SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 348
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२) अणुभागविहत्तीए वहीए भागाभागो . ३१९ । अणंतगुणहाणि०--अवत्तव्व० सव्वजी० केव० ? असंखे भागो। अवहि. असंखेज्जा भागा । एवं तिरिक्खोघं । णवरि सम्मामि० अणंतगुणहाणी णत्थि ।। ५४८. आदेसेण णेरइएमु छब्बीसं पयडीणमोघं । णवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्तव्व० असंखे०भागो। सम्म०-सम्मामिच्छत्ताणं तिरिक्खभंगो । एवं पढमपुढवि०पंचिंदियतिरिक्ख-पंचि०तिरि०पज्ज०-देवोघं सोहम्मादि जाव सहस्सारो ति । विदियादि जाव सत्तमि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। एवं पंचिं०तिरि०जोणिणी-भवण-वाण-जोदिसिए त्ति । पंचिंतिरिक्खअपज्ज. छब्बीसं पयडीणं णेरइयभंगो। गवरि अणंताणु०चउक्क० अवत्त० णत्थि । सम्म०-सम्मामिच्छताणं णत्थि भागाभागं । एवं मणुसअपज्जः । ___५४६. मणुसाणं णेरइयभंगो। गवरि सम्मामि० ओघं । मणुसपज्ज०-मणुसिणीसु अहावीसं पयडीणमवहि० संखेज्जा भागा। सेसपदा० संखेजदिभागो । आणदादि जाव गवगेवज्जा त्ति वावीसं पयडीणमणंतगुणहाणि० सब्वजी० केव० १ असंखेजदिभागो। अवहि.' असंखेज्जा भागा। अणंताणु० चउक्क० सम्मत्त०-सम्मामि० और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि और अवक्तव्यविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि उनमें सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिकी अनन्तगुणहानि नहीं होती। $ ५४८. आदेशसे नारकियोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भागाभाग ओघकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी अवक्तव्य विभक्तिवाले असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग सामान्य तियञ्चोंकी तरह है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च पर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्गसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिए। दूसरी पृथिवीसे लेकर सातवीं तकके नारकियोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका भागाभाग सम्यग्मिथ्यात्वकी तरह है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियोंमें जानना चाहिए। पञ्चन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें छब्बीस प्रकृतियोंका भागाभाग नारकियोंकी तरह है। इतना विशेष है कि अनन्तानुबन्धीचतुष्कका अवक्तव्य पद वहाँ नहीं होता। तथा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भागाभाग नहीं होता। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। ५४९. सामान्य मनुष्योंमें नारकियोंके समान भंग है। इतना विशेष है कि सम्यग्मिध्यात्वका भङ्ग ओघकी तरह है। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें अट्ठाईस प्रकृतियोंकी अव स्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण हैं। शेष पदवाले संख्यातवें भागप्रमाण हैं। पानतसे लेकर नवप्रैवेयक तकके देवोंमें बाईस प्रकृतियोंकी अनन्तगुणहानि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अवस्थित विभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्क, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग सामान्य देवोंकी तरह 1. मा० प्रतौ केव० ? असंखेजा । अवढि० इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy