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________________ गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ F८५. जहण्णए पयदं । दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । तत्थ ओघेण मोह० जहण्णाणुभागस्स सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया १। सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २। सिया० अविहत्तिया च विहत्तिया च ३। अजहएणस्स सिया सव्वे जीवा विहत्तिया १ । सिया विहत्तिया च अविहत्तिो च २। सिया विहत्तिया च अविहत्तिया च १ । एवं णिरयओघं पढमपुढवि--सञ्चपंचिंदियतिरिक्ख--मणुसतियदेवोघं भवण-वाण-सव्वविगलिंदिय-सव्वपंचिंदिय-बादरपुढवि०पज्ज०-बादरआउ०पज्ज०--बादरतेउ०पज्ज०--बादरवाउ०पज्ज०-बादरवणप्फदिपत्तेयसरीरपज्ज०-तसतसपज्जत्तापज्जत्त-पंचमण-पंचवचि०--काययोगि०ओरालि०--तिएिणवेद०-चत्तारिक०आभिणि-सुद०-ओहि०-मणपज्जव०-संजद०-सामाइय-छेदो०-चक्खु०-अचक्खु०-प्रोहिदंस०-सुक्कले०-भवसि०-सम्मादिहि-खइयसम्मादिहि-वेदगसम्मा०-सरिण-आहारि त्ति । ८६. विदियादि जाव सत्तमि त्ति जहएणाजहणणं णियमा अस्थि । एवं तिरिक्ख-जोदिसियादि जाव सव्वसिदि-एइंदिय-बादरेइंदिय-[बादरेइंदियअपज०] सुहुमेइंदिय--पज्जत्तापज्जत्त-पुढवि०--बादरपुढवि०--बादरपुढवि० अपज्ज०--हुमपुढवि० ६८५. अब जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है --ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । उनमेंसे ओघकी अपेक्षा कदाचित् सब जीव मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागअविभक्ति वाले हैं १ । कदाचित् अनेक जीव मोहनीयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं और एक जीव मोहनीयकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाला है २। कदाचित् अनेक जीव मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं और अनेक जीव जघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं ३। कदाचित् सब जीव मोहनीयकर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं १। कदाचित अनेक जीव मोहनीयकर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं और एक जीव अजघन्य अनुभाग विभक्तिसे रहित है २ । कदाचित् अनेक जीव मोहनीय कर्मकी अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले हैं और अनेक जीव अजघन्य अनुभागविभक्तिसे रहित हैं ३ । इसी प्रकार सामान्य नारकी, पहली पृथिवीके नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य पयोप्तक, मनुष्यिनी, सामान्य देव, भवनवासी, व्यन्तर, सब विकलेन्द्रिय, सब पंचेन्द्रिय, बादर पृथिवीपर्याप्तक, बादर अप्कायपर्याप्तक, बादर तेजकायपर्याप्तक,बादर वायुकायपयोप्तक, बादर वनस्पतिप्रत्येकशरीरपर्याप्तक. त्रस, त्रसपर्याप्तक, त्रसअपर्याप्तक, पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी, औदारिककाययोगी, पुरुषवेदी, स्त्रीवेदी, नपुंसकवेदी, क्रोधी, मानी, मायावी, लोभी, आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी, मनःपर्ययज्ञानी, संयत, सामायिकसंयत, छेदोपस्थापनासंयत, चक्षुदर्शनवाल, अचक्षुदर्शनवाले, अवधिदर्शनवाले, शुक्ललेश्यावाले, भव्य, सम्यग्दृष्टि, क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदकसम्यकदृष्टि, संज्ञी और आहारी जीवोंमे जानना चाहिये। ६८६. दूसरी पृथ्वीसे लेकर सातवीं पृथिवी तक जघन्य अनुभागविभक्तिवाले और अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले नियमसे होते हैं। इसी प्रकार तिर्यञ्च, ज्योतिषी देवोंसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देव, एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रिय, बादर एकेन्द्रियअपर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय, सूक्ष्म एकन्द्रिय पर्याप्त, सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्त, पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक, बादर पृथिवीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म पृथिवीकायिक और उसके पर्याप्त अपर्याप्त, अप्कायिक, बादर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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