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________________ गा० २२ ] भागवत्ती अपाबहुश्र ९१ 1 $ १३६. अप्पाबहुअ० जीवे अस्सिदूण वुच्चदे । तं दुविहं - जह० उक्क० । उक्कस्से पदं । दुविहो णिद्द सो--ओघे० आदेसे० । श्रघे० सव्वत्थोवा मोह० उकस्साणुभागविहत्तिया जीवा । अणुक्क० विहत्तिया जीवा अनंतगुणा । एवं तिरिक्खोघम्म । आदेसेण रइएस सव्वत्थोवा उक्कस्साणु ० विहत्तिया जीवा । अणुक्क० असंखे० गुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुस अपज्ज० - देव० भवणादि जाव वराइद ति । मणुसपज्ज० - मणुसिणी- सव्वहसिद्धिदेवेषु सव्वत्थोवा मोह० उक्कस्साणु० 1 विहत्तिया जीवा । अणुक० संखे० गुणा । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति | १४०. जहणए पयदं । दुविहो णिद्द े सो-- ओघे० आदेसे० । ओघेण सव्वत्थोवा मोह • जहण्णापु० विहत्तिया जीवा । अज० अनंतगुणा । आदेसेण णेरइए सव्वत्थोवा मोह० जहण्णाणु ० विहत्तिया जीवा । अज० असंखे० गुणा । एवं सव्वरइय--तिरिक्ख - सव्वपं चिंदियतिरिक्ख- मणुस्स ० मणुस्स अपज्ज० - देव० भवणादि जाव अवराइदं ति । मणुसपज्ज० -- मणुसिणी ० -- सव्वहसिद्धिदेवेषु सव्वत्थोवा मोह० जहणा० जीवा । अज० संखे० गुणा । एवं जाणिदूण दव्वं जाव अणाहारिति । एवं तेवीस णियोगद्दाराणि समत्ताणि । $ १३९. अब जीवा आश्रय लेकर अल्पबहुत्व कहते हैं । वह दो प्रकारका है - जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । श्रघसे मोहनीय कर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव उनसे अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यथ्वों में जानना चाहिए। आदेश से नारकियोंमें उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले उनसे असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्व, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में मोहनीयकर्मकी उत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट अनुभागविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार जानकर इस अल्प बहुत्वको नाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । $ १४०. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओसे मोहनोयकर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। आदेश से नारकियोंमें मोहनीय कर्मकी जघन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। अजघन्य अनुभागविभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, सब पञ्चेन्द्रियतियंञ्च सामान्य मनुष्य, मनुष्यअपर्याप्त, देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकर्मकी जधन्य अनुभागविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । जघन्य अनुभागविभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार जानकर इस अल्पबहुत्वको नाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । इस प्रकार तेईस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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