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________________ ३१८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [अणुभागविहत्ती ४ ___५४७. भागाभागाणु० दुविहो णिसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण छब्बीसं पयडीणं पंचवडि--छहाणिविहत्तिया सबजीवाणं केवडिओ भागो ? असंखे०भागो। अणंतगुणवड्डिविहत्तिया सव्वजी० केव० भागो ? संखे०भागो। अवहि. [अ] संखेज्जा भागा। अणंताणु० चउक्क० अवतव्व० अणंतिमभागो। सम्म०-सम्मामि० होता है, क्योंकि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करके सम्यक्त्वसे च्युत हुआ जीव मिथ्यात्वमें आकर अनन्तानुबन्धीका बन्ध करके जव उसके सत्त्ववाला होता है तो अवक्तव्य विभक्ति होती है। अनन्तानुबन्धीके शेष पद नियमसे होते हैं। अतः तीन भंग होते हैं। कदाचित सब जीव शेष पद विभक्तिवाले होते है, कदाचित् अनेक जीव शेष पद विभक्तिवाले और एक जीव अवक्तब्य विभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव शेष पद विभक्तिवाले और अनेक जीव अवक्तव्य विभक्तिवाले होते हैं। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी अनन्तगुणहानि, अवस्थित और अवक्तव्य ये तीन पद होते हैं। इनमेंसे अवस्थित पद नियमसे होता है और शेष दो पद विकल्पसे होते हैं, अत: दो पदोंके नौ भंग होते हैं। सामान्य तिर्यञ्चो में सम्यग्मिथ्यात्वका अनन्तगुणहानि पद नहीं होता, अत: एक अवक्तव्य पद विकल्पसे होता है और इसलिये तीन ही भंग होते हैं। आदेशसे नारकियो में छब्बीस प्रकृतियो के दो पद नियमसे होते हैं, और शेष ग्यारह पद विकल्पसे होते हैं। अत: पहले कही गई गाथाके अनुसार ग्यारह अध्रुव पदों के १७७१४६ भंग होते हैं। उनमें एक ध्रुव भंगके मिला देनेसे १७७१४७ कुल भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीके एक अवक्तव्य पदके होनेसे अध्रुव पद बारह होते हैं और बारह अध्रुव पदो के ५३१४४० भंग होते हैं। उनमें एक ध्रुव भंगके मिलानेसे कुल भंग होते हैं। दूसरे आदि नरको में सम्यक्त्व प्रकृतिका अनन्तगुणहानि पद नहीं होता है अत: तीन ही भंग होते हैं। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी एक अवस्थित विभक्ति ही होती है अत: भंग नहीं होते। मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है अत: उसमें सभी प्रकृतियों के सभी पद विकल्पसे होते हैं, अतः छब्बीस प्रकृतियो के तेरह पदो के १५९४३२२ भंग होते हैं, और सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके दो भंग होते हैं-कदाचित् एक जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है. कदाचित अनेक जीव अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। आनतसे लेकर नवग्रेवेयक तक बाईस प्रकृतियों के अनन्तगुणहानि और अवस्थित ये दो पद होते हैं, इनमें अवस्थित पद ध्रुव है और अनन्तगुणहानि पद अध्रुव है अत: तीन भंग होते हैं। अनन्तानुबन्धीमें अनन्तगुण वृद्धि और अवस्थित पद ध्रुव हैं और शेष बारह पद अध्रव हैं, अतः उसमें भंग ५३१४४१ होते हैं। सम्यक्त्व प्रकृतिके अनन्तगुणहानि और अवक्तव्य पद अध्रुव हैं अत: नौ भंग होते हैं और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका केवल एक अवक्तव्य पद अध्रुव है अत: तीन भंग होते हैं। अनुदिशादिकमें सत्ताईस प्रकृतियोंका अवस्थित पद ध्रुव है और अनन्तगुणहानि पद अध्रव है अत: तीन भंग होते हैं। सम्यग्मिथ्यात्वका केवल एक अवस्थित पद ही होता है अतः भंग नहीं होते। ५४७. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे छब्बीस प्रकृतियोंकी पाँच वृद्धि और छह हानि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। अनन्तगुणवृद्धि विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भाग प्रमाण हैं ? संख्यातवें भाग प्रमाण हैं । अवस्थित विभक्तिवाले संख्यात बहुभाग प्रमाण हैं। अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी श्रवक्तव्यविभक्तिवाले अनन्तवें भागप्रमाण हैं। सम्यक्त्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001411
Book TitleKasaypahudam Part 05
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1956
Total Pages438
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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