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जयभवला सहिदे कसायपाहुडे
[ अणुभागविहत्ती ४
सुहुम पुढवि० पज्जत्तापज्जत्त आउ०- बादरआउ०- बादरआउअपज्ज० -- मुहुमआउ०--सुहुमआउपज्जत्तापज्जत्त -- तेउ० - बादरतेउ०- बादर ते अपज्ज० - सुहुमतेउ०- सुहुमतेड ० पज्जत्तापज्जत्त ०-- वाउ०- बादरवाङ ० -- बादरवाङ • अपज्जत्त--सुहुमवाउ ० -सुहुमवाउपज्जत्तापज्जत्तसव्ववणफदि -- सव्वणिगोद--ओरालियमिस्स ० -- वेउब्विय० कम्मइय० --मदिअण्णाणिसुदअण्णाणि विहंग०- परिहार० - संजदासंजद ० - असंजद ० किएह-णील-काउ -- तेउ पम्म ०अभवसि ० -मिच्छादिहि असण्णणाहारिति ।
८७. मणुस पज्ज० जहण्णाजहण्ण० अभंगा । एवं वेडव्वियमिस्स ०. आहार० - आहारमिस्स ० -- अव गद्०-- अकसाय ० - सुहुमसांपराय ० - जहाक्खाद ० -उवसम०सासण - सम्मामिच्छादिहि त्ति ।
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एवं णाणा जीवेहि भंगविचयाणुगमो समत्तो ।
अकायिक, बादर,
८८. भागाभागानुगमो दुविहो – जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । तत्थ उकस्से पदं । दुविहो णिद्दसो - ओघे० आदेसे० । श्रघे० मोह० उक्कस्साणुभागविहत्तिया सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अनंतिमभागो । अणुक्कस्स ० विहत्तिया सव्वजीणं केवडिओ भागो ? अनंता भागा । एवं तिरिक्खोघं सव्व एइंदिय - सव्ववणप्फदिकाइयकायिक, अपर्याप्तक सूक्ष्म अष्कायिक, सूक्ष्म अष्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म कायिक अपर्याप्तक, तेजकायिक, बादर तैजस्कायिक, बादर तैजस्कायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म तेजस्कायिक, सूक्ष्म तैजस्कायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म तैजस्कायिक अपर्याप्त, वायुकाथिक, बादर वायुकायिक, बादर वायुकायिक अपर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्तक, सब वनस्पति, सब निगोदिया, औदारिक मिश्रकाययोगी, वैक्रियिककाययोगी, कार्मरणकाययोगी, मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, विभंगज्ञानी, परिहारविशुद्धिसंयत, संयतासंयत, असंयत, कृष्णलेश्यावाले, नीललेश्यावाले, कपोतलेश्यावाले, पीतलेश्यावाले, पद्मलेश्यावाले, अभव्य, मिध्यादृष्टि, संज्ञी और अनाहारी जीवों में जानना चाहिए ।
९८७ मनुष्य अपर्याप्तकों में मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य विभक्तिके आठ आठ भंग होते हैं। इसी प्रकार वैक्रियिकमिश्रकाययोगी, आहारककाययोगी आहारकमिश्रकाययोगी, अपरानवेडी अकपायी. सूक्ष्मसाम्परायसंवत. यथाख्यातसंगत. उपरामसम्यग्दृष्टि, सासादनसम्यष्टि और सम्यग्मिध्यादृष्टिमें जानना चाहिए ।
विशेषार्थ उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिकी अपेक्षा ओघ और आदेश से जिस प्रकार स्पष्टीकरण किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिए। मात्र जिन मार्गणाओंमें विशेषता है उनमें जघन्य स्वामित्वको ध्यान में रख कर वह घटित कर लेनी चाहिए । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगम समाप्त हुआ ।
८८. भागाभागानुगम दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उनमें से उत्कृष्टका प्रकरण है । उसकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकार का है— ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश | ओघकी अपेक्षा मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्तवें भाग हैं। अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग हैं ? अनन्त बहुभागप्रमाण । अर्थात् सब जीवोंमें अनन्तका भाग देने पर एक भागप्रमाण उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले हैं
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