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________________ .९५ w गा० २२ ] अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो $ १४५. तिरिक्खेसु भुज० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्प० जहण्णुक्क० एगस० । अवहि ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि सादिरेयाणि । एवं पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि । पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु भुज०-अवहि० जह० एगस०, उक० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक० एगस०। एवं मणुसअपजताणं । मणुसतियम्मि भुज०-अप्पदर० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अवहि० ज० एगस०, उक्क० तिण्णि पलिदोवमाणि पुव्वकोडितिभागगेण सादिरेयाणि । णवरि मणुसिणीसु अंतोमुहुत्तेण सादिरेयाणि । तक सत्तामें स्थित अनुभागका प्रति समय घात न हो तब तक अल्पतरविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त नहीं बन सकता । और वहाँ अनुभागका प्रतिसमय घात संभव नहीं है, क्योंकि अनुभागका प्रति समय घात चारित्रमोहकी क्षपणामें ही होता है। सारांश यह है कि कांके अनुभागको लेकर स्पर्धक रचना होती है। उसमें जो स्पर्धक बहुत अनुभागवाले होते हैं उन सब स्पर्धकोंमें अनन्तका भाग देकर बहुभागप्रमाण स्पर्धक आते हैं उनमेंसे कुछ स्पर्धकोंको छोड़कर शेष स्पर्धकोंके परमाणुओंका एक भाग मात्र नीचेके स्पर्धकोंमें परिणमाया जाता है। अर्थात् कुछ परमाणुओंको पहले समयमें परिणमाते हैं, कुछको दूसरे समयमें परिणमाते हैं। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सब परमाणुओको परिणमा कर उन ऊपरके स्पर्धकोंका अभाव कर दिया जाता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त काल के द्वारा जो कार्य किया जाता है उसका नाम काण्डकघात है। इस प्रकार यद्यपि काण्डकघातमें प्रति समय अनुभागका घात होता है पर वह फालिरूपसे ही होता है, इसलिए काण्डकघातके काल में अल्पतरविभक्ति सम्भव नहीं है। वह यहाँ अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें ही होती है। अत: न केवल नारकियोमें, किन्तु जिन मागणाओंमें चारित्रमोहकी क्षपणा नहीं होती उन सबमें अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय ही होता है । नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है किन्तु उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तसे अधिक काल तक अवस्थितपना सम्यग्दृष्टिके ही बन सकता है और नरकमें सम्यग्दृष्टिका काल अधिकसे अधिक आदि और अन्तके तीन तीन अन्तर्मुहूर्त कम तेतीस सागर होता है । इस प्रकार प्रत्येक नरकमें जानना चाहिए, अन्तर केवल इतना है कि प्रत्येक नरकमें अ य विभक्तियोंका काल तो सामान्य नारकीके समान ही होता है, केवल अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण होता है। ६१४५. तिर्यञ्चोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ अधिक तीन पल्य है। इसी प्रकार पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चपर्याप्त और पञ्चन्द्रियतिर्यञ्चयोनिनीमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में भुजगार और अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । मनुष्य, मनुष्य पयोप्त और मनुष्यनियोंमें भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पूर्वकोटिका त्रिभाग अधिक तीन पल्य है। इतनी विशेषता है कि मनुष्यनियों में अन्तर्मुहूर्त अधिक तीन पल्य है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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