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________________ १३ . गा० २२] अणुभागविहत्तीए भुजगारकालो दिहिस्स । एवं जाणिदूग णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ६. १४३. कालाणुगमेण दुविहो णिद्दे सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह. भुज०- अप्प० ज० एगस०, उक्क. अंतोमु० । अवहि० केवचिरं कालादो होदि ? ज. एगस०, उक्क० तेवहिसागरोवमसदं पलिदो० असंखे० भागेण सादिरेयं । $ १४४. आदेसेण णेरइएसु भुजगार० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । अप्पदर० जहण्णुक्क० एगस० । अंतोमुहुत्तकालो रइ एमु किण्ण द्धो ? ण, णेरइएसु maane.in किसके होती है ? किसी भी सम्यग्दृष्टिके होती है। इस प्रकार जानकर इन विभक्तियोंके स्वामित्वको अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिये। विशेषार्थ ओघसे मोहकी भुजगारविभक्तिका स्वामी तो मिथ्यादृष्टि ही होता है। किन्तु अल्पतर और अवस्थितविभक्तिके स्वामी मिथ्यादृष्टि भी होते हैं और सम्यग्दृष्टि भी होते हैं अर्थात् प्रोघसे मोहके सत्तामें स्थित अनुभागकी वृद्धि तो मिथ्यादृष्टि ही करता है किन्तु हानि और अवस्थान दोनोंके हो सकते हैं। इसी प्रकार आदेशसे भी जानना चाहिए। विशेष यह है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्यअपर्याप्तकमें तीनों ही विभक्तियाँ मिथ्यादृष्टिके ही होती हैं, क्योंकि उनमें सम्यक्त्व नहीं होता है। तथा अानतसे लेकर नौ ग्रैधेयक तकके देवोंमे वृद्धि सम्भव न होनेसे वहाँ अल्पतर और अवस्थित पदका स्वामी मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि दोनोंको कहा है। अनुदिश और अनुत्तरोंमें सब सम्यक्त्वी ही होते हैं, अंतः दोनों विभक्तियाँ सम्यक्त्वीके ही होती हैं । इसी प्रकार अन्य मार्गणाओंमें जान लेना चाहिये। १४३. कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। आपसे मोहनीयकर्मकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। अवस्थितविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग अधिक एक सौ त्रेसठ सागर है। विशेषार्थ- सत्तामें स्थित अनुभागको आगेके समयमें बढ़कर या घटाकर पुनः तदवस्थ रह जानेसे भुजाकार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय होता है और लगातार प्रति समय बढ़ाते या घट.ते जाने पर उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त होता है। इससे अधिक काल तक न भुजगारविभक्ति होती है और न अल्पतरविभक्ति। किन्तु अवस्थितविभक्ति लगातार पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक एक सौ त्रेसठ सागर तक रह सकती है, क्योंकि किसी भोगभूमिया मनुष्य या तिर्यञ्चने पल्योपमके असंख्यातवें भाग आयुके शेष रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्त करके अल्पतर किया फिर मिथ्यात्वको प्राप्त होगया और अवस्थितअनुभागविभक्तिवाला होगया। आयुके अन्तमें वेदकसम्यग्दृष्टि होकर दो छयासठ सागर तक वेदकसम्यग्दृष्टि व सम्यग्मिथ्यादृष्टि रहकर अन्तमें उपरिम प्रैवेयकमें उत्पन्न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त होगया। वहाँसे चय कर मनुष्य हुआ। इस प्रकार अवस्थित अनुभागविभक्तिका पल्यका असंख्यातवां भाग अधिक १६३ सागर काल प्राप्त होता है। ६१४४. आदेशसे नारकियोंमें भुजगारविभक्तिका जघन्य काल एक समय है. और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अल्पतरविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। .. , Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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