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________________ जयथवलासहिदे कसायपाहुदे [अणुभागविहत्ती ४ - भुजगारविहत्ती ___ १४१. भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणियोगद्दाराणि णादवाणि भवंति-समुक्कित्तणादि जाव अप्पाबहुए ति। तत्थ समुक्त्तिणाणुगमेण दुविहो णि सो-ओघेण आदेसेण । ओघेण अस्थि मोह. भुजगार०-अप्पदर०-अवहिद०विहत्तिया जीवा । एवं सवणेरड्य-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस-सव्वदेवे ति । णवरि आणदादि जाव सव्वदृसिद्धि ति अत्थि अप्पदर०-अवहिद विहत्तिया जीवा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।। 5 १४२. सामित्ताणु० दुविहो०णिद्दे सो-ओघे० आदेसे०। तत्थ ओघेण मोह० भुजगार० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स । अप्पदर०-अवहिद० कस्स ? अण्णदरस्स सम्मादिहिस्स मिच्छादिहिस्स वा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुसदेव०-भवणादि जाव सहस्सारे त्ति । णवरि पंचिंदियतिरिक्खअपज्ज०मणुसअपज्ज० भुज०-अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स। आणदादि जाव णवगेवज्जा त्ति अप्पदर०-अवहि० कस्स ? अण्णद. सम्मादिहि० मिच्छादिहिस्स वा । अणुद्दिसादि जाव सव्वदृसिद्धि ति मोह० अप्प०-अवहि० कस्स ? अण्णद० सम्मा भुजगारविभक्ति । ६१४१. भुजकार विभक्तिमें ये तेरह अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं-समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त । उनमेंसे समुत्कीर्तनानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि आनत स्वर्गसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीव हैं। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए। ....... विशेषार्थ-जो जीव सत्तामे स्थित मोहनीयके अनुभागको बढ़ाते हैं व भुजगारविभक्तिवाले कहे जाते हैं, जो घटाते हैं वे अल्पतर विभक्तिवाले कहे जाते हैं, और जिनके मोहका अनुभाग तदवस्थ रहता है, न घटता है न बढ़ता है, वे अवस्थितविभक्तिवाले जीव कहे जाते हैं। ओघसे और आदेशसे तीनों ही विभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं, किन्तु आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि विभान पर्यन्त भुजगार विभक्तिवाले देव नहीं पाये जाते हैं, क्योंकि वहाँ मोहके जिस अनुभागको लेकर जीव उत्पन्न होते हैं, उसमें वृद्धि नहीं होती है। ६१४२. स्वामित्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। उनमेंसे अोघसे मोहनीयकर्मकी भुजगारविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती है। अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि जीवके हाती है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सब मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तक और मनुष्य अपर्याप्तकोंमें भुजकार, अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती है ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती.है। आनत स्वर्गसे लेकर नवग्रैवेयक तकके देवोंमें अल्पतर और अवस्थितविभक्ति किसके होती हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि और मिथ्याष्टिके होती हैं। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मोहनीयकर्मकी अल्पतर और अवस्थितविभक्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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