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________________ ३९० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ उत्पन्न हो सकते हैं तो इसका यह समाधान है कि घातके कारण परिणामोंके भेदसे घात होकर शेष बचे अनुभागमें भेद हो जाता है, अत: घातस्थान अनेक बन जाते हैं। किसी अन्य चौथे जीवके द्वारा उक्त विशुद्धिस्थानके नीचेके चतुश्चरिम विशुद्धिस्थानके द्वारा उक्त अन्तिम उर्वकका घात किये जाने पर चौथा अनन्तभागवृद्धि युक्त घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार पंचचरिम, और षट्चरिम आदि विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात करते करते तब तक हतसमुत्पत्तिक स्थान उत्पन्न करने चाहिये जब तक सर्व जघन्य विशुद्धिस्थानके द्वारा अन्तिम उर्वकका घात हो। इस प्रकार असंख्यात लोक षट्स्थानप्रमाण हतसमुत्पत्तिकस्थान होते हैं। बन्धसमुत्पत्तिकस्थान सम्बन्धी अन्तिम वकको लेकर अन्तिम अष्टांक और उर्वकके बीच में हतसमुत्पत्तिकस्थान इतने ही उत्पन्न होते है अधिक नहीं,क्योंकि कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती। इन स्थानोंकी उत्पत्ति के कारण हैं -छह प्रकारकी वृद्धिको लिये हुए विशुद्धिस्थान। उनसे विशुद्धिस्थानप्रमाण ही स्थान उत्पन्न होते हैं। इसके बाद अन्तिम विशुद्धस्थानके द्वारा अन्तिम द्विचरम उर्वकका घात किये जाने पर सर्व जघन्य स्थानसे नीचे अनन्तभागहीन होकर दूसरा अपुनरुक्त हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है। ऊपरके स्थानको रूपाधिक सर्व जीवराशिसे भाजित करनेपर जो लब्ध आता है उतना यह स्थान ऊपरके स्थानसे हीन होता है, क्योंकि उत्कृष्ट उकसे द्विचरम उर्वक भी इतना ही हीन है और दोनोंका घात समान परिणामके द्वारा हुआ है अतः इससे जो स्थान उत्पन्न होते हैं, उनमें भी उतना ही अन्तर होना चाहिये । पुन: द्विचरम परिणामके द्वारा उसी द्विचरम उर्वकका घात किये जानेपर दूसरा घातस्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार त्रिचरम आदि विशुद्धिस्थानोंसे द्विचरम उर्वकका घात करनेपर परिणामों के बराबर ही घातस्थान उत्पन्न होते हैं। यह घातस्थानोंकी दूसरी पंक्ति हुई। इसी प्रकार उक्त परिणामस्थानोंके द्वारा त्रिचरम उर्वक, चतुश्चरम उर्वंक, पंचचरम उर्वक आदि उक्कोंका घात कर करके घातस्थानों की तीसरी, चौथी, पाँचवीं आदि पंक्तियाँ उत्पन्न होती हैं। इस प्रकार उत्कृष्ट आदि सब परिणामोंके द्वारा शेष बन्धस्थानोंका भी घात करके घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। ऐसा करनेसे घातस्थानोंकी चौड़ाई षटस्थानप्रमाण और लम्बाई विशुद्धिस्थानप्रमाण होती है। इस प्रकर उत्पन्न हुए सब स्थान अपुनरुक्त ही होते हैं, क्योंकि उनमें समानता होनेका कोई कारण ही नहीं है। यथा-पहली पंक्तिके पहले स्थानमें रूपाधिक सर्व जीवराशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उतना उस स्थानसे दूसरी पंक्तिका पहला स्थान हीन है और दूसरी पंक्तिके पहले स्थानमें अभव्य राशिसे अनन्तगुणे या सिद्धराशिके अनन्तवें भागका भाग देनेपर जो लब्ध आवे उतना दूसरी पंक्तिके पहले स्थानसे दूसरा स्थान अधिक है। इस प्रकार सभी पंक्तियोंके दूसरे स्थान परस्परमें असमान हैं। इसीसे सभी पंक्तियोंके सब स्थानोंमें असमानताका विचार कर लेना चाहिये। अब द्विचरम अष्टांकसे नीचे और उसके अनन्तरवर्ती नीचेके उर्वकसे ऊपर दोनों बन्धस्थानोंके बीचमें उत्पन्न होनेवाले घातस्थानोंको कहते हैं। एक जीवने उत्कृष्ट परिणामके द्वारा एक षट्स्थानहीन उत्कृष्ट अनुभागसत्कर्मका घात किया। ऐसा करनेसे द्विचरम अष्टांकसे नीचे अनन्तगुणा हीन होकर और उसीके नीचे के उर्वकसे ऊपर अनन्तगुणा होकर हतसमुत्पत्तिकस्थान उत्पन्न होता है । पुनः द्विचरम परिणामस्थानके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करने पर दूसरा अनन्तभागवृद्धि युक्त घातस्थान उत्पन्न होता है। इस प्रकार यहाँ पर भी पहले विधानके अनुसार त्रिचरम आदि विशुद्धिस्थानोंके द्वारा उसी अन्तिम उर्वकका घात करके परिणामस्थानोंकी संख्याके बराबर घातस्थान उत्पन्न करने चाहिये। फिर अन्तिम परिणामके द्वारा द्विचरम बन्धस्थानका घात करने पर अन्य घातस्थान उत्पन्न होता है जो पहलेके जघन्य स्थानसे अनन्तगुणा हीन होता है। पुनः द्विचरम परिणामके द्वारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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