल है उस कालसे उसके बिना रहनेका काल बहुत पाया जाता है।
शंका-'सव्ये जीवा, सव्वे अविहतिया' इस प्रकार दो बार 'सर्व' शब्दका निर्देश नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करनेसे पुनरुक्तिदोषका प्रसङ्ग आता है।
समाधान-पुनरुक्ति दोष नहीं आता है, क्योंकि भिन्न भिन्न अर्थों में वर्तमान दो 'सर्व, शब्दों के पुनरुक्त होनेमें विरोध है । खुलासा इस प्रकार है-पहला 'सर्व' शब्द जीवोंका विशेषण है और दूसरा 'सर्व' शब्द अविभक्तियों का विशेषण है। इस प्रकार जब दोनों सर्व शब्द भिन्न भिन्न अर्थोके बहुत्वमें विद्यमान हैं तो उनकी एक अर्थमें वृत्ति नहीं हो सकती, अन्यथा अतिप्रसङ्ग दोष आयेगा। अर्थात् यदि भिन्न भिन्न अर्थमं वर्तमान शब्द भी एकार्थवृत्ति कहे जायेंगे तो घट पट आदि सभी शब्द एकार्थवृत्ति हो जायेंगे और उस अवस्थामें घट पट शब्दके भी एक साथ कहनेसे पुनरुक्ति दोषका प्रसङ्ग उपस्थित होगा। यदि कहा जाय कि जीव शब्द और अविभक्तिक शब्द एक हैं सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि जो शब्द भिन्न भिन्न विशेषणोंसे विशिष्ट हैं अर्थात् जब उन दोनोंके साथ अलग अलग विशेषण लगा हुआ है तो उनके एक होनेमें विरोध है। ..
१. पा० प्रतौ पउणरुत्तिय त्ति विरोहादो इति पाठः ।
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arvarvvvvvvvvvvvv
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ विवक्खाए, ण पुण एत्थ, पहाणीकयविसेसणचादो, तम्हा ण पुणरुत्तदोसो ति सदहेयव्वं ।
* सिया अविहत्तिया च विहत्तिमो च ।
३३२. कम्हि वि काले मिच्छत्तउक्कस्साणु० अविहतिगेहि सह एकस्सउक्कस्साणुभागविहत्तियजीवस्स संभवो होदि, णिम्मूलाभावे उवलंभमाणे एकस्स उक्कस्साणुभागविहत्तियजीवस्स संभवं पडि विरोहाभावादो।
* सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च ।
३३३. कम्हि वि काले उक्कस्सागभागस्स अविहत्तिएहि सह उक्कस्साणभागविहत्तियजीवाणं संभवो होदि, विरोहाभावादो ।
* अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । __$ ३३४. पुव्वमुत्तादो मिच्छत्तस्से त्ति अणुवट्टदे। अणुक्कस्सअणुभागस्से ति जिद्द सो उक्कस्साणुभागपडिसेहफलो । कम्हि वि काले मिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणुभागस्स सव्वे जीवा विहचिया चेव होंति, उक्कस्साणुभागसंतकम्मियाणं जीवाणं सांतरभावेण पउत्तिदंसणादो। .. सिया विहत्तिया च अविहत्तिमो च।
शंका-दोनों जगह विशेष्य तो एक ही है अत: पुनरुक्त दोष क्यों नहीं आता ?
समाधान-उस प्रकारकी विवक्षाके होने पर पुनरुक्त दोष होओ, किन्तु यहाँ वह नहीं है, क्योंकि यहाँ विशेषण ही प्रधान हैं, अतः पुनरुक्त दोष नहीं है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये।
* कदाचित् नाना जीव अविभक्तिवाले हैं और एक जीव विभक्तिवाला है।
३३२. किसी भी समय मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले जीवोंके साथ एक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला जीव संभव है, क्योंकि जब कदाचित् उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले जीवोंका कतई अभाव पाया जाता है तो एक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवके रहनेमें कोई विरोध नहीं है। अर्थात् उनके निमूल अभावमें भी कमसे कम एक जीव उत्कृष्ट अनुभागवाला रह सकता है।
* कदाचित् बहुत जीव उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले हैं और बहत जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं।
३३३. किसी भी समय उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले जीवो के साथ उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव होते हैं इसमें कोई विरोध नहीं है।
* कदाचित् सव जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं।
६३३४. पहलेके सूत्रसे मिथ्यात्व पद की अनुवृत्ति होती है। उत्कृष्ट अनुभागका निषेध करनेके लिए अनुत्कृष्टअनुभागका निर्देश किया है। किसी भी समय सब जीव मिथ्यात्व अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले ही होते हैं, क्योकि उत्कृष्ट अनुभाग की सत्तावाले जीवों की प्रवृत्ति सान्तर रूपसे देखी जाती है।
* कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं और एक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाला है। .
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए भंगविचश्रो
२१७
९ ३३५. कुदो ? बहुएहि मिच्छत्ताणुकस्साणुभागविहत्तिएहिं सह एकस्स मिच्छत्तुकस्साणुभागविहत्तियजीवस्सुवलंभादो ।
* सिया विहत्तिया च विहत्तिया च ।
९ ३३६. मिच्छत्तस्स अणुक्कस्साणुभागविहत्तिएहि सह बहुश्राणमुक्कस्साणुभागविहत्तियाणं संभवुवलं भादो ।
* एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्तसम्मामिच्छुत्तवज्जाणं ।
९ ३३७, जहा मिच्छत्तस्स भंगाणं मीमांसा कदा तहा सम्मत्त सम्मामिच्छत्तवज्जाणं सेकम्माणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो ।
* सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताए मुक्कस्स अणुभागरस सिया सब्वे जीवा विहत्तिया ।
$ ३३८. सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियाणं व अविहत्तियाणं पि सव्वकालसंभवो अत्थि, छब्बीससंतकम्मियाणं जीवाणं सव्वकालमाणंतियभावेण दाणवलं भादो त ?ण, अकम्मे ववहारो णत्थि त्ति पुव्वं परुविदत्तादो । मिच्छता
९ ३३५. क्योंकि मिध्यात्व की अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले बहुत जीवो के साथ मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला एक जीव पाया जाता है ।
* कदाचित् बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और बहुत जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं।
३३६. क्योकि मिध्यात्वकी अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो के साथ बहुतसे उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं ।
* इसी प्रकार सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर शेष कर्मोंका भी जान लेना चाहिये ।
९ ३३७. जैसे मिथ्यात्व के भंगो की मीमांसा की है वैसे ही सम्यक्त्व और सम्यमिध्यात्वको छोड़कर शेष कर्मों की कर लेनी चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कुछ विशेष नहीं है । * सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अपेक्षा कदाचित् सब जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं ।
§ ३३८. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले जीवो के समान उत्कृष्ट अनुभाग की अविभक्तिवाले जीव भी सदा संभव हैं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के सिवाय मोहनीयकी शेत्र छब्बीस प्रकृतियोंकी सतावाले जीव सदा अनन्तरूपसे अवस्थित पाये जाते हैं। अत: उत्कृष्ट अनुभागसे सहित जीवोंके समान उससे रहित जीवोंको भी कहना चाहिये ।
समाधान- नहीं, क्योंकि पहले कह आये हैं कि जिन जीवोंके मोहनीयकी प्रकृतियां नहीं
१. श्रा० प्रतौ श्रणुणागविहत्तिएहि इति पाठः । २ ता० प्रतौ संतकम्मियाणं पि श्रविहन्तियाणं पि सव्वकाल संभव श्रत्थि सव्वकालजीवाणं इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ णुक्कस्साणुभागरस विहत्तिया इव अविहत्तिया वि सम्वकालमत्थि ति तत्थ एगो चेव भंगो किण्ण परूविदो ? अकम्मेहि ववहाराभावेण एगभंगाणुप्पत्तीए ।
® एवं तिरिण भंगा।
$ ३३६. सिया विहत्तिया चे अविहत्तिओ च । सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च । एवमेदे मूलिल्लभंगेण सह तिण्णि भंगा।
ॐ अणुकस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया।
३४०. खवणं मोत्तण अण्णत्थ सम्मत्त--सम्मामिच्छत्ताणमणुक्करसाणुभागस्स संभवाभावादो। ण च दंसणमोहणीयक्रववया सव्वकालमस्थि, तेसिमुक्कस्सेण छम्मासं. तरुवलंभादो।
* एवं तिरिण भंगा।
३४१. सिया अविहत्तिया च विहतिओ च । सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । एवं पुव्विल्लभंगेण सह तिणि भंगा । देसामासियं चुण्णिचुत्तमस्सियूण है उनका यहां अधिकार नहीं है। अत: सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तासे रहित जीवोंकी अपेक्षा भङ्ग नहीं बतलाया ।
शंका-मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंकी तरह अनुत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले जीव भी सदा रहते हैं, अत: वहां एक ही भङ्ग क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि कर्मसे रहित जीवोंमें भङ्गका व्यवहार नहीं होता, अत: एक भङ्ग नहीं होता।
* इस प्रकार तीन भङ्ग होते हैं।
$ ३३९. कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं और एक जीव उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाला है। कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं और अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभाग अविभक्तिवाले हैं। इस प्रकार ये दोनों पहले कहे हुए मूल भङ्ग के साथ मिलकर तीन भङ्ग होते हैं।
* कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले हैं ।
$ ३४०. क्योंकि क्षपण अवस्थाको छोड़कर अन्यत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका अभाव है। शायद कहा जाय कि दर्शनमोहनीयका क्षपण करनेवाले जीव सदा रहते हैं, अतः सभी जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिसे रहित नहीं हो सकते, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दर्शनमोहके क्षपको का उत्कृष्ठसे छमास अन्तरकाल पाया जाता है ।
* इस प्रकार तीन भंग होते हैं।
$ ३४१. कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला है। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागअविभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं। इस प्रकार पहले कहे गए एक भङ्ग के साथ ये दो भङ्ग
१. श्रा. प्रतौ विहत्तिनो च इति पाठः ॥
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गा० २२)
अणुभागविहत्तीए भंगविचओ णाणानीवभंगविचयपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिण णाणाजीवभंगविचयपरूवणं कस्सामो
। ३४२. णाणाजीवेहि भंगविचओ दुविहो-जहएणओ उक्स्स ओ चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णि सो- ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागविहत्तिया भजियव्वा । अणुक्कस्सविहत्तिया णियमा अत्थि। सिया एदे च उक्कस्साणुभागविहत्तिओ च । सिया एदे च उक्कस्साणुभागविहत्तिया च । धुवभंगे पक्वित्ते तिणि भंगा । एवमणुक्कस्सस्स वि। णवरि विवरीयं वत्तव्वं । एवं सोलसक० णवणोकसायाणं । सम्मत्त सम्मामि० उक्कस्साणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया। सिया विहत्तिया च अविहत्तिो च । सिया विहत्ति या च अविहत्तिया च । धुवेण सह तिरिणभंगा । अणुक्कस्सस्स सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया । एवमेत्थ वि तिण्णि भंगा वत्तव्वा । मणुसतियम्मि ओघभंगो।
.३४३. आदेसेण णेरइएसु एवं चेव । णवरि सम्मामिच्छत्तस्स अणुक्कस्सं पत्थि । एवं पढमपुढवि-तिरिक्त--पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज्ज०-देव-सोहम्मादि मिलानेसे तीन भङ्ग होते हैं। देशामर्पक चूर्णिसूत्र के आश्रयसे नाना जीवो की अपेक्षा भङ्गविचय का कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे नाना जीवों की अपेक्षा भंगविचयका कथन करते हैं--
३४२. नाना जीवो की अपेक्षा भङ्गविचय दो प्रकारका है--जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव भजितव्य हैं-कदाचित् होते भी हैं और कदाचित् नहीं भी होते । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव नियमसे होते हैं। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं । इन दो भङ्गा में अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले नियमसे होते हैं। इस ध्रुव भङ्गके मिलानेसे तीन भङ्ग होते हैं। इसी प्रकार अनुत्कृष्टके भी तीन भङ्ग होते हैं। इतना विशेष है कि उन भङ्गो को उत्कृष्टके भङ्गो से विपरीत कहना चाहिये। अथोत् कदाचित् सब जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं। कदाचित् एक जीव उ.कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला और अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाले होते हैं । कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और अनेक जीव अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं । इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकपायों के भङ्ग होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा कदाचित् सत्र जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले होते हैं। कदाचित् अनेक जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और एक जीव उत्कृष्ट विभक्तिसे रहित होता है। कदाचित् अनेक "जीव उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले और अनेक जीव उससे रहित होते हैं। ध्रुव भगके साथ तीन भङ्ग होते हैं। अनुकृष्ट की अपेक्षा कदाचित् सब जीव अनु कृष्ट अनुभागविभक्तिसे रहित होते हैं। इस प्रकार अनुत्कृष्टके भी तीन भङ्ग कहने चाहिए। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुयिनियों में ओघके समान भङ्ग होते हैं।
३४३. आदेशसे नारकियों में इसी प्रकार भङ्ग होते हैं। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मियात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्च
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२२०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स एक्को चेव भंगो, अणुक्कस्साणुभागाभावादो। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचितिरि०-- अपज्ज०-भवण०-वाण-जोदिसि मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्साणुभागस्स अह भंगा वतव्वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं उक्कस्साणुभागस्स दो भंगा। आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुकस्साणु० णियमा अत्थि । सम्मत्तस्स ओघभंगो । सम्मामि० उकस्साणु० णियमा अस्थि । भंगो एको चेव । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___$ ३४४. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त-अहकसा० जहण्णाजहण्णाणु० णियमा अत्थि । सम्मत्त०-सम्मामि०-अणंताणुचउक्क०-चदुसंज०-णवणोक० जहण्णाणुभागस्स सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया । एत्थ तिण्णि भंगा। अज० अणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । एत्थ वि तिषिण भंगा वतव्वा ।
३४५. आदेसेण णेरइएसु सत्तावीसं पयडीणं जहण्णाजहण्णाणुभागस्स तिण्णि भंगा । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्ज० देवोघं च । विदियादि न्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका एक ही भङ्ग होता है, क्योंकि इन नरको में उसका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं होता। इसोप्रकार पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयानिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवो में जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागके आठ भङ्ग कहने चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके दो भङ्ग होते हैं । आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धिपर्यन्त छब्बीस प्रकृतियों का उकृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है सम्यक्त्वके भंग ओघ की तरह होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग नियमसे होता है। भंग एक ही है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
३४४. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवाले नियमसे होते हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुक, चारो संज्वलन और नव नोकषायों के जघन्य अनुभागके कदाचित् सब जीव अविभक्तिक अर्थात् जघन्य अनुभागसे रहित होते हैं। यहाँ तीन भंग होते हैं-एक भंग पूर्वोक्त और दो ये-कदाचित् अनेक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित और एक जीव उससे सहित होता है। कदाचित् अनेक जीव उससे रहित और अनेक जीव उससे सहित होते हैं। अजघन्यकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं। यहाँ भी तीन भंग कहने चाहिये।
३४५. आदेशसे नारकिया में सताईस प्रकृतियो के जधन्य और अजघन्य अनुभागके तीन भंग हाते हैं। कदाचित् सब जाव जवन्य अनुभागसे रहित, कदाचित अनेक जीव रहित और एक जाव सहित, कदाचित अनेक जोव रहित और अनेक जोर सहित । अजयन्य के इससे
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए भागाभागो
२२१ जाव सत्तमि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. जहण्णाजहण्णाणु० णियमा अस्थि । सम्मत्त-सम्मामि० एको चेव भंगो, अजहण्णाणुभागविहत्तिएहि मोत्तण अण्णेसिं तत्थाभावादो । तत्थ जहण्णाणुभागेण विणा कथमजहण्णत्तमणुभागस्स । ण, ववएसिवन्भावेण तत्थ तस्स सिद्धीदो। अणंताणु० चउक्क० ओघं । एवं जोदिसि । तिरिक्खा एवं चेव । णवरि सम्मत्त० ओघं । जोणिणी पंचिंदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज०-मणुसअपज्ज० उक्कस्सभंगो। भवण-वाण. पढमपुढवि०भंगो। णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । सोहम्मादि जाव सव्वसिद्धि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्ण. णियमा अस्थि । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० ओघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारए ति।
$ ३४६. भागाभागो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो गिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसपयडीणमुक्कस्साणुभागविहविपरीत समझना । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवों में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोका जघन्य और अजघन्य अनुभाग नियमसे होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका एक ही भंग होता है, क्योकि अजघन्य अनुभागविभक्तिसे सहित जीवों को छोड़कर अन्य भंगोका वहाँ अभाव है।
- शंका-जब जघन्य अनुभागका अभाव है तो उसके बिना वहाँके अनुभागका अजघन्यपना कैसे सम्भव है ?
समाधान-ऐसी शंका उचित नहीं है, क्योंकि व्यपदेशिवद्भावसे अर्थात् अजघन्य अनुभागके समान अनुभागमें अजघन्यका व्यपदेश कर लेनेसे वहाँ अजघन्य अनुभाग पद संभव है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भंग ओघके समान होते हैं। इसी प्रकार ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। तिर्यञ्चोंमें भी इसीप्रकार भंग होते हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वके भंग ओघकी तरह जान लेना चाहिए। तिर्यञ्चयोनिनियोंमें पञ्चेन्द्रिय तियञ्चो के समान भंग होते हैं। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्टके समान भंग होते हैं। भवनवासी और व्यन्तरोंमें पहली पृथिवीके समान भंग होते हैं। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य नहीं होता । सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका जघन्य और अजघन्य अनुभाग नियमसे होता है। सम्यक्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
... विशेषार्थ-यद्यपि जघन्य और अजघन्य दोनों सापेक्ष हैं और इसलिये जघन्यके अभावमें अजघन्यका व्यवहार नहीं हो सकता तथापि दूसरे आदि नरकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका जो अनुभाग पाया जाता है वह अन्यत्र पाये जानेवाले अजघन्य अनुभागके समान होता है, अत: उसे अजघन्य कह देते हैं।
६३४५. भागाभाग दो प्रकारका है-जवन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-आप और आदेश। आपसे छम्बोस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिपाले जो सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्त भागप्रमाण हैं और अनुत्कृष्ट
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ त्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो। अणुक्क० अणता भागा। सम्मत्तसम्मामि० उकस्ताणुभागविहत्तिया-सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखेज्जा भागा। अणुक्क० केव० ? असंखे०भागो। एवं तिरिक्रवाणं । णवरि सम्मामि० णत्थि भागाभागं ।
३४७. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसप्पयडीणमुक्कस्साणु० सव्वजीवा के ? असंखे०भागो। अणुक्क० असंखेज्जा भागा। सम्मत्त० ओघं । सम्मामि० णत्थि भागाभागं । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्व-पंचितिरि०पज्ज०-देव-सोहम्मादि जाव अवराइदो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि समत्त० भागाभाग णत्थि । एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-पंचिंदियतिरि० अपज्ज ०--मणुस्सअपज०-- भवण०-वाण-जोदिसिए त्ति । मणुस्साणं णेरइयभंगो । णवरि सम्मामि० ओघं । एवं मिणुस पज्जत्त-मणुस्सिणीसु । णवरि संखेज कायव्वं । एवं सव्वहसिद्धि त्ति देवाणं। णवरि सम्मामिच्छत्तवज । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
३४८. जहएणए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामि०-अट्ठकसाय० जहण्णाण. सव्वजी० के०१ असंखे०भागो। अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मिथ्यात्वके अनुभागकी अपेक्षा भागाभाग नहीं है। .... ६३४६. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं । सम्यक्त्वका भागाभाग ओघकी तरह जानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । दुसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिपी देवामें जानना चाहिए । सामान्य मनुष्योंमें नारकियोंकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग ओघकी तरह है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुप्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ असंख्यातकी जगह संख्यात करना चाहिये। इसी प्रकार सवोर्थसिद्धितकके देवों में जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़ देना चाहिए । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषोर्थ-जहाँ सम्यक्त्व या सम्यग्मिथ्यात्वका अनुभाग ही पाया जाता है वहाँ उनकी अपेक्षा भागाभाग नहीं बतलाया है, जैसे नरकमें। . : ३४७. अब जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-- श्रोध और आदेश । आपसे मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए भागाभागो अज० अप्पप्पणो सव्वजी० के० ? असंखेज्जा भागा। अणंताणु०चउक्क०-चदुसंज०णवणोक० जहणाणु० अणंतिमभागो । अन० अणंता भागा।
३४६. आदेसेण णेरइएसु सत्तावीसं पयडीणं जहएणाणु० असंखे०भागो । अज. असंखेज्जा भागा। सम्मामि० णत्थि भागाभागं । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचितिरि०पज्ज०--देव-सोहम्मादि जाव अवराइदो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि चि एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं जोणिणी-पंचिंदियतिरिक्व० अपज्जत-मणुस्सअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिए ति ।।
३५०. तिरिक्व ० मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाणु० के० ? असंखे०भागो। अज० असंखेजा भागा। अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० अणंतिमभागो। अज० अणंता भागा। मणुस्स० अहावीस. जहण्णाणु० असंखे०भागो । अज० असंखेज्जा भागा। एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणी०। णवरि संखेज कायव्वं । एवं सव्वट्ठसिद्धिदेवाणं । णवरि सम्मामिच्छत्तवज्ज । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवों के कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चारों संज्वलन कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्तवें भागप्रमाण हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्त बहुभागप्रमाण हैं।
३४९. आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय
यंञ्च, पञ्चेन्द्रिय तियञ्च पयाप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका भागाभाग सम्यग्मिथ्यात्व की तरह है। इसी प्रकार तिर्यञ्चयानिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त. मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी. व्यन्तर और ज्योतिषी देवों जानना चाहिए।
३५०. सामान्य तियेच्चोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कपाय और नव नोकषायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्त वहुभाग प्रमाण हैं। मनुष्योंमें अट्ठाईस प्रकृतियों की जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात कर लेना चाहिये। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़ देना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
., श्रा० प्रतौ तिरिक्ख. मणुस्स० इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ३५१. परिमाणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं चेदि । उक्कस्सए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण। ओघेण छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुभागविहत्तिया केत्तिया? असंखेज्जा । अणुकस्साणुभागविहत्तिया दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता। सम्मत्तसम्मामिच्छताणमुक्कस्साणुभागविहत्तिया दव्वपमाणेण केवडिया ? असंखेज्जा । अणुक. संखेज्जा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणुक्कस्साणु० णत्थि ।।
३५२. आदेसेण रइएसु छब्बीसं पयडीणमुक्कस्साणुक्कस्साणु० के० ? असंखेज्जा । सम्मत्त० ओघं । एवं पढमपुढवि-पंचिंदियतिरिवख-पंचितिरि०पज०-देवसोहम्मादि जाव अवराइद ति। एवं विदियादि जाव सत्तमि ति। णवरि सम्मत्त. सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं जोणिणी-पंचिंदियतिरिक्ख० [ अपजत्त-] मणुसअपज्ज०भवण-वाण-जोदिसिए ति । मणुस्साणं णेरइयभंगो । णवरि सम्मामि० ओघं । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वपयडीणमुक्क० अणुक्क० संखेज्जा। एवं सव्वहसिद्धिदेवाणं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
$ ३५३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मिच्छत्त०-अहक० ज० अज० दव्वपमाणेण केव? अणंता। सम्मत्त ०-सम्मामि० ज०
३५१. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाण की अपेक्षा कितने हैं ? अनन्त हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणकी अपेक्षा कितने हैं ? असंख्यात हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमे सम्यग्मिध्यात्वक अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले नहीं है।
६३५२ आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। सम्यक्त्वका ओघ की तरह भङ्ग जानना चाहिए। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमे जानना चाहिए। इसी प्रकार दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व की तरह है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जानना चाहिए। सामान्य मनुष्योंमें नारकियों के समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वमे श्रोध की तरह भङ्ग है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पयन्त लेजाना चाहिये।
९३५३, जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवद्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं । सम्यक्त्व और सम्मग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए परिमाणं
२२५ संखेजा । अज० असंखेज्जा । अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० केत्तिया ? असंखेज्जा। अजह० के० अणंता । चदु०संज०-णवणोक० जहण्णाणु० संखेजा। अज० अणंता।
३५४. आदेसेण णेरइए मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० असंखेज्जा । सम्मत्त० जहण्णाणु० संखेजा। अज० असंखेज्जा । सम्मामि० अज. असंखेज्जा । एवं पढमपुढवि०--पंचिंदियतिरिक्ख--पंचिं-तिरि०पज्ज०-देव-सोहम्मादि जाव अवराइदो ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो । एवं जोणिणी-पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०-मणुसअपज्ज०-भवण०-वाणजोदिसिए त्ति ।
६३५५. तिरिक्ख० मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० केत्तिया ? अणंता । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० असंखेज्जा । अज० अणंता । सम्मत्त० ज० संखेज्जा । अज० असंखेज्जा । सम्मामि० अज. असंखेज्जा।
३५६. मणुस्सेसु मिच्छत्त-अदृक० जहण्णाजहण्णाणु० असंखेज्जा । सम्मत्तसम्मामि०--अणंताणु० चउक्क०-चदुसंज०--णवणोक० जहण्णाणु० संखेज्जा । अज० हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभाग विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। चार संज्वलन और नव नोकषायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्त हैं।
६३५४. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें ऐसे ही जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
६३५५. सामान्य तिर्यञ्चोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अनन्त हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्त है । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात है।
__६ ३५६. सामान्य मनुष्योंमें मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नव नोकषायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। अजघन्य
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२२६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ असंखेज्जा । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु अट्ठावीसं पयडीणं जहण्णाजहण्ण० संखेज्जा । एवं सव्वसिद्धिम्मि । णवरि सम्मामि० जहएणाणभागो णत्थि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
$ ३५७. खेत्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहोणिदे सोओघेण आदेसेण य। ओघेण छब्बीसं पयडीणमुक्करसाणु विहत्तिया जीवा केवडि खेत्ते ? लोगरस असंखे० भागे । अणुक्क० के० खेत्ते ? सबलोगे । सम्मत्त-सम्मामि० उक्करसाणुक्कस्सविहत्ति या के ? लोग० असंखे०भागे। एवं तिरिक्खोघं। णवरि सम्मामि० अणुक्कस्साणु० गस्थि । सेससव्वादेसपदेसु सवपयडीणमुक्करसाणुक्करसाणुभागविहत्तिया जीवा केवडि खेते ? लोग० असंखे० भागे । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पदविसेसो जाणियव्यो । एवं जाव जणाहारि ति।
३५८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अटक० जहण्णाजहणाणु० के० खेत्ते ? सव्वलोए। सम्मत्त-सम्मामि० जहण्णाजहण्णाणु० के० खेत्ते ? लोग० असंखे०भागे। अणंताणु०चउक्क०-चदुसंज०-णवणोक० जहरणाण० के० खे०? लोगस्स असंखे०भागे। अज० सव्वलोगे। एवं तिरिक्खोघं। अनुभागविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। मनुष्य पर्याप्त और मनुप्यिनियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि वहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
३५७. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रवृतियों की उत्कृष्ट अनुभागभिविक्तवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है सर्व लोक क्षेत्र है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्याग्मथ्यात्व की अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति नहीं है। आदेश की अपेक्षा शेष सब स्थानों में सब प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवों का कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातभाग प्रमाण क्षेत्र है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके पदा में कुछ विशेषता है सो जान लेना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
.६३५८. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायों की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है। सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्व की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । अनन्तानुबन्धी चतुष्क, चार संज्वलन और नव नोकषायोंकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवाका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवोंका सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि चार
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गा० २२ ]
भागवित्तीए पास
२२७
1
वरि चदुसंज० - णवणोकसायाणं मिच्छत्त भंगो । सम्मामि० जहणणं णत्थि । सेसमग्गणासु सव्वपयडीणं जहा जहरणापु० लोग० असंखे ० भागे । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारिति ।
0
०
३३५६. पोसणं दुविहं – जहरण मुकस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्द े सोओघेण आदेसेण य | ओघेण छब्बीसं पयडीणमुकस्साणुभागविहति एहि केवडियं खेत्तं पोसिदं ? लोग० असंखे० भागो अह चोदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । अणुकस्सविहत्तिएहि के० खे० पोसिदं ? सव्वलोगो । सम्मत्त - सम्मामि० उक्क० लोग० असंखे ० भागो अहचोद० देसूणा सव्वलोगो वा । अणुक्क० लोग० असंखे ० भागो । $ ३६०. देसेण णेरइएसु छब्बीसंपयडीणं उक्क० अणुक्क० लोग० असं खे भागो चोदभागा वा सूणा । सम्मार्मि० उक्क० लोग० असंखेभागो छचांदस देसूणा | सम्मत्त • उक्क० लोग० असंखे० भागो छचोदस० देसूणा । अणुक्क० लोग० संज्वलन और नव नोकषायों का मिथ्यात्वकी तरह भंग है । यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग नहीं है । शेष मार्गणाओं में सब प्रकृतियों की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीवों का लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । $ ३५९. स्पर्शन दो प्रकार का है— जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतिय की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, चौदह भागों में से कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्र का स्पर्शन किया है ? सर्वलोकका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वक उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग, चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
विशेषार्थ - ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म के स्वामी एकेन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक होते हैं, अत: ओघसे मारणान्तिक और उपपादकी अपेक्षा सर्वलोक विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रियाकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और इतरकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है । अनुत्कृष्ट अनुभागवाले जीव सर्वत्र पाये जाते हैं, अतः उनका स्पर्शन सर्वलोक है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उत्कृष्ट अनुभागवालों का स्पर्शन पूर्ववत् लोकका असंख्यातवाँ भाग, आठ बटे चौदह राजु और सर्वलोक है । तथा अनुत्कृष्ट अनुभागों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है, क्योंकि उनका अनुत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दर्शनमोहके क्षपकके ही होता है ।
$ ३६०. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो'ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागों में से कुछ कम छ भागप्रमारण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो में से कुछ कम छ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया हैं । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनु नागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागा मेंसे कुछ कम छ भागप्रभाग क्षेत्र का १. प्रा० प्रता देलूए । सम्मत सम्मामि इति पाठः ।
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२२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ असंखे०भागो । पढमपुढवि० खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमि ति छब्बीसंपयडीणं उक्कस्साणुकस्स० लोग० असंखे०भागो एक्क-वे-तिण्णि-चतारि-पंच-छचोदसभागा वा देमूणा। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० उक्कस्साणुभागस्स मिच्छत्तभंगो।
३६१. तिरिक्खेसु छब्बीसंपयडीणमुक्कस्साणु० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । अणुक० सव्वलोगो। सम्मत्त० उक्क० मिच्छत्तभंगो। अणुक्क० लोग० असंखे० भागो । सम्मामि० उक्क० सम्मत्तभंगो । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज०पंचितिरि०जोणिणीसु छब्बीसंपयडीणमुक्क. अणुक० लोग. असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० अणुकस्सा० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०छब्बीसंपयडीणमुकस्साणु० लोग० असंखे०भागो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सबलोगो वा । सम्मत-सम्मामि० उक्कस्साण. लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। एवं मणुसअपज्ज० । मणुसतिय०पंचिंदियतिरिक्वस्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान भंग है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में छब्बीस प्रकृतियों की उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्ति वालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रम ण और चौदह भागों में से क्रमश: कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पांच
और छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवालोंका स्पर्शन मिथ्यात्व की तरह है।
३६१. तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्ति वालोंका स्पर्शन मिथ्यात्वकी तरह है । अनुकृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन सम्यक्त्वकी तरह है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट और अनुष्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोक
या है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चोंकी तरह है। इतना विशेष है कि योनिनी तिर्यञ्चोंमें सम्यक्त्यका अनुत्कृष्ट अनुभाग नहीं है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त कोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्त
ख्तातष नागप्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालाने लाकक असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्र का स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए। सामान्य मनुष्य,मनुष्य पयोप्त और मनुष्यनियों में पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च,पञ्चेन्द्रियतियञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों के समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्याग्मथ्यात्वका स्पर्शन
१. पा. प्रतौ सव्वलोगो वा । सम्मामि० उक्क० सम्मत्तभंगो। पंचिंदिपतिरिक्ख पंचि० तिरि. पज० सम्मत्त इति पाठः।
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गा० २२]
अनुभागविहत्तीए पोसणं तियभंगो । णवरि सम्मामि० सम्मत्तभंगो ।
$ ६६२. देवेसु छब्बीसंपयडीणं उक्कस्साणुक्कस्स० लोग० असंखे०भागो अहणवचोदसभागा वा देमूणा । सम्मत्त-सम्मामि० उक्कस्साणु० लोग० असंखे०भागो अहणव चोदस० देसूणा । सम्मच. अणुक्क० लोग० असंखे०भागो। एवं सव्वदेवाणं । णवरि सग-सगपोसणं वत्तव्यं । भवण-वाण-जोदिसि० सम्मत. अणुक्क० णत्थि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
३६३. जहणणए पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । अोघेण मिच्छत्त--अहकसाय. जहण्णाजहएण० सव्वलोगो । सम्मत-सम्मामि० जह० खेत्तं। अज० लोग० असंखे०भागो अहचोदसभागा वा देसूणा सव्वलोगो वा । संसपयडीणं
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सम्यक्त्वकी
३६२. देवोंमें छब्बीस प्रतियोंकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह भागों से कुछ कम आठ और नव भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम आठ और नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व की अनुकृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सबमें पृथक पृथन अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये। भवनवासी,व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें सम्यक्त्वका अनुरस्कृष्ट अनुभाग नहीं है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके दोनों अनुभागवाले जीवोंने तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवाले जीवोंने अतीतकालमें मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह राजू स्पर्शन किया है और अतीत तथा वर्तमान काल में संभव शेष पदोंके द्वारा लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है। सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग नरकमें नहीं होता। सम्यक्त्वका अनत्कृष्ट अनभाग केवल प्रथम नरकमें होता है, अत: उसका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग है। दूसरेसे लेकर सातवें नरक तक छब्बीस प्रकृतियोंके दोनों अनुभागवाले जीवोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग पूर्ववत् है तथा अतीतकालमें मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा क्रमशः एक बटे चौदह आदि भाग है । इसी प्रकार तिर्यञ्च और उसके भेद प्रभेदोंमें यथायोग्य लोकका असंख्यातवाँ भाग और सर्वलोक स्पर्शन समझना चाहिए। देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके दोनों अनुभागवालों तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागवालोंका स्पर्शन अतीतकालमें विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रिया पदके द्वारा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक पदके द्वारा नीचे दो ऊपर सात इस तरह कुछ कम नौ बटे चौदह राजू है और अतीत तथा वर्तमान कालमें शेष संभव पदोंके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है।
३६३. जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और पाठ कषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की तरह है अर्थात् जो उनका क्षेत्र है वही स्पर्शन है। इनके अजघन्य अनुभागवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग, चौदह भागों में से कुछ कम आठ भाग और सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका
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२३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जहण्णाणु० खेत्तं । अज० सव्वलोगो । णवरि अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो अहचोद्द० देरणा । अज० सव्वलोगो ।
६३६४. आदेसेण गैरएसु छब्बीसंपयडीणं जहएणाणु० खेत्तं । अज० लोग० असंखे०भागो छचोदसभागा देसूणा । पढमाए खे। विदियादि जाव सत्तिमि त्ति छब्बीसं पयडीणं जहण्णाणु ० खेनं । अज० लोग० असंखे०भागो एक-वे-तिएिणचचारि-पंच-छचोहसभागा देसूणा । सम्मन-सम्मामि० अजह० उक्कस्सभंगो ।
$ ३६५. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० जहरणाजहएणाणु० सव्वलोगो। सम्म० ज० खेत्तं । अज० लोग० असंखे०भागों सव्वलोगो का। एवं सम्मामि०। णवरि जहएणं णत्थि। अणंताणचउक्क० ज० लोग० असंखे०स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की तरह है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भाग मेंसे कुछ कम आठ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
विशेषार्थ-श्रोघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागवालो' का स्पर्शन सर्वलोक है, क्योंकि हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले एकेन्द्रिय जीवके उस पर्यायमें तथा जहाँ जहाँ वह जन्म लेता है उन उन पर्याया में जघन्य अनुभागसत्कर्म होता है और उसको बढ़ा लेने पर अजघन्य अनुभागसत्कर्म होता है सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन उन्हींके उत्कृष्ट अनुभागवालो क स्पर्शनकी तरह है । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६३६४, आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमेंसे कुछ कम छह भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें क्षेत्र की तरह स्पर्शन है। दूसरीसे सातवों पृथिवी तकके नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य अनु. भागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमेंसे क्रमशः कुछ कम एक, दो, तीन, चार, पाँच और छः भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन उत्कृष्ट की तरह है।।
३६५. तिर्यञ्चगतिमें तिर्यञ्चों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिबालोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रको तरह है। अजघन्य अनुभागविभक्ति मालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सम्यग्मि. थ्यात्वका स्पर्शन जानना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व की जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका सर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका
१. ता. प्रतौ पयडीणं जहण्णाजहण्णापु० खेत इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए पोसणं
२३१ भागो। अज० सव्वलोगो वा । पंचिंदियतिरिक्खतियगि छब्बीसं पयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि अणंताणु०चउक्क० ज० खेतं । सम्मत्त०-सम्मामि० तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणीसु सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । पंचिं. तिरि० अपज्ज.-मणुसअपज्ज० छब्बीसं पयडीणं जहण्णाजहण्णाणुछ लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सम्मत्त-सम्मामि० अज० उक्कस्सभंगो।
३६६. मणुसतियम्मि मिच्छत-अटक० जहण्णाजहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। सेसाणं पयडीणं ज० खेत्तं । अज० लोग० असंखे० भागो सव्वलोगो वा ।
३६७. देवेसु मिच्छत्त--सम्मत्त--बारसक०--णवणोक० जह० खेत्तं । अज० लोग. असंखे० भागो अह--णवचोदसभागा देसूणा । अणंताणु०चउक्क० ज० लोग० असंखे० भागो अहचोदसभागा देमृणा । अज. लोग० असंखे०भागो अह-णवचोदसभागा वा देसूणा । एवं भवण-वाण। णवरि सगपोसणं । सम्मत्त० जहण्णं णत्थि। जोदिसियदेवेसु छब्बीसं पयडीणं जहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो अद्धह-अहचो० स्पर्शन किया है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी जीवों में छब्बीस प्रवृतियों की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्क की जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्शन सामान्य तिर्यञ्चों की तरह है। इतना विशेष है कि योनिनियों में सम्यक्त्व की जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियो की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो का स्पर्शन उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालो की तरह है।
३६६. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में मिथ्यात्व और आठ कषायो की जघन्य और अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। शेष प्रकृतियो की जघन्य अनुभागविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्र की तरह है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्व लोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
३६७. देवों में मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायो की जघन्य अनुभागविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मेसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य अनुभागविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग
और चौदह भागो मेसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासी और व्यन्तरो म जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए। उनमें सम्यक्त्व की जघन्य अनुभागविभक्ति नहीं है। ज्योतिष्क देवो में छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य अनुभाग
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२३२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ देसूणा । अज० लोग० असंखे०भागो अद्धह--अह--णवचोद्दसभागा देसूणा। सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमेवं चेव । णवरि जहण्णं णत्थि। सोहम्मीसाणदेवेसु छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा । अज० लोग० असंखे०भागो अह-णवचोदसभागा देमूणा। सम्मत्त० देवोघं । एवं सम्मामि० । सणक्कमारादि जाव अच्चुदकप्पो त्ति एवं चेव । णवरि सगपोसणं । उवरि खेत्तभंगो। एवं जाणिदूर्ण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । विभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मेंसे कुछ कम साढ़े तीन तथा कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग तथा कुछ कम साढ़े तीन, कुछ कम पाठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्पर्शन इसी प्रकार है। इतना विशेष है कि इनमें उनका जघन्य नहीं है। सौधर्म और ईशान स्वर्गके देवो में छब्बीस प्रकृतियो की जघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागोंमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अजघन्य अनुभागविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह भागो मेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वका स्पर्शन सामान्य देवा की तरह है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका जानना चाहिए। सानत्कुमार स्वर्गसे लेकर अच्युतकल्प पर्यन्त स्पर्शन इसी प्रकार है। इतना विशेष है कि अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए। अच्युत कल्पसे ऊपर क्षेत्रके समान स्पर्शन है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे नारकियों में अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन उत्कृष्ट अनुभागवालो के स्पर्शनकी तरह घटा लेना चाहिये। सामान्य तिर्यंचो में छब्बीस प्रकृतियों के दोनों अनुभागवालो का स्पर्शन सर्वलोक अओघकी तरह जानना चाहिए। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनुभागवालो ने मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा सर्वलोक और शेषके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पष्ट किया है । पञ्चेन्द्रियतिर्यंचत्रिकमें छब्बीस प्रकृतियों के दोनो अनुभागवालोंने वर्तमानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग
और अतीतकी अपेक्षा सर्वलोक स्पर्श किया है। मनुष्यत्रिकमें मिथ्यात्व और आठ कषायों के दोनो अनुभागवालो ने तथा शेष प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागवालो ने स्वस्थान स्वस्थान, विहारव स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रिया पदके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग और मारणान्तिक तथा उपपाद पदके द्वारा सर्वलोक स्पर्श किया है। देवों में छब्बीस प्रतिया के अजघन्य अनुभागवालों का स्पर्शन वर्तमानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग है और अतीत कालकी अपेक्षा विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रियाकी अपेक्षा कुछ कम आठ बटे चौदह राजु और मारणान्तिक समुद्घातकी अपेक्षा नौ बटे चौदह राजु है। ज्योतिष्क देवो में छब्बीस प्रकृतियो के जघन्य अनुभागवालो और अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन वर्तमानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग है और अतीतकाल की अपेक्षा विहारव स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रिया पदके द्वारा चौदह राजुमेंसे कुछ कम साढ़े तीन अथवा कुछ कम आठ राजू है तथा अजघन्य अनुभागवालो का स्पर्शन मारणान्तिक पद के द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजु है। इसी प्रकार सौधर्मादिकमें भी लगा लेना चाहिये।
१. ता. प्रतौ एवं [ खेत्तभंगो ] जाणिदूण इति पाठः ।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो ॐ पाणाजीवेहि कालो। $ ३६८. अहियारसंभालणसुत्तमेदं । सुगमं । 8 मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होति ! $ ३६६. एदं पि सुत्तं सुगम, पुच्छासुत्तत्तादो । * जहणणेण अंतोमुहुत्तं ।
$ ३७०. कुदो ? सत्तहजीवेसु बंधुक्कस्साणुभागेसु सव्वजहण्णेणंतोमुहुत्तकालेण धादिदाणुभागखंडएसु उक्कस्साणुभागस्स सव्वजहण्णंतोमुहुत्तमेत्तकालुवलंभादो।
* उकस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो।
३७१. कुदो ? एगजीवस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मद्धमंतोमुहुत्तमेत्तं ठविय पलिदो० असंखे भागमेत्ताहि उक्कस्साणुभागपवेससलागाहि गुणिदे पलिदो० असंखे० भागमेत्तकालुवलंभादो।
* एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं ।
5 ३७२. जहा मिच्छत्तुक्कस्साणुभागस्स गाणाजीवे अस्सिदूण जहण्णुक्कस्सकालपरूवणा कदा तहा सेसकम्माणं पि कायव्वा, विसेसाभावादो । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त
* नाना जीवों की अपेक्षा कालका अधिकार है। ६ ३६८. अधिकार की सम्हाल करना इस सूत्रका कार्य है। इसका अर्थ सुगम है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है। $ ३६९. यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि यह पृच्छासूत्र है। * जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है।
६३७०. क्यो कि सात आठ जीवो के उत्कृष्ट अनुभागका बंध करके और सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा अनुभागकाण्डको का घात कर देने पर उत्कृष्ट अनुभागका सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल पाया जाता है।
* उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६३७१, क्योकि एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है और उत्कृष्ट अनुभागमें प्रवेश करनेकी शलाकाऐं पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं अर्थात् लगातार इतनी बार जीव उत्कृष्ट अनुभागमें प्रवेश कर सकते हैं, अत: अन्तमुहूर्त मात्र कालको पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग मात्र पाया जाता है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़कर इसी प्रकार शेष कर्मों के अनुभागसत्कर्मका काल कहना चाहिये।
६ ३७२. जैसे नाना जीवो की अपेक्षा मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागके जघन्य और उत्कृष्ट कालका कथन किया है वैसे ही शेष कर्मों का भी कथन कर लेना चाहिये, क्योंकि दोनों में कोई अन्तर नहीं है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ वज्जाणं इदि ण परूवेदव्वं, उवरिमसुत्तादो चेव तव्वजणावगमादो ? ण, उत्तावलसिस्समइवाउलविणासण तप्परूवणादो । ... ® सम्मत्त---सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादोहोति ?
३७३. सुगमं० । - सव्वद्धा।
६ ३७४. कुदो ? एगजीवम्मि उक्कस्साणुभागम्मि अवहाणकालं पेक्खिदण तं पडिवजमाणजीवाणमंतरकालस्स असंखे०गुणहीणत्तदंसणादो। संपहि चुण्णिमुत्तमस्सिदृण उक्कस्साणुभागकालपरूवणं करिय उच्चारणमस्सिदृण कस्सामो।
६ ३७५. कालो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसंपयडीणं उक्कस्साणुभागस्स कालो केवचिरं? जह० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। अणुक्क० सम्वद्धा। सम्मत्तसम्मामि० उक्क० सव्वद्धा । अणुक्क० ज० उक्क० अंतोमु०। .. शंका-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको छोड़कर ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योकि
आगेके सूत्र में जो उन दोनोंके कालका अलगसे प्ररूपण किया है उससे ही ज्ञात हो जाता है कि यहाँ सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व को छोड़ दिया है।
समाधान-नहीं, क्यो कि उतावले शिष्यों की बुद्धिकी व्याकुलताको नष्ट करनेके लिये यह कथन किया है।
* सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है ?
६ ३७३. यह मूत्र सुगम है।
* सर्वदा है। ___.३७४. क्योंकि एक जीवमें उत्कृष्ट अनुभागके अग्रस्थान कालको अपेक्षा उसको प्राप्त करनेवाले जीवों का अन्तरकाल असंख्यातगुणा हीन देखा जाता है। अर्थात् एक जीवके उत्कृष्ट अनुभागमें रहनेका जितना काल है उसकी अपेक्षा उसके उत्कृष्ट अनुभागमें न रहनेका काल असंख्यातगुणा हीन है, अत: जब अवस्थान कालसे अन्तर काल बहुत कम है तो नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग सर्वदा बना रह सकता है। अब चूणिसूत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट अनुभाग कालका कथन करके उच्चारणाकी अपेक्षा उसका कथन करते हैं। ....९३७५ काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टके कथनका अवसर है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका कितना काल है ? जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनभागका काल सर्बदा है । अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो ६३७६. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसंपयडीणमुक्कस्साणुभागो केव० ? ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणुक्क० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० सव्वद्धा। सम्मत्त० अणुक० ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमुः। एवं पढमपुढवि०तिरिक्वतिय-सोहम्मादि जाव सहस्सारे ति। विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त अणुक्क० णत्थि । एवं जोणिणी--पंचिदियतिरिक्खअपज्ज०--भवण.-- वाण-जोदिसिए त्ति ।
३७७. मणुस्सेसु सम्बपयडीणमुक्क० अणुक्क० ओघं । णवरि उक्क० जहण्णेण एगसमओ छब्बीसंपयडीणं । मणुसपजत्त-मणुसिणीसु छब्बीसंपयडीणमुक्क० ज० एगस०, उक. अंतोमु० । अणुक० सव्बद्धा। सम्मत्त-सम्मामि० उक० सव्वद्धा। अणुक० जहण्णुक० अंतोमु०। णवरि मणुसपज्जत्तएसु सम्मत्त० अणुक० ज० एगस० मणुसिणीसु सम्मत्त अणुभागस्स एगसमओ णत्थि । मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं उक्क० ज० एगस० अणुक्क० ज० अंतो०, उक्क० दोहं पि पलिदो० असंखे० भागो। आणदादि जाव सव्वष्टसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणं उक्कस्साणुकस्साणुभाग० सव्वद्धा। सम्मत्त-सम्मामि देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ..
६३७६. आदेशसे नारकियों में छब्बीस प्रकृतियो के उत्कृष्ट अनुभागका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहू है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवा में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका अनुकृष्ट अनुभाग वहाँ नहीं होता । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तियञ्चयोाननी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त, भवनवासा, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए।
३७७. सामान्य मनुष्यों में सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनभागका काल ओघ की तरह है। इतना विशेष है कि छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है। मनुष्यपर्याप्त और मनयिनियों में छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अनत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इतना विशेष है कि मनुष्यपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है। मनुष्यनियोंमें सम्यक्त्वके अनुभागका एक समय काल नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य काल एक समय है । अनुत्कृष्ट अनभागका जघन्य काल अन्तर्मुहर्त है और दोनोंका उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है। आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका काल सर्वदा है । सम्यक्ष और सभ्यग्मिथ्यात्वका काल सामान्य देवोंकी तरह है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। .
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२३६
होति ।
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागवित्ती ४
मिच्छुरा अडकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादो
९ ३७८. सुगमं ।
* सव्वद्धा ।
९ ३७६. कुदो १ एदेसिं वृत्तकम्माणं जहण्णाणुभागस्स तिसु वि कालेसु विरहाभावादो ।
* सम्मत्त अताणु बंधिचत्तारि चदुसंजलण-तिवेदाणं जहणणाणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होंति ।
९३८०. सुगमं ।
* जहणणेण एगसमचो ।
९ ३ ८१. कुदो १ सम्मत - चदुसंजलण-तिवेदाणं णिल्लेविज्जमाणचरिमसमए उप्पण्णजहण्णाणुभागस्स एगसमयावद्वाणं पडि विरोहाभावादो । संजुत्तपढमसमए समुपण्णअणताणुबंधिचक्क० जहण्णाणुभागस्स वि एगसमयावद्वाणं पडि विरोहाभावादो ।
विशेषार्थ - आदेश से नारकियो में सम्यक्त्व प्रकृति के अनुत्कृष्ट अनुभागवालों का काल जघन्यसे एक समय है, क्योकि जो कृतकृत्यवेदक मरण करके नरकमें जन्म लेते हैं उनके सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग होता है। एक साथ कई एक कृतकृत्यवेदक मरकर नरक में उत्पन्न हुए, दूसरे समय में सम्यक्त्व प्रकृति नष्ट करके वे क्षायिकसम्यक्त्वी हो गये, अतः एक समय जघन्य काल हुआ। और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सामान्य मनुष्यों में सब प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागवालो का काल जघन्यसे एक समय कहा है सो छब्बीस प्रकृतियों के उत्कृष्ट अनुभागका दूसरे समय में घात करनेकी अपेक्षा और सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वका उद्वेलनाकी अपेक्षा जानना चाहिए । शेष कथन स्पष्ट ही है ।
* मिध्यात्व और आठ कषायों के जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवों का कितना काल है ?
९ ३७८. यह सूत्र सुगम है ।
* सर्वदा है।
६ ३७९. क्योंकि इन उक्त कर्मों के जघन्य अनुभागका तीनों ही कालों में विरह नहीं
होता है ।
* सम्यक्त्व, अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चारों संज्वलन कषाय और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मवाले जीवोंका कितना काल है ?
९३८०. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य काल एक समय है ।
$ ३८१. क्यो ंकि सम्यक्त्व, चार संज्वलन और तीन वेदों का जघन्य अनुभाग क्षपकके अन्तिम समय में होता है अतः उसके एक समय तक रहने में कोई विरोध नहीं है। तथा विसंयोजनके पश्चात् अन्य कषायों के प्रदेशों को पुनः अनन्तानुबन्धी रूप परिणाम ने के प्रथम समय में अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अनुभाग उत्पन्न होता है, अतः उसके भी एक समय तक
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए कालो * उकस्सेण संखेजा समया ।
३८२. कुदो ? संखेज्जेसु जीवेसु कमेण वुत्तकम्माणं जहण्णाणुभागं कुणमाणेसु संखेजाणं चेव समयाणं जहण्णाणुभागसंबंधीणमुवलंभादो । असंखेजा जीवा कमेण जहण्णाणुभागं किण्ण पडिवज्जति ? ण, मणुसपजत्ताणमसंखेजाणमभावादो। ण च मणुसपज्जत्ते मोत्तूण अण्णत्थ कम्माणं खवणा अत्थि, विरोहादो।
ॐ पवरि अणंताणुबंधीणमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभायो। .
३८३. कुदो ? अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोइदसम्माइटीहिंतो कमेण संजुज्जमाणाणमुवकमणकालस्स उकस्सस्स आवलियाए असंखे०भागपमाणत्तवलंभादो। संखेज्जावलियमेचो किण्ण होदि ? ण, एवं विहसुत्ताणुवलंभादो।।
8 सम्मामिच्छत्त-छएणोकसायाणं जहएणाणुभागकम्मसिया केवचिरं कालादो होति ?
३८४. सुगमं ।
® जहणणुकस्सेण अंतोमुहुतं । ठहरनेमें कोई विरोध नहीं है।
* उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ?
६३८२. क्योंकि उक्त कर्माका जघन्य अनुभाग लगातार संख्यात जीव ही करते हैं, अतः जघन्य अनुभाग सम्बन्धी काल संख्यात समय ही पाया जाता है।
शंका-असंख्यात जीव जघन्य अनुभागको क्यों नहीं प्राप्त होते हैं।
समाधान-नहीं, क्यो कि मनुष्य पर्याप्त असंख्यात नहीं है। और मनुष्य पर्याप्तको को छोड़कर अन्यके कर्मों का क्ष पण नहीं होता है, क्योंकि अन्यत्र उसके होने में विरोध है।
* किन्तु अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यावें भागप्रमाण है।
8३८३. क्योंकि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करनेवाले सम्यग्दृष्टियोंमेंसे क्रमसे अन्य कषायोंके परमाणुओंको पुनः अनन्तानुबन्धी रूप परिणमानेवालोंके उपक्रमणका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण पाया जाता है। अर्थात् यदि विसंयोजक सम्यग्दृष्टि लगातार एक एक करके अनन्तानुबन्धीका पुनः संयोजन करें तो आवलीके असंख्यातवें भाग काल तक ही ऐसा कर सकते हैं, अतः उसके जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट काल उतना ही है ।
शंका-संख्यात आवली प्रमाण काल क्यों नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इस प्रकारका सूत्र नहीं पाया जाता है जो इतना काल बतलाता हो।
* सम्यग्मिथ्यात्व और छ: नोकषायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंका] कितना काल है ?
६३८४ यह सूत्र सुगम है। * जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है ।
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ $ ३८५. कुदो अप्पप्पणो खवणाए चरिमाणुभागखंडयम्मि जादजहण्णाणुभागस्स अंतोमुहुतं मोत्तूण अहियकालाणुवलंभादो। तं पि कुदो ? उकीरणद्धाए उक्कस्साए वि अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो। उक्कस्सकालो असंखेज्जावलियमेत्तो किण्ण होदि ? ण, संखेन्जक्कीरणद्धाणं समूहम्मि असंखेज्जावलियाणं संभवविरोहादो । तं पि कुदो णव्वदे ? अंतोमुहुचमिदि सुत्तणि सादो। एवं चुपिणासुतमस्सिदूण जहणणाणुभागकालपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदूण कस्सामो।
... ३८६. जहएणए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसैण य । ओघेण मिच्छत्त-अहक० जहण्णाजहरणाण. सव्वद्धा। सम्मत्त० जहएणाणु० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अज. सव्वद्धा । सम्मामि० जहएणाणु० जहएणुक० अंतोमु० । अज. सव्वद्धा। अणंताणु०चउक्क० जह० ज० एगस, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा । छण्णोक. जहणाण. जहएणुक • अंतोमु०। अज. सव्वद्धा । चदुसंज-तिगिणवेद० जहएणाणु० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अज० सव्वद्धा ।
६३८५. क्योंकि अपनी अपनी क्षपणावस्थाके अन्तिम अनुभागकाण्ड कमें इन प्रकृतियोंका जघन्य अनुभाग होता है, अत: उसका काल अन्तमुहूर्तसे अधिक नहीं पाया जाता है।
शंका-उसका काल अन्तर्मुहूर्तसे अधिक क्यों नहीं पाया जाता है। समाधान-क्योंकि उत्कीरणका उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही है। शंका-उत्कृष्ट काल असंख्यात आवली प्रमाण क्यों नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि संख्यात उत्कीर्णकालोंके समूहमें असंख्यात आवलियाँ नहीं हो सकती हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-क्योंकि सूत्र में अन्तर्मुहूर्त कालका निर्देश किया है।
इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे जघन्य अनुभागके काल का कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे कथन करते हैं।
६३८६. जघन्यके कथनका अवसर है । निर्देश दो प्रकारका है--ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूत है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य
और उत्कृष्ट काल अन्तर्मु ते है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। चार संज्वलन और तीन वेदोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए कालो
१२३९ ३८७. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०णवणोक० जहणाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अज० सव्वद्धा। सम्मत्त-अणंताणु०. चउक्क० ओघं । सम्मामि० श्रोघं । णवरि जहण्णाणु० णत्थि। एवं पढमपुढवि.. पंचिंदियतिरिक्व-पंचि०तिरि०पज्ज०-देवोघं त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति वावीसपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । अणंताणु०चउक० अोघं । सम्मत्त-सम्मामि० ओघं । णवरि जहएणाण. णत्थि । एवं जोदिसि ।
३८८. तिरिक्खेसु वोवीसंपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । सम्मत्तअणंताणु० चउक्क० ओघं । सम्मामि० ओघं । णवरि जहण्णं णत्थि। पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणं पढमपुढविभंगो। णवरि सम्मत्त० ज० णत्थि। एवं भवण०-वाणवेंतरा ति । पंचितिरि०अपज्ज. छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० सव्वद्धा । सम्मा०-सम्मामि० जोणिणीभंगो।
१ ३८६. मणुस्सेसु मिच्छत्त-अहक० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो । सम्मत्त --अहक०-तिएिणवेद० जहणाण० ज० एगसमो, उक्क० संखेज्जा समया । सम्मामि०--छण्णोक० जहण्णाणु० ज० उक्क० अंतोमु० । सव्वासि
६३८७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघ की तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग श्रोध की तरह है। इतना विशेष है कि नरकमें उसका जघन्य अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजधन्ध अनुभागका काल सर्वदा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग
ओघ की तरह है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघ की तरह है। इतना विशेष है कि उनमें जघन्य अनुभाग नहीं है। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
३८८. सामान्य तिर्यञ्चोंमें बाईस प्रकृतियोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघ की तरह है । सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघ की तरह है। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमें उसका जघय अनुभाग नहीं है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं हैं। इसी प्रकार भवनवासी और व्यस्तरोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतियंञ्चअपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग योनिनियोंके समान है।
६ ३८६. मनुष्योंमें मिथ्यात्व और आठ कषायके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्व, आठ कषाय और तीनों वेदोंके जघन्य अनुभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल. संख्यात समय है। सभ्यग्मिथ्यात्व और छह नोकषायो के जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्त
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२४०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मज. सव्वद्धा । एवं [ मणुस ] पज्जत्त-मणुसिणीणं । णवरि जम्हि पलिदो० असंखे० भागो तम्हि अंतोमु० । मणुसपज्ज. इत्थि० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० अंतोमु० । मणुसिणी० पुरिस०-णqस० छण्णोक भंगो । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अज० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो. असंखे०भागो।
३६०. सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा ति वावीसंपयडीणं जहण्णाजहण्णाणु० सव्वद्धा । सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क० ओघं । एवमणुद्दिसादि जाव अवराइद त्ति । णवरि अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० ज० अंतोमु०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । एवं सव्वद । णवरि अणंताणु०चउक्क० जहण्णाणु० जहण्णुक्क० अंतोमु० । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
मुहूर्त है। सब प्रकृतियोंके अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि जिसका काल पल्यके असंख्यातवें भाग बतलाया है उसका यहाँ अन्तर्मुहूते जानना चाहिए। मनुष्यपयोप्तकोंमें स्त्रीवेदक जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूते है। मनुष्यनियोंमें पुरुषवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग छह नोकषायों की तरह है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनभागका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अजघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
३९०. सौधर्म स्वर्गसे लेकर नव ग्रैवेयक तकके देवो में बाईस प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनुभागका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ अनन्तानबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे सामान्य नारकियो में बाईस प्रकृतियो का जघन्य अनुभाग मरकर नरकमें जन्म लेनेवाले हतसमुत्पत्तिककर्मा असंज्ञी पञ्चन्द्रियके होता है। एक साथ अनेक ऐसे जीव जन्म लें और दूसरे समयमे अनुभागको यदि बढ़ा लें तो जघन्य काल एक समय होता है और यदि लगातार ऐसे जीव उत्पन्न होते जाय तो उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकों में लगा लेना। मनुष्यों में मिथ्यात्व आदि नौ प्रकृतियो के जघन्य अनभागके जघन्य और उत्कृष्ट कालको भी इसी तरह घटा लेना चाहिये। अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग संयुक्त होनेके प्रथम समयमें होता है, अतः नाना जीवों की अपेक्षा भी उसका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। देवों में अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग विसंयोजकके होता है, अतः उसका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपराजित पर्यन्त पल्यका असं. ख्यातवाँ भाग है और सर्वार्थसिद्धिमें अन्तर्मुहूर्त है।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं * पाणाजीवेहि अंतरं। $ ३६१. सुगममेदं, अहियारसंभालणत्तादो ।
® मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मंसियाणमंतर केवचिरंकालादो होदि ?
६ ३६२. सुगममेदं । , जहरणेण एगसमत्रो।
$ ३६३. कुदो ? उक्कस्साणुभागेण विणा तिहुवणासेसजीवेसु एगसमयमच्छिदेसु विदियसमए तत्थ केत्तिएहि वि उक्कस्साणुभागे बंधे एगसमयअंतरुवलंभादो।
8 उक्कस्सेण असंखेजा लोगा।
$ ३६४. कुदो ? उक्कस्साणुभागेण विणा असंखे०लोगमेत्तकालमच्छिय पुणो तिहुवणजीवेसु केत्तिएम वि उक्कस्साणुभागमुवगएमु असंखेजलोगमेत्तुक्कस्संतरुवलंभादो। अणंतमंतरं किण्ण जादं ? ण, परिणामेसु आणंतियाभावादो' । अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणि असंखेज्जलोगमेत्ताणि चेवे ति कुदो णव्वदे ? अणुभागबंधहाणाणमसंखेज्जलोगपमाणत्तण्णहाणुववत्तीदो । ण च कारणेसु अणंतेसु संतेसु कजाणि असंखेज्ज
* नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तरका प्रकरण है। ६ ३९१. यह सूत्र सुगम है, क्योकि इसके द्वारा अधिकारकी सम्हाल की गई है। * मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तरकाल कितना है ? ६३९२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तरकाल एक समय है ।
३९३. क्योंकि तीनों लोकोंके समस्त जीवों के एक समय तक उत्कृष्ट अनुभागके बिना रहने पर और दूसरे समयमें उनमेंसे कितने ही जीवोंके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर एक समय अन्तर पाया जाता है।
* उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है।
६३९४. क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागके बिना असंख्यात लोकप्रमाण काल तक रहने पर, पुनः तीन लोकके जीवोंमें से कुछके उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध कर लेने पर असंख्यात लोक मात्र उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है।
शंका-अनन्त काल अन्तर क्यों नहीं होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि परिणाम अनन्त नहीं हैं। शंका-अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोक मात्र ही हैं यह कैसे जाना ?
समाधान-यदि अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान असंख्यात लोकमात्र न होते तो अनुभागबन्धके स्थान असंख्यात लोकप्रमाण नहीं होते। यदि कहा जाय कि अनुभागबन्धाध्यवसाय स्थान अनन्त रहें और अनुभागबन्धस्थान असंख्यात लोक मात्र रहें। किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि कारणके अनन्त होने पर कार्य असंख्यात लोकमात्र नहीं हो सकते, क्योंकि
१. ता० प्रतौ प्राणतिय ( या ) भावादो, श्रा० प्रतौ आणंतियभावादो इति पाठः ।
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२४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ लोगमेत्ताणि चेव होंति, विरोहादो ।
* एवं सेसकम्माणं ___३६५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णमुक्कस्संच उक्स्साणुभागंतरं परूविदं तहा सेसासेसकम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । एत्थतणविसेसपरूवणहमुत्तरमुत्तं भणदि ।
* एवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि अंतरं ।
$ ३६६. कुदो ? सम्मादिहीहितो मिच्छत्तं पडिवज्जमाणाणमंतरं पेक्खिय सम्मत्तसंतकम्मेण मिच्छाइट्ठीणं सम्माइट्टीणं च अच्छणकालस्स असंखे०गुणत्तादो । एवं चुणिमुत्तमस्सिदूणंतरपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सियूण अंतरपरूवणं कस्सामो।
__३६७. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णिदोसोओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसंपयडीणमुक्कस्साणु० अंतरं केव० १ ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। अणुक्क० णत्थि अंतरं । सम्मत्त--सम्मामिच्छत्ताणमुक्का णत्थि अंतरं । अणुक्क० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा ।
$ ३६८. आदेसेण णेरइएमु एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणुक्क० ज० एगस०,
अनन्त कारणोंसे असंख्यात कार्योंके होनेमें विरोध है।
* इसी प्रकार शेष कर्मों के उत्कृष्ट अनुभागवालोंका अन्तरकाल कहना चाहिये ।
5 ३९५. जैसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहा वैसे ही बाकी के सभी कर्मों का कहना चाहिये, उससे इनके अन्तरकालमें कोई विशेष नहीं हैं । जो कुछ विशेष हैं उसका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
* किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तरकाल नहीं है।
३९६. क्योंकि सम्यग्दृष्टियोंमें से मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले जीवोंके अन्तरकालकी अपेक्षा सम्यक्त्वकी सत्ताके साथ मिथ्यादृष्टियों और सम्यग्दृष्टियोंके रहनेका काल असंख्यात गुणा है । इस प्रकार चूर्णिसूत्र के आश्रयसे अन्तरको कहकर अब उच्चारणाके आश्रयसे अन्तरका कथन करते हैं
३६७. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट अवसर प्राप्त है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है।
३९८. आदेशसे नारकियोंमें इसी प्रकार है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। सम्यग्मि
१. ता. प्रती सेसाणं कम्माणं इति पाठः ।
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गा० २२ अणुभागविहत्तीए अंतरं
२४३ उक्क. वासपुधत्तं । सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि-तिरिक्खतियदेवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि संम्मत्त० अणुक्कस्साणु० णत्थि। एवं जोणिणी--पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तभवण-वाण-जोदिसिओ त्ति ।।
$ ३६६. मणुसतिय० ओघं । णवरि मणुसिणीसु सम्मत्त-सम्मामि० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं उक्क० ओघं । अणुक्क. सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
४००. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति छब्बीसंपयडीणमुक्क० अणुक० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० उक्क० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० अणुक्क • जह० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । णवरि सवढे पलिदो० असंखे०भागो। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । थ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतना विशेष है कि सम्यक्त्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग उनमें नहीं है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और उयोतिषियोंमें जानना चाहिए।
३९९. सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियो में ओधकी तरह भङ्ग है। इतना विशेष है कि मनुष्यिनियो में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियो के उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर ओघकी तरह है। उनके अनुत्कृष्ट अनुभागका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
४००. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवो में छब्बीस प्रकृतियोंके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वके अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। इतना विशेष है कि सर्वार्थसिद्धिमें उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अनुत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहके क्षपक के होता है, अत: नाना जीवो की अपेक्षा क्षपकका जितना अन्तर है उतना ही अन्तर इनके अनुत्कृष्ट अनुभागका भी होता है। आदेशसे नारकियों में सम्यक्त्व प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागका अन्तर जघन्यसे तो एक ही समय है किन्तु उत्कृष्टसे वर्षपृथक्त्व है, अर्थात् कोई कृतकृत्यवेदक इतने काल तक नरकमें नहीं पाया जाता । मनष्यिनियों में भी उत्कृष्ट अन्तर इतना ही है,क्योंकि मनुष्यिनियों में क्षपकका भी अन्तरकाल इतना ही बतलाया है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृ. तियो के अनुत्कृष्ट अनुभागका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि यह सान्तर मार्गणा
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
* जहण्णाणुभागकम्मंसियंतरं पापाजीवेहि । $ ४०१. सुगममेदं अहियार संभालणमुत्तत्तादो | * मिच्छत्त - श्रट्ठकसायाणं एत्थ अंतरं । $ ४०२. कुदो ? आतियादो ।
8 सम्मत्त - सम्मामिच्छत्त-लोभसंजल- छुणोकसायाणं जहण्णाणुभाग कम्मं सियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
९४०३. सुगमं ।
२४४
* जहरणेण एगसमचो ।
$ ४०४. सुगमं ।
* उक्कस्सेण छम्मासा |
९४०५. खवगसेढीए एदासि पयडीणं जहण्णाणुभागसमुप्पत्तीदो । का खवगसेढी णाम ? कम्मखवणपरिणामपंती । जदि एवं तो अनंताणुबंधिचक्क० विसंजोयणपरिणामपंतीए वि खवगसेढी सण्णा पावदे ? ण, तेसिं पुणरूप्पज्जमाण सहावाणं
है और उसका अन्तरकाल भी इतना ही बतलाया है । नत से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक छब्बीस प्रकृतियों का उत्कृष्ट तथा अनुत्कृष्ट अनुभाग और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग सदा पाया जाता है, अतः अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व के अनुत्कृष्ट अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है जो कि वहां उत्पन्न होनेवाले कृतकृत्यवेदक सम्यग्मिदृष्टियो' की अपेक्षा जानना, क्यों कि उन्हीं के सम्यक्त्वका अनत्कृष्ट अनुभाग होता है । इतना विशेष है कि सर्वार्थसिद्धिमें यह अन्तरकाल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
* नाना जीवोकी अपेक्षा जघन्य अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तर कहते हैं । ४०१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसमें अधिकारको सम्भाला गया है ।
* मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनुभाग सत्कर्मवालोंका अन्तर नहीं है | $ ४०२. क्योंकि इनका प्रमाण अनन्त है ।
[ अणुभागविहत्ती ४
* सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्वलन लोभ, और छ नोकपायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तरकाल कितना है ?
९४०३. यह सूत्र सुगम है ।
* जघन्य अन्तर एक समय है । ४०४. यह सूत्र सुगम है ।
* उत्कृष्ट अन्तर छह मास है ?
$ ४०५. क्योकि इन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणी में उत्पन्न होता है । शंका- क्षपकश्रेणी किसे कहते हैं ?
समाधान-कर्म के क्षपणके कारणभूत परिणामों की पंक्तिको क्षपकश्रेणी कहते हैं । शंका- यदि क्षपकश्रेणीका यह लक्षण है तो अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करनेपरिणामो की पंक्तिको भी क्षपकश्रेणी नाम प्राप्त होता है ?
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२४५
गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए अंतरं खीणत्तविरोहादो।
अणंताणुबंधीणं जहणणाणुभागसंतकम्मियंतरं केविचरं कालादो होदि ?
$ ४०६. सुगम। * जहणणेण एगसमत्रो। ४६७. सुगमं । * उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा।
४०८. कुदो ? संजुज्जमाणपरिणामाणमसंखे०लोगपमाणत्तादो । ण च सव्वेहि परिणामेहि संजुजंतस्स जहण्णाणुभागो होदि, सव्व विसुद्धपरिणामं मोत्तूण अण्णत्थ तदणुवलंभादो।
* इत्थि-णवुसयवेदजहण्णाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ?
४०६. सुगमं । ॐ जहणणेण एगसमत्रो। ४१०. सुगमं । & उकस्सेण संखेजाणि वस्साणि ।
समाधान-नहीं, क्योंकि वे पुनः उत्पन्न स्वभाववाली हैं अत: उन्हें क्षीण मानने में विरोध प्राता है।
ॐ अनन्तानुबन्धी कायोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तर काल कितना है ?
४.६. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है । ६४.७. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
४०८. क्योंकि अनन्तानबन्धी के संयोजनके कारणभूत परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं। और सभी परिणामोंसे संयुक्त होनेवालोंके अनन्तानुबन्धीका जघन्य अनुभाग नहीं होता, क्यो कि सर्वविशुद्ध परिणामको छोड़कर अन्यत्र वह नहीं पाया जाता है।
* स्त्रीवेद और नपुसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तरकाल कितना है।
३४०९. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है। $ ४१०. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट अन्तर संख्यात वर्ष है ।
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२४६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४११. कुदो ? इत्थि-णqसयवेदोदएण खवगसेढिमारुहंताणं वासपुधत्तंतरुवलंभादो।
ॐ तिसंजलण-पुरिसवेदाणं जहएणाणुभागसंतकम्मियाणमंतर केवचिरं कालादो होदि?
४१२. सुगम । * जहएणेण एगसमझो।
४१३. सुगमं । * उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं ।
६४१४. पुरिसवेदस्स ताव उच्चदे । तं जहा–पुरिसवेदोदएण खवगसेढिं चढिय तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्म काऊण छम्मासमंतरिय पुणो इत्थिवेदेण खवगसेढिं चढिय छम्मासमंतरिय पुणो णqसयवेदोदएण खवगसेटिं चढावेदव्यो । एवं संखेजेसु वारेसु गदेस पच्छा पुरिसवेदोदएण खवगसेटिं चढिय तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मे कदे सादिरेगेगवस्समेत्तमुक्कस्संतरं होदि । संखेज्जोणि वस्साणि किण्णं होंति ? ण, सव्वेसिमंतराणं छम्मासपमाणत्ताभावादो। सव्वाणि अणंताणि छम्मासपमाणाणि ण होति त्ति कुदो णव्वदे ? वासं सादिरेयमंतरमिदि सुत्तणि सादो। एवं तिहं संजलणाणं
४११. क्यो कि स्त्री वेद तथा नपुंसकोदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़नेवालों का अन्तर वर्षपृथक्त्व पाया जाता है।
* तीन संज्वलन और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मवालोंका अन्तर काल कितना है ?
६४१२. यह सूत्र सुगम है। * जघन्य अन्तर एक समय है। ६ ४१३. यह सूत्र सुगम है। * उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष है।
४१४. पहले पुरुषदका अन्तर कहते हैं, जो इस प्रकार है-पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़कर और उसका जघन्य अनुभागसत्कर्म करके क्षपकणिका छह मासका अन्तर दिया पुनः स्त्रीवेदके उदयसे क्षयकोणि पर चढ़कर छह मासका अन्तर दिया पुन: नपुंसकवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़ाना चाहिए। इस प्रकार संख्यात वार होनेपर पीछे पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रोणिपर चढ़कर पुरुषवेदका जघन्य अनुभागसत्कर्म होने पर पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष होता है।
शंका-संख्यात वर्ष अन्तर क्यों नहीं होता ? समाधान-नहीं, क्योंकि सभी अन्तरोंका प्रमाण छः मास नहीं है। शंका-सभी अन्तरोंका प्रमाण छः मास नहीं है यह कैसे जाना ?
१. ता. प्रती बस्ससहस्साणि किरण इति पाठः।
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गा० २२ ) अणुभागविहत्तीए अंतरं
२४७ वत्तव्वं, सादिरेयवस्संतरत्तेण विसेसाभावादो। कोषसंजलणस्स दो वस्साणि अंतरं किण्ण होदि ? ण, सव्वेसिमंतराणमेगादिसंजोगजणिदोणं छम्मासणियमाभावादो । एवं चुण्णिसुत्तमस्सिदूण अंतरपरूणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिदूण परूवेमो ।
४१५. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तअह-कसा० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि०-लोभसंज०छण्णोक. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक० छम्मासा। अज० णत्थि अंतरं । अणंताणुचउक्क० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क असंखे० लोगा। अज० पत्थि अंतरं । तिण्णिसंज०-पुरिस० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क. वासं सादिरेयं । अज० णत्थि अंतरं । इत्थि-णQसजहण्णाण० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं। एवं मणस्सोघं । णवरि मिच्छत्त-अढकसा० जह० ज० एगस०, उक्क० असंखे लोगा।
- ४१६. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणं जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क०
समाधान-क्यो कि सूत्रमें पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका उत्कृष्ट अन्तर एक वर्षसे कुछ अधिक बतलाया है। इससे जाना कि सभी अन्तरो'का प्रमाण छः मास नहीं होता। इसी प्रकार तीनो संज्वलन कषायोंका भी अन्तर कहना चाहिये, क्योंकि साधिक एक वषप्रमाण अन्तरसे उसमें कुछ विशेषता नहीं है।
शंका-संज्वलन क्रोधका अन्तर दो वर्ष क्यो नहीं है ?
समाधान नहीं, क्या कि एकादि संयोगसे उत्पन्न हुए सभी अन्तर छह मासप्रमाण होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है। तात्पर्य यह है कि क्रोध, मान, माय और लोभ उदयसे छह छह माहके अन्तरसे क्षपकश्रोणि पर चढ़ता है ऐसा कोई नियम नहीं है, अतः तीनों संज्वलनों के जघन्य अनुभागका उत्कृष्ट अन्तर दो वर्षे न कह कर साधिक एक वर्ष कहा है।
इस प्रकार चूर्णिसूत्रके आश्रयसे अन्तरका कथन करके अब उच्चारणाके आश्रयसे अन्तर का कथन करते हैं
३१५. जघन्यका कथन अवसर प्राप्त है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अ.तर नहीं है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, संज्वलनलोभ और छह नोकषायोंके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। तीन संज्वलन कषाय और पुरुषवेदके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक एक वर्ष है । अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्यों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मिथ्यात्व और आठ कषायोंके जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है।
* ४१६. आदेशसे नारकियो में छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ असंखे०लोगा । अज० पत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । सम्मामि० अज० णत्थि अंतरं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज्ज०-देवोघं ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति मिच्छत्तबारसक०-णवणोक० जहण्णाजहण्णाणु० णत्थि अंतरं । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु. ज० एगस०, उक्क. असंखे० लोगा । अज० णत्थि अंतरं । एवं जोदिसि० । ___- ४१७. तिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु वावीसंपयडीणं जहण्णाजहणणाणु० णत्थि अंतरं । सम्मत्त० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । अज० णत्थि अंतरं । एवं सम्मामि । णवरि जहण्णं णत्थि । अणंताणु० चउक्क० जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अज पत्थि अंतरं । एवं सोहम्मादि जाव णवगेवज्जा त्ति । जोणिणी० छब्बीसंपयडीणं जहण्णाणु० जह० एगस०, उक्क० असंखे० लोगा । अज० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अज० णत्थि अंतरं। एवं पंचिंदियतिरिक्खअपज०भवण-वाण-तराणं । मणुसपज्ज. मणुस्सोघं । णवरि इत्थि० हस्सभंगो । मणुसिणी० एवं चेव । णवरि खवगपयडीणमंतरं वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं ज० जह० एगस०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। अज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०
एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रम ण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्वके जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व प्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और सामान्य देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियो में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायो के जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। अनन्ता. नुबन्धीचतुल्क के जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार ज्योतिषीदेवों में जानना चाहिए।
४१७. तिर्यञ्चगतिम तिर्यञ्चों में बाईस प्रकृतियों के जघन्य और अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथस्वप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वका अन्तर जानना चाहिए । इतना विशेष है कि तिर्यञ्चो में उसका जघन्य अनुभाग नहीं होता। अनन्तानबन्धीचतुष्कके जघन्य अनभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सौधर्म स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तक के देवों में जानना चाहिए। यानिनियों में छब्बीस प्रकृतियो के जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक प्रमाण है । अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अजघन्य अनभागका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, भवनवासी और व्यन्तरोंमें जानना चाहिए । मनष्यपर्याप्तकों में सामान्य मनुष्यों के समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागका अन्तर हास्यके समान है। मनुष्यिनियों में भी इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि इनमें क्षपकश्रेणिमें जिन प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग होता है उनका अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मनष्य अपयाप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के जघन्य अनुभागस कर्मका जघन्य अन्तर एक समय है और
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गा० २२ ] अनुभागविहत्तीए सण्णियासो
२४९ भागो । अणुद्दिसादि जाव सव्व दृसिद्धि त्ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० ज० अज० पत्थि अंतरं। सम्मत्त-अणंताणु०चउक्क. जहण्णाणु० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । सव्वहे पलिदो० संखे०भागो । अजह० गत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
४१८. सण्णियासो दुविहो—जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि। उक्कस्से पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्तस्स जो उक्कस्साणुभागविहत्तिओ सो सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। जदि विहत्तिो णियमा उकस्सवित्तिओ। सोलसक०--णवणोक० णियमा विहत्तिओ। तं तु छटाणपदिदो। एवं सोलसक०--णवणोकसायाणं। सम्मत्त० उक्कस्साणुभागस्स जो विहत्तिओ सो सम्मामिच्छत्तस्स णियमा उक्कस्सविहत्तिओ। मिच्छत्त-बारसक०--णवणोक० णिय०
उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक है। अजघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंके जघन्य और अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। सर्वार्थसिद्धिमें इनका उत्कृष्ट अन्तर पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है। अजघन्य अनुभागका अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
विशेषार्थ-जघन्य अनुभागसत्कर्मका अन्तर जिस प्रकार चूर्णिसूत्रोंमें कहा है वैसे ही ओघसे और आदेशसे भी जानना चाहिए । श्रादेशसे कहीं कहीं कुछ विशेषता है, जैसे तिर्यञ्चयोनिनियोंमें और मनुष्य अपर्याप्तकोंमे छब्बीस प्रकृतियोंके जघन्य अनुभागसत्कर्मका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोक कहा है सो इन प्रकृतियोंका जघन अनुभाग इन पर्यायोंमे मरकर जन्म लेनेवाले हतसमुत्पत्तिककर्मा यथायोग्य एकेन्द्रियादिक जीवोंके होता है, उन्हींकी उत्पत्तिकी अपेक्षासे यह अन्तर काल कहा है। सम्यक्त्व प्रकृतिके जघन्य अनुभागका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व उसी प्रकृतिके अनुत्कृष्ट अनुभागके अन्तरकी तरह जानना।
४१८, सन्निकर्ष दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका अवसर है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे जो जीव मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला होता है कदाचित् अविभक्तिवाला होता है । यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है। तथा वह सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी अनुभागविभक्तिवाला नियमसे होता है किन्तु वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी। यदि अनुत्कृष्ट होती है तो नियमसे षस्थानपतित होती है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायों की अपेक्षा जानना चाहिए। जो जीव सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागकी विभक्तिवाला है वह नियमसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है। तथा वह मिथ्यात्व बारह कषाय और नव नोकषायोंकी अनुभागविभक्तिवाला नियमसे होता है जो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला होता है। यदि अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ तं तु छटाणपदिदो। अणंताणु० चउक्क० सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। जदि विहत्तिओ तं तु छहाणपदिदो । एवं सम्मामिच्छत्तस्स । णवरि सम्मत्त० सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। जदि विहत्तिओ णियमा उक्कस्सविहनिओ । एवं मणुसतियस्स वत्तव्वं ।
- ४१६. आदेसेण रइ एमु मिच्छत्त० उक्क० जो विहत्तिो सो सम्म०सम्मामि० सिया विहचिओ, सिया अविहत्तिओ । जदि विहत्तिओ णियमा उक्कस्सविहत्तिओ । सोलसक०-णवणोक० णियमा० तं तु छटाणपदिदो। एवं सोलसक०-णवणोकसायाणं । सम्मत्त० जो उक्क० विहत्तिओ सो सम्मामि० णियमा उक्क० विहत्तिो । मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० तं तु छहाणपदिदो । अणंताणु०चउक्क० सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। तं तु छटाणपदिददो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि। णवरि सम्मत्तस्स सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तियो । जदि विहत्तिओ णियमा उकस्सविहत्तिो । एवं पढमपुढवि-तिरिक्खतिय--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सार होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी कदाचित् विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है यदि विभक्तिवाला होता है तो वह उत्कृष्ट भी होता है
और अनुत्कृष्ट भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष जानना चाहिए । इतना विशेष है कि वह कदाचित् सम्यक्त्वकी विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्टविभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमे कहना चाहिये।
१४१९. आदेशसे नारकियोंमे जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनुभागविभक्तिवाला होता है और कदाचित् अवि. भक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है । वह सोलह कषाय और नव नोकषायों की नियमसे विभक्तिवाला होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है, और अनुत्कृष्टविभक्तिवाला होता है। यदि अनुत्कृष्टविभक्तिवाला होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष होता है। जो सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्तिवाला है वह नियमसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है । वह मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी नियमसे विभक्तिवाला होता है। किन्तु वह उत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ठविभक्तिवाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी कदाचित् विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो वह उत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तो वह षट्स्थान पतित विभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला कदाचित् सम्यक्त्वकी विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तियञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए सणियासो
२५१ त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । एवं जोणिणी--पंचिंदियतिरिक्खअपज्जामणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिया त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्व-मणुसअपज्ज० सम्मत्त०-सम्मामि० उक्कस्साणु विहत्ति० अणंताणु० चउक्क० बारसकसायभंगो।
६४२०. आणदादि जाव उवरिमगेवज्जा त्ति मिच्छत्त० उक्कस्साणुभागविहत्तिओ सम्मत्त--सम्मामि० सिया विहत्तिो सिया अविहत्तिओ । जदि विहतिओ णियमा उक्कस्सा। सोलसक०-णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० १ णियमा उक्क० । एवं सोलसक०णवणोकसायाणं। सम्मत्त० उक्क० विहत्ति० मिच्छत्त-बारसक०--णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० तं तु अणंतगुणहीणा। अणंताणु० चउक्क० सिया विहत्तिओ सिया अविहत्तिओ। जदि विहत्तिओ तं तु अणंतगुणहीणा। सम्मामि० णियमा उक्क० विहत्तिओ। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । णवरि सम्मत्तस्स सिया विहत्तियो सिया अविहत्तिो।' जदि विहत्तिो णियमा उक्कस्स विहत्तिओ।
४२१. अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि त्ति मिच्छत्त० उक्कस्साणुभागविहतिओ तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातबीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवालोंके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग बारह कषायोंके समान है।
४२०. आनत स्वर्गसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें जो मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाला है वह कदाचित् सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है। सोलह कषायों और नव नोकषायकी क्या उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है अथवा अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है ? नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सोलह कषाय
और नव नोकषायोंकी अपेक्षा जानना चाहिए। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी क्या उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है या अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है ? वह उत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है यदि अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तो वह अनन्तगुणी हीन विभक्तिवाला होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी कदाचित् विभक्तिवाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है। यदि विभक्तिवाला होता है तो उत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तो वह नियमसे अनन्तगुण हीन विभक्तिवाला होता है । तथा वह नियमसे सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिबाला होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी सन्निकर्ष कहना चाहिये। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला कदाचित् सम्यक्त्वकी विभक्तिबाला होता है और कदाचित् अविभक्तिवाला होता है यदि विभक्तिवाला होता है तो नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है।
६ ४२१. अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट अनुभाग विभक्ति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सम्मत्त-सम्मामि०-सोलसक०-णवणोक० किमुक्क० अणुक्क०१ णियमा उक्कस्सविहतिओ। एवं सोलसकसाय--णवणोकसायाणं । सम्मच० उक्क० विहतिओ मिच्छ०--बारसक०णवणोक० किमुक्क० अणुक्क० १ तं तु अणंतगुणहीणा। अणंताणु०४ सिया अत्थि सिया पत्थि। जदि अत्थि तं तु अणंतगुणहीणा । सम्मामि० णियमा उक्कस्स विहतियो। एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वरव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। ..६४२२. जहण्णए पयदं। दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तस्स जो जहणाणभागविहत्तिओ तस्स सम्मत्त--सम्मामिच्छत्ताणि सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु० चउक०चदुसंज०-णवणोक० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । अढक० णियमा तं तु छटाणपदिदा । एवं अटकसायाणं । सम्मत्त० जहण्णाणु विहत्ति० बारसक०--णवणोक० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया। सेसपयडीओ णत्थि । सम्मामि० जहण्णाणु विहत्ति० सम्मत्त०-बारसक० --णवणोक० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु०कोष०
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वाला सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी क्या उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है या अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है ? वह नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है । इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी क्या उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है या अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है ? वह उत्कृष्ट विभक्तिवाला भी होता है और अनुत्कृष्ट विभक्ति वाला भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तो वह अनन्तगुण हीन विभक्तिवाला होता है। उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् होता है कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो वह उत्कृष्ट भी होता है और अनुत्कृष्ट भी होता है। यदि अनुत्कृष्ट होता है तो वह अनन्तगुण हीन होता है। वह सम्यग्मिथ्यात्वकी नियमसे उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वकी अपेक्षा भी कहना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए। . ४२२. अब जघन्य अवसरप्राप्त है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे जो मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाला है उसके सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्व कदाचित् होते हैं और कदाचित् नहीं होते। यदि होते हैं तो नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, चार संज्वलन और नव नोकषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होते हैं। आठ कषाय नियमसे होती हैं किन्तु वे जघन्य भी होती हैं और अजघन्य भी होती हैं। यदि अजघन्य होती हैं तो नियमसे षट्स्थान पतित अनुभागको लिये हुए होती हैं । इसी प्रकार आठ कषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं । उसके शेष प्रकृतियां अर्थात् अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ये प्रकृतियाँ नहीं होती। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले के सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी
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भा० २२] अणुभागविहत्तीए सण्णियासो
२५३ जहण्णाणु विहत्ति० मिच्छत्त--सम्मत्त-सम्मामि०--बारसक०--णवणोक० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । माण-माया-लोभाणं किं ज० किमज० १ तं तु छहाणपदिदा । एवं सेसतिण्हं कसायाणं । कोधसंजल. जहण्णाणु विहत्ति० तिएहं संजल० किं ज. अज० ? णि. अज० अणंतगुणब्भहिया। माणसंज० ज० विहत्ति० माया-लोभसंज०किं ज० अज० ? णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । कोधसंजलणादिहेडिमपयडीओ णत्थि। मायसंज. ज. विहत्ति० लोभसंजणियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । लोभसंज. जहण्णाण सेसपयडीओ णत्थि । इत्थि. जहण्णाण. सत्तणोक०-चदुसंज० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया। एवं णqसयवेदस्स । पुरिस० जहएणाण विहत्ति० चदुसंज० णियमा अज० अणंतगुणब्भहिया । हस्स-जहएणाणु०वि० पुरिस०-चदुसंज० णि० अज० अणंतगुणब्भहिया। पंचणोक० णि. जहएणा। एवं पंचणोकसायाणं।
___४२३. आदेसेण णेरइएमु मिच्छत्त० जहएणाणु सम्मत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि णि. अज० अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु चउक्क० णि. अज० अणंतगुणब्भहिया । बारसक०-णवणोक० किं ज० अज० ? तं तु छहाणपदिदा। जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती है। उसके अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका क्या जघन्य अनुभाग होता है या अजघन्य अनुभाग होता है ? उनका जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है। यदि अजघन्य होता है तो षट्स्थानपतित अनुभाग होता है। इसी प्रकार शेष तीन कषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। संज्वलन क्रोधकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मान, माया और लोभ संज्वलनका क्या जघन्य होता है या क्या अजघन्य होता है ? नियमसे अजघन्य अनुभाग होता है जो अनन्तगुणा अधिक होता है। मान संज्वलनकी जघन्य विभक्तिवालेके माया संज्वलन और लोभ संज्वलनका क्या जघन्य होता है या अजघन्य होता है ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य होता है। नीचेकी क्रोध संज्वलन आदि प्रकृतियाँ उसके नहीं होती। माया संज्वलनकी जघन्य विभक्तिवालेके लोभ संज्वलन नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होता है। लोभ संज्वलनकी जघन्य अनुभागविभक्तित्रालेके शेष प्रकृतियाँ नहीं होती। स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले के सात नोकषाय और चारों संज्वलन कषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं। इसी प्रकार नपुंसकवेदकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । पुरुषवेदकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके चार संज्वलनकषाय नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं। हास्यकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके पुरुष. वेद और चारों संज्वलन नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं। पांच नोकषाय नियमसे जघन्य होती हैं। इसी प्रकार शेष पांचों नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए।
४२३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके सम्यक्त्व कदाचित् होता है कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होता है। अनन्तानुबन्धी चतुष्क नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुर होता है। बारह कषाय और नव नोकषायका क्या जघन्य होता है या
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ एवं पारसक०-णवणोकसायाणं । सम्मत्त जहणणाण. बारसक०-णवणोक० किं ज. अज० ? णि. अज० अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु०कोध० जहएणाणु० मिच्छत्त०. सम्मत्त ०-बारसक०-णवणोक० णि अजहएणा अणंतगुणब्भहिया । तिएिणक० तंतु छहाणपदिदा । एवं तिएहमणंताणुबंधीणं । पढमपुढवि० देवोघं । भवण०--वाणवेतराणं णेरइयभंगो । णबरि भवण०-वाणवे० सम्म० जहएणं गत्थि ।।
४२४. विदियादि जाव सत्तमि तिमिच्छत्त० जहएणाए. अणंताणु० चउक्क० सिया अत्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि किं ज० अज०१ तं तु छटाणपदिदा । बारसक०णवणोक० णियमा जहण्णा । एवं बारसक०-णवणोकसायाणं । अणंताणु०कोध० जह० मिच्छ०-बारसक०--णवणोक० किं ज० अज० १ णि० जहण्णा । माण--माया--लोभ० किं ज० किमज० १ तं तु छटाणपदिदा । एवं माण-माया-लोभाणं ।
$ ४२५. तिरिक्खगदीए तिरिक्ख--पंचिदियतिरिक्ख--पंचि०तिरि०पज० मिच्छत्त० जहण्णाण सम्मत्त सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि णियमा अज० अजघन्य होता है ? वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है । इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्षे जानना चाहिए । सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य होता है, । अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका जघन्य भी होता है और अजघन्य भी होता है। यदि अजघन्य होता है तो वह षट् स्थान पतित होता है। इसी प्रकार शेष तीन अनन्तानुबन्धीकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। पहली पृथिवी, सामान्य देव, भवनवासी और व्यन्तरोंमें नारकियोंके समान भंग होता है। इतना विशेष है कि भवनवासी और व्यन्तरोंमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता।
४२४. दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके अनन्तानुबन्धीचतुष्क कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता । यदि होता है तो जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थानपतित होता है। बारह कषाय और नव नोकषाय नियमसे जघन्य अनुभागको लिये हुए होती हैं। इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मिथ्यात्व, बारह कषाय, और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे जघन्य होता है । अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार मान, माया और लोभकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये।
४२५. तिर्यञ्चगतिमें सामान्य तिर्यञ्च,पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त कोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिबालेके सम्यक्त्व कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो नियमसे अनन्तगुणे अधिक अजघन्य अनुभागको लिये हुए होता है।
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए सण्णियासो अणंतगुणन्भहिया । अणंताणु० चउक्क० णियमा अज अणंतगुणब्भहिया। बारसक०-णवणोक० किं ज० अज०१ तं तु छहाणपदिदा । एवं बारसक०-णवणोकसायाणं । सम्मत्त. जहण्णाणु० बारसक० णवणोक० किं ज० अज. ? णियमा अज. अणंतगुणब्भहिया । अणंताणु०कोध० जहण्णाणु० मिच्छत्त-सम्मत्त-बारसक०-णवणोक० किं ज० अज०१ णि. अज० अणंतगुणब्भहिया। तिण्णिकसाय० किं ज० किमज०१ तं तु छहाणपदिदा। एवं सेसतिण्हमणंताणुबंधीणं । एवं जोणिणी० । णवरि सम्मत्त० जहण्णं णत्थि । पंचितिरि० अपज्ज० मिच्छत० जहण्णाणु० सोलसक०--णवणोक०--णियमा तंतु छहाणपदिदा । एवं सोलसक०-णवगोक० । मणुसअपज्जताणं पंचिंदियतिरिक्खअपज्जचभंगो।
४२६. मणुस्साणमोघं । मणुसपज्ज० एवं चेव । णवरि इत्थिवेद-जहण्णाणुभागविहत्तियस्स णवूस० सिया अस्थि सिया पत्थि । जदि अत्थि णियमा अज. अणंतगुणन्भहिया । मणुसिणीणमोघं । णवरि णqस. जहण्णाणु० इत्थि० णि. अज. अणंतगुणभहिया । पुरिस० छण्णोकसायभंगो। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। बारह कषाय और नव नोकषायका क्या जघन्य होता है या अजघन्य? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार बारह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारहकषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। अनन्तानुबन्धी मान, माया और लोभका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य होता है और अजघन्य भी। यदि अजघ य होता है तो वह षट् स्थान पतित होता है। इसी प्रकार शेष तीन अनन्तानुबन्धिकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वका जघन्य नहीं होता। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभागविभक्तिवालेके सोलह कषाय और नव नोकषायोंका अनुभागसत्कर्म नियमसे होता है किन्तु वह जघन्य भी होता है
और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट्स्थान पतित होता है। इसी प्रकार सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान भंग है।
६ ४२६. सामान्य मनुष्योंमें ओघवत् जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्तकोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि स्त्रीवेदकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके नपुंसकवेद कदाचित् होता है और कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो नियमसे अनन्तगुण अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है। मनुष्यनियोंमें ओघवत् जानना चाहिए । इतना विशेष है कि नपुंसकवेदकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवाले के स्त्रीवेदका नियमसे अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है तथा पुरुषवेदका भङ्ग छ नोकषायके समान है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ _ ४२७. जोदिसि. विदियपुढविभंगो । सोहम्मादि० जाव गवगेवजा मिच्छत्त० जहएणाणु० सम्मत-बारसक०-णवणोक० णि० अज० अणंतगुणभहिया। सम्मत. जहणाण. बारसक०-णवणोक० किं ज० किमज. ? तं तु अर्णतगुणभहिया । अणंताणुकोध० ज० मिच्छत्त-सम्मत-बारसक०-णवणोक० णि. अज० अणंतगुणब्भहिया । तिण्हमणताणुबंधीणं तं तु छहाणपदिदा । एवं सेसतिण्हमणंताणुबंधीणं । अपच्चक्खाणकोध० ज० एकारसक० णवणोक० णि. जहण्णा। सम्मत्त० सिया अत्थि सिया णत्थि । जदि अत्थि तं तु अणंतगुणब्भहियं । एवमेकारसक० णवणोकसायाणं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि चि एवं चेव । णवरि अणंताणुकोध० ज० मिच्छत्त-सम्मच-बारसक०-णवणोक० णियमा० अज० अणंतगुणब्भहिया। तिषिणक० णि. जहएणा । एवं सेसतिएहं कसायाणं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। : ..... $ ४२८. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
* अप्पाबहुमुक्कस्सयं जहा उक्कस्सबंधो तहा।
६ ४२७ ज्योतिषियोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। सौधर्म स्वर्गसे लेकर नव वेयक तकके देवोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकपायोंका नियमसे अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए अजघन्य होता है। सम्यक्त्वकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके बारह कषाय और नव नोकषायोंका क्या जघन्य होता है या अजघन्य ? वह जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए होता है । अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवाले के मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका नियमसे अजघन्य होता है जो अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुए होता है। शेष तीनों अनन्तानुबन्धी कषायोंका जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह षट् स्थान पतित होता है। इसी प्रकार शेष तीनों अनन्तानुबन्धियोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए । अप्रत्याख्यानावरणीय क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके शेष ग्यारह कषाय और नव नोकषायो का नियमसे जघन्य होता है। सम्यक्त्व कदाचित् होता है कदाचित् नहीं होता। यदि होता है तो जघन्य भी होता है और अजघन्य भी। यदि अजघन्य होता है तो वह अनन्तगुणे अधिक अनुभागको लिए हुये होता है। इसी प्रकार ग्यारह कषाय
और नव नोकषायोंकी अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिये। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें ऐसे ही जानना चाहिये। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी क्रोधकी जघन्य अनुभाग विभक्तिवालेके मिथ्यात्व, सम्यक्त्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंका नियमसे अनन्तगुणा अधिक अजघन्य अनुभाग होता है। शेष तीनो अनन्तानुबन्धियो का नियमसे जघन्य होता है। इसी प्रकार शेष तीनों अनन्तानुबन्धी कषायो की अपेक्षा सन्निकर्ष जानना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
६४२८ भावानुगमकी अपेक्षा सब विभक्तिवालोंके औदयिक भाव होता है। * जैसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अन्पबहुत्व है वैसे ही उत्कृष्ट सत्कर्मका अल्प
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुश्रं
२५७ ४२६. जहा उक्कस्साणुभागबंधे उक्कस्सोणुभागस्स अप्पाबहुओं परविदं तहा परवेयव्वं, विसेसाभावादो । तं जहा-सव्वतिव्वो मिच्छत्तकस्साणुभागबंधो । अणंताणुबंधिलोभाणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। मायाए उकस्साणुभागबंधो विसेसहीणो । कोधुक्कस्साणु० विसेसहीणो । माणुक्कस्सा. विसेसहीणो । लोभसंजलणउक्कस्साणुभागबंधो अणंतगुणहीणो । मायाए उकस्साणु० विसेसहीणो। पञ्चक्वाणलोभ० अणंतगुणहीणो । माया० विसेसहीणो । कोधुक० विसेसहीणो। माणुकस्सा. विसेसहीणो । अपञ्चक्खाणलोभुक्कस्साणु० अणंतगुणहीणो। माया. विसेसहीणो। कोधुक्क० विसेसहीणो । माणुकस्सा. विसेसहीणो। णqस० उक्कस्साणु० अणंतगुणहीणो । अरदिउक्क० अणंतगुणहीणो। सोग० उक्कस्साणु० अणंतगुणहीणो। भय० उक्क० अणंतगुणहीणो। दुगुंछाए उक्क० अणंतगुणहीणो । इथि० उक्क० अणंतगुणहीणो । पुरिस० उक० अणंतगुणहीणहीणो। रदीए उक्क० अणंतगुणहीणो। हस्स० उक्क० अणंतगुणहीणो। एदमुक्कस्सबंधस्स अप्पाबहुअं उक्कस्साणुभागसंतस्स कधं होदि ? कथं च ण होदि ? बंधावलियादिक्कंतहिदीणं व अण्णोएणसंकमेण अणुभागस्स सरिसत्तुवलंभादो । बहुत्व है।
४२९. जैसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धमें उत्कृष्ट अनुभागका अल्पबहुत्व कहा है वैसे ही यहाँ भी कहना चाहिए। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। वह अल्पबहुत्व इस प्रकार है--मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध सबसे तीब्र है। उससे अनन्तानुबन्धी लोभका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। उससे मायाका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है । उससे क्रोधका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है । उससे मानका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे संज्वलन लोभका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। उससे मायाका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे क्रोधका उत्कृष्ट अनभागबन्ध विशेष हीन है। उससे मानका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे प्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्त गुणा हीन है। उससे मायाका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे क्रोधका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे मानका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणाहीन हैं। उससे मायाका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे कोधका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे मानका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध विशेष हीन है। उससे नपुंसकवेदका उत्कृष्ट अनभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है उससे अरतिका उत्कृष्ट अनभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। उससे शोकका उत्कृष्ट अनभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। उससे भयका उत्कृष्ट अनभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। उससे जुगुप्साका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। उससे स्त्रीवेदका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है । उससे पुरुषवेदका उत्कृष्ट अनभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। उससे रतिका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है । उससे हास्यका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है।
शंका-यह तो उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अल्पबहुत्व है । यह अल्प बहुत्व उत्कृष्ट अनुभाग सत्कर्मका कैसे हो सकता है ?
समाधान-क्यो नहीं हो सकता ? जैसे बन्धावलीसे बाह्य कर्मों की स्थितियाँ परस्परके
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ होदु णाम संकमेण बंधावलियादिक्कतहिदीणं सरिसत्तं गाणुभागस्स सगबज्झमाणाणुभागसरूवेण संकामिज्जमाणपदेसाणुभागाणं परिणामुवलंभादो। बंधाणुसारी अणुभागसंतकम्मो त्ति कुदो णव्वदे ? जहा उक्कस्सबंधो तहा उक्कस्साणुभागअप्पाबहुअं णेदव्वमिदि चुण्णिमुत्तादो। बंधप्पाबहुआदो एदस्स अप्पाबहुअस्स विसेसपरूवणढमुत्तरमुत्तं भणदि।
एवरि सव्वपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीण। $ ४३०. सव्वपच्छा बंधुक्कस्साणुभागसव्वप्पाबहुएहिंतो पच्छा हस्मुक्कस्साणुभागादो सम्मामिच्छत्तुक्कस्साणुभागो अणंतगुणहीणो त्ति वत्तव्वं । कुदो ? सम्मामिच्छत्तुकस्साणुभागसंतकम्मं दारुसमाणफद्दयाणमणंतिमभागे अवहिदं हस्सुक्कस्साणुभागबंधो पुण सेलसमाणफद्दएसु अवहिदो तेण हस्सुक्कस्साणुभागादो सम्मामिच्छत्तुक्कस्साणुभागो अणंतगुणहीणो। बंधे सम्मामिच्छत्तप्पाबहुअं किण्ण कयं ? ण, संतपयडीए बंधम्मि अहियाराभावादो। संक्रमणसे समान हो जाती हैं वैसे ही बन्धावलीसे बाह्य अनुभाग भी परस्परके संक्रमणसे समान हो जाता है। यदि कहा जाय कि संक्रमणसे बन्धावलीसे बाह्य स्थितियाँ भले ही समान हो जाओ, किन्तु अनुभाग समान कैसे हो सकता है; सो यह कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि संक्रमको प्राप्त होनेवाले प्रदेशो का अनुभाग, बँधनेवाले अपने कर्मों के अनुभागरूपसे परिणमन करता हुआ उपलब्ध होता है । तात्पर्य यह है कि विवक्षित कर्मका बन्ध होते समय बन्धावलि बाह्य विवक्षित कर्मका द्रव्य संक्रमण करता है, इसलिए उसमें अनुभागसंक्रमण भी हो जाता है, इसमें कोई बाधा नहीं है।
शंका-अनुभागसत्कर्म अनुभागबन्धके अनुसार ही होता है यह किसप्रमाणसे जाना ?
समाधान-जैसे उत्कृष्ट अनुभागबन्धका अल्प बहुत्व है वैसे ही उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका अल्पबहुत्व जानना चाहिए इस चूर्णि सूत्रसे जाना।
उत्कृष्ट अनुभागबन्धके अल्पबहुत्वसे इस अल्पबहुत्वका अन्तर वतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं -
* किन्तु सबसे अन्तिम अनुभागसे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
४३०. सवपश्चात् अर्थात उत्कृष्ट अनुभागबन्धके सब अल्पबहुत्वोंमें अन्तिम हास्यके उत्कृष्ट अनुभागसे सम्यमिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन है ऐसा कहना चाहिये, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म दारु समान स्पर्धकोंके अनन्तवेंभाग में अवस्थित है और हास्यका उत्कृष्ट अनुभागबन्ध शैल समान स्पर्धकोंमें अवस्थित है अत: हास्यके उत्कृष्ट अनुभागसे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
शंका-बन्ध प्रकरणमें सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व क्यों नहीं कहा ?
समाधान नहीं कहा, क्योकि सत्व प्रकृतिका बन्धमें अधिकार नहीं है। अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध नहीं होता किन्तु वह सत्व प्रकृति है, अतः उसका ब-धमें कथन नहीं किया।
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गां० २२ ] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं
२५९ * सम्मत्तमणंतगुणहीणं ।
४३१. कुदो ? सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागफद्दयादो हेहा अणंतगुणहीणं होदूण सम्मत्तकस्सफद्दयस्स अवहाणादो। जथा ओघप्पाबहुअं परूविदं तहा चदुसु वि गदीसु णेयव्वं, विसेसाभावादो । एवमुवरि जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
& जहणणाणुभागसंतकम्मंसियदंडो।
४३२. जहण्णाणुभागसंतकम्मंसियजीवाणमणुभागमस्सिदण अप्पाबहुअदंडओ कीरदि त्ति भणिदं होदि ।।
8 सव्वमंदाणुभागं लोभसंजलणस्स अणुभागसंतकम्मं ।
४३३. कुदो ? कोधकिट्टिवेदयपढमसमयप्पहुडि अणंतगुणहीणाए सेढीए अणुसमयमोवट्टणघादमुवणमिय पुणो सुहुमसांपरायचरिमसमए सुहुमकिट्टिसरूवाणुभागम्मि जहण्णत्तुवलंभादो।
2 मायासंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं ।
३४३४. कुदो ? मायावेदगचरिमसमयम्मि बद्धस्स मायावेदगतदियबादरसंगहकिट्टिसरुवस्स णवगबंधस्स गहणादो। लोभवादरतिण्णिसंगहकिट्टीहिंतो अणंत
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~ ~~~~~~~~ * सम्यक्त्वका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा हीन है।
६४३१. क्यो कि सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य अनुभाग स्पर्धको से नीचे अनन्तगुणे हीन होकर सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धक अवस्थित हैं। अर्थात् सम्यक्त्वके उत्कृष्ट अनुभाग स्पर्धक सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनभागस्पर्धको से भी नीचे अवस्थित हैं और वह भी अनन्तगुणे हीन होकर, अत: उसका उत्कृष्ट अनुभाग सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागसे अनन्त गुणा हीन है। जैसे ओघसे अल्पबहुत्त्व कहा है वैसे ही आदेशसे भी चारों ही गतियोमें जानना चाहिये, दानों में कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार जानकर आगे अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
8 जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंके आश्रयसे दण्डक कहते हैं ।
$ ४३२. जघन्य अनुभागसत्कर्मवाले जीवोंके अनुभागका आश्रय लेकर अल्पबहुत्वदण्डकका कथन कहते हैं, ऐसा इस सूत्रका अभिप्राय है।
* लोभ संज्वलनका अनुभागसत्कर्म सबसे मन्द अनुभागवाला है।
४३३. क्योंकि क्रोधकृष्टिके वेदकके प्रथम समयसे लेकर प्रति समय अनन्तगुण हीन श्रेणि रूपसे अपवर्तन घातको प्राप्त होकर सूक्ष्म साम्परायके अन्तिम समयमें सूक्ष्म कृष्टिरूप अनुभागके रहते हुए जघन्यपना पाया जाता है, अत: वह सबसे मन्द है। ... * उससे संज्वलनमायाका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है।
$ ४३४. क्योंकि यहाँ पर माया वेदक कालके अन्तिम समयमें बांधा गया जो नवक समयप्रवद्ध है जो कि माया वेदककी तीसरी बादर संगहकृष्टि स्वरूप है उसका ग्रहण किया है। क्योंकि माया वेदक कालके अन्तिम समयमें बद्ध नवक समयप्रबद्धका अनुभाग लोभ कषाय की तीनों बादर संगृह ऋष्टियोंसे अनन्तगुणा है और लोभकी उन तीनों बादर संग्रह कृष्टियोंसे
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२६०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । अणुभागविहत्ती ४ गुणो मायावेदगचरिमसमयणवकबंधाणुभागो तेहितो अणंतगुणहीणलोभमुहुमकिट्टि पेक्खिदूण णिच्छएणं अणंतगुणो त्ति घेत्तव्वं ।
8 माणसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं ।
$ ४३५. कुदो ? तदियमाणसंगहकिट्टिवेदगचरिमसमयम्मि बद्धणवकबंधम्मि माणसंजलणाणुभागस्स जहण्णतब्भुवगमादो। मायासंजलणजहण्णाणुभागादो माणसंजलणजहण्णाणुभागस्स अणंतगुणतं कुदो णव्वदे ? किट्टीणमप्पोबहुआदो । तं जहासव्वत्थोवो मायासंजलणचरिमसमयणवकबंधाणुभागो। मायाए तदियविदियपढमसंगहकिट्टीणमणुभागो जहाकमेण अणंतगुणो। मायावेदगपढमसंगहकिट्टिअणुभागादो माणणवकबंधाणुभागो अणंतगुणो ति ।
* कोधसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगणं ।
४३६. कुदो ? चरिमसमयकोधवेदगेण बद्धाणुभागस्स गहणादो । एत्थ वि अणंतगुणतं पुवं व किट्टीणमप्पाबहुआदो साहेयव्वं ।
® सम्मत्तस्स जहएणाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । लोभ की सूक्ष्मकृष्टि अनन्त गुणी हीन है । अत: लोभ कषायके सूक्ष्म कृष्टिरूप जवन्य अनुभागसे संज्वलन मायाका जघन्य अनुभागसत्कर्म नियमसे अनन्तगुणा है ऐसा यहाँ समझना चाहिये ।
* उससे संज्वलन मानका अनुभागसत्कम अनन्तगुणा है ।
४३५. क्योंकि मान कषाय की तीसरी संग्रह कृष्टिके वेदक कालके अन्तिम समयमें बद्ध नवक समय प्रबद्धमें जो अनुभाग है उसे जघन्य माना गया है।
शंका-माया संज्वलनके जघन्य अनुभागसे मान संज्वलनका जघन्य अनुभाग अनन्त गुणा है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-कृष्टियोंके अल्प बहुत्वसे जाना। खुलासा इस प्रकार है--अन्तिम समयमै माया संज्वलनका जो नवक बन्ध होता है, उसका अनुभाग सबसे थोड़ा है। उससे माया की तीसरी, दूसरी और पहली संग्रह कृष्टियोंका अनुभाग क्रमशः अनन्त गुणा है । और मायाके वेदक कालकी प्रथम संग्रह कृष्टिके अनुभागसे मान कषायके नवकबन्धका अनुभाग अनन्त गणा है।
* उससे संज्वलन क्रोधका अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । - ४३६. क्योंकि क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपकके द्वारा अन्तिम समयमें जो अनुभागबन्ध किया जाता है उसका यहाँ ग्रहण किया जाता है। यहाँ परभी पहले की तरह कृष्टियो के अल्पबहु वसे अनन्तगुणत्व साध लेना चाहिये। अर्थात जैसे पहले मायासंज्वलनके जघन्य अनुभागसे मानसंज्वलनके जघन्य अनुभागको अनन्तगुणा सिद्ध किया है वैसेही यहाँ परभी सिद्ध करना चाहिए।
* उससे सम्यक्त्वका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्त गुणा है । १. ता प्रतौ णिच्छएण अणं तगुणहीणो त्ति इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुश्रं
२६१ ६४३७. कुदो ? कोधबादरकिट्टिणवकबंधाणुभागं पेक्खिदूण सम्मत्तजहण्णाणुभागस्स फद्दयगदस्स अणंतगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। अणंतगुणहीणकमेण अंतोमुहुत्तकालमणुसमयमोवट्टणाए पत्तघादो सम्मत्ताणुभागो सगजहण्णफयादो किट्टीणमणुभागो व्व हेटा णिवददि दारुसमाणस्सणंतिमभागे लदासमाणफद्दएमु च छहाणाणमभावादो। ण च छहाणेहि विणा अणंतगुणहाणीए घादिज्जमाणाणुभागो फद्दयभावं पडिवजदि, विरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, तत्थ वि अणेयाणं छहाणाणं संभवादो। सम्मत्तस्स बंधाभावे कथं तत्थ छहाणाणं संभवो ? ण, मिच्छत्तकम्मक्खंधारणं विसोहिवसेण घादं पाविदण अणंतगुणहीणाणुभागेण परिणमिय सम्मत्तकम्मभावमुवणमणकाले चेव तेण सरूवेण अवहाणादो। किंच ण देसघादिफहयाणुभागो अणुसमयओवट्टणाए घादिजमाणो सगजहएणफद्दयादो हेटा णिवददि, चारित्तमोहक्ववणाए चदुसंजलगपच्चग्गबंधोदयाणमणुसमयओवट्टणाए घादिज्जमाणाणं पि किट्टित्तपसंगादो। ण च एवं तहाणुवलंभादो ।
* पुरिसवेदस्स जहणणाणुभागो अणंतगुणो। $ ४३८. खवगसेढीए अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि अणंतगुणहीणकमेण
६४३७. क्यों कि क्रोधकी बादर कृष्टि के अन्तमें होनेवाले नरकबन्धके अनभागकी अपेक्षा सम्यक्त्वके जघन्य स्पर्धकमें पाया जानेवाला अनुभाग अनन्तगुणा है. इसमें कोई विरोध नहीं है।
शंका-जैसे प्रतिसमय अनन्तगुणे हीन क्रमसे होनेवाले अपवर्तन घातके द्वारा कृष्टियोंका अनुभाग उत्तरोत्तर हीन होकर नीचे गिरता है वैसेही अन्तर्मुहूर्त कालतक अनन्तगुणे हीन क्रमसे प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा घातको प्राप्त होने पर सम्यक्त्वका अनुभाग अपने जघन्य स्पर्धकसे नीचे गिर जाता है अर्थात् उससे भी कम हो जाता है दारु समानके अनन्तवें भागमें तथा लता समान स्पर्धकोंमें षट्स्थान नहीं होते है और षट्स्थानोंके बिना अनन्तगुण हानिके द्वारा घाता हुआ अनुभाग स्पर्धक अपनेको नहीं प्राप्त हो सकता, क्योंकि ऐसा होने में विरोध है।
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है क्योंकि सम्यक्त्वके अनुभागमें भी अनेक षट्स्थानों का होना संभव है
शंका-जब सम्यक्त्व प्रकृतिका बन्ध ही नहीं होता तो उसमें षट्स्थान कैसे हो सकते हैं।
समाधान-नहीं मिथ्यात्वके कर्मस्कन्ध विशुद्ध परिणामोंके वशसे घाते जाकर अनन्तगणे हीन अनुभागरूपसे परिणमन करके जिस समय सम्यक्त्वकर्मपनेको प्राप्त होते हैं उसी समय वे षट्स्थानरूपसे अवस्थित रहते हैं। दूसरे, देशघातीस्पर्धकोंका अनुभाग प्रति समय अपवर्तनाके द्वारा घाता जाकर अपने जघन्य स्पर्धकसे नीचे नहीं जाता। यदि ऐसा हो तो चारित्रमोहकी क्षपणामें चारो संज्वलकषायोंके नवक बन्ध और उदयके भी प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा घाते जाकर कृष्टि रूपताको प्राप्त होनेका प्रसंग उपस्थित होगा। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता है।
* पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ४३८. शंका-क्षपकश्रेणिमें अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अनन्तगुणे हीन क्रमसे
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ भागविती ४
हाइदूण गदसवेदिचरिमसमय पुरिसवेदावकबंधो कधं सम्मत्तजहण्णाणुभागादो अनंतगुणो, पुरिसवेदणवकबंधस्स अणुसमय ओवट्टणाकालादो सम्मत्त अणुसमयओवट्टरणाकालस्स संखेज्जगुणत्तादो ।
* इत्थवेदस्स जहणाणुभागो अतगुणो ।
४३६. कुदो ? पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागेण विसईकय समयं पेक्खिदूरग हेडा अंतोमुहुत्तमोसरिय द्विदइत्थिवेदुदयाणुभागग्गहणादो । तं जहा, चरिमसमयसवेदेण बद्धपुरसवेदाणुभागो थोवो । तत्थेव तस्सेव वेदस्स उदद्याणुभागो अांतगुणो । तत्तो दुरिमबंधो अनंतगुणो । तत्थेव तदुदओ अनंतगुणो । तत्तो तिचरिमतब्बंधो अंतगुणो । तत्थेव उदओ अनंतगुणो । एदेण कमेण हेहा गंतूण इत्थिवेदजहण्णाणुभागेण विसयीकयसमए पुरिसवेदोदएण खवगसेटिं चढिदस्स पञ्चग्गबंधो उवरिमतदुदयादो अनंतगुणो । तत्थतणो चेव पुरिसवेदोदओ अनंतगुणो । तत्तो इत्थिवेदोदएण खवगसेटिं चडिस्स चरिमसमयउदओ अनंतगुणो, मुम्मुरग्गिसमाणत्तादो । तेण पुरिसवेदणाणुभगादो इत्थवेदजहण्णाणुभागो अनंतगुणोति सिद्धं ।
कम करके सवेद भाग के अन्तिम समय में पुरुषवेदका जो नवकवन्ध प्राप्त होता है वह सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसे अन तगुणा कैसे हो सकता है ? अर्थात् पुरुषवेदका बन्ध पूर्वकरणगुण स्थानके पहले समय से ही अनन्तगुण हीन अनन्तगुण हीन अनुभागको लेकर होता है तब सवेदभाग के अन्तिम समयमें उसका जो नवकबन्ध होता है वह सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसे
कैसे है।
समाधान नहीं, क्योंकि पुरुषवेदके नत्रवन्धका प्रति समय अपवतन घात होनेका जितना काल है उससे सम्यक्त्व के प्रति समय अपवर्तन घात होनेका काल संख्यातगुणा है । अतः सम्यक्त्वके जघन्य अनुभाग से पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुरणा है ।
* उससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
$ ४३९. क्योंकि जिस समय में पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग होता है उससे पीछे एक अन्त मुहूर्त जाकर उदय प्राप्त स्त्रीवेदका जो अनुभाग पाया जाता है उस अनुभागका यहाँ पर ग्रहण किया है। खुलासा इस प्रकार है -- सवेदी जीवके द्वारा अन्तिम समय में पुरुषवेदका जो अनुभाग बँधा है वह थोड़ा है। उससे वहीं पर पुरुषवेदका जो अनुभाग उदयमें आता है वह अनन्त गुणा है। उससे द्विचरम समय में जो अनुभाग बँधता है वह अनन्तगुणा है। उससे वहीं पर पुरुषका जो अनुभाग उदयमें आता है वह अनन्तगुणा है। उससे त्रिचरम समय में होनेवाला पुरुषका अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे वहीं पर उद्यागत अनुभाग अनन्त गुणा है । इस क्रम से पीछे जाकर, जिस समय में स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग होता है उस समय में पुरुषवेदके उदय से क्षक श्रेणि चढ़नेवाले जीवके जो नवीन अनुभागबन्ध होता है वह उससे अगले समय में उदयागत पुरुषवेदके अनुभाग से अनन्त गुणा है। उससे उसी समय में होनेवाला पुरुषवेदका उद्य अनन्त गुणा है । उससे स्त्रीवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि चढ़नेवाले जीवके अन्तिम समय में होनेवाला अनुभागोदय अनन्त गुणा है । क्योंकि स्त्रीवेद कण्डे की अग्नि के समान है । अत: पुरुषवेदके जघन्य अनुभाग से स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, यह सिद्ध हुआ ।
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२६३
गा० २२]
अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं ॐ णवुसयवेदस्स जहएणाणभागो अणंतगुणो। १६४४०. जत्थ इत्थिवेदोदएण खवगसेढिं चढिदस्स जहण्णाणुभागो इत्थिवेदस्स जादो । जदि वि तत्थेव णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चढिदस्स णqसयवेदाणुभागो जहण्णो जादो तो वि अणंतगुणो, इटावग्गिसमाणतादो । तं पि कुदो ? पयडिविसेसादो।
सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागो अणंतगुणो । . ४४१. कुदो ? सव्वघादिवेढाणियत्तादो । णqसयवेदजहण्णाणुभागो जेण
देसघादी एगहाणिओ तेण सव्वघादि-वेढाणियसम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागो अणंतगुणो त्ति भणिदं होदि।
* अणंताणुबंधिमाणजहणणाणुभागो अणंतगुणो ।
४४२. सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागो व्व अणंताणुबंधिमाणाणुभागो सव्वघादी विद्वाणिओ संतो कथमणंतगुणो जादो ? उच्चदे-सम्मामिच्छत्तजहण्णफद्दयप्पहुडि अणंताणुबंधीणं फद्दयरचणा अवहिदा, सव्वघादित्तादो। तेण पढमसमयसंजुत्तस्स जहण्णाणुभागबंधफद्दयाणं रचणा वि सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागफद्दयप्पहुडिं होदि । होती वि
* उससे नपुसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है।
४४०. जिस स्थानमें स्त्रीवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि चढ़नेवाले जीवके स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग होता है, यद्यपि उसी स्थानमें नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकणि चढ़नेवाले जीवके नपुंसक वेदका जघन्य अनुभाग होता है। फिर भी स्त्रीवेदके जघन्य अनुभागसे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि नपुंसकवेद इष्ट पाककी अग्निके समान होता है ।
शंका-नपुंसकवेद इष्ट पाककी अग्निके समान क्यों होता है ? समाधान-क्योंकि वह एक विशेष प्रकृति है। * उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्त गुणा है ।
४४१. क्योंकि वह सर्वघाती और द्विस्थानिक होता है। तात्पर्य यह है कि नपुंसकवेद का जघन्य अनुभाग देशघाती और एकस्थानिक है, और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग सर्वघाती और द्विस्थानिक है, अत: वह उससे अनन्तगुणा है।
8 उससे अनन्तानुवन्धिमानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
६४४२. शंका-सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभाग की तरह सर्वघाती और द्विस्थानिक होता हुआ भी अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा कैसे है ?
समाधान-सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे लेकर अनन्तानुबन्धी कषायोंकी स्पर्धक रचना अवस्थित है, क्योंकि वह सर्वघाती है। अत: अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके प्रथम समयमें जघन्य अनुभागबन्धके स्पर्धकोंकी रचना भी सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागस्पर्धकसे प्रारम्भ होती है। इस प्रकार प्रारम्भ होकर भी अनन्तानुबन्धी कषायोंके जघन्य अनुभाग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मिच्छत्तजहण्णफद्दयादो उवरिमणंताणि फहयाणि गंतूणाणताणुबंधीणं जहण्णाणुभागहाणस्स फद्दयरयणा परिसमप्पदि। कुदो एवं णव्वदे? उवरिमादेसप्पाबहुअसुत्तादो । सम्मामिच्छत्तउक्कस्साणुभांगो पुण मिच्छत्तजहण्णफद्दयाणुभागादो अणंतगुणहीणो; तत्तो हेहिमउव्वंकावहाणादो । सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागो पुणो सगुकस्साणुभागादो अणंतगुणहीणो, संखेजेसु अणंतगुणहाणिकंडएसु पदिदेसु पत्तजहण्णभावादो'। तदो सम्मामिच्छत्तजहण्णाणुभागादो अणंताणुबंधिमाणजहण्णाणुभागो अणंतगुणो ति सिद्धं ।
8 कोधस्स जहरणाणुभागो विसेसाहियो । $ ४४३. केत्तियमेत्तेण ? अणंतफदयमेत्तेण । सेसं सुगमं ।
मायाए जहएणणुभागो विसेसाहियो । ४४४. केत्तियमेत्तो विसेसो ? अणंतफद्दयमेत्तो। ॐ लोभस्स जहएणो अणुभागो विसेसाहियो ।
६४४५. केत्तियमेत्तो विसेसो ? अणंतफद्दयमेत्तो । कदो ? साभावियादो। स्थानके स्पर्धकोंकी रचना मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे ऊपर अनन्त स्पर्धक जाकर समाप्त होती है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-आगे आदेश की अपेक्षा अल्पबहुत्वका प्रतिपादन करनेवाले सूत्रसे जाना।
सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अनुभाग तो मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागस्पर्धकसे अनन्तगुणा हीन है, क्योंकि वह उससे अधस्तन उर्वमें अवस्थित है। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अपने उत्कृष्ट अनुभागसे अनन्तगुणा हीन है, क्योंकि संख्यात अनन्तगुणहानि काण्डकों के होनेपर उसे जघन्यपना प्राप्त होता है। अर्थात् उत्कृष्ट अनुभागमें जब संख्यात अनन्तगुण हानि काण्डक होते है तब वह उत्कृष्ट अनुभाग जघन्यपनेको प्राप्त होता है अत: उससे वह अनन्तगुण हीन है। अत: सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्त गुणा है यह सिद्ध हुआ।
* उससे अनन्तानुवन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है।
४४३. शंका-अनन्तानुबन्धी मानके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग कितना अधिक है ?
समाधान-अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है। शेष सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धि मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। $ ४४१. शंका-कितना अधिक है। समाधान-अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है। * लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। $ ४४५. शंका-कितना विशेष अधिक है ? समाधान-अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है ? क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। १. प्रा० प्रतौ पत्तजहण्णामावादो इति पाठः ।
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गा० २२ ) . अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं
२६५ * हस्सस्स जहरणाणुभागो अणंतगुणो।
४४६. कुदो' ? पुन्विल्लस्स पच्चग्गबंधत्तादो। खवगसेढीए अणंतगुणहाणिकमेण संखेजवारं पत्तघादहस्साणुभागादो अणंताणुबंधिलोभजहण्णाणुभागो कथमणंतगुणहीणो ? ण, हस्सस्स अणंतगुणहाणिवारेहितो अणंताणुबंधिलोभाणुभागबंधस्स अणंतगुणहाणिवाराणमसंखेज्जगुणत्तादो। तं जहा-मुहुमअणंताणुबंधिलोभसव्वजहण्णाणुभागबंधादो तप्पाओग्गविसुद्धवादरेइंदियस्स अणंताणुबंधिलोभजहण्णाणुभागबंधो पढमसमइओ अणंतगुणहीणो । विदियसमए तस्सेव जहण्णाणुभागबंधो तत्तो अणंतगुणहीणो । एवं णेदव्वं जाव उवरि अंतोमुहुत्तं गंतूण हिदसव्वविसुद्धबादरेइंदियचरिमसमयउक्स्सविसोहीए बदलोभजहण्णाणुभागबंधो ति । तत्तो तप्पाअोग्गविसुद्धवेइंदियजहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणहीणो। एवं विदियसमयप्पहुडि अंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए णेदव्वं जाव सव्वविसुद्धवेइंदिएण बद्धजहण्णाणुभागबंधो ति । एवं तेइंदिय-चउरिंदिय-असण्णिपंचिदिएसु पादेक्कमंतोमुहुत्तकालमणंतगुणहीणाए सेढीए
* उससे हास्यका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है।
४४६. क्योंकि अनन्तानुबन्धी लोभका नवीन अनुभागबन्ध है इसलिए उसका हास्यसे जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है।
शंका-क्षपक श्रेणीमें अनन्तगुणहानिक्रमसे संख्यातबार घातको प्राप्त हुए हास्यके अनुभागसे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा हीन कैसे है ? ।
समाधान-नहीं, क्योंकि हास्यमें जितनीबार अनन्तगुणहानि होती है उन बारोंसे अनन्तानुबन्धी लोभके अनुभागबन्धमें अनन्तगुणहानि होनेके बार असंख्यातगुणे हैं। खुलासा इस प्रकार है-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके अनन्तानुबन्धी लोभका जो सबसे जघन्य अनुभागबन्ध होता है उससे अपने योग्य विशुद्ध परिणामवाले बादर एकेन्द्रियके प्रथम समयमें अनन्तानुबन्धी लोभका जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है वह अनन्तगुणा हीन है। दूसरे समयमें उसो बादर एकन्द्रिय जीवके जो जघन्य अनुभागबन्ध हाता है वह प्रथम समयमें होनेवाले अनुभागबन्धसे अनन्तगुणा हीन है। इस प्रकार इस क्रमसे ऊपर एक एक समय बढ़ाते बढ़ाते अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय बिताकर स्थित हुए सबसे विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके अन्तिम समयमें होनेवाली उत्कृष्ट विशुद्धिसे बाँधे गये लोभके जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त ले जाना चाहिये। सबसे विशुद्ध बादर एकेन्द्रियके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट विशुद्धिसे लोभका जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है उससे अपने योग्य विशुद्ध परिणामी दो इन्द्रिय जीवके प्रथम समयमें होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा हीन है। इसी प्रकार दूसरे समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त प्रमाण समय बिताकर स्थित हुए सबसे विशुद्ध दो इन्द्रिय जीवके द्वारा बाँधे गये जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त अनन्तगणी हीन श्रेणिरूप से ले जाना चाहिये । अर्थात् उक्त प्रकारके दो इन्द्रियके प्रथम समयमें होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धसे दूसरे समयमें होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। उससे तीसरे समय में होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगणा हीन है। इसी प्रकार आगे भी अन्तिम समय पर्यन्त जानना चाहिए। इस प्रकार तेइन्द्रिय, चौइन्द्रिय और असंक्षिपञ्चेन्द्रियों से प्रत्येक
1. ता० प्रतौ कुदो इति पाठो नास्ति । २. आ. प्रतौ अणंतगुणा एवं इति पाठः । ३. प्रा० प्रतौ भयंतगुणाए सेढीए इति पाठः ।
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२६६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ अणुभागविहत्ती ४ अणुसंधिय णेदव्वं जाव असण्णिपंचिंदियसव्वुक्कस्सविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागबंधो त्ति। पुणो असण्णिपंचिंदियचरिमविसोहीए बद्धजहण्णाणुभागबंधादो तप्पाओग्गविसुद्धसण्णिपंचिंदिएण पढमसमयसंजुत्तेण बद्धजहण्णाणुभोगो अणंतगुणहीणो त्ति । एदासि पंचएहमद्धाणं जत्तिया समया तत्तिया चेव जेण अणंतगुणहाणिवारा तेण तत्तो असंखेज्जगुणत्तं सिद्धं । हस्साणुभागस्स अंतरकरणे कदे पच्छा सुहुमणिगोदजहण्णाणुभागेण सरिसत्तमुवगयस्स अणतगुणहाणिवारा असंखेज्जा किरण होंति ?ण, हस्साणुभागसंतस्स अणुसमोवट्टणाए अभावादो। ण च कंडयघादेण समुप्पण्णअणंतगुणहाणीणं वारा असंखेज्जा अत्थि, खवगसेढिअद्धाए असंखेज्जअणुभागकंडयउक्कीरणद्धाणमभावादो।
ॐ रदीए जहएणाणुभागो अणंतगुणो।
४४७. कुदो ? पयडिविसेसेण संसारावत्थाए अणंतगुणकमेण अवडाणादो । ॐ दुगुंछाए जहणणाणुभागो अणंतगुणो । $ ४४८. कुदो ? पयडिविसेसादो । * भयस्स जहणणाणुभागो अणंतगणो ।
४४६. सुगमं । प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त, अनन्तगुणहीन गुणश्रेणि क्रमसे होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धको असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे बांधे गये जघन्य अनुभागबन्ध पर्यन्त ले जाना चाहिये। पुन: असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके अन्तिम विशुद्धिसे बाँधे गये जघन्य अनुभागबन्धसे तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणामवाले संज्ञी पञ्चेन्द्रियके द्वारा संयुक्त होनेके प्रथम समयमें बांधा गया जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा हीन होता है। एकेन्द्रियसे लेकर पञ्चन्द्रिय पर्यन्त इन पाँचों अन्तर्मुहूतोंके जितने समय होते हैं यतः उतने ही अनन्तगण हानिके बार है अतः हास्यकी अनन्तगुण हानिके बारोंसे अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभागबन्धकी अनन्तगुण हानिके बार असंख्यातगुणे हैं यह सिद्ध हुआ।
शंका-हास्यके अनुभागका अन्तरकरण करने पर पीछे वह अनुभाग सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य अनुभागके समान हो जाता है, अत: उसकी अनन्तगुणहानिके बार असंख्यात क्यों नहीं होते ?
समाधान नहीं, क्योंकि हास्यके अनुभागसत्कर्मका प्रति समय अपवर्तनघात नहीं होता है। और काण्डकघातसे उत्पन्न अनन्तगुणहानिके बार असंख्यात हो नहीं सकते, क्योंकि क्षपकश्रेणि के कालमें असंख्यात अनुभागकाण्डकोंके उत्कीरण कालका अभाव है।
* उससे रतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। (६४४७. क्योंकि प्रकृति विशेष होनेके कारण संसार अवस्थामें रतिकर्म अनन्तगुणरूपसे अवस्थित है।
* उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
४४८. क्योंकि जुगुप्सा भी एक प्रकृति विशेष है। * उससे भयका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ६४४९. यह सूत्र सुगम है।
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अणुभावहत्तीए अप्पा बहुअं
* सोगस्स जहण्णाणुभागो अयंतगुणो ।
४५०. सुगमं ।
* अरदीए जहण्णाणुभागो अतगुणो ।
९४५१. एदेसिं छण्णोकसायाणं जदि वि एक्कम्मि चैव द्वाणे जहण्णमणुभागसंतकम्मं जाएं तो वि अण्णोष्ण पेक्खिऊण अनंतगुणा जादा, पयडिविसेसादो । महल्लाणुभागाणं महल्ले अणुभागखंडए पदिदे वि अवसेसाणुभागो खवगसेढीए वि अतगुणकमेव चेदि त्ति भणिदं होदि ।
गा० २२
* अपच्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागो अांतगुणो ।
६४५२. कुदो ? सुहुमणिगोदेसु पत्तजहण्णाणुभागत्तादो । खवगसेढीए अट्ठकसायाणं जहण्णसामित्तं किण्ण दिण्णं १ अंतरकरणे अकदे चैव विद्वत्तादो। अंतरकरणे कदे जाणि कम्माणि अच्छंति तेसिमणुभागसंतकम्मं मुहुमेइंदियसव्वजहण्णाणुभागसंतकम्मादो अतगुणहीण होदि, ण अण्णेसिमिदि भणिदं होदि ।
* कोधस्स जहणाणुभागो विसेसाहियो । ४५३. केत्तियमेत्तेण ? अनंतफद्दयमेत्तेण ।
* उससे शोकका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । ४५०. यह सूत्र सुगम है ।
* उससे अरतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
$ ४५१, यद्यपि इन छ नोकषायों का जघन्य अनुभागसत्कर्म एक ही स्थानपर हो जाता है तो भी एक दूसरे को देखते हुए अनन्तगुणा है, क्योंकि प्रत्येक प्रकृति भिन्न है । तात्पर्य यह है कि बड़े अनुभागों का बड़े अनुभाग काण्डकों में क्षेपण कर देने पर भी वाकी बचा हुआ अनुभाग क्षपक श्र ेणीमें भी अनन्तगुणे रूपसे ही स्थित रहता है ।
२६७
..
* उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
$ ४५२, क्योंकि सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमें उसका जघन्य अनुभाग पाया जाता है । अर्थात् छ नोकषायोंका जघन्य अनुभाग क्षपकश्रेणी में पाया जाता है और अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग सूक्ष्म निगोदियाके पाया जाता है, अतः वह अनन्तगुणा है ।
शंका- आठ कषायोंका जघन्य स्वामित्व क्षपकश्रेणी में क्यों नहीं दिया ?
९ ४५३ शंका - कितना अधिक है ? समाधान - अनन्त स्पर्धकमात्र अधिक है।
समाधान - क्योंकि अन्तरकरण किये बिना ही आठों कषाय नष्ट हो जाती हैं । तात्पर्य यह है कि अन्तरकरण करनेपर जो कर्म रहते हैं उनका अनुभागसत्कर्म सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके सबसे जघन्य अनुभागसत्कर्मसे अनन्तगुणा हीन है, अन्यका नहीं ।
* उससे अप्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है।
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२६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ . * मायाए जहएणाणुभागो विसेसाहिओ। ४५४. सुगमं । * लोभस्स जहएणाणुभागो विसेसाहित्रो। ४५५. सुगमं । * पच्चक्खाणमाणस्स जहएणाणुभागो अणंतगुणो।
४५६. कुदो ? देससंजमघादिअपच्चक्खाणावरणाणुभागादो पञ्चक्रवाणावरणाणुभागस्स अणंतगुणत्ताभावे तस्स देससंजमादो अणंतगुणसयलसंजमघाइताणुववत्तीदो ।
® कोधस्स जहरणाणुभागो विसेसाहियो । { ४५७. केत्तियमेत्तेण ? अणंतफद्दयमेतेण । * मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहियो । ४५८. सुगमं । * लोभस्स जहएणाणुभागो विसेसाहिओ। ४५६. सुगमं । * मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहियो ।
४६०. पञ्चक्खाणावरणाणुभागादो मिच्छत्ताणुभागेण समाणेण होदव्वं, सव्व * उससे अप्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। ६४५४. यह सूत्र सुगम है । * उससे अप्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। ६४५५. यह सूत्र सुगम है। * उससे प्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है ।
६४५६. क्योकि देशसंयमके घाती अप्रत्याख्यानावरण कषायके अनुभागसे प्रत्याख्यानावरण कषायका अनुभाग यदि अनन्तगुणा न हो तो वह देशसंयमसे अनन्तगुणे सकलसंयमका घाती नहीं हो सकता है।
* उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। ४५७ शंका-कितना अधिक है ? समाधान-अनन्त स्पर्धक मात्र अधिक है। * उससे प्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। $ ४५८. यह सूत्र सुगम है। * उससे प्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। ४.९. यह सूत्र सुगम है। * उससे मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। ६४६०. शंका-मिथ्यात्वका अनुभाग प्रत्याख्यानावरणके अनुभागके समान होना चाहिए,
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१. ता. प्रा. प्रत्योः अणंतफयमेरोण इति स्थाने पयडिविसेसेण इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं
२६९ दव्वपज्जयविसयसम्मत्त-संजमघादित्तणेण दोण्हं समाणत्तुवलंभादो त्ति ? ण एस दोसो, सत्तिं पडुच्च अणंतगुणत्तं पडि विरोहाभावादो। कज्जव्वारेण दोण्हमणुभागाणं समाणत्ते संते सत्तीए सगकजमकुणंतीए अत्थित्तं कुदो णव्वदे ? पमेयादो सव्वपज्जयस्स अणंतगुणत्तं व जिणवयणादो णव्वदे।
8 णिरयगईए जहण्णयमणुभागसंतकम्मं । ६ ४६१. सुगममेदं, अहियारसंभालणहत्तादो । ® सव्वमंदाणुभागं सम्मत्त ।
४६२. कुदो ? अणुसमयमोवट्टणकुणंतुप्पण्णकदकरणिजचरिमसमयसम्मताणुभागस्त गुणसेढिचरिमणिसेगावहिदस्स गहणादो ।
* सम्मामिच्छत्तस्स जहएणाणुभागो अणंतगुणो।
४६३. कदो ? सव्वघादिविहाणियत्तादो। सम्मत्तजहण्णाणुभागो वि सव्वघादी विद्याणियो ति णासंकणिज्जं, तस्स देसघादिएगहाणियत्तादो। कथमेत्थ सम्मामिच्छत्तकस्साणुभागस्स जहण्णववएसो त्ति णासंकणिज्जं, ववएसिवब्भावमस्सिऊण तस्स तव्ववएसोववत्तीदो। क्योंकि मिथ्यात्व सबद्रव्य और पर्यायोंको विषय करनेवाले सम्यक्त्वका घातक है और प्रत्याख्यानावरण कषाय सब द्रव्य-पर्यायविषयक संयमका घातक है, अत: दोनोंमें समानता पाई जाती है।
समाधान-यह दोष ठीक नहीं है क्योंकि शक्तिकी अपेक्षा प्रत्याख्यानावरणके अनुभागसे मिथ्यात्वके अनुभागके अनन्तगुणे होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-कार्यकी अपेक्षा जब दोनों कर्मोंका अनुभाग समान है तो मिथ्यात्वमें उस शक्तिका अस्तित्व कैसे जाना जा सकता है जो कि अपना कार्य ही नहीं करती है।
समाधान-जैसे जिनवचनसे पदार्थो से उनकी सब पर्यो का अनन्तगुणत्व जाना जाता है उसी प्रकार उसी जिनवचनसे यह भी जाना जाता है।
* अब नरकगतिमें जघन्य अनभागसत्कर्मको कहते हैं। ४६१. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि अधिकार की सम्हाल करना इसका कार्य है।
सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अनुभाग सबसे मन्द है।
४६२. क्योंकि यहाँ पर प्रति समय अपवर्तन घातके करनेसे कृतकृत्य वेदक सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वका जो अनुभाग उत्पन्न होता है अर्थात् शेष बचता है जो कि गुण श्रेणिके अन्तिम निषेकमें अवस्थित है, उसका ग्रहण किया है।
* उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है
६४६३. क्योंकि वह सर्वघाती और विस्थानिक है। सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग भी सर्वघाती और द्विस्थानिक है ऐसी आशंका करना ठीक नहीं है, क्योंकि वह देशघाती और एकस्थानिक है। चूर्णिसूत्र में सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागका जघन्य शब्दसे व्यपदेश क्यों किया ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि व्यपदेशिवद्भाव की अपेक्षा उत्कृष्टका जघन्य
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२७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ * अणंताणुबंधिमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो ।
४६४. सम्मामिच्छत्तुक्कस्सफद्दयाणुभागादो अणंतगुणो होदूणावहिदमिच्छत्तजहण्णफद्दएण समाणं होदूण पुणो उवरि वि अणंतेसु फद्दएमु अणंताणुबंधिमाणाणुभागस्स फद्दयरयणाए उवलंभादो। ण च संजुत्तपढमसमए बज्झमाणजहण्णाणुभागो' जहण्णेगफद्दयमेतो, असंखेजलोगमेत्तछटाणसहियस्स एगफद्दयत्तविरोहादो।
* कोधस्स जहएणाणुभागो विसेसाहिंयो। ४६५. सुगमं । * मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। ४६६. सुगमं ।
लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहियो । ४६७. सुगम। * सेसाणि जधा सम्मादिट्टीए बंधे तधा णेदव्वाणि ।
४६८. एदस्स अत्थो वुच्चदे, तं जहा–सम्मादिहिअणुभागबंधस्स जहा शब्दसे व्यपदेश हो सकता है अर्थात् उत्कृष्ट में जघन्यपनेका आरोप करके उत्कृष्ट को जघन्य कह दिया है।
* उससे अनन्तानबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है।
६४६४. क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट अनुभागस्पर्धकोंके अनुभागसे अनन्तगुणा होकर अवस्थित हुए मिथ्यात्वके जघन्य स्पर्धकसे समान होकर पुनः आगे भी अनन्त स्पर्धकोंमें अनन्तानुबन्धी मानके अनुभागकी स्पर्धक रचना पाई जाती है, अत: सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य अनुभागसे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। शायद कहा जाय कि अनन्तानुबन्धीका पुनः संयोजन होनेके प्रथम समयमें बँधनेवाला जघन्य अनुभाग जघन्य एक स्पर्धकमात्र है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जो अनुभाग असंख्यात लोक मात्र षट्स्थान सहित है उसके एक स्पर्धक मात्र होनेमें विरोध है।
* उससे अनन्तानुबन्धी क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । $ ४६५ यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है ।
४६६. यह सूत्र सुगम है। * उससे अनन्तानुबन्धी लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है । $ ४६७. यह सूत्र सुगम है।
* शेष कर्मोंका जैसे सम्यग्दृष्टिके बन्धमें अल्पबहुत्व है वैसे ही यहाँ भी जानना चाहिये।
६ ४६८. इस सूत्रका अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सम्यग्दृष्टि के अनुभागबन्धका १. ता. प्रतौ जहण्णाणुभागे ( गो ), श्रा० प्रतौ जहएणाणुभागेण इति पाठः ।
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्ती अप्पाबहु
२७१
०
अप्पा हु परुविद तहा एत्थ वि परूवेयव्वं अविसेसादो। संपहि बंधप्पा बहुआ दो थोवयरविसेसाणुविद्धं संतकम्ममप्पा हुअमेवमणुगंतव्वं । तं जहा -- अनंताणुबंधिलोभजहण्णाणुभागस्सुवरि हस्सजहण्णाणुभागों अनंतगुणो, असण्णिपच्छायदणेर इयहदसमुप्पत्तियजहण्णाणुभागग्गहणादो । रदीए जहण्णाणुभागो अनंतगुणो । पुरिस० जहण्णाणुभागो अनंतगुणो । इत्थि० जहण्णाणुभागो अनंतगुणो । दुगंछा जहण्णाणुभागो अनंतगुण । भय० जह० अनंतगुणो । सोग ० जह अनंतगुणो । अरइ० जह० अनंतगुणो । णवंसयवेदस्स जह० अनंतगुणो । अपच्चक्खाणमाण० जह० अनंतगुणो । कोह० जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । माया० जह० विसे० । लोभ० जह० विसे० । पच्चक्खाणमाण० जहाणुभागो अनंतगुणो । कोह० जह० विसेसाहियो । माया० जह० विसे० । लोभ० जह० विसे० । माणसंजलण० जहणाणुभागो अनंतगुणो । कोहसंजल० जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । मायासंज० जह० विसे० । लोभसंज० जह० विसे० । मिच्छत्तजहएणाणुभागो अनंतगुणो । एवं चुणिमुत्तमस्सिदूण जहण्णाणुभागस्स अप्पाबहुअपरूवणं करिय संपहि उच्चारणमस्सिऊण परूवेमो |
1
जिस प्रकार अल्पबहुत्व कहा है उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये, क्योंकि दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । फिर भी अनुभागबंधके अल्पबहुत्वसे थोड़ी सी विशेषताको लिये हुए अनुभागसत्कर्म क अल्पबहुत्व जानना चाहिये । यथा - अनन्तानुबन्धी लोभके जघन्य अनुभाग के ऊपर हास्यका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि यहाँ असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय से आकर उत्पन्न हुए नारकी के हतसमुत्पत्तिक जघन्य अनुभागका ग्रहण किया है। उससे रतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे जुगुप्साका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे भयका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे शोकका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे अरतिका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे नपुंसक वेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे अप्रत्याख्यानावरण माया का जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे प्रत्याख्यानावरण क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरण मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरण लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे संज्वलन मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे संज्वलन क्रोधका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे संज्वलन मायाका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे संज्वलन लोभका जघन्य अनुभाग विशेष अधिक है। उससे मिथ्यात्व का जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । इस प्रकार चूर्णिसूत्र के आश्रयसे जघन्य अनुभागके अल्पबहुत्वका कथन करके अब उच्चारणाका आश्रय लेकर कथन करते हैं ।
१ ता० प्रा० प्रत्योः तं कथं इति स्थाने तं जहा इति पाठः ।
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२७२
जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४६६. जहएणए पयदं। दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघमस्सिदूण भएणमाणे जहा चुण्णिसुत्ते परूपणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो । एवं मणुसतियस्स । णवरि मणुसपज्जत्तप्पाबहुए भएणमाणे पुरिसवेदजहण्णाणुभागस्सुवरि णवंसय० जहरणाणुभागो अणंतगुणो। सम्मामि० जह० अणंतगुणो । अणंताणुबंधिमाण० जहणणाणुभागो अणंतगुणो । कोधे० विसेसा० । मायाए विसे० । लोहे० विसे० । तदो हस्सादिपरिवाडीए छण्णोकसाया जहाकममणंतगुणा होऊण पुणो इत्थि० जहएणाणुभागो अणंतगुणो। कुदो ? चरिमाणुभागखंडए जादजहएणाणभागत्तादो । अपच्चक्रवाणमाणजहएणाणभागो अणंतगुणो। सेसं पुव्वं व। मणुसिणीसु सम्मत्तजहएणाणभागस्सुवरि इत्थि. जहण्णाणभागो अणंतगुणो । सम्मामि० जह० अणंतगुणो। अणंताणुबंधिमाण० जह० अणंतगुणो। कोहे० विसे० । मायाए विसे० । लोहे. विसे० । तदो छण्णोकसायहस्सादिपरिवाडीए जहाकममणंतगुणा होऊण पुणो पुरिस० जहणाणुभागो अणंतगुणो । णवूस० जह० अणंतगुणो । अपच्चक्खाणमाण० जह० अणंतगुणो । उवरि णत्थि विसेसो ।
४७०. आदेसेण णिरयगईए गैरइएमु जहा चुण्णिसुत्तम्मि जेरइअोघप्पाबहअपरूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसेसाभावादो। एवं पढमपुढवि०-तिरि
९४६९. जघन्यके कथनका अवसर है। निर्देश दो प्रकारका है-श्रोध और आदेश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कथन करने पर जैसा चूर्णिसूत्र में कथन किया है वैसा ही यहाँ भी करना चाहिये। उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त
और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। किन्तु मनुष्यपर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्वका कथन करते हुए इतना विशेष जानना चाहिए कि पुरुषवेदके जघन्य अनुभागसे आगे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है । उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे क्रोधका विशेष अधिक है। उससे मायाका विशेष अधिक है। उससे लोभका विशेष अधिक है। उससे हास्य आदिके क्रमसे छ नोकषायोंका जघन्य अनुभाग क्रमानुसार अनन्तगुणा अनन्तगुणा होता हुआ पुनः स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि उसका अन्तिम अनुभागकाण्डकमें जघन्य अनुभाग प्राप्त होता है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। शेष पूर्ववत जानना चाहिए । मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्वके जघन्य अनुभागसे आगे स्त्रीवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। उससे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । उससे अनन्तानुबन्धी मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे क्रोधका विशेष अधिक है। उससे मायाका विशेष अधिक है । उससे लाभका विशेष अधिक है। उससे हास्य आदिके क्रमसे छह नोकषायों का जघन्य अनुभाग क्रमानुसार अनन्तगुणा होता हुआ पुनः पुरुषवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगणा है। उससे नपुंसकवेदका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है। उससे अप्रत्याख्यानावरण मानका जघन्य अनुभाग अनन्तगुणा है । आगे कोई विशेषता नहीं है।
४७०. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें जैसे चूर्णिसूत्र में सामान्य नारकियोंमें अल्पबहुत्वका कथन किया है वैसा ही यहाँ भी करना चाहिये, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
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गा० २२
अणुभागविहत्तीए भुजगारसमुक्कित्तणा
२७३
क्खोघं पंचिदियतिरिक्खदुग -[ देव ] सोहम्मादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० जहणणं णत्थि । एवं पंचितिरि० जोणिणी- पंचि०तिरि० अपज्ज० - मणुस अपज्ज० भवण० वाण० जोइसिए ति । एवमप्पा बहुआणुगमो समत्तो । * जहा बंधे भुजगार --पदणिक्खेव बड्डीओ तहा व्वाओं ।
संतकम्मे वि काय
$ ४७१. अणुभागबंधे जहा भुजगार - पदणिक्खेव-वडीणं परूवणा कदा तहा एत्थ वि कायव्वा, विसे साभावादो । एवं चुरिणमुत्तेण सुइदअत्थाणं उच्चारणमस्तिदू परूवणं कस्सामो । भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति - समुत्तिणादि जाव अप्पाबहुए ति । तत्थ समुक्कित्तणाए दुविहो दिसो - ओघेण देण य । ओघेण मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० अत्थि भुज०अप्पदर० - अवदि० । सम्मत्त० सम्मामि० अस्थि अप्पदर अवढि ०-अवत्तव्व० । अणंताणु ० चक्क० अत्थि भुज० - अप्पदर० - वडि० - अवत्तव्व ० 1
0
$ ४७२. आदेसेण णेरइएस सत्तावीसपयडीणमोघं । सम्मामि० अस्थि अवि अवत्तव्व । एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय- देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वका जघन्य अनुभाग नहीं होता। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए |
इस प्रकार अल्पबहुत्वानुगम समाप्त हुआ ।
* जैसे बन्धमें भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन किया वैसे ही सत्ता में भी करना चाहिये ।
६४७१. अनुभागबन्धमें जैसे भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धिका कथन किया है वैसे ही यहाँ भी करना चाहिये, दोनोंमें कोई विशेष नहीं है । इस प्रकार चूर्णिसूत्र से सूचित अर्थका उच्चारणाका आलम्बन लेकर कथन करते हैं । भुजकार विभक्तिमें ये तेरह अनुयागद्वार जानने चाहिये - समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त । उनमें से समुत्कीर्तना की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - घ और आदेश । श्रघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नाकपायों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियां होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तियाँ होती हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्क की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तियाँ होती हैं ।
९ ४७२. आदेश से नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियों की ओघ के समान विभक्तियाँ होती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियाँ होती हैं । इसी प्रकार पहली प्राथवा, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे
१. आ० प्रतौ कायण्वो इति पाठः ।
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२७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
णवरि सम्मत्तस्स
विदियादि जाव सत्तमिति एवं चेव । पंचिंदियतिरिक्ख जोणिणी-भवण ० - वाण ० - जोइसिए ति ।
| ४७३. पंचिदियतिरिक्ख अपज्ज० -- मणुस अपज्जत्तएसु छब्बीसं पयडीणमत्थि भुज ० -- अप्पदर० -- अवधि ० | सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणमत्थि अवद्विदं । मणुसतियस्स ओघभंगो | आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमत्थि अवद्वि० - अप्पदर० । सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणं देवोघभंगो । अनंताणु ० चउक्क० अस्थि भुज ० - अप्पदर०अवहि० - अवत्तव्व० । अणुद्दिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति सत्तावीसं पयडीणमत्थि अपदर० - अवद्वि० । सम्मामि० अत्थि अवद्विदविहत्तिया । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारिति ।
[ अणुभागविहत्ती ४
सम्मामिच्छत्तभंगो । एवं
लेकर सहस्रार तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि यहाँ सम्यक्त्वका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व की तरह होता है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए ।
१४७३. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्ति होती है । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें ओघ के समान भंग है । श्रत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियों की अवस्थित और अल्पतरविभक्तियाँ होती हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सामान्य देवोंके समान भंग है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क की भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियाँ होती हैं । अनुदि लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियों की अल्पतर और अवस्थित विभक्तियाँ होती हैं । सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्ति होती है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त जाना चाहिये ।
1
विशेषार्थ - घसे वक्तव्यविभक्ति सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी में ही होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन होकर पुनः उसका सत्र हो जाता है । तथा शेष दोनों प्रकृतियों का भी अनादि मिथ्यादृष्टिके असत्त्व होता है और सम्यक्त्वके होने पर सत्त्व हो जाता है । तथा सादि मिध्यादृष्टि के भी उद्वेलना कर देने पर इनका असत्त्व हो जाता है और सम्यक्त्वके होने पर पुनः सत्त्व हो जाता है अन्य प्रकृतियोंमें यह बात नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियों में भुजकारविभक्ति नहीं होती, क्योंकि इनका जो अनुभाग रहता है दर्शनमोह के क्षपण कालमें वह घट तो जाता है, किन्तु बढ़ता कभी भी नहीं है, क्योंकि ये बन्ध प्रकृतियां नहीं हैं। आदेशसे नारकियोंमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अल्पतरविभक्ति नहीं होती, क्योंकि वहाँ दर्शनमोह का क्षपण नहीं होता । सम्यक्त्व प्रकृति में कृतकृत्यवेदक की अपेक्षा अल्पतर विभक्ति वहाँ होती है । जहाँ कृतकृत्यवेदक जन्म नहीं लेता, जैसे दूसरे आदि नरक और भवनत्रिक वहाँ सम्यक्त्व प्रकृति में भी अल्पतरविभक्ति नहीं होती । मनुष्य अपर्याप्त और तिर्यश्व पर्याप्तको में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अवक्तव्य विभक्ति भी नहीं होती, क्योंकि वहाँ सम्यक्त्व उत्पन्न नहीं होता । श्रनत से लेकर उपरिम ग्रैवेयक पर्यन्त अनन्तानुबन्धी कषाय में तो भुजकार विभक्ति होती है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीका विसंयोजक मित् पुनः उसका संयोजन करने पर अनुभाग को बढ़ाता है किन्तु अन्य किसी भी प्रकृति में भुजगार
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारसामित्तं
२७५ $ ४७४. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. भुज० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छाइ हिस्स । अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णदर० सम्मादिहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं अप्पदर०-अवत्तव्व० कस्स ? सम्माइहिस्स। अवहिद० अण्णद० सम्मादिहिस्स मिच्छाइहिस्स वा । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवत्तव्व० कस्स ? मिच्छादिहिस्स।
$ ४७५. आदेसेण णेरइएमु सत्तावीसंपयडीणमोघभंगो । सम्मामि० अवहि०अवत्त व्व० ओघभंगो। एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी--भवण.--वाण०--जोदिसिए ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०--मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं भुज०-अप्पदर०-अवहि० सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमवहि० कस्स ? अण्णद० मिच्छादिहिस्स । मणुसतियस्स ओघभंगो । आणदादि जाव णवगेवज्जा ति मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० अप्पद०-अवहि० ओघं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त० देवोघं । अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवत्तव्व. कस्स ? मिच्छाविभक्ति नहीं होती और अनुदिश से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक तो केवल दो ही विभक्तियाँ होती हैं अल्पतर और अवस्थित।
६४७४. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजकारविभक्ति किसके होती है ? किसी एक मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अल्पतर और अवस्थित विभक्ति किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? सम्यग्दृष्टि जीवके होती है। अवस्थितविभक्ति किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वकी तरह है। इतना विशेष है कि अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? मिध्यादृष्टिके होती है।
६४७५. आदेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका ओघ के समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग अोधके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भजगार, अल्पतर और अवस्थित तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें ओघके समान भंग है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रेवेयक तकके देवों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायों की अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व का भंग सामान्य देवोंकी तरह है। अनन्तानुबन्धी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे । अणुभागविहत्ती ४ इहिस्स ? सेसपदाणमोघभंगो । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति सत्तावीसंपयडीणमप्पदर०-अवहि० सम्मामि० अवहि० कस्स ? अण्णद० । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
४७६. कालाणुगमेण दुविहो णिदे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्तअहकसाय--अहणोक० भुज ज० एगसमओ, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्तव्व. जहण्णुक्क० एगस० । सम्मत्त० अप्पदर० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । सम्मामि० अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस०, दोण्हं पि अवहि. ज. अंतोमु०, उक्क० वेलावहिसागरो० तीहि पलिदोवमस्स असंखे. भागेहि सादिरेयाणि । दोण्हं पि अवत्तव्य. जहण्णुक्क० एगस० । चदुसंज. भुज०अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहि० मिच्छत्तभंगो, धुवबंधित्तादो । सम्मादिहिम्मि णिरंतरं बज्झमाणचदुसंजलणाणमणुभागस्स कथमवहिदत्तं, अणुभागखंडयचतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्य विभक्तियां किसके होती हैं ? मिथ्यादृष्टिके होता हैं। शेष पदोंका भंग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर और अवस्थित विभक्ति तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसीके भी होती है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर विभक्ति दर्शनमोहके क्षपकके होती है और अवक्तव्य विभक्ति प्रथमोपशमसम्यग्दृष्टिके होती है, अतः दोनों विभक्तियाँ सम्यदृष्टिके बतलाई हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके मिथ्यात्वमें आकर पुनः संयोजन करनेवाले के होती है अतः उसका स्वामी मिथ्यादृष्टि को बतलाया है। शेष बाईस प्रकृतियों की भुजगार विभक्ति तो मिथ्यादृष्टिके ही होती है, क्योंकि इनका अनुभाग मिथ्यादृष्टि ही बढ़ा सकता है। और अल्पतर तथा अवस्थित विभक्ति सम्यग्दृष्टि के भी होती है और मिथ्यादृष्टिके भी। इसी प्रकार आदेशसे भी लगा लेना चाहिये।
४७६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी भुजकारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्योपमका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका काल जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्परविभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतरविभक्ति का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। दोनों ही प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्योपमके तीन असंख्यातवें भाग अधिक दो छियासठ सागर है। दोनों ही प्रकृतियोंकी अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चार संज्वलनोंकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है, क्योंकि संज्वलन कषाय ध्रुवबन्धी है।
शंका-सम्यग्दृष्टि में निरन्तर बँधनेवाली चारों संज्वलन कषायोंका अनुभाग अवस्थित
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो
ওও घादाभावेण सगाणुभागसंतादो उवरि बंधेणाणुभागफद्दयवुड्डीए वि अभावादो च । सरिसधणियपरमाणुअणुभागे बंधमस्सिदृण वडमाणे अधडिदिगलणाए गलमाणे च कथमवहिदत्तं संभवइ ? ण, अणुभागहाणस्स दव्वहियणयावलंवणाए चरिमफद्दयचरिमवग्गणेगपरमाणुम्हि अवडिदस्स सगंतोक्खित्तसरिसधणियाणुभागत्तणेण अणोसारियअणुभागकंडयफालिस्स अवहाणविरोहादो । एवं पुरिस । णवरि अप्पद० ज० एगस०, उक्क० दो आवलियारो समऊणाओ। कैसे है ?
समाधान-एकतो वहाँ अनुभागका काण्डक घात नहीं होता है, दूसरे उसके जो अनुभाग की सत्ता होती है उससे ऊपर बन्धके द्वारा अनुभाग स्पर्धकों की वृद्धि नहीं होती, इसलिए वहाँ संज्वलन कषायोंके अनभागका अवस्थितपना बन जाता है।
शंका-बन्ध की अपेक्षा समान धनवाले परमाणुओंके अनुभागकी वृद्धि होते हुए और अधःस्थितिगलनाके द्वारा उसका गलन होने पर अवस्थितपना कैसे संभव है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग अवस्थित है और अपने भीरत सदृश धनवाले परमाणुओंके अनुभाग को गर्भित कर लेनेसे जिसके अनुभागकाण्डकोंकी फालियोंका अनुभाग अपसारित नहीं हुआ है उसका अवस्थान होने में कोई विरोध नहीं है।
इसी प्रकार पुरुषवेदका जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक समय कम दो आवली है।
विशेषार्थ-एक जीवके अनुभाग की लगातार वृद्धि कमसे कम एक समय और अधिक से अधिक अन्तर्मुहूर्त तक हो सकती है, इसीलिये भुजकार विभक्तिका जघन्य काल एक समय
और उत्कृष्ट • काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। अल्पतर विभक्तिमें भी यही बात है अर्थात् एक जीवके अनुभाग की लगातार हानि कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अन्तर्मुहूर्त तक होती है किन्तु अन्तर्मुहूर्त तक अनुभाग की हानि काण्डकघातके बाद ही होती है। अत: जहाँ जिन प्रकृतियोंका काण्डकघातके पश्चात् प्रति समय अनुभाग घटता जाकर क्षय होता है वहाँ ही उन प्रकृतियोंमें अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहत होता है। प्रवक्तव्य विभक्ति का काल तो एक समयसे अधिक हो ही नहीं सकता, क्योंकि प्रथम समय में ही अविद्यमान प्रकृतिका सत्व होजाने पर अवक्तव्य विभक्ति होती है। अवस्थित विभक्तिका काल सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें जघन्यसे अन्तर्महर्त है, क्योंकि अनादि मिथ्यादृष्टि उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की सत्ताको करके यदि वेदकसम्यग्दृष्टि होकर दशन मोहका क्षपण कर देता है तो अन्तर्मुहूर्त काल होता है। उत्कृष्ट काल दो छियासठ सागर और पल्यके तीन असंख्यातवें भाग है जो कि पहले बतला आये हैं। शेष प्रकृतियो में अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। वह भी पहले बतला आये हैं। संज्वलन कषायके विषयमें यह शंका की गई कि जब सम्यग्दृष्टिमें निरन्तर संज्वलन कषायका बंध होता है तो उसका अनुभाग अवस्थित कैसे रहता है, तो उत्तर दिया गया कि काण्डकघात नहीं होता, इस लिए तो अनुभाग घटता नहीं और सत्तामें स्थित अनुभागसे अधिक अनुभागबन्ध नहीं होता, इसलिये अनुभाग वढ़ता नहीं है अतः अवस्थित रहता है ।
१. पा. प्रतौ अवटाणविरोहादो इति पाठः ।
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२७८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४७७. आदेसण णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-णवणोक. भुज० ज एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पद० जहण्णुक० एगस । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । अणंताणु० चउक्क० अवत्तव्व० ओघभंगो। सम्सत्त-सम्मामिच्छत्त० सव्वपदाणमोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । दोण्हं पि अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेतीसं सागरो० संपुण्णाणि । एवं पढमपुढवि० । णवरि सगहिदी। विदियादि जाव सतमि त्ति छब्बीसंपयडीणमेवं चेव । णवरि सगहिदी देमूणा । सम्मत्तसम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी संपुण्णा । अवत्त० ओघं ।
४७८. तिरिक्व० णेरइयभंगो। णवरि सव्वासि पयडीणमवहिदं ज० एगस०, उक्क० छब्बीसंपयडीणमंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोबमाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयाणि तिण्णि पलिदोवमाणि । पंचिंदियतिरिक्खदुगस्स एवं चेव । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीणमेवं चेव । णवरि सम्म० अप्पदर० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं भुज०-श्रवट्टि० सम्मत्त०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्पत्त
४७७. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, सालह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतर विभक्तिका जघन्य
और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछकम तेतीस सागर है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तब्य विभक्तिका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सब विभक्तियोंका भङ्ग ओघकी तरह है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। दोनों ही प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल पहले नरककी स्थिति प्रमाण है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी विभक्तियोंका काल इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल कुछकम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी सम्पूर्ण स्थिति प्रमाण है। अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघकी तरह है।
४७८ सामान्य तिर्यञ्चोंमें नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और छब्बीस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तके भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्ति का जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियोंमें भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको
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गा० २२)
अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो सम्मामिच्छत्तवज्जाणमप्पदर० जहण्णुक्क० एमस० । एवं मणुसअपज्जः ।
४७६. मणुस्साणमोघं । णवरि सव्वेसिमवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो । एवं मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि मणुसिणीसु पुरिस० अप्पद. जहण्णुक० एगस० ।
४८०. देवाणं णेरइयभंगो । णवरि अहावीसंपयडीणमवहि० उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । भवण-वाण-जोइसि० एवं चेव । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्पत्त--सम्मामि० अवहि. सगहिदी । सम्मत्त० अप्पदर० गत्थि । सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति देवोघं । णवरि सगहिदी । आणदादि जाव णवगेवज्ज० छव्वीसंपयडीणमप्पद० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु० । अणंताणु०चउक्कस्स एगस०, उक्क. सव्वासिं सगहिदी । अणंताणुचउक० भुज०-अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त० अप्पद० ओघं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० सगहिदी । अवत्तव्व० ओघं । सम्मामि० एवं चेव । णवरि अप्पद० णत्थि । अणुदिसादि जाव सव्वसिद्धि ति छव्वीसं पयडीणमप्पद० जहण्णुक० एगस० । अवहि. ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी । सम्मत्त० अप्पद० ओघं । सम्मत्त-सम्मामि० छोड़कर शेष छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए ।
४७९. सामान्य मनुष्योंमें ओघकी तरह जानना चाहिए । इतना विशेष है कि इनमें सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका काल पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि मनुष्यिनियोंमें पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है।
६४८० देवोंके नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट काल कुछकम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । सौधर्मसे लेकर सहस्रारस्वर्ग तकके देवोंमें सामान्य देवोंकी तरह काल है। इतना विशेष है कि अपनी अपनी स्थिति कहनी चाहिए । आनतसे लेकर नवनवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट एक समय है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सबका अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। अनन्तानबन्धी चतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्य विभक्ति का काल ओघकी तरह है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघकी तरह है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है । अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघ की तरह है । सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग इसी प्रकार है । इतना विशेष है कि अल्पतर विभक्ति नहीं है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतरविभक्तिका काल ओघके समान
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marwadi
२८०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अवहि० जहण्णुक्कस्सहिदी । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
४८१. अंतराणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण वावीसं पयडीणं भुजगारस्स अंतरं ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं अंतोमुहुत्तमब्भहियतीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्तसम्मामिच्छताणमप्पदर० जहण्णुक्क० अंतोमु०, चरिम-दुचरिमकंडयाणं पढम-विदियहै। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
विशेषार्थ-ओघ की तरह आदेशसे भी काल को लगा लेना चाहिये। नरकमें छब्बीस प्रकृतियो में अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि नरकमें जन्म लेकर सम्यग्दृष्टि होने पर इतना काल पाया जाता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अवस्थित विभक्तिका काल पूर्ण तेतीस सागर है, क्योंकि वह सम्यग्दृष्टिके भी होती है और मिथ्यादृष्टिके भी होती है। इसी प्रकार प्रत्येक नरकमें यथायोग्य समझना। सामान्य तिर्यञ्चा मे छब्बीस प्रकृतियो की अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, क्योकि कोई तियञ्च तिर्यञ्चकी आयु बाँधकर देवकुरु-उत्तरकुरुमें तीन पल्यकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ तो उसके अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य काल अवस्थित विभक्तिका होता है। तथा सम्यक्त्व और. सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य होता है, क्योंकि एक मिथ्यादृष्टि उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके सम्यक्व और सम्यग्मिथ्यात्व की सत्तावाला हुआ। पुन: मिथ्यात्वमे आकर पल्यके असंख्वातवें भाग काल तक तिर्यञ्च पर्यायमें भ्रमण करके जब सम्यक्त्वके उद्वेलना कालमें अन्तर्महत बाकी रहा तो मर कर तीन पल्य की स्थिति लेकर देवकुरु-उत्तरकुरुमे उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वको प्राप्त हो गया तो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तमें इन दोनों प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका काल पूर्वकाटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है सो ही इन दोना पर्यायो का उत्कृष्ट काल है अतः उसी तरह जानना। सामान्य देवो में सभी प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर सर्वार्थसिद्धि की अपेक्षा जानना। भवनत्रिकमे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है किन्तु छब्बीस प्रकृतियों में कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है, क्योंकि जन्म लेकर अन्तर्मुहूर्तके पश्चात् सम्यग्दृष्टि होने पर उक्त काल पाया जाता है। सौधर्मसे लेकर सवार्थसिद्धि तक सभी प्रकृतियो' पी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थिति प्रमाण जानना।
४१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त और तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है, क्योंकि यहाँपर चरम और द्विचरम
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गा० २२ अणुभागविहत्तीए भुजगारअंतर
२८१ कंडयाणं च अंतरालस्स जहण्णुकस्संतरभावेण गहणादो। अवहि० ज० एगस०, अवत्तव्व० ज० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० दोण्हं पि उवडपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवहिद० ज० एगस०, उक्क. वेछावहिसागरोवमाणि देमणाणि । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० उबड्डपोग्गलपरियट्ट देसूणं ।
४८२. आदेसेण रइएमु बाबीसं पयडीणं भुज. अप्पदर० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अवद्विद० ओघ । सम्मत्त० अप्पद गत्थि अंतरं । सम्मत्त-समामि० अवहि. जह० एगस०, अधवा वे समया, अवत्त० जह० काण्डकके अन्तरालका जघन्य अन्तररूपसे ग्रहण किया है और प्रथम तथा द्वितीय काण्डकके अन्तरालका उत्कृष्ट अन्तररूपसे ग्रहण किया है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा दोनों विभ. क्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गल परिवर्तनप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वकी तरह है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है। प्रवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अर्धपुद्गल परावर्तनकाल प्रमाण है।
विशेषार्थ-ओघसे बाईस प्रकृतिया की भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर दो बार वेदक सम्यक्त्व, एक बार उपरिम अवयक और एक बार देवकुरु उतरकुरुके कालको तथा अन्तर्मुहूर्त सम्यक्त्वके उत्पत्तिकालको जोड़नेसे एक सौ त्रेसठ सागर और अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य होता है, अधिकसे अधिक इतने काल तक भुजगार विभक्ति बाईस प्रकृतियों में नहीं होती। अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर जितना पहले ओघसे बाईस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल कहा है उतना ही होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इन दोनों प्रकृतिया में दर्शनमोहके क्षपण कालमें जब काण्डकघात होता है तभी अल्पतर विभक्ति होती है, सो प्रथम काण्डक होकर दूसरा काण्डक हाता है, अत: प्रथम काण्डक और दूसरे काण्डकमें जितना अन्तरकाल है उतना तो उत्कृष्ट अन्तर हैं और उपान्त्यकाण्डक और अन्तिम काण्डककी जितना अन्तरकाल है उतना जघन्य अन्तरकाल होता है। इन दोनों प्रकृतियो की अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग है, क्योकि अनादि मिथ्यादृष्टि जीव प्रथमोपशम सम्यक्त्वक द्वारा इन दोनों प्रकृतिया की सत्ता को करके अवक्तव्य विभक्ति करता है। तथा पल्यके असंख्यावें भाग कालमें दोनों की उद्वेलना करके पुनः प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न करके पुनः इन दोना प्रकृतियों की सत्ता को करके अवक्तव्य विभक्ति करता है, अत: जघन्य अन्तर काल पल्यकें असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल है, क्योंकि प्रथमापशमके द्वारा दोनों प्रकृतियों की सत्ताको करके सम्यक्त्वसे च्युत होकर कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन काल तक भ्रमण करके अन्तिम भव में पुन: सम्यक्त्व का उत्पन्न करके दोनों प्रकृतियो की सत्ता करने पर उत्कृष्ट अन्तर होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी श्रवक्तव्यविभक्तिका अन्तर भी इसी प्रकार जान लेना।
१४८२. श्रादेशसे नारकियों में बाईस प्रकृतियां की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका क्रमशः जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर ओघकी तरह है । सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं
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२८२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ पलिदो० असंखेभागो, उक्क० दोण्हं पि तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवहि० ज० एगस०, अप्पदर० अवत्तव्व० ज० अंतोमु०,उक्क० सव्वेसि तेत्तीसं साग० देसूणाणि । एवं पढमपुढवि०। णवरि सगहिदी देसूणा । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्पत्त० अप्पदर० णत्थि ।
४८३. तिरिक्खेमु वावीसं पयडीणं भुज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। कुदो ? पंचिदिएसु भुजगारं कादूण पुणो एइंदिएमु पविसिय पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण एइंदियबंधेण सरिसमणुभागसंतकम्म काऊण पुणो सत्थाणे चेव भुजगारे कदे पलिदो० असंखे०भागमेत्तरकालुवलंभादो। अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० अंतोमु० सादिरेयाणि । अवहि० ओघं । सम्मत्त० अप्पदर० णत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० अवत्तव्यं ओघं । अणंताणु०४ मिच्छत्तभंगो । णवरि भुज. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अवहि. जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अवत्तव्व० ओघं ।
४८४. पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरि०पज्जत्तएसु वावीसंपयडीणं भुज० ज०
है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय अथवा दो समय है । अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा सभी विभक्तियांका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तेतीस सागर है । इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर: कुछकम अपनी स्थिति प्रमाण है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें भी ऐसे ही जानना चाहिए । इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछकम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं है।
४८३. तिर्यञ्चोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग.प्रमाण है, क्योंकि पञ्चेन्द्रियों में भुजगारका करके पुनः एकन्द्रियोंमें जन्म लेकर वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा एकन्द्रियके बन्धके समान अनुभाग सत्कर्मका करके पुनः स्वस्थानमें भुजगारके करनेपर भुजगार विभक्तिका अन्तर काल पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पाया जाता है। ,अल्पतरविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। अवस्थित विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर काल नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है।
६४८४. पञ्चन्द्रियसिर्यश्च और पञ्चन्द्रियतियञ्चपर्याप्तकोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार
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गा०- २२ ]
अणुभावहत्तीए भुजगारअंतरं
२८३
एगसमओ, उक पुव्वको डिपुधत्तं । अप्पदर० - अवधि ० तिरिक्खोघं । सम्मत्त ० अप्पद० णत्थि अंतरं । सम्मत्त सम्मामि० अवधि ० अवत्तव्व० ज० एस० पलिदो० असंखे ०. भागो, उक्क० सहिदी देणा । अनंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि भुज ०अवद्वि० तिरिक्खोघं । अवत्तव्व० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । एवं पंचिदियतिरिक्खजोणिणीणं । णवरि सम्मत्त० अप्पदर० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज्ज० छब्बीसंपयडीणं भुज-अवद्वि० ज० एगस०, अप्पद० अंतोमु०, उक्क० सव्वे ० तोमु० | सम्मत्त सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं । एवं मणुस अपज्ज० ।
४८५ मणुसतियम्मि मिच्छत्त- बारसक० णवणोक० भुज० ज० एस ०, उक० पुव्वकोडी देणा । अप्पद० अवहि० तिरिक्खभंगो । सम्मत्त - सम्मामि० अप्पदर० जहण्णुक० अंतोमु० । अवहि ० - अवत्तव्व० ज० एस० पलिदो ० असंखे ० भागो, उक्क० सगहिदी देसॄणा । अणंताणु ० चउक्क मिच्छत्तभंगो | णवरि भुज०अवधि ० - अवत्तव्व ० पंचिदियतिरिक्खभंगो |
0
।
४८६. देवेषु वावीसंपयडीणं भुज० ज० एस ०, उक्क० अट्ठारस० सागरो० विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व प्रमाण है । अल्पतर विभक्ति और अवस्थित त्रिभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी
तर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिध्यात्व के समान है । इतना विशेष है कि भुजगार और अवस्थितविभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यञ्चोंके समान है। अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियों में जानना चाहिए | इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और सबका उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए ।
९४८५. तीन प्रकारके मनुष्यों में मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटि है । अल्पतर और अवस्थित विभक्तिका भङ्ग तिर्यों के समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मध्यात्वकी अपर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग मिध्यात्वकी तरह है । इतना विशेष है कि भुजगार, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों के समान है ।
१४८६, देवों में बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अद्धसागरोवमेण सादिरेयाणि । अप्पदर० ज० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो देस्णाणि । अवहि० ओघं । सम्मत्त० अप्पदर० णत्यि अंतरं । सम्मत्त०-सम्मामि० अवहि-अवत्तव्व० ज० एगस० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । अणंताणु०चउक्क. भुज०-अवहि०-अप्पदर०--अवत्तव्व० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । णवरि सगहिदी देसणा। एवं भवण-वाण-जोदिसिए ति । णवरि सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अप्पद० णत्थि । आणदादि जाव णवगेवज्ज० वावीसंपयडीणमवहि. जहण्णुक्क० एगस । अप्पद० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । सम्मत्त० अप्पद० पत्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अवहि०-अवत्तव्व. अणंताणु.चउक्क० भुज०-अप्पद०-अवहि-अवत्तव्व० ज० ओघं, उक्क. सगहिदी देसूणा ! अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिदि त्ति छब्बीसंपयडीणमवहिद० जहण्णुक्क० एगस० । अप्पद. जहण्णुक. अंतोमु० । सम्मत्त० अप्पद० णत्थि अंतरं। सम्मत्त-सम्मामि० अवहि० पत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति। उत्कृष्ट अन्तर अाधासागर अधिक अठारह सागर है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अवस्थित विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और पल्यके असंख्यातवेभाग प्रमाण है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार, अवस्थित. अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय और अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। इसी प्रकार सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है । इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थिति प्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है। आनतसे लेकर नवग्रेवयक तकके देवोंमें बाईस प्रक्रतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्महर्त है और उत्कष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका तथा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार, अल्पतर, अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं हैं । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये। .. विशेषार्थ-आदेशसे नारकियों में बाईस प्रकृतियों की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर उतना ही कहा है जितना नरकमें पहले इन प्रकृतियो' की अवस्थित विभक्तिका
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गा० २२]
अणुभागविहत्तीए भुजगारअंतरं
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उत्कृष्ट काल कहा है। भुजगार या अल्पतर विभक्ति होकर कुछ कम तेतीस सागर पर्यन्त अवस्थितविभक्ति रही, उसके पश्चात् पुनः भुजगार या अल्पतर विभक्तिके होनेसे दोनों विभक्तियो का अन्तर काल होता है। नरक में सम्यक्त्व प्रकृतिके अल्पतरका अन्तर काल नहीं है, क्योंकि वहाँ उसका अल्पतर कृतकृत्य वेदक के ही होता है और वह लगातार क्षय पर्यन्त होता है। और सम्यग्मिथ्यात्वका तो वहाँ अल्पतर होता ही नहीं है। इन दोनों प्रकृतियों की अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय अथवा दो समय कहा है कोई २८ की सत्तावाला मिथ्यादृष्टि उद्वलना करता हुआ प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सन्मुख हुआ और अनिवृत्तिकरणके द्विचरम समयमें उद्वलना कर सम्यक्त्व प्रकृतिका अभाव कर चरम समयमें २७ की सत्तावाला हो गया या सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलना कर चरम समयमें २६की सत्तावाला हो गया। अगले समयमें उपशमसम्यग्दृष्टि हो सम्यक्त्व व सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्तावाला हो गया इस प्रकार अनवृत्तिकरणके एक चरम समयका अवस्थितमें अन्तर पड़ा अत: एक समय कहा । परन्तु जिन्होने सम्यक्त्वके प्रथम समयको प्रवक्तव्यमें ले लिया उनके मतमें दो समय अन्तर होता है । उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अवस्थित विभक्तिके पश्चात द्वलना करके जब तेतीस सागर काल पूर्ण होने में कुछ काल अवशेष रहे तो सम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका सत्त्व करके दूसरे समयमें अवस्थित विभक्ति के होनेसे उतना अन्तर काल पाया जाता है। इसी कार अवक्तव्यविभक्तिका भी उत्कृष्ट अन्तर काल लगा लेना चाहिये। तिर्यञ्चो में छब्बीस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिका जितना उत्कृष्ट काल पहले कहा है उतना ही उनमें छब्बीस प्रकृतियों की अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल होता है। इसी तरह अनन्तानुबन्धीमें भुजगारका उत्कृष्ट अन्तर काल जानना चाहिए । अनन्तानुबन्धीकी अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है, क्योकि देवकुरु उारकुरुका कोई तिर्यञ्च अनन्तानुबन्धीकी अवस्थित विभक्ति करके उसका विसंयोजन करदे । अन्त समयमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके पुनः अवस्थित विभक्ति यदि करे तो उत्कृष्ट अन्तर कुछकम तीन पल्य होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्व कहा है जब कि उनमें अवस्थित विभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है, इसका कारण यह है कि तीन पल्यकी स्थिति भोगभूमिमें होती है किन्तु वहां भुजगार विभक्ति नहीं होती, अत: उक्त दोनों तिर्यञ्चोंमें पूर्वकोटि पृथक्त्व असंज्ञियोंके उत्कृष्ट कालकी अपेक्षासे अन्तरकाल कहा है। मनुष्यके तीन भेदोंमें बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछकम पूर्वकोटि है, क्योंकि भुजगार विभक्ति करके सम्यग्दृष्टि होजाने पर और अन्तमें सम्यक्त्वसे च्युत होकर मिथ्यात्वमें आकर पुन: भुजगार करनेसे उतना अन्तर पाया जाता है। मनुष्योंमें असंज्ञी नहीं होते, अतः वेदकसम्यक्त्वकी अपेक्षा अन्तर कहा है। वेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्यसे मनुण्य नहीं होता, अत: कर्मभूमियाके एक भवकी अपेक्षा उत्कृष्ट आयुकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर काल कहा है। देवो में बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर साढ़े अठारह सागर सहस्रार स्वर्गकी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योंकि इन प्रकृतयिोंमें आगे भुजगार नहीं होता । तथा अल्पतरविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर उपरिमोवेयककी अपेक्षा जानना चाहिए, क्योकि आगे सब सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, इस लिये अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तक अल्पतर विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त ही हाता है। सामान्य देवोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर भी उपरिम प्रैवेयक की अपेक्षासे होता है, क्योकि उससे ऊपर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्ति
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जयधवलासहिदे कषायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ४८७. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। तत्थ ओघेण वावीसंपयडीणं भुज०-अप्पद०-अवहि० णियमा अस्थि । एवं अणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्तव्व० भयणिज्जा । भंगा तिण्णि । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणमवहि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । भंगा णव । एवं तिरिक्खोघं ।
४८८. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसंपयडीणं भुज-वहि० सम्मत्त-सम्मामि० अवढि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । वावीसंपयडीणं सम्मामि० भंगा तिण्णि । सम्मत्त० अणंताणु०चउक्काणं भंगा णव । एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख--मणुसतिय--देवोघं भवणादि जाव सहस्सार ति । णवरि विदियादिपुढवि०पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०--भवण.--वाण०--जोइसिए त्ति सम्मत्त भंगा तिषिण। पंचि०तिरि०अपज्ज० सम्मत्त ०-सम्मामि० णत्थि भंगा । सेससव्वपयडीणं तिषिण चेव भंगा। मणुसअपज्ज. सव्वपयडीणं सवपदा भयणिज्जा। छब्बीसं पयडीणं भंगा छब्बीस । सम्मत्त-सम्मामि० मंगा दोगिण ।
४८६. आणदादि जाव सबसिद्धि ति अहावीसं पयडीणमवहिणियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा। णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति तेवीसं पयडीणं तो संभव ही नहीं है, अवस्थितविभक्ति होती है, किन्तु इन प्रकृतियोंमें उसका इतना अन्तराल तभी संभव हो सकता है जब कोई उनकी उद्वेलना करदे और अन्तमे पुनः सम्यक्त्वके साथ दोनों प्रकृतियों की सत्ताको उत्पन्न करके अवस्थित विभक्ति करे, यह बात अनुदिशादिकमे संभव नहीं है। इसीप्रकार सौधर्मादिकमे भी अन्तर समझना चाहिए।
४८७. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्ति भजनीय है। भंग तीन होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष विभक्तियां भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसीप्रकार सामान्य तिर्यंचोंमें जानना चाहिए।
४८८. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। शेष विभक्तियाँ भजनीय हैं। बाईस प्रकृतियोंके और सम्यग्मिथ्यात्वके तीन भंग होते हैं। सम्यक्त्व
और अनन्तानुबन्धीचतुष्कके नौ भंग होते हैं। इसप्रकार सातों पृथिवी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सामान्य देव तथा भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि दूसरी आदि पृथिवयिोंमें तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें सम्यक्त्वके तीन भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यंच अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके भंग नहीं होते। शेष सब प्रकृतियोंके तीन ही भंग होते हैं। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें सब प्रकृतियोंके सभी पद भजनीय हैं। छब्बीस प्रकृतियोंके छब्बीस भंग होते हैं तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दो भंग होते हैं।
४८९. आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं । शेष पद भजनीय हैं । इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नवौवेयक तकके
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए भुजगारे भंगविचओ
२८७
भंगा तिरि । सम्मत्तभंगा णव । अनंताणु ० चक्क० सत्तावीसं । उवरि सत्तावीसं पयडीणं भंगा तिरिण० । सम्मामि० भंगा णत्थि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
देवों तेईस प्रकृतियों के तीन भङ्ग होते हैं, सम्यक्त्व प्रकृतिके नौ भङ्ग होते हैं और अनन्तानुबन्धी चतुष्कके सत्ताईस भङ्ग होते हैं । नवप्रैवेयकसे ऊपर सत्ताईस प्रकृतियोंके तीन भङ्ग होते हैं । सम्यग्मिथ्यात्वके भङ्ग नहीं होते। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए ।
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विशेषार्थ - घसे अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव विकल्पसे पाये जाते हैं अतः तीन भंग होते हैं । कदाचित् उक्त विभक्तिवाले जीवो के साथ एक जीव अवक्तव्यविभक्तिवाला होता है, कदाचित् उक्त विभक्तिवालों के साथ अनेक जीव अवक्तव्यविभक्तिवाले होते हैं। मूल भंगके साथ तीन भंग होते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं और शेष विभक्तिवाले जीव विकल्पसे पाये जाते हैं, अतः नौ भंग होते हैं । अवस्थितविभक्तिवालों के साथ १ कदाचित् एक जीव अल्पतर विभक्तिवाला होता है, २ कदाचित् अनेक जीव अल्पतर विभक्तिवाले होते हैं, ३ कदाचित् एक जीव अवक्तव्यविभक्तिवाला होता है, ४ कदाचित् अनेक जी अवक्तव्य विभक्तिवाले होते हैं, ५ कदाचित् एक जीव अल्पतरवाला और एक जीव अवक्तव्य वाला होता है, ६ कदाचित् एक जीव अल्पतरवाला और अनेक जीव अवक्तव्यवाले होते हैं, ७ कदाचित् अनेक जीव अल्पतरवाले और एक जीव अवक्तव्यवाला होता है, ८ कदाचित् अनेक जीव अल्पतरवाले और अनेक जीव अवक्तव्यवाले होते हैं। मूल भंगके साथ ये नौ भंग होते हैं। आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थितविभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मध्यात्व की अवस्थितविभक्तिवाले नियमसे होते हैं शेष विभक्तिवाले विकल्पसे होते हैं । अत: बाईस प्रकृतियोंके तीन भंग हैं। बाईस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिवालोंके साथ कदाचित् एक जीव अल्पतर विभाक्तवाला होता है, कदाचित् अनेक जीव अल्पतर विभक्तिवाले होते हैं। मूल भङ्गके साथ ये तीन भंग होते हैं। नरक में सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अल्पतर (विभक्ति नहीं हाती, अतः उसके भी तीन भंग होते हैं- सम्यग्मध्यात्वकी अवस्थित विभक्तिके साथ कदाचित् एक जीव अवक्तव्य विभक्तिवाला हाता है, कदाचित् अनेक जीव अवक्तव्य विभक्तिवाले होते हैं, मूल भंगके साथ ये तीन भङ्ग हाते हैं । सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीक नौ भङ्ग हाते हैं । सम्यक्त्वकी अल्पतर और अवक्तव्य विभक्ति विकल्पसे हाती है, अत: अवस्थित विभक्तिकं साथ १ कदाचित् एकः जीव अल्पतरवाला हाता है, २ कदाचित् अनेक जीव अल्पतरवाले होते हैं इत्यादि, पूर्ववत् जानना । इसी तरह, अनन्तानुबन्धाकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिवालोंके साथ शेष दो विभक्तिवालोंको मिलानेसे भी नौ भङ्ग हाते हैं । दूसरेसे लेकर सातवें नरक तक, पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व योनिनी तथा भवनत्रिकमे सम्यक्त्व प्रकृतिको अवस्थित विभक्तिवाले नियमसे होते हैं । अल्पतरवाले होते ही नहीं हैं और अवक्तव्यवाले विकल्प से होते हैं, इसलिए तीन ही भङ्ग होते हैं । पञ्च ेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में सम्यक्त्व और सम्यग्मध्यात्वक अवस्थित विभक्तिवाले नियमसे होते हैं इसलिए भङ्ग नहीं है । शेष सब प्रकृतियोंकी भुजगार व अवस्थित विभक्तत्वाले नियमसे होते हैं इसलिये प्रत्येक प्रकृतिके तीन तीन भङ्ग हाते हैं। मनुष्य अपयाप्त सान्तर मार्गणा है अतः सभी प्रकृतियोंके सभी पद भजनीय हैं। और एक एक प्रकृति के तीन तीन पद होते हैं अतः प्रत्येक प्रकृतिके छब्बीस छब्बीस भङ्ग होते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका केवल एक अवस्थित पद ही होता है, अतः दो दो भङ्ग होते हैं— कदाचित् एक जीव अवस्थितवाला होता है, कदाचित् अनेक जीव अवस्थितवाले होते हैं। नत से
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ भागविहत्ती ४
१ ४६०. भागाभागाणु ० दुविहो णिद्द सो— घेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त--बारसक०--णवणोक० भुज० सव्वजीवाणं केव० ९ संखे० भागो । अप्प० असंखे० भागो । अवद्वि० संखेज्जा भागा । एवमणंताणु० चरक्क । णवरि अवत्तव्व ० अनंतिमभागो सम्मत्त० - सम्मामि० अप्पद ० - अवत्तव्व० असंखे ० भागो । अवद्वि० संखेज्जा भागा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद ० णत्थि ।
$ ४६१. आदेसेण णेरइएस तिरिक्खभंगो । गवरि अणंताणु ० चउक्क० अवतव्व० असंखे ० भागो । एवं पढमपुढवि०--पंचिदियतिरिक्ख-पंचिं० तिरि०पज्ज०- -देवोघं सोहम्मद जाव सहस्सार ति विदियादि जाव सत्तमपुढवि० - पंचिं० तिरिक्खजोणिणी०. ०--भवण० वाण ०. - जोइसि० एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अप्पद० णत्थि । पंचिंदियतिरिक्ख अपज्ज० -- मणुस अपज्ज० णेरइयभंगो | णवरि अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्व० णत्थि | सम्मत्त सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि भागाभागो ।
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२८८
लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त सभी प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिवाले नियमसे होते हैं शेष पद विकल्पसे होते हैं, अत: आनतसे नव ग्रैवेयक पर्यन्त तेईस प्रकृतियों के तीन तीन भङ्ग होते हैं; क्योंकि बाईसकी अल्पतर विभक्ति विकल्पसे होती है और सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्य विभक्ति विकल्पसे होती है । अनन्तानुबन्धीकी अवक्तव्य, भुजगार और अल्पतर ये तीन विभक्ति विकल्प से होती हैं इसलिये सत्ताईस भङ्ग होते हैं सम्यक्त्व प्रकृतिकी दो विभक्ति विकल्पसे होती हैं इसलिये नौ भङ्ग होते हैं । अनुदिशादिक में सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्ति विकल्पसे होती है इसलिये प्रत्येकमें तीन तीन भङ्ग होते हैं । सम्यग्मध्यात्वकी केवल अवस्थित विभक्ति वाले ही नियमसे होते हैं, अतः भङ्ग नहीं है ।
४९. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मिध्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी भुजगार विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अल्पतर विभक्तिवाले असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए | इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यावभक्तिवाले जीव सब जीवों के अनन्तवें भागप्रमारण है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है ।
$ ४९१. आदेशसे नारकियों में तिर्यच्चों के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि अनन्ताबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए ।. इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती । पचेन्द्रिय तिर्यव
पर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकों में नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि उनमें अन न्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति नहीं होती । तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भाग
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गा० २२ ]
अनुभागविहत्तीए भुजगारे भागाभागो ४६२. मणुसा० ओघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवचव्व० असंखे०भागो। एवं मणुसपज्ज०-मणुसिणी०। णवरि जम्मि असंखे भागो तम्मि संखे भागो कायव्यो। आणदादि जाव णवगेवज्ज. सत्तावीसं पयडीणमप्पद० सम्म०-सम्मामि०-अणंताणु० चउक० अवत्तव्व० असंखे० भागो । सव्वेसिमवहिद० असंखेज्जा भागा । णवरि अणंताणु०४ भुज. असंखे०भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइदं ति एवं चेव । णवरि सम्म०--सम्मामि० --अणंताणु०चउक्क० अवचव्व० अणंताणु० भुज. पत्थि । सव्वहे सत्तावीसपयडीणमप्पद० संखे० भागो। अवहि० संखेजा भागा। सम्मामि० णत्थि भागाभागो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
४६३. परिमाणाणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण छब्बीसं पयडीणं तिषिण पद० दव्वपमाणेण केवडिया ? अणंता । अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० असंखेज्जा । सम्मत्त-सम्मामि० दो पदा असंखेज्जा। अप्पद० संखेज्जा ।
४६४. आदेसेण रइएसु अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा । णवरि सम्म० अप्पद० ओघं । एवं पढमपुढवि. पंचिंदियतिरिक्ख--पंचिं०तिरि०पज०भाग नहीं है।
१४९२. सामान्य मनुष्योंमें ओघकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि जिनका भागाभाग असंख्यातवें भाग प्रमाण है उनमें संख्यातवें भाग प्रमाण कर लेना चाहिए। आनतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व, सम्यग्मिध्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्ति तथा अनन्तानुवन्धी चतुष्ककी भुजगार विभक्ति वहाँ नहीं है। सर्वार्थसिद्धि में सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव संख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग वहाँ नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
४९३. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है -ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं, सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य और अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं और अल्पतर विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं।
४९४. श्रादेशसे नारकियों में अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब विभक्तिवालोंका परिमाण असंख्यात है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवालोंका परिमाण ओघकी तरह जानना चाहिए। इसीप्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतियंच, पञ्चेन्द्रियतियञ्चपर्याप्त, सामान्य
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जय धवलास हिदे कसायपाहुडे
• २९०
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[ अणुभागविहन्ती ४ देवोघं सोहम्मद जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चैव । णवरि सम्मत्त अप्पद० णत्थि । एवं पंचिदियतिरि० जोणिणी - भवण ० - वाण - जोदिसिए ति । ९४६५. तिरिक्खाणमोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । पंचि०तिरि०पज्ज० छब्बीसं पयडीणं तिरिण पदवि० सम्मत्त सम्मामि० अवद्वि० श्रसंखेज्जा | एवं मणुस अपज्ज० । मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं तिरिणपदविह० सम्म० सम्मामि० अवद्वि० असंखेज्जा | दोरहमप्पद० बरहमवत्तव्व० संखेज्जा । मणुसपज्ज० - मणुसिणीसु सव्वपय० सव्वपदवि० संखेज्जा | आणदादि जाव अवराइदं चि अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा । णवरि सम्मत्त० अप्पद० ओघं । सव्व सव्वपयडीणं सव्वपदविहत्तिया संखेज्जा । एवं जाणिदृण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
४६. खेत्ताणु ० दुविहो जिद्द सो— ओघेण आदेसेण य । श्रघेण छब्बीसं पडणं तिणिपदवि० केवडि० खेचे ? सव्वलोगे । अनंताणु ० चउक्क० अवतव्व० सम्म० सम्मामि० तिरिणपदवि० लोग० असंखे० भागे । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० णत्थि । आदेसेण खेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग ०
देव और सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार तक के देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक नारकियोंमें इसीप्रकार जानना चाहिए। किन्तु इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिवाले वहाँ नहीं हैं । इसीप्रकार पञ्च ेन्द्रियतिर्यंच योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए ।
$ ४९५, सामान्य तिर्यंचोंमें ओघकी तरह भंग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले वहाँ नहीं है । पञ्च ेन्द्रियतिर्यंच अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं । इसीप्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । सामान्य मनुष्यों में छब्बीस प्रकृतियोंकी - भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले और सम्यक्त्व तथा सभ्यमिथ्यात्वक अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अल्पतर विभक्तिवाले तथा इन दोनों और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। मनुप्रपर्याप्त और मनुष्यिनियों में सब प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं । नत स्वर्ग से लेकर अपराजित विमान तक के देवों में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवालो का परिमाण
की तरह है । सर्वार्थसिद्धिमें सब प्रकृतियों की सब विभक्तिवालों का परिमाण संख्यात है । इसप्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
९ ४६६. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । छब्बीस प्रकृतियों की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवों का कितना क्षेत्र है । सब लोक क्षेत्र है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यforecast तीन विभक्तिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसीप्रकार सामान्य तिर्यो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं है । आदेश से नारकियो में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले जीवो का
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारे पोसणं
२९१ असंखे०भागे । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवे ति । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
६४६७. पोसणाणु० दुविहो णिद्दे सो-अोघेण आदेसेण य । श्रोघेण छब्बीसं पयडीणं तिषिण पदवि० खेत्तभंगो । अणंताणु०चउक्क० अवतव्व० सम्म० सम्मामि० अवतव्य० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा । सम्म-सम्मामि० अप्पद० खेत्तं । अवहि० लोग० असंखे भागो अढचोदस० देसूणा सव्वलोगो वा।
४६८. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणं तिएिणपदवि० सम्मत्त०-सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा । सम्म० अप्प० छएहमवत्तव्व० खेत्तं । पढमपुढवि० खेतं । विदियादि जाव सत्तमि ति छब्बीसं पयडीणं तिएिणपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० सगपोसणं । छएहमवत्तव्व० खेत्तं ।
४६६. तिरिक्ख० छब्बीसं पयडीणमोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवतव० खेत्तं । सम्म० अप्पद०-अवत्तव्व० सम्मामि० अवत्त० खेत्तं । दोण्हमवहि लो० असंखे भागो सव्वलोगो वा। पंचिंदियतिरिक्वतियम्मि छब्बीसं पयडीणं
क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पंचेन्द्रियतियच, सब मनुष्य, और सब देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
४९७. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है- ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवो ने और सम्यक्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और चौदह राजुमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले जीवों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । अवस्थितविभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और चौदह राजुमेंसे कुछ कम आठ भागप्रमाण और सर्व लोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
४९८. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन विभक्तिवाले जीवोंने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्तातवें भागप्रमाण और चौदह राजुमेंसे कुछ कम छह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्ति वालों का तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्क इन छह प्रकृतियो की प्रवक्तव्यविभक्तिवालो का सर्शन क्षेत्रके समान है । पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रके समान है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में छब्बीस प्रकृतियो की तीन विभक्तिवालो का और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो का अपना अपना स्पर्शन जानना चाहिए। छ प्रकृतियों की प्रवक्तव्यविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है।
४९९, सामान्य तिर्यंचो में छब्बीस प्रकृतियो का स्पर्शन ओषकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्वकी अल्पतर और अवक्तव्यविभक्तिवालो का तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितिविभक्तिवाले जीवों ने
१. श्रा० प्रती सम्मामि० अप्पद० खेत्त । अवढि० इति पाठः ।
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२९२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ भागविहत्ती ४
O
तिरिण पदवि० ० सम्म० सम्मामि० अवद्वि० लो० असंखे० भागो सव्वलोगो वा । सम्म० अपद० छहमवत्त० इत्थि - पुरिस० भुज० लोग० असंखे ० भागो । बादर- मुहुम एइंदिएर्हितो आगंतूण पंचिदियतिरिक्खेसु उप्पण्णाणमित्थि - पुरिसवेदभुजगारस्स सव्वलोगो किण्ण लब्भदे ? ण, विसोहिवसेण पंचिंदियतिरिक्खे सुप्पज्जमाणाणं विग्गहगईए भुजगारबंधाभावादो । वरि जोणिणी० सम्म० अप्पद० णत्थि । पंचिं ० तिरि० अपज्ज० aarti पयडीणं तिरिणपदवि० सम्म० सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे ० भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि - पुरिस० भुज० लोग० असंखे ० भागो । एवं मणुस - अपज्ज० । मणुसतियस्स पंचिदियतिरिक्खभंगो । णवरि सम्मामि० अप्प० खेत्तं ।
५००. देवे० छब्बीसं पयडीणं तिरिण पदवि० सम्मत्त सम्मामि० श्रवहि० लोग० असंखे० भागो अह - णवचोदस० देसृणा । इत्थि - पुरिस० भुज० छण्हमवत्तव्व ० चोस देणा | सम्मत्त० अप्प० खेत्तं । एवं सोहम्मीसाणे । भवण० -- वाण०लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्च न्द्रियतिर्यञ्चयोनिनियो में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वकी अल्पतरविभक्तिवाले जीवोंने तथा छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीवोंने और स्त्रीवेद तथा पुरुषदकी भुजगारविभक्तिवाले जीवों ने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है ।
शंका - बादर और सूक्ष्म एकेन्द्रियों में से आकर पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो में उत्पन्न होनेवाले जीवो के स्त्री वेद और पुरुषवेदकी भुजगारविभक्तिका स्पर्शन सर्वलोक क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान- नहीं, क्योंकि विशुद्ध परिणामोंके वशसे पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होनेवाले जीवो के विग्रहगति में भुजगारका अभाव है ।
इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियों में सम्यक्त्वक र विभक्ति नहीं है । चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवोंने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पशन किया है । इतना विशेष है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदी भुजगार विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तको में जानना चाहिए। सामान्य मनुष्य, मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यनियों में पचेन्द्रिय तिर्य के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिध्यात्वकी अल्पतर विभक्ति वालों का स्पर्शन क्षेत्र के समान है।
1
$ ५००. देवो में छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तिवाले जीवो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह राजू में से कुछकम आठ और नौ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी भुजगार विभक्तिवाले जीवो ने और छह प्रकृतियों की अवक्तव्य विभक्तिवाले जीवो ने कुछ कम आठ बटे चौदह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिवालो का १. श्र० प्रतौ देसूणा सम्वलोगो वा सम्म० इति पाठः ।
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गा०२२)
अणुभागविहत्तीए भुजगारे कालो जोदिसि० एवं चेव । णवरि सगपोसणं। सम्म० अप्पद० णत्थि । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारो ति अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि० लोग० असंखे० भागो अहचोइस देसूणा । णवरि सम्म अप्प० खेत्तं । आणदादि जाव अच्चुदे ति अहावीसं पयडीणं सव्वपदवि. सगपोसणं। सम्म० अप्पद० खेत्तं । उवरि खेत्तभंगो । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
५०१. कालाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं तिएिणपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० सव्वदा। सम्म० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मामि० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० सखेज्जा समया । सम्मत-सम्मामि०-अणंताणु०चउक्क० अवतव्व० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इसी प्रकार साधर्म और ईशान स्वर्गमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिए । सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवो में अट्ठाईस प्रकृतियों की सब विभक्तिवाले देवो ने लोकके असंख्यातवें भाग प्रमाण और चौदह राजमें से कुछ कम आठ भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है। आनत कल्पसे लेकर अच्युतकल्प तकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियो की सब विभक्तिवालो का स्पर्शन अपने अपने स्पर्शनके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अल्पतर विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। अच्युत स्वर्गसे ऊपर स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिए।
विशेार्थ ओघसे अनन्तानुबन्धी चतुष्क और सम्यग्मिथ्यात्व की प्रवक्तव्य विभक्तिवालो का स्पर्शन जो आठ बटे चौदह राजु कहा है तो देवगति की अपेक्षा समझना। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थित विभक्तिवालो ने अतीत कालमें सर्वलोक स्पर्श किया है, विहारवत्स्वस्थान और विक्रिया पदके द्वारा वर्तमानमें लोकका असंख्यातवाँ भाग और अतीत कालमे कुछ कम आठ बटे चौदह राजू स्पर्श किया है। आदेशसे नारकिया में छब्बीस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्तिवाले जीवो ने वर्तमान कालमे लोकका असंख्यातवाँ भाग तथा अतीत कालमें लोकका असंख्यातवाँ भाग और मारणान्तिक तथा उपपाद पदके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह राजु क्षेत्रका स्पर्शन किया है। देवोंमे छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवालो का तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो का स्पर्शन वर्तमान की अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग और अतीत काल की अपेक्षा कुछ कम
आठ बटे चौदह राजु तथा मारणान्तिक पदके द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजू है। इतना विशेष है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेद की भुजगार विभक्तिवालो ने तथा छह प्रकृतियों की प्रवक्तव्य विभक्तिवालो ने अतीत कालमे कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार शेष स्पर्शन घटित कर लेना चाहिए।
६५.१ कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तियों का और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ भागो । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अप्पद० पत्थि।
५०२. आदेसण गेरइएमु छब्बीसंपयडीणं भुज० अवहि० सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहि० सव्वदा । छब्बीसंपयडीणमप्पद० छण्हमवत्त० ज० एगस०, उक्क.
आवलि० असंखे०भागो । सम्म० अप्पद० ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्खपंचितिरि०पज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्म० अप्पद० णत्थि । एवं जोणिणि--भवण०--वाण-जोदिसिए त्ति । पंचि०तिरि० अपज्ज० अठ्ठावीसंपयडीणमप्पप्पणो पदवि० णेरइयभंगो ।
५०३. मणुसतिएमु छब्बीसंपयडीणं तिण्णिपदवि० णेरइयभंगो। णवरि चदुसंज०-पुरिस० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि० अप्प०अवहि० ओघं । छण्हमवत्तव्व० ज० एगस०, उक० संखेज्जा समया। णवरि मणुसपज्ज० मिच्छ०-बारसक०-अहणोक० अप्पद० ज० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति उनमें नहीं होती।
विशेषार्थ-ऊपर नाना जीवो की अपेक्षा विभक्तियो का काल बतलाया है। ओघसे सम्यक्त्व प्रकृति की अल्पतर विभक्तिवालों का काल जघन्यसे एक समय है । जैसे अनेक जीवों ने दर्शनमोहके क्षपण कालमें एक साथ एक समयके लिये सम्यक्त्व की अल्पतरविभक्ति की। इसी प्रकार उत्कृष्ट काल भी समझना ।
५०२. आदेशसे नारकियों में छब्बीस प्रकृतियो की भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। छब्बीस प्रकृतियों की अल्पतर विभक्तिका और छह प्रकृतियों की अवताव्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियो में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यत्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्कदेवो में जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में अट्ठाईस प्रकृतियों की अपनी अपनी विभक्तियों का काल नारकिया के समान है।
६५०३. सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें छब्बीस प्रकृतियों की तीन विभक्तियों का काल नारकियो की तरह है। इतना विशेष है कि चार संज्वलन और पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर और अवस्थितविभक्तिका काल ओघकी तरह है । छह प्रकृतियों की प्रवक्तब्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इतना विशेष है कि मनुष्यपर्याप्तको में मिथ्यात्व, बारह कषाय और आठ नोकषायों की अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। इसी प्रकार
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारे अंतरं
२९५ एवं मणुसिणी० । णवरि पुरिस० अप्प० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं भुज०-अवहि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो। छब्बीसंपय० अप्प० णेरइयभंगो।
५०४. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति अट्ठावीसंपयडीणमवहि० सव्वदा । छब्बीसंपय० अप्प० छण्हमवत्तव्य० ज० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे० भागो । सम्म० अप्पद० ओघं । अणंताणु०४ भुज० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति एवं चेव । णवरि छण्हमवत्त० अणंताणु०४ भुज. पत्थि । सबहे छब्बीसंपयडीणमप्प० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अवहि० सव्वदा । सम्म० अप्प० ओघं । सम्म०-सम्मामि० अवहि० सव्वदा । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति !
५०५. अंतराणु० दुविहो णिह'सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण छब्बीसंपयडोणं तिण्णिपदवि० सम्म० सम्मामि० अवहि० त्थि अंतरं । सम्मत्त-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा । दोण्हमवत्त० अणंताणु०चउक्क० अवत्त ० अंतरं ज० एगस०, उक्क० चउवीसं अहोरत्ते सादिरेगे। मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पुरुषवेदकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य अपयोप्तको में छब्बीस प्रकृतियो की मुजकार और अवस्थितविभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। छब्बीस प्रवृतियों की पाल्पतर विभक्तिका काल नारकियो के समान है।।
५०४. आनतसे लेकर नवयक तकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतियो की अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। छब्बीस प्रकृतियो की अल्पतरविभक्तिका और छह प्रकृतियों की अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। सम्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका काल ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजकारविभक्तिका जधन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ छह प्रकृतियों की अवक्तव्य विभक्ति और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार विभक्ति नहीं होती। सर्वार्थसिद्धि में छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। सम्यक्त्व की अल्पतर विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
५.५. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन विभक्तियोंका और सम्यक्त्व तथा सम्यग्भिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छ मास है । इन दोनोंकी तथा अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी प्रवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [अणुभागविहत्ती ४ ___$ ५०६. श्रादेसेण णेरइएसु छब्बीसंपयडीणं भुज०-अवहि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं । अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म० अप्पद० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । सम्मामि० अप्पद० णत्थि । छण्हमवत्तव्व० ओघं । एवं पढमपुढवि० पंचिंदियतिरिक्वदोणि देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्म० अप्पद० णत्थि । एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-भवण०-वाण-जोइसिए ति ।
५०७. तिरिक्व ० छब्बीसंपयडीणमोघं । सम्म०--सम्मामिच्छत्ताणं णेरइयभंगो । पंचिंदियतिरिक्वअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तिण्णिपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० णेरइयभंगो। मणुसतिण्णि छब्बीसंपयडीणं णेरइयभंगो । सम्म०--सम्मामि० ओघं । णवरि मणुसिणी० सम्म०-सम्मामि० अप्प० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तिण्णि पदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
५०८. आणदादि जाव णवगेवज्जा ति छब्बीसंपयडीणमप्पद० ज० एगस०,
रात दिन है।
६५.६. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी भुजगार और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्ष पृथक्त्व प्रमाण है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती। छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यक्त्वकी अल्पतर विभक्ति नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवोंमें जानना चाहिए।
६५.७. सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघकी तरह है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकामें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीन विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका भङ्ग नारकियोंके समान है। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है । इतना विशेष है कि मनुष्यनियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तीनों विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पत्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है।
६५०८. अानतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। अवस्थितविभक्तिका अन्तर
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए भुजगारअप्पाबहुअं
२९७ उक्क. सत रादिदियाणि । अवहि० णत्थि अंत्तरं । अणंताणु०चउक्क० भुज०-अवत्तव्व० जह० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ते सादिरेगे। सम्म०-सम्मामि० देवोघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति सत्तावीसंपयडीणमप्प० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं पलिदो० संखे०भागो' । अहावीसंपयडीणमवहि. णत्थि अंतरं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति।
___ ५०६. भावाणु० सव्वत्थ ओदइयो भावो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
$ ५१०. अप्पाबहुगाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक. सव्वत्थोवा अप्पदरविहत्तिया जीवा । भुजविहत्ति० जीवा असंखे०गुणा । अवहि० जीवा संखे० गुणा। सम्म०-सम्मामि० सव्वत्थोवा अप्पदरवि० । अवत्त० असंखे० गुणा । अवहि० असंखे०गुणा। अणंताणु० चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तव्य । । अप्पद० अणंतगुणा । भुज० असंखे गुणा । श्रवहि० संखे०गुणा। नहीं है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी भुजगार और अवक्तव्यका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस रात दिन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर विजयादिक चारमें वर्षपृथक्त्वप्रमाण और सर्वार्थसिद्धिमें पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण है । अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्ति का अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
विशेषार्थ ओघसे जिन प्रकृतियोंके जो विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं उनमें अन्तर हो ही कैसे सकता है ? ओघसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवालों का उत्कृष्ट अन्तर छ मास है, क्योंकि इन प्रतियोंकी यह विभक्ति दर्शनमोहके क्षपकके होती है और नाना जीवोंकी अपेक्षा उसके क्षपणकालका उत्कृष्ट अन्तर छ मास होता है। शेष सुगम है ।
१५८९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदयिक भाव है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
१५१०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायांकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवा संख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अल्पतर विभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। उनसे भुजकार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं ।
१. ता० प्रती पलिदो० असंखे भागो इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
०
$ ५११. आदेसेण णेरइएसु तेवीसंपयडीणमोघं । सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्त० । raft • असंखे० गुणा । अणंताणु० चउक्क० ओघं । णवरि अप्पद० असंखे० गुणा | एवं पढमढवि-पंचिदियतिरिक्ख पंचिं० तिरि०पज्ज० देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सार ति । विदियादि जाव सत्तमित्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अप्प० णत्थि । एवं जोणिणी भवण० वाण० - ज ० - जोइसिए ति ।
२९८
$ ५१२. तिरिक्खा० ओघं । णवरि सम्मामि० णेरइयभंगो | पंचिदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० | भुज० असंखे० गुणा । अवहि० संखे०गुणा ! सम्म० - सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुयं । एवं मणुस अपज्ज० । मणुसाणं णेरइयभंगो | णवरि सम्म० - सम्मामि० सव्वत्थोवा अप्प० । अवत्त० संखे० गुणा | अवडि० असंखे० गुणा । एवं [ मणुस - ] पज्जत्त - मणुसिणीणं । णवरि सव्वत्थ संखेज्जगुणं कायव्वं
६५१३. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० । अवट्ठि० असंखे॰गुणा। सम्म०-सम्मामि० देवोघं । अनंताणु० चटक्क० सव्वत्थोवा अवत्त० । अप्पदर० संखे० गुणा । भुज० असंखे० गुणा । अवहि० असंखे० गुणा । अणुद्दिसादि
५११. आदेश से नारकियोंमें तेईस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व प्रोघके समान है । सम्यग्मिध्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पबहुत्व घके समान है । इतना विशेष है कि अल्पतर विभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव तथा सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवों में जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तक के नारकियोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्वक अल्पतर विभक्ति वहाँ नहीं होती । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवों में जानना चाहिए ।
$ ५१२. सामान्य तिर्थवों में ओघ के समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियों के समान है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वा अल्पबहुत्व वहाँ नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । मनुष्यों में नारकियोंके समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अल्पतर विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे वक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इसी प्रकार मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सर्वत्र असंख्यातगुणे के स्थान में संख्यातगुणा कर लेना चाहिये ।
५१३. आनत से लेकर नवमैत्रेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव श्रसंख्यातगुणे हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका अल्पबहुत्व सामान्य देवोंके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अल्पत रविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। उनसे भुजगार विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। उनसे वस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे समुक्कित्तणा
२९९ जाव अवराइद त्ति सत्तावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अप्पद० । अवहि० असंखे०गुणा । सम्मामि० णत्थि अप्पाबहुअं सव्वसिद्धिम्मि एवं चेव । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
पदणिक्खेवो 5 ५१४. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तं अप्पाबहुअं चेदि । समुक्त्तिणाणु० दुविहो णियमा--जह० उकस्सओ
चेदि। उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मिच्छत्त-सोल'सक०-णवणोक० अस्थि उक्कस्सिया वडी उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च । सम्म०सम्मामिच्छत्ताणं अत्थि उक्कस्सिया हाणी अवहाणं च । एवं तिण्हं मणुस्साणं ।।
५१५. आदेसेणणेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । सम्म० अत्थि उक्क हाणी। एवं पढमपुढवि-तिरिक्वतिय'-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारकप्पो ति । एवं विदियादि जाव सत्तमि त्ति । णवरि सम्मत्त० उक्क० हाणी णत्थि । एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-पंचिंतिरि०अपज्ज-मणुसअपज्ज०-भवण-वाण-जोदिसिए त्ति ।
५१६. आणदादि जाव सव्वसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणमत्थि उक्क० हाणी हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अल्पतरविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। उनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है। सर्वार्थसिद्धिमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगुणा कर लेना चाहिये। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
पदनिक्षेप ६५१४. पदनिक्षेपमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं -समुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । समुत्कीर्तनानुगम नियमसे दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान होता है । इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए।
। ५१५. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार पहली पृथिवी सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार कल्प तकके देवोंमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियतियश्च. योनिनी, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त, मनुष्यअपयोप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
५१६. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि १. ता० प्रा० प्रत्योः पढमपुढवि पंचिंदियतिरिक्खतिय इति पाठः ।
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३००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अवहाणं च । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अणंताणु०४ ओघं । सम्मत्त० देवोघं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६५१७. जहएणयं पि एवं चेव भाणिदव्यं । णवरि जहण्णणिद्द सो कायव्यो।
६५१८. सामित्ताणु० दुविहो-जहएणमुक्कस्सं च । उकस्से पयदं । दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छ०-सोलसक०-णवणोक० उक्कस्सिया वड्डी कस्स ? अण्णदरो जो चदुढाणियजवमज्झस्सुवरिमंतोमुहुत्तमणंतगुणाए बड्डीए वड्डिदो तदो उक्कस्ससंकिलेसं गंतूण उक्कस्साणु०भागं बंधमाणस्स तस्स उक्कस्सिया वड्डी। तस्सैव से काले उक्कस्समवहाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उकस्साणुभाग-. संतकम्मिओ तेण उक्कस्साणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो दंसणमोहक्ववो तेण पढमे अणुभागकंडए हदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । एवं तिण्हं मणुस्साणं ।
___ ५१६. श्रादेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । सम्म० उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो दसणमोहक्खवओ सम्मत्तहिदी अंतोमुहुत्तमत्थि त्ति रइएमु उववण्णो तस्स विदियसमयणेरइयस्स उक्क० हाणी । एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय-देवोघं
और अवस्थान होता है। इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
५१७. इसी प्रकार जघन्यका भी कथन कर लेना चाहिये। अन्तर केवल इतना है कि उत्कृष्टके स्थानमें जघन्यका निर्देश करना चाहिये।
५१८ स्वामित्वानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, सोलह कषाय और नव नोकषायोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो चतुःस्थानिक यवमध्यके ऊपर अन्तमुहूर्त तक अनन्तगुणी वृद्धिसे बढ़ा, बादमें उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होकर जिसने उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध किया उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है। जिस उत्कृष्ट अनुभागकी सत्तावाले जीवने उत्कृष्ट अनुभाग का काण्डक घात किया है उसके उत्कृष्ट हानि हाती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट हानि किसके हाती है ? जो दर्शनमोहका क्षपक जीव है उसके द्वारा प्रथम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसके उत्कृष्ट हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए।
५१९. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो दर्शनमोहका क्षपक जीव सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थितिके रहते हुए नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, द्वितीय समयवर्ती उस नारकीके सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार प्रथम नरक, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
३०१ सोहम्मादि जाव सहस्सारे ति । एवं विदियादि जाव सत्तमि त्ति । गवरि सम्मत्त० उक्क० हाणी णत्थि । एवं पंचिदियतिरिक्खजोणिणी-भवण०-वाण०-जोदिसिए त्ति ।
५२०. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयडीणमुक्क० बड़ी कस्स ? जो तप्पाओग्गजहण्णाणुभागसंतकम्मिओ तेण तप्पाओग्गउक्कस्साणुभागे पबद्धे तस्स उक्कस्सिया वड्डी । उक्क हाणी कस्स ? अण्णदरो जो उक्कस्साणुभागसंतकम्मिो उक्कस्साणुभागखंडयमागाएदूण पुणो पंचिंदियतिरिक्वअपज्जत्तएसु उववण्णो तेण उक्कस्साणुभागखंडए घादिदे तस्स उक्कस्सिया हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं । एवं मणुस०अपज्ज०।
___$ ५२१. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति छब्बीसं पयडीणमुक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरो जो पढमसम्मत्ताहिमुहो तेण पढमे अणुभागखंडए हदे तस्स उक्क. हाणी। तस्सेव से काले उक्कस्समवहाणं। णवरि अणंताणु०४ उक्क० वड्डी कस्स ? अण्ण. विसंजोएदूण संजुत्तस्स तप्पाओग्गउक्कस्ससंकिलेसं गदस्स तस्स उक्क० वड्डी । सम्मत्त० देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणमुक्क० हाणी कस्स ? अण्णादरो जो अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोएमाणओ तेण पढमे अणुभागखंडए हदे तस्स उक्क० हाणी। तस्सव से काले उकस्समवहाणं । सम्मत्त० देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जानना चाहिए । इसी प्रकार दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट हानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
६५२०. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चअपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जिसके अपने योग्य जघन्य अनुभागकी सत्ता है उसके अपने योग्य उत्कृष्ट अनुभागका बन्ध करने पर उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जिसके उत्कृष्ट अनुभागकी सत्ता है वह उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकको ग्रहण कर पुन: पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इसी प्रकार मनुष्य अपयाप्तकोंमें जानना चाहिए।
६५२१. आनतसे लेकर नववेयक तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो जीव प्रथम सम्यक्त्वके अभिमुख है उसके द्वारा प्रथम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसके उत्कृष्ट हानि होती है । तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन करके जो जीव पुनः उनसे संयुक्त होकर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट संक्लेशको प्राप्त होता है उस जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। अनुदिशसे लेकर सवार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करनेवाला जो जीव प्रथम अनुभाग काण्डकका घात करता है उसके उत्कृष्ट हानि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। सम्यक्त्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जाव अणाहारि त्ति ।
५२२. जहण्णए पयदं । दुविहो जिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छस-अढकसाय० तिराहं पदाणं जहण्णि. कस्स' ? अएणदरो जो मुहमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मिो तेण अणंतभागवड्डीए एगपक्खेवे वडिदूण पबद्धे जहणिया वडी । तम्मि चेव घादिदे जहणिया हाणी । एगदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त० जहणिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयो तस्स जहरिणया हाणी। जहएणमवहाणं कस्स ? चरिममणुभागखंडयोवत्तस्स । सम्मामि० जह. हाणी कस्स ? अण्णदरो जो दंसणमोहक्खवओ तेण दुचरिमे अणुभागखंढए हदे तस्स जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । अणंताणु०चउक्क० ज० वड्डी कस्स ? अण्णदरो जो विसंजोएदूण पुणो संजुज्जमाणओ तस्स तप्पाओग्गविसुद्धस्स विदियसमयसंजुत्तस्स जहणिया वड्डी । जहणिया हाणी कस्स ? अण्णदरो जो विसंजोएदूण अंतोमुहुत्तसंजुत्तो विस्संतो जाव सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो हेट्टा बंधदि ताव तेण सव्वत्थोवे अणुभागे घादिदे तस्स जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । लोभसंजलण. जह० वड्डी कस्स ? जो मुहुमेइंदियअणुभागसंत--
पर्यन्त ले जाना चाहिये।
५२२. प्रकृतमें जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-- ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जघन्य अनुभागकी सत्तावाला जो सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव अनन्तभागवृद्धिमें एक . प्रक्षेपकको बढ़ाकर बन्ध करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है। उसी प्रक्षेपकके घात किये जाने पर जघन्य हानि होती है। तथा दोनोंमेंसे किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है । सम्यक्त्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? दर्शनमोहका क्षय करनेवालेके अन्तिम समयमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य हानि होती है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ? अन्तिम अनुभाग काण्डकका अपवर्तन करनेवालेके सम्यक्त्व प्रकृतिका जघन्य अवस्थान होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? दर्शनमोहके क्षपकके द्वारा द्विचरम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसके जघन्य हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुन: उसका संयोजन करनेवाले तत्प्रायोग्य विशुद्ध परिणावाले जीवके संयोजनके दूसरे समयमें जघन्य वृद्धि होती है । जघन्य हानि किसके होती है ? जो विसंयोजन करके अन्तमुहूते बाद संयोजन कर लेने पर विश्राम करता हुआ जब तक सूक्ष्म एकन्द्रि जघन्य अनुभाग सत्कर्मसे नीचे बंध करता है तब तक उसके द्वारा सबसे थाड़े अनुभागका धात किये जाने पर उसके जघन्य हानि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। लोभसंज्वलनकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य अनुभागकी सत्ता वाले जिस सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके सबसे जघन्य अनन्तवें भागप्रमाण अनुभागकी वृद्धि होती
१. ता० प्रतौ पदाणं जहरिण • [ वड्ढी ] कस्स, अ० प्रतौ पदाणं जहरण कस्स इति पाठः ।
दियके
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गा०२२] अणुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
३०३ कम्मिओ सव्वजहण्णअणंतभागेण वडिदो तस्स जहणिया वड्डी। ज० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स खवयस्स चरिमसमयसकसायस्स । जहण्णमवहाणं कस्स ? अण्णदरस्स खवयस्स चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणस्स । इत्थि-णqसयदाणं ज० वड्डी कस्स ? मुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मियस्स तप्पाओग्गजहण्णअणंतभागवड्डीए वडिदस्स जहणिया वड्डी। जह० हाणी कस्स ? इत्थि-णqसयवेदोदएणुवहिदक्खवएणं चरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी। जहण्णमवहाणं कस्स ? तेणेव दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहएणमवहाणं। पुरिस० तिएहं संजलणाणं जहण्णवड्डीए मिच्छत्तभंगो। जहरिणया हाणी कस्स ? अण्णदरस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदस्स तस्स जह० हाणी। जहण्णमवहाणं कस्स ? अण्णद० खवगस्स चरिमे अणुभागस्स खंडए वट्टमाणस्प्त । छएणोक० जहएणवड्डीए मिच्छत्तभंगो । जह० हाणी कस्स ? खवगेण दुचरिमे अणुभागरखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । एवं तिण्हं मणुस्साणं । णवरि मणुसपज्जत्तएम इत्थि० छण्णोकसायाणं भंगो । मणुसिणीसु पुरिस-णस० छण्णोकसायभंगो।
१५२३. आदेसेण णेरइएमु मिच्छत्त--बारसक०-णवणोक० जहरिणया वड्डी
है उसके जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? क्षपकके सकषाय अवस्थाके अन्तिम समयमें संज्वलन लोभकी जघन्य हानि होती है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ? संज्वलन लोभके अन्तिम अनुभाग काण्डकमें वर्तमान अन्यतर क्षपकके जघन्य अवस्थान होता है। स्त्री वेद और नपुंसकवेदकी जधन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य अनुभागकी सत्तावाले सूक्ष्म एकेन्द्रियके तत्प्रायोग्य जघन्य अनन्तभागवृद्धिके होने पर जघन्य वृद्धि होती है। जघन्य हानि किसके होती है ? स्त्रीवेद और नपुंसकरेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके द्वारा अन्तिम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी जघन्य हानि होती है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ? उसी क्षपकके द्वारा द्विचरम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसके जघन्य अवस्थान होता है। पुरुषवेद और लोभके सिवा शेष तीन संज्वलन कषायोंकी जघन्य वृद्धिका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। जघन्य हानि किसके होती है ? अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपित अन्यतर क्षपकके इन प्रकृतियोंकी जघन्य हानि होती है। जघन्य अवस्थान किसके होता है ? अन्तिम अनुभाग काण्डकमें वर्तमान क्षपकके जघन्य अवस्थान होता है। छह नोकषायों की जघन्य वृद्धिका भंग मिथ्यात्वके समान है। जघन्य हानि किसके होती है ? क्षपक के द्वारा द्विचरम अनुभाग काण्डकका घात किये जानेपर उसके छह नोकषायो की जघन्य हानि होती है । तथा उसी के अनन्तर समय में जघन्य अवस्थान होता है । इसी प्रकार तीनों प्रकार के मनुष्यों में जानना चाहिये। इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्तकोंमें स्त्रीवेद का भङ्ग छह नोकषायों के समान है और मनुष्यिनियो में पुरुषवेद तथा नपुंसकवेदका भङ्ग छह नोकषायो के समान है।
$ ५२३. आदेशसे नारकियोंमें मिथ्यात्व, बारह काषाय और नव नोकषायोंकी जघन्य
१. ता० प्रतौ इत्थिणंवुसयवेदोदएणुवडिढदक्खवएण इति पाठः ।
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३०४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ कस्स ? असण्णिपच्छायदेण हदसमुप्पत्तियकम्मेणागदेण अणंतभागेण वडिदूण बंधे तस्स जहणिया वड्डी । तम्मि चेव खंडयघादेण घाइदे जह० हाणी। एगदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त० जहणिया हाणी कस्स ? चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । अणंताणु०चउक्क० ओघं । एवं पढमपुढवि-देवोघं ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति वावीसंपयडीणं जहणिया वड्डी कस्स ? मिच्छाइहिस्स तप्पाओग्गअणंतभागेण वडिदस्स । तम्हि चेव घादिदे जहणिया हाणी । एगदरत्थ अवहाणं । अणंताणु० चउक्क० ओघं ।
५२४. तिरिक्खेसु वावीसं पयडीणं जह० वड्डी कस्स ? सुहुमेइंदिएण जहण्णाणुभागसंतकम्मिएण अणंतभागेण वड्डिदृण पबद्धे जहणिया वड्डी। तम्मि चेव घाइदे जहणिया हाणी। एगदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० जेरइयभंगो । पंचिंदियतिरिक्वतिएसु वावीसं पयडीणं जह० वडी कस्स ? सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मेण आगंतूण अणंतभागेण वडिदण पबद्धे जह० वड्डी। तम्हि चेव घाइदे जहण्णि. हाणी । एगदरत्थ अवहाणं । सम्मत्त-अणंताणु० चउक्क० तिरिक्खोघं । णवरि जोणिणी० सम्म०वजं । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० वावीसं पयडीणमेवं चेव । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो। एवं मणुसअपज्ज० । भवण०-वाण. पढमपुढविभंगी। वृद्धि किसके होती है ? हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ असंज्ञी पर्यायसे आकर जो नरकमें जन्म लेता है और सत्तामें स्थित अनुभागसे अनन्तभागवृद्धिको लिए हुए बंध करता है उसके जघन्य वृद्धि होती है। और उस बढ़े हुए अनुभागका काण्डक घातके द्वारा घात किए जाने पर जघन्य हानि होती है। इन्हीं दोनोंमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है । सम्यक्त्वकी जघन्य हानि किसके होती है ? दर्शनमोहके क्षपकके अन्तिम समयमें होती है। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी और सामान्य देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य वृद्धिके योग्य अनन्तभागवृद्धिसे युक्त मिथ्यादृष्टि जीवके होती है । उसीका घात करने पर जघन्य हानि होती है। दोनों अवस्थाओंमेंसे किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है।
५२४. तिर्यञ्चोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य अनुभागकी सत्तावाले सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके द्वारा अनन्तभागवृद्धिरूप बन्ध करने पर जघन्य वृद्धि होती है। उसीका घात कर देने पर जघन्य हानि होती है। दोनोंमेंसे किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। सम्यक्त्व प्रकृति और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग नारकियोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें बाईस प्रकृतियोंकी जघन्य वृद्धि किसके होती है ? जघन्य अनुभागकी सत्तावाला सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें जन्म लेकर जब अनन्तभागवृद्धिको लिए हुये अनुभागका बन्ध करता है तो उसके जघन्य वृद्धि होती है। उसीका घात करने पर जघन्य हानि होती है। तथा दोनोंमेंसे किसी एक जगह जघन्य अवस्थान होता है। सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग तिर्यञ्चोंके समान है। इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनियोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें बाईस प्रकृतियोंकी वृद्धि आदिका स्वामिपना इसी प्रकार है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । भवनवासी और व्यन्तरोंमें पहली
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جدی می به نیمای
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गा० २२]
अनुभागविहत्तीए पदणिक्खेवे अप्पाबहुअं णवरि सम्मत्तवजं । जोदिसिय विदियपुढविभंगो । एवं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि सम्मत्त० रइयभंगो।।
५२५. आणदादि जाव सव्वहसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणं जहणिया हाणी कस्स ? अणंताणु० चउक्क० विसंजोयंतेण अपच्छिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जह० हाणी। तस्सेव से काले जहण्णमवहाणं । सम्मत्त० ज० देवोघं । णवरि अणंताणु० चउक्कस्स दुचरिमे अणुभागखंडए हदे तस्स जहणिया हाणी । तस्सेव से काले जहण्ण मवहाणं । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा ति अणंत्ताणु०४ ओघं। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।।
५२६. अप्पाबहुअं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं। दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं सव्वत्थोवा उक्कस्सिया हाणी। वडी अवहाणाणि दो वि सरिसाणि विसेसाहियाणि । सम्मत्त-सम्मामिच्छताणं णत्थि अप्पाबहुअं, उक्क० हाणि-अवहाणाणं सरिसत्तादो । एवं तिण्हं मणुस्साणं।।
$ ५२७. आदेसेण जेरइएसु छब्बीसं पयडीणमोघं । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्खचउक्क०-देवोघं भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयपृथिवीके समान भङ्ग है । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिको छोड़ देना चाहिए । ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथिवीके समान भङ्ग है। इसी प्रकार सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि यहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग नारकियोंके समान है।
५२५. आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवों में छब्बीस प्रकृतियों की जघन्य हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करनेवाले जीवके द्वारा अन्तिम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर जघन्य हानि होती है। उसीके अनन्तर समयमें जघन्य अवस्थान होता है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी जघन्य हानिका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धी चतुष्कके द्विचरम अनुभाग काण्डकका घात किये जाने पर उसकी जघन्य हानि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उसका जघन्य अवस्थान होता है। इतना विशेष और है कि आनतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
५२६. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । प्रकृतमें उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि सबसे अल्प है । उत्कृष्ट वृद्धि और अवस्थान दोनों समान हैं किन्तु उत्कृष्ट हानिसे कुछ अधिक हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थानका प्रमाण समान है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें जानना चाहिए।
६५२७. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका अल्पबहुत्व ओषके समान है। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, पञ्चेन्द्रियतियञ्च योनिनी, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे अल्प है। उत्कृष्ट हानि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ढीणं सव्वत्थोवा उक्कसिया वडी। हाणी अवहाणं च दो वि सरिसाणि अणंतगुणाणि। एवं मणुसअपज्ज।
५२८. आणदादि जाव सवसिद्धि ति छब्बीसं पयडीणमुक्क० हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिणाणि । णवरि आणदादि गवगेवज्जा त्ति अणंताणु०४ सव्वत्थोवा उक्क० वड्डी । हाणी अवहाणं च अणंतगुणं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
५२६. जहण्णए पयदं । दुविहो गिद्द सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-अढक० ज० वड्डी हाणी अवहाणाणि तिण्णि वि सरिसाणि । सम्मत्त० सव्वत्थोवा जह० हाणी। अवहाणमणंतगुणं । अणंताणु०चउक्क० सव्वत्थोवा ज. वडी। हाणी अवहाणाणि दो वि सरिसाणि अणंतगुणाणि । चदुसंज०-पुरिस० सव्वत्थोवा ज० हाणी । अवहाणमणंतगुणं । वड्डी अणंतगुणा । एवमित्थि-णqसयवेदाणं । छण्णोक० सव्वत्थोवा जहण्णहाणी अवहाणं च । वडी अणंतगुणा। सम्मामि० जह० हाणी अवहाणाणि दो वि सरिसाणि । एवं तिएहं मणुस्साणं । णवरि मणुसपज. इत्थि० छण्णोकसायभंगो । मणुस्सिणी० पुरिस०-णस० छण्णोकभंगो ।
६५३०. आदेसेण णेरइएसु वावीसंपयडीणं तिण्ण पदा सरिसा । अणंताणु०चउक० ओघं। सम्मत्त० णत्थि अप्पाबहुअं। एवं सत्तसु पुढवीसु तिरिक्खचउक्क० और अवस्थान दोनों समान हैं किन्तु उत्कृष्ट वृद्धिसे अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
५२८. आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी उत्कृष्ट हानि और अवस्थान दोनों समान हैं। इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी उत्कृष्ट वृद्धि सबसे अल्प है । उत्कृष्ट हानि और अवस्थान अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
५२९. अब जघन्य का प्रकरण है। निर्देश दो प्रकार का है- ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व और आठ कषायोंकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और अवस्थान तीनों ही समान है । सम्यक्त्वकी जघन्य हानि सबसे अल्प हे । उससे अवस्थान अनन्तगुणा है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी जघन्य वृद्धि सबसे अल्प है। जघन्य हानि और अवस्थान दानों ही समान हैं; किन्तु जघन्य वृद्धि से अनन्तगुण है। चारा संज्वलन और पुरुषवदकी जघन्य हानि सबसे अल्प है। उससे जघन्य अवस्थान अनन्तगणा हे। उससे जघन्य वृद्धि अनन्तगणी है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी अपेक्षा अल्पबहुत्व जानना चाहिए । छह नोकषायोंकी जघन्य हानि
और अवस्थान सबसे थोड़े हैं। उनसे जघन्य वृद्धि अनन्तगुणी है। सम्यग्मिथ्यात्वकी जघन्य हानि और अवस्थान दोनों ही समान है । इसी प्रकार तीन प्रकारक मनुष्योंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि मनुष्य पयाप्तकोंम स्त्रीवदका भङ्ग छह नाकषायोके समान है और मनुष्यनियों में पुरुषवद और नपुंसकवदका भङ्ग छह नाकषायोंक समान है।
५३०. आदेशसे नाराकयाम बाईस प्रकातयोक तीनों पद समान हैं। अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग आघकी तरह है। सम्यक्त्वका अल्पबहुत्व नहा ह । इसी प्रकार साता पृथिावयोम सामान्य तियञ्च, पञ्चेन्द्रियातयञ्च, पञ्चन्द्रियतियश्च पयाप्त, पञ्चेन्द्रियतियंञ्चयोनिनी, सामान्य देव
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गा० २२]
अणुभागविहत्ती वड्डीए समुच्कित्तणा
३०७
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देवोघं भवणादि जाव सहस्सारो ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसं पयडी तिणि पदा सरिसा । एवं मणुसअपज्ज० । आणदादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणं ज० हाणी अवद्वाणं च दो वि सरिसाणि । णवरि आणदादि जाव णवगेवज्जा तिताणु ० चउक० देवोघं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं पदणिक्खेवो समत्तो । वित्ती
$ ५३१. वडिविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा - समुक्कित्तणा एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ भागाभागं परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं भावो अप्पाबहु चेदि । तत्थ समुकित्तणाणु ० दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणमत्थि afront at aort हाणी अवद्वाणं च अणंताणु ० चउक्क० अवत्तव्वं च । सम्मत्त-सम्मा मिच्छत्ताणमत्थि अनंतगुणहाणी अवद्वाणमवत्तव्वं च । एवं णेरइयाणं । णवरि सम्मामि० अनंतगुणहाणी णत्थि । एवं पढमपुढवि० - तिरिक्खतिय • - देवोघं सोहम्मादि जाव सहसारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो | एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी भवरण ० -वाण० - जोदिसिया त्ति ।
और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकों में छब्बीस प्रकृतियोंके तीनों पद समान हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए ।
नत से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी जघन्य हानि और अवस्थान दोनों ही समान हैं । इतना विशेष है कि नतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । इस प्रकार पदनिक्षेप समाप्त हुआ । वृद्धिविभक्ति
९५३१. वृद्धि विभक्तिमें ये तेरह अनुयोगद्वार जानने चाहिये। जो इस प्रकार हैंसमुत्कीर्तना, एक जीव की अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, भागाभाग, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व । उनमें से समुत्कीर्तनानुगम की अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी छह प्रकार की वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्यविभक्ति भी होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अनन्तगुणहानि, अवस्थान और अवक्तव्यविभक्ति होती हैं । इसी प्रकार नारकियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि वहाँ सम्यग्मिथ्यात्व की हानि नहीं होती । इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्ग से लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी से लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वप्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्व के समान है । इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यच्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५३२. पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं अत्थि छव्विहा वड्डी छव्विहा हाणी अवहाणं च । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमत्थि अवहिदं । एवं मणुसअपज्ज०। तिएहं मणुस्साणमोघं । आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमत्थि अणंतगुणहानी अवहिदं । अणंताणु०चउक्क० छवड्डी हाणी अवडिदं अवत्तव्वं च । सम्मत्तसम्मामि० देवोघं । अणुद्दिस्सादि जाव सव्वदृसिद्धि ति सत्तावीसं पयडीणमत्थि अणंतगुणहाणी अवहिदं च । सम्मामि० अत्थि अवहिदं। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
५३३. सामित्ताणुगमेण दुविहो णिद्दे सो—ोघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० छविहा वडी पंचविहा हाणी कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स। अणंतगुणहाणी अवहिदं च कस्स ? अएणदरस्स सम्माइहिस्स मिच्छाइहिस्स वा। एवमणंताणु० चउक्क० । गवरि अवत्तव्व. पढमसमयसंजुत्तस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमणंतगुणहाणी कस्स ? अएणदरस्स दंसणमोहक्खवयस्स । एत्थ अएगदरसदो वेदोगाहणविसेसावेक्खो। अवहि० अण्णद० सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । अवत्तव्वं कस्स ? पढमसमयसम्माइहिस्स । एवं तिएहं मणुस्साणं ।
५३४. आदेसेण णेरइएमु सत्तावीसं पयडीणमोघं। सम्मामि० अवहि० ९५३२. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि और अवस्थान होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवस्थितविभक्ति होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें ओघकी तरह भङ्ग है । आनतसे लेकर नव प्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियों की अनन्तगुणहानि और अवस्थान होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह प्रकारकी वृद्धि, छह प्रकारकी हानि, अवस्थिति और अवक्तव्यविभक्तियां होती हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामन्य देवोंकी तरह है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि और अवस्थान होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति होती है। इस प्रकार जानकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
६५३३. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी छह प्रकारकी वृद्धि और पाँच प्रकारकी हानि किसके होती है ? किसी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अनन्तगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टिके होते हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्ति अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करके पुनः संयोजन करनेवालेके प्रथम समयमें होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि किसके होती है ? किसी भी दर्शनमोहके क्षपकके होती है। यहाँ अन्यतर शब्द किसी खास वेद या अवगाहनाकी अपेक्षा नहीं करता है। अवस्थितविभक्ति किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टिके होती है। अवक्तव्यविभक्ति किसके होती है ? सम्यग्दृष्टि जीवके प्रथम समयमें होती है ? इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए।
५३४. श्रादेशसे नारकियोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघकी तरह है । सम्य
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वढीए कालो
३०९ अवत्तव्व० ओघं । एवं पढमपुढवि-तिरिणतिरिक्ख-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी-भवण०-वाण-जोदिसिए ति ।।
५३५. पंचिंदियतिरिक्ख०--मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं छवडि-छहाणिअवहाणाणि सम्म०-सम्मामि० अवहिदं च कस्स ? अण्णद०। आणदादि जाव णवगेवज्जा ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणी अवहिदं च कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइहिस्स वा। सम्मत्त० अणंतगुणहाणी कस्स ? अण्णद. कदकरणिज्जस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमवहि-अवत्त० ओघं। अणंताणु० चउक० ओघं। अणुदिस्सादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति सत्तावीसं पयडीणमणंतगुणहाणी अवडि० सम्मामिच्छ० अवहिदं च कस्स ? अण्णद० सम्मादिहिस्स। अण्णदरसदो' विमाणोगाहणविसेसाभावपदुप्पायणफलो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६५३६. कालाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मिच्छत्तअहक०-अहणोक० पंचवडिकालो जह० एगसमो, उक्क० आवलियाए असंखे० भागो। ग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति और अवक्तव्यविभक्तिका भङ्ग ओघकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतियंञ्चपयोप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें आनना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वकी अनन्त. गुणहानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिए।
१५३५. पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियां, छह हानियां और अवस्थान तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तके होती हैं । आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके होते हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि किसके होती है ? किसी भी कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके होती है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तियोंका भङ्ग ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग ओघके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि और अवस्थित तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तियाँ किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होती हैं। यहाँ 'अन्यतर' शब्दका प्रयोजन किसी विमान विशेष या अवगाहन विशेषके अभावको बतलाता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।।
९५३६. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी पाँच वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य काल एक
१. श्रा० प्रती अण्णदस्सद्दो इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणंतगुणवडिकालो ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । छहाणिकालो जहण्णुक्क० एगस० । कुदो ? ओकड्डणाए अणुभागकंडयदुचरिमादिफालिसु वा णिवदमाणियासु अणुभागडाणस्स घादाभावादो। तं पि कुदो ? अप्पहाणीकयसरिसधणियकम्मक्रवंधत्तादो चरिमवग्गणाए पविहाणं दुचरिमादिवग्गणाणं पहाणत्ताभावादो च । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदोवमस्स असंखे०भागेण सादिरेयं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणिकालो ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहिद० ज० अंतोमु०, उक्क. वेछावहिसागरोवमाणि तीहि पलिदो० असंखे०भागेहि सादिरेयाणि । अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । सम्मामि० अणंतगुणहाणि-अवत्त० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि० जह० अंतोमु०, उक्क० सम्मत्तभंगो। अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो । णवरि अवत्त० जहण्णुक० एगस। चदुसंजलण. मिच्छत्तभंगो। णवरि अणंतगुणहाणिकालो उक्क० अंतोमुहुत्तं । एवं पुरिस० णवरि अणंतगुणहाणिकालो ज० एगस०, उक्क० दो आवलियाओ समयूणाओ।।
६ ५३७. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणं छवडिकालो ओघं । छहाणिकालो जहण्णुक० एगस० । अवहि० ज० एगस०, उक० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु० चउक्क. अवत्तव्व० ओघं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवत्त० सम्मामि० समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि अपकर्षणके द्वारा अनुभागकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंके पतन होने पर अनुभागस्थानका घात नहीं होता है। यह कैसे जाना ? क्योंकि प्रथम तो समान धनवाले कर्मस्कन्ध अप्रधान हैं। दूसरे अन्तिम वर्गणामें प्रविष्ट हुई द्विचरम आदि वर्गणाओंकी यहाँ प्रधानता नहीं हैं । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल पल्यके तीन असंख्यात भागोंसे अधिक दो छियासठ सागर है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्महर्त है और उत्कृष्ट कालका भङ्ग सम्यक्त्वके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। चार संज्वलन कषायोंका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अनन्तगणहानिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार पुरुषवेदकी अपेक्षा जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल एक समय कम एक आवली है।
५३७. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियोंका काल ओघके समान है। छह हानियोंका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका भङ्ग ओघके समान है । सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका काल तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यक्त्व
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए कालो
३११ अवत्त० ओघं । दोण्हमवहिदं ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो. संपुषणाणि । एवं पढमपुढवि० । णवरि सगहिदी। विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सगहिदी । सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णस्थि ।।
५३८. तिरिक्ख० छब्बीसं पयडीणं छवड्डि-हाणीणं णेरइयभंगो । अवढि० ज० एगस०, उक्क० तिषिण पलिदोवमाणि अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । अणंताणु०चउक्क० अवत्त० ओघं । सम्मामि० अवत्त० सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवत्त० ओघं । दोण्हमवहि० मिच्छत्तभंगो । णवरि सादिरेयपमाणं पलिदो० असंखे०भागो। एवं तिएहं पंचिंदियतिरिक्खाणं । णवरि सम्म.-सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिरिण पलिदोवमाणि पुव्वकोडिपुधत्तेण सादिरेयाणि । जोणिणीसु सम्मत्त० अणंतगुणहाणी पत्थि । पंचिंरियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं छवड्डि-हाणीणं णेरइयभंगो। अवहि० सम्म०--सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । तिएहं मणुस्साणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो। णवरि पुरिस०-चदुसंजल०-सम्मामि० अणंतगुणहाणी ओघं । मणुसिणीसु पुरिस० अणंतगुणहाणी जहण्णुक्क० एगस० ।
५३६. देवाणं णेरइयभंगो। णवरि सव्वेसिमवहिदं जह० एगस०, उक्क० और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सम्पर्ण तेतीस सागर है। इसी प्रकार पहली पृथिवीमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तेतीस सागरके स्थानमें पहले नरककी स्थिति लेनी चाहिये। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकिया में इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अपने अपने नरककी स्थिति लेनी चाहिए। तथा सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि दूसरे आदि नरको में नहीं होती। ।
५३८. सामान्य तिर्यञ्चा में छब्बीस प्रकृतियाकी छह वृद्धियों और छह हानियोंका भङ्ग नारकिया के समान है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्महर्त अधिक तीन पल्य है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका काल ओघके समान है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्य विभक्तिका तथा सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिका काल अोधके समान है। सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी अवस्थित विभक्तिका काल मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि कुछ अधिकका प्रमाण पल्यका असंख्यातवाँ भाग है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियातर्यश्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यश्च योनिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक तीन पल्य है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों में सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्त और मनुष्य अपर्याप्तको में छह वृद्धि और छह हानियो का काल नारकिया के समान है। इनकी अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। तीनो प्रकारके मनुष्या में पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चो के समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि पुरुषवेद, चारों सज्वलन और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका काल ओघके समान है। मनुष्यिनियों में पुरुषवेदकी अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है ।
६५३९. देवामें नारकियोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि सब प्रकृतियों की
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! जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अणुभागविहत्ती ४ तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुण्णाणि । भवण-वाण-जोदिसि० विदियपुढविभंगो । णवरि अवहिदस्स सगहिदी । सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति पढमपुढविभंगो। णवरि अवहि० सगहिदी। आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणिकालो जहएणक्क० एगस० । अवहि० ज० अंतोमु०, उक्क०सगहिदी । सम्म०-सम्मामि० देवोघं । णवरि सगहिदी । अणंताणु० चउक० छवड्डी छहाणी. देवोघं । अवहि० ज० एगस०, उक्क. सगहिदी । अवतव्व० ओघं । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसं पयडीणमणंतगुणहाणी० जहएणक० एगस। अवहि. जह० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी। सम्मत्त० देवोघं । णवरि सम्मत्त-सम्मामि० अवहि. जहण्णुक्क. सगहिदी । एवं जाणिदण णेदव्वं जोव अणाहारि त्ति ।।
५४०. अंतराणु० दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं पंचवडी पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क. असंखेज्जा लोगा। अणंतगुणवडी० ज० एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं तीहि पलिदोवमेहि सादिरेयं । अणंतगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे०भागेण सादिरेयं । अवहि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्म०-सम्मामि० अणंतगुणहाणी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है, और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियो में दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । आनतसे लेकर नववेयक तकके देवोमें बाईस प्रकृतियो की अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवो की तरह है। इतना विशेष है कि यहाँ अपनी अपनी स्थिति लेनी चाहिये । अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी छह वृद्धि और छह हानियों का काल सामान्य देवो की तरह है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। अवक्तव्य विभक्तिका काल श्रोधके समान है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकक देवोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी स्थितिप्रमाण है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६५४०. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तर क्रमश: एक समय और अन्तर्मुहर्त है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि का जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं
३१३ जहण्णुक्क० अंतोमु० । अवढि०-अवत्त० ज० एगस० पलिदो० असंखे भागो, उक्क० दोण्हं पि उवट्टपोग्गलपरियट्ट । अणंताणु०चउक्क० मिच्छत्तभंगो। णवरि अवहि० ज० एगस०, उक्क० वेछावहिसागरो० देसूणाणि । अवत्त ० ज० अंतोमु०, उक्क० उवट्टपोग्गलपरियट्ट ।
६५४१. आदेसेण णेरइएसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० छवडी छहाणी ज. एगसमओ अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । अवहि. ओघं । अणंताणु०चउक्क० छवडि-अवहि-छहाणि-अवत्त० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० तेत्तीस साग० देसूणाणि । सम्मत्त० अर्णतगुणहाणी णत्थि अंतरं। सम्म०-सम्मामि० अवहि-अवत्त० ज० एगस० पलिदो० असंखे० भागो, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइय०। णवरि संगहिदी । विदियादि जाव सत्तमि त्ति सम्मत्त ० अणंतगुणहाणी णत्थि ।
६ ५४२. तिरिक्ख० वावीसंपयडीणं पंचवडि-पंचहाणि-अवढि० ओघं । अणंतगुणवड्डी० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे० भागो । अणंतगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदो० अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । सम्मत्त० अणंतगुणहाणी. णत्थि
अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है तथा दोनों विभक्तियों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्द्धपुद्गल परावर्तन प्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागरप्रमाण है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अर्द्ध पुद्गल परावर्तनप्रमाण है।
५४१. श्रादेशसे नारकियो में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायो की छ गोका जघन्य अन्तर एक समय है और छ हानियों का जघन्य अन्तर अन्तमुहूते है। तथा दोनों का उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छ वृद्धियो और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, छह हानियों और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिका अन्तर नहीं हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तथा दोनों का उत्कृष्ट अन्तर कछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तेतीस सागरके स्थानमें प्रत्येक नारकीकी अपनी अपनी स्थिति लेनी चाहिये। दूसरेसे लेकर सातवें नरक तकके नारकियों में सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती।
१५४२. सामान्य तिर्यञ्चों में बाईस प्रकृतियो की पांच वृद्धियो', पांच हानियों और अवस्थित विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। सामान्य तिर्यश्चों में सम्यक्त्वप्रकृतिकी अनन्तगुणहानिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अंतरं । दोण्हमवहि-अवत्तव्व० ओघं । अणंताणु० चउक्क० मिच्छत्तभंगो। णवरि अणंतगुणवड्डी० जह० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० सादिरेयाणि । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदो० देसूणाणि । अवत्त० ओघ । तिण्हं पंचिदियतिरिक्खाणं वावीसंपयडीणं छवडि-पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० पुव्वकोडिपुधत्तं । [अणंत]गुणहाणि०-अवहि० तिरिक्खोघं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणी० रइयभंगो। सम्म०-सम्मामि० अवहि०-अवत्त० ज० ओघं, उक्क० सगहिदी देसूणा । अणंताणु०चउक्क० छवडि-छहाणी० जह० एगस० अंतोमु०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । अवहि० तिरिक्खोघं । अवत्त० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । जोणिणी० सम्म० अणंतगुणहाणी णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसपयडीणं छवडि-अवहि० ज० एगस०, छहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिमंतोमु० । सम्म०सम्मामि० अवहि. णत्थि अंतरं । एवं मणुसअपज्ज।
$ ५४३. तिण्हं मणुस्साणं वावीसंपयडीणं पंचवडि-छहाणि-अवहि० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। अणंतगुणवड्डी० ज० एगस०, उक्क० पुव्वकोडी देसूणा । अणंताणु०
विभक्तिका अन्तर ओघके समान है । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। इतना विशेष है कि अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीन पल्य है । अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर ओघके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों में बाईस प्रकृतियों की छ वृद्धियो
और पाँच हानियो का जघन्य अन्तर क्रमशः एक समय और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर पूर्वकोटि पृथक्त्वप्रमाण है । अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका अन्तर सामान्य तिर्यश्चों के समान है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका भङ्ग नारकियों के समान है। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व प्रक्रतियो की अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघके समान है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों का जघन्य अन्तर एक समय है और छह हानियो का जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा दोनोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक तीन पल्य है। अवस्थितका अन्तर सामान्य तियञ्चोंकी तरह है। अवक्तव्यविभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है । पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपयोप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है, छह हानियोंका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है तथा सब विभक्तियोंका उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूते है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
६५४३. तीन प्रकारके मनुष्यो में बाईस प्रकृतियों की पांच वृद्धियो छह हानियो और अवस्थित विभक्तिका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यश्चों के समान है । अनन्तगुणवृद्धिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम एक पूर्वकोटी है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं
३१५ चउक्क० पंचिंदियतिरिक्खभंगो। सम्म०-सम्मामि० अवहि०-अवत्त० पंचि०तिरिक्खभंगो। अणंतगुणहाणी० ओघं।
५४४. देवेसु मिच्छत्त-बारसक०-णवणोक० छवडि-पंचहाणी० ज० एगस० अंतोमु०, उक्क० अहारस सागरो० सादिरेयाणि । अवहि० ओघं । अणंतगुहाणी. जह० अंतोमु०, उक० एकत्तीसं सागरो० देसूणाणि। अणंताणु० चउक्क० छवडि-अवहि०छहाणि-अवत्त० ज० एगस० अंतोमु ०, उक्क० एक्कत्तीसं सागरो० देसूणाणि । सम्मत्त । अणंतगुणहाणी० गत्थि अंतरं । सम्म०-सम्मामि० अवहि-अवत्त० ज० ओघ, उक्क० एकत्तीसं साग० देसूणाणि । भवण०--वाण०--जोदिसि० विदियपुढविभंगो। णवरि सगहिदी। सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति पढमपुढविभंगो। णवरि सगहिदी। आणदादि णवगेवज्जा त्ति वावीसंपयडीणं अणंतगुणहाणी० ज० अंतोमु०, उक्क० सगहिदी देसूणा । अवहि. जहण्णुक्क० एगस० । सम्म०-सम्मामि देवोघं । णवरि सगहिदी देसूणा । अणंताणु चउक्क० छवड्डि-अवहि० जह० एगस०, छहाणि-अवत्त० जह० अंतोमु०, उक्क० सव्वेसिं सगहिदी देमूणा । अणुदिसादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति छब्बीसंपयडीणमणंतगुणहाणी. जहण्णुक० अंतोमु० । अवहि. जहष्णुक० एगस० । भङ्ग पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका अन्तर पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्चो के समान है। तथा अनन्तगुणहानिका अन्तर ओघके समान है।
६५४४. देवों में मिथ्यात्व, बारह कषाय और नव नोकषायोंकी छह वृद्धियो और पांच हानियो का जवन्य अन्तर क्रमशः एक समय है और अन्तर्मुहूर्त है। तथा उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक अठारह सागर है। अवस्थितका अन्तर ओघके समान है। अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और छह हानियों तथा अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है । उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका अन्तर नहीं है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर ओघकी तरह है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागर है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में दूसरी पृथिवीके समान भंग है। इतना बिशेष है कि दूसरी पृथिवीकी स्थितिके स्थानमें अपनी स्थिति लेनी चाहिये। सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें पहली पृथिवीके समान भंग है। इतना विशेष है कि यहाँ अपनी-अपनी स्थिति लेनी चाहिये । आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूत है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। इतना विशेष है कि यहाँ कुछ कम अपनी स्थिति लेनी चाहिये। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी छह वृद्धियों और अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है। छ हानियों और अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त है। तथा सबका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें छब्बीस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सम्मत्त० अणंतगुणहाणि-अवहि० सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं। एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६५४५. णाणाजीवेहि भंगविचयाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं तेरसपदा णियमा अस्थि । अणंताणु० चउक० अवत्तव्व० भयणिज्ज । सेसपदा णियमा अत्थि : भंगा तिरिण । सम्म० --सम्मामि० अवढि० णियमा अत्थि । सेसपदा० भयणिज्जा । भंगा णव । एवं तिरिक्खा० । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि । भंगा तिषिण । प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तमुहूर्त है। अवस्थित विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे बाईस प्रकृतियों की अनन्तगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य और एक सौ त्रेसठ सागर कहा है सो अनन्तगणवृद्धि मिथ्यादृष्टिके ही होती है और भोगभूमिमें तथा आनतादिकमें मिथ्यादृष्टिके भी नहीं होती, अत: दो बार छियासठ छियासठ सागर तक वेदक सम्यक्त्वके साथ बिताने तथा एक बार उपरिम अवेयकमें और तीन पल्यकी स्थिति के साथ उत्कृष्ट भोगभूमिमें बितानेसे अनन्तगुणवृद्धिका उत्कृष्ट अन्तर तीन पल्य और एक सौ त्रेसठ सागर होता है। अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर एक सौ त्रेसठ सागर और पल्य के असंख्यातवें भाग होता है सो उतना ही अवस्थितका उत्कृष्ट काल है, अतः अनन्तगुणहानि करके उतने काल तक अवस्थित रहकर पुन: अनन्तगुणहानि करनेसे उतना अन्तर काल होता है। सम्यक्त्व
और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल पल्यका असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुद्गल परावर्तन पूर्ववत् जानना। अनन्तानुबन्धकी अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छियासठ सागर है क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी अवस्थित विभक्ति करके अनन्तानुबन्धीके विसंयोजन पूर्वक वेदक सम्यग्दृष्टि होकर कुछ कम छियासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहकर पुन: सम्यग्मिथ्यात्व गणस्थानमें जाकर पुन: सम्यक्त्व ग्रहण करके कुछ कम छियासठ सागर तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करनेके पश्चात् अवस्थित विभक्तिको करता है।
आदेशले नारकियो में छब्बीस प्रकृतियो की छह वृद्धियो और छह हानियों आदिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। वृद्धि मिथ्यादृष्टिके होती है और हानि दोनो के होती है।
और नरकमें मिथ्यात्वका अन्तर काल भी कुछ कम तेतीस सागर है और सम्यक्त्वका अन्तर काल भी कुछ कम तेतीस सागर है अत: उतना ही उन विभक्तियो का भी अन्तर काल जानना । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और अवक्तव्य विभक्तिका भी उत्कृष्ट अन्तर काल इसी प्रकार जानना । प्रत्येक नरकमें यह अन्तर काल कुछ कम अपनी अपनी स्थिति प्रमाण है।
९५४५. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियोंके तेरह पद नियमसे होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद भजनीय है. शेष पद नियमसे होते हैं। भंग तीन हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अवस्थित पद नियमसे होता है, शेष पद भजनीय हैं । भंग नौ हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए वड्डीए भंगविचओ
३१७ ६५४६. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणमणंतगुणवद्रि--अवहि. णियमा अत्थि । सेसएक्कारसपदा भयणिज्जा । अक्खपरावत्तेण सुत्तगाहाए च आणिदभंगा एत्तिया होंति १७७१४७ । णवरि अणंताणु०चउक्क. भयणिज्जपदाणि बारह । तेसिं भंगा ५३१४४१ । सम्म० अवहि. णियमा अत्थि । सेसपदा भयणिज्जा० । भंगा णव । एवं सम्मामि० । णवरि भंगा तिएिण। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्खतिण्णिमणुस-देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । णवरि विदियादिपुढवि-पंचिंतिरि०जोणिणी-भवण०-वाण-जोदिसिएसु सम्मत्तस्स तिषिण भंगा । पंचिं.तिरिक्खअपज्ज० सम्म०-सम्मामि० णत्थि भंगा। मणुस्सअपज्ज. सव्वपयडी० सव्वपदा भयणिज्जा । छब्बीसं पयडीणं भंगसमासो एसो १५६४३२२ । सम्म०-सम्मामि० भंगा दोषिण । आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि त्ति अहावीसं पयडीणमवहि० णियमा अस्थि । सेसपदा भयणिज्जा । णवरि आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति अणंताणु०४ अणंतगुणवडि-अवहिदं णियमा अस्थि । वावीसं पयडीणं भंगा तिगिण । अणंताणु० चउक्क० भंगा जाणिय वत्तव्वा । सम्मत्तभंगा णव । सम्मामि० भंगा तिषिण। उवरि सत्तावीसं पयडीणं भंगा तिरिण । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति । भंग तीन होते हैं।
5 ५४६. आदेशसे नाकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थित विभक्ति नियमसे होती हैं। शेष ग्यारह पद भजनीय हैं। अक्षपरावर्तन और सूत्र गाथाके द्वारा निकाले गये भंगो की संख्या १७७१४७ होती है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भजनीय पद बारह हैं उनके भंग ५३१४४१ होते हैं। सम्यक्त्वकी अवस्थितविभक्ति नियमसे होती है, शेष पद भजनीय हैं। भंग नौ होते हैं। इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके विषयमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उसके तीन भंग होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवा में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि दूसरी आदि पृथिवीयो', पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्को में सम्यक्त्वके तीन भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तको में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके भंग नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्तकों में सब प्रकृतियों के सभी पद भजनीय हैं। छब्बीस प्रकृतियो के भंगों का जोड़ १५९४३२२ होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके दो भंग होते हैं। आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवो में अट्ठाईस प्रकृतियो का अवस्थित पद नियमसे होता है, शेष पद भजनीय हैं। इतना विशेष है कि आनतसे लेकर नववेयक तकके देवोंमें अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थितविभक्ति नियमसे होती है। बाईस प्रकृतियोंके तीन भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्कके भंग जानकर कहने चाहिये। सम्यक्त्व प्रकृतिके नौ भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वके तीन भंग होते हैं। नवप्रैवेयकसे ऊपर सत्ताईस प्रकृतियोंके तीन भंग होते हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
. विशेषार्थ ओघसे बाईस प्रकृतियो में छह वृद्धियां, छ हानियां और अवस्थितविभक्ति ये तेरह पद नियमसे होते हैं । अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद सदा नहीं होता, विकल्पसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ___५४७. भागाभागाणु० दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं पंचवडि--छहाणिविहत्तिया सबजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखे०भागो। अणंतगुणवड्डिविहत्तिया सव्वजी० केव० भागो ? संखे०भागो। अवहि. [अ] संखेज्जा भागा। अणंताणु० चउक्क० अवतव्व० अणंतिमभागो। सम्म०-सम्मामि०
होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके सम्यक्त्वसे च्युत हुआ जीव मिथ्यात्वमें आकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके जव उसके सत्त्ववाला होता है तो अवक्तव्य विभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धीके शेष पद नियमसे होते हैं। अतः तीन भंग होते हैं। कदाचित सब जीव शेष पद विभक्तिवाले होते है, कदाचित् अनेक जीव शेष पद विभक्तिवाले और एक जीव अवक्तब्य विभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव शेष पद विभक्तिवाले और अनेक जीव अवक्तव्य विभक्तिवाले होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन पद होते हैं। इनमेंसे अवस्थित पद नियमसे होता है और शेष दो पद विकल्पसे होते हैं, अत: दो पदोंके नौ भंग होते हैं। सामान्य तिर्यञ्चो में सम्यग्मिथ्यात्वका अनन्तगुणहानि पद नहीं होता, अत: एक अवक्तव्य पद विकल्पसे होता है और इसलिये तीन ही भंग होते हैं। आदेशसे नारकियो में छब्बीस प्रकृतियो के दो पद नियमसे होते हैं, और शेष ग्यारह पद विकल्पसे होते हैं। अत: पहले कही गई गाथाके अनुसार ग्यारह अध्रुव पदों के १७७१४६ भंग होते हैं। उनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेसे १७७१४७ कुल भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीके एक अवक्तव्य पदके होनेसे अध्रुव पद बारह होते हैं और बारह अध्रुव पदो के ५३१४४० भंग होते हैं। उनमें एक ध्रुव भंगके मिलानेसे कुल भंग होते हैं। दूसरे आदि नरको में सम्यक्त्व प्रकृतिका अनन्तगुणहानि पद नहीं होता है अत: तीन ही भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक अवस्थित विभक्ति ही होती है अत: भंग नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है अत: उसमें सभी प्रकृतियों के सभी पद विकल्पसे होते हैं, अतः छब्बीस प्रकृतियो के तेरह पदो के १५९४३२२ भंग होते हैं, और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दो भंग होते हैं-कदाचित् एक जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है. कदाचित अनेक जीव अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। आनतसे लेकर नवग्रेवेयक तक बाईस प्रकृतियों के अनन्तगुणहानि और अवस्थित ये दो पद होते हैं, इनमें अवस्थित पद ध्रुव है और अनन्तगुणहानि पद अध्रुव है अत: तीन भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीमें अनन्तगुण वृद्धि और अवस्थित पद ध्रुव हैं और शेष बारह पद अध्रव हैं, अतः उसमें भंग ५३१४४१ होते हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिके अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य पद अध्रुव हैं अत: नौ भंग होते हैं और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका केवल एक अवक्तव्य पद अध्रुव है अत: तीन भंग होते हैं। अनुदिशादिकमें सत्ताईस प्रकृतियोंका अवस्थित पद ध्रुव है और अनन्तगुणहानि पद अध्रव है अत: तीन भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका केवल एक अवस्थित पद ही होता है अतः भंग नहीं होते।
५४७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और छह हानि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनन्तगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी श्रवक्तव्यविभक्तिवाले अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए वहीए भागाभागो .
३१९ । अणंतगुणहाणि०--अवत्तव्व० सव्वजी० केव० ? असंखे भागो। अवहि. असंखेज्जा भागा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि ।।
५४८. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणमोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं तिरिक्खभंगो । एवं पढमपुढवि०पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-भवण-वाण-जोदिसिए त्ति । पंचिंतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं णेरइयभंगो। गवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्त० णत्थि । सम्म०-सम्मामिच्छताणं णत्थि भागाभागं । एवं मणुसअपज्जः ।
___५४६. मणुसाणं णेरइयभंगो। गवरि सम्मामि० ओघं । मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु अहावीसं पयडीणमवहि० संखेज्जा भागा। सेसपदा० संखेजदिभागो । आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० सब्वजी० केव० १ असंखेजदिभागो। अवहि.' असंखेज्जा भागा। अणंताणु० चउक्क० सम्मत्त०-सम्मामि० और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती।
$ ५४८. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भागाभाग ओघकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग सामान्य तियञ्चोंकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भागाभाग सम्यग्मिथ्यात्वकी तरह है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भागाभाग नारकियोंकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद वहाँ नहीं होता। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं होता। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए।
५४९. सामान्य मनुष्योंमें नारकियोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिध्यात्वका भङ्ग ओघकी तरह है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अव स्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदवाले संख्यातवें भागप्रमाण हैं। पानतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह
1. मा० प्रतौ केव० ? असंखेजा । अवढि० इति पाठः ।
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. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ देवोघं । णवरि अणंताणु० अणंतगुणवड्डि० असंखे०भागो। अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति सत्तावीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० असंखे०भागो। अवहि० असंखेजा भागा । सम्मामि० पत्थि भागाभागो। एवं सबढे । णवरि संखेज्जं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
६५५०. परिमाणाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं तेरसपदवि० दव्वपमाणेण केव० ? अणंता । एवमणंताणु० चउक्क० । णवरि अवत्त० असंखेज्जा। सम्मत्त-सम्मामि० अणंतगुणहाणि० दव्वपमाणेण केव० ? संखेज्जा । सेसपदवि० असंखेज्जा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि ।
६५५१. आदेसेण णेरइएस अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० असंखेजा । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० ओघं ! एवं पढमपुढवि०-पंचिं०तिरिक्ख०-पंचिं०तिरिक्खपज्ज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि । एवं जोणिणी-भवण०-वाणजोदिसिए ति। पांचदियतिरिक्खअपज्ज० छब्बीसं पयडीणं तेरसपदवि० सम्म०है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अनन्तगुणवृद्धिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भागाभाग नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातके स्थानमें संख्यात कर लेना चाहिये। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
६५५०. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे बाईस प्रकृतियो के तेरह पदविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अपेक्षा परिमाण जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इसके अवक्तव्य विभक्तिवाले जोव असंख्यात हैं। सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? संख्यात हैं। शेष पद विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चो में जानना चाहिए। इतना विशेष हे कि तिर्यश्चा में सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं है।
६५५१. आदेशसे नारकियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब पद विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानिवालोंका परिमाण आपके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार तकके देवो में जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक् व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषिया में जानना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों के तेरह पद विभक्तिवाले और
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए खेत्तं
३२१ सम्मामि० अवहि० असंखेजा । एवं मणुसअपज्न ।
$ ५५२. मणुसेसु छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि. असंखेज्जा । अणंताणुचउक्क० अवत्त० सम्म०-सम्मामि० अणंतगुणहाणी० अवत्त० संखेज्जा । मणुसपज्ज.-मणुसिणीसु अट्ठावीसंपयडीणं सव्वपदवि० संखेज्जा । आणदादि जाव अवराइदो ति अहावीसंपयडीणं सव्वपदवि० असंखेज्जा । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० संखेजा। सव्वदृसिद्धिविमाणे अट्ठावीसंपयडीणं सव्वपदवि० संज्जा । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।।
___५५३. खेत्ताणुगमेण दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे। अणंताणु०चउक्क० अवत्त० सम्म०सम्मामि० सव्वपदविहत्ति० के० खेत्त० १ लोग० असंखे० भागे। एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि । सेसमग्गणासु सव्वपयडीणं सव्वपदविह० लोग० असंखे०भागे । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
५५४. पोसणाणु० दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० के० खेतं पोसिदं ? सव्वलोगो। अणंताणु०चउक्क० अवत्त० सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तको में जानना चाहिए ।
६५५२. सामान्य मनुष्यों में छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पदविभक्तिवाले और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले, तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियों में अट्ठाईस प्रकृतियो की सब पद विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। आनतसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में अट्ठाईस प्रकृतिया की सब पद विभक्तिवाले जीव असंख्यात हैं। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। सवार्थासद्धि विमानमें अट्ठाईस प्रकृतियो की सब पद विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६५५३. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सब लोक क्षेत्र है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य विभक्तिवाले तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सर्व पद विभ
जीवा का कितना क्षेत्र है ? लाकके असंख्यातवं भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चो में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तिर्यञ्चोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। शेष मार्गणाओं में सब प्रकृतियों की सब पद विभक्तिवाले जीवो का लोकके असं. ख्याठवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए।
५५४. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पद विभक्तिवाले जीवोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्व लोकका स्पर्शन किया है। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भागका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ लो० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा । सम्म०-सम्मामि० अणंतगुणहाणि० खेतं । अवहि० लो० असंखे०भागो अहचोदस० देरणा सव्वलोगो वा । अवत्त० लोग० असंखे०भागो अहचोदस० देसूणा ।
$ ५५५. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म० सम्मामि० अवहि० केव० १ लोग० असंखे०भागो छचोदस० देसूणा । सम्म० अणंतगुणहाणि. छण्हमवत्त ० खेत्तं । पढमपुढवि० खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमि त्ति छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवहि. सगपोसणं बत्तव्वं । छण्हमवत्त० खेत्तं ।।
$ ५५६. तिरिक्ख० छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० ओघं । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० छण्हमवत्त० खेत्तं । सम्म०-सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिं०तिरि०पज्ज० छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । सम्म० अणंतगुणहाणिक इत्थि-पुरिस० छवडी० छण्हमवत्त० खेतं । एवं जोणिणी० । णवरि सम्मत्त० अणंत
और चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ राजु प्रमाण क्षेत्रके स्पर्शन किया है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । तथा अवस्थित विभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण, चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ राजू प्रमाण और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। अवक्तव्य विभक्तिवाला ने लोकके असख्यातवें भागप्रमाण और चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है।
५५५, आदेशसे नारकियामें छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तिवालों और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालेने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भागका और चौदह राजूमेंसे कुछ कम छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिवालो का तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्र के समान है। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियों में छब्बीस प्रकृतियों की तेरह पद विभक्तिवालों तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो का अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है।
५५६ सामान्य तिर्यञ्चों में छब्बीस प्रकृतियों की तेरह पद विभक्तिवालो का स्पर्शन ओघके समान है। सम्यक्त्वकी अनन्तगणहानिवालोंका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च और पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पद विभक्तिवालो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवालों ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिवालो का तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी छह वृद्धिवालो का और सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए पोसणं
३२३ गुणहाणी णत्थि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०सम्मामि० अवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । णवरि इत्थि-पुरिस० छवडी० खेत्तं । एवं मणुसअपज्ज० । तिण्हं मणुस्साणं पंचिं०तिरिक्खभंगो । णवरि सम्मत्त ०सम्मामि० अणंतगुणहाणि. ओघं ।।
५५७. देवेमु छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०--सम्मामि० अवहि. लोग० असंखे० भागो अह-णवचोद्दस० देसूणा । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि. खेत्तं । छण्हमवत्त• इत्थि-पुरिस० छचड्ढी० लोग० असंखे०भागो अहचोद्द० देम्णा । एवं भवण-वाण-जोइसिए त्ति । णवरि सगपोसणं । सम्म० अणंतगुणहाणी णत्थि । सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०--सम्मामि० अवहि० छण्हमवत्त० लोग. असंखे०भागो अहचोद० देसूणा । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि. खेतं । णवरि सोहम्मीसाणेसु अह-णवचोदसभागा देसूणा । आणदादि जाव अच्चु दो ति वावीसंपयडीणमवहि० अणंतगुणहाणि० अणंताणु० सव्वपदवि० सम्म०है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च योनिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यक्त्वकी अनन्तगणहानि नहीं है। पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तको में छब्बीस प्रकृतियों की तेरह पद विभक्तिवाला'ने तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और सर्वलोक प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इतना विशेष है कि स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी छह वृद्धिवालो का स्पर्शन क्षेत्रके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तको में जानना चाहिए। शेष तीन प्रकारके मनुष्यों में पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका स्पर्शन ओघके समान है।
६५५७. देवों में छब्बीस प्रकृतियों की तरह पद विभक्तिवालो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह राजूमेंसे कुछ कम
आठ और कुछ कम नौ राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अनन्तगणहानिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रके समान है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवालो ने तथा स्त्रीवेद और पुरुषवेदकी छह वृद्धिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग
और चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में जानना चाहिए । इतना विशेष है कि वहाँ अपना-अपना स्पर्शन लेना चाहिए। तथा उनमें सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि नहीं है । सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवों में छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पद विभक्तिवालो ने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिवालो ने तथा सम्यवत्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्यविभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिवालो का स्पर्शन क्षेत्र के समान है । इतना विशेष है कि सौधर्म और ईशान स्वर्गमें चौदह राजूमेंसे कुछ कम आठ और कुछ कम नौ राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। आनतसे लेकर अच्युत स्वर्ग तकके देवों में बाईस प्रकृतियों की अवस्थित विभक्ति और अनन्तगुणहानिवालो ने, अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी सर्व पद विभक्तिवालो ने तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित और
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
सम्मामि० अवट्ठि ० - अवत्तव्व० लोग० असंखे ० भागो चोद्दस० देसूणा । सम्मत्त ० अनंतगुणहाणि० खेत्तं । उवरि अट्ठावीसंपयडीणं सव्वपदवि० खेत्तं । एवं जाणिदूण दव्वं जाव अणाहारिति ।
९ ५५८. णाणाजीवेहि कालाणु० दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । घेण छब्बीसंपडणं तेरसपदवि० सम्म ०- सम्मामि० अवद्वि० सव्वद्धा । छण्हमवत्त० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे ० भागो । सम्म० अनंतगुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० तोमु० । सम्मामि० श्रणंतगुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अनंतगुणहाणी णत्थि ।
अवक्तव्य विभक्तिवालो ने लोकके असंख्यातवें भाग और चौदह राजूमें से कुछ कम छह राजू प्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र के समान है । अच्युत स्वर्गसे ऊपर अट्ठाईस प्रकृतियों की सर्व पद विभक्तिवालों का स्पर्शन क्षेत्रके समान है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये ।
विशेषार्थ - अनन्तानुबन्धी, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की अवक्तव्य विभक्ति वालो का जो कुछ कम आठ बटे चौदह राजू स्पर्शन कहा है सो अतीत काल की अपेक्षा विहारवत्स्वस्थान आदि संभव पदो के द्वारा जानना चाहिए। आदेश से नारकियो में छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पदविभक्तिवालों का स्पर्शन अतीत कालकी अपेक्षा मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा कुछ कम छह बटे चौदह राजू होता है । सामान्य तिर्यश्वो में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वक अवस्थित विभक्तिवालो ने मारणान्तिक और उपपाद पदके द्वारा तीनों कालो में सर्वलोकका स्पर्शन किया है और विहारवत्स्वस्थान आदि संभव पदो के द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन किया है। सामान्य देवों में छब्बीस प्रकृतियो की तेरह पद विभक्तिवालो ने और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिवालों ने विहारवत्स्वस्थान, विक्रिया आदि पदों के द्वारा अतीत कालमें कुछ कम आठ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पशन किया है और मारणान्तिक समुद्घातके द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजू क्षेत्रका स्पर्शन किया है और वर्तमानकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागका स्पर्शन किया है। इसी प्रकार सौधर्मादिक में जानना चाहिए । विशेष यह है कि मारणान्तिक पदके द्वारा कुछ कम नौ बटे चौदह राजू स्पर्शन ईशान पर्यन्त ही होता है, क्योकि ईशान तकके देव ही एकेन्द्रियों में मारणान्तिक समुद्घात करते हैं, ऊपरके देव नहीं करते । तथा आनतादिक स्वर्गो में मारणान्तिक आदि पदों के द्वारा कुछकम छह बटे चौदह राजू स्पर्शन होता है, क्योंकि चित्रा पृथिवी के ऊपर के तल से इनका मन नहीं होता ।
$ ५५८. नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । घसे छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है । सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है । सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तमुहूर्त है । सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि तिर्यभ्वोंमें सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि नहीं है ।
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गा० २२ ] अनुभागविहत्तीए वड्डीए कालो
३२५ $ ५५६. आदेसैण णेरइएसु छब्बीसंपयडीणं पंचवडि-छहाणि० छण्हमवत्त० जह० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०भागो। अणंतगुणवड्डि-अवहि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० सव्वद्धा । सम्म० अणंतगुहाणि० ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिदियतिरिक्खपंचिं०तिरि०पज्ज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो त्ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि। एवं पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीभवण-वाण-जोइसिए ति । पंचितिरि०अपज्ज. छब्बीसंपयडीणं तेरसपदवि० सम्म०-सम्मामि० अहि. णेरइयभंगो । एवं मणुसअपज० । णवरि छब्बीसंपयडीणमणंतगुणवडि--अवहि० सम्म०--सम्मामि० अवहि० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
६५६०. मणुस्सेसु छब्बीसं पयडीणं तेरसपदवि० सम्म०-सम्मामि० अवधि. रइयभंगो । णवरि चदुसंज०-पुरिस०-सम्म० अणंतगुणहाणि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमुहुत्तं । छण्णमवत्त० सम्मामि० अणंतगुणहाणि० जह• एगस०, उक्क० संखेज्जा समयो । मणुसपज्ज० छब्बीसं पयडीणं पंचवट्टी० ज० एगस०, उक्क० आवलि० असंखे०
$ ५५९. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पांच वृद्धियों और छ हानियोंका तथा सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका काल ओघके समान है । इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पयाप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि दूसरे आदि नरकोंमें सम्यक्त्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल नारकियोंके समान है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
६५६०. मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तियोंका तथा सम्यक्त्व और सम्यम्मिध्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका काल नारकियोंके समान है। इतना विशेष है कि चारों संज्वलन कषाय, पुरुषवेद और सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्त गुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। मनुष्य पर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पांच वृद्धियोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल
१. प्रा. प्रतौ सम्म० अणंतगुणहाणी जह° एगस. उक्क. संखेजा समया इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
भागो | कहाणी • सम्मामि० अनंतगुणहाणि० छण्हमवत्त० जह० एगस०, उक्क० संखेज्जा समया । अनंतगुणवड्ढि - अवद्वि० सम्म० सम्मामि० श्रवद्वि० सव्वद्धा । णवरि चदुसंजल० - पुरिस ०. ० सम्मत्त अनंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसिणी० । णवरि पुरिस० अनंतगुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । ९५६१. आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति छब्बीसं पयडीणं अनंतगुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं छण्हमवत्त० | सव्वासिमवद्वि० सव्वद्धा । सम्मत्त० अनंतगुणहाणि० ओघं । अनंताणुबंधी ० सव्वपदा० देवोघं । अणुदिसादि जाव अराइदो ति सत्तावीसं पयडीणं दोपदवि० सम्मामि० अवद्वि० आणदभंगो । एवं सव्व े । णवरि छब्बीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० ज० एस ०, उक्क० संखेज्जा समया । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारिति ।
$ ५६२. अंतराणु ० दुविहो णिद्द सो- ओघेण आदेसेण य । श्रघेण छब्बीसं पडीणं तेरसपदवि० णत्थि अंतरं । एवं सम्म० सम्मामिच्छत्ताणमवद्विदस्स | छह
आवली के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। छह हानियोंका, सम्यग्मिध्यात्वकी अनन्तगुणहानिका और छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणवृद्धि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वक अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है । इतना विशेष है कि चारों संज्वलन कषाय, पुरुषवेद और सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्यिनियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पुरुषवेदकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है ।
६५६१. नत से लेकर नवग्रैवेयक तकके देवों में छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुरणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल वलीके संख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार छह प्रकृतियों की वक्तव्यविभक्तिका काल जानना चाहिए। सब प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका काल सर्वदा है । सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका काल ओघ के समान है । अनन्तानुबन्धीकषायके सब पदोंका काल सामान्य देवोंकी तरह है। अनुदिशसे लेकर अपराजित विमान तकके देवों में सत्ताईस प्रकृतियों की दो पद विभक्तियोंका तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्ति का काल यात स्वर्गके समान है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि छब्बीस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिए ।
विशेषार्थ - ओघसे अनेक जीव एक साथ अवक्तव्य विभक्तिवाले हुए और दूसरे समय में अन्य विभक्तिवाले होगये तो एक समय काल होता है और यदि लगातार अनेक जीव अवक्तव्य विभक्तिवाले होते रहे तो आवलिका असंख्यातवाँ भाग काल होता है । लगातार इससे अधिक समय तक अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव नहीं पाये जाते । इसी प्रकार अन्य विभक्तिवालों का तथा देशसे चारों गतियोंमें भी काल घटित कर जानना चाहिए ।
६ ५६२. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओसे छब्बीस प्रकृतियोंकी तेरह पद विभक्तियोंका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सम्यक्त्व और
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गा०२२] अणुभागविहत्तीए वड्डीए अंतरं
३२७ मवत्त० ज० एगस०, उक्क० चउवीसमहोरत्ताणि सादिरेयाणि । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणमणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० छम्मासा।
__$५६३. आदेसेण णेरइएसु छब्बीसं पयडीणं पंचवडि-पंचहाणी० जह० एगस०, उक्क० असंखे० लोगा । अणंतगुणवडि-अवहि० णत्थि अंतरं । अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । सम्मत्त० अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क. वासपुधत्तं । सम्म०-सम्मामि० अवहि. छणहमवत्त० ओघं । एवं पढमपुढवि०-पंचिंदियतिरिक्खपंचिंतिरि०पज्ज०--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमपुढवि०--पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी--भवण०-वाण०--जोइसिए त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० अणंतगुणहाणी णत्थि ।
५६४. तिरिक्ख० छब्बीसंपयडीणमोघं । सम्म०-सम्मामि० रइयभंगो । पंचिं०तिरि०अपज्ज० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वपदवि० णेरइयभंगो । तिएहं मणुस्साणं पि णेरइयभंगो । णवरि सम्म०-सम्मामि० ओघं । मणुस्सिणीसु सम्म०-सम्मामिच्छताणं अणंतगुणहाणि० उक्क. वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० छब्बीसंपयडीणं पंचवडि०पंचहाणि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । अणंतगुणवडि-हाणि-अवहि० सम्म०सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। छह प्रकृतियोंकी अवक्तव्य विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ अधिक चौबीस रात दिन है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर छह मास है।
६५६३. श्रादेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँचों वृद्धियों और पाँचों हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि
और अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है । अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्वप्रमाण है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका तथा छह प्रकृतियोंकी श्रवक्तव्यविभक्तिका अन्तर ओघके समान है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकियोंमें तथा पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि इनमें सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानि नहीं होती।
५६४. सामान्य तिर्यञ्चोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग नारकियोंके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सब पद विभक्तियोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। तीन प्रकारके मनुष्योंमें भी नारकियोंके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग ओघके समान है। मनुष्यनियों में सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानिका उत्कृष्ट अन्तर वषपृथक्त्व है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धियों और पाँच हानियोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। अनन्तगुणवृद्धि, अनन्तगुणहानि और अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी
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३२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ सम्मामि० अवहि० ज० एगसमो, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो।
५६५. आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणं अणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० सत्त रादिदियाणि । अवढि० सम्म०-सम्मामि० अवहि० गत्थि अंतरं । दोण्हमवत्त० सम्म० अणंतगुणहाणि० अणंताणु० सव्वपदा० देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति सत्तावीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० ज० एगस०, उक्क० वासपुधत्तं पलिदो० संखे० भागो'। एदेसिमवहि० सम्मामि० अवहि० णत्थि अंतरं । एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।।
___५६६. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
$ ५६७. अप्पाबहुगाणु० दुविहो जिद्द सो-ओघेण श्रादेसेण य । ओघेण वावीसं पयडीणं सव्वत्थोवा अणतभागहाणिविहत्तिया जीवा। असंखेजभागहाणिवि. असंखे०गुणा । संखेभागहाणिवि० संखे०गुणा । संखे गुणहाणिवि० संखे० गुणा । असंखे.गुणहाणिवि० असंखेगुणा। अणंतभागवडिविह. असंखेगुणा । असंखे० भागवडिवि० असंखे०गुणा । संखे० भागवड्डिवि० संखे०गुणा । संखे०गुणवडिवि० अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है।
५६५. आनतसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर सात रात दिन है। बाईस प्रकृतियोंकी अवस्थित विभक्तिका तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अवस्थितविभक्तिका अन्तर नहीं है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी प्रवक्तव्य विभक्तिका, सम्यक्त्वकी अनन्तगुणहानिका और अनन्ता
न्धाचतुष्कक सब पदोंका अन्तर सामान्य देवोंकी तरह है। अनदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानिका जघन्य अन्तर एक समय है
और उत्कृष्ट अन्तर अनुदिशसे अपराजित तक वर्षपृथक्त्व और सवाथेसिद्धिमें पल्यके संख्यातवं भागप्रमाण है। इन प्रकृतियोंकी तथा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अवस्थित विभक्तिका अन्तर नहीं है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६५६६. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६५६७. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तभागहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यात भागहानि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागहानि विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणहानि विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे है। इनसे असंख्यातगुणहानि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातभागवृद्धि विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे संख्यातगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं।
1. ता. प्रतौ पलिदो० असंखेजदिभागो इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए अप्पाबहुअं
३२९ संखे०गुणा । असंखे०गुणवडिवि० असंखे०गुणा । अणंतगुणहाणिवि० असंखेगुणा । अणंतगुणवडिवि० असंखे०गुणा । अवहिदवि० संखेज्जगुणा । एवमणंताणु०चउक्क० । णवरि सव्वत्थोवा अवत्त विह० जीवा। अणंतभागहाणिविह० अणंतगुणा। सेसं तं चेव । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिवि० जीवा । अवत्त विहत्ति. असंखे०गुणा । अवहि विहत्ति० असंखे०गुणा ।
५६८. आदेसेण णेरइएमु वावीसंपयडीणमोघं । अणंताणु० चउक्क० सव्वत्थोवा अवत्तविहत्तिया जीवा । अणंतभागहाणिवि० असंखे०गुणा। उवरि ओघं । सम्मत्त० ओघं । सम्मामि० सव्वत्थोवा अवत्तविहत्ति जीवा । अवहि०वि० असंखे०गुणा । एवं पढमपुढवि--पंचिं०तिरिक्ख--पंचिंतिरि०पज्ज.--देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारे त्ति । विदियादि जाव सत्तमित्ति पंचिंदियतिरिक्खजोणिणी०-भवण०-वाणजोइसिए त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। तिरिक्खा० ओघं । णवरि सम्मामि० जेरइयभंगो। पंचिं०तिरि०अपज० छब्बीसंपयडीणमोघं । [णवरि अणंताणु० मिच्छत्तभंगो। सम्मत्त०-सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि अप्पाबहुअं, एयपदत्तादो। एवं मणुसअपज्ज।
इनसे असंख्यातगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अनन्तगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अल्पबहुत्व है। किन्तु इनमें अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थाड़े हैं। इनसे अनन्तभागहानि वि अनन्तगुणे हैं। शेष पूर्ववत् जानना। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगणहानि विभक्ति वाले जीव सबसे थोड़े हैं । इनसे अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं । इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं।
६५६८. आदेशसे नारकियोंमें बाईस प्रकृतियोंका भङ्ग अोधके समान है। अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अनन्तभागहानि विभक्तिवाले जीव असंख्य
संख्यातगुण है। आगे ओघकी तरह भङ्ग है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग ओघकी तरह है। सम्यग्मिथ्यात्वकी अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतियञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्मसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरे नरकसे लेकर सातवें पर्यन्त तथा पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चयानिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भङ्ग सम्यग्मिथ्यात्वके समान है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें ओघके समान भङ्ग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भङ्ग नारकियों के समान है। पञ्चन्द्रियतिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भङ्ग आघकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भंग मिथ्यात्वके समान है अर्थात् इनका अवक्तव्य पद नहीं होता। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है, क्योंकि यहाँ उनका एक ही पद पाया जाता है। इसी प्रकार मनुष्य अपयोप्तकोंमें जानना चाहिए।
४२
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३३०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे अणुभागविहत्ती ४ ५६६. मणुस्ससु छब्बीसंपयडीणं णेरइयभंगो । सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्तिया जीवा । अवत्त विहत्ति० संखे०गुणा । अवहि. विहत्ति० असंखे०गुणा । एवं [मणुस] पज्जत्त-मणुसिणीसु । णवरि सव्वत्थ संखेजगुणं कायव्वं । आणदादि जाव गवगेवेज्जा त्ति वावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्ति० जीवा । अवटि विहत्ति० असंखेज्जगुणा । सम्म०-सम्मामिच्छ०-अणंताणु०चउक्क० देवोघं आणदादिसु अणंताणु०बंधीणं छवडि-छहाणिसंभवो उच्चारणाहिप्पाएण लिहिदो, विसंजोएदूण संजुत्तम्मि तदुवलंभादो। मूलवक्खाणाहिप्पाएण पुण अणंतगुणहाणि-अवहिद-अवत्तव्वाणि चेव ।) एवं जाणिय वत्तव्वं । अणुद्दिसादि जाव अवराइदो त्ति सत्तावीसंपयडीणं सव्वत्थोवा अणंतगुणहाणिविहत्ति या जीवा । अवहिदविहत्ति० असंखे०गुणा । सम्मामि० गत्थि अप्पाबहुअं । एवं सव्वढे । णवरि संखेजगुणं कायव्वं । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
एवं णीदे वडि त्ति अणियोगद्दारं समत्तं होदि ।
हाणपरूवणा। * संतकम्महापाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि ।
५६९. सामान्य मनुष्योंमें छब्बीस प्रकृतियोंका नारकियोंके समान भङ्ग है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव संख्यातगुण हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगणे हैं। इसी प्रकार मनुष्य पयांत और मनुष्यनियोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि सर्वत्र संख्यातगुणा कर लेना चाहिये। आनतसे लेकर नवग्रेवयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह है। आनत आदिमें अनन्तानुबन्धी कषायकी छह वृद्धि और छह हानियोंका होना उच्चारणाके अभिप्रायसे लिखा है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करके पुन: उसका संयोजन करने पर छह वृद्धियाँ और छह हानियाँ पाई जाती हैं। किन्तु मूल व्याख्यानके अभिप्रायसे आनत आदिमें अनन्तानुबन्धी कषायके अनन्तगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य पद ही होते हैं। इस प्रकार जानकर उनका कथन करना चाहिये । अनुदिशसे लेकर अपराजितविमान तकके देवोंमें सत्ताईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे अवस्थित विभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका अल्पबहुत्व नहीं है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । इतना विशेष है कि असंख्यातगुणेके स्थानमें संख्यातगणा कर लेना चाहिये । इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त लेजाना चाहिये।
__ इस प्रकार वृद्धि अनियोगद्वार समाप्त हुआ।
स्थानप्ररूपणा । * सत्कर्मस्थान तीन प्रकारके हैं-बन्धसमुत्पत्तिक, हतसमुत्पत्तिक और हतहतसमुत्पत्तिक ।
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३३१ $ ५७०. बन्धात्समुत्पत्तिर्येषां तानि वन्धसमुत्पत्तिकानि । हते समुत्पत्तिर्येषां तानि हतसमुत्पत्तिकानि । हतस्य हतिः हतहतिः, ततः समुत्पत्तिर्येषां तानि हतहतिसमुत्पत्तिकानि । 'एए छच्च समाणा' ति इकारस्स अंकारो। एवं तिण्णि चेव अणुभागहाणाणि होति, संगहणयावलंबणादो। संपहि सण्णादिचउवीसअणियोगदारेसु परूविय समत्तेसु अणुभागस्स किं वड्डी हाणी अवहाणं वा अत्थि णत्थि त्ति पुच्छिदे तण्णिण्णयविहाण भुजगारपरूवणा कदा । वड्डमाणो अणुभागो जहण्णेण उकस्सेण वा केत्तिओ वडदि, हायमाणो वि जहण्णेण उक्कस्सेण वा केत्तिो हायदि ति पुच्छिदे तण्णिण्णयविहाण पदणिक्खेवपरूवणा कदा । अणुभागस्स वडि-हाणीओ जहणिया उक्कस्सिया चेदि कि वे चेव आहो अण्णाओ अत्थि त्ति पुच्छिदे वडीओ छविहाओ हाणीओ वि तत्तियाओ चेवे ति जाणावण वडिपरूवणा वि कदा । संपहि हाणपरूवणा ण कायव्वा, अपुव्वपमेयाभावादो । ण च पुव्वं परूविदस्सेव परूवणा जुत्ता जाणाविदजाणावणे फलाभावादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे ण हाणपरूवणा विहला, वडिपरूवणाए परूविदछटाणाणं विसेसपरूवयत्तादो । वडीओ छच्चव, अणंतासंखेजसंखेजभागवडि-संखेज्जासंखेज्जाणंतगुणवडिभेएण। ताओ च वडिपरूवणाए तेरसअणियोगदारेहि सवित्थरं परूविदाओ । तदो पमेयाभावादो ण हाणपख्वणा कायव्वा त्ति ण पञ्चवह यं,
$ ५७०. जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति बन्धसे होती है उन्हें बन्धसमुत्पत्तिक कहते हैं । घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति होती है उन्हें हतसमुत्पत्तिक कहते हैं। घाते हुएका पुन: घात किये जानेपर जिन सत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति होती है उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक कहते हैं। 'ए ए छच्च समाणा' इस नियमके अनुसार इकारके स्थानमें अकार आदेश होनेसे हत शब्द बना है। इस प्रकार संग्रहनयका अवलम्बन करनेसे अनुभागस्थान तीन प्रकारके ही होते हैं।
शंका-संज्ञा आदि चौबीस अनुयोगद्वारोंका प्ररूपण समाप्त होने पर, अनुभागकी क्या वृद्धि, हानि और अवस्थान होता है या नहीं होता ? ऐसा प्रश्र किये जाने पर उसका निर्णय करनेके लिये भुजगार प्ररूपणा की। अनुभाग यदि बढ़ता है तो जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे कितना बढ़ता है ? यदि घटता है तो जघन्य और उत्कृष्ट रूपसे कितना घटता है ? ऐसा पूछने पर उसका निर्णय करनेके लिये पदनिक्षेपका कथन किया। अनुभागकी वृद्धि और हानि क्या जघन्य और उत्कृष्टके भेदसे दो ही प्रकारकी होती है या अन्य प्रकारकी भी होती है ? ऐसा पूछने पर वृद्धि छह प्रकारकी होती है और हानि भी छह ही प्रकारकी होती है यह बतलानेके लिये वृद्धिका कथन किया। अत: अब सत्कमस्थानोंका कथन नहीं करना चाहिये, क्योंकि कथन करनेके लिये अपूर्व प्रमेयका अभाव है। और पहले कही हुई बातका पुनः कथन करना युक्त नहीं है, क्योंकि जानी हुई वस्तुकी पुनः जानकारी करानेसे कोई लाभ नहीं है।
समाधान-इस शंकाका समाधान करते हैं-स्थानका कथन करना निष्फल नहीं है, क्योंकि वृद्धिका कथन करते समय जिन छह स्थानोंका कथन किया है उसमें इसके द्वारा विशेष कथन किया गया है। अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिके भेदसे वृद्धियाँ छह ही हैं। वृद्धि प्ररूपणामें तेरह अनुयोगद्वारोंके द्वारा उन वृद्धियोंका विस्तारसे कथन किया है। अतः नई वस्तु न होनेसे स्थानका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविती ४
पादेकमसंखेज्जभेयभिण्णदण्डं वडीणं विसेसपरूवणादुवारेण द्वाणपरूवणाए अपुव्वपमेयोवलं भादो । तासि वट्टीणं सगंतव्भूदविसेसपरूवणहमुत्तरस्रुतं भणदि* सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियाणि ।
$ ५७१. एत्थ अणुभागहाणाणि ति पुव्वसुत्तादो अणुवट्टदे, अण्णा सुत्तत्थाणुववत्तदो । सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियद्वाणाणि त्ति एदेण सुत्तेण उवरि भणिस्समाघादाहिंतो बंधहाणाणं थोवत्तं चैव जेण परूविदं तेण णाणुभागहाणाणि - ओगद्दारं छण्णं वड्ढीणं विसेसपरूवयमिदि ? ण, देसामासियभावेण परुविदतव्विसेसादो | संपहिएदेण मुत्तेण मृइदत्थपरूवणं कस्साम । तं जहा - सुहुमणिगोदस्स सव्वजहण्णारणुभागसंतद्वाणं सव्वाणुभागद्वाणाणं पढमं होदि; एदम्हादो हेट्ठा अण्णेसिं मिच्छत्ताणुभागसंतकम्मट्ठाणाणमभावादो । एत्थेव जहरणं होदित्ति कुदो णव्वदे ?
३३२
कथन नहीं करना चाहिये ऐसी शंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि छह वृद्धियोंके असंख्यात भेद हैं, उनमें से प्रत्येकका विशेष कथन होनेसे स्थान प्ररूपणा में अपूर्व विषयका कथन पाया जाता है ।
――――
विशेषार्थ - सत्कर्मस्थान तीन प्रकारके होते हैं । कर्मका बन्ध होनेपर जिस कर्मस्थानकी प्राप्ति होती है उसे बन्धसमुत्पत्तिक सत्कर्मस्थान कहते हैं अर्थात् बन्धसे उत्पन्न होनेवाला सत्कर्मस्थान । उस कर्मस्थानके अनुभागका घात किये जानेपर जो सत्कर्मस्थान उत्पन्न होता है उसे हतसमुत्पत्तिक कर्मस्थान कहते हैं। तथा उस घातसे उत्पन्न सत्कर्मस्थानके अनुभागका पुनः घात करने पर जो सत्कर्मस्थान होता है उसे हतहतसमुत्पत्तिक कर्मस्थान कहते हैं। ऊपर शंका की गई है कि इन सत्कर्मस्थानोंका कथन तो प्रकारान्तरसे पहले कर ही आये हैं पुनः उनके कहने की क्या आवश्यकता है तो उसका समाधान किया गया है कि पहले वृद्धि विभक्ति में छह वृद्धियों की अपेक्षा ही कथन किया है, किन्तु यहाँ उन वृद्धियों के असंख्यात अनन्तर भेदों में से प्रत्येक भेदकी अपेक्षा वृद्धिका कथन किया गया है यही इस कथनमें विशेषता: है ।
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उन वृद्धियोंके अन्तभूत विशेषोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं* बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सबसे थोड़े हैं ।
९५७१ इस सूत्र में पूर्वसूत्र से अनुभागस्थान शब्दकी अनुवृत्ति आती है, उसके बिना सूत्रका अर्थ नहीं हो सकता है ।
शंका- सबसे थोड़े बन्धसमुत्पत्तिक स्थान हैं इस सूत्र के द्वारा आगे कहे गये हतसमुत्पत्तिक स्थानों से बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको थोड़ा बतलाया है, अत: यह अनुभागस्थान नामक अनुयोगद्वार छह वृद्धियोंके विशेषका प्ररूपक नहीं है ।
समाधान- नहीं, क्योंकि देशामर्षकरूपसे इसके द्वारा वृद्धियोंके विशेषका कथन किया
गया है।
अर्थका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है- सूक्ष्म निगोदिया जीवका सबसे जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान सब अनुभागस्थानों में प्रथम है, क्योंकि उससे नीचे मिथ्यात्व के अन्य अनुभाग सत्त्वस्थानोंका अभाव I
शंका- सूक्ष्म निगोदिया जीवके ही सबसे जघन्य अनुभागसत्त्वस्थान होता है यह किस प्रमाणसे जाना ?
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३३३ मिच्छत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? सुहुमस्स हदसमुप्पत्तियकम्मियस्से ति सामिसुत्तादो । जदि एदं जहण्णाणुभागहाणं मुहुमणिगोदेण हदसमुप्पत्तियकम्मेणुप्पाइदं तो णेदं बंधसमुप्पत्तियहाणं, घादेणुप्पाइदस्स बंधदो समुप्पत्तिविरोहादो त्ति ? ण बंधसमुप्पत्ति यहाणमेवे ति उवयारेण हदसमुप्पत्ति यहाणस्स वि बंधसमुप्पत्तियहाणत्तं पडि विरोहाभावादो । कथमेदस्स बंधसमुप्पत्तियहाणसमाणत्तं ? ण, अदृक-उव्वंकाणं विच्चालेसु अणुप्पण्णत्तणेण बंधसमुप्पत्ति यहाणाणुभागाविभागपडिच्छेदेहि सरिसाविभागपडिच्छेदत्तणेण च बंधसमुप्पत्तियहाणसमाणत्तवलंभादो । एदं च जहण्णाणुभागहाणमहकावहिदं । किमकं णाम ? अणंतगुणवढी । कथमेदिस्से अहकसण्णा ? अहण्हमंकाणमणंतगुणवड्डी ति हवणादो । जहण्णाणुभागहाणमणंतगुणवडढीए अवहिदमिदि कदो णव्वदे ? अणंतभागवडिकंडयं गतूण असंखेजभागब्भहियहाणं होदि । असंखेजभागवडिकंडयं गंतूण संखेजभागब्भहियहाणं होदि । संखेजभागवडिकंडय गंतूण संखे०
समा
समाधान मिथ्यात्वका जघन्य, अनुभागसत्कर्म किसके होता है ? हतसमुत्पत्तिक कमवाले सूक्ष्म निगोदिया जीवके होता है इस स्वामित्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना।
शंका-यदि यह जघन्य अनुभागस्थान निगोदिया जीवके द्वारा कमका घात करके उत्पन्न किया गया है तो यह बन्धसमुत्पत्तिक स्थान नहीं हुआ, क्योंकि जो अनुभास्थान घातसे उत्पन्न किया गया है उसकी बन्धसे उत्पत्ति होनेमें विरोध आता है। आशय यह है कि बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंकी यह चर्चा है और सबसे जघन्य बन्धसमुत्पत्तिक स्थान हतसमुत्पत्तिक कर्मवाले निगोदिया जीवके बतलाया है, अतः वह हतसमुत्पत्तिकस्थान हुआ बन्धसमुत्पत्तिक स्थान नहीं हुआ।
समाधान-नहीं, क्योंकि यह बन्धसमुत्पत्तिक स्थान ही है। कारण कि उपचारसे हतसमुत्पत्तिक स्थानके भी बन्धसमुत्पत्तिक स्थान होनेमें कोई विरोध नहीं है।
शंका यह हतसमुत्पत्तिक स्थान बन्धसमुत्पत्तिक स्थानके समान कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रथम तो यह स्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न नहीं हुआ है। दूसरे इसके अविभागी प्रतिच्छेद बन्धसमुत्पत्तिक स्थानके अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समान है, अत: यह स्थान बन्धसमुत्पत्तिक स्थानके समान पाया जाता है।
यह जघन्य अनुभागस्थान अष्टांकरूपसे अवस्थित है। शंका-अष्टांक किसे कहते हैं ? समाधान-अनन्तगुणवृद्धिको। शंका-अनन्तगुणवृद्धिकी अष्टांक संज्ञा है ? समाधान-नहीं, क्योंकि आठके अंककी अनन्तगुणवृद्धिरूपसे स्थापना की गई है। शंका-जघन्य अनुभागस्थान अनन्तगुणवृद्धिरूपसे अवस्थित है यह कैसे जाना ?
समाधान-काण्डक प्रमाण अनन्तभागवृद्धिके होनेपर असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। काण्डक प्रमाण असंख्यातभागवृद्धि के होनेपर संख्यातभागवृद्विस्थान होता है। काण्डक
१. श्रा० प्रती एवं च इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ गुणब्भहियहाणं होदि । संखेजगुणवडिकंडयं गंतूण असंखेज्जगुणब्भहियहाणं होदि । असंखे०गुणवडिकंडयं गंतूण अणंतगुणब्भहियहाणं होदि त्ति वेयणाए कंडयपरूवणामुत्तादो णव्वदे। ण च जहण्णहाणे अणड के संते तदुवरि संपुषणकंडयमेत्ताणं पंचएहं वडढीणमेगअणंतगुणवडढीए च संभवो अत्थि, विरोहादो। किं कंडयं णाम ? सूचिअंगुलस्स असंखे०भागो । तस्स को पडिभागो ? तप्पाओग्गअसंखे०रूवाणि ।
५७२. एसा च कंडयआयामसंखा छसु वि वडीसु सरिसा ति ददृव्वा । कुदो ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो। एदं जहण्णाणुभागहाणं संतकम्मट्टाणं बंधहाणसमाणमिदि कदो णव्वदे ? अणुभागसंकमजहण्णपदणिक्वेवसुत्तादो । तं जहाप्रमाण संख्यातभागवृद्धिके होनेपर संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। काण्डक प्रमाण सख्यातगुणवृद्धिके होनेपर असंख्यातगुणवृद्धि स्थान होता है। काण्डकप्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिके होनेपर अनन्तगुणवृद्धि स्थान होता है। काण्डकका कथन करनेवाले वेदनाखण्डके इस सूत्रसे जाना । यदि जघन्य अनुभागस्थान अष्टांक प्रमाण न होता तो उसके ऊपर सम्पूर्ण काण्डकप्रमाण पांचों वृद्धियां और एक अनन्तगुणवृद्वि संभव नहीं होती, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है ।
शंका-काण्डक किसे कहते हैं ? समाधान-सूच्यंगुलके असंख्यातवें भागको काण्डक कहते हैं। शंका-उसका प्रतिभाग क्या है ? समाधान-उसके योग्य असंख्यात उसका प्रतिभाग है।
विशेषार्थ सूक्ष्म निगोदिया जीवका जो सबसे जघन्य अनुभाग स्थान होता है वह सब अनुभागस्थानोंमें प्रथम अनुभाग स्थान है उससे जघन्य कोई दूसरा अनुभागस्थान, नहीं होता। मगर वह अनुभागस्थान घातसे उत्पन्न होता है और यहाँ कथन बन्ध समुत्पत्तिक स्थानोंका है तो उसका यहाँ ग्रहण नहीं होना चाहिये था। किन्तु घातसे उत्पन्न होने पर भी सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभागस्थान बन्धसमुत्पत्तिक स्थानके समान ही है। और इसके दो कारण हैं-एक तो यह स्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न नहीं होता, दूसरे इसके अविभागी प्रतिच्छेद बन्धसमुत्पत्तिक स्थानके अविभागी प्रतिच्छेदोंके बराबर ही होते हैं। इन दोनों कारणोंका विवेचन क्रमसे किया जाता है-(१) यह जघन्य अनुभाग स्थान अष्टांक रूप है, इसलिये इसकी उत्पत्ति अष्टांक और उर्वकके बीचमें नहीं होती। तथा इसके ऊपर सम्पूर्ण काण्डकप्रमाण पाँचों वृद्धियाँ और एक अनन्तगुणवृद्धि होती है इसलिये यह अष्टांक रूप है, क्योंकि अष्टांकके ऊपर ही इतनी वृद्धियाँ हो सकती हैं और जो स्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न होता है उसपर केवल अनन्तगुणवृद्धि हा होती है, शेष वृद्धियाँ नहीं होती।
९५७२. सूत्रसे अविरूद्ध आचार्यवचनोंसे काण्डकका यह प्रमाण छहों वृद्धियोंमें समान जानना चाहिये।
शंका-यह जघन्य अनुभाग सत्कर्मस्थान बन्धस्थानके समान है यह कैसे जाना ? समाधान-अनुभाग संक्रम अनुयोगद्वारमें जघन्यपदनिक्षेपका कथन करनेवाले सूत्रसे
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३३५ सुहुमणिगोदजहण्णट्ठाणस्सुवरि अणंतभागब्भहियं वड्डिदूण बंधिय पुणो बंधावलियादीदम्हि तम्हि संकामिदे जहणिया वढि ति । ण च जहण्णहाणे संतकम्महाणे संते अणंतगुणवडिं मोत्तूण अण्णा वड्डी संभवदि, अह कुव्वंकाणं विच्चाले समुप्पण्णस्स सेसवडीणं संभवविरोहादो। ण च बंधेण विणा उक्कड्डणाए अणुभागहाणस्स वड्डी अत्थि, सरिसधणियपरमाणुवुड्डीए अणुभागहाणस्स वुड्डीए अभावादो। उक्कड्डिदे संते पुचिल्लअविभागपडिच्छेदसंखादो संपहियअविभागपडिच्छेदसंखाए वड्डी किमत्थि आहो पत्थि ? जदि अत्थि, अणुभागहाणबुड्डीए होदव्वं जोगहाणाणं व । ण च अविभागपडिच्छेदसमूहं मोत्तूण अण्णमणुभागहाणमत्थि, अणुवलंभादो । अह णत्थि, बंधेण फदयवडीए संतीए वि अणुभागहाणवुडीए ण होदव्वं । तत्थ वि उक्कड्डणाए इव अविभागपडिच्छेदवढेि मोत्तूण अण्णवड्डीए अणुवलंभादो। बंधे पदेसाणं वुड्डी अत्थि त्ति णाणुभागवुड्डी तत्थ वोत्तसकिज्जइ, अणुभागपदेसाणमेगत्ताभावादो। ण च अण्णस्स बहुत्तेण अण्णस्स वुड्डी होदि, विरोहादो। बंधे फद्दयवुड्डी अत्थि ति ण हाणवुड्डी वोत्तु सकिज्जइ, अविभागपडिच्छेदवदिरित्तफद्दयाणमणुवलंभादो। तम्हा बंधेणेव उक्कड्डणाए वि अणुभागहाणवुड्डीए होदव्वमिदि ? एत्थ परिहारो वुच्चदे। तं जहा—ण ताव पढमपक्खुत्तजाना। वह इस प्रकार है-- सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य स्थानके ऊपर अनन्तभागवृद्धिको लिए हुए बंध करने पर पुन: उसका बन्धावलीसे बाह्य निषेकोंमें बन्धावलीको बिताकर संक्रमण करने पर जघन्य वृद्धि होती है। यदि सूक्ष्म जीवका जघन्य अनुभागस्थान बन्धस्थानके समान न होकर, सत्कर्मस्थान रूप होता तो उसमें अनन्तगुणवृद्धिको छोड़कर दूसरी वृद्धि नहीं होती, क्योंकि जो स्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न हुआ है उसमें शेष वृद्धियोंके होनेमें विरोध आता है। तथा बंधके विना उत्कर्षणके द्वारा अनुभागस्थानकी वृद्धि होती है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि समान धनवाले परमाणुओंकी वृद्धि होने पर अनुभागस्थानकी वृद्धिका अभाव है।
शंका-उत्कर्षणके होने पर पहलेके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्यासे वर्तमान अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्या वृद्धि होती है या नहीं ? यदि होती है तो योगस्थानकी तरह अनुभागस्थानकी वृद्धि भी होनी चाहिये। और अविभागी प्रतिच्छेदों के समूहको छोड़कर अनुभागस्थान कोई अन्य वस्तु नहीं है, क्योंकि ऐसा पाया नहीं जाता है। यदि उत्कर्षणके होने पर पहलेके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्यासे वर्तमान अविभागी प्रतिच्छेदोंकी संख्यामें वृद्धि नहीं होती है तो बन्धके द्वारा स्पर्धकोंकी वृद्धिके होने पर भी अनुभागस्थानकी वृद्धि नहीं होनी चाहिये, क्योंकि उत्कर्षणकी तरह उसमें भी अविभागी प्रतिच्छेदोंकी वृद्धिको छोड़कर अन्य वृद्धि नहीं पाई जाती है। बंधके होने पर प्रदेशोंकी वृद्धि होती है इसलिये अनुभागकी भी वृद्धि होती है ऐसा नहीं कह सकते हैं, क्योंकि अनुभाग और प्रदेश एक नहीं हैं। और अन्यकी वृद्धि होने पर अन्यकी वृद्धि होती नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। तथा बन्धके होने पर स्पर्धकोंकी वृद्धि होती है इसलिये स्थानकी भी वृद्धि होती है ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि अविभागी प्रतिच्छेदोंसे अतिरिक्त स्पर्धक नहीं पाये जाते हैं। अतः बंधकी तरह उत्कर्षणके द्वारा भी अनुभागस्थानकी वृद्धि होनी चाहिये ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ दोसो संभवइ, उक्कड्डिदे अणुभागहाणाविभागपडिच्छेदाणं वुड्डीए अभावादो। अणुभागहाणं णाम चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्हि हिदअणुभागहाणाविभागपडिच्छेदकलावो। ण सो उक्कड्डणाए वड्ढदि, बंधेण विणा तदुक्कड्डणाणुववत्तीदो। ण च बंधेण जादवड्डी उक्कड्डणावडि त्ति वुच्चदि, बंधे उक्कड्डणाए पहाणत्ताभावादो । ण च हेहिमपरमाणूणमणुभागे अणणुभागहाणे उक्कड्डणाए वडिदे अणुभागहाणस्स वुड्डी होदि, अण्णवुड्डीए अण्णस्स वुडिविराहादो। ण च उक्कड्डणाए इव बंधेण वि अणुभागहाणवुडीए अभावो, पुग्विल्लअणुभागहाणसण्णिदअणुभागाविभागपडिच्छेदकलावादो संपहियअणुभागहाणसण्णिदअणुभागाविभागपडिच्छेदकलावस्स अणंतभागादिसरूवेण वडिदंसणादो। चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगपरमाणुम्हि हिदअणुभागस्स हाणत्ते इच्छिज्जमाणे एगाणुभागहाणम्मि अणंताणि फद्दयाणि ति सुत्तेण सह विरोहो होदि त्ति णासंकणिज्जं, जहण्णहाणस्स जहण्णफद्दयप्पहुडि उवरिमासेसफद्दयाणं तत्थुवलंभादो। ण च हेहिमाणुभागहाणाणं तत्थाभावो, तेहि विणा पयदाणुभागहाणस्स वि अभावप्पसंगेण तेसि तत्थ अत्थित्तसिद्धीदो। एगपरमाणुम्मि अवहिदगुणस्स अणुभागहाणते
. समाधान-अब इस शंकाका समाधान करते हैं जो इस प्रकार है-प्रथम पक्षमें दिया गया दोष तो संभव नहीं है, क्योंकि उत्कर्षणके होने पर अनुभागस्थानके अविभागी प्रतिच्छेदोंकी वृद्धि नहीं होती है। अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें स्थित अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहको अनुभागस्थान कहते हैं। अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंका समूहरूप वह अनुभागस्थान उत्कर्षणसे नहीं बढ़ता है, क्योंकि बंधके बिना उसका उत्कषण नहीं बन सकता है। यदि कहा जाय कि बंधके द्वारा होनेवाली वृद्धिको उत्कर्षण वृद्धि कहते हैं सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि बंधमें उत्कर्षणका प्राधान्य नहीं है। यदि कहा जाय कि नीचेके परमाणुओंके अनुभागमें जो कि अनुभागस्थान नहीं है, उत्कर्षणके द्वारा बढ़ने पर अनुभागस्थानकी वृद्धि हो जायगी सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अन्यकी वृद्धि होने पर अन्यकी वृद्धिका विरोध है। शायद कहा जाय कि जैसे उत्कर्षणके द्वारा अनुभागस्थानकी वृद्धि नहीं होती है वैसे ही बन्धके द्वारा भी नहीं होती, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि पहलेके अनुभागस्थान संज्ञावाले अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहसे साम्प्रतिक अनुभागस्थान संज्ञावाले अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहकी अनन्तभाग आदि रूपसे वृद्धि देखी जाती है।
शंका-अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणमें स्थित अनुभागको अनुभागस्थान मानने पर एक अनुभागस्थानमें अनन्त स्पर्धक होते हैं इस सूत्रके साथ विरोध आता है ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करना चाहिये, क्योंकि जघन्य अनुभागस्थानके जघन्य स्पर्धकसे लेकर ऊपरके सब स्पर्धक उसमें पाये जाते हैं। शायद कहा जाय कि नीचेके अनुभागस्थानोंका उसमें अभाव है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उसके विना प्रकृत अनुभागस्थानके भी अभावका प्रसंग उपस्थित होता है, अत: उसमें नीचे के अनुभागस्थानोंका अस्तित्व है यह सिद्ध होता है।
शंका-यदि एक परमाणुमें स्थित अनुभागके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समूहको अनुभाग
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३३७ इच्छिज्जमाणे एगाणुभागहाणस्स जहण्णवग्गणप्पहुडि जावुक्कस्सहाणुकस्सवग्गणे त्ति कमवडीए अवहिदपदेसपरूवणाए अभावो होदि, एगपरमाणुम्मि उक्कस्साणुभागाधारम्मि सेसाणंतपरमाणणमभावादो। तेण णेदं घडदि त्ति ? ण, जत्थ एसो उक्कस्साणुभागहाणपरमाणू अत्थि तत्थ किमेसो एक्को चेव होदि आहो अण्णे' वि अत्थि ति पुच्छिदे एक्को चेव ण होदि अणंतेहि तत्थ कम्मक्खंधेहि होदव्वं तेसिं च अवहाणकमो एसो ति जाणावण तप्परूवणाकरणादो। जहा जोगहाणे सव्वजीवपदेसाणं सव्वजोगाविभागपडिच्छेदे घेत्तण हाणपरूवणा कदा तहा एत्थ किण्ण कीरदे ? ण, तथा कीरमाणे अधहिदिगलणाए परपयडिसंकमेण अणुभागकंडयचरिमफालिं मोत्तण दुचरिमादिफालीसु च अणुभागहाणस्स घादप्पसंगादो। ण च एवं, कंडयघादं मोत्तूण अण्णत्थ तग्घादाभावादो। तम्हा एत्थ जोगहाणो व्व पज्जवडियणयो णावलंबेयव्वो । किमहमेत्थ दव्वहियणयो चेव अवलंबिज्जयि ? हिदीए इव पदेसगलणाए अणुभागघादो पत्थि त्ति जाणावण । जदि मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागबंधहाणमिच्छिज्जदि तो संजमाहिस्थान माना जाता है तो एक अनुभागस्थानमें जघन्य वर्गणासे लेकर उत्कृष्ट स्थानकी उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त क्रमसे बढ़ते हुए प्रदेशोंके रहनेका जो कथन किया जाता है उसका अभाव प्राप्त होता है, क्योंकि उत्कृष्ट अनुभागके आधारभूत एक परमाणुमें शेष अनन्त परमाणा का अभाव है। अत: अनुभागस्थानका उक्त लक्षण घटित नहीं होता है।
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जहाँ यह उत्कृष्ट अनुभागस्थानवाला परमाणु है वहां क्या यह एक ही परमाणु है या अन्य भी परमाणु हैं ऐसा पूछे जानेपर कहा जायगा कि वहां वह एक ही परमाणु नहीं है किन्तु वहां अनन्त कर्मस्कन्ध होने चाहिए और उन कर्मस्कन्धोंके अवस्थानका यह क्रम है यह बतलानेके लिये अनुभागस्थानकी उक्त प्रकारसे प्ररूपणा की है।
शंका-जैसे योगस्थानमें जीवके सब प्रदेशोंकी सब योगोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंको लेकर स्थान प्ररूपणा की है वैसा कथन यहां क्यों नहीं करते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वैसा कथन करनेपर अधःस्थितिगलनाके द्वारा और अन्य प्रकृति रूप संक्रमणके द्वारा अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिको छोड़कर द्विचरम अादि फालियों में अनुभागस्थानके घातका प्रसंग आता है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि काण्डकघातको छोड़कर अन्यत्र उसका घात नहीं होता। अतः यहाँ योगस्थानकी तरह पर्यायर्थिकनयका अवलम्बन नहीं लेना चाहिए।
शंका-यहां पर द्रव्यार्थिक नयका ही अवलम्बन किसलिए लिया गया है ?
समाधान-प्रदेशोंके गलनेसे जैसे स्थितिघात होता है वैसे प्रदेशोंके गलनेसे अनुभागका घात नहीं होता यह बतलानेके लिए यहां द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन लिया गया है।
शंका-यदि मिथ्यात्वका जघन्य अनुभागबन्धस्थान इष्ट है तो संयमके अभिमुख हुए
१, ता. प्रतौ अपणो वि इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मु हचरिमसमयमिच्छादिहिस्स जहण्णबंधो किण्ण गहिदो ? ण, तत्थतणजहण्णबंधादो .. तत्थेवाणुभागसंतकम्मस्स अणंतगुणत्तुवलंभादो। जदि एवं तो संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छाइटिस्स अणुभागसंतकम्म घेतव्वं, सुहुमेइंदियस्स सव्वु कस्सविसोहीदो अणंतगुणसण्णिपंचिंदियंसंजमाहिमुहमिच्छाइहिचरिमसमयविसोहिए पत्तघादत्तादो त्ति ? ण, तस्स सुहुमेइंदियजहण्णाणुभागसंतकम्मादो अणंतगुणत्तुवलंभादो। तदणंतगुणत्तं कुदोणव्वदे १ सव्वत्थोवो संजमाहिमुहसव्वविसुद्धचरिमसमयमिच्छादिहिस्स जहपणाणुभागबंधो । असएिणपंचिंदियस्स सव्वविसुद्धस्स जहण्णाणु०बंधो अणंतगुणो । चरिंदिय० जहण्णाणु०बंधो अणंतगुणो। तेइंदिय० जहण्णाणु०बंधो अणंतगुणो । वेइंदिय० जहण्णाणु० अणंतगुणो । बादरेइंदिय० जहण्णाणु०बंधो अणंतगुणो। मुहमेइंदियअपज्ज. सव्व विसुद्धस्स जहण्णाणुभागबंधो अणंतगुणो । तस्सेव हदसमुप्पाइदजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । बादरेइंदिएण हदसमुप्पाइदजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । वेई दिएण जहण्णाणु०संतकम्ममणंतगुणं । तेइंदिएण जहण्णाणु०अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके अनुभागबन्धका जघन्य बन्धरूपसे ग्रहण क्यों नहीं किया ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धसे वहीं प्राप्त होनेवाला अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा पाया जाता है।
शंका-यदि ऐसा है तो संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके अनुभागसत्कर्मका ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवकी सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिसे संयमके अभिमुख हुए अन्तिम समयवर्ती संज्ञी पञ्चेन्द्रिय मिथ्यदृष्टि जीवके जो विशुद्धि होती है वह अनन्तगुणी होती है और उस विशुद्धिद्वारा उस अनुभागका घात हुआ है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागसत्कमसे उसके अनन्तगुणा अनुभागसत्कर्म पाया जाता है।
शंका-सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागसत्कर्मसे उसका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-संयमके अभिमुख हुए सर्वविशुद्ध अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके जो जघन्य अनुभागबन्ध होता है वह सबसे थोड़ा है। उससे सर्वविशुद्ध असंज्ञी पञ्चेन्द्रियके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे चौइन्द्रिय जीवके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे तेइन्द्रिय जीवके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है । उससे दोइन्द्रिय जीवके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय जीवके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तक जीवके होनेवाला जघन्य अनुभागबन्ध अनन्तगुणा है। उससे उसी जीवके घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे बादर एकेन्द्रिय जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे दोइन्द्रिय जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे तेइन्द्रिय जीवके द्वारा
१. प्रा० प्रतौ अणंतगुणासगिणपंचिदिय- इति पाठः । २. ता. प्रतौ तदणंतगुणत्र कत्ता णम्वदे ति पाठ।
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गा० २२ ]
भागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
संतकम्ममतगुणं । चउरिदिएण जहण्णाणु०संतकम्ममणंतगुणं । असरिणपंचिदिएग जहणाणु ० संतकम्ममतगुणं । संजमा हिमुहसव्वविसुद्ध चरिमसमयमिच्छाइडिया हद - समुप्पाइदजहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं त्ति भणिदअप्पा बहुअसुत्तादो । होदु णाम अणुभाग धामणगुणत्तं ण संतकम्माणं; अनंतगुणाए विसोहीए पत्तघादाणमणंतगुणत्तविरोहादो त्तिण पञ्चवयं, जादिसंबंधेण अनंतगुणहीण विसोहीदो' वि बहुआणुभागखंडयस दंसणादो, तुम्हा सुहुमेईदिएण हदसमुप्पाइदअणुभागसंतकम्मं चेव जहरणमिदि घेत्तव्वं । हुमेईदिएण सव्वविसुद्धेण जहरणजोगेणं हदसमुप्पाइदअणुभागो जहणो त्ति किए वुच्चदे ? ण जोगविसेसणेण एत्थ पोजणं, जोगादो अणुभागवड्डीए अभावादो | सव्वुक्कस्स विसोहीए अणुभागसंतकम्मं हणंतस्स सव्वजहरु जोगे थोवे कम्मक्रवंधे संगलंतस्स ओकड्डगाए बहुकम्मक्खंधे णिज्जरं तस्स जेण थोवा चैव परमाणू होंति तेण अणुभागसंतकम्मस्स वि जहणत्तं होदि त्ति जोगविसेसणं णियमेणेत्थ काय ? ण, परमाणू बहुत्तमप्पत्तं वा अणुभागवडिहाणीणं ण कारणमिदि बहुसो घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे चौइन्द्रिय जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है। उससे असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । उससे संयम के अभिमुख सर्वविशुद्ध चरम समयवर्ती मिध्यादृष्टि जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है । इस प्रकार कहे गये अल्पबहुत्व सूत्र से जाना जाता है कि सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागसत्कर्म से संयम के अभिमुख हुए चरम समयवर्ती मिध्यादृष्टि जीवका जघन्य अनुभागसत्कर्म अनन्तगुणा है ।
शंका- अनुभागबन्ध उत्तरोत्तर अनन्तगुणे होवें, किन्तु अनुभागसत्कर्म उत्तरोत्तर अनन्तगुणे नहीं हो सकते; क्योंकि अनन्तगुणी विशुद्धिके द्वारा घातको प्राप्त हुए अनुभागों के अनन्तगुणे होनेमें विरोध है ।
समाधान - ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि जातिविशेषके सम्बन्ध से अनन्तगुणहीन विशुद्धिसे भी बहुतसे अनुभागका काण्डकघात देखा जाता है । इसलिये सूक्ष्म एकेन्द्रियके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया अनुभागसत्कर्म ही जघन्य है ऐसा मानना चाहिये । शंका- जघन्य योगवाले सर्वविशुद्ध सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके द्वारा घातसे उत्पन्न किया गया अनुभाग जघन्य है ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान- यहाँ पर योगविशेषसे प्रयोजन नहीं है, क्योंकि योगके द्वारा अनुभागकी वृद्धि नहीं होती ।
शंका - जो जीव सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा अनुभागसत्कर्मका घात करता है, सबसे जघन्य योगके द्वारा थोड़े कर्म स्कन्धोंको गलाता है और अपकर्षणके द्वारा बहुतसे कर्म स्कन्धों की निर्जरा करता है उसके यतः थोड़े ही परमाणु होते हैं अतः उसके अनुभागसत्कर्म भी जघन्य होता है, इसलिये यहाँ नियमसे योगको भी विशेषरण रूपसे ग्रहण करना चाहिये ।
समाधान - ऐसा कथन ठीक नहीं है, क्यों कि परमाणुओं का बहुतपना या अल्पपना
१. श्रा० प्रतौ श्रणंतगुणविसोहीदो इति पाठः । २. ता० प्रतौ जहण्णजोगिणा इति पाठः ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४ परुविदत्तादो । किं च, ण परमाणुबहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणं, सम्मत्त सम्मामिच्छतुकस्साणुभागसामित्तमुत्तरणहाववतीदो' । तं जहा - दंसणमोहक्खवगं मोत्तृण सव्वम्हि उक्कस्समिदि सामित्तमुत्तं णेदं घडदे, गुणिदकम्मं सियल क्रख रणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवण्णस्स गुणसंकमचरिमसमए वट्टमाणस्स चैव सम्मत्तु कस्साणुभागदंसणादो । सुत्ताहिप्पारण पुण खविदकम्पं सियलक्खणेणागंतून सम्मत्तं पडिवज्जिय वेद्यावहि ० भमिय दंसणमोहक्खवणं पारभिय जाव अपुव्वकरणपढमाणुभागकंडयस्स चरिमफाली
पददि ताव सम्मत्तस्मुक्कस्स मणुभागसंतकम्ममिदि । ण च सुत्तमप्पमाणं, जिणवयणविणिग्गयस्स अप्पमाणत्तविरोहादो । तम्हा पदेसंबहुत्तमणुभागबहुत्तस्स कारणमिदि सिद्धं । वेयणसण्णियासमुत्तण्णहाणुववत्तीदो च णज्जदे जहा अणुभागवड़ीए कसाओ चैव कारणं ण जोगो त्ति । तं जहा - जस्स णामा - गोद- वेदणीयवेदणा खेत्तदो उक्कस्सा तस्स भावदो णियमा उक्कस्सा त्ति वेयणामुत्तं । खेदं घडदे, खविदकम्मं सियसजो गिम्मि लोगपूरणाए वट्टमाणम्हि उक्कस्साणुभागाभावादो । तदो ण जोगत्थोवत्तमणुभागथावत्तस्स कारणमिदि सदहेयव्वं । जदि वि कसाओ असुहपयडीणमणुभाग
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अनुभागकी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है । अर्थात् यदि परमाणु बहुत हो तो अनुभाग भी बहुत हो और यदि परमाणु कम हों तो अनुभाग भी कम हो ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है। तथा परमाणुओं का बहुत होना अनुभागके बहुत्वका कारण नहीं है, अन्यथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के उत्कृष्ट अनुभागका कथन करनेवाला स्वामित्वका सूत्र नहीं बन सकता । उसका खुलासा इस प्रकार है- दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्म पाया जाता है यह स्वामित्व सूत्र है परन्तु यह घटित नहीं होता, क्यो ंकि गुणितकर्माशिक लक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करनेवाले जीवके गुण संक्रमके अन्तिम समयमें वर्तमान रहते हुए ही सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग देखा जाता है । किन्तु सूत्र के अभिप्राय से क्षपितकर्माशिकलक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके दो छियासठ सागर तक भ्रमण करके दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके जब तक अपूर्वकरणके प्रथम अनुभागकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन नहीं होता तब तक सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग रहता है। शायद कहा जाय कि सूत्र अप्रमाण है किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि जिन भगवानके मुखसे निकला हुआ वचन अप्रमाण नहीं हो सकता । अत: प्रदेशबहुत्व अनुभागके बहुत्वका कारण नहीं है यह सिद्ध हुआ । तथा वेदनाखण्डका सन्निकर्ष सूत्र भी अन्यथा नहीं बन सकता अतः जाना जाता है कि अनुभागकी वृद्धिमें कषाय ही कारण है, योग नहीं । उसका खुलासा इस प्रकार है - जिस जीवके नाम, गोत्र और वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा उत्कृष्ट है उसके भावकी अपेक्षा नियमसे उत्कृष्ट होती है । यह वेदना सूत्र है परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि लोकपूरण समुद्धातमें वर्तमान क्षपित कर्माशिक सयोग केवलीके उत्कृष्ट अनुभागका अभाव है । अतः योगका अल्पपना अनुभाग के अल्पपनेका कारण नहीं है ऐसा श्रद्धान करना चाहिये ।
२. प्रा० प्रतौ तम्हा एगपदेस
१. श्रा० प्रतौ - सामित्तं सुत्तरण हाणुववत्तोदो इति पाठः । इति पाठः । ३. प्रा० प्रतो च ण जुज्जदे जहा इति पाठः ।
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गा०२२] अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
३४१ बुडीए विसोही वि सुहकम्माणुभागवुड्डीए कारणं तो वि ण लोगपूरणमहिटियसजोगिकेवलिस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्मं संभवइ, चरिमसमयसुहुमसांपराइएण बद्धवेयणीयहिदीए वारसमुहुत्तमेत्ताए पुव्वकोडिअवटाणाभावादो ? ण, चिराणहिदीए पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्ताए अवहिदपरमाणूणं बज्झमाणाणुभागम्मि तिरिच्छेण उक्कड्डिदाणं तत्तियमेत्तकालमवहाणदंसणादो।
शंका-यद्यपि कषाय अशुभ प्रकृतियों के अनुभागकी वृद्धिम कारण है और विशुद्धिरूप परिणाम शुभ प्रकृतियों के अनुभागकी वृद्धि में कारण है तो भी लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान सयोगकेवलीके उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका होना संभव नहीं है, क्योंकि सूक्ष्मसाम्परायिक जीव अन्तिम समयमें वेदनीय कर्मकी जो बारह मुहूर्तप्रमाण स्थिति बाँधता है, वह स्थिति एक पूर्वकोटि काल तक नहीं ठहर सकती।
समाधान नहीं, क्यो कि पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण पुरानी स्थितिमें जो परमाणु मौजूद हैं उनके बध्यमान अनुभागमें आकर तिर्यक् रूपसे उत्कर्षित होने पर उतने काल तक अवस्थान देखा जाता है ।
विशेषार्थ-एक जीवमें एक समयमें कर्मका जो अनुभाग पाया जाता है उसे स्थान कहते हैं । वह स्थान दो प्रकारका है.--अनुभागबन्धस्थान और अनुभागसत्कर्मस्थान । बन्धसे जो अनुभागस्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें अनुभागबन्धस्थान या बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं। सत्तामें स्थित अनुभागका घात करनेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनका अनुभाग यदि बंधनेवाले अनुभागके बराबर ही होता है तो उन्हें भी बन्धसमुत्पत्तिक स्थान ही कहते हैं, क्योंकि उनका अनुभाग
बध्यमान अनुभागस्थानके बराबर है। किन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं, बंधसे • नहीं, तथा जिनका अनुभाग घाता जाकर बंधनेवाले अनुभागसे कम होता है, अर्थात् अष्टांक
और उर्वकके बीचमें नीचेके उर्वकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है उन्हें अनुभागसत्कर्मस्थान कहते हैं। उन्हींका दूसरा नाम हतसमुत्पत्तिक स्थान है । हतसमुत्पत्तिक स्थानके अनुभागको भी घातने पर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उन्हें हतहतसमुत्पत्तिक स्थान कहते हैं । इन तीनों स्थानोंमें बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सबसे थोड़े हैं। क्यों सबसे थोड़े हैं यह बतलानेके लिए ही आगेका कथन किया गया है। बन्धसमुत्पत्तिक स्थानों में सबसे जघन्य स्थान सूक्ष्म निगोदिया जीवका अनुभागस्थान है । यद्यपि यह स्थान घातसे उत्पन्न होता है तथापि यह बन्धस्थानके समान है, क्योंकि इसके ऊपर एक प्रक्षेपाधिक बन्ध होनेपर अनुभागकी जघन्य वृद्धि होती है और अन्तर्मुहूर्तके द्वारा उसीका काण्डकघातके द्वारा घात किये जाने र जघन्य हानि होती है। यदि सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य अनुभास्थान बन्धस्थानके समान न होता तो इतनी जघन्य वृद्धि और हानि नहीं होती, क्योंकि बन्धके बिना वृद्धि नहीं होती। शायद कहा जाय कि जघन्य स्थानके ऊपर एक प्रक्षेप वृद्धि क्यों नहीं होती तो इसका समाधान इस प्रकार है कि घात सत्त्वस्थान बन्धसदृश अष्टांक और उर्वकके बी५में नीचे के उपकसे अनन्तगुणा और ऊपरके अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है। इसके ऊपर यदि विशुद्र जघन्य वृद्धिको लेकर भी बन्ध हो तो भी ऊपरके अष्टांकप्रमाण ही बन्ध होता है, अत: घात सत्वस्थानके ऊपर अनन्तगुणवृद्धि ही होती है अनन्तभागवृद्धि नहीं होती। तथा हानिमें भी अनन्तगुणहानि ही होती है, अनन्तभागहानि नहीं होती। अत: सूक्ष्म निगोदियाका जघन्य स्थान सत्त्वस्थान नहीं है किन्तु बन्धस्थान है, इसलिए
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
उसे बन्धसमुत्पत्ति स्थानों में सबसे जघन्य कहा है। यह जघन्य स्थान अनन्तगुणवृद्धिरूप होनेसे अष्टांक प्रमाण कहा जाता है । वृद्धियां छह होती हैं - अनन्तभागवृद्धि, असंख्यात भागवृद्धि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धि । इन वृद्धियों की सहनानी क्रमसे, उर्वक, चतुरङ्क, पञ्चांक, षष्ठांक, सप्तांक और अष्टांक है । काण्डकप्रमाण पहले की वृद्धि के होनेपर आगेकी वृद्धि होती है । जैसे काण्डकका प्रमाण यदि दो कल्पना करे तो दो बार पहले की वृद्धिके होनेपर एकबार आगेकी वृद्धि होती है । जिसमें छहों वृद्धियां हों उसे षट्स्थान कहते हैं । षट्स्थानमें अगली अगली वृद्धिके पूर्व काण्डकप्रमारण पिछली पिछली वृद्धि और अन्तमें एक अनन्तगुणवृद्धि होती है । तदनुसार एक स्थानकी संदृष्टि इस प्रकार है
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सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य स्थानके ऊपर ये वृद्धियां होती हैं, अत: वह अष्टांकरूप है। यदि वह अष्टांक और उके बीच में स्थित होता तो उसपर केवल अनन्तगुणवृद्धि ही होती, अन्य वृद्धियां नहीं होतीं। और अनुभागस्थानकी वृद्धि केवल उत्कर्षणमात्रसे नहीं होती, क्योंकि उत्कर्षण द्वारा नीचे अल्प अनुभागवाले निषेकोंका ऊपरके अधिक अनुभागवाले निषेकोंमें निक्षेपण करके उनका अनुभाग बढ़ाया जाता है किन्तु इससे अनुभागस्थानकी वृद्धि नहीं होती, अनुभागस्थान तो ज्योंका त्यों रहता है, क्योंकि अन्तिम स्पर्धक की अन्तिम वर्गरणाके एक परमाणु में जो अनुभाग होता है उसे अनुभागस्थान कहते हैं । इसका विशेष खुलासा आगे करेंगे कि सबसे अधिक अनुभाग अन्तिम वर्गणा के अन्तिम परमाणु में ही होता है और उत्कर्षण के द्वारा उसमें क्षेपण होना संभव नहीं है। अतः उत्कर्षणके द्वारा कुछ परमाणुओं में अनुभागकी वृद्धि भले ही हो जाओ किन्तु अनुभागस्थानकी वृद्धि नहीं होती । पूर्व में अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणु जो अनुभाग होता है उसे अनुभागस्थान कहा है । इसपर एक शंका यह की गई है कि जैसे योग्यस्थानमें जीवके सब प्रदेशों का ग्रहण किया जाता है वैसे अनुभागस्थान में सब स्पर्धकोंके सब विभागी प्रतिच्छेदोंको न लेकर अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा के एक परमाणु में पाये जानेवाले अविभागी प्रतिच्छेदों को ही क्यों लिया तो इसका यह समाधान किया गया कि यदि सब स्पर्धकोंके सब परमाणुओ में पाये जानेवाले अनुभागको अनुभागस्थान माना जायगा तो काण्डकघात के
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गा० २२ ]
भागविहत्ती द्वाणपरूवणा
बिना भी अनुभागके घातका प्रसंग उपस्थित होगा । अतः जैसे किन्हीं परमाणुओं की स्थिति कम हो जाने पर भी उनके अनुभागके घट जानेका कोई नियम नहीं है वैसे ही प्रदेशों का गलन हो जाने पर भी अनुभागस्थानका घात काण्डकघात हुए बिना नहीं होता यह बतलाने के लिये ही यहां द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन लेकर अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणा के एक परमाणु में अनुभागस्थान कहा है । जैसे एक समय में बांधे गये मिध्यात्व कर्मकी किसी जीवके ७० कोड़ीकोड़ी सागरकी स्थिति पड़ी। यह स्थिति एक समय में बांधे गये सब परमाणुओंकी नहीं है किन्तु जो निषेक सबसे अन्तिम समयमें उदयमें आनेवाला है उसकी है, किन्तु द्रव्यार्थिकनय से वह सभी निषेककी स्थिति कही जाती है, उसी प्रकार अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गरणाके एक परमाणुमें सबसे अधिक अनुभाग पाया जाता है अत: उसे ही अनुभागस्थान कहा जाता है । उसीमें अन्य सब स्पर्धकोंकी वर्गणाओंके परमाणुओं का अनुभाग गर्भित है । इस प्रकार सूक्ष्म निगोदिया हतसमुत्पतिक कर्मवाले जीवके मिथ्यात्वका जो जघन्य अनुभागस्थान होता है वह सबसे जघन्य है । इसके सिवा अन्य जो अनुभागस्थान आगे बतलाये हैं वे जघन्य नहीं हैं । मूलमें शंका की गई है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य योगके द्वारा जो हतसमुत्पत्तिक अनुभाग होता है वह जघन्य है ऐसा क्यों नहीं कहा तो इसका यह समाधान किया गया है कि योग अनुभागकी हानि अथवा वृद्धिमें कारण नहीं होता, क्योंकि धवलाके वेदनाखण्ड में कहा है कि सयोगकेवली और अयोगकेवलीके वेदनीय, नाम और गोत्रकर्मका उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है । यदि योगकी वृद्धि अनुभागकी वृद्धिका कारण होती तो यह नियम नहीं बन सकता, तब तो उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट दोनों ही अनुभाग संभव होते। तथा वेदनाखण्ड के सन्निकर्ष विधान में कहा है कि जिसके वेदनीयकी वेदना क्षेत्र की अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके भाववेदना नियमसे उत्कृष्ट होती है। इससे भी जाना जाता है कि योगकी वृद्धि अथवा हानि अनुभागकी वृद्धि अथवा हानिका कारण नहीं होती । सयोगकेवली जब लोकपूरण समुद्घातमें वर्तमान रहते हैं तब उनका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है । भाव भी दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपकके जो होता है, लोकपूरण अवस्था में वह उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होता है, ऐसा न कहकर उत्कृष्ट ही होता है ऐसा कहा है। इससे जाना जाता है कि योगकी हानि-वृद्धि अनुभागकी वृद्धि हानिका कारण नहीं होती । तथा इसी कसायपाहुड में कहा है कि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र होता है, इससे भी उक्त बात जानी जाती है, क्योंकि उसमें कहा है कि क्षतिकर्माशिक अर्थात् जघन्य प्रदेशसंचयकी जो सामग्री कही है उस सामग्री से आकर अथवा गुणितकर्माशलक्षण अर्थात् उत्कृष्ट प्रदेशसंचयकी जो सामग्री कही है उससे आकर सम्यक्त्वको ग्रहण कर दो छियासठ सागर तक भ्रमण करके दर्शनमोहका क्षपण करते हुए
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पूर्वकरण में प्रथम अनुभागकाण्डकका जब तक पतन नहीं होता तब तक उस जीव के सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग ही होता है । यदि योगकी वृद्धि हानि अनुभाग की वृद्धि हानिका कारण होती तो क्षपितकमोशको छोड़कर गुणितकर्मा से आकर सम्यक्त्वको ग्रहण करनेवाले जीवके ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट अनुभाग होता, क्योंकि गुणितकर्माश वालेके योगका बहुत्व पाया जाता है। और ऐसा होनेपर दर्शनमोहके क्षपकको छोड़कर सर्वत्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्व प्रकृतिका अनुभाग उत्कृष्ट अथवा अनुत्कृष्ट होता । किन्तु ऐसा नहीं होता; क्योंकि ऐसा कहा नहीं गया है । अतः योग अनुभागका कारण नहीं होता । अतः सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीवके सत्ता में स्थित अनुभागका घात करके जो अनुभागस्थान उत्पन्न होता है वही जघन्य अनुभागस्थान है यह सिद्ध होता है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५७३. संपहि एदस्स जहण्णाणुभागहाणस्स सख्वपडिबोहणहमिमा परूवणा कीरदे। तं जहा-जहण्णाणुभागहाणस्स सव्वकम्मपरमाणुपुजं करिय पुणो तत्थ सव्वमंदाणुभागपरमाणुप्पासगुणं पण्णाए पुध कादूण जहण्णवडिगुणपमाणेण छिणणे सव्वजीवेहि अणंतगुणा सव्वागासघणादो वि अणंतगुणअविभागपडिच्छेदा लभंति । तेसिं वग्गमिदि सणं करिय ते पुध ठवेदव्वा । पुणो पुव्विल्लपरमाणुपुजम्मि तस्सरिसगुणं विदियपरमाणु घेत्तूण तदणुभागस्स पुव्वं व पण्णच्छेदणए कदे तत्तिया चेव अणुभागाविभागपडिच्छेदा लब्भंति । एदेसि पि वग्गमिदि सण्णं करिय पुव्विल्लवग्गस्स दाहिणपासे एदे वि पुध ठवेयव्वा । एवमेगेगसरिसधणियपरमाणू घेत्तण पण्णच्छेदणए करिय दाहिणपासे कंडुज्जुवपंतिरयणा कायव्वा जाव अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तसरिसधणियपरमाणू समत्ता ति । एदेसि सव्वेसि पि वग्गणा त्ति सण्णा । पुणो गहिदसेसपरमाणुजम्मि अवरेगं परमाणु घेत्तूण पण्णच्छेदणए कदे पुव्विल्लाविभागपडिच्छेदणएहिंतो संपहियअविभागपडिच्छेदा एगेण अविभागपडिच्छेदेण अहिया होति । एदेसि वग्गसण्णं कादूण पुव्विल्लाणमुवरि ठवेदव्वा । पुणो एदेण परमाणुणा अविभागपडिच्छेदेहि सरिसा अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता परमाणू तत्थ लब्भंति । तेसि पि अणुभागस्स पुव्वं व पण्णच्छेदणए कदे अणंता ते वग्गा भवंति । एदे सव्वे घेत्तण विदियवग्गण्णा होदि। एवं
५७३. अब इस जघन्य अनुभागस्थानके स्वरूपको समझाने के लिए यह कथन करते हैं। यथा--जघन्य अनुभागस्थानके सब कर्मपरमाणुओंको एकत्र करके उसमेंसे सबसे मन्द अनुभागवाले परमाणुके स्पर्शगुणको बुद्धिके द्वारा पृथक् करके, जघन्य वृद्धिरूप अविभागप्रतिच्छेदके प्रमाणसे उसका छेदन करनेपर वहां सब जीवराशिसे अनन्तगुणे और घनरूप समस्त आकाशसे भी अनन्तगुणे अविभागी प्रतिच्छेद पाये जाते हैं। उनकी ‘वर्ग' संज्ञा करके उन्हें पृथक् स्थापित कर देना चाहिए। पुन: पहले के परमाणु समूहमेंसे उस परमाणुके समान गुणवाले दूसरे परमाणुको लो। उसके अनुभागके भी पहले के समान बुद्धिक द्वारा छेद करनेपर उतने ही अविभागी प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं। इनकी भी 'वर्ग' संज्ञा रखकर पहले वर्गके दाहनी और उन्हें भी पृथक् स्थापित कर देना चाहिए। इस प्रकार समान धनवाले एक एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसके स्पशगुणका छेदन करके दक्षिण पाश्वमें वाणके समान ऋजु पंक्तिमें रचना करते जाओ और ऐसा तबतक करो जबतक अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिक अनन्तवें भागप्रमाण समान धनवाले परमाणु समाप्त हों। उन सब वर्गोंकी वर्गणा संज्ञा है। पुन: ग्रहण करनेसे बाकी बचे हुए परमाणु पुंजमेंसे अन्य एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसके अनुभागका छेदन करनेपर पहलेके प्रत्येक परमाणुमें पाये जानेवाले अविभागी प्रतिचछेदोंसे इसमें पाये जानेवाले अविभागी प्रतिच्छेद एक अधिक होते हैं । इनकी भी 'वर्ग' संज्ञा रखकर इन्हें पहलेके वर्गों के ऊपर स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार उस परमाणुजमें अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण परमाणु ऐसे पाये जाते हैं जिनके अविभागी प्रतिच्छेद उस एक परमाणुके अविभागी प्रतिच्छेदोंके समान होते हैं। उन परमाणुओंके भी अनुभागका पहलेके समान बुद्धिके द्वारा छेद करनेपर वे अनन्त वर्ग हो जाते हैं। इन सबको लेकर दूसरी वर्गणा होती है । इस प्रकार
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३४५ दोअविभागपडिच्छेदुत्तरतिषिण०-चत्तारि०-पंच०-छ०-सत्तादिअविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण अवहिदअगंतपरमाणू घेत्तूण तदणुभागस्स पण्णच्छेदणयं काऊण अभवसिद्धिएहि अणंतागुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तवग्गणाओ उप्पाइय उवरि उवरि रचेदवाओ । एवमेत्तियाहि वग्गणाहि एगं फद्दयं होदि, अविभागपडिच्छेदेहि कमवड्डीए एगेगं पंतिं पडुच्च अवहिदत्तादो। उरिमपरमाणू अविभागपडिच्छेदसंखं पेक्खिदण कमहाणीए अभावेण विरुद्धाविभागपडिच्छेदसंखत्तादो वा ।
$ ५७४. पुणो पढमफद्दयचरिमवग्गणाए एगवग्गाविभागपडिच्छेदेहितो एगविभागपडिच्छेदेणुत्तरपरमाणू णत्थि, किंतु सव्वजीवेहि अणंतगुणाविभागपडिच्छेदेहि अहिययर परमाणू तत्थ चिरंतणपुजे अत्थि । ते घेत्तूण पढमफद्दयउप्पाइदकमेण विदियफद्दयमुप्पाएयव्वं । एवं तदियादिकमेण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्ताणि फद्दयाणि उप्पाएदव्वाणि । एवमेत्तियफद्दयसमूहेण मुहुमणिगोदजहण्णाणुभागहाणं होदि। दो अविभागप्रतिच्छेद अधिक, तीन, चार, पांच, छह और आत आदि अविभागप्रतिच्छेद अधिकके क्रमसे अवस्थित अनन्त परमाणुओंको लेकर उनके अनुभागका,बुद्धिके द्वारा छेदन करके अभव्यराशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणााको उत्पन्न करके उन्हें ऊपर ऊपर स्थापित करो। इस प्रकार इतनी वर्गणाओंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि वहां अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा एक एक पंक्तिके प्रति क्रमवृद्धि अवस्थितरूपसे पाई जाती है । अथवा ऊपरके परमाणुओंमें अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्याको देखते हुए वहां क्रमहानिका अभाव होनेसे इसके विरुद्ध अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्या पाई जाती है।
५७४. पुनः प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंसे एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाला परमाणु आगे नहीं है, किन्तु सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाणु उस चिरंतन परमाणुपुंजमें मौजूद हैं। उन्हें लेकर जिस क्रमसे प्रथम स्पर्धककी रचना की थी उसी क्रमसे दूसरा स्पर्धक उत्पन्न करना चाहिए। इसी प्रकार तीसरे अदि स्पर्धकोंके क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र स्पर्धक उत्पन्न करने चाहिए। इस प्रकार इतने स्पर्धकोंके समूहसे सूक्ष्म निगोदिया जीवका जघन्य अनुभागस्थान बनता है।
विशेषार्थ-जघन्य अनुभागस्थानके समस्त परमाणुओंको एकत्र करके उनमेंसे सबसे मन्द अनुभागवाले परमारगुको लो और उसके रूप, रस और गन्धगुणको छोड़कर स्पर्शगुणको बुद्धि के द्वारा ग्रहण करके उसके तब तक छेद करो जब तक अन्तिम छेद प्राप्त हो । उस अन्तिम खण्डको, जिसका दूसरा खण्ड नहीं हो सकता, अविभागप्रतिच्छेद कहते हैं। स्पर्शगुणके उस अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण खण्ड करने पर सब जीवोंसे अनन्तगुणे अविभागप्रतिच्छेद पाये जाते हैं । एक परमाणुमें रहनेवाले उन अविभागप्रतिच्छेदोंके समूहको वर्ग कहते हैं। अर्थात् प्रत्येक परमाणु एक एक वर्ग है । यद्यपि उसमें पाये जानेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण अनन्त है फिर भी संदृष्टिके लिए उसका प्रमाण ८ कल्पना करना चाहिए । पुनः उन परमाणुओंमेंसे प्रथम परमाणुके समान अविभागप्रतिच्छेदवाले दूसरे परमाणुको लो और उसके भी स्पर्शगुणके बुद्धिके द्वाराखण्ड करने पर उतनेही अविभाग प्रतिच्छेद प्राप्त होते हैं । यहां पर यह शंका हो सकती है कि परमाणु तो खण्डरहित है उसके खण्ड कैसे किए जा सकते हैं ? इसका उत्सर यह है कि परमाणुद्रव्य अखण्ड अवश्य है किन्तु उसके गुणकी बुद्धिके द्वारा खण्डकल्पना की जासकती है.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[अणुभागविहत्ती ४
क्योंकि एक परमाणुसे दूसरे परमाणुमें हीनाधिक गुणपर्याय देखा जाती है। इस दूसरे वर्गके अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण यद्यपि अनन्त है तो भी संदृष्टिके लिए आठ कल्पना करना चाहिए और पूर्वोक्त वर्गके दक्षिण भागमें उसकी स्थापना कर देनी चाहिए -८८ । इस क्रमसे पूर्वोक्त परमाणुके समान एक.एक परमाणुको लेकर उसके स्पर्शगुणके अविभागप्रतिच्छेद करनेपर एक एक वर्ग उत्पन्न होता है। ऐसा तब तक करना चाहिए जब तक जघन्य गुणवाले सब परमाणु समाप्त न हों। ऐसा करने पर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्ग प्राप्त होते हैं। उनका प्रमाण संदृष्टिरूपमें इस प्रकार है-८८८८ । द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा इन सभी वर्गोंकी वर्गणा संज्ञा है, क्योंकि वोंके समूहको वर्गणा कहते हैं। इस प्रकार इन वगोंको पृथक् स्थापित करके उप्त परमागुपुंजमेंसे फिर एक परमाणु लो और बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करके, छेदन करनेपर पूर्वोक्त परमाणुओंसे इसमें एक अधिक अविभागप्रतिच्छेद पाया जाता है। उसका प्रमाण संदृष्टिरूपमें ९ है। यह एक वर्ग है और इसको पृथक स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे उस परमाणुके समान अविभागप्रतिच्छेदवाले जितने परमाणु पाये जांय उनमेंसे एक एकके बुद्धिके द्वारा खण्ड करके अनन्त वर्ग उत्पन्न करने चाहिए। उनका प्रमाण इस प्रकार है९९९। यह दूसरी वर्गणा है। इसको प्रथम वर्गणाके आगे स्थापित करना चाहिए । इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी आदि वर्गणाएं, जो कि एक एक अधिक अविभागप्रतिच्छेदको लिए हुये हैं, उत्पन्न करनी चाहिए । इन वर्गणाओंका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है। इन सब वर्गणाओंका एक जघन्य स्पर्धक होता है, क्योंकि वर्गणाओंके समूहको स्पर्धक कहते हैं। इस प्रथम स्पर्धकको पृथक् स्थापित करके पूर्वोक्त परमाणुपुंजमेंसे एक परमाणुको लेकर बुद्धिके द्वारा उसका छेदन करनेपर द्वितीय स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका प्रथम वर्ग उत्पन्न होता है । इस वर्गमें पाये जानेवाले अविभागप्रतिच्छेदोंका प्रमाण संदृष्टिरूपसे १६ है । इस क्रमसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र समान अविभागप्रतिच्छेदवाले परमाणुओंको लेकर और बुद्धिके द्वारा उनका छेदन करनेपर उतने ही वर्ग उत्पन्न होते हैं। इन वर्गोंका समुदाय दूसरे स्पर्धकका प्रथम वर्गणा कहलाता है। इस प्रथम वर्गणाको प्रथम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके आगे अन्तराल देकर स्थापित करना चाहिए। इस क्रमसे वर्ग, वर्गणा
और स्पर्धकको जानकर तब तक उनकी उत्पत्ति करनी चाहिए जब तक पूर्वोक्त परमाणुओंका समुदाय समाप्त न हो । इस प्रकार स्पर्धकोंकी रचना करनेपर अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक और वर्गणाएं उत्पन्न होती हैं। इनमेंसे अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक परमाणुमें जो अनुभाग पाया जाता है उसेही जघन्य स्थान कहते हैं। इसकी संदृष्टि इस प्रकार है
प्रथम स्प.
द्वि. स्प,
तृ. स्प.
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चर. प.
पं. स्प.
प. स्प,
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प्र० वर्गणा ८ ८ ८ ८ द्वि० वर्गणा ९ ९ ९ तृ० वर्गणा| १० १० च० वर्गणा ११
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ग० २२ अणुभागविहत्तीए ठाणपरूवणा
३४७ ५७५. संपहि एदस्स जहण्णाणुभागहाणस्स अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फ६यपरूवणा अंतरपरूवणा चेदि एदेहि चदुहि अणियोगद्दारेहि परूवणं कस्सामो । तत्थ अविभागपडिच्छेदपरूवणाए परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि तिण्णि अणियोगद्दाराणि । जहणियाए वग्गणाए अत्थि अविभागपडिच्छेदा । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सिया वग्गणा ति । एवं परूवणा गदा ।
$ ५७६. जहणियाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा केवडिया ? अणंता सव्वजीवेहि अणंतगुणा । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सिया वग्गणा त्ति । एवं पमाणपरूवणा गदा !
5 ५७७. सव्वत्थोवा जहणियाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा । उक्कस्सियाए वग्गणाए अविभागपडिच्छेदा अणंतगुणा। को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । कदो ? जहण्णबंधहाणप्पहुडि उवरि असंखेज०लोगमेत्तछहाणेसु गदेसु सुहुमेइंदियजहण्णहाणचरिमवग्गणाए समुप्पत्तीदो । अजहण्णअणुक्कस्सियासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा अणंतगुणा । को गुणगारो ? अभवसिद्धि एहि अणंतगुणो सिदाणमणंतभागमेत्तो । अणुकस्सियासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया। अजण्णियासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णवग्गणाविभागपडिच्छेदेहि ऊणउक्कस्सवग्गणाविभागपडिच्छेदमेत्तेण । सव्वासु वग्गणासु अविभागपडिच्छेदा विसेसाहिया । के० मेत्तेण ? जहण्णवग्गणाविभागपडिच्छेदमेत्तेण ।
एवमविभागपडिच्छेदपरूवणा गदा। ५७५. अब इस जघन्य अनुभागस्थानका अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्धकप्ररूपणा और अन्तरप्ररूपणा इन चार अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर कथन करते हैं। उनमें अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणाके प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व ये तीन अनुयोगद्वार हैं। जघन्य वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये। इस प्रकार प्ररूपणा स
५७६. जघन्य वर्गणामें कितने अविभागप्रतिच्छेद हैं ? अनन्त हैं। जो सब जीवोंसे अनन्तगुणे हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये। इस प्रकार प्रमाणप्ररूवणा समाप्त हुई।
५७७. जघन्य वर्गणामें, अविभागप्रतिच्छेद सबसे थोड़े हैं। उनसे उत्कृष्ट वर्गणामें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण कितना है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा है। क्योंकि जघन्य बन्धस्थानसे लेकर ऊपर असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंक एकेन्द्रिय जीवके जघन्य अनुभागस्थानकी अन्तिम वर्गणाको उत्पति होती। उनसे अजघन्य अनुत्कृष्ट वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद अनन्तगुणे हैं। यहाँ पर गुणकारका प्रमाण कितना है ? अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिका अनन्तवां भागप्रमाण गुणकारका प्रमाण है। उनसे अनुत्कृष्ट वर्गणाओंमें अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। उनसे अजघन्य वर्गणाओं में अविभागप्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं । कितने अधिक हैं ? जधन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेदोंसे कम उत्कृष्ट वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेद प्रमाण अधिक हैं। उनसे सभी वर्गणाओंमें अविभाग
सूक्ष्म
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Mirmirrrrrrrrr.
३४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ५७८. वग्गणपरूवणदाए ताणि चेव तिरिण अणियोगदाराणि । तत्थ परूवणदाए अत्थि जहणिया वगणा। एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सवग्गणे ति। एवं परूवणा गदा।
$ ५७६. पमाणं वुच्चद्दे-अणंतेहि सरिसधणियपरमाणूहि एगा वग्गणा होदि, दबहियणयावलंबणादो। पज्जवटियणए पुण अवलंबिदे वग्गो वि वग्गणा होदि । णिव्वियप्पवग्गस्स कथं वगणतं ? ण, उवरिमएगोलिं पेविखण सवियप्पस्स वग्गणतं पडि विरोहाभावादो। विरोहे वा महाखंडवग्गणाए धुवसुण्णवग्गणाणं च ण वग्गणतं होज्ज, सरिसपणियाभावादो। ण च एवं, वग्गणाणं तेवीससंखाए अभावप्पसंगादो। जहरणटाणसावरगाणाओ वि अभवसिद्धिएहि अणंतगुणाओ सिद्धाणमणंतिमभागमेताओ। कदो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुण सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तकम्मपरमाणूहि णिप्पण्णत्तादो। एगम्मि जीवे सयजीवेहि अणंतगुणा परमाणू किरण मिलंति ? ण, मिच्छत्तादिपच्चएहि आगच्छमाणपरमागुणमभवसिद्धिएहि अणंतगुणसिद्धाणंतिषभागपमाणत्तवलंभादो। ण च एत्तिएसु कम्मपरमाणुपोग्गलेसु कम्महिदीए प्रतिच्छेद विशेष अधिक हैं। कितने अधिक हैं ? जघन्य वर्गणाके अविभागप्रतिच्छेर्दो का जितना प्रमाण है उतने अधिक है।
इस प्रकार अविभागप्रतिच्छेदप्ररूपणा समाप्त हुई। ६५७८. वर्गणाप्ररूपणामें भी थे ही तीन अनुयोगद्वार हैं, प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । उनमेंसे प्ररूपणाकी अपेक्षा जघन्य वर्गणा है। इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई।
६५७६. अब प्रमाणको कहते हैं-द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बनसे समान अविभागप्रतिच्छेदों के धारक अनन्त परमाणुओंकी एक वर्गणा होती है। किन्तु पर्यायर्थिकनयका अवलम्बन करने पर एक वर्ग भी वर्गणा होता है। __ शंका-वर्ग तो विकल्प रहित है, उसको वर्गणः कैसे कहा जा सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उपरिम एक पंक्तिको देखते हुए पंक्तिका वर्ग भी सविकल्प है, अत: उसके वर्गणा होने में कोई विरोध नहीं है। यदि विरोध हा तो महात्कन्धवर्गणा और ध्रुवशून्य वर्गणाएँ भी वगणा नहीं हो सकतीं; क्योंकि उनमें सनान धनवालोंका अभाव है। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेसे वर्गणाओंकी जो तेईस संख्या बतलाई है उसके अभावका प्रसंग प्राप्त होता है।
___ जघन्य अनुभागस्थानकी सब वर्गणाएं भी अभव्यराशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं, क्योंकि वे अभ राशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण कर्मपरमाणुओंसे बनी हैं।
शंका-एक जीवमें सब जीवोंसे अनन्तगुणे परमाणु क्यों नहीं एकत्र होते हैं ?
समाधान नहीं; क्यो कि मिथ्यात्व आदि कारणों से बन्धको प्राप्त होनेवाले परमाणु अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण ही पाये जाते हैं। इतने कर्म
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गा० २२] . अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३४९ गुणिदेसु सव्वजीवेहि अणंतगुणा कम्मपरमाणू होति, विरोहादो। एक कफदए वि अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतिमभागमेत्ताओ वग्गणाओ होति । ताओ च सव्वफदएसु संखाए समाणाओ । कदो ? साहावियादो । एवं वग्गणपमाणपरूवणा गदा।
५८०. जहण्णफदए वग्गणाओ थोवाओ । अजहएरणेसु फदएसु वग्गणाओ अणंतगुणाओ । सव्येसु फद्दएस वग्गणाओ विसेसाहियाओ। एवं वग्गणपरूवणा गदा।
५८१. फद्दयपरूवणं तेहि चेव तीहि अणियोगद्दारेहि भणिस्सामो । तं जहाअत्थि जहण्णं फद्दयं । एवं णेदव्वं जावुकस्सफदयं ति । परूवणा गदा।
$ ५८२. जहण्णए हाणे अभवसिद्धि एहि अणंतगुणसिद्धाणंतिमभागमेत्ताणि फद्दयाणि । पमाणपरूवणा गदा ।
५८३. सव्वत्थोवं जहण्णफद्दयं, एगसंखत्तादो । अजहण्णफदयाणि अणंतगुणाणि । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तो । सव्वाणि फद्दयाणि विसेसाहियाणि एगरूवेण । अधवा अविभागपडिच्छेदे अस्सिदण उच्चदे-जहण्णफद्दयं थोवं । उक्कस्सफदयमणंतगुणं । को गुणगारो ? सव्वजीवेहि अणंतगुणो । अजहण्णअणुक्कस्सफद्दयाणि अणंतगुणाणि । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अगंतगुणो सिद्धाणंतिमभागमेतो । अणुकस्सफदयाणि विसेसाहियाणि । अजहण्णपरमाणुओ को कमों की स्थितिसे गुणा करने पर समस्त कर्म परमाणु सब जीवोंसे अनन्तगुणे नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है।
___ एक एक स्पर्धकमें भी अभव्य राशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वर्गणाएँ होती हैं। वे वर्गणाएँ संख्यामें सभी स्पर्धकोंमें समान होती हैं, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है । इस प्रकार वर्गणाकी प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
५८.. जघन्य स्पर्धकमें थोड़ी वर्गणाएँ हैं। उनसे अजघन्य स्पर्धकोंमें अनन्तगुणी वर्गणाएं हैं। उनसे सब स्पर्धकोंमें विशेष अधिक वर्गणाएँ हैं। इस प्रकार वर्गणाप्ररूपणा समाप्त हुई।
५८१. उन्हीं तीन अनुयोगद्वारोंका आश्रय लेकर स्पर्धकका कथन करते हैं। यथा-- जघन्य स्पर्धक है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्धक पर्यन्त ले जाना चाहिये । प्ररूपणा समाप्त हुई।
१५८२. जघन्य अनुभागस्थानमें अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक होते हैं। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
५८३. जघन्य स्पर्धक सबसे थोड़ा है, क्योंकि उसकी संख्या एक है। उससे अजघन्य स्पर्धक अनन्तगुणे हैं। गुणकारका प्रमाण क्या है ? अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशि के अनन्तवें भागप्रमाण गुण कार का प्रमाण है। उनसे सभी सर्धक विशेष अधिक हैं, क्योंकि अजघन्य स्पर्धकोंसे इनमें एक स्पर्धक अधिक होता है । अथवा अविभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा कहते हैं -जघन्य स्पर्धक थोड़ा है । उससे उत्कृष्ट स्पर्धक अनन्तगुणा है । गुणकार क्या है ? सब जीवोंसे अनन्तगुणा गुणकार है। अजघन्य अनुत्कृष्ट स्पर्धक अनन्तगुणे हैं । गुणकार क्या है ? अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकार है। अनुत्कृष्ट स्पर्धक
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३५०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ फद्दयाणि विसेसा० । सव्वाणि फदयाणि विसे० । एवं फद्दयपरूवणा गदा ।
१५८४. अंतरपरूषणदाए अत्थि जहण्णयं फदयंतरं । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सफद्दयंतरं ति । एवं परूवणा गदा ।।
६५८५. पढमं फदयंतरं सव्वजीवेहि अणंतगुणं एवं णेदव्वं जाव उकस्सफद्दयंतरं ति । एवमंतरपमाणपरूवणा० ।
६५८६. अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवं जहण्णफयंतरं । उक्कस्सफद्दयंतरमणंतगुणं । अजहण्णअणुक्कस्सफदयंतराणि अणंतगुणाणि । अणुकस्सफदयंतराणि विसेसाहियाणि । अजहण्णफदयंतराणि विसे० । सव्वाणि फदयंतराणि विसे० । अहवा फद्दयंतराणपप्पाबहुअं ण सकिन्जदे काउं, छवढि-छहाणिकमेण अवहिदत्तादो । तं पि कुदो ? बंधहाणाणं हेहिमाणं छबिहाए वड्डीए अवहिदत्तादो । ण च एदम्हादो हाणादो हेहा बंधहाणाणमभावो, सव्यविसुद्धसंजमाहिमुहमिच्छाइहिआदीणं बंधस्स एदम्हादो हेटा दसणादो । तं जहा–संजमाहिमुहसव्वविसुद्धमिच्छादिहिणा बज्झमाणजहण्णमिच्छत्तहिदीए असंखेज्जलोगमेत्ताणि विसोहिहाणाणि भवंति । पुणो एत्थ सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणअणुभागहाणाणि असंखेजलोगछटाणसरूवेणं होति । पुणो तत्थतणजहण्णाणुभागबंधहाणस्सुवरि तस्सेव उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव विशेष अधिक है। अजघन्य स्पर्धक विशेष अधिक हैं । सब स्पर्धक विशेष अधिक हैं।
इस प्रकार स्पर्धकप्ररूपणा समाप्त हुई। ५८४. अन्तर प्ररूपणामें जघन्य स्पर्धकका अन्तर है। इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्धकके अन्तर पर्यन्त ले जाना चाहिए । इस प्रकार प्ररूपणा समाप्त हुई ।
६५८५. प्रथम स्पर्धकका अन्तर सब जीवोंसे अनन्तगुणा है । इस प्रकार उत्कृष्ट स्पर्धकके अन्तर पर्यन्त ले जाना चाहिए । इस प्रकार अन्तरकी प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
६५८६. अल्पबहुत्व-जघन्य स्पर्धकका अन्तर सबसे थोड़ा है। उत्कृष्ट स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा है। अजघन्य अनुत्कृष्ट स्पर्धको के अन्तर अनन्तगुणे हैं। अनुत्कृष्ट स्पर्धको के अन्तर विशेष अधिक हैं। अजघन्य स्पर्धकोंके अन्तर विशेष अधिक हैं। सब स्पर्धको के अन्तर विशेष अधिक हैं। अथवा स्पधको के अन्तरो में अल्पबहुत्व नहीं किया जा सकता; क्यों कि वे छह वृद्धियो और छह हानियो के क्रमसे अवस्थित हैं। और इसका सबूत यह है कि नीचेके बन्धस्थान छह प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए अवस्थित हैं। तथा इस बन्धस्थानसे नीचे अन्य बधस्थानोंका अभाव नहीं है; क्योंकि सबसे विशुद्ध और संयमके अभिमुख हुए मिथ्यादृष्टि आदिके होनेवाला बंध इससे नीचे देखा जाता है। उसका खुलासा इस प्रकार है-संयमके अभिमुख और सर्वविशुद्र मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा मिथ्यात्व की जो जघन्य स्थिति बांधी जाती है, उसके कारणभूत असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान होते हैं। पुनः यहां सर्वोत्कृष्ट विशुद्धि स्थानसे बंधनेवाले अनुभागस्थान असंख्यात लोक षटस्थान रूपसे होते हैं। तथा वहां पर होनेवाले जघन्य अनुभागबन्धस्थानके ऊपर उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। पुनः
१. ता. प्रतौ -छट्ठाणप (स) वेण, प्रा० प्रती छटाणपरूवेण इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए द्वारणपरूवणा
३५१ चरिमसमयजहण्णविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधट्टाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं। पुणो तस्सेव दुचरिमसमयमिच्छादिहिस्स सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । पुणो तस्सेव दुचरिमसमयसव्वजहण्णविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागवंधहाणमणंतगुणं । तस्सेव उक्कस्साणुभागबंधहाणमणंतगुणं । एवं तिचरिमादिसमयप्पहुडि अंतोमुत्तकालमणंतगुणसरूवेणोदारेदव्वं जाव सत्थाणमिच्छादिहिपढमसमओ त्ति । पुणो असण्णिपंचिदिय-चरिंदिय-तेइंदिय-बेइंदिय-बादरेइंदिएमु च अंतोमुहुत्तकालमणेणेव विहाणेण ओदारेदव्वं । पुणो सव्वविसुद्धचरिमसमयमुहुमअपज्जत्तयस्स सव्वुक्कस्सविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागबंधहाणमणंतगुणं । तस्सैवुक्कस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । तस्सेव मंदविसोहिहाणेण बज्झमाणजहण्णाणुभागहाणमणंतगुणं । तस्सेवुक्कस्साणुभागबंधटाणमणंतगुणं । एवं दुचरिमसमयप्पहुडि अणंतगुणकमेण ओदारेदव्वं जाव मुहुमसत्थाणजहण्णसंतसमाणबंधहाणे ति । तेण फद्दयंतराणि छविहाए बडीए अवहिदाणि त्ति णव्वदे।
-ncrease
Mirror
उसी संयमाभिमुख मिथ्याष्टिके अन्तिम समयवर्ती जघन्य विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है । पुन: द्विचरम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिके सबसे उत्कृष्ट विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है । उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। पुन: द्विचरम समयवर्ती उसी मिथ्यादृष्टिके सबसे जघन्य विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर स्वस्थान मिथ्या दृष्टिके प्रथम समय पर्यन्त ये अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणे रूपसे उतारनाचाहिए। पुनः असंज्ञिपञ्चेन्द्रिय, चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय और बादर एकेन्द्रियों में अन्तर्मुहूर्तकाल तक इसी क्रमसे उतारना चाहिए। पुनः सर्वविशुद्ध चरम समयवर्ती सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगणा है। उसी सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके मन्द विशुद्धिस्थानसे बंधनेवाला जघन्य अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है । उसीका उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थान अनन्तगुणा है। इसी प्रकार द्विचरम समयसे लेकर सूक्ष्म अपयोप्तक जीवके स्वस्थान जघन्य सत्त्वस्थानके समान बन्धस्थान पर्यन्त अनन्तगुणित क्रमसे उतारना चाहिए । इससे जाना जाता है कि स्पर्धकोंका अन्तर छह प्रकारकी वृद्धिरूपसे अवस्थित है।
विशेषार्थ-स्पर्धकोंमें परस्परमें अन्तर पाया जाता है यह बात तो पहले वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकका कथन करते हुए बतलाई ही है। यदि स्पर्धकोंमें अन्तर न होता तो स्पर्धक अनेक नहीं होते। अन्तर होनेसे ही पृथक स्पर्धककी रचना होती है और वह अन्तर अविभागप्रतिच्छेदोंको लेकर होता है। जहाँ तक एक एक अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाण पाये जाते हैं वहाँ तक एक स्पर्धक होता है। उसके बाद एक अविभागप्रतिच्छेद अधिक परमाण नहीं पाया जाता किन्त अनन्तगणे अविभागप्रतिच्छेद अधिकवाले परमाण पाये जाते हैं। बस वहींसे दूसरा स्पर्धक प्रारम्भ हो जाता है, अत: जघन्य स्पर्धकका अन्तर सबसे कम होता है और जघन्य स्पर्धकसे
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३५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ ___$५८७. संपहि परूवणा पमाणं सेढी अवहारो भागाभागं अप्पावहुअं चेदि एदेहि छहि अणियोगदारेहि मुहुमजहण्णहाणपरमाणणं परूवणा कीरदे । तं जहाजहरिणयाए वग्गणाए अस्थि कम्मपदेसा। विदियाए नग्गणाए अत्थि कम्मपदेसा । एवं णेदव्वं जाव उकस्सवग्गणे त्ति । परूवणा गदा ।
५८८. जहरिणयाए वग्गणार कम्मपदेसा केत्तिया ? अणंता अभवसिदिएहि अणंतगुणा सिद्धाणंतिमभागमेत्ता । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सवग्गणे त्ति ।
___$ ५८६. सेढिपरूवणा दुविहा-अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा चेदि । तत्थ अणंतरोवणिधाए जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसा बहुआ। विदियाए वग्गणाए कम्मपदेसा विसेसहीणा । एवं विसेसहीणा विसेसहीणा जाव उक्कस्सिया वग्गणा त्ति । भागहारो पुण अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तो । एवमणंतरोवणिधा गदा।
$ ५६०. जहरिणयाए वग्गणाए कम्मपदेसेहिंतो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तमद्धाणं गंतूण कम्मपदेसा दुगुणहीणा होति । एवमवहिदमद्धाणं उत्कृष्ट स्पर्धकका अन्तर अनन्तगणा है। किन्तु इसमें एक दूसरा पक्ष भी है और वह यह है कि चूँकि स्पर्धकान्तर छह प्रकारकी हानि और छह प्रकारकी वृद्धिको लिए हुए होता है, अत: स्पर्धकान्तरोंमें अल्पबहुत्व नहीं किया जा सकता। अर्थात् यह नहीं कहा जा सकता कि अमुक स्पर्धकका अन्तर थोड़ा है।और अमुकका अनन्तगुणा, क्योंकि हानि वृद्धि होनेसे उसमें घटती और बढ़ती हो सकती है। तथा उनमें हानि-वृद्धि होती है यह बात इससे स्पष्ट है कि सूक्ष्म निगोदिया जीवके उक्त बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसे नीचे अन्य भी बन्धस्थान पाये जाते हैं और वे बन्धस्थान छह प्रकारकी वृद्धिको लिए हुए हैं। जैसा कि मूलमें संयमके अभिमुख सर्वविशुद्र मिथ्यादृष्टि जीवसे लेकर सर्वविशुद्ध चरिमसमयवर्ती सूक्ष्म अपर्याप्तक जीवके होनेवाले अनुभागबन्धको उत्तरोत्तर अनन्तगुणा अनन्तगुणा बतलाकर स्पष्ट किया है।
६५८७. अब प्ररूपणा, प्रमाण, श्रेणी; अवहार, भागाभाग और अल्पबहुत्व इन छह अनुयोगद्वारोंसे सूक्ष्म जीवके जघन्य अनुभागस्थानके परमाणुओंका कथन करते हैं। यह इल प्रकार है-जघन्य वर्गण में कर्मप्रदेश हैं। दूसरी वर्गणामें कर्मप्रदेश हैं । इस प्रकार उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त लेजाना चाहिए । प्ररूपणा समाप्त हुई।
५८८. जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश कितने हैं ? अनन्त है जो अभव्यराशिसे अनन्तगणे और सिद्वराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। इस प्रकार उत्कटवर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिए।
५८९. श्रेणि प्ररूपणा दो प्रकारकी है-अनन्तरोपनिधा और परंपरोपनिधा। उनमेंसे अनन्तरोपनिधाकी अपेक्षा जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश बहुत हैं। दूसरी वर्गणामें कर्मप्रदेश विशेष हीन हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट वाणा पर्यन्त कर्मप्रदेश विशेषहीन विशेषहीन होते हैं। भागहारका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है। अर्थात् इस भागहारका भाग जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंमें देनेसे जो लब्ध प्राधे उतने हीन कर्मप्रदेश दूसरी वर्गणामें हैं। इस प्रकार अनन्तरोपनिधाका कथन समाप्त हुआ।
६५९२. जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्वराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्थान जानेपर कर्मप्रदेश दूने हीन अर्थात् आधे होते हैं। इस प्रकार
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए ठाणपरूवणा
३५३ गंतूण दुगुणहीणा दुगुणहीणा जाव चरिमगुणहाणि त्ति । तं जहा-अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तं णिसेगभागहारं विरलेदूण जहण्णवग्गणकम्मपदेसेसु समखंडं कादण दिएणेसु एक कस्स रूवस्स वग्गणाविसेसपमाणं पावदि । पुणो जेणेत्थ एगेगवग्गणविसेसो वग्गणं पडि हायमाणो गच्छदि तेण णिसेगभागहारस्स अद्धमत्तं गंतूण जहण्णवग्गणपदेसेहितो तदित्थवग्गणपदेसा दुगुणहीणा होति । पुणो पढमगुणहाणिपढमवग्गणभागहारेणेव विदियगुणहाणिपढमवग्गणापदेसेसु खंडिदेसु तत्थतणवग्गणविसेसो होदि । णवरि पढमगुणहाणिवग्गणविसेसादो विदियगुणहाणिवग्गणविसेसो दुगुणहीणो, पुव्विल्लविहज्जमाणदव्वं पेक्खिदूण संपहि विहज्जमाणदव्वस्स दुभागत्तादो । एत्थ वि भागहारस्स अद्धं गंतूण दुगुणहाणी होदि । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणे ति । अन्तिम गुणहानिक प्राप्त होने तक अवस्थित अध्वान जाने पर कर्मप्रदेश आधे आधे होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है-अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण निषेकभागहारका विरलन करके उसके ऊपर जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके समान खण्ड करके देनेपर एक एक अंकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण प्राप्त होता है। यतः यहाँ पर वर्गणाके प्रति एक एक वर्गणाविशेष घटता जाता है अतः निषेकभागहारका
आधा प्रमाण जानेपर जघन्य वर्गणाके प्रदेशोंसे वहां पर स्थित वर्गणाके प्रदेश दूने हीन होते हैं। उसके बाद प्रथम गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके भागहारसे ही दूसरी गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके प्रदेशोंमें भाग देनेपर वहांका वर्गणाविशेष आता है। इतना विशेष है कि प्रथम गुणाहानिके वर्गणाविशेषसे दूसरी गणहानिका वर्गणाविशेष दूना हीन है, क्योंकि पहले जिस द्रव्यमें भाग दिया गया था उससे अब जिस द्रव्यमें भाग दिया गया है वह द्रव्य आधा है। यहां भी भागहारका आधा प्रमाण जानेपर दूनी हानि होती है । इस प्रकार अन्तिम वर्गणा पर्यन्त लेजाना चाहिए।
विशेषार्थ-सूक्ष्म निगोदिया जीवका जो जघन्य बन्धस्थान है उसके परमाणुओंका कथन करनेके लिए छह अनुयोगस्थान कहे हैं। उनमेंसे श्रोणि अनुयोगद्वारका कथन अंकसंदृष्टिसे इस प्रकार समझना चाहिए । अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण निषेकभागहारका प्रमाण १६ है और जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंका परिमाण ५१२ है । निषेकभागहार १६ का विरलन करके उसके ऊपर जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंके १६ खण्ड करके एक एकके ऊपर देनेसे एक एक रूपके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण आता है । यथा३२ ३२ ३२ ३२. ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३२ ३३ ३२ ३२ ३२ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ इसीको दूसरे प्रकारसे यूं कह सकते हैं कि जघन्य वर्गणाके कमप्रदेश ५१२ में निषेकभागहार १६ का भाग देनेसे ३२ लब्ध आता है और यही प्रत्येक वर्गणामें विशेष अर्थात चयका प्रमाण होता है । अर्थात् प्रत्येक वर्गणामें ३२, ३२ परमाणु कम होते जाते हैं। तथा निषेकभागहार १६ का आधा ८ होता है, अतः जब प्रत्येक वर्गणामें ३२, ३२ परमाणु कम होते जाते हैं तो आठ स्थान जानेपर आगेकी वर्गणामें जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे आधे कर्मपरमाणु पाये जायेंगे यह स्वाभाविक ही है। जैसे ५१२, ४८०, ४४८, ४१६, ३८४, ३५२, ३२०, ३८८ ये आठ स्थान जानेपर २५६ कर्म परमाणु नवीं वर्गणामें आते हैं जो कि प्रथम वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे आधे है । जिस प्रकार प्रथम गणहानिकी प्रथम वर्गणा ५१२ में निषेकभागहार १६ का भाग देनेसे एक एक वर्गणाका ३२ चय आया था उसी प्रकार दूसरी गुणहानिकी प्रथम वर्गणाके कर्मपरमाणु २५६ में
४५
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ५६१. एत्थ तिण्णि अणियोगदारिणि-परूवणा पमाणमप्पाबहुअं चेदि । परूवणाए अत्थि णाणापदेसगुणहाणिहाणंतरसलागाओ एगपदेसगुणहाणिअद्धाणं च । [परूवणा गदा।]
$ ५६२. णाणापदेसगुणहाणिसलागाओ एगपदेसगुहाणिअद्धाणं च अभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतभागमेत्तं होदि । पमाणपरूवणा गदा।
५६३. सव्वत्थोवाओ णाणापदेसगुणहाणिसलागाओ। एगपदेसगुणहाणिहाणंतरमणंतगुणं । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागमेत्तो।
एवं सेढिपरूवणा गदा । ५६४. पढमाए वग्गणाए कम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणकम्मपदेसा केवडिएण कालेण अवहिरिजंति ? अणंतेण कालेण अवहिरिजंति । एवं णेदव्वं जाव चरिमनिषेकभागहार १६ का भाग देनेसे एक एक वर्गणाके प्रति चयका प्रमाण १६ आता है। यह चय पहलेके प्रमाणसे आधा है, क्योंकि पहले भाज्यराशिका प्रमाण ५१२ था और अब २५६ है। यहाँ भी निषेकभागहारका आधा अर्थात् आठ स्थान जानेपर कर्मपरमाणुओंका प्रमाण आधा रह जाता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । यथा
प्रथम कृणहानि २गुणहानि ३गुणहानि ४ गुणहानि ५गुणहानि चरम गुणहानि
२८८ ३२०
१४४
३५२
१८६ १६२ २०८ २२४
३८४ ४१६ ४४८ ४८० ५१२
000
WॐHair
MOR.
९६ १८४ ११२ १२० १२८
१५.
२५६
१६
इस प्रकार जघन्य स्थानकी प्रथम वर्गणासे लेकर चरम वर्गणा पर्यन्त कर्मपरमाणुओंका प्रमाण जानना चाहिए।
६५९१. इसका कथन करनेके लिये भी तीन अनुयोगद्वार हैं-प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व । प्ररूपणाकी अपेक्षा नानाप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर शलाकाएँ हैं और एकप्रदेशगुणहानिअध्वान है। प्ररूपणा समाप्त हुई।
$ ५९२. नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाएं और एकप्रदेशगुणहानिआयाम अभव्य राशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण हैं। प्रमाणप्ररूपणा समाप्त हुई।
$ ५९३. नानाप्रदेशगुणहानिशलाकाएँ सबसे थोड़ी हैं। उनसे एकप्रदेशगुणहानिस्थानान्तर अनन्तगुणा है ? गुणकारका प्रमाण कितना है ? अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण गुणकारका प्रमाण है।
इस प्रकार श्रेणिप्ररूपणा समाप्त हुई। ६५९४. पहली वर्गणामें जितने कर्मप्रदेश हैं उतने प्रसारणसे यदि सब वर्गणाओंके कर्मप्रदेशोंका अपहार किया जाय तो कितने कालमें किया जा सकता है ? अनन्त कालमें उनका
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३५५ वग्गणे त्ति । अधवा दिवड्डगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंत ।
5 ५६५. तदो विदियाए वग्गणाए कम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणकम्मपदेसा केवचिरेण कालेणं अवहिरजति ? सादिरेयदिवडगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजंति । तं जहा-पढमवग्गणकम्मपदेसपमाणेण सव्ववग्गणकम्मपदेसपिंडे कदे दिवडगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणाओ होति । संपहि विदियादिवग्गणावहारकाले इच्छिज्जमाणे दिवडगुणहाणि विरलेदूण सव्वदव्वं समखंड कादण दिएणे एक कस्स रुवस्स पढमवग्गणपमाणं पावदि । पुणो विदियवग्गणपमाणेण अवहिरिदुमिच्छामो त्ति हेहा णिसेगभागहारं विरलेदृण पढमवग्गणाए समखंड कादूण दिण्णाए एक कस्स रूवस्स वग्गणविसेसपमाणं पावदि। पुणो एत्थ एगरूवधरिदवग्गणविसेसपमाणेण उवरिमविरलणरूवं पडि हिदपढमवग्गणासु अवणिदे अवणिदसेसे दिवगुणहाणिमेत्तविदियवग्गणाओ होति । अवणिदवग्गणविसेसा वि दिवट्टगुणहाणिमेत्ता होति । पुणो एदे वि तप्पमाणेण कस्सामो। तं जहा–रूवूणणिसैगभागहारमेत्तवग्गणविसेसे घेत्तूण जदि एगविदियअपहार किया जा सकता है। इसी प्रकार अन्तिम वर्गणा पर्यन्त ले जाना चाहिये। अथवा डेढ़ गुणहानिस्थानान्तर कालके द्वारा उनका अपहार हो सकता है।
विशेषार्थ—अपहारकालको सरल रूपसे समझनेके लिये अङ्कसंदृष्टि इस प्रकार हैसब वर्गणाओंके कर्मप्रदेशोंका प्रमाण ४६१५२; गुणहानिका प्रमाण ६४; डेढ़गुणहानि ९६; दो गुणहानि ६४४२=१२८; प्रथम वर्गणा ५१२; वर्गणाविशेषका प्रमाण दो गुणहानि अथवा निषेकभागाहारसे भाजित प्रथम वर्गणा ५१२ १२८ =४। पहली वर्गणाके कर्मप्रदेश ५१२ से यदि सब वर्गणाओंके कर्मप्रदेश ४९१५२ का अपहार किया जाय तो डेढ़ गुणहानि कालमें उनका अपहार हो सकता है ४९१५२ : ५१२-९६= ६४ x १३ अर्थात् डेढ़ गुणहानि।
६५९५, अनन्तर दूसरी वर्गणामें जितने कर्मप्रदेश हैं उतने प्रमाणसे सब वर्गणाओंके कर्मप्रदेशोंका अपहार कितने काल में होता है ? कुछ अधिक डेढ़ गुणहानि स्थानान्तर कालके द्वारा उनका अपहार होता है। उसका खलासा इस प्रकार है-प्रथम वर्गणामें जितने कर्मप्रदेश हैं उतने प्रमाणसे समस्त वर्गणाओंके कप्रदेशोंके पिण्ड करने पर डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणाएँ होती हैं। अब द्वितीय आदि वर्गणाओंका अपहारकाल लाना इष्ट होनेपर डेढ़ गुणहानिका विरलन करके सब द्रव्यके समान खण्ड करके प्रत्येकके ऊपर देनेपर एक एक अंकके प्रति प्रथम वर्गणाका प्रमाण आता है। पुनः द्वितीय वर्गणाके प्रमाणसे अपहार करनेकी इच्छा है इसलिए नीचे निषेकभागहारका विरलन करके प्रत्येकके ऊपर सम खण्ड करके प्रथम वर्गणाके देनेपर एक एक रूपके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण आता है। पुन: यहां एक अंकके प्रति प्राप्त वर्गणाविशेषके प्रमाणको उपरिभ विरलनके प्रत्येक एक पर स्थित प्रथम वर्गणामेंसे घटा देनेपर डेढ़ गुणहानिप्रमाण द्वितीय वर्गणाएँ होती हैं और घटाये गये वर्गणाविशेष भी डेढ़ गुणहानि प्रमाण होते हैं। पुन: इन्हें भी द्वितीय वर्गणाके प्रमाणसे करते हैं। उसका खुलासा इस प्रकार है-एक कम निषेकभागहार प्रमाण वर्गणाविशेषोंको लेकर यदि एक द्वितीय वर्गणाका प्रमाण
१. ता० प्रतौ कालंतरेण अविहिरिजंति इति पाठः । २. ता० प्रतौ केचिरं कालेण इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
गणपमाणं लब्भदि तो दिवडुगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसेसु केत्तियं विदियवग्गणपमाणं लामो ति फलगुणिदिच्छाए पमाणेणोवट्टिदाए जं लद्धं तं दिवडूगुणहाणीए पक्खित्ते सादिरेयदिवडूगुणहाणिमेत्तो विदियणिसेगभागहारो होदि । अथवा दिवडूगुणहाणिमेत्तं पढमवग्गणाखेत्तं ठविय पुणो एगवग्गणविसेस विक्खंभ-दिवडूगुणहाणिआयाममेत्तफालिमवणिदे सेसखेत्तं दिवड्डायामं विदियवग्गणfarari होण चेदि । पुणो तं फालिं घेत्तू विदियवग्गणविक्वं भस्सुवरिं तिरिच्छेण पादिय उविदे दिवड्डायामपमाणं विदियवग्गणविक्खंभं ण पावदि । पुणो केत्तियमेत्तेण पावदित्ति भणिदे गुणहाणिअद्धरूवूणमेत्तवग्गणविसेसखेत्तं जदि होदि तो पावदि । पक्खेवरूवं पि एवं लब्भदि । ण च एत्तियखेत्तमत्थि तेण सादिरेयदिवडुगुणहाणिहाणंतरेण कालेन अवहिरिज्जदि ति सिद्धं ।
३५६
१
आता है तो डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंमें द्वितीय वर्गणाओंका कितना प्रमाण प्राप्त होता है ऐसा त्रैराशिक करने पर फलराशिसे गुणित इच्छाराशिको प्रमाण राशिका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे डेढ़ गुणहानिमें मिला देनेपर कुछ अधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण द्वितीयवर्गाका भागद्दार होता है । अथवा डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणा के क्षेत्रको स्थापित करके पुनः एक वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़ी और डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बी फालिको निकाल देनेपर शेष क्षेत्र डेढ़ गुणहानि लम्बा और द्वितीय वर्गण प्रमाण चौड़ा होकर स्थित रहता है । पुनः उस फालिको लेकर द्वितीय वर्गणाके विष्कम्भके ऊपर तिरछे रूपसे स्थापित करने पर वह डेढ़ गुणहानि लम्बा होकर द्वितीय वर्गणाके विष्कम्भको नहीं प्राप्त होता है । पुन: कितने मात्र से प्राप्त होता है ऐसा प्रश्र करने पर कहते हैं कि यदि वर्गणाविशेषका क्षेत्र एक कम अर्द्ध गुणहानिप्रमाण और होता तो प्राप्त होता और प्रक्षेपरूप भी एक प्राप्त होता किन्तु इतना क्षेत्र नहीं है अतः कुछ अधिक डेढ़ गुणहानि स्थानान्तर कालके द्वारा अपहार होता है यह
सिद्ध हुआ ।
विशेषार्थ - प्रथम वर्गणा के प्रमाण से द्वितीय वर्गणाका प्रमाण एक वर्गणाविशेष हीन होता है, अतः द्वितीय वर्ग के कर्मप्रदेशों का प्रमाण ५१२ - ४ = ५०८ है । इससे सब वर्गणाओं के कर्मप्रदेशों का अपहार करने पर ४९१५२ ÷ ५०८ = ९६ कुछ अधिक डेढ गुणहानि प्रमाण अपहार
- ३८४
५०८
काल होता है। डेढ़ गुणाहानि ९६ का विरलन करके, सब द्रव्य ४९१५२ के समान खंड करके
.९६ वार |
प्रत्येकके ऊपर देने पर प्रथम वर्गरणा ५१२ आती है – ५१२ ५१२ ५१२ ५१२ १ १ १ १
निषेकभागाहार १२८ का विरलन करके प्रत्येकके ऊपर सम खंड करके प्रथम वर्गणा के देने पर
१. ता० प्रा० प्रत्योः
इत्यकारेणोपलभ्यते ।
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ग० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३५७ ५६६. तदियवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणे दोफालिमत्ता वग्गणविसेसा होति । ताओ दोफालीओ आयामेण संधिदे तिएिणगुणहाणिमेत्ता वग्गणविसेसा होंति ? पुणो ते तदियवग्गणपमाणेण अवहिरिजमाणे दुरूवूणवेगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसखेत्तं घेतूण पुव्ववेत्तस्सुवरिं ठविदे एगं भागहाररूवमहियं लब्भदि। पुणो
५०८
.................
एक एकके प्रति वर्गणाविशेषका प्रमाण आता है-४
४ ४ ४
..............१२८ बार ।
"९ १ १ १ १............... १२८ बार। इस वर्गणाविशेषको उपरिम विरलन पर स्थित डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणाओंमें से घटा देने पर ( ५१२-४ ) ९६=५०८ x ९६ डेढ़ गुणहानि प्रमाण द्वितीय वर्गणाएँ होती हैं। घटाये गये वर्गणाविशेष भी डेढ़ गुणहानिप्रमाण होते हैं ५१२४९६-५०८४ ९६ =४४९६। यदि एक कम निषेकभागहार ( १२८-१)= १२७ वर्गणाविशेषोंकी ( १२७ x ४) एक द्वितीय वर्गणा होती है तो डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषों (९६४४) की-९३४४४१ = ३८४ द्वितीय वर्गणा होती है। ३८४ को डेढ़ गुणहानि ९६ में मिला देने पर कुछ अधिक डेढ़ गुणहानि ९६ ३८४
= ४९११२ द्वितीय वर्गणाका भागाहार होता है। अब क्षेत्रकी अपेक्षा इस भागाहारको सिद्ध करते हैं-डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बा और प्रथम वर्गणाप्रमाण चौड़ा क्षेत्र स्थापित करके उसमें से एक वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़े और डेढ़ गुणहानि --डेढ़ गुणहानि-> प्रमाण लम्बे “अ” क्षेत्रको फालिरूपसे अलग करने पर ।। अ
व ०वि० शेष “ब” क्षेत्र डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बा और द्वितीय ! वर्गणाप्रमाण चौड़ा होकर स्थित रहता है। पुनः द्वितीय ! वर्गणाके विष्कम्भके उपर तिरछे रूपसे उस फालिरूप "अ" । क्षेत्रको स्थापित करनेपर द्वितीय वर्गणाका विष्कम्भ पूरा नहीं है। प्राप्त होता। उसमें एक कम अर्ध गुणहानिप्रमाण वर्गणा | विशेषोंकी कभी रहती है। क्योंकि "अ' फालिका प्रमाण डेढ़गुणहानि ९६ प्रमाण लम्बा और एक वर्गणाविशेष ४ मैं। प्रमाण चौड़ा=९६४४ है और द्वितीय वर्गणाका प्रमाण || ५०८ = १२७४४ है। (१२७ ४ ४)-(९६x४) = ३१४४ ! अर्थात् द्वितीय वर्गणा पूरी होनेमें एक कम अर्ध गुणहानि (१४-१-३१) प्रमाण वर्गणाविशेष (४) की कमी है । यदि -- डेढ़ गुणहानि -→ एक कम अर्धगुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेष और होते तो एक द्वितीय वर्गणा पूरी हो जाती। परन्तु इतना यहाँ नहीं है, अतः सब द्रव्यको द्वितीय वर्गणाके प्रमाणसे करने के लिए वह साधिक डेढ़ गुणहानिसे अपहृत होता है यह कहा है।
५९६. समस्त वर्गणाओंके कर्मप्रदेशोंका तृतीय वर्गणाके प्रमाणके द्वारा अपहार करने पर दो फालीमात्र वर्गणाविशेष होते हैं। उन दो फालियोंको श्राथामके साथ जोड़ देने पर तीन गुणहानि प्रमाण वर्गणाविशेष होते हैं। पुन: उन तीन गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंको . तृतीय वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करने पर; दो कम दो गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेष क्षेत्रको
--द्वितीय वर्गणा---
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
दुरूवाहियगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसखेत्तमहियमत्थि । तम्हि तदियवग्गणपमाणेण कीरमाणे तप्पमाणं ण पूरेदि, चदुरूवूणगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसाणमभावादो । तेण सादिरेयरूवाहियदिवडूगुणहाणिद्वाणंतरेण कालेन वहिरिज्जदि ति सिद्धं ।
३५८
$ ५६७, संपहि चउत्थवग्गण पमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे सादिरेयदुरूवाहियदिवगुणहाणिहाणंतरेण कालेन अवहिरिज्जदि । तं जहा - दिवडगुणहाणिमेत विक्खंभतिष्णिवग्गणदिसेसमेत्तखेत्ते अवणिदे अवसेसखेत्तं दिवडूगुणहाणिविक्खंभेण चउत्थवग्गणआयामेण अवचिदृदि । पुणो अवणिदतिरिणफालीओ तप्पमाणेण कस्सामो— तिरूवूर्णवेगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेस एगा चउत्थवग्गणा होदि ति अद्धवंचमगुणहाणिमेत्तवग्गणाविसेसेसु वेच उत्थवग्गणाओ सादिरेयाओ होंति तिरिण ण पूरेंति,
ग्रहण करके पहिले क्षेत्र पर रखने पर भागाहारमें एक रूपकी अधिकता प्राप्त होती है । पुनः दो अधिक गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेष क्षेत्र अधिक है उसे तृतीय वर्गरणा के प्रमाणसे करने पर उसके प्रमाणको पूरा नहीं करता, क्योंकि चार कम गुणहानिप्रमारण वर्गणाविशेषोंका अभाव है । अतः सातिरेक एक अधिक डेढ़ गुणहानि स्थानन्तर कालके द्वारा वह अपहृत होता है यह सिद्ध हुआ ।
विशेषार्थ - तृतीय वर्गरणाका प्रमाण ( ५०४ ) प्रथम वर्गणा के प्रमाण (५१२) से दो वर्गणा विशेष (२४) कम होता है। पूर्वोक्त प्रकारसे प्रथम वर्गणाप्रभारण चौड़ा और डेढ़ गुणहानि प्रमाण लम्बा क्षेत्र स्थापित करके उसमें से एक एक वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़ी और डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बी दो फालियोंको अलग करने पर शेष क्षेत्र तृतीय वर्गणाप्रमाण चौड़ा और डेढ़
हानिप्रमाण लम्बा ( ५०४४९६ ) स्थित रहता है । पुनः उन दो फालियोंको आयामके साथ जोड़ने से ( १३ गुणानि वर्गणाविशेष + १३ गुणहानि वर्गणाविशेष ) तीन गुणहानि वर्गणाविशेष होते हैं (६४×३x४) = १९२४४ | इसको तृतीय वर्गरणा ( ५०४ = १२६x४ ) के प्रमाणसे करने पर एक तृतीय वर्गणा और दो अधिक गुणहानि ( ६४ + २=६६) वर्गरणाविशेष प्रमाण क्षेत्र शेष रह जाता है ( १९२४४ - १२६४४ =६६४४) । इस शेष क्षेत्र ( ६६x४ ) की पूरी तृतीय वर्गणा नहीं होती, क्योंकि ( १२६४४ - ६६x४ = ६०४४ ) चार कम गुणहानिप्रमारण ( ६४ - ४ = ६० ) वर्गणाविशेष ( ४ ) की कमी है । अतः तृतीय वर्गरणाका पहार काल कुछ ६६ ६६ ४६१५२ विशेष एक अधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण है ९६+१+ =९७ १२६ १२६ ५०४
'= ९७
६६ १२६
,
$ ५९७. अब चतुर्थ वर्गणा के प्रमाण के द्वारा समस्त द्रव्यको अपहृत करने पर दो अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक स्थानान्तर कालके द्वारा अपहृत होता है । उसका खुलासा इस प्रकार है - डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे और तीन वर्गणाविशेष प्रमाण चौड़े क्षेत्रको अलग करने पर शेष क्षेत्र डेढ़ गुणहानि प्रमाण लम्बा और चतुर्थ वर्गणाप्रमाण चौड़ा अवस्थित रहता है । फिर लगी हुई तीन फालियों को चतुर्थ वर्गरण के प्रमाणसे करते हैं -- यदि तीन कम दो गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंकी एक चतुर्थ वर्गणा होती है तो साढे चार गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंकी चतुर्थ वर्गणाऐं कुछ अधिक दो होती हैं, तीन पूरी तीन नहीं होतीं; क्योंकि
१ ता० प्रतौ कस्सामो ति रूवूण- इति पाठः ।
I
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हारणपरूवणा
३५९ णववग्गणविसेमणदिवडगुणहाणिमेत वग्गणविसेसाणमभावादो। तेण सादिरेयदुरूवाहियदिवट्टगुहाणिटाणंतरेण कालेण अवहिरिजदि ति सिद्धं ।
$ ५६८. पंचमवग्गणपमाणेण अवहिरिज्जमाणे सादिरेयतिरूवाहियदिवडगुणहाणिहाणंतरेण कालेण सव्वदव्यमवहिरिन्जदि । दिवड्डखेत्तम्मि पंचमवग्गणपमाणायददिवडगुणहाणिविक्खंभखेत्ते अवणिदे उव्वरिदछगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसेसु सादिरेयतिएिणपंचमवग्गणाणमुवलंभादो। चत्तारि रूवाणि ण पूरंति, सोलसवग्गणविसेसेहि यूणदोगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसाणमभावादो । नौ वर्गणाविशेष कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंका अभाव है, अत: दो अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक स्थानान्तर कालके द्वारा उसका अपहार होता है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-चौथी वर्गणा ५०० से समस्त द्रव्य ४९१५२ का अपहरण करने पर घर ६८ २५२==९८ ३८ अर्थात् दो अधिक डेढ़ गुणहानि (६६+२=९८ ) से कुछ अधिक ३८. अपहारकाल प्राप्त होता है । पूर्वोक्त डेढ़ गुणहानिप्रमाण (९६) लम्बे और प्रथम वर्गणाप्रमाण ( ५१२) चौड़े क्षेत्र में से डेढ़ गुणहानि प्रमाण ( ९६ ) लम्बे और तीन वर्गणाविशेष (३४४) प्रमाण चौड़े क्षेत्रको अलग करनेपर शेष क्षेत्र डेढ़ गुणहानिप्रमाण (९६) लम्बा और चतुर्थ वर्गणा (५०० ) प्रमाण चौड़ा अवस्थित रहता है। यदि तीन कम दो गुणहानि (६४४२-३= १२५) वर्गणाविशेष (४) की एक चतुर्थ वर्गणा ( ५०० ) प्राप्त होती है तो अलग ग्रहण किये गये क्षेत्र (डेढ़ गुणहानिx३४४ = साढ़े चार गुणहानिx४-६x६४४४) की कुछ अधिक दो चौथी वर्गणाएँ प्राप्त होती हैं इ४६४४४४१ - १२५४४ - १९४२४४ = २२८)। चतुर्थ वर्गणा पूरी तीन नहीं होती, क्योंकि पूरी तीन होनेमें नौ कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणा विशेपोंकी कमी है (३४१२५४४ - ३२४६x४ = ८७४४ =६६-६x४)। अतः समस्त द्रव्य को चौथी वर्गणाके प्रमाणसे करने पर वह दो अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है यह कहा है।
५६८. पाँची वर्गणाके प्रमाणसे अपहृत करने पर समस्त द्रव्य तीन अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक स्थानान्तर कालके द्वारा अपहृत होता है। डेढ़ गुणहानि प्रमाण क्षेत्रमें से पाँचवीं वर्गणाप्रमाण आयामवाले और डेढ़ गुणहानिप्रमाण विस्तारवाले क्षेत्रको अलग करने पर शेष रहे छह गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंमें पाँचवीं वर्गणाऐं साधिक तीन प्राप्त होती हैं। पूरी चार नहीं प्राप्त होती; क्योंकि सोलह वर्गणाविशेष कम दो गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंका अभाव है।
विशेषार्थ-पाँचवीं वर्गणा (४६६) के प्रमाणसे समस्त द्रव्य (४६१५२ ) को अपहृत करने पर तीन अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक काल प्राप्त होता है (४६१५२ = ६६.१२ )। क्षेत्र की अपेक्षा डेड गुणहानि प्रमाण (६६ ) लम्बे और चार वर्गणा विशेष प्रमाण चौड़े (४४४) क्षेत्रको अलग करनेपर शेष क्षेत्र पाँचवीं वर्गणाप्रमाण (४६६) चौड़ा और डेढ़ गुणहानि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागवित्ती ४
$ ५६६. संपहि छट्ठवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे सादिरेयतिरिणख्वाहियदिवडुगु णहाणिमेतकाले अवहिरिज्जदि । दिवगुणहाणि मेत पढमवग्गणासु agarगणपमाणे अवणिदे अवणिदसेस अद्धहमगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसेसु सादिरेयतिन्हं रूवाणमुवलंभादो । चत्तारि रुवाणि ण पूरंति, वीसवग्गणविसेसहीणअद्धगुणहाणिवग्गणविसेसाणमभावादो ।
९ ६००. संपहि सत्तमवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अत्रहिरिज्जमाणे सादिरेयचदुरूवाहियदिवडूगुणहाणिद्वाणंतरेण कालेण अवहिरिज्जदि । दिवडुगुणहाणिमेत्तपढमवग्गणासु सत्तमवग्गणाए अवणिदाए तत्थुव्वरिदणवगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसेसु
३६०
प्रमाण (६६) लम्बा रहता है। अलग किये हुए क्षेत्र ( डेढ़ गुणहानि १३x६४×४४४= ६X६४X४) में से पाँचवी वर्गणा पूरी चार (४६६x४ = १२४ × ४४४) प्राप्त नहीं होतीं, क्योंकि ( १२४ × ४ x ४ - ६ x ६४X४=११२X४=२x६४ - १६x४ = १२८ - १६x४ ) सोलह कम दो गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंकी कमी है, इसलिए समस्त द्रव्यको पाँचवी वर्गणाके प्रमाणसे करनेपर वह तीन अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है यह कहा है ।
=९९
१११ १२३
1
४९२
९ ५९९, अब छटी वर्गणा के प्रमाण से समस्त द्रव्यका अपहरण करने पर वह तीन अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है । डेढ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणाओं से छटी वर्गणाके प्रमाण को अलग करने पर अलग किये गये क्षेत्र साढ़े सात गुणहानिमाण वर्गणाविशेषोंमें छटी वर्गणाएं कुछ अधिक तीन प्राप्त होती हैं। पूरी चार नहीं प्राप्त होतीं, क्योंकि बीस वर्गणाविशेष कम अर्द्ध गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेत्रों का अभाव है । विशेषार्थ - छठवीं वर्गणा ( ४६२ ) से समस्त द्रव्य ४९१५२ का अपहरण करनेपर तीन अधिक डेढ़ गुणहानि (६६ + ३ = ९९ ) से कुछ अधिक काल आता है ४९१५२. पूर्वोक्त प्रकार से डेढ़ गुणहानि लम्बे और पाँच वर्गणाविशेष प्रमाण चौड़े क्षेत्रको अलग करने पर छठवीं वगणाप्रमाण (४९२ ) चौड़ा और डेढ़ गुणहानिप्रमाण (६६) लम्बा क्षेत्र शेष रहता है । अलग किए हुए साढ़े सात गुणहानि वर्गणाविशेष प्रमाण ( १३ गुणहानि ४५ वर्गणाविशेष गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेष = १५ x ६४ x ४ ) क्षेत्र में कुछ अधिक तीन छटी वर्गणाएँ प्राप्त होती हैं ( २ ×६४ x ४ = ३×१२३x४ + १११x४ ) । छठवीं वर्गणा पूरी चार नहीं प्राप्त होतीं, क्योंकि बीस कम अर्ध गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषों की कमी है (४× १२३x४ - ३५ ×६४×४ = १२x४ = - २०x४ । अतः सब द्रव्यको छठवीं वर्गरणाके प्रमाणसे करने पर वह तीन अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है यह कहा है ।
२
६४ २
$ ६००. अब सप्तम वर्गणा के प्रमाण से समस्त द्रव्यका अपहरण करनेपर वह कुछ विशेष चार अधिक डेढ़ गुणहानिप्रमाण काल द्वारा अपहृत होता है। डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रथम वर्गणाओं में से सातवीं वर्गणा के अलग करने पर वहां शेष रहे नौ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंमें १. ता० ग्रा० प्रत्योः - मेवग्गणासु इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३६१ सादिरेयचदुरूवोवलंभादो । पंचरूबाणि ण पूरेति, तीसवग्गणविसेसूणएगगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसाणमभावादो।
६०१. संपहि अहमवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिजमाणे सादिरेयपंचरूवाहियदिवडगुणहाणिहाणंतरेण कालेण अवहिरिजदि। पढमवग्गणविक्खंभदिवडगुणहाणिआयदखेतम्मि अहमवग्गणविक्खंभदिवड्डगुणहाणिआयदखेत्ते अवणिदे उव्वरिदसत्तफालीसु सादिरेयपंचमवग्गणपमाणुप्पत्तीदो । छअट्टमवग्गणाओ ण उप्पज्जंति, वादालीसवग्गणविसेमणदिवडगुणहाणिमेत्तवग्गणविसेसाणमभावादो । सातवीं वर्गणाएं कुछ अधिक चार प्राप्त होती हैं। पूरी पाँच नहीं प्राप्त होती, क्योंकि तीस वर्गणा विशेष कम एक गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंका अभाव है।
विशेषार्थ-सातवीं वर्गणाके प्रमाण (४८८ = १२२४४) से समस्त द्रव्य ४९१५२ का अपहरण करने पर चार अधिक डेढ़ गुणहानि (९६+४= १०० ) से कुछ अधिक काल आता है। ४९१५२ = १००-८८ । डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे और प्रथम वर्गणाप्रमाण चौड़े क्षेत्रमें से डेढ़ गुणहानि लम्बे और छह वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़े अथवा (१३४६=९) नौ गुणहानि वर्गणाविशेषप्रमाण क्षेत्रको अलग करने पर डेढ़ गुणहानि लम्बा और सातवीं वर्गणा प्रमाण चौड़ा (९६४४८८) क्षेत्र शेष रहता है। अलग किये हुए क्षेत्र (९४६४४४) में सातवीं वर्गणाएं कुछ अधिक चार प्राप्त होती हैं (९x ६४४४ = ४८८४४+८८४४)। पाँचवां अङ्क पूरा नहीं होता, क्योंकि तीस वर्गणाविशेष कम गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंकी कमी है (५४४८८ - ९४६४४४ =३४४४=६४४४-३०४४), इसलिए सब द्रव्यको सातवीं वर्गणाके प्रमाणसे करने पर वह चार अधिक डेढ़ गुणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है यह कहा है।
६.१. अब आठवीं वर्गणाके प्रमाणसे समस्त द्रव्यका अपहरण करने पर वह कुछ विशेष पाँच अधिक डेढ़ गुणहानि स्थानान्तर कालके द्वारा अपहृत होता है। प्रथम वर्गणाप्रमाण विस्तारवाले और डेढ़ गुणहानिप्रमाण आयामवाले क्षेत्रमेंसे आठवीं वर्गणाप्रमाण विस्तारवाले
और डेढ़ गुणहानिप्रमाण आयामवाले क्षेत्रको अलग करने पर, शेष रही सात फालियोंमें आठवीं वर्गणा कुछ अधिक पाँच उत्पन्न होती हैं। आठवीं वर्गणा छह उत्पन्न नहीं होती, क्योंकि बियालीस वर्गणाविशेष कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंका अभाव है।
विशेषार्थ-आठवीं वर्गणा (४८४ = १२१४४) से समस्त द्रव्य ४९१५२ को अपहृत करने पर कुछ विशेष पाँच अधिक डेढ़ गुणहानि (९६-१-५ = १०१ से कुछ अधिक ) काल प्राप्त होता है ४९१५२ = १०१.६७ । डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे और आठवीं वर्गणाप्रमाण चौड़े क्षेत्रमेंसे डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे और आठवीं वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़े क्षेत्रको अलग करने पर शेष रहे सात वर्गणाविशेषप्रमाण चौड़े और डेढ़ गुणहानिप्रमाण लम्बे क्षेत्र (९६४७४४) में आठवीं वर्गणा कुछ अधिक पाँच उत्पन्न होती हैं (९६४७४४ =५४४८४+६७४४)। छठा अङ्क पूरा नहीं होता, क्योंकि बियालीस वर्गणाविशेष कम डेढ़ गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषोंकी कमी है (६४४८४ - ९६४७४४=५४४४ = ९६४४-४२४४), अतः सब द्रव्यको आठवीं
४६
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती४ $ ६०२. णवमवग्गणपमाणेण सव्वदव्वे अवहिरिज्जमाणे केवचिरेण काले अवहिरिज्जदि ९ सादिरेयरूवाहियदिवडूगुणहाणिहाणंतरेण कालेन वहिरिज्जदि । कारणं चिंतिय वत्तव्वं ।
९ ६०३. संपति का वग्गणा दोगुणहाणिपमाणेण अवहिरिज्जदि ? पढमगुणहाणीए अद्धं गंतून जा हिंदा सा अवहिरिज्जदि । पढमवग्गणविक्खंभं चत्तारि फालीओ काऊण तत्थेगफालिं घेतूण गुणहाणिअद्धपमाणेण आयामेण खंडिय तीसु चदुब्भागखंडेसु समयाविरोहेण ढोइदे चदुब्भागूणपढमवग्गणविक्खंभवेगुणहाणि आयद खेत्तप्पत्तिदंसणादो। एतो उवरिमखेत्तविण्णासो तेरासियकमो च जाणिय वत्तव्वो जाव जहएणडारण चरिमवग्गणे त्ति, विसेसाभावादो ।
३६२
एवमवहारो गदो |
वर्गणा प्रमाणसे करने पर वह पाँच अधिक डेढ़ गुरणहानिसे कुछ अधिक कालके द्वारा अपहृत होता है यह कहा है ।
$ ६०२. नौवीं वर्गरणा के प्रमाण से समस्त द्रव्य अपहृत होने पर वह कितने कालके द्वारा अपहृत होता है ? कुछ विशेष छह रूप अधिक डेड़ गुणहानिप्रमारण कालके द्वारा अपहृत होता है । कारण जान कर कहना चाहिए ।
विशेषार्थ - नौवीं वर्गणा ( ४८० = १२०x४ ) से समस्त द्रव्य ४९१५२ को अपहृत करने छह रूप अधिक डेढ़ गुणहानि ( ९६ + ६ = १०२ ) से कुछ अधिक काल प्राप्त होता है = १०२- I सातवाँ अङ्क पूरा नहीं होता, क्योंकि चौबीस वर्गणाविशेष कम डेढ़
४९१५२ ४८०
४८
१२०
गुणहानिप्रमाण वर्गणाविशेषों की कमी है ( ७x४८० : ९६x८ × ४ = ७२x४ = ९६x४ - २४ × ४) । इसीप्रकार दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं आदि वर्गणाओं का अपहार काल लाना चाहिये ।
$ ६०३. अब कौनसी वर्गणा दो गुणहानिप्रमाण काल से सब द्रव्य के अपहृत होने पर आती हैं ? प्रथम गुणहानिका अर्ध भाग स्थान जाकर जो वर्गणा स्थित है वह सब द्रव्यके अपहृत होनेपर आती है । प्रथम वर्गणाप्रमाण विस्तारकी चार फालियां करके, उनमें से एक फाली ग्रहण कर गुणहानिके अर्धभागप्रमाण आयाम से उसके खण्ड कर, उस चतुर्थ भागके तीन खण्डों को नियमानुसार मिला देनेपर चौथा भाग कम प्रथम वर्गणाप्रमाण विस्तारवाला और दो हानियामवाला क्षेत्र उत्पन्न होता हुआ देखा जाता है। इससे आगेका क्षेत्रविन्यास और त्रैराशिक क्रम जघन्य स्थानकी अन्तिम वर्गणा के प्राप्त होने तक जानकर कहना चाहिये, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है ।
विशेषार्थ - गुणहानि (६४) का आधा (३२) स्थान जाकर जो वर्गणा ( ३८४ ) प्राप्त होती है। उससे समस्त द्रव्य ( ४६१५२ ) को अपहृत करने पर दो गुणहानि (६४x२= १२८) ४९१५२ काल प्राप्त होता है. = १२८ | प्रथम वर्गणाप्रमाण ( ५१२) चौड़े और डेढ़ गुणहानि ३८४
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३६३ ६६०४. भागाभागं जहणियाए वग्गणाए कम्मपदेसा सव्ववगणकम्मपदेसाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो । एवं णेदव्वं जाव चरिमवग्गणे त्ति ।
भागाभागं गदं। ६६०५. अप्पाबहुअं-सव्वत्थोवा उक्कस्सियाए वग्गणाए कम्मपदेसा है। जहण्णाए वग्गणाए कम्मपदेसा अणंतगुणा ५१२ । को गुणगारो ? किंचूणण्णोण्ण
-----प्रथम वर्गणा--
->
प्रमाण ( ९६) लम्बे क्षेत्र घ क ख ग में से क प फ ख प्रथम वर्गणाप्रमाण विस्तारका एक चौथा भाग -
प्र.व.च.भा. प्रमाण क च चौड़ा और डेढ़ गुणहानि लम्बा क्षेत्र च क ख छ के लम्बाईकी अपेक्षा अर्ध गुणहानि - प्रमाण (३२) लम्बे तीन खण्ड क प ट च, प फ . ठट, फ ख छ ठ को रेखा छ ग की दाई ओर इस प्रकार स्थापित करो कि रेखा च ट जो अर्ध गुणहानि (३२) लम्बी है वह रेखा घ ग की सीध में दाई तरफ बढ़कर ग ह का रूप धारण कर ले और रेखा क च । जो प्रथम वर्गणाका चौथा भाग है वह रेखा ग ख पर पड़कर 'त' स्थान तक पहुँच जाय । रेखा टप रेखाव का और रेखा क प रेखा तव का रूप धारण कर लेती है। इस प्रकार क्षेत्र च क प ट की
घ-डेढ़ गुणहानि→ ग अर्ध ह
गुण बजाय क्षेत्र ग ह व त बन जाता है। इसी प्रकार क्षेत्र ट प फ ठ की रेखा ट ठ को अर्ध गुणहानिप्रमाण (३२) लम्बी रेखा त व पर रखकर रेखा ट प को रेखा त ख पर रखनेसे प्रथम वर्गणाके एक चौथाई भाग स्थान थ तक जाती है। अब क्षेत्र ट प फ ठ की बजाय क्षेत्र त थ ल व बन जाता है। इसी प्रकार रेखा ठ छ को रेखा थल पर रखनेसे और रेखा ठ फ को रेखा थ ख पर विन्दु थ से छ तक पहुँचा देनेसे क्षेत्र ठ फ ख छ की बजाय क्षेत्र थ छ र ल बन जाता है। इससे रेखा घ ग जो डेढ़ गुणहानि प्रमाण लम्बी थी, उसमें अर्ध गुणहानि लम्बी रेखा ग ह के मिल जानेसे रेखा घ ह दो गणहानि प्रमाण लम्बी हो जाती है और प्रथम वर्गणाप्रमाण रेखा घ क में से एक चौथाई प्रथम वर्गणा प्रमाण रेखा क च कम हो जानेसे रेखा घ च तीन चौथाई प्रथम वर्गणाप्रमाण रह जाती है। इस प्रकार नवीन क्षेत्र घ च र ह दो गुणहानिप्रमाण लम्बा और चौथा भाग कम प्रथम वर्गणा प्रमाण चौड़ा बन जाता है जिसका क्षेत्रफल क्षेत्र घ क ख ग के बरावर है। प्रथम वर्गणाकी तीन चौथाई भागप्रमाण यही वह वर्गणा है जो समस्त द्रव्यको दोगुणहानिसे अपहृत करने पर आती है।
इस प्रकार अपहारकाल समाप्त हुआ। ६०४. भागाभाग-जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश सब वर्गणाओंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार चरम वर्गणा पर्यन्त जानना चाहिए ।
इस प्रकार भागाभाग समाप्त हुआ। ९ ६०५. अब अल्पबहुत्व कहते हैं-उत्कृष्ट वर्गणामें कमप्रदेश सबसे थोड़े हैं ९। जघन्य वर्गणामें कर्मप्रदेश अनन्तगुणे हैं ५१२ । गुणकारका प्रमाण क्या है ? कुछ कम
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ی بی رحیمیج
بے بی بی سی سی نے بی بی ج
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ भत्थरासी अभवसिदिएहि अणंतगुणो सिद्धाणंतिमभागो। अजहण्णअणुक्कस्सियासु वग्गणासु कम्मपदेसा अणंतगुणा ५७७६ । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणंतिमभागो किंचूणदिवडगुणहाणिमेतो वा । अजहणियासु वग्गणासु कम्मपदेसा विसेसाहिया ५७८८ । केत्तियमेतेण ? उक्कस्सवग्गणकम्मपदेसमेत्तेण । अणुक्कस्सियासु वग्गणासु कम्मपदेसा विसेसाहिया ६२६१ । के. मेत्तेण ? उक्कस्सवग्गणकम्मपदेसूणजहण्णवग्गणकम्मपदेसमेत्तेण । सव्वासु वग्गणासु कम्मपदेसा विसेसाहिया ६३०० । के० मेत्तेण ? उक्कस्सवग्गणकम्मपदेसमेत्तेण ।
एवमेसा परूवणा जहण्णाणुभागस्स कदा । ६०६. जदि एदस्स हाणस्स चरिमफद्दयचरिमवग्गणाए एगो वग्गो चेव जहण्णाणुभागहाणं होदि तो तं मोत्तण अवसेसवग्ग-वग्गणा-फद्दयपदेसाणं परूवणा असंबद्धिया, जहण्णहाणपरूवणाए अजहण्णहाणपरूवणाणुववत्तीदो त्ति ? ण, एवं अन्योन्याभ्यस्तराशि गुणकारका प्रमाण है जो अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है । अजघन्य अनुत्कृष्ट वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश अनन्तगुणे हैं ५७७९ । गुणकार कितना है ? अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण कुछ कम डेढ़ गुणहानि मात्र गुणकारका प्रमाण है। अजघन्य वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश विशेष अधिक है ५७२८ । कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट वर्गणाके जितने कर्मप्रदेश हैं उतने अधिक हैं। अनुत्कृष्ट वर्गणाओं में कर्मप्रदेश विशेष अधिक हैं ६२९१ । कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट वर्गणाके कर्मप्रदेशोंसे हीन जघन्य वर्गणाके कर्मप्रदेशप्रमाण अधिक हैं । सब वर्गणाओंमें कर्मप्रदेश विशेष अधिक हैं ६३०० । कितने अधिक हैं ? उत्कृष्ट वर्गणाके कर्मप्रदेशोंका जितना प्रमाण है उतने अधिक हैं।
विशेषार्थ-पहले विशेषार्थमें सब वर्गणाओंके कर्मपरमाणुओंका प्रमाण अङ्कसंदृष्टिसे ६३०० बतला आये हैं तथा प्रत्येक वर्गणामें उनका बटवारा करके प्रत्येक वर्गणाके कर्मपरमाणुओंका प्रमाण भी बतला आये हैं । उस बटवारेके अनुसार सबसे प्रथम वर्गणामें, जो कि जघन्य वर्गणा है, ५१२ कर्मपरमाणु हैं और सबसे अन्तिम वर्गणामें, जो कि उत्कृष्ट वर्गणा है, ९कर्मपरमाणु हैं अत: जघन्य और उत्कृष्टके सिवाय शेष वर्गणाओंमें कितने परमाणु हैं ? इस प्रश्नका सरल उत्तर यह है कि जघन्य वर्गणा और उत्कृष्ट वर्गणाके परमाणुओंको सब वर्गणाओंके परमाणुओंमेंसे घटा देना चाहिए। यथा--५१२+९=५२१ । ६३००-५२१-५७७९ इतने शेष वर्गणाओंके कर्मपरमाणुओंका प्रमाण आता है । इसी तरह सब वर्गणाओंके परमाणुओंमेंसे जघन्य वर्गण के परमाणुओंको कम करनेसे ६३००-५१२ = ५७८८ अजघन्य वर्गणाओंके परमाणुओंका प्रमाण आता है। तथा सब वर्गणाओंके परमाणुओंमेंसे उत्कृष्ट वर्गणाके परमाणुओंको घटा देनेसे ६३००-९ = ६२९१ अनु कृष्ट वर्गणाओंके कर्मपरमाणुओंका प्रमाण आता है । इस प्रकार उत्कृष्ट, जघन्य, अजघन्य-अनुत्कृष्ट, अजघन्य और अनुत्कृष्ट वर्गणाओंके कर्मपरमाणुओंकी संख्या जान लेने पर उनमें अल्पबहुत्व लगा लेना चाहिए ।
इस प्रकार जघन्य अनुभागकी यह प्ररूपणा हुई। ६६०६. शंका-यदि इस अनुभागस्थानके अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाका एक वर्ग ही जघन्य अनुभागस्थान है तो उसके सिवा शेष वर्गों, वर्गणाओं और स्पर्धकोंके प्रदेशोंका कथन करना असंगत है, क्योंकि जघन्य स्थानकी प्ररूपणामें अजघन्य स्थानकी प्ररूपणा नहीं बन सकती।
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गा० २२ ]
अणुभागवित्ताए द्वाणपरूवणा
जहणद्वाणं केवलं ण होदि, किंतु एवंविहवग्ग वग्गणा-फद्दयपदेसाविणाभावित्ति जाणावणः कयपरूवणाए जहण्णद्वाणपरूवणत्तं पडि विरोहाभावादो । संपहि एदं जहणणं सव्वजीवरासिमेत्तरूवेहि खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण जहण्णद्वाणं पडिरासिय तत्थ एदम्मि पक्खेवे पक्खित्ते विदियमणुभागहाणं होदि । णेदं घडदे, एवंविहस्स अणुभागहाणस्स बंधादो घादादो वा उपपत्तीए अणुववत्तीदो। ण ताव बंधादो उपज्जदि, सरिसधणियअनंतपरमाणुहि हेहिमाणंतवग्गणा-फद्दयपदेसा विणाभावीहि विणा एकस्सेव परमाणुस्स बंधागमणविरोहादो । ण च कम्ममि परमाणू अत्थि, अनंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण तत्थ एगेगवग्गणसमुप्पत्तीदो। णच एकिस्से वग्गणाएव धोत्थि, अरांतात वग्गणाहि विणा एगसमयपबद्धाणुववत्तीदो। ण च बज्झमाणकम्मक्रवंधम्मि अप्पिदेगपरमाणु मोत्तूण अवसेसकम्मपदेसा पुव्विल्लअणुभागहाणम्मि सरिसधणिया होदूण अच्छंति, अनंतापुव्यवग्ग--वग्गणा - फद्दएहि विणा अणुभागवीए अणुववत्तदो । ण च घादेण वि उप्पज्जदि, अनंतवग्ग वग्गणा-फद्दयाणं घादे कदे तत्थ एगपरमाणुस्स हेडिम एगवग्गाणुभागादो सव्वजीवरासि पडिभागाविभागपडिच्छेदेहिं अन्भहियस्स अवद्वाणुववत्तीदो । तम्हा एसा अणुभागवड्डी ण जुज्जदे ? एत्थ परिहारो
समाधान- नहीं, क्योंकि यह जघन्य अनुभागस्थान अकेला नहीं होता है, किन्तु इस प्रकारके वर्ग, वर्गरणा, स्पर्धक और प्रदेशों का अविनाभावी होता है यह बतलाने के लिये पूर्व में की गई प्ररूपणा में जघन्य अनुभागस्थान के कथन के प्रति कोई विरोध नहीं है ।
३६५
अब इस जघन्य स्थानके सब जीवराशिप्रमाण खण्ड करो और उनमें से एक खण्ड लेकर जघन्य स्थानको प्रतिराशि बनाकर उसमें इस प्रक्षेपके प्रक्षिप्त कर देनेपर दूसरा अनुभागस्थान होता है।
शंका- यह दूसरा अनुभागस्थान घटित नहीं होता है, क्योंकि इस प्रकारका अनुभागस्थान न तो बंधसे ही उत्पन्न होता है और न घातसे ही उत्पन्न होता है । बंधसे तो उत्पन्न होता ही नहीं, क्योंकि नीचेकी अनन्त वर्गरणा, स्पर्धक और प्रदेशोंके अविनाभावी समान धनवाले अनन्त परमाणुओं के विना अकेले एक ही परमाणुका बंधके लिए आगमन माननेमें विरोध आता है। तथा कर्ममें एक परमाणु है भी नहीं, क्योंकि वहां अनन्तानन्त परमाणुओं के समुदा समागमसे एक एक वर्गणाकी उत्पत्ति होती है । शायद कहा जाय कि एक वर्गगाका ही बन्ध होता है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तानन्त वर्गणाओं के बिना एक समय प्रबद्ध नहीं बनता । शायद कहा जाय कि बंधनेवाले कर्मस्कन्ध में विवक्षित एक परमाणुको छोड़कर शेष सब कर्मप्रदेश पहले के अनुभागस्थाममें समान धनवाले होकर रहते हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्त अपूर्व वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकों के विना अनुभागकी वृद्धि नहीं हो सकती, अतः इस प्रकार के अनुभागस्थानकी बंधसे तो उत्पत्ति हो नहीं सकती और न घातसे ही उत्पत्ति होती है, क्योंकि अनन्त वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकों का घात करने पर वहां अधस्तन एक वर्ग अनुभाग सर्व जीवराशिको प्रतिभाग बनाकर अविभागप्रतिच्छेदोंसे अधिक एक परमाणुका अवस्थान पाया जाता है, अतः यह अनुभाग वृद्धि ठीक नहीं है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ वुच्चदे-बंधेण ताव एदस्स हाणस्स उप्पत्ती व होदि त्ति जं भणिदं तएण घडदे, जहण्णहाणादो अणंतवग्ग-वग्गणा-फदएहि अब्भहियसमयपबद्धम्मि अण्णाणुभागहाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। ण च एगो वग्गो वग्गणा फद्दयं वा एगसमयपबद्धो होदि, अरणब्भुवगमादो । ण च एगो परमाणू गहणमागच्छदि, अणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा कम्मइयजहएणवग्गणाए वि अणुप्पत्तीदो। कथं पुण तस्स समयपबद्धस्स फद्दयरचणा कीरदे, एगसमयपबद्धम्मि जदि वि परमाणू पत्थि तो वि बुद्धीए पुध कादूण परमाणु ति संकप्पिय एगहपुजं करिय णिसेगविण्णासक्कमो वुच्चदे- ६०७. तं जहा–हेहिमहाणवग्गाणुभागेहि सरिसधणियवग्गे सव्वे घेत्तूण तेसिं सव्वेसि पि हेटा चेव रयणा कायव्वा, हेहिमाणदो उवरिमरयणाए अप्पाप्रोग्गत्तादो। पुणो उव्वरिदपरमाणूणमुवरि फद्दयरयणाए कदाए विदियहाणमुप्पज्जदि । पुव्विल्लं हाणं पेक्खिदूण सव्वजीवरासिणा खंडिदेगखंडमेत्ताविभागपडिच्छेदाणमेत्थ अभिहियाणमुवलंभादो । तं जहा-दव्वहियणयजहएणहाणं चरिमफद्दय चरिमवग्गणेगवग्गसण्णिदं सव्वजीवरासिणा खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण विरलिय जहएणपक्खेवफदयसलागाणं समखंड करिय दिण्णे एक्केकस रूवस्स पक्खेवजहएण फद्दयपमाणं
समाधान-इस शङ्काका समाधान करते है-बंधसे इस अनुभागस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती यह कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जघन्य अनुभागस्थानकी अपेक्षा समयप्रबद्ध में अनन्त वर्ग, वर्गणा और स्पर्धकोंसे अधिक अन्य अनुभागस्थानकी उत्पत्ति होनेमें कोई विरोध नहीं है। तथा,एक वर्ग, वर्गणा अथवा स्पर्धक एक समयप्रबद्ध होता है ऐसा भी नहीं है, क्योंकि हमने ऐसा माना नहीं है। और न यही मानते हैं कि एक परमाणुका ग्रहण होता है, क्योंकि अनन्त परमाणुओंके समुदाय समागमके बिना कोंकी एक जघन्य वर्गणा भी नहीं उत्पन्न होती। ऐसी अवस्थामें यह प्रश्न हो सकता है कि उस समयप्रबद्धमें स्पर्धक रचना किस प्रकार की जाती है इसका उत्तर यह है कि यद्यपि एक समयप्रवद्ध में एक परमाणु नहीं है अर्थात् वह स्कन्धरूप होता है तो भी बुद्धि के द्वारा उसे पृथक् करके उसमें परमाणुकी कल्पना करके उनका पुंज करके निषेक रचना क्रमका कथन करते हैं
६०७. वह इस प्रकार है-नीचेके अनुभागस्थानके वर्गमें जितना अनुभाग है उस अनुभागके समान अनुभागवाले सब वर्गों को लेकर उन सबकी नीचे ही रचना करनी चाहिये, क्योंकि नीचेके स्थानसे ऊपरकी रचना करने के अयोग्य है। पुनः शेष बचे हुए परमाणुओंकी उसके ऊपर स्पर्धक रचना करने पर दूसरा स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि पहलेके अनुभागस्थानकी अपेक्षा इस अनुभागस्थानमें पहलेके अनुभागस्थानके सर्व जीवराशि प्रमाण खण्डोंमेंसे एक खण्ड प्रमाण अविभागप्रतिच्छेद अधिक पाये जाते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार हैद्रव्याथिकनयकी अपेक्षा जघन्य स्थानरूप अन्तिम स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गके सर्व जीवराशि प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको लेकर विरलन करे और उस विरलनराशिके प्रत्येक एक पर जघन्य प्रक्षेपरूप स्पर्धकोंकी शालाकाओं के समान खण्ड करके देनेपर प्रत्येक एकके प्रति जघन्य प्रक्षेपस्पर्धकका प्रमाण आता है।
१. ता० प्रा० प्रत्योः परमाणदो त्ति इति पाठः ।
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गा० २२ अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
३६७ पावदि । कथमेदस्स पक्खेवजहण्णफद्दयववएसो ? पडिरासीकयजहण्णहाणे एदम्मि पक्खेित्ते पक्खेवजहण्णफद्दयं समुप्पजदि त्ति कारणे कजुवयारादो। एसो एगखंडाणुभागो पक्खेवजहण्णफद्दयचरिमवग्गणेगवग्गसमुप्पत्तिणिमित्तो कथं पक्खेवजहण्णफद्दयसमुप्पत्तीए कारणं ? ण, एदम्हादो हेहिमअविभागपडिच्छेदेहि जहण्णफद्दयसमुप्पत्तीए अदंसणादो । दंसणे वा जहण्णफदयभंतरे अणंताणि जहण्णफद्दयाणि होज्ज ? ण च एवं, अव्ववत्थावत्तीदो। ण च सरिसधणियाणुभागा जहण्णफद्दयस्स उप्पायया, एगोलीअणुभागसमाणतणेण तत्थ पविहाणं पुधकज्जकारित्तविरोहादो । ण च एगोलीअणुभागा हेहिमा तदुप्पायया, तदणुभागाविभागपडिच्छेदसंखाए एत्थेव पयदाणुभागे उवलंभादो। ण च पयदाणुभागादो अहिओ अणुभागो अत्थि जेण तस्स फद्दयसण्णा होज । तदो सगंतोक्वितसयलवग्ग-वग्गणाणुभागतादो एदं चेव जहण्णफद्दयं । एत्थ वडिदाणुभागो' चेव जहण्हफद्दयस्सुप्पत्तिणिमित्तमिदि घेत्तव्वं । एदम्मि पक्खेवजहण्णफदए जहण्णपक्खेवफद्दयसलागविरलणाए विदियरूवोवरि हिदजहण्णफद्दयं घेत्तूण पक्वित्ते पक्खेवस्स विदियफद्दयमुप्पज्जदि । एदम्मि पडिरासीकयम्मितदियख्वधरिदे पक्खित्ते पक्खेवस्स
शंका-इसकी प्रक्षेप जघन्य स्पर्धक संज्ञा क्यों है ?
समाधान-प्रतिराशिरूप जघन्य अनुभागस्थानमें इसे प्रक्षिप्त करने पर प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी उत्पत्ति होती है, इसलिये कारणमें कार्यका उपचार करके इसकी प्रक्षेप जघन्य स्पर्धक संज्ञा रखी है.।
शंका-यह एक खण्डरूप अनुभाग प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी अन्तिम वर्गणाके एक वर्गकी उत्पत्तिमें कारण है, अत: यह प्रक्षेप जघन्य स्पर्धककी उत्पत्तिमें निमित्त कैसे हो सकता है ? :
समाधान-नहीं, क्योंकि इससे अधस्तन अविभागप्रतिच्छेदोंके द्वारा जघन्य स्पर्धककी उत्पत्ति नहीं देखी जाती। यदि देखी जाय तो जघन्य स्पर्धकके भीतर भी अनन्त जघन्य स्पर्धक हो जाँय । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि ऐसा होनेपर अव्यवस्थाकी आपत्ति आती है। शायद कहा जाय कि सदृश धनवाले अनुभाग जघन्य स्पर्धकको उत्पन्न करते हैं, किन्तु ऐसा कहना ठीक. नहीं है, क्योंकि एक पंक्तिमें अनुभागोंके समान होनेसे उसमें प्रविष्ट हुए वे पृथक् पृथक कार्य नहीं कर सकते हैं। शायद कहा जाय कि एक पंक्तिमें रहनेवाले नीचेके अनुभाग उसके उत्पादक हैं, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि उन अनुभागों के अविभागप्रतिच्छेदोंकी संख्या यहाँ प्रकृत अनुभागमें पाई जाती है। और प्रकृत अनुभागसे अधिक अनुभाग है नहीं, जिससे उसकी स्पर्धक संज्ञा हो जाय। अत: अपने भीतर समस्त वर्ग और वगणाओं के अनुभागको निक्षिप्त कर लेनेके कारण यही जघन्य स्पर्धक है और यहां पर बढ़ा हुआ अनुभाग ही जघन्य स्पर्धककी उत्पत्तिमें निमित्त है ऐसा स्वीकार करना साहिये। इस प्रक्षेप जघन्य स्पर्धकमें जघन्य प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाअोंके विरलन के दूसरे अंकके ऊपर स्थित जघन्य स्पर्धकको लेकर मिला देने पर प्रक्षेपका दूसरा स्पर्धक उत्पन्न होता है। प्रतिराशिरूप इसमें विरलनके तीसरे अंकके
१. प्रा० प्रतौ जहएणफइयमेत्तवडिदाणुभागो इति पाठः । २. ता. प्रतौ विदिय [ स ] रूवोवरि, श्रा० प्रतौ विदियसरूवोवरि इति पाठः ।
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३६८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ तदियं फद्दयमुप्पज्जदि । एवमेदेण कमेण विरलणमेत्तखंडेसु पवितु सु विदियमणुभागहाणमुप्पज्जदि, जहण्णहाणे सव्वजीवेहि खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ताणुभागस्स तत्तो एत्थ अब्भहियस्स उवलंभादो ।
६०८. एकम्मि कम्मपरमाणुम्मि हिदाविभागपडिच्छेदाणमणुभागहाण-वग्ग
ऊपर स्थित जघन्य स्पर्धकको मिला देनेपर प्रक्षेपका तीसरा स्पर्धक उत्पन्न होता है। इस प्रकार इस क्रमसे विरलन प्रमाण खण्डोंके प्रविष्ट होनेपर दूसरा अनुभागस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि जघन्य स्थान के सब जीवराशि प्रमाण खण्ड करने पर उनमेंसे एक खण्ड प्रमाण अनुभाग इस दूसरे अनुभागस्थानमें अधिक पाया जाता है ।
विशेषार्थ अब अनुभागस्थानकी स्पर्धक रचनाको बतलाते हैं। पहले बतला आये हैं कि जघन्य स्थानके ऊपर छह प्रकारकी वृद्धियां होती हैं और यह भी बतला आये हैं कि सूच्यंगुलके असंख्यातवें भाग बार पहली वृद्धिके हो जाने पर आगेकी वृद्धि होती है तथा संदृष्टिके द्वारा उसे समझा भी आये हैं। और यह भी बतला आये हैं कि सबसे प्रथम अनन्तभागवृद्धिमें अनन्तका प्रमाण उतना ही लेना चाहिए जितना जीवराशिका प्रमाण है। अत: जघन्य स्थानमें जीवराशिका भाग देकर जो लब्ध आए उसे उसी जघन्य स्थानमें जोड़ देनेसे अनन्तभागवृद्धि युक्त दूसरा अनुभागस्थान होता है। किन्तु एक एक अनुभागस्थानमें अनेक स्पर्धक होते हैं यह पहले बतला चके हैं और वहां पर स्पर्धक रचनाको बतलाना प्रधान लक्ष्य है, अत: उसके बतलानेके लिए हमें इसे फैलाना होगा। जघन्य अनुभागस्थानमें अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण स्पर्धक होते हैं, अत: उसकी स्पर्धक शलाकाका प्रमाण अभव्य राशिसे अनन्तगुणा
और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण होता है। इस प्रमाणसे जघन्य अनुभागस्थान में भाग देने पर एक स्पर्धकका प्रमाण आता है। जघन्य स्थानसे दूसरे अनुभागस्थानमें ये स्पर्धक अधिक होते हैं। इन बढ़े हुए स्वर्धकोंको वृद्धि स्पर्धक या प्रक्षेप स्पर्धक कहते हैं। इन स्पर्धकोंका जितना प्रमाण है उसका विरलन करो और जघन्य स्थानसे दूसरे अनुभागस्थानमें जितना अनुभाग अधिक है-अर्थात् जघन्य स्थानमें जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध पाया उतना-उस अनुभागके समान भाग करके प्रत्येक प्रक्षेप स्पर्धक पर एक एक भाग दे दो। यह एक एक भाग प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण होता है, अर्थात् इन भागोंको जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकके ऊपर जोड़नेसे प्रक्षेप स्पर्धक या वृद्धि स्पर्धकका प्रमाण आता है। जैसे-जघन्य स्थानका प्रमाण ६५५३६ है और जीवराशिका प्रमाण ४ है। ४ से ६५५३६ में भाग देनेसे लब्ध १६३८४ आता है । इस १६३८४ को ६५५३६ में जोड़नेसे ८१९२० दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण होता है, किन्तु यह १६३८४ प्रमाण अनेक स्पर्धकोंमें विभाजित है और उन स्पर्धकोंका प्रमाण चार है अत: चारका विरलन करके ११११ इनके ऊपर १६९८४ के चार समान भाग करके प्रत्येकके ऊपर देनेसे ४०९६,४०६६ प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण होता है,इस प्रक्षेप स्पर्धकके प्रमाण ४०९६को जघन्य स्थान ६५५३६ में जोड़ देनेसे ६९६३२ जघन्य प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण आता है। इस प्रक्षेप जघन्य स्पर्धकके ऊपर दूसरे विरलन रूपपर अर्थात् एक पर स्थित ४०९६ को जोड़ देनेसे दूसरे प्रक्षेप स्पर्धकका प्रमाण आता है। इसी प्रकार विरलन प्रमाण जितने खण्ड हैं एक एक करके उन सबको जोड़ देनेपर ८१९२० दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण होता है। इस दूसरे अनुभागस्थानमें सबसे जघन्य अनुभागस्थान में जीवराशिका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आता है उतना अनुभाग अधिक पाया जाता है।
६०८. शंका-एक कर्म परमाणुमें स्थित अविभागप्रतिच्छेदोंका अनुभागस्थान, वर्ग,
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गा० २२. ]
अणुभागविहत्तीए द्वापरूवणा
वग्गणा-फद्दयववएसा चत्तारि वि कथं संगच्छते ? ण, एक्कम्मि जीवपयत्थे इंद-पुरंदरादिसाणमुवलंभादो । अप्पिदजीवम्मि द्विदपरमाणुपोग्गला विभागपडिच्छेदेहिंतो अहियत्तविवक्खाए एदेसिमेगपरमाणुधरिदा विभागपडिच्छेदाणमणुभागहाणसण्णा । सेसपरमाणुअविभागपडिच्छेदेहिंतो सरिसासरिसत्तविवक्खाहि विणा तम्हि चैव विवक्खिदे तस्सेव वग्गववसो । सरिसधणियविवक्खाए वग्गणववएसो । सव्वजीवेहि अनंतगुणमंतरिय अविभागपडिच्छेदुत्तरकमेण गंतूण पुणो सव्वजीवेहि अनंतगुणाविभागपडिच्छेदुल्लंघणपाओग्गत्तविवक्खाए तस्सेव फद्दयसण्णा त्ति । ण तत्थ चदुण्हं णामाणं पउत्ती विरुदे | जदि एक्कम्मि कम्मपरमाणुम्मि विद विभागपरिच्छेदाणं द्वाणसण्णा इच्छिज्जदि तो एकहि द्वाणे अनंताणि अणुभागद्वाणाणि होंति, अणंताणं सरिसधणियपरमाणूणं तत्थुवलंभादो त्ति ? ण, सत्तरिसागरोवमकोडा कोडिडिदिचरिमणिसेगम्मि अणंताणंतकम्मडिदिप्पसंगादो । एगपरमाणुद्विदीदो सेसपरमाणुद्विदीर्णं भेदाभावादो तत्थ अण्णासं हिदी मग्गहणं चे एत्थ वि तो क्खहि तेणेव कारणेण अण्णेसि मग्गहणमिदि किण घेपदे ? जदि एवं तो जोगस्स वि द्वाणपरूवणा एवं चेव किरण कीरदे ? वर्गणा और स्पर्धक ये चारों संज्ञाएँ कैसे घटित होती हैं ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक ही जीव पदार्थमें इन्द्र और पुरन्दर आदि सज्ञाएँ पाई जाती हैं । उसी प्रकार उक्त संज्ञाएँ भी जाननी चाहिए । विवक्षित जीवमें स्थित पुद्गल परमाणुओं के अविभागप्रतिच्छेदों से अधिकपनेकी विवक्षा करनेपर एक परमाणुमें पाये जानेवाले इन विभागप्रतिच्छेदों की अनुभागस्थान संज्ञा है । शेष परमाणुओं के अविभागप्रतिच्छेदोंसे सदृशता और असदृशताकी विवक्षा न करके केवल उसी एक परमाणुकी विवक्षा करने पर उसीकी वर्ग संज्ञा है । सदृश धनवालोंकी विवक्षा करने पर उसकी वर्गणा संज्ञा है । प्रथम आदि स्पर्धककी अन्तिम वर्गणासे द्वितीयादि स्पर्धककी प्रथम वर्गणाका अन्तर विभागप्रतिच्छेदोंकी अपेक्षा सब जीवराशि अनन्तगुणा है । अतः सब जीवराशिसे अनन्तगुणे विभागप्रतिच्छेदों के उलंघन की योग्यताकी विवक्षा करनेपर उसकी स्पर्धक संज्ञा है । अतः एक परमाणुमें चारों संज्ञाओंकी प्रवृत्ति होने में कोई विरोध नहीं है ।
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शंका–यदि एक कर्मपरमाणु में स्थित अविभागप्रतिच्छेदोंकी स्थान संज्ञा मानते हो तो एक स्थानमें अनन्त अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि वहां समान अविभागप्रति च्छेदों के धारक अनन्त परमाणु पाये जाते हैं ।
समाधान- नहीं, क्योंकि ऐसा कहने पर सत्तर कोड़ीकोड़ी सागरकी स्थितिवाले अन्तिम निषेक में अनन्तानन्त कर्मस्थितियोंका प्रसंग प्राप्त होता है ।
शंका- एक परमाणुकी स्थिति से शेष परमाणुओं की स्थितिमें कोई भेद नहीं है, अत: वहां अन्य स्थितियोंका ग्रहण नहीं किया जाता ?
समाधान- तो यहां पर भी उसी कारण से अन्यका ग्रहण नहीं किया ऐसा क्यों नहीं मानते हो ।
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शंका- यदि ऐसा है तो योगस्थानका कथन भी इसी प्रकार क्यों नहीं करते ?
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३७०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ण, तत्थ वि एदेणेव कमेण जोगहाणपरूवणाए कयत्तादो। जदि एवं तो एगजीवपदेसुक्कस्सजोगाविभागपडिच्छेदाणं जोगहाणसण्णा पावदि ति णासंकणिज्ज, कम्मक्रोधादो कम्मपदेसाणं व जीवादों जीवपदेसाणमपुधभावेणं सव्व जीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदाणमेगजोगटाणतं पडि विरोहाभावादो। कम्मक्रोधादो कम्मपदेसा पुधभूदा गत्थि ति सव्वे कम्मक्खंधाविभागपडिच्छेदे घेत्तण एगमणुभागहाणमिदि किण्ण वुच्चदे ? ण, कम्मखंधादो भेदं गच्छंताणं कारणवसेण संजोगमागयाणं परमाणूणं खंधेण सह एयत्तविरोहादो।
६०६. एदस्स विदियाणुभागहाणस्स पदेसरचणा पुव्वं व कायव्वा । किंतु चिराणसंतकम्मस्स पदेसविण्णासो वट्टमाणबंधपदेसविण्णासेण सरिसो ण होदि, उवरिमपक्खेवफद्दयाणं पढमफद्दयआदिवग्गणाए हेडिमवग्गणपदेसेहितो असंखेजगुणहीणपदेसत्तादो। अथवा सव्वत्थ गोवुच्छायारेणेव पदेसा चेहति, उक्कड्डिदपदेसाणं तत्थ मुण्णहाणे बज्झमाणपदेसेहि सह समयाविरोहेण विण्णासं करिय अवसेसपदेसाणं सव्वत्थ गोवुच्छायारेण विएणासविहाणादो।
६६१०. एवं विदियहाणपरूवणं काऊण संपहि तदियहाणपरूवणा कीरदे । समाधान-नहीं, क्योंकि वहां भी इसी क्रमसे योगस्थानका कथन किया है।
शंका-यदि ऐसा है तो एक जीवके एक प्रदेशमें होनेवाले उत्कृष्ट योगके अविभागप्रतिच्छेदोंकी भी योगस्थान संज्ञा प्राप्त होती है।
समाधान-ऐसी आशङ्का नहीं करनी चाहिए, क्योंकि जैसे कर्मस्कन्धसे कर्मपरमाणु भिन्न हैं, वैसे जीवसे जीवके प्रदेश भिन्न नहीं हैं, अतः जीवके सब प्रदेशोंमें होनेवाले योगके अविभागप्रतिच्छेदोंका एक योगस्थान होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-कर्मस्कन्धसे कर्मप्रदेश भिन्न नहीं हैं, अत: कर्मस्कन्धके सब अविभागप्रतिच्छेदोंका एक अनुभागस्थान होता है ऐसा क्यों नहीं कहते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कर्मप्रदेश कर्मस्कन्धसे भिन्न हैं किन्तु निमित्तके वशसे संयोगको प्राप्त हो गये हैं, अतः उनका स्कन्धके साथ अभेद नहीं हो सकता।
६०६. इस द्वितीय अनुभागस्थानकी प्रदेश रचना भी पहलेके समान करनी चाहिए, किन्तु जिस क्रमसे वर्तमानमें बंधनेवाले प्रदेशोंकी रचना होती है पहले के सत्तामें स्थित प्रदेशोंकी रचना उस क्रमसे नहीं होती, क्योंकि ऊपरके प्रक्षेप स्पर्धकोंके प्रथम स्पर्धककी प्रथम वर्गणामें अधस्तन वर्गणाके प्रदेशोंसे असंख्यातगुणे हीन प्रदेश पाये जाते हैं। अथवा सर्वत्र गोपुच्छके आकारसे ही प्रदेश स्थित रहते हैं, क्योंकि उत्कर्षणको प्राप्त हुए प्रदेशोंकी शून्य स्थानमें बंधनेवाले प्रदेशोंके साथ यथाविधि रचना करके बाकीके प्रदेशोंकी सर्वत्र गोपुच्छरूपसे ही स्थापना होनेका विधान है।
६६१०. इस प्रकार द्वितीय अनुभागस्थानका कथन करके अब तीसरे अनुभागस्थानका 1. ता. मा. प्रत्योः जीवदेसाणं पुधभावेण इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
३७१ . तं जहा-सव्वजीवेहि विदियहाणे भागे हिदे जं लद्धं तम्मि तं चेव पडिरासिय पक्वित्ते तदियमणुभागहाणं होदि । पुबिल्लहाणंतरादो एदं' हाणंतरमणंतभागभहियं, जहण्णहाणादो अणंतभागब्भहियविदियहाणं सबजीवेहि खंडिदूण तत्थेगखंडस्स वडिदत्तादो । पुचिल्लपक्खेवफद्दयंतरादो संपहियद्वाणपक्खेवफदयंतरं अणंतभागब्भहियं, एत्थतणफद्दयसलागाहि विहज्जमाणरासिस्स पुव्विल्लविहज्जमाणरासिं पेक्खियूण अणंतभागभहियत्तादो । पुव्विल्लपक्खेवफदयसलागाहिंतो संपहियपक्खेवफद्दयसलागा सरिसा, एकाए वि फद्दयसलागाए वडिदाए फदयंतरस्स पुग्विल्लपक्खेवफद्दयंतरादो अणंतभागहीणत्तप्पसंगादो । सेसं पुव्वं व वत्तव्यं । एवं तदियहाणपख्वणा गदा।।
___६११. संपहि चउत्थट्टाणुप्पत्तिं भणिस्सामो। तं जहा-तदियहाणादो दोपक्खेवेसु एगपिसुलेसु च अवणिदे [सु] अवणिदसेसं जहण्णहाणं होदि । पुणो सव्वजीवरासिणा जहण्णहाणे सपिमुलदोपक्खेवेमु च ओवट्टिदेसु जं लद्धं तं घेत्तण तदियहाणं पडिरासिय तत्थ पक्वित्ते चउत्थटाणमुप्पज्जदि । एत्थतणहाणंतरं विदियतदियहाणंतरादो अणंतभागब्भहियं, विहज्जमाणरासिस्स पुन्विल्लविहज्जमाणरासी पेक्खिदण अणंतभागब्भहियत्तादो। पुव्विल्लपक्खेवफद्दयंतरादो एत्थतणपक्खेवफद्दयंतरं कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-दूसरे अनुभागस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर जो लब्ध आने उसे उसीको प्रतिराशि करके उसमें मिला देने पर तीसरा अनुभागस्थान होता है। पहले के अनुभाग स्थानान्तरसे यह अनुभागस्थानान्तर अनन्तवाँ भाग अधिक है, क्योंकि जघन्य अनुभागस्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक द्वितीय अनुभागस्थानके सर्व जीवराशिप्रमाण खण्ड करके उनमें से एक खण्डको इसमें वृद्धि हुई है तथा पहलेके प्रक्षेप स्पर्धककान्तरसे साम्प्रतिक स्थानका प्रक्षेपस्पर्धकान्तर अनन्तवां भाग अधिक है, क्योंकि पहले जिस राशिमें भाग दिया गया था उस राशिकी अपेक्षा यहाँकी शलाकाओंसे भाजितकी जानेवाली राशि अनन्तवां भाग अधिक है । तथा पहले के प्रक्षेप स्पर्धककी शलाकाओंसे वर्तमान प्रक्षेप स्पर्धककी शलाका समान हैं, क्योंकि यदि उससे इसमें एक भी शलाका अधिक मानी जायगी तो पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकान्तरसे वर्तमान स्पर्धकान्तरके अनन्तभाग हीन होनेका प्रसंग प्राप्त होगा। शेष बातें पहलेकी तरह कहनी चाहिए । इस प्रकार तीसरे अनुभागस्थानका कथन समाप्त हुआ।
६११. अब चौथे अनुभागस्थानकी उत्पत्तिको कहते हैं। वह इस प्रकार है-तीसरे अनुभागस्थानमेंसे दो प्रक्षेप और एक पिशुलके घटाने पर जो शेष रहता है वह जघन्य स्थान होता है । पुन: सब जीवराशिका जघन्य स्थानमें और पिशुल सहित दो प्रक्षेपोंमें भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे लेकर तीसरे अनुभागस्थानको प्रतिराशि करके उसमें जोड़ देनेपर चौथा अनुभागस्थान उत्पन्न होता है। इस अनुभागस्थानका अन्तर दूसरे और तीसरे अनुभागस्थानके अन्तरसे अनन्तवाँ भाग अधिक है, क्योंकि यहां पर जिस राशिमें भाग दिया गया है वह राशि पहलेकी विभज्यमान राशिसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस अनुभ गस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। तथा इस स्थानकी
१. ता० प्रती एवं (दं) प्रा० प्रतौ एवं इति पाठः। २. ता० प्रतौ जहरणटाणेसु पिसुलदोपक्खेवेसु इति पाठः।
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३७२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ अणुभागविहत्ती ४ अणंतभागब्भहियं, पुचिल्लपक्खेवफद्दयसलागाओ पेक्खिदूण एत्थतणपक्खेवफद्दयसलागाओ सरिसाओ, फद्दयंतराणं विसेसाहियत्तण्णहाणुववत्तीदो। एवं णेदव्वं जाव अणंतभागवड्डिहाणं कंडयस्स चरिमाणे त्ति । एदाणि अणुभागहाणाणि बंधेण विणा उक्कड्डणाए ण उप्पजति, बंधे अणुभागसंतसमाणे तत्तो ऊणे वा संते उक्कड्डिदफद्दयाणं संतफदएहिंतो अणंतभागब्भहियाणमणुवलंभादो । बंधादो उक्कड्डणादो च अणुभागहाणे णिप्पण्णे संते बंधादो चेव णिप्पण्णमिदि किमह वुच्चदे ? ण, उक्कड्डणाए बंधायत्ताए बंधसरूवाए बंधे चेव अंतब्भावादो। प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ पहलेके प्रक्षेपस्पर्धक शलाकाओंके बराबर हैं। यदि शलाकाएँ समान न होतीं तो पहलेके प्रक्षेप स्पर्धकान्तरसे इस स्थानका प्रक्षेप स्पर्धकान्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक न होता। इस प्रकार काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके अन्तिम स्थान पर्यन्त स्थानोंकी उत्पत्तिका यह क्रम ले जाना चाहिए। ये अनुभागस्थान बंधके बिना उत्कर्षणके द्वारा नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि सत्तामें विद्यमान अनुभागके समान अथवा उससे कम बंधके होनेपर उत्कर्षित स्पधक सत्तामें विद्यमान स्पर्धकोंसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक नहीं पाये जाते हैं।
शंका-अनुभागस्थानके बन्धसे और उत्कर्षणसे निष्पन्न होने पर वह बन्धसे ही निष्पन्न हुआ है ऐसा क्यों कहा जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उत्कर्षण बंधके अधीन है और बंध स्वरूप है, अत: उसका बंधमें ही अन्तर्भाव होता है।
विशेषार्थ-पहले जिस प्रकार जघन्य स्थानकी प्रदेश रचना कही है उसी प्रकार दूसरे अनुभागस्थानकी भी प्रदेशरचना समझनी चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि सत्तामें स्थित कर्मपरमाणुओंको छोड़ कर नवीन बन्धको प्राप्त हुए परमाणुओंकी प्रदेश रचना, जिन परमाणुओं में अनुभाग बढ़ाया गया है उन परमाणुओंके साथ कहनी चाहिये । किन्तु सत्ता में स्थित कर्मपरमाणुओंकी प्रदेशरचना नहीं होती, क्योंकि बन्धकालमें जिस क्रमसे उनकी रचना होती है, उत्कर्षण और अपकर्षणके होनेसे उस क्रमसे वे अवस्थित नहीं रह पाते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि बन्धको प्राप्त हुए निवेकोंकी प्रदेशरचना तत्काल हो जाती है और वह गोपुच्छाकार रूपसे होती है, अर्थात् जैसे गायकी पूंछ क्रमसे घटती हुई होती है वैसे ही निषेकोंकी रचना भी एक एक चय घटते क्रमसे होती है। किन्तु यह रचना बराबर ऐसी ही नहीं बनी रहती, आगे जब उन निषेकोंमें अनुभाग घटता या बढ़ता है तो रचित निषेकोंके क्रममें व्यतिक्रम हो जाता है, अतः बन्धकालमें पहलेसे सत्तामें स्थित परमाणुओंकी निषेकरचनाका निषेध किया है और दोनोंमें अन्तर बतलाया है। अब इस दूसरे अनुभागस्थानके नवकबन्धकी प्रदेशरचनाको कहते हैं-समयप्रबद्धमें जघन्य अनुभागस्थानसे अधिक अनुभागवाले जितने परमाणु हों उनको पृथक् स्थापित करो और जघन्य स्थानके समान अनुभागवाले शेष सब परमाणुओंको लेकर उनकी रचना करो। रचना करने पर वे सब परमाणु जघन्य अनुभागस्थानकी जघन्य वर्गणसे लेकर उसीकी उत्कृष्ट वर्गणा पर्यन्त स्थित हो जाते हैं। उसके बाद अधिक अनुभागवाले परमाणुओंको लो, उनका प्रमाण अनन्त है उनमेंसे जघन्य प्रक्षेप स्पर्धक प्रमाण परमाणुओंको लेकर जघन्य स्थानके अन्तिम स्पर्धकके ऊपर उनकी स्थापना करो। ऐसा करनेसे प्रथम प्रक्षेप स्पर्धक उस्पन्न होता है। पुनः उनमेंसे द्वितीय स्पर्धकप्रमाण परमाणुओंको प्रथम प्रक्षेप स्पर्धकके ऊपर अन्तराल देकर स्थापित करनेसे द्वितीय स्पधक उत्पन्न होता है। इस
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
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प्रकार पुन: पुन: परमारण ओंको लेकर तब तक स्पर्धक रचना करनी चाहिये जब तक पृथक स्थापित किये गये परमाणु समाप्त हों। इस प्रकार दूसरे अनुभागस्थानकी स्पर्धक रचना जाननी चाहिये। यह अनन्तभागवृद्धियुक्त प्रथम स्थान है, अर्थात् जघन्य अनुभागस्थानको सर्व जीव राशिसे भाजित करके जो लब्ध आवे उतना अधिक है। इस दूसरे अनुभागस्थानको सर्व जीव राशिसे भाजित करके जो लब्ध आवे उसे दूसरे अनुभागस्थानमें जोड़ देनेसे तीसरा अनुभागस्थान होता है। जैसे अंकसंदृष्टिसे दूसरे अनुभागस्थानका प्रमाण ८१९२० आया था उसमें जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देकर लब्ध २०४८० को जोड़ देनेसे तीसरे अनुभागस्थानका प्रमाण १०२४०० आता है, यह अनन्तभागवृद्धि युक्त दूसरा स्थान है। पहले के स्थानके अन्तरसे इस स्थानका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। अर्थात् पहलेके स्थानका अन्तर ८१६२० - ६५५३६= १६३८४ है और इस स्थानका अन्तर १०२४०० - ८१६२० = २०४८० है । अत: पहलेके स्थानके अन्तरसे यदि अनन्तका प्रमाण ४ कल्पना किया जाय तो इस स्थानका अन्तर अनन्तवें भागप्रमाण अधिक होता है। तथा दूसरे अनुभागस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस तीसरे अनुभागस्थानके प्रक्षेप स्पर्धकका अन्तर भी अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि पहलेकी विभज्यमान राशिसे इस स्थानकी विभज्यमान राशि अनन्त भागप्रमाण अधिक है। अर्थात् दूसरे अनुभागस्थानकी विभक्त की जानेवाली राशिका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे ८१६२० है
और इस तीसरे स्थानकी विभक्त की जानेवाली राशिका प्रमाण १०२४०० है, अतः उससे इसका प्रमाण अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। तथा प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ दोनों स्थानोंकी बराबर बराबर हैं, क्योंकि सभी अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ परस्परमें समान हैं। असंख्यातभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ परस्परमें समान हैं। संख्यातभागवृद्धि युक्त स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ भी परस्परमें समान है। इसी प्रकार संख्यातगुणवृद्धि, असंख्यातगुणवृद्धि और अनन्तगुणवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ भी परस्परमें समान जाननी चाहिए। यदि स्पर्धक शलाकाओंको परस्परमें समान न माना जायगा तो अनन्तवें भागप्रमाण अधिकपना नहीं बन सकेगा। इसका खुलासा इस प्रकार है-रूपाधिक सर्व जीवराशिसे अपने अनन्तरवर्ती नीचेके अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थानमें भाग देनेपर स्थानका अन्तर आता है। उस अन्तरको स्पर्धक शलाकाओंसे भाजित करने पर स्पर्धकान्तर आता है । इसी प्रकार उस स्थानमें समस्त जीवराशिसे भाग देनेपर ऊपरके स्थानका अन्तर आता है। उस स्थानान्तरमें ऊपरकी स्पर्धक शलाकाओंसे भाग देनेपर ऊपरका स्पर्धकान्तर आता है। जैसे तीसरे स्थानके अनन्तरवर्ती नीचेके दूसरे स्थानका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे ८१६२० है। उसमें एक अधिक जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४+१=५ का भाग देनेपर १६३८४ आता है। यह नीचेका स्थानान्तर है। अर्थात् जघन्य अनुभागस्थान ६५५३६ में और दूसरे अनुभागस्थान ८१६२० में १६३८४ का अन्तर है। इस अन्तरमें कल्पित स्पर्धक शलाका ४ का भाग देनेपर ४-९६ स्पर्धकान्तर आता है। तथा उसी दूसरे स्थान ८१९२० में सर्व जीवराशि ४ का भाग देनेसे २०४८० ऊपरके स्थानान्तरका प्रमाण आता है। अर्थात् तीसरे अनुभागस्थान १०२४०० और दूसरे अनुभागस्थान ८१६२० में २०४८० का अन्तर है। इसी २०४८० में स्पर्धक शलाका ४ का भाग देनेसे ५१२० ऊपरके स्पर्धकान्तरका प्रमाण आता है। यह स्पर्धकान्तर पहलेके स्पर्धकान्तर ४०९६ से अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि ४०९६ में अनन्तके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे १०२४ लब्ध आता है। इस लब्धको ४०९६+१०२४ जोड़नेसे ५१२० स्पर्धकान्तरका प्रमाण होता है। अब पहलेकी स्पर्धक शलाकासे ऊपरके स्थानकी स्पर्धक शलाकाएँ यदि एक अधिक हों तो भी यत: पहलेके भागहारसे ऊपरके स्थानके स्पर्धकान्तरका भागहार अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६१२. पुगो अंगुलस्स असंखे०भागमेत्तकंडयपमाणेसु अणंतभागवडिटाणेसु जं चरिममणंतभागवड्डिहाणं तम्मि असंखेजलोगेहि भागे हिदे जं लद्धं तम्हि तत्थेव पक्खित्ते पढममसंखेज्जभागवडिहाणमुप्पज्जदि । एदस्स हाणंतरं हेहिमअणंतभागवडिहागंतरादो अणंतगुगं । को गुणगारो ? सबजीवाणमसंखे०भागो। तेसि को पडिभागो? असंखेज्जा लोगा। हेहिमफद्दयंतरादो एत्थतणफदयंतरमणंतगुणं । गुणगारो जाणिय वत्तव्यो । हेटिमहाणाणं पक्खेवफदयसलागेहिंतो एदस्स पक्खेवफद्दयसलागाओ असंखे०भागेण अब्भहियाओ । एदं कुदो णव्वदे ? असंखेज्जभागब्भहियहाणाणं अत: नीचे के स्पर्धकान्तरसे ऊपरका स्पर्धकान्तर अनन्तवें भागप्रमाण हीन होगा। किन्तु ऐसा नहीं है अतः सब प्रक्षेपोंकी स्पर्धक शलाकाएँ सजाति प्रक्षेपोंकी स्पर्धक शलाकाओंके समान ही होती हैं। इस तीसरे अनुभागस्थानको समस्त जीवराशिसे भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे चौथा अनुभागस्थान होता है। जैसे तीसरे अनुभागस्थानका प्रमाण अंकसंदृष्टिसे १८२४०० है । इसमें जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध २५६०० आता है। इसे उसमें जोड़ देनेसे १०२४००+२५६०० =१२८००० चौथे स्थानका प्रमाण होता है। यह चौथा अनुभागस्थान अपने पूर्ववर्ती तीसरे अनुभागस्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। उतना ही दोनों स्थानोंमें अन्तर है। इस अन्तरमें स्पर्धक शलाकाओंसे भाग देनेपर स्पर्धकान्तर होता है। यह स्पर्धकान्तर भी पहलके स्पर्धकान्तरसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि दोनों स्थानोंकी स्पर्धक शलाकाएँ समान हैं। इस चौथे अनुभागस्थानमें सर्व जीवराशिसे भाग देनेपर जो लब्ध आने उसे उसीमें जोड़ देनेसे पांचवाँ अनुभागस्थान होता है। यहां पर भी स्थानान्तर और स्पर्धकान्तरका क्रम पहलेकी तरह समझ लेना चाहिये। इस प्रकार जघन्य अनुभागस्थानके ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होते हैं। ये स्थान बंधसे उत्पन्न होते हैं, उत्कर्षणसे नहीं उत्पन्न होते, क्योंकि जब अनुभागबन्ध सत्तामें स्थित अनुभागसे कम होता है या उसके समान होता है तब उत्कर्षणको प्राप्त हुए स्पर्धकोंका अनुभाग सत्तामें स्थित स्पर्धकोंके अनुभागसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक नहीं हो सकता। यद्यपि बन्धके समय उत्कर्षण भी होता है, इसलिए अनुभागस्थानोंकी उत्पत्ति बन्ध और उत्कर्षण दोनोंसे कही जा सकती है परन्तु इन्हें बन्धस्थान ही कहा जाता है, क्योंकि उत्कर्षण बन्धके अधीन है, बन्धके बिना उत्कर्षण नहीं होता इसलिये उसका बन्धमें ही अन्तर्भाव कर लिया है।
६१२. पुन: अगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थानोंके समुदायको एक काण्डक कहते हैं। अत: अगुलके असंख्यातवें भाग काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंमें जो अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थान है उसमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उसे उसी स्थानमे जोड़ देने पर पहला असंख्यातभागवृद्धि स्थान उत्पन्न होता है। इस स्थानका अन्तर नीचेके अनन्तभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है। गुणकार क्या है ? यहां गुणकारका प्रमाण सब जीवोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है । उसका प्रतिभाग क्या है ? प्रतिभाग असंख्यात लोकप्रमाण है। तथा नीचेके स्पर्धकान्तरसे इस स्थानकास्पर्धकान्तर अनन्तगुणा है ? गुणकारका प्रमाण जानकर कहना चाहिये। नीचेके स्थानोंके प्रक्षेप स्पर्धकोंकी शलाकाओंसे इस स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं ।
१. ता प्रतौ पढम (मा) संखेज- मा. प्रतौ पढमसंखेज- इति पाठः ।
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
३७५ पक्खेवफद्दयसलागाओ हेहिमहाणपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो असंखे०भागब्भहियाओ। संखे भागवडिहाणपक्खेवस्स फद्दयसलागाओ हेडिमहाणपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो संखे०भागभहियाओ। संखेजगुणवडिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। असंखेजगुणवड्डिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ असंखेजगुणाओ' । अणंतगुणवडिहाण पक्खेवफद्दयसलागाओ अणंतगुणाओ ति सुत्ताविरुद्धवक्रवाणादो णव्वदे । जदि एवं तो हेहिमअणंतभागवडिहाणाणं कंडयमेत्ताणं पक्खेवफद्दयसलागाओ अण्णोण्णं पेक्खियूण अणंतभागब्भहियाओ किण्ण जादाओ ? ण, तत्थ पच्चवखेण बहुत्तुवलंभादो ।
__ ६१३. असंखेज्जभागवट्टिटाणं सव्वजीवरासिणा खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण पडिरासीकयअसंखेज्जभागवट्टिटाणे पक्खित्ते तदुवरिमअणंतभागवडिहाणं होदि । हेहिमअसंखेज्जभागवडिहाणंतरादो एदं द्वाणंतरमणंतगुणहीणं । तत्थतणफद्दयंतरादो वि एत्थतणफद्दयंतरमणंतगुणहीणं; तत्थतणपक्खेवफद्दयसलागाहिंतो एत्थतणपक्खेवफदयसलागाओ विसेसहीणाओ। एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्वं । पुणो असंखे०भागवडिहाणादो उवरिमअणंतभागवडिहाणं सबजीवेहि खंडिय तत्थ लद्धेगखंडे तत्थेव पक्खित्ते अण्णमणंतभागवडिहाणमुप्पज्जदि। एवं णेदव्वं जाव कंडयमेत्ताणमणंत
शंका-यह कैसे जाना ?
समाधान-असंख्यातभागवृद्धिरूप स्थानोंकी प्रक्षेपस्पर्धक शलाकाएँ नीचे के स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। संख्यातभागवृद्धिको लिये हुए स्थानों की प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ नीचे के स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे संख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं। संख्यातगुणवृद्धि स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ संख्यातगुणी हैं। असंख्यातगुणवृद्धि स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ असंख्यातगुणी हैं और अनन्तगुणवृद्धि स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ अनन्तगुणी हैं। इस सूत्रसे अविरुद्ध व्याख्यानसे जाना।
शंका-यदि ऐसा है तो नीचेके काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ परस्परमें एक दूसरेकी अपेक्षा अनन्तवें भागप्रमाण अधिक क्यों नहीं हुई ?
समाधान-नहीं, क्योंकि उनमें प्रत्यक्षसे बहुत्व पाया जाता है।
६६१३. असंख्यातभागवृद्धि स्थानको सब जीवराशिसे खण्डित करके उनमेंसे एक खण्ड लेकर उसे प्रतिराशीकृत असंख्यातभागवृद्धि स्थानमें जोड़ देनेपर असंख्यातभागवृद्धि स्थानसे भागेका अनन्तभागवृद्धि स्थान होता है। नीचेके असंख्यातभागद्ध स्थानके अन्तरसे इस स्थानका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। उस स्थानके स्पर्धकके अन्तरसे इस स्थानके स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। उस स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे इस स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ विशेष हीन हैं। यहां कारण जानकर कहना चाहिये। पुन: असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपरके अनन्तभागवृद्धिस्थानके सब जीवराशि प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड लेकर उसे उसी अनन्तभागवृद्धिस्थानमें जोड़ देनेपर दूसरा अनन्त
१. ता० प्रतौ असंखेजगुणहीणाओ इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ भागवडिहाणाणं चरिमअणंतभागवडिहाणे ति । एत्थ हाणंतर-फद्दयंतर-पक्खेवफद्दयसलागाणं संखाणं परूवणा जहा पढमअणंतभागवडिहाणकंडए कदा तहा कायव्वा, अविसेसादो।
६६१४. पुणो कंडयस्स चरिममणंतभागवडिहाणमसंखेजलोगेहि खंडिय तत्थेगखंडे तत्थेव पक्खित्ते विदियमसंखेजभागवड्डिताणमुप्पज्जदि । एत्थ पक्खेवफद्दयसलागपमाणस्स हाणंतर-फद्दयंतराणं पमाणस्स य परूवणा पुव्वं व कायव्वा । एवं णेदव्वं जाव कंडयमेत्ताणमसंखेजभागवड्डीणं चरिमअसंखेज्जभागवडिहाणं ति । तदुवरि पुव्वं व अणंतभागवडिहाणाणं कंडयं गंतूण संखेज्जभागवडिहाणं होदि । एदस्स हाणंतरमणंतभागवडिहाणंतरेहितो अणंतगुणं हेहिमअसंग्वेज्जभागवडिहाणंतरेहितो असंखेज्जगुणं। संखेजभागवडिहाणपक्खेवफद्दयसलागाओ हेडिमअणंतभागवडि-असंखे०भागवडिहाणाणं पक्खेवफद्दयसलागाहिंतो संखे०भागब्भहियाओ। जहा हाणंतराणि तहा फद्दयंतराणि वि वत्तवाणि । एवं कंडयभहियकंडयवग्गमेत्ताणि अणंतभागवडिहाणाणि कंडयमेत्तअसंखेजभागवडिडाणाणि च उवरिं गंतूण विदियं संखेज्जभागवडिहाणं होदि । एवमेदेण कमेण कंडयमेत्ताणि संखेजभागवडिहाणाणि उप्पाएदव्वाणि । ततो उवरि एगं भागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार यह क्रम काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंमें अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये। अर्थात उत्पन्न हुए अनन्तभागवृद्धिस्थानके जीवराशिप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको लेकर उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेसे आगेका स्थान उत्पन्न होता है आदि । यहाँ पर भी नीचे के स्थानसे ऊपरके स्थानका अत्तर, नीचेके स्पर्धकसे ऊपरके स्पर्धकका अन्तर और उसकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंकी संख्याका कथन जैसा प्रथम अनन्तभागवृद्धिस्थान काण्डकमें किया है वैसा ही करना चाहिये, दोनोंके कथनमें कोई अन्तर नहीं है।
६१४. पुन: काण्डकके अन्तिम अनन्तभागवृद्धि स्थानके असंख्यात लोक प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड लेकर उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेपर दूसरा असंख्यातभागवृद्धि स्थान उत्पन्न होता है। यहाँ पर भी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंके प्रमाणका तथा नीचेके स्थानसे इस स्थानके अन्तर और नीचे के स्पर्धकसे इस स्थानके स्पर्धकके अन्तरके प्रमाणका कथन पहलेकी तरह कर लेना चाहिये। इस प्रकार इस क्रमको काण्डकप्रमाण असंख्यातभाग वृद्धिस्थानोंके अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि स्थान पर्यन्त ले जाना चाहिये । अन्तिम असंख्यातभागवृद्धि स्थानके ऊपर पहलेकी तरह काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थानोंके होनेपर संख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। इस स्थानका अन्तर अनन्तभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है तथा नीचेके असंख्यातभागवृद्धि स्थानके अन्तरसे असंख्यातगुणा है । संख्यातभागवृद्धि स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ नीचेके अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धि स्थानोंकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे संख्यातवें भागप्रमाण अधिक हैं । जैसे स्थानोंके अन्तरका कथन किया है वैसे ही स्पर्धकोंका अन्तर भी कहना चाहिये। इस प्रकार एक काण्डक
और काण्डकके वर्गप्रमाण अनन्तभागवृद्धि स्थान तथा काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंके होनेपर दूसरा संख्यातभागवृद्धि स्थान होता है। इस प्रकार इस क्रमसे काण्डकप्रमाण
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३७७ संखे०भागवडिहाणविसयं गंतूण पढमसंखेजगुणवड्डी' उप्पज्जदि। एदिस्से टाणंतरं हेहिमअणंतभागवडिहाणंतरेहितो अणंतगुणं संखेजभागवडि-असंखेज्जभागवडिहाणंतरेहिंतो असंखेज्जगुणं । तेसिं तिहं पक्खेवफइयंतरादो एदस्स हाणस्स पक्खेवफद्दयंतरमणंतगुणमसंखे०गुणं च । तेसिं चेव पक्खेवफद्दयसलागाहिंतो एत्थतणपक्खेवफद्दयसलागाओ संखेज्जगुणाओ। कुदो एदं णव्वदे ? आइरियाणं सुत्ताविरुद्धवयणादो। एवं समयाविरोहेण कंडयमेत्तेसु संखेजगुणवडिहाणेसु गदेसु पुणो संखेजगुणवड्डिविसयं गंतूण असंखेजगुणवड्डी होदि । को एत्थ गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा। हेहिमाणंतभागवडिहाणे असंखेजेहि लोगेहि गुणिदे असंखेज्जगुणवडी होदि त्ति भणिदं होदि । वडिदाणुभागे हेहिमाणंतभागवडिहाणं पडिरासिय पक्खित्ते असंखेज्जगुणवड्डिहाणं होदि। भागहारा इव सव्वेसु गुणगारा वड्डीए चेव होति ति कुदो णव्वदे ? अणंतगुणवड्डी काए परिवड्डीए परिवडिदा ? सव्वजीवेहिं ति वेयणामुत्तादो । पुव्वमवद्विदअणुभागो वि वड्डी चेव तेण विणा संपहि वड्डिदअणुभागेणेव अण्णस्स हाणस्मुसंख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न करने चाहिये । इससे ऊपर एक संख्यातभागवृद्धिस्थानके अन्तभूत स्थानोंके होनेपर पहला संख्यातगुणवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इसका स्थानान्तर अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानान्तरसे अनन्तगुणा है और संख्यातभागवृद्धि तथा असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंके अन्तरसे असंख्यातगुणा है। उक्त तीनों स्थानों के प्रक्षेप स्पर्धकोंके अन्तरसे इस स्थानके प्रक्षेप स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा और असंख्यातगुणा है। उन तीनों स्थानोंकी प्रक्षेप स्पधेक शलाकाओंसे इस स्थानकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ संख्यातगुणी हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-आचार्योंके सुत्रसे अविरुद्ध वचनोंसे जाना।
इस प्रकार आगमके अविरुद्ध काण्डकप्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके बीतने पर पुनः एक संख्यातगुणवृद्धिस्थानके अन्तभूत स्थानोंको बिताकर असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है।
शंका-इस असंख्यातगुणवृद्धिस्थानमें गुणकारका प्रमाण क्या है ?
समाधान-असंख्यात लोक । आशय यह है कि इस स्थानके नीचेके अनन्तभागवद्धिस्थानको असंख्यात लोकसे गुणा करने पर असंख्यातगुणवृद्धि होती है।
अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानको प्रतिराशि करके उसमें बढ़े हुए अनुभागके जोड़ देनेसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है।
शंका-सब स्थानोंमें भागहारोंके समान गुणकार वृद्धि के अनुसार ही होते हैं यह कैसे जाना ?
समाधान-अनन्तगुणवृद्धि किस वृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त हुई है ? सर्व जीवराशिरूप गुणवृद्धिसे वृद्धि को प्राप्त हुई है इस वेदनाखण्डके सूत्रसे जाना।
शंका-पहलेका अवस्थित अनुभाग भी वृद्धिस्वरूप ही है, क्योंकि उसके विना वर्तमानमें बढ़े हुए अनुभागसे ही अन्य स्थानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती ? ।
१. ता० अ०ा प्रत्योः पढमासंखेजगुणवड्डी इति पाठः। २. ता० प्रा० प्रत्योः गुणगार वड्डीए इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ प्पत्तीए अभावादो त्ति ? सच्चमेदं, किंतु ण चिराणाणुभागो एत्थ घेप्पदि, वडिणिमित्ताणुभागेण विणा वडिअणुभागेण चेव एत्थ अहियारादो। तं पि कुदो णव्वदे ? वड़ि पडुच्च भागहार-गुणगारपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । हेहिमअणंतभागवडिहाणंतरादो असंखेज्जगुणवडिहाणंतरमणंतगुणं सेसवडिहाणंतरेहितो असंखे०गुणं । अणंतभागवडिपक्खेवफद्दयंतरादो एदस्स फद्दयंतरमणंतगुणं ।
६१५. एदमसंखेज्जगुणवडिहाणं सव्वजीवेहि खंडिय जं लद्धं तम्मि तत्थेव पक्वित्ते उवरिममणंतभागवडिहाणं होदि । हेहिमअसंखेज्जगुणवडिहाणंतरादो एदस्स हाणंतरमणंतगुणहीणं । तस्स पक्खेवफदयंतरादो वि एदस्स फद्दयंतरमणंतगुणहीणं । असंखेजगुणवड्डीए हेटिमअणंतभागवडिकंडयस्स हाणंतरादो एदं द्वाणंतरमसंखे०गुणं । तत्थतणफद्दयंतरादो वि एत्थतणफद्दयंतरमसंखेज्जगुणं । एवं जाणिदूण समयाविरोहेण णेदव्वं जाव कंडयमेत्ताणि असंखेज्जगुणवडिहाणाणि समुप्पण्णाणि त्ति ।
६१६. पुणो अवरमेगमसंखेज्जगुणवडिविसयं गंतूण जं चरिममुव्वंकहाणमवहिदं तम्मि रूवाहियसव्वजीवरासिणा गुणिदे पढममह कहाणमुप्पज्जदि। एदस्स हाणंतरं पुव्विल्लासेसहाणंतरेहितो अणंतगुणं । एदस्स फदयंतरं पि पुव्विल्लासेस
समाधान-उक्त कथन सत्य है, किन्तु यहाँ पर चिरकालके अनुभागका ग्रहण नहीं करते, क्योंकि यहाँ पर वृद्धि में कारणभूत अनुभागके विना केवल वृद्धिप्राप्त अनुभागका ही अधिकार है।
शंका-यह कैसे जाना ?
समाधान-यदि वृद्धिमें कारणभूत अनुभागके बिना वृद्धिप्राप्त अनुभागका ही अधिकार न होता तो वृद्धिकी अपेक्षा भागहार और गुणकारका कथन नहीं बन सकता था।
अधस्तन अनन्तभागवृद्धिस्थानके अन्तरसे असंख्यातगुणवृद्धिस्थानका अन्तर अनन्तगुणा है तथा शेष वृद्धिस्थानोंके अन्तरसे असंख्यातगुणा है। अनन्तभागवृद्धिके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे इस स्थानके स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा है।
६१५. इस असंख्यातगुणवृद्धिस्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध श्रावे उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेपर ऊपरका अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। अधस्तन असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके अन्तरसे इस स्थानका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। उसके प्रक्षेप स्पर्धकके अन्तरसे भी इस स्थानके स्पर्धकका अन्तर अनन्तगुणा हीन है। असंख्यातगुणवृद्धिके अधस्तन अनन्तभागवृद्धिकाण्डकके स्थानान्तरसे इस स्थानका अन्तर असंख्यातगुणा है। उसके स्पर्धकान्तरसे भी इस स्थानका स्पर्धकान्तर असंख्यातगुणा है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंकी उत्पत्ति होने तक इस क्रमको जानकर आगमानुसार ले जाना चाहिये।
६६१६. इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातगुणवृद्धिस्थानोंकी उत्पत्ति होनेके पश्चात् एक अन्य असंख्यातगुणवृद्धिस्थानके अन्तभूत वृद्धियोंमें जो अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थान आता है उसे एक अधिक समस्त जीवराशिसे गुणा करने पर पहला अष्टांकस्थान उत्पन्न होता है। इस स्थानका अन्तर पहलेके सब स्थानोंके अन्तरसे अनन्तगुणा है। इसका स्पर्धकान्तर भी
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३७९ . फद्दयंतरादो अणंतगुणं । कारणं चिंतिय वत्तव्वं !
६१७. पक्खेवसलागाओ सव्वासु वडीसु अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धागंतिमभागमेत्ताओ। सगसगफद्दयसलागाहि वड्डिदअणुभागे भागे हिदे सव्वत्थ फद्दयंतरुप्पत्ती वत्तव्वा । एवमेगस्स बंधसमुप्पत्तियछटाणस्स जहा परूवणा कदा तहा अवसेसअसंखेजलोगभेत्तछहाणाणं अकेण विणा पच्छिल्लपंचहाणाणं च परूवणा कायव्वा ।
एवमेसा बंधसमुप्पत्तियहाणपरूवणा कदा । पहलेके समस्त स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है । इसका कारण विचार कर कहना चाहिये।
६१७, सब वृद्धियोंमें प्रक्षेप शलाकाएँ अभव्यराशिसे अनन्तगुणी और सिद्धराशिके अनन्तवें भागमात्र हैं। बढ़े हुए अनुभागमें अपनी अपनी स्पर्धक शलाकाओंका भाग देनेपर सर्वत्र स्पर्धकान्तरकी उत्पत्ति कहनी चाहिये । इस प्रकार जिस क्रमसे एक बन्धसमुत्पत्तिक षटस्थानका कथन किया है उसी क्रमसे असंख्यात लोकप्रमाण समस्त पदस्थानोंका तथा अष्टांकके विना पीछेके पाँच स्थानोंका कथन कर लेना चाहिये।
विशेषार्थ-जघन्य अनुभागस्थानके ऊपर जो काण्डकप्रमाण अनन्तानुभागवृद्धिस्थान हुए थे उनमेंसे अन्तिम अनुभागवृद्धिस्थानमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे उसी अन्तिम अनुभागवृद्धिस्थानमें जोड़नेसे पहला असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस स्थानका अन्तर नीचेके स्थानके अन्तरसे अनन्तगुणा है, क्योंकि समस्त जीवराशिमें असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो लब्ध आता है वही यहाँ गुणकार है । इस असंख्यातभागवृद्धिरूप प्रक्षेपमें इस स्थानकी स्पर्धक शलाकाओंका भाग देनेपर जो लब्ध आता है वही यहाँ स्पर्धकान्तरका प्रमाण होता है। यह स्पर्धकान्तर नीचेके स्थानके स्पर्धकान्तरसे अनन्तगुणा है, क्योंकि नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानकी स्पर्धक शलाकाओंसे रूपाधिक सर्व जीवराशिको गुणा करके गुणनफलसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेसे स्पर्धकान्तर होता है। अनन्तभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे असंख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ असंख्यातवें भाग अधिक हैं। उससे संख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाएँ संख्यातवें भाग अधिक हैं । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए । इसी प्रकार असंख्यातभागवृद्धिकी प्रक्षेप स्पर्धक शलाकाओंसे असंख्यात लोकको गुणा करके गुणनफलसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देनेसे असख्यातभागवृद्धिरूप प्रक्षेपका स्पर्धकान्तर होता है। नीचेके स्पर्धकान्तरसे ऊपरके स्पर्धकान्तरमें भाग देनेसे जो लब्ध आवे, नीचेसे ऊपरका स्पर्धकान्तर उतना ही गुणा होता है । इस असंख्यातभागवृद्धिस्थानसे ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होते हैं। उनका कथन पहलेके अनन्तभागवृद्धिस्थानोंकी तरह जानना चाहिए। इतना विशेष है कि असंख्यातभागवृद्धिके स्पर्धकान्तरोंसे ऊपरके अनन्तभागवृद्धिरूप प्रक्षेपोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर अनन्तगुणे हीन होते हैं, तथा नीचेके काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तरोंसे ऊपरके काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक होते हैं। इसका कारण यह है कि असंख्यातभागवद्भिस्थानमें भागहारका प्रमाण जीवराशिका असंख्यातवां भाग है और अनन्तभागवधिमें भागहारका प्रमाण समस्त जीवराशि है, अत: भागहारके प्रमाणमें अन्तर होनेसे उक्त अन्तर पड़ता है। जैसे यदि . अन्तिम अनन्तानुभागवृद्धिस्थानका प्रमाण १६०००० कल्पना किया जावे तो उसमें असंख्यातके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६१८. एदेसि बंधहाणाणं कारणभूदकसायुदयहाणाणं पि अवहाणकमो एरिसो चेव भागहार-गुणगारेहि ठाणसंखाए च भेदाभावादो । तेणेसा परूवणा अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणं पि हिरवयवा वत्तव्वा । एदाणि एवं विहाणेण परूविदबंधसमुप्पत्तियहाणाणि थोवाणि ति घेत्तव्यं ।
* हदसमुप्पत्तियाणि असंखेजगुणाणि ।
६१६. एत्थ ताव हदसमुप्पत्तियहाणाणं सरूवपरूवणं कस्सामो। कत्तो एदेसि समुप्पत्ती ? विसोहिहाणेहिंतो ? काणि विसोहिहाणाणि १ बद्धाणुभागकल्पित प्रमाण दोका भाग देनेसे ८०००० पाता है। यह स्थानान्तर नीचेके स्थानान्तरोंसे कई गुणा है । तथा असंख्यातभागवृद्धिस्थानके कल्पित प्रमाण १६००००+ ८०००० = २४०००० में आगेका अनन्तभागवृद्धि युक्त स्थान लानेके लिये जीवराशिके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध ६०००० आता है। यह स्थानान्तर नीचेके अनन्तभागवृद्धिस्थानोंके अन्तरसे अधिक है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। दूसरे काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थानोंसे अन्तिम स्थानमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो लब्ध आबे उसे सी स्थानमें जोड़ देनेसे दूसरा असंख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान होते हैं। काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थानोंमेंसे जो अन्तिम असंख्यातभागवृद्धिस्थ न है उसके ऊपर पहलेकी तरह काण्डकप्रमाण अनन्तभागबुद्धिस्थान होते हैं। उनमेंसे अन्तिम अनन्तभागवृद्धिस्थानमें उत्कृष्ट संख्यातका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे पहला संख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। इसके ऊपर काण्डकप्रमाण अनन्तभागवृद्धिस्थान होने पर असंख्यातभागवृद्धिस्थान है और काण्डकप्रमाण असंख्यातभागवृद्धिस्थान होनेपर दूसरा संख्यातभागवृद्धिस्थान होता है। इस तरह काण्डकप्रमाण संख्यातभागवृद्धिस्थानोंके हो जानेपर ऊपर संख्यातभागवृद्धिस्थान विषयक अनन्तभागवृद्धिस्थानोंमें जो अन्तिम स्थान है उसमें उत्कृष्ट संख्यातका गुणा करनेसे जो लब्ध आवे उसे उसीमें जोड़ देनेसे पहला संख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। उक्त क्रमसे काण्डकप्रमाण संख्यातगुणवृद्धिस्थानोंके हो जाने पर, ऊपर संख्यातगुणवद्धिविषयक अनन्तभागवृद्धिस्थानोंमेंसे अन्तके स्थानमें असंख्यात लोकका गणा करनेसे जो लब्ध आवे उसे उसी स्थानमें जोड़ देनेसे पहला असंख्यातगुणवृद्धिस्थान होता है। इसी प्रकार आगेका विचार कर कथन करके षट्स्थानकी उत्पत्ति कहनी चाहिए। इस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिक स्थानकी उत्पत्तिका सांगोपांग विचार किया।
इस प्रकार यह बन्धसमुत्पत्तिकस्थानका कथन हुआ। ६६१८. इन बन्धस्थानों के कारणभूत कषायके उदयस्थानोंके भी अवस्थानका क्रम ऐसा ही है, क्योंकि दोनोंके भागहार, गुणकार और स्थानसंख्यामें कोई भेद नहीं है। अत: यह पूरा कथन अनुभागबन्धाध्यवसायस्थानोंके विषयमें भी कहना चाहिये । इस प्रकार कहे गये ये बन्धसमुत्पत्तिक स्थान थोड़े हैं ऐसा सूत्रका अर्थ लेना चाहिये ।
* उनसे हतसमुत्पत्तिक स्थान असंख्यातगुणे हैं। ६६१९ यहाँ अब हतसमुत्पत्तिकस्थानोंके स्वरूपका कथन करते हैं । शंका-इन स्थानों की उत्पत्ति किनसे होती है ? समाधान-विशुद्धिस्थानासे।
पा
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गा० २२ ] __ अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३८१ संतस्स घादहेदुजीवपरिणामा । ताणि च असंखेज्जलोगमेत्ताणि छव्विहाए वड्डीए अवहिदाणि। एदेसि सीसपडिबोहण वामपासे रयणा कायव्वा ! सुहमणिगोदअपजरजहण्णाणुभागहाणप्पहुडि जाव पज्जवसाणचरिमाणुभागबंधहाणे ति ताव एदेसिमसंखेजलोगमेत्तबंधसमुप्पत्तियहाणाणमेगसेढियागारेण दाहिणपासे रयणा कायव्वा । एवं कादूण पुणो सिस्सपडिबोहणहमणुभागबंधहाणाणं घादणकमं भणिस्सामो। तं जहा-एगेण जीवेण सव्वुक्कस्सविसोहिहाणपरिणदेण सव्वुक्कस्सअणुभागबंधहाणे धादिदे चरिमअकादो हेट्टा अणंतगुणहीणं तत्तो हेहिमबंधसमुप्पत्तियउव्वंकहाणादो अणंतगुणं होदण दोण्हं हाणाणं विच्चाले हदसमुप्पत्तियसण्णिदमणुभागहाणमुप्पजदि । एदस्स हाणस्स पदेसविण्णासो जहा बंधहाणाणं परूवेदो तहा परूवेदव्यो, पदेसविण्णासविवज्जासेण विणा तत्थतणअणुभागस्सेव थोवत्तविहाणादो। पुणो अण्णेण जीवेण दुचरिमविसोहिडाणपरिणदेण पज्जवसाणउच्वंके घादिदे पुव्वुत्तरंकुव्वंकाणं विच्चाले पुव्वुप्पण्णघादाणस्सुवार अणंतभागभहियं होदण विदियं हदसमुप्पत्तियहाणमुप्पजदि । एत्थ वड्डीए भागहारो अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणंतिमभागो । एदेण भागहारेण जहण्णहाणे भागे हिदे जं लद्धं तम्हि तत्थेव पक्खित्ते विदियमणंतभागवड्रिहाणं होदि ति भावत्थो। एत्थ सव्वजीवरासी वडिभागहारो ति किण्ण इच्छिदो?
शंका-विशुद्विस्थान किन्हें कहते हैं ?
समाधान-जीवके जो परिणाम बांधे गये अनुभागसत्कर्म के घातके कारण हैं उन्हें विशुद्धिस्थान कहते हैं।
वे विशुद्धिस्थान असंख्यात लोकप्रमाण हैं और छह प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए हैं। शिष्योंको समझानेके लिये इन स्थानोंकी रचना बाई ओर करनी चाहिये और सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर अन्तिम अनुभाग बन्धस्थान तक इन असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंकी एक श्रेणिके आकारमें दाहिनी ओर रचना करनी चाहिये। ऐसा करके पुन: शिष्योंको समझानेके लिये अनुभागबन्धस्थानोंके घात करनेके क्रमको कहते हैं। वह इस प्रकार है- सर्वोत्कृष्ट विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए एक जीवके द्वारा सर्वोत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानका धात किये जाने पर अन्त के अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन और उससे नीचेके बन्धसमुत्पत्तिक उर्वकस्थानसे अनन्तगुणा होकर दोनो स्थानोंके बीच में हतसमुत्पत्तिक नामका अनुभागस्थान उत्पन्न होता है। इस स्थानके प्रदशोंकी रचना जैसी बन्धस्थानोंकी कही है उसी प्रकार कहनी चाहिये। क्योंकि प्रदेश रचना पलटे बिना उसके अनुभागको ही कम कर दिया है। पुनः द्विचरम विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए किसी अन्य जीवके द्वारा अन्तिम उवक का घात किये जानेपर पूर्व उर्वक और उत्तर उर्वकके बीचमें पहले उत्पन्न हुए हतसमुत्पत्तिकस्थानके ऊपर अनन्तभाग अधिक दूसरा हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होता है। यहां पर हुई अनन्तभाग वृद्धिका भागहार अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है। इस भागाहारसे जघन्य स्थानमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उसे उसी स्थानमें जोड़ देने पर दूसरा अनन्तभागवृद्धि स्थान होता है, यह उक्त कथनका भावार्थ है।
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کی ہے جو حرم سے مجرم حجم می کرد
جيمي م م م ج مر مر سے بہ یہ عمر
حجر حجر مر بي رح کی ہے میں حج سے دو حید
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پی سی بی جی جی می می می می سی سی نے بی بی بی سی میں بی بی سی کی جی میر میر مرمر بیمه در جی میر میر جو
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ण, कसायुदय हाणाणं व विसोहिहाणवडिहाणीणमभवसिद्धिएहि अणंतगुणं सिद्धाणंतिम भागं मोत्तूण गुणगारभागहाराणं सव्वजीवरासिपमाणत्तासंभवादो। ण च कारणगुणगार-भागहारेहितो कजगुणगार-भागहाराणं पुधभावसंभवो, विरोहादो। पुणो अण्णेण जीवेण तिचरिमविसोहिहाणपरिणएण चरिमुव्वंके घादिदे तदियमणंतभागवड्रिहाणमुप्पज्जदि । पुणो अवरेण चदुचरिमविसोहिहाणपरिणदेण पज्जवसाणुव्वंके धादिदे चउत्थमणंतभागवड्डीए घादहाणमुप्पज्जदि। एवं कंडयमेत्ताणि अणंतभागहीणविसोहिहाणाणि हेट्टा ओसरिय हिदअसंखेन्जभागहीणविसोहिहाणपरिणएण चरिमुव्वंके घादिदे घादहाणेसु कंडयमेत्त अणंतभागवड्डीओ उवरि गंतूण पढममसंखेजभागवड्डिहाणमुप्पज्जदि । एत्थ वडिभागहारो असंखेज्जा लोगा । कुदो ? मुत्ताविरुद्धगुरुवयणादों। एवं विलोमेण हिदएगेगविसोहिहाणेण चरिमुव्वंके घादिदे असंखेज्जलोगमेत्ताणि हदसमुत्पत्तियहाणाणि अप्पिदअकुव्वंकाणं विच्चाले उप्पज्जति । णवरि घादहाणेसु घादघादहाणेसु च सव्वजीवरासिगुणगारो भागहारो वे त्ति ण वत्तव्यं । कुदो ? घादहाणे सव्वजीवरासिणा गुणिदे उक्कस्सबंधहाणादो अणंतगुणघादहाणसमुप्पत्तीदो । ण च बंधहाणादो घादहाणमणंतगुणं होदि, विरोहादो । एदेसिमसंखेज्जलोगमेत्तउव्वंक
शंका-यहां पर वृद्धिका भागाहार सर्व जीवराशि है ऐसा क्यों नहीं माना ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कपायके उदयस्थानोंको तरह विशुद्धि स्थानोंकी वृद्धि और हानि का गुणकार और भागहार अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाणको छोड़कर सर्वराशिप्रमाण नहीं बन सकता है। अर्थात् जैसे कषायके उदयस्थानोंकी वृद्धि-हानिका गुणकार और भागहार अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है वैसा ही विशुद्धिस्थानों में भी जानना चाहिये, क्योंकि कषाय दयस्थान कारण हैं और विशुद्धि स्थान उनके कार्य हैं और कारगणके गुणकार और भागहारोंसे कार्यके गुणकार और भागहार जुदे नहीं हो सकते, क्योंकि ऐसा होनेमें विरोध है।
पुन: त्रिचरम विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए किसी अन्य जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर तीसरा अनन्तभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। पुन: चतु:चरम विशुद्धि स्थानसे परिणत हुए अन्य जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए चतुर्थ घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार काण्डकप्रमाण अनन्तभाग हीन विशुद्धि स्थान नीचे उतरकर स्थित असंख्यात भाग हीन विशुद्धिस्थानसे परिणत हुए जीवके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर घातस्थानोंमें काण्डकप्रमाण अनन्तभाग वृद्धियां ऊपर जाकर पहला असंख्यात
ख्यातभागवृद्धिस्थान उत्पन्न होता है। यहां पर असंख्यातभागवृद्धिका भागहार असंख्यात लोक है, क्योंकि सूत्रके अविरुद्ध गुरुके ऐसे वचन हैं। इस प्रकार विलोसक्रमसे स्थित एक एक विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात किये जानेपर विवक्षित अष्टांक और उर्वकके बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। इतना विशेष है कि घातस्थानांमें और घातघातस्थानोंमें गुंणकार और भागहारका प्रमाण सर्व जीवराशि है ऐसा नहीं कहना चाहिये, क्योंकि घातस्थानको सर्व जीवराशिसे गुणा करने पर उत्कृष्ट बन्धस्थानसे अनन्तगुणे घातस्थानकी उत्पत्ति होती है। किन्तु बन्धस्थानसे घातस्थान अनन्तगुणा नहीं होता
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३८३ चत्तारि-पंच-छ-सत्त-अहकाणं रूवूणछट्ठाणसहियाणं हाणंतरफद्दयंतरादीणं परूवणाए कीरमाणाए बंधहाणभंगो। एवं चरिमुव्वंकमस्सिदृण एत्तियाणि चेव घादहाणाणि उप्पजंति, उक्कस्सविसोहिहाणप्पहुडि जाव जहण्णविसोहिहाणे ति ताव सव्वविसोहिहाणेहि चरिमुव्वंकं घादिय घादहाणाणमुप्पाइदत्तादो । पुणो उक्कस्सविसोहिहाणेण दुचरिमउव्वंके घादिदे हेढा पुग्विल्लसव्वजहण्णघादढाणादो हेहा अणंतभागहीणं होदूण अण्णं घादहाणमुप्पजदि । एत्थ हाणीए भागहारो रूवाहियसव्वजीवरासी। कुदो ? एगेण परिणामेण घादे संते वि उक्कस्सउव्वंकादो दुचरिमउव्वंकस्स रूवाहियसव्वजीवरासिणा खंडिदेगखंडपरिहाणिदंसणादो। पुणो दुचरिमविसोहिहाणेण दुचरिमअणुभागबंधटाणे घादिदे अण्णं घादहाणमणंतभागभहियं होदूण अपुणरुत्तमुप्पज्जदि । को एत्थ वडिभागहारो? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो सिद्धाणमणंतिमभागो, कारणाणुरूवकज्जसिद्धीए णाइयत्तादो। अणुभागबंधज्झवसाणहाणाणं व अणुभागधादझवसाणहाणाणं वडिभागहारो गुणगारो च किण्ण होदि ? ण, अणुभागवड्डिहेदुपरिणामाणं घादहेउपरिणामाणं च सरिसत्तविरोहादो । एदं संपहि समुप्पण्णाणुभागधादहाणमुवरिमपंतीए जहण्णघादट्टाणेण सरिसं ण होदि, पुव्विल्लजहण्णहाणाणं सव्वहै, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है। एक कम षट्स्थान सहित इन असंख्यात लोकप्रमाण उर्वक, चतुरङ्क, पञ्चाङ्क, षष्ठाङ्क, सप्ताङ्क और अष्टाङ्कोंके स्थानान्तर और स्पर्धकान्तर आदिका कथन करने पर उनका भङ्ग बन्धस्थानोंके समान है। इस प्रकार अन्तिम उर्वकके आश्रयसे इतने ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उत्पन्न विशुद्धिस्थानसे लेकर जघन्य विशुद्धिस्थान तक सब विशुद्विस्थानोंसे अन्तिम उर्वकको घात कर घातस्थानोंकी उत्पत्ति की जाती है। पुनः उत्कृष्ट विशुद्विस्थानसे द्विचरम उर्वकका घात करने पर नीचे पहलेके सर्व जघन्य घातस्थानसे नीचे अनन्तभाग हीन दूसरा घातस्थान उत्पन्न होता है। यहां हानिका भागहार एक अधिक सर्व जीवराशि है, क्योंकि एक परिणामसे घात होने पर भी उत्कृष्ट उर्वकसे द्विचरम उर्वकमें एक अधिक सर्व जीवराशिका भाग देने पर जो एक खण्ड लब्ध आता है इतनी हानि देखी जाती है। सारांश थह है कि अन्तिम उर्वकसे द्विचरम उर्वक उतना हीन है इसलिये इस घातस्थानकी हानिका भागहार रूपाधिक सर्व जीवराशि रखा है। पुन: द्विचरम विशुद्धिस्थानसे द्विचरम अनुभागबन्धस्थानका घात करने पर अनन्तवां भाग अधिक अन्य अपुनरुक्त घातस्थान उत्पन्न होता है।
शंका-यहां पर वृद्धिका भागहार कितना है ?
समाधान अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण है, क्योंकि कारणके अनुरूप कार्यकी सिद्धिका होना उचित ही है।
शंका-अनुभागघाताध्यवसायस्थानोंकी वृद्धिके भागहार और गुणकार अनुभाग बन्धाध्यवसायस्थानोंके भागहार और गुणकारके समान क्यों नहीं होते।
समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागकी वृद्धिके कारणभूत परिणामोंके और अनुभागके घात के कारणभूत परिणामोंके समान होने में विरोध है।
___ यह इस समय उत्पन्न हुआ अनुभागघातस्थान ऊपरकी पंक्तिमें जघन्य घातस्थानके समान
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ जीवरासिणा खंडिय तत्थेगखंडेणूण संपहियजहण्णहाणमब्भवसिदिएहि अणंतगुणं सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तभागहारेण खंडिय तत्थेगखंडेण अहियत्तादो। उवरिमपंतीए विदियघादट्टाणेण वि सरिसं ण होदि, विहज्जमाणरासीणं अवहाररासीणं च सरिसत्ताभावादो।
६२०. तम्हि चेवाणुभागबंधटाणे तिचरिमअज्झवसाणहाणेण घादिदे अण्णं घादहाणमुप्पज्जदि । एदं पि अपुणरुतं । कारणं चिंतिय वत्तव्यं । एवमेदम्हि अणुभागबंधहाणे घादिजमाणे वि असंखेजलोगमेत्ताणि घादहाणाणि अपुणरुत्ताणि उप्पजंति, अणुभागघादहेदुपरिणामाणमसंखेजलोगपरिमाणतादो । पज्जवसाणअणुभागबंधहाणे घादिजमाणे उप्पण्णअणुभागधादट्टाणेहिंतो दुचरिमअणुभागबंधहाणघादजणिदअणुभागहाणाणि सरिसाणि, घादहेदुविसोहिहाणाणं समाणत्तादो। पुणो तेणेव चरिमपरिणामेण तिचरिमउव्वंके धादिदे विदियपरिवाडीए उप्पण्णहदसमुप्पत्तियसव्वजहण्णहाणादो हेटा अणंतभागहीणं होद्ग अण्णमपुणरुत्तहाणमुप्पज्जदि। झीयमाणदव्वागमणं पडि को एत्थ भागहारो ? रूवाहियसव्वजीवरासी। पुणो दुचरिमपरिणामेण तिचरिमउव्वंके घादिदे तदियपंतिजहरणहाणादो अणंतभागब्भहियं होदण अण्णमपुणरुतहाणमुप्पज्जदि। को एत्थ वडिभागहारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो नहीं है, क्योंकि पहलेका जघन्य स्थान सब जीवराशिका भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आवे उतना न्यून है और साम्प्रतिक जघन्य स्थान अभव्योंसे अनन्तगुणे और सिद्धोंके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारका भाग देने पर जो वहां एक भाग लब्ध आता है उतना अधिक देखा जाता है। तथा यह घातस्थान ऊपरकी पंक्तिमें स्थित दूसरे घातस्थानके भी समान नहीं है, क्योंकि भाज्य राशियां और भाजक राशियां समान नहीं हैं।
६२०. उसी अनुभागवन्धस्थानका त्रिचरम अध्यवसायस्थानके द्वारा घात किये जाने पर अन्य घातस्थान उत्पन्न होता है। यह घातस्थान भी अपुनरुक्त है। इसके अपनरुक्त होनेका कारण विचार कर कहना चाहिये। इस प्रकार इस अनुभागबन्धस्थानका भी घात किये जाने पर असंख्यात लोकप्रमाण अपुनरुक्त घातस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि अनुभागके घातके कारणभूत परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं। द्विचरम अनुभागबन्धस्थानके घातसे उत्पन्न अनुभागस्थान अन्तिम अनुभागबन्धस्थानके घातसे उत्पन्न अनुभागघातस्थानोंके बराबर ही होते हैं, क्योंकि घातके कारणभूत विशुद्धिस्थान दोनों के समान हैं । पुन: उसी अन्तिम परिणामके द्वारा त्रिचरम उर्वकका घात किये जाने पर दूसरी परिपाटीसे उत्पन्न होनेवाले सर्व जघन्य हतसमुत्पतिकस्थानसे नीचे अनन्तभागहीन होकर दूसरा अपुनरुक्तस्थान उत्पन्न होता है।
शंका-हीयमान द्रव्यका प्रमाण लानेके लिये यहां भागहारका प्रमाण क्या है ? समाधान-एक अधिक सर्व जीवराशि।।
पुनः द्विचरम परिणामके द्वारा त्रिचरम उर्वकका घात किये जाने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है, जा कि तीसरी पंक्तिके जघन्यस्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है।
शंका-यहां पर वृद्धिका भागहार क्या है ?
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गा० २२ } अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३८५ सिद्धाणमणंतिमभागो । कुदो ? उक्कस्सघादझवसाणहाणाणं पेक्खिद्ण तत्तो अणंतरदेहिमघादझवसाणहाणस्स अभव्वसिद्धिएहि अणंतगुणसिद्धाणमणंतभागमेत्तभागहारेण खंडिदे तत्थेगरखंडेण ऊणत्तादो। कदो अपुणरुतदा ? भिण्णभागहारेहि ओवट्टि जमाणहाणाणं सरिसत्ताभावादो। एवं तिचरिमाणुभागबंधहाणे वि धादिज्जमाणे तदियपरिवाडीए अणुभागघादज्झवसाणहाणमेत्ताणि अणुभागघादहाणाणि अपुणरुत्ताणि उप्पादेदव्याणि। एवं चदुचरिमाणुभागहाणप्पहुडि जाव हेहा रूवूणबहाणमेत्तपंचहाणिहाणाणं चरिमहाणे ति ताव घादिय हाणं पडि असंखेज्जलोगमेत्ताणि घादहाणाणि अपुणरुत्ताणि उप्पादेदव्याणि | एवं रूवूणछटाणमेत्तअणुभागबंधहाणाणि अस्सियण एतियाणि चेव घादहाणाणि उप्पजति । पज्जवसाणाणुभागबंधहाणं घादिय सेसअहकव्वंकाणं विचालेसु घादहाणाणि किण्ण उप्पाइज्जति ? ण, एवंविहगुरूवएसाभावादो । जदि अहकव्वंकाणं विचाले चेव घादहाणाणमुप्पत्तिणियमो तो संखेजासंखेजाणुभागबंधहाणाणं घादेण ण होदव्वं ? ण, तेसु घादिज्जमाणेसु घादहाणाणि मोत्तण बंधहाणाणं समुप्पत्तीदो । घादेणुप्पण्णाणं कथं बंधहाणववएसो ? ण, बंधहाण
समाधान-अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण वृद्धिका भागहार है, क्योंकि उत्कृष्ट घाताध्यवसायस्थानकी अपेक्षा उससे अनन्तरवर्ती नीचेका घाताध्यवसायस्थान अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारका भाग देनेपर जो एक भाग लब्ध आता है उतना कम है।
शंका-यह अपुनरुक्त कैसे है ?
समाधान-क्योंकि, भिन्न भिन्न भागहारोंके द्वारा अपवतनको प्राप्त होनेवाले स्थान समान नहीं हो सकते।
इसी प्रकार त्रिचरम अनुभागबन्धस्थानका भी घात करने पर तीसरी परिपाटीसे अनुभागघाताध्यवसायस्थानोंकी संख्याके बराबर अपुनरुक्त अनुभागघातस्थान उत्पन्न करने चाहिये । इसी प्रकार चतुःचरम अनुभागस्थानसे लेकर एक कम पदस्थानमात्र पंव हानिस्थानोंके अन्तिम स्थान पर्यन्त घातिस्थानकी अपेक्षा असंख्यात लोक मात्र अपुनरुक्त घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। इस प्रकार एक कम षट्स्थानमात्र अनुभागवन्धस्थानोंकी अपेक्षा इतने ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं।
शंका-अन्तिम अनुभागबन्धस्थानका घात करके शेष अष्टांक और उर्वकके बीच में घातस्थान क्यों नहीं उत्पन्न किये जाते हैं ?
समाधान-नहीं, क्योंकि इस प्रकारका गुरुओंका उपदेश नहीं पाया जाता है ?
शंका-यदि अष्टांक और उर्वकके बीच में ही घातस्थानोंकी उत्पत्तिका नियम है, तो संख्यात और असंख्यात अनुभागबन्धस्थानोंका घात नहीं होना चाहिये।
समाधान-नहीं, क्योंकि उनका घात होनेपर घातस्थानोंकी उत्पत्ति न होकर बन्धस्थानोंकी उत्पत्ति होती है।
शंका-जो स्थान घातसे उत्पन्न होते हैं उन्हें बन्धस्थान कैसे कहा जा सकता है ? ४९
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ मेवे त्ति घादेणुप्पण्णाणं पि बंधहाणववएससिद्धीदो। संपहि अण्णेगो जीवो जो एगछहाणेणणअसंखेजलोगमेत्तहाणधारो तेण उक्कस्सपरिणामहाणपरिणदेण संपहियचरिमउव्वंके घादिदे दुचरिमअकस्स हेहदो अणंतगुणहीणं तत्तो हेहिमअणंतगुणहीणउव्वंकटाणादो अणंतगुणं होदूण अण्णं हदसमुप्पत्तियहाणमुप्पज्जदि । पुणो दुचरिमपरिणामहाणेण तम्मि चेव चरिमउव्वंके घादिदे विदियमणंतभागवडियादहाणमुप्पज्जदि। पुणो तिचरिमादिविसोहिहाणेहि तम्मि चेव चरिमउबके घादिज्जमाणे परिणामहाणमेत्ताणि चेव हदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पज्जति । किं पमाणाणि घादहाणहेदुपरिणामहाणाणि ? रूवूणछटाणब्भहियअसंखेज्जलोगमेत्तछटाणपमाणाणि । पुणो दुचरिमुव्वंके तेहि चेव परिणामहाणेहि पुत्वविहाणेण परिवाडीए घादिदे एत्थ वि परिणामहाणमेत्ताणं घादहाणाणं पंती अपुणरुत्ता पुचिल्लघादहाणपंतीए हेहदो उप्पज्जदि । पुणो तेहि चेव परिणामहाणेहि पुव्वविहाणेण तिचरिमुव्वंके घादिदे एत्थ वि अणुभागघादझवसाणहाणमेत्ताणि चेव हदसमुप्पत्तियहाणाणि विदियपत्तीए हेदृदो पंतियागारेण उप्पजति । एवं रूवूणछटाणमेत्तेसु अणुभागबंधहाणेसु घादिजमाणेसु रूवूणछहाणमेत्ताओ अणुभागघादज्झवसाणहाणपमाणायदाओ घादहाणपंतीओ उप्पज्जति । एवमसंखेजलोगमेतबंधसमुप्पत्तियअकुव्वंकाणं विच्चालेसु घादझवसाणहाणपमाणा
समाधान-नहीं. क्योंकि बन्धस्थान ही हैं इसलिए घातसे उत्पन्न हुए स्थानोंकी भी बन्धस्थान संज्ञा सिद्ध होती है।
अब एक ऐसा जीव लो जो एक षट्स्थानसे कम असंख्यात लोकमात्र स्थानोंका धारक है। उत्कृष्ट परिणामस्थानसे युक्त उस जीवने साम्प्रतिक अन्तिम वकका घात किया है। घात करने पर उसके अन्य हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है जो द्विचरम अष्टांकसे नीचे अनन्तगुणा हीन और उससे नीचेके अनन्तगुणे हीन उर्वकस्थानसे अनन्तगुणा होता है । पुन: द्विचरम परिणामस्थानसे उसी अन्तिम उवकका घात किये जाने पर अनन्तभागवृद्धिको लिये हुए दूसरा घातस्थान उत्पन्न होता है। पुन: त्रिचरम आदि विशुद्धिथानोंसे उसी अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर ही हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं।
शंका-घातस्थानोंके कारणभूत परिणामस्थानोंका प्रमाण कितना है ?
समाधान-एक कम षट्स्थान अधिक असंख्यात लोकप्रमाण षट्स्थानोंका जितना प्रमाण है उतना है।
६६२३. पुन: पूर्व विधानके अनुसार क्रमबार उन्हीं परिणामस्थानोंसे द्विचरम उर्वकका घात किये जाने पर यहां भी पहले कहे गये घातस्थानोंकी पंक्तिसे नीचे परिणामस्थानप्रमाण घातस्थानोंकी अपुनरुक्त पंक्ति उत्पन्न होती है। पुन: पूर्व विधानके अनुसार उन्हीं परिणामस्थानोंसे त्रिचरम उर्वंकका घात किये जाने पर यहां भी दूसरी पंक्तिसे नीचे पंक्तिरूपसे अनुभागघाताध्यवसायस्थानप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार एक कम पदस्थानप्रमाण अनुभागबन्धस्थानोंके घाते जाने पर एक कम षट्स्थानप्रमाण अनुभागघाताध्यवसायस्थानप्रमाण लम्बी घातस्थानपंक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक
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गा० २२] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३८७ यदानो रूवूणछट्टाणमेत्ताओ हदसमुप्पत्तियहाणपंतीओ पादेकमुप्पादेदव्वाओ। णवरि सुहमणिगोदअपज्जत्तबंधसमुप्पत्तियजहण्णसंतहाणादो उवरि संखेज्जअ कन्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियहाणाणि ण उप्पजति । कुदो ? साहावियादो। को सहावो ? अंतरंगं कारणं । ण च एस णाओ अप्पसिद्धो, उक्कस्साणुभागघादहाणीदो तस्सेव्वुकस्सिया वड्डी विसेसाहिया ति एवमादीसु एदस्स संववहारस्स पसिद्धिदंसणादो । अणुभागस्स उक्कस्सिया हाणी थोवा । तस्सेवुक्कस्सिया वडी विससाहिया ति णव्वदे महाबंध-कसायपाहुडसुत्तेहिंतो। एत्थ पुण संखेजह कुव्वंकाणं विच्चालेसु हदसमुप्पत्तियहाणाणि णत्थि ति परूवयसुत्तेण विणा सहाओ दुरहिगम्मो ति ) एत्थ परिहारो वुच्चदे । सव्वत्थोवा हाणी। वड्डी विसेसाहिया त्ति जं सुत्तं तं कमाकमवडिहाणीओ अस्सिदण जेणावहिदं तेण दोण्हं पि अत्थाणमेदं चेव सुत्तं ति घेत्तव्यं । अक्कमवडि-हाणीमु पसिद्धं सुत्तं एत्थ वि होदि ति कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धआइरियवयणादो। अहकुव्वंकाणं विचालेसु व अणंतभागवडि-हाणि-असंखे भागवडि-हाणिसंखे० भागवडि--हाणि--संखे०गुणवडि-हाणि--असंखेजगुणवडि--हाणीणं विच्चालेसु हदअष्टांक और उर्वकके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी घाताध्यवसायस्थानप्रमाण लम्बी और संख्यामें एक कम षट्स्थानप्रमाण अलग-अलग पंक्तियाँ उत्पन्न करनी चाहिये। किन्तु इतना विशेष है कि सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके बन्धसमुत्पत्तिक जघन्य सत्त्वस्थानसे ऊपर संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि ऐसा स्वभाव है।
शंका-स्वभाव किसे कहते हैं ?
समाधान-अन्तरंग कारणको स्वभाव कहते हैं। शायद कहा जाय कि यह जो उपपत्तिकी गई है कि संख्यात अष्टांक और उर्वकके बीच में स्वभावसे ही हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, यह असिद्ध है, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि अनुभागघातकी उत्कृष्ट हानिसे उसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक होती है इत्यादिमें इस व्यवहारकी प्रसिद्धि देखी जाती है।
शंका-अनुभागकी उत्कृष्ट हानि थोड़ी है। उसीकी उत्कृष्ट वृद्धि विशेष अधिक है यह बात महाबन्धसे और कषायपाहुड़के चूर्णिसूत्रसे जानी जाती है। किन्तु यहां तो संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं होते हैं ऐसा कथन करनेवाला कोई सूत्र नहीं है, अत: उसके विना स्वभावका जानना कष्टसाध्य है।
समाधान-इस शंकाका समाधान करते हैं-हानि सबसे स्तोक है, वृद्धि उससे विशेष अधिक है यह सूत्र यतः क्रम और अक्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिको लिये हुए अवस्थित है, अतः दोनों ही अर्थोके सम्बन्धमें यही सूत्र है ऐसा मानना चाहिये।
शंका-जो सूत्र अक्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिके अर्थमें प्रसिद्ध है वही सूत्र यहां भी लगता है यह कैसे जाना ?
समाधान-सूत्रसे अविरूद्ध आचार्य वचनोंसे जाना।
शंका-अष्टांक और उर्वकके बीचकी तरह अनन्तभागवृद्धि, अनन्तभागहानि, असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि, संख्यातभागवृद्धि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणवृद्धि, संख्यात
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ भागवित्ती
समुप्पत्तियद्वाणाणि णत्थि त्ति कुदो णव्वदे ? एत्थेव कसायपाहुडे अणुभागसंकमो णाम अत्याहियारो, तत्थ चडवीसअणियोगद्दारेषु सभुजगार - पदणिक्खेव - वड्डीसु समत्तेस पुणो अणुभागद्वाणपरूवणं कुणदि - - एतो द्वाणाणि कादव्वाणि । जहा संतकम्मट्ठाण परूवणा कदा संकमद्वाणपरूवणा कायव्वा । उक्कस्सए अणुभागबंधहाणे एगं संतकम्मं तमेगं संकमद्वाणं । दुरिमे अणुभागबंधाणे एवमेव । एवं ताव जाव पच्छाणुपुवीए पढममणंतगुणहीणबंधद्वाणमपत्तं ति । पुव्वाणुपुव्वीए गणिज्जमाणे जं चरिममणं तगुणं धाणं तस्स हा अणंतरमणंतगुणहीणं एदम्मि अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि वादहाणि । ताणि संतमद्वाणाणि । ताणि चैत्र संकमद्वाणाणि । तदो पुणो बंधहाणाणि च संकमद्वाणाणि च ताव तुल्लाणि जाव पच्छाणुपुव्वीए विदियमणंतगुणहीणं बंधद्वाणं । विदियस्तगुणहीणबंधद्वाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्जलोगमेत्ताणि घाहाणाणि । एवमणंतगुणहीणबंध द्वाणस्स उवरिल्ले अंतरे असंखेज्ज लोगमेत्ताणि घादहाणाणि भवंति थि अम्हि कहि वित्ति एदम्हादो विउलगिरिमत्थयत्थवडूमाणदिवायरादो विणिग्गमिय गोदम -- लोहज्ज - जंबुसामियादि -- आइरियपरंपराए आगंतॄण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय अज्जमंखु-- नागहत्थीहिंतो जइवसहायरियमुवणमिय चुण्णिमुत्तायारेण परिणदद्दिव्वज्भुणिकिरणादो णव्वदे ।) एदाणि हदसमुप्पत्तिय
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गुणहानि, असंख्यातगुणवृद्धि और असंख्यातगुणहानि के अन्तरालों में हतसमुत्पत्तिकस्थान नहीं होते यह कैसे जाना ?
समाधान- इसी कसा पाहुडमें अनुभागसंक्रम नामका अर्थाधिकार है । उसमें भुजकार, पदनिक्षेप और वृद्धि अधिकार के साथ साथ चौबीस अनुयोगद्वारोंके समाप्त होनेपर अनुभागस्थानका कथन इस प्रकार है - अब संक्रमस्थानका कथन करना चाहिये। जिस प्रकार अनुभाग सत्कर्मस्थानोंका कथन किया है उसी प्रकार संक्रमस्थानों का भी कथन करना चाहिये । उत्कृष्ट बन्धस्थान में एक सत्कर्म है वह एक संक्रमस्थान है । द्विचरम अनुभागबन्धस्थान में भी इसी प्रकार पचादानुपूर्वीके क्रमसे तब तक ले जाना चाहिये जब तक प्रथम अनन्तगुणहीन बन्धस्थानको नहीं प्राप्त हुआ है । पूर्वानुपूर्वी से गिनने पर जो अन्तिम अनन्तगुण बन्धस्थान और उससे नीचे अनन्तर अनन्तगुणा हीन बन्धस्थान है इस बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान उत्पन्न होते हैं। ये सत्कर्मस्थान हैं और ये ही संक्रमस्थान हैं। इसके बाद पश्चादानुपूर्वी से दूसरे अनन्तगुणहीन बन्धस्थान पर्यन्त बन्धस्थान और संक्रमस्थान बराबर हैं । दूसरे अनन्तगुणहीन बन्धस्थानके ऊपरके अन्तर में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं । इस प्रकार अनंतगुणहीन बन्धस्थानके ऊपरके अन्तर में असंख्यात लोकप्रमाण घातस्थान होते हैं अन्य में नही होते, इस प्रकार विपुलाचलके ऊपर स्थित भगवान महावीररूपी दिवाकरसे निकल कर गौतम, लोहाय, जम्बूस्वामी आदि आचार्य परम्परासे आकर, गुणधराचार्यको प्राप्त होकर वहां गाथा - रूपसे परिणमन करके पुनः आर्यमक्षु और नागहस्ती आचार्य के द्वारा आचार्य यतिवृषभको प्राप्त होकर उक्त चूर्णिसूत्ररूप से परिणत हुई दिव्यध्वनिरूपी किरण से जाना जाता है ।
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गा० २२) अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३८९ हाणाणि बंधसमुप्पत्तियहाणेहिंतो असंखेजगुणाणि । को गुणगारो? असंखेज्जा लोगा। बंधसमुप्पत्तियहाणाणि अंगुलस्स असंखे०भागेणोवट्टिय लद्धे असंखे०लोगेण गुणिदे हदसमुप्पत्तियहाणाणंप माणुप्पत्तीदो ।
ये हतसमुत्पत्तिक स्थान बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। यहाँ पर गुणकारका प्रमाण क्या है ? असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंको अंगुलके असंख्यातवें भागसे भाजित करके जो लब्ध आता है उसे असंख्यात लोकसे गुणित करने पर हतसमुत्पत्तिक स्थानोंकी संख्या उत्पन्न होती है।
विशेषार्थ-बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करके हतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं। जो अनुभागस्थान बन्धसे उत्पन्न होते हैं उन्हें बन्धसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। सलामें स्थित अनुभागका घात करनेपर जो स्थान उत्पन्न होते हैं उनमेंसे भी कुछ स्थान बध्यमान अनुभाग स्थानके समान होते हैं वे बन्धसमुत्पत्तिक स्थान कहे जाते हैं। किन्तु जो अनुभागस्थान घातसे ही उत्पन्न होते हैं बन्धसे उत्पन्न नहीं होते उन्हें हतसमुत्पत्तिकस्थान कहते हैं। ये हतसमुत्पत्तिक स्थान बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यातगुणे होते हैं। उनका कथन इस प्रकार है-सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य अनुभागस्थानसे लेकर उत्कृष्ट अनुभागस्थान तकके असंख्यात लोकप्रमाण वन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंकी एक पंक्ति दाहिनी ओर रक्खो और बन्ध स्थानोंके अनुभागका घात करने में कारण, जघन्य परिणामस्थानसे लेकर उत्कृष्ट परिणाम स्थान तकके जो असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम हैं, उन्हें बाईं ओर रखो । एक जीवने सर्वोत्कृष्ट घातपरिणामस्थानके द्वारा उत्कृष्ट अनुभागबन्धस्थानका घात किया। ऐसा करनेसे अन्तिम अनन्तगुणवृद्धि स्थान रूप अष्टांक और उससे अनन्तरवर्ती नीचेके उर्वक इन दोनोंके बीचमें हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है जो कि उस अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन और उक्त उर्वकसे अनन्तगुणा अनुभागवाला होता है। यह समुत्पत्तिकस्थान सबसे जघन्य होता है. क्योंकि सर्वत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा घाता जाकर उत्पन्न होता है। दसरे एक जीवने उत्कृष्ट विशद्धिस्थान से नीचे के द्विचरिम विशुद्धिस्थानके द्वारा ऊपरके उर्वकका घात किया । ऐसा करने पर अष्टांक और उर्वकके बीचमें पहलेके उत्पन्न हुए हतसमुत्पत्तिकस्थानसे ऊपर दूसरा हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। यह स्थान पहलेके जघन्य स्थानसे अनन्तवें भागप्रमाण अधिक है। अथात् अभव्यराशिसे अनन्तगुणे औरसिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण भागहारसे जघन्य हतसमुत्पत्तिकस्थानमें भाग देने,पर जो लब्ध आये उसे उसी जघन्य स्थानमें जोड़ देनेपर दुसरा अनुभागस्थान होता है। पहले बन्धस्थानमें भागहार और गुणकार अनन्तप्रमाण सर्व जीवराशि बतला आये हैं और वहां हतसमुत्पत्तिकस्थानमें उसका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भागप्रमाण बतलाया है । इसका कारण यह है कि घातस्थानोंकी उत्पत्तिके कारण जो विशुद्धिस्थान हैं उनमें भी गुणकार और भागहारका प्रमाण अभव्यराशिसे अनन्तगुणा और सिद्धराशिके अनन्तवें भाग ही है, अतः कारणके गुणकार और भागहारसे कार्य जो घातस्थान हैं उनका गुणकार और भागहार जुदा नहीं हो सकता । तथा यदि अनन्तका प्रमाण सर्व जीवराशि ही माना जावे तो उससे घातस्थानको गुणा करनेपर अष्टांकसे अनन्तगुणा घातस्थान होगा, किन्तु अष्टांकसे ऊपर घातस्थानकी उत्पत्तिका निषेध है। सभी घातस्थान अष्टांक और उर्वकके बीचमें उत्पन्न होते हैं ऐसा शास्त्रोंका कथन है। अस्तु, किसी अन्य तीसरे जीवके द्वारा उक्त द्विरिम विशुद्धिस्थानके नीचेके विचरम विशुद्धिस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात किये जानेपर तीसरा हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होता है। शायद कोई कहे कि एक अन्तिम उर्वकसे अनेक हतसमुत्पत्तिक स्थान कैसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[अणुभागविहत्ती ४
उत्पन्न हो सकते हैं तो इसका यह समाधान है कि घातके कारण परिणामोंके भेदसे घात होकर शेष बचे अनुभागमें भेद हो जाता है, अत: घातस्थान अनेक बन जाते हैं। किसी अन्य चौथे जीवके द्वारा उक्त विशुद्धिस्थानके नीचेके चतुश्चरिम विशुद्धिस्थानके द्वारा उक्त अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर चौथा अनन्तभागवृद्धि युक्त घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार पंचचरिम, और षट्चरिम आदि विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात करते करते तब तक हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न करने चाहिये जब तक सर्व जघन्य विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात हो। इस प्रकार असंख्यात लोक षट्स्थानप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम वकको लेकर अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच में हतसमुत्पत्तिकस्थान इतने ही उत्पन्न होते है अधिक नहीं,क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इन स्थानोंकी उत्पत्ति के कारण हैं -छह प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए विशुद्धिस्थान। उनसे विशुद्धिस्थानप्रमाण ही स्थान उत्पन्न होते हैं। इसके बाद अन्तिम विशुद्धस्थानके द्वारा अन्तिम द्विचरम उर्वकका घात किये जाने पर सर्व जघन्य स्थानसे नीचे अनन्तभागहीन होकर दूसरा अपुनरुक्त हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। ऊपरके स्थानको रूपाधिक सर्व जीवराशिसे भाजित करनेपर जो लब्ध आता है उतना यह स्थान ऊपरके स्थानसे हीन होता है, क्योंकि उत्कृष्ट उकसे द्विचरम उर्वक भी इतना ही हीन है और दोनोंका घात समान परिणामके द्वारा हुआ है अतः इससे जो स्थान उत्पन्न होते हैं, उनमें भी उतना ही अन्तर होना चाहिये । पुन: द्विचरम परिणामके द्वारा उसी द्विचरम उर्वकका घात किये जानेपर दूसरा घातस्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि विशुद्धिस्थानोंसे द्विचरम उर्वकका घात करनेपर परिणामों के बराबर ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं। यह घातस्थानोंकी दूसरी पंक्ति हुई। इसी प्रकार उक्त परिणामस्थानोंके द्वारा त्रिचरम उर्वक, चतुश्चरम उर्वंक, पंचचरम उर्वक आदि उक्कोंका घात कर करके घातस्थानों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि पंक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट आदि सब परिणामोंके द्वारा शेष बन्धस्थानोंका भी घात करके घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। ऐसा करनेसे घातस्थानोंकी चौड़ाई षटस्थानप्रमाण और लम्बाई विशुद्धिस्थानप्रमाण होती है। इस प्रकर उत्पन्न हुए सब स्थान अपुनरुक्त ही होते हैं, क्योंकि उनमें समानता होनेका कोई कारण ही नहीं है। यथा-पहली पंक्तिके पहले स्थानमें रूपाधिक सर्व जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना उस स्थानसे दूसरी पंक्तिका पहला स्थान हीन है और दूसरी पंक्तिके पहले स्थानमें अभव्य राशिसे अनन्तगुणे या सिद्धराशिके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना दूसरी पंक्तिके पहले स्थानसे दूसरा स्थान अधिक है। इस प्रकार सभी पंक्तियोंके दूसरे स्थान परस्परमें असमान हैं। इसीसे सभी पंक्तियोंके सब स्थानोंमें असमानताका विचार कर लेना चाहिये। अब द्विचरम अष्टांकसे नीचे और उसके अनन्तरवर्ती नीचेके उर्वकसे ऊपर दोनों बन्धस्थानोंके बीचमें उत्पन्न होनेवाले घातस्थानोंको कहते हैं। एक जीवने उत्कृष्ट परिणामके द्वारा एक षट्स्थानहीन उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात किया। ऐसा करनेसे द्विचरम अष्टांकसे नीचे अनन्तगुणा हीन होकर और उसीके नीचे के उर्वकसे ऊपर अनन्तगुणा होकर हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है । पुनः द्विचरम परिणामस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करने पर दूसरा अनन्तभागवृद्धि युक्त घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार यहाँ पर भी पहले विधानके अनुसार त्रिचरम आदि विशुद्धिस्थानोंके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करके परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। फिर अन्तिम परिणामके द्वारा द्विचरम बन्धस्थानका घात करने पर अन्य घातस्थान उत्पन्न होता है जो पहलेके जघन्य स्थानसे अनन्तगुणा हीन होता है। पुनः द्विचरम परिणामके द्वारा
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गा० २२]
भागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
ॐ हृदहदसमुप्पत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि ।
$ ६२१. एवं घादद्वाणपरूवणं काढूण संपहि हद हदसमुत्पत्तियद्वाणाणं परूवणं कस्साम । तं जहा — पुव्वविहाणेण जहण्ण विसोहिद्वाणप्पहुडि जाव उक्कस्स विसोहिडाणे त्ति ताव एदासिमसंखेज्जलोगमेत्तघा दहेदुविसोहिछडाणाणमेगसेढिआगारेण रयणं का पुणो देसि दक्खिणपासे मुहुमणिगोदअपज्जत्तजहण्णाणुभागबंधद्वाणप्प हुडि असंखेज्जलो गमेत्तबंध समुप्पत्तियद्वाणाणं च एगसेढिआगारेण रचणं काढूण पुणो मुहुमणिगोद अपज्जत्तजहण्णद्वाणादो उवरि संखेज्जहारण अट्ठ कुब्वं कारणमंतराणि मोत्तू सेसासेसछद्वाणाणमदृ'कुव्वंकाणं विच्चाले असंखे०लोगमेत्ताणं हदसमुत्पत्तियद्वा गाणं च पादेकमेगसेढियागारेण रचणं काऊण पुणो चरिमबंध समुप्पत्तियअट्ठ' कुव्वंकाणं विच्चालिमअसंखे०लोगमेत्तहदसमुप्पत्तियछद्वाणाणं च पादेक मेग चरिमउव्वंके उकस्स
उसी द्विचरम बन्धस्थानका घात करने पर अन्य घातस्थान उत्पन्न होता है जो पहले के स्थान से अनन्तवें भागप्रमाण अधिक होता है । इस प्रकार सब परिणामोंके द्वारा द्विचरम, त्रिचरम आदि अनुभागबन्धस्थानोंका घात करके अष्टांक और उर्वकके बीच में घातस्थानोंकी षट्स्थान पंक्तियाँ उत्पन्न करनी चाहिये | इस प्रकार द्विचरम अष्ट्रांक और उससे नीचे के उर्वकके बीच में घातस्थानोंका कथन किया । अब दो षट्स्थानहीन अनुभागबन्धस्थानका घात करके त्रिचरम अष्टक और उससे नीचे के उर्वकके बीच में घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। ऐसा करनेसे त्रिचरम अष्टक और उर्वकके बीच में उत्पन्न होनेवाले असंख्यात लोकप्रमारण षट्स्थानोंका कथन समात होता है । इसी प्रकार चतुश्चरम, पंचचरम आदि असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थान सम्बन्धी अष्टक और उर्वकोंके बीच में पूर्व-पश्चिम लम्बा और दक्षिण-उत्तर चौड़ा . असंख्यात लोकमात्र घातस्थानोंका पटल उत्पन्न होता है। सूक्ष्म निगोदिया पर्याप्त के जघन्य स्थानके ऊपर संख्यात बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंको छोड़कर ऊपरके असंख्यात लाकप्रमाण अष्टांक और उर्वरकों के अन्तरालों में ये घातस्थान उत्पन्न होते हैं, सबमें नहीं । और यह बात इसी कसायपाहुडके अनुभागसंक्रम नामक प्रकरण में आये हुए चूर्णिसूत्रोंसे जानी जाती है। इस प्रकार हतसमुत्पत्तिकस्थानों का कथन जानना चाहिये ।
* हतहतसमुत्पत्तिकस्थान असंख्यातगुणे हैं ।
६ ६६९. इस प्रकार घातस्थानोंका कथन करके अब हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है - पहले कही गई विधि के अनुसार जघन्य विशुद्धिस्थान से लेकर उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान पर्यन्त घातके कारण इन असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धि युक्त पदस्थानोंकी एक पंक्ति के रूपमें रचना करो । पुनः उनके दक्षिण भाग में सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्त कके जघन्य अनुभागबन्धस्थान से लेकर असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिकस्थानों की एक पंक्तिके रूपमें रचना करो । पुनः सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तकके जघन्य स्थानसे ऊपर संख्यात षट्स्थानोंके अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालों को छोड़कर बाकी सब पदस्थानोंके अष्टांक और उर्वकों के प्रत्येक अन्तराल में असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी एक पंक्तिके रूपमें रचना करो । पुनः अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिक अष्टांक और उर्वकके मध्यवर्ती असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक षट्स्थानोंके प्रत्येक एक उर्वकका उत्कृष्ट परिणामस्थानसे घात किये जाने पर,
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ परिणामहाणेण घादिदे चरिमअकादो हेहा अणंतगुणहीणं तस्सेव हेटिमउव्वंकटाणादो अणंतगुणं होदण दोण्हं पि अंतरे पढम हदहदसमुप्पत्तियहाणमुप्पजिदि । पुणो अणंतभागहीणदुचरिमविसोहिहाणेण तम्मि चेव उक्कस्साणुभागे धादिदे पुचुप्पण्णहाणादो उवरि अगंतभागब्भहियं होदृण विदियं हदहदसमुप्पत्तियहाणमुप्पज्जदि । एवं जत्तियाणि विसोहिहाणाणि अत्थि तेहि सव्वेहि वि णाणाजीवे अस्सिदण चरिमउव्वंके घादिदे चरिमअहकुव्वंकाणं विच्चाले परिणामहाणमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पजंति । पुणो सव्वविसोहिहाणेहि दुचरिमउव्वंके घादिदे सव्वजहण्णहदहदसमुप्पत्तियहाणादो हेहा अणंतभागहीणहाणमादि कादण विसोहिहाणमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पजति । एवं तिरूवणछहाणमंतरतिचरिमादिसव्वहाणेसु परिवाडीए सव्वविसोहिहाणेहि घादिदेमु विसोहिहाणआयामरूवणछहाणविक्खंभमेत्ताणि हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पण्णाणि होति । एवं दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमादिअहकव्वंकाणं विच्चालेसु हदहदसमुप्पत्तियहाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव सव्वहदसमुप्पत्तियअहकव्वंकाणं विच्चालेसुप्पण्णाणि ति । एवं चरिमबंधसमुप्पत्तियअडकव्वंकाणमंतरे अवहिदअसंखेजलोगमेत्तहदसमुप्पत्तियहाणाणमसंखेजलोगमेत्त अढकुव्वंकाणं विच्चालेसु रूवणछहाणविक्खंभाणि विसोहिहाणायदाणि हदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणि समुप्पण्णाणि होति । पुणो पच्छाणुपुबीए ओदरिदूण वंधसमुप्पत्तियदुचरिमअकुव्वंकाणमंतरे अवहिदअसंखेन्जलोगमेत्तहदसमुप्पत्तियछटाणाणमहकुव्वंकाणं विच्चालेसु सव्वेसु चरम अष्टांकसे नीचे अनन्तगुणा हीन और उसीके नीचेके उर्वक स्थानसे अनन्तगुणा होकर दोनोंके बीच में पहला हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। पुनः अनन्तभागहीन द्विचरम विशुद्धिस्थानसे उसी उत्कृष्ट अनुभागके घाते जानेपर पूर्व उत्पन्न हुए स्थानसे उपर अनन्तभागवृद्धिको लिए हुए दूसरा हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा जितने विशुद्धिस्थान हैं उन सभीसे अन्तिम उर्वकका घात किये जानेपर अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच में परिणामस्थानोंकी संख्याके बरावर ही हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते है । पुनः सब विशुद्धिस्थानोंसे द्विचरम उर्वकका घात किये जानेपर सबसे जघन्य हतहतसमुत्पत्तिकस्थानसे नीचे अनन्तभागहीन स्थानसे लेकर विशुद्धिस्थानोंकी संख्याके बराबर हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार तीन कम षट्स्थानोंके अन्तर्वर्ती त्रिचरम आदि सव स्थानोंके एक एक करके सर्वविशुद्धिस्थानोंके द्वारा घाते जाने पर विशुद्धिस्थान प्रमाण लम्बे और एक कम षट्स्थानप्रमाण चौड़े हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते है। इस प्रकार द्विचरम, त्रिचरम, चतु:चरम आदि अष्टांक और उर्वकके बीचमें तब तक हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न करने चाहिये जब तक सब हतसमुत्पत्तिक स्थानसम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोके बीचमें स्थान उत्पन्न हों। इस प्रकार अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिकस्थानसम्बन्धी अष्टांक और उर्वकके बीच में स्थित असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानोंके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें एक कम षट् स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे हतहतसमुत्पत्तिकस्थान प्रतर उत्पन्न होते हैं। पुन: क्रमसे पश्चादानुपूर्वीसे उतर कर, बन्धसमुत्पत्तिकस्थानसम्बन्धी द्विचरम अष्टांक और उर्वकके बीचमें स्थित असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानसम्बन्धी सब अष्टांक
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गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए हाणपरूवणा
३९३ वि रूवणबहाणविक्वंभविसोहिपमाणायदहदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणि एवं चे उप्पादेदव्वाणि । पुणो हेटा श्रोसरिदूण बंधसमुप्पत्तियतिचरिमअकुव्वंकाणमंतरे अवहिदरूवूणछटाणविक्खंभविसोहिहाणपमाणायदहदसमुप्पत्तियहाणपदरस्स असंखेजलोगमेत्तअडकव्वंकाणं विच्चालेसु रूवृणछट्टाणविक्खंभविसोहिहाणपमाणायदहदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणि वि एवं चेव उप्पादेदव्वाणि । एवं बंधसमुप्पत्तियचदुचरिमअकुव्वंकाणमंतरमादि कादूण हेहा अप्पडिसिद्धबंधसमुप्पत्तियअकुव्वंकंतरमंतं कादूण अवहिदसव्वअटकुब्वंकाणमंतरेसु रूवणछटाणविक्खंभेण विसोहिहाणायामेण संहिदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणमसंखेजलोगमेत्तअटकुव्वंकंतरेसु रूवृणछट्ठाणविक्खंभविसोहिडाणायदहदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणि अव्वामोहेण उप्पादेदव्वाणि । जहा बंधसमुप्पत्तियहाणाणं हेहिमसंखेज्जकव्वंकाणमंतरेसु घादहाणाणं पडिसेहो कदो तहा एत्थ हेहिमसंखेजाणं घादहाण कुव्वंकाणमंतरेसु घादघादहाणाणि ण उप्पजति त्ति पडिसेहो ण कायबो, बंधहाणेसु पवत्तणसहावस्स पडिसेहस्स घादहाणेसु पउत्तिविरोहादो।
एवं हदहदसमुप्पत्तियहाणपरूवणा कदा ।
और उर्वकोंके बीचमें, एक कम षट्स्थानप्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे हतहतसमुत्पत्तिकस्थानरूपी प्रतर इसी प्रकार उत्पन्न करने चाहिये। पुनः नीचेकी ओर उतर कर बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसम्बन्धी त्रिचरम अष्टांक और उर्वकके बीचमें स्थित एक कम षट्स्थानप्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे हतसमुत्पत्तिकस्थानरूपी प्रतरके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें एक कम षटस्थानप्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानरमाण लम्बे हतहतसमुत्पत्तिकस्थानों के प्रतर भी इसी प्रकार उत्पन्न करने चाहिये। इस प्रकार बन्धसमुत्पत्तिकस्थानसम्बन्धी चतु:चरम अष्टांक और उर्वकके अन्तरसे लेकर नीचे अप्रतिसिद्ध बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसम्बन्धा अष्टांक और उर्वकके अन्तर पर्यन्त अष्टांक और उर्वकके सब अन्तरालोंमें एक कम षट्स्थान प्रम ण चौड़े और विशुद्विस्थान प्रमाण लम्बे जो हतसमुत्पत्तिकस्थानरूपी प्रतर स्थित हैं उनके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें एक कम षट्स्थानप्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे हतहतसमुत्पत्तिकरथानोंके प्रतर भ्रान्ति रहित होकर उत्पन्न करने चाहिये। जैसे बन्धसमुत्पत्तिकस्थानोंके नीचेके संख्यात अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालमें घातस्थानों के होनेका निषेध किया है वैसे ही यहां नीचेके संख्यात घातस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें घातघातस्थान नहीं उत्पन्न होते हैं ऐसा निषेध नहीं करना चाहिये, क्योंकि जिस प्रतिषेधकी प्रवृत्ति स्वभावसे ही बन्धस्थानोंमें होती है उसकी घातस्थानोंमें प्रवृत्ति हानेमें विरोध आता है। अर्थात् घातस्थानोंके सब अष्टांक और उर्वक सम्बन्धी अन्तरालोंमें घातघातस्थान उत्पन्न करने चाहिये।
विशेषार्थ-अब हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं। जघन्य विशुद्विस्थानसे लेकर उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान पर्यन्त असंख्यात लोकप्रमाण जो विशुद्धिस्थान घाते गये अनुभागसे शेष बचे अनुभागके घातके कारण हैं उनकी एक पंक्ति रूपसे रचना करो और उनकी दाहिनी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ६४३. संपहि तदियवारहदहदसमुप्पत्तियहाणाणं परूवणं कस्सामो । बंधसमुप्पत्तियचरिमअकुव्वंकाणं विच्चाले संहिदरूवणछटाणविक्खंभविसोहिहाणपमाणायदहदसमुप्पत्तियहाणपदरस्स असंखेजलोगमेत्तअहकुव्वंकाणं विच्चालेसु रूवणछट्ठाणविक्खंभेण विसोहिहाणपमाणायमेण अवहिदअसंखेजलोगमेत्तहदहदसमुप्पत्तियहाणपदराणमसंखेजलोगमेत्तअहंकुव्वंकाणं विच्चालेसु रूवृणछहाणविक्खंभविसोहिहाणपमा
ओर सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानोंकी एक पंक्ति रूपसे रचना करो। फिर सूक्ष्म निगोदिया अपर्याप्तकके जघन्य स्थानसे ऊपरके संख्यात षट्स्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंको छोड़कर उसके बादके असंख्यात लोकप्रमाण बन्धसमुत्पत्तिक स्थानसम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी रचना करो । अब अन्तिम बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकोंके बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण हतसमुत्पत्तिक षस्थान सम्बन्धी अन्तिम उर्वकका उत्कृष्ट परिणामसे घात करने पर अष्टांक और उर्वकके बीच में पहला हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होता है जो अष्टांकसे अनन्तगुणा हीन होता है और उसके नीचेके उर्वकसे अनन्तगुणा होता है। पुन: उत्कृष्ट परिणामसे अनन्तगुणे हीन द्विचरम परिणामस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करने पर दूसरा हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होता है। यह स्थान पहले स्थानसे अनन्तवें भाग अधिक अनुभागवाला होता है, क्योंकि पहलेके विशुद्धिस्थानसे अनन्तवें भाग हीन दूसरे विशुद्धिस्थानके द्वारा घाता गया है । इस प्रकार जितनी जितनी हानिसे युक्त परिणाम स्थानके द्वारा अन्तिम वकका घात किया जाता है उतने उतने अधिक अनुभागवाला हहहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार करने पर अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीचमें परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होते हैं। पुन: उत्कृष्ट परिणामस्थानके द्वारा द्विचरम उवकका घात करने पर दूसरी पंक्तिका पहला हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होता है। यह स्थान सबसे जघन्य हतहतसमुत्पत्तिकस्थानसे अनन्तवें भाग हीन होता है । इस प्रकार इस अनुभागस्थानका घात करके परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर हतहतसमुत्पत्तिक स्थान पहले की तरह उत्पन्न कर लेने चाहिये । पुन: उसी उत्कृष्ट परिणामस्थानके द्वारा त्रिचरम उर्वकका घात करने पर दूसरी पंक्तिके जघन्य स्थानसे अनन्तवें भाग हीन तीसरी पंक्तिका पहला स्थान होता है। इस प्रकार इस पंक्तिमें भी परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर ही हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न होते हैं। इस तरह द्विचरम आदि हतसमत्पत्तिक स्थानोंको क्रमसे घात कर परिणामस्थान प्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं। इन स्थानोंका पटल भी षट्स्थान प्रमाण चौड़ा और परिणामस्थान प्रमाण लम्बा होता है।
इस प्रकार हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन किया। ६६२५. अब तीसरी बार हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंका कथन करते हैं। बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच स्थित, एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थान प्रमाण लम्बे हतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी प्रतरके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके बीच में एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थान प्रमाण लम्बे रूपसे स्थित असंख्यातप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थानरूप प्रतरोंके असंख्यात लोकप्रमाण अष्टांक और उर्वकोंके अन्तरालोंमें एक कम षट्स्थान प्रमाण चौड़े और विशुद्धिस्थानप्रमाण लम्बे
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गा० २२ ]
अणुभागविहत्तीए द्वाणपरूवणा
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णायद हद हदसमुप्पत्तियद्वाणपदरा रामसंखेज्जलोगमेत्ता समुप्पत्ती परूवेदव्वा । एवं सेसबंध समुपपत्तिः कुव्वंकाणं विच्चाले द्विदहदसमुप्पत्तियद्वाणाणि घादिय घादट्ठाणाणं परूवणाए कदाए घादट्ठाणाणं तदियपरिवाडीए परूवणा समत्ता होदि । एवमुप्पण्णुप्पण्णघाहा कुकाणं विच्चाले घादद्वाणाणि ताव उप्पादेदव्वाणि जाव संखेज्जाओ परिवाडीओ गदाओ ति । एत्तो उवरि घादद्वाणाणि ण उप्पज्जति त्ति तं कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो । एदाणि सव्वहदहदसमुप्पत्तियद्वाणाणि हदसमुप्पत्तियट्ठाणेहिंतो असंखेज्जगुणाणि । को गुणगारो ? असंखेज्जा लोगा । एवं मिच्छत्तस्स द्वाणपरूवणा कदा |
असंख्यात लोकप्रमाण हतहत समुत्पत्तिकस्थानरूपी प्रतरोंकी उत्पतिका कथन करना चाहिये । इस प्रकार शेष बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बधी अष्टांक और उर्वकों के बीच में स्थित हतसमुपत्तिकस्थानों का घात करके घातस्थानोंकी प्ररूपणा करने पर तीसरी परिपादीसे घातस्थानोंका कथन समाप्त होता है । इस प्रकार पुन: पुन: उत्पन्न हुए घातस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वरकों के बीच में तब तक घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये जब तक संख्यात परिपाटियां समाप्त हों
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शंका-संख्यात परिपाटियां समाप्त होनेपर घातस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं यह कैसे जाना जाता है ।
समाधान-सूत्र के अविरूद्ध आचार्य वचनोंसे जाना जाता है ।
ये सब हतहतसमुत्पत्तिकस्थान हतसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यातगुणे हैं । गुणकारका प्रमाण क्या है ? असंख्यात लोक है । अर्थात् हतहतसमुत्पत्तिकस्थान हतसमुत्पत्तिकस्थानोंसे असंख्यात लोकगुणे हैं । इस प्रकार मिथ्यात्व प्रकृतिके स्थानोंका कथन किया ।
विशेषार्थ - अब हतहतसमुत्पत्तिक स्थानोंका कथन दूसरी परिपाटीसे करते है । बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच में असंख्यात लोकप्रमाण इतसमुत्पत्तिस्थान होते हैं । तथा हतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम अष्टक और के बीचमें असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। प्रथम परिपाटी से उत्पन्न हतहतसमुत्पत्तिक स्थान सम्बन्धी अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीचमें दूसरी परिपाटीसे असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं । इसी प्रकार इन्हीं स्थानोंके द्विचरम, त्रिचरम, चतुश्चरम, पंचचरम आदि हतहतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्व॑कोंके बीच में दूसरी परिपाटी से असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न करने चाहिये। इस प्रकार प्रथम परिपाटी से उत्पन्न हुए हतहतसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकों के बीच में दूसरी परिपाटी से हतहतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न करने चाहिये । ऐसा करने से हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी दूसरी परिपाटी समाप्त होती है। दूसरी परिपाटी से उत्पन्न हुए हतहतसमुपत्तिस्थान सम्बन्ध अष्टांक और उर्वकोंके बीचमें फिर भी असंख्यात लोकप्रमाण हतहतसमुत्पत्तिकस्थानों को तीसरी परिपाटीसे उत्पन्न करने पर हतहतसमुत्पत्तिकस्थानोंकी तीसरी परिपाटी समाप्त होती है । इस प्रकार अनन्तर उत्पन्न हुए अष्टांक और उर्वरकों के बीच में तब तक घातघातस्थान उत्पन्न करने चाहिये जब तक संख्यात परिपाटियां हों । किन्तु अन्तिम घातघातस्थान सम्बन्धी अष्टांक और उर्वकों के बीच में घातघातस्थान उत्पन्न नहीं होते हैं, क्योंकि सबसे अन्तिम घातघातस्थानोंका घात नहीं होता । और यह बात आचार्य बचनोंसे जानी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुढे [ भणुभागविहत्ती ४ * सोलसकसाय-णवणोकसायाणं मिच्छत्तस्सेव तिविहा हाणपरूवणा कायव्वा ।
६६४३. विसेसाभावादो।
६४४. संपहि एदेण मुत्तेण देसामासिएण सूचिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-लदासमाणजहण्णफद्दयप्पहुडि जाव दारुसमाणदेसघादि उक्कस्सफद्दए ति ताव एदाणि अभवसिद्धिएहि अणंतगुण-सिद्धाणमणंतिमभागमेत्तफद्दयाणि घेत्तूण सम्मत्तस्स एगमुक्कस्साणुभागहाणं होदि । पुणो अपुव्वकरणे पढमाणुभागखंडए घादिदे विदियमणुभागहाणं होदि। एवं पढमाणुभागकंडयप्पहुडि जाव अहवस्समेतहिदिसंतकम्मं चेहदि ति ताव एदम्मि अंतरे अणुभागकंडयघादमस्सिदूण संखेज्जसहस्साणुभागहाणाणि लब्भंति, दुचरिमादिफालीओ अस्सिदण अणुभागहाणुप्पत्तीए अभावादो । पुणो अहवस्सहिदिसंतकम्मप्पहुडि जाव एगा हिदी एगसमयकाला ताव एदम्मि अंतरे अंतोमुहत्तमेत्ताणि अणुभागहाणाणि लब्भंति, सम्मत्तस्स एत्थ अणुसमयओवट्टणाए उवलंभादो । का अणुसमयओवट्टणा ? उदय-उदयावलियासु पविस्समाणहिदीणमणुभागस्स उदयावलियबाहिरहिदीणमणुभागस्स य समयं
ده بی بی بی سی جی ام سي ج
जाती है कि घातस्थानोंकी संख्यात परिपाटियाँ बीत जाने पर सबसे अन्तमें घातसे जो अनुभाग शेष रहता है उसका पुनः घात नहीं होता। इस प्रकार सबसे थोड़े बन्धसमुत्पत्तिकस्थान हैं, उनसे असंख्यातगुणे हतसमुत्पत्तिकस्थान हैं और उनसे भी असंख्यातगुणे हतहतसमुत्पत्तिक स्थान होते हैं। ये स्थान मिथ्यात्व प्रकृतिके अनुभागको लेकर कहे गये हैं।
* सोलह कषाय और नव नोकषायोंके तीन प्रकारके स्थानोंका कथन मिथ्यात्वकी ही तरह करना चाहिये ।
१६२६. क्योंकि दोनोंके कथनमें कोई भेद नहीं है।
६.६२७. अब इस सूत्रके द्वारा देशामर्शकरूपसे सूचित सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंके स्थानोंका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है - लतासमान जघन्य स्पर्धकसे दारु समान उत्कृष्ट देशघाती स्पर्धक पर्यन्त अभव्यराशिसे अनन्तगुणे और सिद्धराशिके अनन्तवेंभाग मात्र स्पर्धकोंको लेकर सम्यक्त्व प्रकृतिका एक उत्कृष्ट अनुभागस्थान होता है। पुन: अपूर्वकरणमें प्रथम अनुभागकाण्डकका घात किये जाने पर दूसरा अनुभागस्थान होता है। इस प्रकार प्रथम अनुभागकाण्डकसे लेकर जब तक आठ वर्ष प्रमाण स्थितिकी सत्ता रहती है तब तक इस अन्तरमें अनुभागकाण्डकघातकी अपेक्षा संख्यात हजार अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं। क्योंकि द्विचरम आदि फालियोंकी अपेक्षा अनुभागस्थानकी उत्पत्ति नहीं होती। पुनः
आठ वर्षप्रमाण स्थितिसत्कर्मसे लेकर जब तक एक समयकी स्थिति रहती है तब तक इस अन्तरमें अन्तर्मुहूर्त मात्र अनुभागस्थान प्राप्त होते हैं, क्योंकि यहां सम्यक्त्व प्रकृतिकी प्रति समय अपवर्तना पाई जाती है।
शंका-प्रति समय अपवर्तना किसे कहते हैं ? समाधान-उदय और उद्यावलिमें प्रवेश करनेवाली स्थितियोंके अनुभागका तथा
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गा० २२ ]
भागवित्तीए द्वापरूवणा
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पडि अनंतगुणहीणकमेण घादो | एवं सम्मत्तस्स अंतोमुहुत्तमेताणि चेव अणुभागणाणि होति । मिच्छत्ताणुभागे पढमसमयउवसमसम्मादिद्विम्मि असंखेज्जलोगमेत्तपरिणामेहि सम्मत्तसरूवेण संकामिज्जमाणे असंखेज्जलोगमेत्तद्वाणाणि सम्मत्तस्स किण्ण लब्भंति ? ण, तत्थ अणुभागविसेसुप्पत्तिणिमित्तपरिणामाणमभावादो । तं पि कुदो वदे ? सम्मत्तस्स अंतोमुहुत्ताणि चैव अणुभागद्वाणाणि होति त्ति भनंताइरिएहिंतो । सम्माइहिम्मि मिच्छत्ते सम्मत्तस्सुवरि संकममाणे अणुभागहाणाणं वियप्पा किण्ण लब्भंति ? ण, मिच्छत्ताणुभागे सम्मत्ताणुभागसरूवेण परिणममाणे पोराणाणुभागं मोत्तूण अणुभागवडिहाणीणमणुवलंभादो । एवं सम्मामिच्छत्तस्स वि वत्तव्वं । णवरि एदस्स संखेज्ज सहरसमेत्ताणि चैव अणुभागहाणाणि होंति । कंडयघादेण विणा अणुसमयhare अणुभागहाणाणमणुवलंभादो ।
एवमणुभागे त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूवणा समत्ता ।
उदयावलि से बाहर की स्थितियोंके अनुभागका जो प्रतिसमय अनन्तगुणहीन क्रमसे घात होता है उसे प्रतिसमय अपवर्तना कहते हैं ।
इस प्रकार' सम्यक्त्व प्रकृति के अन्तर्मुहूर्तमात्र ही अनुभागस्थान होते हैं ।
शंका-उपशम सम्यग्दृष्टि के प्रथम समय में असंख्यात लोकमात्र परिणामोंके द्वारा मिध्यात्वका अनुभाग सम्यक्त्व प्रकृतिरूपसे संक्रमण करता है। ऐसी अवस्था में सम्यक्त्वके असंख्यात लोकमात्र स्थान क्यों नहीं होते ?
समाधान- नहीं, क्योंकि उस समय अनुभागविशेषकी उत्पत्ति निमित्तभूत परिणाम नहीं होते ।
शंका- यह कैसे जाना ?
समाधान- सम्यक्त्व प्रकृतिके अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही अनुभागस्थान होते हैं ऐसा कथन करने वाले आचार्यों से जाना ।
शंका-सम्यग्दृष्टि के मिध्यात्वका सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमण होने पर अनुभागस्थानों के विकल्प क्यों नहीं पाये जाते ।
समाधान- नहीं, क्योंकि मिध्यात्वके अनुभाग के सम्यक्त्वके अनुभागरूपसे परिणमन करने पर पुराने अनुभागको छोड़ कर अनुभागकी वृद्धि अथवा हानि नहीं पाई जाती है । अर्थात् पुराना ही अनुभाग रहता है, न वह घटता है और न बढ़ता है ।
इसी प्रकार सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भी कथन करना चाहिये । इतना विशेष है कि सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के संख्यात हजारमात्र ही अनुभागस्थान होते हैं, क्योंकि काण्डकघात के बिना प्रतिसमय अपवतनाके द्वारा अनुभागस्थान नहीं होते हैं ।
इस प्रकार गाथामें आये हुए 'अनुभाग' पदका व्याख्यान समाप्त हुआ । अनुभागविभक्ति समाप्त ।
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अणुभागविहत्ती समत्ता
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१ अणुभागविहत्तिचुण्णिसुत्ताणि .. 'एत्तो अणुभागविहत्ती दुविहा-मूलपयडिअणुभागविहत्ती चेव उत्तरपयडिअणुभागविहत्ती चेव । एत्तो मूलपयडिअणुभागविहत्ती भाणिदव्वा ।
उत्तरपयडिअणुभागविहत्तिं वत्तइस्सामो । पुव्वं गमणिज्जा इमा परूवणा । सम्मत्तस्स पढमं देसघादिफद्दयमादि कादण जाव चरिमदेसघादिफदगं ति एदाणि फद्दयाणि । सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादिआदिफद्दयमादि कादण दारुअसमाणस्स अणंतभागे णिहिदं । मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जम्मि सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्म णिहिदं तदो अणंतरफद्दयमाढत्ता उवरि अप्पडिसिद्ध । बारसकसायाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादीणं दुहाणियमादिफद्दयमादि कादूण उवरिमप्पडिसिद्धं । चदुसंजलण-णवणोकसायाणमणुभागसंतकम्म देसघादीणमादिफद्दयमादि कादूर्ण उवरि सव्वघादि ति अप्पडिसिद्ध।
'तत्थ दुविधा सण्णा–धादिसण्णा हाणसण्णा च । "ताओ दो वि एकदो गिजंति । मिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं जहएणयं सव्वघादी दुढाणियं । उकस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चदुहाणियं । एवं बारसकसाय-छण्णोकसायाणं । "सम्मत्तस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादी एगहाणियं वा दुढाणियं वा । "सम्मामिच्छत्तस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादी दुहाणियं । एक्कं चेव हाणं । "चदुसंजलणाणमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी वा देसघादी वा एगहाणियं वा दुहाणियं वा तिहाणियं वा चउहाणियं वा । इत्थिवेदस्स अणुभागसंतकम्मं सव्वघादी दुहाणियं वा तिहाणियं वा चउहाणियं वा । "मोत्तूण खवगचरिमसमयइत्थिवेदयं उदयणिसेगं । तस्स देसघादी एगढाणियं । "पुरिसवेदस्स अणुभागसंतकम्मं जहण्णयं देसघादी एगहाणियं । "उक्कस्साणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चदुढाणियं । णqसयवेदस्स अणुभागसंतकम्म जहएणयं सव्वघादी दुहाणियं । "उकस्सयमणुभागसंतकम्मं सव्वघादी चउहाणियं । णवरि खवगस्स चरिमसमयणqसयवेदयस्स अणुभागसंतकम्मं देसघादी एगहाणियं ।
(१) पृ०२। (२) पृ० १२६ । (३) पृ० १३० । (४) पृ० १११ । (५) पृ० १३२ । (६) पृ० १३५ । (७) पृ० १३५ । (८) पृ० १३८ । (६)पृ० १४२ । (१०) पृ० १४३ । (११) पृ० १४ । (१२) पृ० १४६ । ( १३) प. १४८ । (१४) पृ० १४६ । (१५) पृ० १५० । (१६) पृ० १५१ ।
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परिसिट्ठाणि ___ 'एगजीवेण सामित्तं । मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागसंतकम्म कस्स ? 'उक्कसाणुभागं बंधिदृण जाव ण हणदि । ताव सो होज एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चरिंदिओ वा असण्णी वा सण्णी वा । 'असंखेज्जवस्साउएसु मणुस्सोववादियदेवेसु च णत्थि । 'एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मं कस्स ? दंसणमोहक्खवगं मोत्तण सव्वस्स उक्कस्सयं ।
'मिच्छत्तस्स जहण्णयमणुभागसंतकम्म कस्स ? सुहुमस्स । 'हदसमुप्पत्तियकम्मेण अवणदरो एइंदिओ वा वेइंदिओ वा तेइंदिओ वा चरिंदिरो वा असण्णी वा सण्णी वा सुहुमो वा बादरो वा पजत्तो वा अपज्जत्तो वा जहण्णाणुभागसंतकम्मिश्रो होदि । “एवमढकसायाणं । सम्मत्तस्स जहएणयमणभागसंतकम्म कस्स ? चरिमसमयअक्खीणदंसणमोहणीयस्स । सम्मामिच्छत्तस्स जहणणयमणभागसंतकम्म कस्स ? अवणिज्जमाणए अपच्छिमे अणुभागकंडए वट्टमाणस्स । 'अणंताणुबंधीणं जहएणयमणुभागसंतकम्म कस्स ? पढमसमयसंजुतस्स ! "कोधसंजलणस्स जहएणयमणभागसंतकम्म कस्स ? खवगस्स चरिमसमयअसंकामयस्स । "एवं माण-मायासंजलणाणं । लोभसंजलणस्स जहएणयमणुभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयसकसायस्स । इत्थिवेदस्स जहएणयमणुभागसंतकम्म कस्स ? खवयस्स चरिमसमयइत्थिवेदयस्स । पुरिसवेदस्स जहएणाणभागसंतकम्म कस्स ? पुरिसवेदेण उवहिदस्स चरिमसमयअसंकामयस्स । “णवंसयवेदयस्स जहएणाणभागसंतकम्मं कस्स ? खवगस्स चरिमसमयणबुंसयवेदयस्स । "छएणोकसायाणं जहएणाणभागसंतकम्म कस्स ? खवगस्स चरिमे अणुभागखंडए वट्टमाणयस्स । ...णिरयगदीए मिच्छत्तस्स जहएणाणुभागसंतकम्मं कस्स ? असणिणस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण आगदस्स जाव हेटा संतकम्मस्स बंधदि ताव । "एवं बारसकसायणवणोकसायाणं । सम्मत्तस्म जहएगाणभागसंतकम्म कस्स ? चरिमसमयअक्रवीणदसणमोहणीयस्स । "सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयं णत्थि । "अणंताणुबंधीणमोघं । एवं सव्वत्थ णेदव्वं ।
"कालाणुगमेण । मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं फालादो होदि ? “जहएणकस्सेण अंतोमुहुत्त । अणुक्कस्साणुभागसंतकम्म केवचिरं कालादो
" - (१) पृ० १५७ । (२) पृ० १५८ । (३) पृ० १५६ । (४) पृ०,१६० । (५) पृ०१६१ । (६) पृ० १६३ । (७) पृ० १६४ । (८) पृ० १६५ । (६) पृ० १६६ । (१०.) १० १६८ ।
(११) पृ० १७१। (१२) पृ० १७२ । (१३) पृ० १७३ । ( १४ ) पृ० १७४ । (१५) पृ० १७५ । ' (१६) पृ० १७७ । (१७) पृ० १७८ । (१८) पृ० १७६ । (१६) पृ० १८५ । (२०) पृ० १८६ ।
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परिसिट्टाणि होदि ? जहण्णेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । 'एवं सोलसकसाय-णवणोकसायाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि १ जहएणेण अंतोमुहुत्तं । 'उक्कस्सेण वेछावहिसागरोवमाणि सादिरेयाणि । 'अणुक्कस्सअणुभागसंतकम्मिओ केचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं ।
"मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि ? 'जहण्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । एवं सम्मामिच्छत्त-अढकसाय-छएणोकसायाणं । सम्मत्त-अणंताणुबंधि-चदुसंजलण-तिएिणवेदाणं जहरणाणुभागसंतकम्मिओ केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ।
'अंतरं । मिच्छत्त-सोलसकसाय-णवणोकसायाणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा । "सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं जहापयडि अंतरं ।
'जहएणाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? मिच्छत्तअढकसायअणंताणुबंधीणं च मोत्तूण सेसाणं णत्थि अंतरं । 'मिच्छत्त-अट्टकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? "जहएणेण अंतोमुहुत्तं । उकस्सेण असंखेज्जा लोगा। अणंताणुबंधीणं जहएणाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहणणेण अंतोमुहुत्तं । "उक्कस्सेण उडवपोग्गलपरिय।
"णाणाजीवेहि भंगविचओ। "तत्थ अहपदं । जे उक्कस्साणुभागविहत्तिया ते अणुक्कस्साणुभागस्स अविहत्तिया । जे अणुक्कस्साणुभागस्स विहत्तिया ते उक्कस्सअणुभागस्स अविहत्तिया । जेसि पयडी अत्थि तेसु पयदं, अकम्मे अव्ववहारो । एदेण अहपदेण। “सव्वे जीवा मिच्छत्तस्स उक्स्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया । "सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च । सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च । अणु कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । सिया विहत्तिया च अविहत्तिओ च । "सिया विहित्तया च अविहत्तिया च । एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया । "एवं तिएण भंगा । अणुक्कस्सअणुभागस्स सिया सव्वे अविहत्तिया । एवं तिषिण भंगा।
(१) पृ० १८७१ (२) पृ० १८८ । (३) पृ० १८६ । (४) पृ० १६२ । (५) पृ०१६३ । (६) पृ० २०१। (७) पृ० २०२। (८) पृ० २०६ । (६) पृ० २०८ । (१०) पृ० २०६ । (११) पृ० २१० । (१२) पृ० २१३ । (१३) पृ० २१४ । ( १४) पृ० २१५ । (१५) १० २१६ । (१६) १० २१७ । (१७ ) पृ० २१८ ।
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परिसिट्टाणि 'णाणाजीवेहि कालो। मिच्छत्तस्स उक्कस्साणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होति ? जहएणेण अंतोमुहुत्तं । उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो। एवं सेसाणं कम्माणं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवज्जाणं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्साणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होंति ? सव्वद्धा।
'मिच्छत्त-अहकसायाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मिया केवचिरं कालादो होति ? सव्वद्धा । सम्मत्त-अणंताणुबंधिचत्तारि-चदुसंजलण--तिवेदाणं जहण्णाणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होति ? जहण्णेण एगसमओ । 'उकस्सेण संखेज्जा समया । गवरि अणंताणुबंधीणमुक्कस्सेण आवलियाए असंखेजदिभागो। सम्मामिच्छत्त-छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागकम्मंसिया केवचिरं कालादो होंति ? जहण्णुकस्सेण अंतोमुहुतं ।
'णाणाजीवेहि अंतरं । मिच्छत्तस्स उकस्साणुभागसंतकम्मंसियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णेण एगसमत्रो। उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। एवं सेसकम्माणं । णवरि सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं णत्थि अंतरं ।
'जहण्णाणुभागकम्मंसियंतरं जाणाजीवेहि। मिच्छत्त-अढकसायाणं णत्थि अंतरं । सम्मत्त--सम्मामिच्छत्त--लोभसंजलण--छण्णोकसायाणं जहण्णाणुभागकम्मंसियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहएणेण एगसमओ। उक्कस्सैण छम्मासा। 'अणंताणुबंधीणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहएणेण एगसमयो । उक्कस्सेण असंखेज्जा लोगा। इत्थि-णqसयवेदजहण्णाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि १ जहरणेण एगसमओ । उकस्सेण संखेज्जाणि वस्साणि। 'तिसंजलणपुरिसवेदाणं जहण्णाणुभागसंतकम्मियाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहएणेण एगसमओ । उक्कस्सेण वस्सं सादिरेयं ।
"अप्पाबहुअमुक्कस्सयं जहा उक्स्सबंधो तहा। "णवरि सव्वपच्छा सम्मामिच्छत्तमणंतगुणहीणं । "सम्मत्तमणंतगुणहीणं ।
____जहण्णाणुभागसंतकम्मंसियदंडो। सव्वमंदाणुभागं लोभसंजलणस्स अणुभागसंतकम्मं । मायासंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं। "माणसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । कोधसंजलणस्स अणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । सम्मत्तस्स जहण्णाणुभागसंतकम्ममणंतगुणं । "पुरिसवेदस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। "इत्थिवेदस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। "णqसयवेदस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। सम्मा
(१) पृ० २३३ । (२) पृ० २३४ । (३) पृ० २३६ । (४) पृ० २३७ । (५) पृ. २४१ (६) पृ. २४२ । (७) पृ० २४४ । (८) पृ० २४५ । (६) पृ० २४६ । (१०) पृ० २५६ । (११) पृ० २५८ । (१२)पृ० २५६ । (१३)पृ. २६० । (१४) पृ० २६१ । (१५) पृ० २६२ (१६) पृ० २६३ ।
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परिसिट्टाणि मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । अणंताणुबंधिमाणजहण्णाणुभागो अणंतगुणो। 'कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । लोभस्स जहण्णओ अणुभागो विसेसाहिओ। 'हस्सस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। 'रदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। दुगुंछाए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। भयस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । 'सोगस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। अरदीए जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। अपञ्चक्खाणमाणस जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। 'मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। पञ्चक्खाणमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । मिच्छत्तस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो।
'णिरयगईए जहण्णयमणुभागसंतकम्मं । सव्वमंदाणुभागं सम्मत्तं । सम्मामिच्छतस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो। अणंताणुबंधिमाणस्स जहण्णाणुभागो अणंतगुणो । कोधस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। मायाए जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ। लोभस्स जहण्णाणुभागो विसेसाहिओ । सेसाणि जधा सम्मादिडीए बंधे तधा णेदव्वाणि ।
'जधा बंधे भुजगार-पदणिक्खेव-वडीओ तहा संतकम्मे वि कायव्वाओ।
संतकम्मटाणाणि तिविहाणि-बंधसमुप्पत्तियाणि हदसमुप्पत्तियाणि हदहदसमुप्पत्तियाणि । “सव्वत्थोवाणि बंधसमुप्पत्तियाणि । "हदसमुप्पत्तियाणि असंखेज्जगुणाणि । "हदहदसमुप्पत्तियाणि असंखेजगुणाणि ।) "सोलसकाय-णवणोकसायाणं मिच्छत्तस्सेव तिविहा हाणवरूवणा कायव्वा ।
एवमणुभागे त्ति जं पदं तस्स अत्थपरूवणा समत्ता ।
(१) पृ० २६४ । (२) पृ० २६५ । (३) पृ० २६६ । (४) पृ० २६७ । (५) पृ० २६८ (६) पृ० २६६ । (७)पृ० २७०। (८) पृ० २७३ । (६) पू० ३३०। (१०) पृ० ३३२ । (११) पृ० ३८० । (१२) पृ० ३६१ । (१३) पृ० ३६६ ।
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परिसिट्टाणि २भवतरण-सूची
अवतरण
पृष्ठ
अवतरण पृष्ठ
अवतरण पृष्ठ । श्रणंतभागवट्टिकंडयं ३३३ । एए छच्च समाणा (अपूर्ण )
जस्स णामागोदवेदणीय.
३४०
आ आर्यमंत् ३८८ उ उचारणाचार्य २, १५१.
२०५ ग गुणधर आचार्य ३८८ गौतम
३८८
३ ऐतिहासिक नामसूची ज जम्बूस्वामी ३८८ न नागहस्ति ३८८ य यतिवृषभाचार्य ) १२६,
यतिवृषभ १५१, १५७, १७६, २७१, ३८८ ।
ल लोहार्य ३८८ व वर्धमान दिवाकर ३८८
४ भौगोलिक नामसूची विपुलगिरि ३८८
५ ग्रन्थनामोल्लेख उ उच्चारणा १७६, १८६, । क कषायप्राभृत ३८७, ३८८ । म महाबन्ध । १३३,१३५ १.५, २०२, २१०,२१६ च चूर्णिसूत्र १६५, २०२,
महाबन्ध सूत्र) ३८७ २३४, २३८, २४२, २१०,२१८, २३४, २३८ २४७, २७३ २५८, २७१, २७२.
२७३, ३८८
अ
अकम्म
२१४ अट्ठफसाय १६४, १६३,
२०६, २३६ अट्ठपद
२१४ अणुक्कस्साणुभाग २१४,
२१६, २१८ अणुक्कस्साणुभागसंतकम्म
१८६
६ चूर्णिसूत्रगत शब्दसूची
अणुकस्सायुभागसंतकम्मिश्र
१८६ अणुभागकंडय १६५ अणुभागखंडय १७५, अणुभागविहत्ती अणुभागसंतकम्म १३०, १३१.१३२.१३६, १३६ १४३, १४४, १४६,१४६,
१५०, १५१,१६१.१६४, १६५, १६६,१६८, १७१. १७२, २५६,२६०,२६७ अणंतगुण २५१, २६०,
२६१, २६२, २६३, २६५, २६६, २६७
२६८, २६६, २७०, अयंतगुणहीय२५८,२५६
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तभाग
१३०
१३१
अतरफद्दय श्रताण बंधिन्चत्तारि २३६ श्रांताधिमाण २६३
२७.
श्रताणबंधी १६६ १७६
१६३, २०६, २०६,
२६७
3
१६३
पञ्चक्खाणमाण २६७
श्रपच्छिम
१६५
अपनत
१६३
अप्पडिसिद्ध १३१, १३२
२५६
अण्णदर
अप्पा बहुश्र
श्ररदि
श्रवणिजमाण श्रवित्तिय २१४, २१५,
२१६, २१७, २१८
श्रव्ववहार
२१४
सणी १५८, १६३, १७५
१८६, २०१, २०६ श्रसंखेजदिभाग २३३,
२३७
श्रसंखेज्जवरसाउन १५६
संखेज्जगुण ३८०
श्रसंखेज
आ श्रगद
इ इथिवेद
२६७
१६५
१७५
श्रादिफद्दय १३०, १३२ श्रावलि
२३७
उक्करस
१४६ १७२, २६२
१८६, १८८,
२०१, २०१ : २३३,
२३७
उक्करसबंध
२५६
उक्कस्सय १३६ १५१, १६०, २५६
परिसिहारिण
उक्कस्सा भाग १५८,
२१५, २१७
क
उक्कस्सारणुभागविहत्तिय
२१४
उक्कस्थाणुभागसंतकम्म
१५०, १५७, १६० उक्कस्थाणुभागसंतकम्मिश्र
१८३, १८७, २०१
२३३, २३४
उत्तरपश्रिणुभागविहत्ति
२
उदयसेिग
१४८
उदि
१७३
उवडपोग्गल परियट्ट २१० ए एइंदि १५८, १६३
एगजीव
१५७
गाय १४३, १४६
१४८, १४९, १५.१, एगसमय १६३, २३६ श्री श्रोष १७६ अंतर २०१, २०२, २०६ २०८ २०६ अंतोमुहुत्त १८६, १८७, १८६, १६३, २०१, २०६, २३३, २३७ कम्म २१७, २३३ काल १८५, १८६, १८७
१८६, १६२, ६३, २०१, २०६, २०८, २०६, २३३, २३४,
२३७ १८५
१८५, १८६, १८७, १८६, १६२,
कालानुगम safar
११३ २०१, २०६,
२०८, २०६, २३३, २३४, २३६, ३७
कोध २६४, २६७, २६८,
२७०
घ
च
6
कोधसंजल १६८८, २५६ २६०
ख खवग १५१, १६८, १७१ १७४, १७५
१७२
खगचरिमसमयइत्यिवेदय
खवय
१४८
घादिसण्णा
१३५
चउरिंदिश्र १५८. १६३ चदुट्ठाणिय १३६. १४६,
१५०, १५१
चदुसंजल १३२, १४६
चरिम
१६३, २३६ १७५ चरिमदेसघादिफद्दग १२६ चरिमसमक्खीणदंसण
मोहणीय १६४, १७७ चरिमसमय कामय १६८
१७२ चरिमसमयइत्थिवेद १७२ चरमसमय सयवेदय
१५१ १७४ चरिमसमयसकसायि १७१ छ छण्णोकसाय १४२ १७५ १६३, २३७ ज जहण १८६, १८७, २०१ २०६, २३३, २३६ जहण्याय १४६, १५०, १६१, १६४, १६५, १६६, १६८, २६६
जहण्णा रणुभाग २६१,
२६२, २६३, २६४, २६५, २६६, २६७,
२६८, २६६, २७० हाणुभागकम्मंसिय
२३६, २३७ महाणुभागसंतकम्म
१६३, १७२, १७४, १७५, १७७, २६०
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परिसिट्टाणि
१२६
१६३
भ
भय
२१८
जहण्णाणुभागसंतकम्मिश्र
१६२, १६३, २३६ जहरणाणुमागसंतकम्मियंतर २०६,२०८ २०६,
२१० जहरणाणुभागसंतकम्मंसियदंडय
२५६ जहण्णुक्कस्स १८६,१८६
१६३, २३७ जहा २५६, २७०, २७३ जहापयडि २०२
जीव २१५ २१६, २१७ ट हाण हाणसण्णा
१३५ ण णवणोकसाय १३२,१६०
१७७, १८७, २०१ णवरि २३७, २५८ णवुसयवेद १५०, १७४,
२६३ णाणाजीव २१३, २३३
णिरयगदि १७५, २६६ त तहा २५६, २७०, २७३
तिहाणिय १४६ तिविह तिवेद १६३, २३६ तेइंदिन १५८, १६३ दारुश्रसमाण १३० दुगुच्छा
२३६ दुहाणिय १३२, १३६,
१४३, १४४, १५६, देसघादि १३२. १४३ १४६, १४८, १४६, १५१ देसधादिफद्दय १२६
दंसणमोहक्खवग १६० प पच्चक्खाणमाण २६८ पञ्जत
१६३ पढमसमयसंजुत्त १६६ पदणिक्खेव २७३ पयडि
२१४
पयद
२१४ । परूवणा पलिदोवम २३३ पुरिसवेद १४६, १७२,
१७३, २६१ फद्दय
१२६ बादर बादरकसाय १३२, १४२,
१७७ बंध २७०, २७३ बंधसमुप्पत्तिय ३३०, ३३२
२६६ भुजगार
२७३ भंग
भंगविचत्र २१३ म मणुस्सोववादियदेव १५६
माण-मायासंजलण १७१ माणसंजलण २६० माया २६४, २६८, २७० मायासंजलण २५६ मिच्छत्त १३१, १३६, १५७, १६१,१७५, १८५,
१६२, २०१, २०८, २१५, २३३, २३६,
२६८ मूलपयडिअणुभागविहत्तिर र रदि
२६६ ल लोग
२०६ लोभ २६४, २६८, २७० लोभसंजलण १७१,२५६ घट्टमाण १६५, १७५ वडि
२७३ विसेसाहित्र २६३, २६४,
२६७, २६८, २७० वित्तिय २१६, २१७ वेइंदिय १५८, १६३
वेलावहिसागरोवम १८८ स सण्णा
१३५ सण्णी १५८, १६३ समय
२३७
समरा १२६, १४३,
१६०, १६४, १८७, १६३, २०२, २१७ २३३, २३४, २३६,
२५६, २६०.२६६, सम्मादिहि २७० सम्मामिच्छत १३०, १३१
१४४, १६०, १६५, १७८, १८७, १६३, २०२, २१७, २३३, २३४, २३७, २५८,
___ २६३, २६६, सम्मामिच्छवाणुभाग१४४ सव्व २१५, २१६.
२१७, २१८, सव्वघादि १३०. १३२.
१३६, १३६, १४४,
१४६, १५०, १५१, सव्वत्थ
१७६ सम्वत्थोव ३३२ सव्वद्धा २३४, २३६ सव्वपच्छा २५८ सव्वमंदाणुभाग२५६२६६ मादिरेय सामित्त
१५७ सिया २१५, २१६,
२१७, २१८ सुहुम १६१, १६३ सेस २०६, २१७
२३३, २७० सोग
२६७ सोलसकसाय १६०, १८७
३३०
ह
संखेज्ज
२३७ संतकम्म
२७३ संतकम्महाण हदसमुप्पचियकम्म १६३,
१७५ हदहदसमुप्पत्तिय ३३० हस्स
२६५
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२
परिसिट्टाणि
७ जयधवलागत-विशेषशब्दसूची अ अहंक
हाणपरूवणा अणुभाग
द देसघादि
१६० अणुभागहोण ३३६ प पदणिक्खे। १०७ अणुभागविहत्ति
पदणिक्खेवपरूपणा ३३१ 3 उक्कड्डणावड्डि ३३६ फ फद्दय
३४३ उत्तरपयडि १२६ ब बंधहाण
१२५ उत्तरपयडिअणुभागविहत्ति बन्धसमुत्पनिक ३३१
म मणुस्सोववादियदेव १५६ क कंडय
३३४
मूलपयडिअणुभागविहत्तिर व खवणा
२०८
वग्ग घ धादि
वगणा ३४४, ३४८ च चरिमसमयसकामय१६६ वडि
११२ - ट हाण
वडिपरूषणा ३३१
विसंजोयणा २०८ विसोहिहाण
३८० सण्ण। सव्वघादि ३, १३० सुहमणिगोदजहण्णाणुभागहाण ३४५ हतसमुत्पत्तिक १६३ ३३१ हतहतसमुत्पत्तिक ३३१ हदसमुप्पत्तियसंतकम्माण
१३५
हदहदसमुप्पत्तियसंतकम्महाण १२६
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