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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ अणुभागकंडएण विणा ओघमिव अणुसमयओवट्टणाए अप्पदरस्स असंभवादो। ण च एगसमएण अणुभागकंडओ णिवददि अणुभागकंडयस्स जहण्णुकीरणदाए वि अंतोमुहुत्तपमाणत्तादो । बंधेण अप्पदरस्स णिरंतरो अंतोमुहुत्तकालो किण्ण लब्भदे ? ण, अणुभागसंतस्स अणुसमयघादमंतरेण अप्पदराणुववत्तीदो। ण च एत्थ अणुसमयघादो अत्थि, चारित्तमोहक्खवणाए चेव तस्स संभवादो। अवहि० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि । संपुण्णाणि किण्ण लब्भंति ? ण, णेरइएसुप्पज्जिय अंतोमुहुत्तकालमगमिय सम्मत्तग्गहणासंभवादो। मिच्छादिहिम्मि अवडिदस्स कालो तेत्तीससागरोवममेत्तो किण्ण गहिदो ? ण, मिच्छादिहीसु अंतोमुहुत्तत्तादो उवरि णियमेण भुजगार-अप्पदराणं संभवादो । एवं सव्वणेरइयाणं । णवरि सगहिदी देसूणा । शंका-नारकियोंमें अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं पाया जाता, क्योंकि नारकियोंमें अनुभागकाण्डकके बिना ओघके समान प्रतिसमय अपवर्तनाके द्वारा अल्पतरविभक्ति संभव नहीं है। और एक समयमें अनुभागकाण्डकका घात होता नहीं है, क्योंकि अनुभागकाण्डककी उत्कीरणाका जघन्य काल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। शंका-बन्धकी अपेक्षा अल्पतरविभक्तिका निरन्तर काल अन्तर्मुहूर्त क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान-नहीं, क्योंकि अनुभागकी सत्ताका प्रति समय घात हुए बिना अल्पतर नहीं बन सकता है। और नरकमें प्रति समय घात होता नहीं है, क्योंकि चारित्रमोहनीयकी क्षपणा में ही प्रति समय घात संभव है। ... अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल कुछ कम तेतीस सागर है। शंका-अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर क्यों नहीं है ? समाधान नहीं, क्योंकि नारकियोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त काल गये विना सम्यक्त्वका ग्रहण संभव नहीं है। शंका-मिथ्यादृष्टिमें अवस्थितविभक्तिका काल तेतीस सागर प्रमाण क्यों नहीं ग्रहण किया ? समाधान नहीं, क्योंकि मिथ्यादृष्टियोंमें अवस्थितविभक्तिका काल अन्तर्मुहूर्त है । वहां अन्तर्मुहूर्तसे ऊपर उनमें नियमसे भुजगार या अल्पतरविभक्तिका होना संभव है, अत: नरकमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल तेतीस सागर नहीं कहा है। . इसी प्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए। किन्तु इतनी विशेषता है कि उत्कृष्ट काल कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। विशेषार्थ-आदेशसे नारकियोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । किन्तु अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल भी एक समय है और उत्कृष्ट काल भी एक समय है, भुजगारके समान अन्तर्मुहूर्त नहीं है। इसका कारण यह है कि जब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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